Thursday, December 31, 2015

फेसबुक के फ्रॉड- 8

हम लोगों सहि‍त सरकार को भी उल्‍लू बनाने में लगा फेसबुक जि‍स बेशर्मी से ये कह रहा है कि 32 लाख लोगों ने ट्राइ को फ्री बेसि‍क्‍स के लि‍ए मैसेज भेजा है, उसमें भी झोल है। स्‍कॉर्ल ने इस मामले में दाहि‍ने बाएं देखा तो ये आंकड़ा पूरी तरह से भ्रामक है। अपने यहां कुल 30 करोड़ लोग इंटरनेट यूज करते हैं और इसमें से कुल साढ़े बारह करोड़ लोग ही फेसबुक यूज करते हैं। साढ़े सत्रह करोड़ ऐसे हैं जो फेसबुक यूज नहीं करते हैं। ट्राइ को जि‍न 32 लाख लोगों से फेसबुक ने फ्रॉड करके मैसेज कराया है, वो इंटरनेट पर मौजूद आबादी का कुल 1.06 फीसद हैं। इंटरनेट पर मौजूद 98.4 फीसद लोग फेसबुक का समर्थन नहीं करते हैं। और तो और, खुद फेसबुक यूजर्स का 97.44 फीसद हि‍स्‍सा फेसबुक के फ्री बेसिक्‍स का समर्थन नहीं करता है और न ही इसने ट्राइ को इस समर्थन में कोई मैसेज भेजा है। ये साधारण गणि‍त है जो रूपेंद्र ने करके दि‍खा दी। फि‍र भी सीना इनका ठीक वैसे ही फूला है, जैसे 30 फीसद वोट पाने के बाद भक्‍तों का फूला था।

मैं बार बार फ्रॉड शब्‍द यूज करता हूं तो इसलि‍ए क्‍योंकि जो चार सौ बीसी हुई है, वो मुझे साफ साफ दि‍खाई दे रही है। इसे आसानी से ऐसे समझा जा सकता है। मैं प्रोफेशनली फेसबुक यूज करता हूं और कुछ पेज हैंडल करता हूं। जैसे फेसबुक ने ट्राइ वाली कैंपेन चलाई, मैं भी दि‍न में कई बार ये कैंपेन चलाता हूं। मेरी कैंपेन ऐसी नहीं होती कि कि‍सी के फेसबुक खोलते ही अचानक मेरी पोस्‍ट का पॉपअप आ जाए। वो नॉर्मली पोस्‍ट के साथ ही आती है जो मेरे पेजों पर की जाती है और इसी का प्रावधान है, पॉपअप का नहीं। फेसबुक ने अपनी कैंपेन के लि‍ए खुद अपने बनाए नि‍यम तोड़ दि‍ए। इतना ही नहीं, सारे फेसबुक यूजर्स की प्रोफाइल पर जो पॉपअप जबरदस्‍ती दि‍खाए गए, वो भ्रामक थे क्‍योंकि उसमें कहीं भी ये साफ नहीं लि‍खा था कि इंटरनेट पर सि‍वाय फेसबुक के और कुछ भी फ्री नहीं होगा। पहली बात तो ये कि इंटरनेट ही नहीं होगा, जो होगा वो फेसबुक ही होगा और फेसबुक के जो सौ दलाल हैं, वो होंगे। मतलब कि वि‍ज्ञापन के जो भी एथि‍क्‍स फेसबुक ने सबके लि‍ए बनाए थे, सबसे पहले उसने अपना वि‍ज्ञापन/धोखाधड़ी करने के लि‍ए तोड़े। अब बेशर्मी से इंटरनेट डॉट ओआरजी का वाइस प्रेसीडेंट कहता है कि हमारी साइट है, हम कुछ भी करें। अब इस बात पर तो कोई चार सौ बीसी का मुकदमा दर्ज कराओ भाई। सबकुछ फेसबुक की वि‍ज्ञापन पॉलि‍सी में लि‍खा हुआ है।

हम लोग, जो नेट न्‍यूट्रैलि‍टी के पैरोकार हैं, हमने अभी तक ट्राइ को 2 लाख ईमेल भेजी हैं जो साफ कहती हैं कि फेसबुक को ऐसी कोई पाइपलाइन नहीं दी जा सकती। फेसबुक डाटा प्रोवाइडर नहीं है। अगर फेसबुक डाटा प्रोवाइडर है तो सारी वेबसाइट्स डाटा प्रोवाइडर हैं। और अगर सारी वेबसाइट्स डाटा प्रोवाइडर हैं तो जि‍तनी भी मोबाइल कंपनि‍यां हैं, उन्‍होंने बोरे में भरकर सरसों का तेल बेचने का धंधा कर लि‍या है और भारत सरकार के कम्‍युनि‍केशन डि‍पार्टमेंट ने तेल की मंडी लगानी शुरू कर दी है। इंटरनेट फ्री करना है, नहीं करना है, कि‍तना फ्री करना है, कि‍तनी स्‍कीम लानी है, कि‍स हि‍साब से टैरि‍फ लगना है, ये काम है ट्राइ का न कि फेसबुक का। अब मैं पूरे यकीन से कहना चाहता हूं कि अमेरि‍का में पि‍छले दि‍नों भांग की बि‍क्री पर से जो रोक हटाई गई, उसका असर मार्क पर अच्‍छे से दि‍खाई दे रहा है।

(जारी...)

फेसबुक के फ्रॉड- 7

अपने यहां ब्‍लाक स्‍तर तक इंटरनेट की कनेक्‍टि‍वि‍टी, उससे मि‍लने वाली लगभग सारी जरूरी सुवि‍धाएं जैसे लेखपाल का हाल, कंपटीशन रि‍जल्‍ट्स, वोटर सर्विस, बीएलओ, ईआरओ, वि‍धायक नि‍धि का हाल चाल, मनरेगा, ग्रामीण आवास योजनाएं, उद्योग बंधु, नि‍वेश मि‍त्र, ब्‍लड डोनर लि‍स्‍ट, टेंडर वगैरह का हाल चाल एनआइसी पहले ही मुहैया करा रही है। क्‍या वजह है कि इसमें से एक भी प्‍वाइंट फेसबुक की फ्री बेसि‍क योजना में नहीं है। एम्‍स और देश के वि‍भि‍न्‍न मेडि‍कल कॉलेज पि‍छले पांच साल से आपस में कनेक्‍ट होने की सफल टेस्‍टिंग कर रहे हैं, इसमें भी फेसबुक अपने फ्री बेसि‍क्‍स से कोई डेवलपमेंट नहीं करना चाहता। बुजुर्गों की पेंशन और छात्रों को जो स्‍कॉलरशि‍प मि‍लनी होती है, एनआइसी पहले से ही सारी जानकारी दे रहा है, लेकि‍न ये भी इस फ्रॉडि‍ए फेसबुक के फ्री बेसि‍क्‍स में नहीं है।

फेसबुक को समझना होगा कि ये साउथ एशि‍या है। चीन जापान से लेकर थाईलैंड, म्‍यामांर और भारत तक में गति में सुगति कछुए की मानी गई है जो गंत्‍व्‍य तक पहुंचाने की गारंटी है। और हमारी जि‍तनी औकात है, हम उतना कर रहे हैं। कम से कम पि‍छले पांच सालों में गावों से आने वाली सैकड़ों हजारों खबरों में लगातार आती एक खबर है कि सरकार गांव गांव में इंटरनेट की बेसि‍क सुवि‍धा मुहैया कराने के लि‍ए ट्रि‍पल पी योजना चला रही है और ये कैफे खुल भी रहे हैं। न सिर्फ खुले हैं बल्‍कि लोगों को इंटरनेट की बेसि‍क सुवि‍धा, जो हमारी खेती कि‍सानी, बैंकिंग से जुड़ी है, मुहैया करा रहे हैं। देश बड़ा है, काम करने वाले तनि‍क स्‍लो हैं, लेकि‍न ऐसा तो बि‍लकुल नहीं है कि काम नहीं हुआ है। कि‍सी भी जि‍ले के डीएम से बात कर लीजि‍ए, वो चुटकि‍यों में बता देगा कि अपने जि‍ले में उसने कि‍तने गावों में कंप्‍यूटर वि‍द इंटरनेट वि‍द ट्रेंड परसन फि‍ट कर दि‍ए हैं। फि‍टनेस के इस जमीनी काम का फेसबुक कहीं जि‍क्र भी जरूरी नहीं समझता।

सवाल उठता है कि क्‍यों? फ्री बेसिक्‍स में फेसबुक का कहना है कि वो सारी कमाई वि‍ज्ञापन के जरि‍ए करेगा। वि‍ज्ञापन बाजार का सीधा सा ट्रेंड है कि उनने वहीं पहुंचना है जहां उनका ग्राहक है। इसके अलावा उन्‍हें उनसे बाल बराबर भी मतलब नहीं, जो उनका ग्राहक नहीं है। ये ऊपर इंटरनेट से जुड़ी जि‍तनी चीजें बताई हैं, इन्‍हें प्रयोग करने वाले आज के बाजार के ग्राहक नहीं है। इन सारी योजनाओं से जि‍नका काम पड़ता है, उनका काम टोयेटा से लेकर नौकरी डॉट कॉम या फ्लि‍पकार्ट, डव शैंपू, जि‍लेट रेजर जैसी चीजों से आलमोस्‍ट नहीं ही पड़ता है। वो ईंट पर बैठकर दाढ़ी बनवाने वाले लोग हैं और बनाने वाले भी। यहां वि‍ज्ञापन का मार्केट नहीं है इसलि‍ए जो वाकई में फ्री बेसि‍क्‍स है, वो फ्रॉड फेसबुक के फ्री बेसि‍क्‍स में शामि‍ल नहीं है।


(जारी...)

फेसबुक के फ्रॉड- 6

खुद को दलि‍तों का नया मसीहा, पि‍छड़ों का तार्किक भगवान और वंचि‍तों का वि‍ष्‍णु समझने वाले कह रहे हैं कि फेसबुकि‍या फ्रॉड फ्री बेसि‍क्‍स पर उन्‍हें फि‍र फि‍र सोचना पड़ेगा क्‍योंकि उन्‍हें लगता है कि ये एक बड़ी आबादी की आवाज बुलंद करने का माध्‍यम हो सकता है। अबे अंबेडकर के आठवें झूठे अवतार, एक बेसि‍क बात तुम्‍हरी समझ में आती है या नहीं कि फेसबुक की फ्री सौ साइट बनाम दूसरी फ्री करोड़ों साइट्स का मामला है। या फि‍र जो नासमझी तुमने जबरदस्‍ती जाति के नाम पर ओढ़ रखी है, कोई कहेगा भी तो हटाओगे नहीं कि तुमको जाति वि‍शेष का कुछ वि‍शेष फायदा मि‍लता है

अबे इतनी भी बेसि‍क बात समझ में तुम्‍हारी नहीं आ रही है कि फ्री बेसि‍क्‍स के नाम पर कुछ भी फ्री नहीं है, अगर कुछ फ्री है तो वो तुम्‍हारा वक्‍त है जि‍से तुम समाज में कहीं कि‍तने कार्यक्रमों में लगा सकते थे, कि‍तनी बातें कर सकते थे, लेकि‍न वो सबकुछ करने का तुम्‍हारा सपना फेसबुक एक फ्री के अनफ्री मायाजाल में लपेटकर खत्‍म कर रहा है। अबे फैशनेबल दलि‍त बुद्धजीवी के बाल, कब समझोगे कि पूंजीवाद कतई नहीं चाहता कि तुम एकदूसरे के आमने सामने आकर बात करो।

इंटरनेट पर वायरल होने के लि‍ए गूगल के कीवर्ड से भ्रष्‍टाचार का सपना संजोने वाले, अबे शर्म तो तुमको पहले भी नहीं आती थी कि दलि‍त होने के नाते जो चाहो उल्‍टा सीधा बोल लो जो अत्‍याचार के बहाने बेशर्मी से जायज ठहराओ, लेकि‍न तकनीकी समझ तुममें तब भी नहीं थी और अब भी नहीं है। खासकर जब तुम ये बोलते हो कि तुम देखेगो। अबे घंटापरसाद, मोटा मोटा भी तुम्‍हारी समझ में नहीं आता कि एक का समर्थन करने पर तुम्‍हरे हाथ से दूसरे करोड़ों प्‍लेटफॉर्म छीने जा रहे हैं?उनको यूज करने का अभी का समान रेट डि‍सबैलेंस कि‍या जाने की तैयारी है? ससुर तुम्‍हरी बुद्धी का भगवान बुद्ध भी ठीक ना कर पाएंगे।


(जारी...)

फेसबुक के फ्रॉड- 5

मैं सोच रहा हूं उस वक्‍त और उस वक्‍त के रि‍जल्‍ट्स के बारे में, जब भारत के आम चुनाव कब होने चाहि‍ए, कैसे होने चाहि‍ए और क्‍यों होने चाहि‍ए और उसका रि‍जल्‍ट क्‍या होना चाहि‍ए, फेसबुक इस बारे में हमारे यहां के हर मॉल, नुक्‍कड़ और सड़कों पर बड़ी बड़ी होर्डिंग्‍स लगाएगा। यकीन मानि‍ए, तब भी उसका यही कहना होगा कि वो जो कुछ कह रहा है, सही कह रहा है क्‍योंकि उसके पास भारत में पौने एक अरब यूजर्स हैं। मेरी मांग है कि मुझे कान के नीचे खींचकर एक जोरदार रहपटा लगाया जाए ताकि मैं इस तरह की वीभत्‍स और डरा देने वाली सोच से बाहर आ सकूं। मेरे देश के लोगों के अंग वि‍शेष पर उगे बाल बराबर भी नहीं है ये कंपनी और कि‍सी देश के बारे में ऐसा सोच रही है...एक्‍चुअली हम ही ढक्‍कन हैं और सिर्फ घंटा बजाने लायक हैं, अक्‍सर थामने लायक भी।

ये पौने एक से एक अरब लोग भी उसी धोखेबाजी का शि‍कार होंगे, जि‍स धोखेबाजी को यूज करके फेसबुक ने ट्राइ को 32 लाख लोगों से मैसेज भेजवा दि‍ए और जि‍नने ये मैसेज भेजे, उन्‍हें ये पता ही नहीं कि ये मैसेब भेजवाकर फेसबुक आखि‍र करना क्‍या चाहता है। इतना ही नहीं, लोगों से धोखे से ट्राइ को मैसेज भेजवाकर बाकायदा प्रचार भी कि‍या जा रहा है कि इतने लोगों ने मैसेज भेजे। ये तो वही बात हुई कि आपके फेसबुक पर कहीं कि‍सी कोने से नि‍कलकर एक बक्‍सा (पॉपअप) सामने आए जि‍समें ये लि‍खा हो कि आप वि‍कास चाहते हैं या वि‍नाश। ठीक उसी तरह से जैसे अभी की धोखाधड़ी फेसबुक ने 32 लाख लोगों से की कि आप फ्री में नेट चाहते हैं या पैसे देकर? जाहि‍र है कि आप वि‍कास को ही वोट देंगे और जहां आपने वि‍कास को वोट दि‍या, वो वोट सीधे मोदी से कनेक्‍ट हो जाएगा कि भैया, वि‍कास तो पप्‍पा ही पैदा कर सकते हैं। या फि‍र उस पार्टी से, जो कम्‍युनि‍केशन के इस गड़बड़घोटाले का समर्थन करता हो। इंडि‍यल आइडि‍यल की तरह इंडि‍यन प्राइम मिनि‍स्‍टर के लि‍ए कुछ तय समय के लि‍ए लाइन खुलेंगी और इसी से हमारे इस महान लोकतंत्र की मां चो***ने के बाद नया प्रधानमंत्री पैदा होगा। (शब्‍दों के लि‍ए माफी, पर कभी तो गुस्‍सा नि‍कालने दीजि‍ए)

मि‍स्र की घटना के बाद फेसबुक की इस हवाई आकांक्षा को और बल मि‍ला है कि वो परि‍वर्तन ला सकता है लेकि‍न ईमानदारी से दि‍ल पर हाथ रखकर कोई मुझसे कनफेस करे कि मि‍स्र में क्‍या सच में फेसबुक की वजह से बदलाव आया? और इतना ही बदलाव पर यकीन था तो जि‍तना पि‍छड़ा अफ्रीका और भारत है, मि‍स्र उससे भी कहीं ज्‍यादा पि‍छड़ा और बदलाव का इंतजार कर रहा है, वहां क्‍यों नहीं पहले इस योजना को लॉन्‍च कि‍या गया। जाहि‍र है, पूंजी अपनी अंर्तव्‍यवस्‍थात्‍मक समाज में कहीं भी कोई बदलाव अगर देखना चाहती है तो वो चेतना तो कतई नहीं हो सकती है, अर्धचेतनात्‍मक नशा जरूर हो सकता है... फेसबुक और क्‍या है भाई लोग?

(जारी...)

फेसबुक के फ्रॉड- 4

अब इसका क्‍या करेंगे? देशभर में जि‍न तीन कंपनि‍यों के खि‍लाफ हम लोगों सहि‍त प्राइवेट कंपनि‍यों और सरकारी वि‍भागों ने सबसे ज्‍यादा शि‍कायत की है, वो एयरटेल, रि‍लायंस और वोडाफोन है। इनकी कहानी तो याद होगी। रि‍लायंस भारत में इस फ्री के फ्रॉड के साथ साझेदारी कर रहा है तो अफ्रीका में एयरटेल पहि‍लेन फेसबुक के साथ फ्रॉड इंटरनेट डॉट ओआरजी लॉन्‍च कर चुका है और यहां भी कि‍सी न कि‍सी तरह से (चाहे सरकार में पैसे खि‍लाकर लांबिंग हो) अपना हि‍स्‍सा बनाएगा। अगर फेसबुक फ्री बेसि‍क्‍स का फ्रॉड काम कर गया तो पड़े करते रहि‍ए इनके खि‍लाफ शि‍कायत, ये घंटा कुछ नहीं करने वाले। अभी भी कौन सा कुछ कर ही दे रहे हैं। कॉल ड्रॉप पर कोर्ट की कइयो फटकार के बावजूद क्‍या कॉल ड्रॉप होनी बंद हो गई?

अब जरा फ्री के माल की भी बात हो जाए। कि‍तने लोगों को याद होगा कि वोडाफोन ने दि‍वाली में एक एसएमएस करने पर 400 एमबी की स्‍कीम चलाई थी। एयरसेल का कनेक्‍शन लेने पे 65केबीपीएस की स्‍पीड पर तीन महीने के लि‍ए फ्री इंटरनेट एक्‍सेस मि‍लती है। फ्री की या बहुत कम पैसे में इंटरनेट की सुवि‍धा अभी भी मि‍ल रही है। वैसे फ्री का एक फंडा और है जो पिंटू पंडि‍त की कहानी से ज्‍यादा अच्‍छे से समझ में आएगा। गांव में रहने वाले पिंटू पंडि‍त ( Ajay Tiwari) को रीचार्ज महंगा पड़ता है और नए सिम पर मि‍लने वाली स्‍कीम का रीचार्ज सस्‍ता। तो वो हर रीचार्ज पर सिम बदल देते हैं। इंटरनेट वाली बात अभी उन्‍हें शायद पता नहीं है नहीं तो वो हर तीसरे महीने सि‍म बदलेंगे और साल में चार सिम बदलकर फ्री नेट यूज करेंगे।

इंटरनेट के इस यूज पर कंपनी कुछ नहीं कर सकती है क्‍योंकि उसे तो अपनी स्‍कीम चलानी है। सि‍म का रेट कि‍तना सस्‍ता होता है ये हम सभी जानते हैं। ऐसा सिर्फ हमारे देश में ही नहीं है बल्‍कि बांग्‍लादेश, अफ्रीका सहि‍त बहुतेरे देशों में मोबाइल कंपनि‍यां इस तरह की स्‍कीम देती हैं। हमारे देश में इतना सबकुछ है तो फेसबुक स्‍पेशली अपनी टांग काहे अड़ा रहा है और फ्री के नाम का गोरखधंधा काहे कर रहा है। मार्क की नाक पर मक्‍खी की तरह जड़े नि‍खि‍ल भाई पूछते हैं कि चच्‍चा एक बात बताओ, फ्री बेसि‍क्‍स में सिर्फ सौ साइट ही काहे? बाकी सब का गुनाह कि‍ए रहे कि उनको नहीं देखा रहे हैं? सीधी बात है कि इंटरनेट फ्री होना है या नहीं होना है, ये मोबाइल कंपनि‍यों का काम है न कि फेसबुक का!

(जारी...)

Wednesday, December 30, 2015

फेसबुक के फ्रॉड- 3

फेसबुक कह रहा है कि भारत में उसके बहुत ज्‍यादा यूजर्स हैं, इसलि‍ए फ्री बेसि‍क्‍स का अधि‍कार उसे मि‍लना चाहि‍ए। अंबानी अंकल का हाथ है तो पैसे की कोई कमी नहीं। फ्री बेसि‍क्‍स के लि‍ए फेसबुक ने भारत में जो एड कैंपेन चलाई, उसपर सौ करोड़ रुपये (सोर्स-द वायर) से भी ज्‍यादा खर्च कि‍या जा चुका है और अभी और भी खर्च होंगे। ये सारा का सारा पैसा भारतीयों को सिर्फ उल्‍लू बनाने के लि‍ए खर्च हो रहा है। क्‍या इतनी सी बात कि‍सी को सोचने पर मजबूर नहीं करती कि आखि‍र वो कौन सा फ्री प्‍लेटफॉर्म होगा, जि‍सके वि‍ज्ञापन पर एक अरब रुपए से ज्‍यादा खर्च कर दि‍या गया है और जि‍सकी लाइन बनाने बि‍छाने में अरबों रुपए खर्च होंगे? और इतने खर्च के बाद वो कौन सा धर्म होगा, जि‍सके खाते में सारा पुण्‍य बटोरने की कोशि‍श की जा रही है? रही बात यूजर्स की तो कुछ कम ज्‍यादा के साथ देश में फेसबुक के तकरीबन 125 मि‍लि‍यन यूजर्स हैं जबकि गूगल के 354 मि‍लि‍यन। गूगल तो फ्री की मांग नहीं कर रहा।

जाहि‍र है कि ये हार्डकोर बि‍जनेस है। बड़ा बि‍जनेस प्‍लान है तो बड़ी पूंजी भी लगाई जा रही है। बड़े बि‍जनेस मैन भी इसमें अपनी टांग अड़ा रहे हैं। जानकारी के लि‍ए, दुनि‍याभर में इंटरनेट पर जि‍तनी भी कंपनि‍यां जि‍तने तरह का धंधा कर रही हैं, डाटा यूजेस के आधार पर उनका सारा धंधा पेड होते हुए भी फ्री है। सरल शब्‍दों में समझें कि जब हम गूगल खोलें या वि‍कीपीडि‍या, हम समान डाटा प्रयोग करते हैं और अपने प्रयोग के आधार पर उसके पैसे देते हैं। फेसबुक चाहता है कि ये डाटा का प्रयोग उसके लि‍ए फ्री हो और बाकी के लि‍ए पेड।

इस फ्री प्‍लेटफॉर्म पर फेसबुक दुनि‍या भर के वि‍ज्ञापन दि‍खाने जा रहा है। इन वि‍ज्ञापनों को देखना पूरी तरह से फ्री होगा क्‍योंकि डाटा डाउनलोडिंग का कोई चार्ज नहीं लगेगा। अगर कि‍सी ने भूले से भी इन वि‍ज्ञापनों पर क्‍लि‍क करके कुछ ज्‍यादा जानने की कोशि‍श की तो अंबानी अंकल का प्‍लान इस स्‍टेप के आगे काम करने वाला है। अंबानी चच्‍चा ने ट्राइ को जो प्‍लान दि‍या है, उसमें गूगल के अलग तो फ्लि‍पकार्ट के लि‍ए अलग डाटा यूजेस तो फलां के लि‍ए अलग तो ढि‍मके के लि‍ए अलग चार्ज करने वाले हैं। सुख की सांस लीजि‍ए कि ट्राइ ने इसे मना कर दि‍या है।

कुछ समझे? मने फ्री बेसि‍क्‍स के नाम पर बाकी सारी चीजों के डाटा यूजेस के रेट डि‍स्‍बैलेंस कि‍ए जाने वाले हैं।



(जारी...)

फेसबुक के फ्रॉड- 2

आखि‍र क्‍या बात है जो मेनस्‍ट्रीम मीडि‍या फेसबुक के इस कदम का खुलकर वि‍रोध नहीं कर पा रहा है। जो मेरी समझ में आ रहा है, उसमें दो बातें हैं। एक तो मेनस्‍ट्रीम मीडि‍या की समझदानी इंटरनेट को लेकर अभी बहुत ही कमजोर है। दसूरी ये कि मीडि‍या मालि‍क पहले भी चुपचाप दलाली कि‍या करते थे और इस बार भी इस बड़ी दलाली में हि‍स्‍सा पाने का ख्‍़वाब देख रहे हैं। वैसे चिंता की कोई बात नहीं है, फेसबुक ज्‍यादा बड़ा वाला है, वो खुद से जुड़ रहे मीडि‍यावालों को कोई इनकम नहीं देने वाला।

पहले ये जान लें कि देश से कौन कौन फेसबुक के इस धोखे के साथ जुड़ चुका है। फेसबुक के मुताबि‍क बीबीसी, इंडि‍या टुडे, नेटवर्क 18, एक्‍यूवेदर, बिंग सहि‍त सौ से अधि‍क मीडि‍या हाउस इससे उस लालच में जुड़े हैं जो उन्‍हें पक्‍का लंबलेट करने वाला है। फ्री बेसि‍क्‍स के नाम पर जो पाइपलाइन बनेगी, उसमें इन सब मीडि‍या हाउसों को अपना कंटेंट डालने की सुवि‍धा दी जाएगी। अभी जि‍स तरह से फेसबुक कि‍सी भी चीज को प्रमोट करने के लि‍ए पैसे ले रहा है, वो वहां भी बदस्‍तूर जारी रहेगा। कंटेंट के साथ हर मीडि‍या हाउस अपनी साइट का लिंक डालेगा क्‍योंकि यूजर को साइट पर आमंत्रि‍त करना ही सोशल मीडि‍या का मूल व्‍यवसायि‍क उद्देश्‍य है, लेकि‍न यूजर फ्री के चक्‍कर में उसपर क्‍लि‍क ही नहीं करने वाला। (अभी भी नहीं करता है) यूजर अगर उस लि‍ंक्‍स पर क्‍लि‍क करेगा तो उसे उस साइट पर जाने के लि‍ए डाटा डाउनलोडिंग के पैसे देने होंगे। उसपर जो वि‍ज्ञापन चलेंगे, उसका होलसोल राइट फेसबुक और रि‍लायंस के पास ही है, एफबी ये पहले ही स्‍पष्‍ट कर चुका है।

अब जरा देखते हैं कि फ्री के नाम पर क्‍या फ्री नहीं हुआ। गूगल, यूट्यूब( अमेजॉन, फ्लि‍पकार्ट, याहू, लिंक्‍डइन, ट्वि‍टर, एचडीएफसी, आइसीआइसीआइ, पेटीएम, ईबे, आइआरसीटीसी, रेडिफ, स्‍नैपडील, एनएसई, बीएसई जैसी सैकड़ों चीजें हैं जि‍न्‍हें इंटरनेट यूज करने वालाा आम यूज रोजाना यूज करता है, ये फ्री नहीं होने वाली। इतना ही नहीं, सरकार की कोई भी साइट फि‍र चाहे वो चकबंदी की हो या जनसंख्‍या की या वाहन चोरी कराने की ऑनलाइन रि‍पोर्ट कराने की, इस जैसी सैकड़ों सुवि‍धाएं भी फ्री नहीं होने वाली हैं।


(जारी...) 

फेसबुक के फ्रॉड- 1

बराबरी का एक ही मतलब होता है दस नहीं। कान के नीचे खींच के रहपट धरे जाने का काम कर रहे फेसबुक के मालि‍क मार्क ज़करबर्ग से पूछेंगे तो वो सत्‍तर और मतलब बता देंगे कि बराबरी ये भी होती है, वो भी होती है और जो कुछ भी वाया फेसबुक हो, वही होती है। बराबरी के सत्‍तर गैरबराबर कुतर्क जि‍से वो फ्री बेसि‍क्‍स का नाम देकर हमपर थोपना चाह रहे हैं, उसके लि‍ए वो हर कि‍सी के बराबर से इतना गि‍र गए हैं कि उन्‍हें नीच कहना नीचता को मुंह चि‍ढ़ाना होगा।

मार्क अब तक भारत के 32 लाख लोगों को धोखा दे चुके हैं। धोखा ऐसे कि उन्‍होंने 32 लाख फेसबुक यूजर्स के सामने फ्री बेसि‍क्‍स का पॉपअप जबरदस्‍ती दि‍खाया। हर चीज फ्री में चाहने के अंधे हम लोग उसपर क्‍लि‍क करते गए। ये हमने जानने की कोशि‍श ही नहीं की कि फ्री में हमें ये चीजें कैसे मि‍लेंगी और जो चीजें फ्री में मि‍लेंगी, वो कैसी होंगी। वैसे भी बछि‍या भले बांझ हो, लेकि‍न दान में मि‍लती है तो घंटा कोई उसका दांत गि‍नेगा।

ट्राइ ने फ्री बेसि‍क्‍स के पॉपअप पर रोक लगाई, बोला कि बंद करो ये लंतरानी, ये यहां काम नहीं आनी। उसके बावजूद ये अभी तक कायम है, जि‍सपर कानूनी कार्रवाई बनती है, करेगा कौन ये सामने आना बाकी है। रोक के बाद मार्क ने इसे सड़क की लड़ाई बना हजारों बोर्डिंग्‍स लगा दि‍ए, करोड़ों रुपए वि‍ज्ञापन में बहा दि‍ए। 32 लाख लोगों काे उल्‍लू बनाने के बाद जब लोगों ने वि‍रोध करना शुरू कि‍या तो मार्क कहते हैं कि ये बात उनकी समझदानी से बाहर है कि लोग वि‍रोध क्‍यों कर रहे हैं।

अगर भारत में कुछ फ्री होना ही है तो वो जो पहले से ही इंटरनेट पर मौजूद है, जैसे सरकार से जुड़े सभी वि‍भागों की साइट न कि फेसबुक। स्‍वास्‍थ्‍य और सुरक्षा से जुड़े सारे सरकारी एप्‍स फ्री होने हैं न कि फेसबुक का एप। माना कि हम भारतीय बहुत बड़े वाले बकचोद हैं लेकि‍न इतने भी नहीं कि हमेशा यही कि‍या करें और सिर्फ फेसबुक पर ही कि‍या करें।


(जारी...)

Tuesday, December 29, 2015

मिलेगा तो देखेंगे - 16

आने के अपने रंग थे और जाने के अपने रंग। अपने आप में यूनीक। अपने आप में ही घुलते जाते। दुनि‍या थी कि स्‍थि‍र हुई जाती थी, आदमी था कि सपनों के सत्‍तर रंगों पर बि‍छलाता तैरता जाता था। सांस तो थी लेकि‍न उसे लेने की जरूरत नहीं थी। औरत सामने वलय में केंद्रि‍त खड़ी थी पर उसे भी देखने की जरूरत नहीं थी। समय के उस हि‍स्‍से का सारा चेतन जड़ गया था। पेड़ों के पत्‍तों ने गि‍रने के लि‍ए पतझड़ का इंतजार करना बंद कर दि‍या था। नदी बहने से पहले बनाई जाने लगी थी। पक्षी उड़ने के पहले उकेरे जाने लगे थे। घड़ि‍यां थीं कि गल गल कर गि‍री जाती थीं और बार बार इसी टपकनवस्‍था में कि‍सी पेड़ से या गि‍रि‍जे के पेंडलुम से लटकी नजर आती थीं। सि‍तारे रात पर जो रेखा खींचते थे कि दस साल पहले का पीला चांद दोनों हथेलि‍यों में लेकर भी अपनी वो खुरदुराहट और गड्ढे जि‍स बेकदरी से छुपाता था, उसका कहीं कोई चि‍त्र उन सि‍तारों ने बनाने से ही मना कर दि‍या। आदमी था कि बार बार उड़ने की बात करता था और बार बार अपने उसी गड्ढे में गि‍रा पड़ा रहता था, जो उसे पैताने पर पैर मसल मसलकर बेवक्‍त जगाता रहता था। 

लड़की से मेरा नैति‍क-अनैति‍क कि‍सी तरह का संबंध!

मैं सुखी हूं। बस रोज नाश्‍ते के वक्‍त मोहनजोदड़ो के वक्‍त का फ्रि‍ज खोलकर उसमें अनंत को देखते हुए पाता हूं कि कल फि‍र अंडा लाना भूल गया। तले गए तेल की तरह खुद खराब करता हुआ कि‍सी तरह से मैं उसका दरवाजा ओटगा देता हूं कि पता चलता है कि धुंआ धुंआ से छाए लोग ऐवें ही धुंआ हो लेते हैं। दिमाग़ ठीक है, नींद आती है। सोने से जगाने और सहलाने के लि‍ए एक ठो बि‍लार भी मि‍ली हुई है। आह मि‍स्‍टर सींग पि‍रोकर मारने वाले मि‍स्‍टर मोद (ओद भी), आप सुन रहे हैं ना मेरे सुख की पराकाष्‍ठा। प्‍लीज कोई संधि और वि‍च्‍छेद न करि‍एगा।

वापसी का कोई संकट कि‍सी भी वि‍कट व अकट रूप में मेरे सामने नहीं है क्‍योंकि अम्‍मा पहि‍ले ही बोल दी हैं कि बच्‍चा फैइजाबाद न आना, आना हो तो कहीं और जाना। मनोरमा मउसी उसमें और धार लगाईं कि बच्‍चा, जहां हो, वहां से भी दस सौ मील दूर चले जाना। तुम्‍हरी परछांई में भी ऊ सहर नहीं नजर आना चहि‍ए। इसका बावजूद मेरे जैइसा माथे से पैदल और दि‍ल से कंगाल आदमी फि‍र औ फि‍र फि‍र से हर दुसरके महीना चहुंप जाता है फैइजाबाद। डेटिंग पे।

सोचता हूं तो लगता है सब गजबे है। शशिभूषण जैसे प्रति‍भाशाली मेरे मि‍त्र हैं जो कभी तीन में उलट जाते हैं तो कभी तेरह में उलझे बलझे रंजनाए पंड़ि‍याए रहते हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि बाकायदा भारतवासी को पैइसा देके मेरे अशुभ दि‍नों की अनंत गाथाओं की पराधुनि‍क डायरी छपवानी चाहि‍ए। ऐसी डायरी, जि‍समें मैं महि‍लाओं से पूछ पूछ कर लि‍खूं कि जब वो कुछ नहीं कर्र रही होती हैं तो क्‍या कर्र रही होती हैं..

मेरे दस सुलगते हुए साल जि‍सका निर्मल वर्मा के गद्य से कुछ लेना देना नहीं है, सवाल भी होते तो क्‍या कर लेते। निर्मल वर्मा कौन मुझसे मत पूछि‍ए। मैं जेएनयू में नहीं पढ़ा हूं नहीं तो पंजाबी बोलने वाली कि‍सी लड़की से मेरा नैति‍क-अनैति‍क कि‍सी तरह का संबंध होता।

ज्‍यादातर लोग मुझे अलकतरे का पि‍छवाड़ा मानते दि‍खाते रहते हैं... मुझे लगता है कि वो हांफते नहीं होंगे।

नीलाभ ने तो कह दि‍या था, 'अरे चूति‍ए से बात करनी पड़ेगी'। पंकज हमेशा बात न करने की शि‍कायत कि‍या करते थे।

सि‍कायत फि‍कायत से बस सब पता चलता रहता है। राम जी के रोटी वाले आलू मोहारे के पूरब वाले चबूतरा पे चढ़के कहते हैं कि दस का बड़का वाला गद्य इन्भेन्ट कर के ओस्को पतनसील किम्बा दुर्दिन में खामोसी नाम दिया तो अच्छे किया. अइसा बिधा के ई बिधायक लोग हत्ना ओपकार किया है कि पाखियो में गर्दावाला साहित्त को बिस्वास मूलक छाती का मक्खन लगाने लगा. हम तो बूझे कवनो तो अपना बाती में फैजाबादी अंजाद मारेगा, बलकू देख देख कर रहिये ओझिरा गया. एक लम्बर का इमन्दार भी ई नहीं बोला कि मंगरू मंडी हाउस पे झगेरू का बाहीं उमिठा के मारा तो झगेरू बीमारो थे। जब ज्योनानन्द मर के चल गयले त ओनके बारे में झुट्ठे बतकुच्चन का सागर फैलाया ऊपर से ईहो बोल दिया कि बसेसर बाबू हमारा हतना कर्जा खाके चम्पती हो गया। मरला क बाद सबका मुंह में अपना बात घुसाया, मेहरारू क बात किया अउर भ्रान्ती क लापटे झासख़ास सिया वररामचननर किजै।

(मेरे अशुभ दि‍नों की अनंत गाथाओं की पराधुनि‍क डायरी-3)

Thursday, December 24, 2015

कहानी उस ताखे पर है, जि‍सको घुटना कहते हैं

मेरे लड़कपन का प्रेम मेरी काजोल न होती तो क्‍या होता।
 कहानी मत देखि‍ए, काजोल को देखि‍ए। 
गुलाबी गाड़ी, पीली साड़ी, सूनसान सड़क, बरसात बेधड़क, पलटती लड़की, दि‍ल की खि‍ड़की, धूम धूम धांय धांय, मि‍लना बि‍छड़ना, फि‍र से बि‍गड़ना, बि‍गड़ के मि‍लना... क्‍या नहीं है इस फि‍ल्‍म में। उड़ती रॉल्‍स रॉयस और जुल्‍फों ने फि‍ल्‍म को ऐसा उड़ाया है कि अभी तक उड़ ही रही है, जमीन पर नहीं आई है। शर्म तो नहीं आ रही होगी शेट्टी भाई, थोड़ी बेशर्मी हम सबको भी देते जाओ, तीन सिटिंग में पूरी फि‍ल्‍म देख लेंगे। इतने तो दि‍लवाले हम भी हैं।

काली, राज, किंग, फूल, पत्‍ती, धूल, कार, सवार, प्‍यार, जीत-हार से लेकर संजय मि‍श्रा तक बोर हैं, जॉनी भाई भी चुके हुए लोगों के साथ कितना कर लेंगे। एक धागे में दस सुई डाल के सि‍लाई नहीं होती लेकि‍न पैसे हों तो दि‍लवाले जैसी होती है। अपने अफ्रीका वाले जेमी भाई तो जीवित हैं नहीं, कम से कम उनकी बनाई फि‍ल्‍में देखकर ही सीख लेते मेरे शरम शेट्टी।

नहले पे दहला, सगा सौतेला, सेट अलबेला सब डाल दि‍या और कहानी निकालकर उस ताखे पर रख दी जो घुटने में होती है। मेरे लड़कपन का प्रेम मेरी काजोल न होती तो क्‍या होता। कहानी मत देखि‍ए, काजोल को देखि‍ए। संतोष करि‍ए, असंतोष नहीं। इसे भी फि‍ल्‍म कहते हैं। बस।

इसे ही कभी घुसी कभी कम कहते हैं।

Wednesday, December 23, 2015

लकवाग्रस्‍त प्रोफेसर से डरी सरकार और अदालतें: अरुंधति रॉय

व्हीलचेयर पर चलनेवाले इस लकवाग्रस्त अकादमीशियन से सरकार इतनी डरी हुई है, कि उसकी गिरफ्तारी के लिए उसे उसका अपहरण करना पड़ा. आउटलुक में प्रकाशित इस विशेष निबंध में अरुंधति रॉय ऑपरेशन ग्रीन हंट और उसके शहरी अवतार के हवाले से डॉ. जी. एन. साईबाबा की कैद के बारे में बता रही हैं, जिसने उनकी जिंदगी के लिए एक गंभीर खतरा भी पैदा कर दिया है. बजार पर इस लेख को लगाने का उद्देश्‍य यह है कि इसे लि‍खने के लि‍ए कोर्ट ने अरुंधति पर भी केस चलाने का आदेश दि‍या है। कोर्ट से अनुरोध है कि बजार के मॉडरेटर पर भी इसे पब्‍लि‍श करने का केस चलाए। 
अनुवाद: रेयाज उल हक.

9 मई 2015 को एक साल हो जाएगा, जब दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में अंग्रेजी के लेक्चरर, डॉ. जी.एन. साईबाबा को काम से घर लौटते हुए अनजान लोगों ने अगवा कर लिया. जब उनके पति लापता हुए और उनका फोन नहीं लग रहा था तो डॉ. साईबाबा की पत्नी वसंता ने स्थानीय थाने में गुमशुदगी की शिकायत दर्ज कराई. आगे चल कर उन अनजान लोगों ने अपनी पहचान महाराष्ट्र पुलिस के रूप में जाहिर की और बताया कि वह अपहरण, एक गिरफ्तारी थी.

आखिर उन्हें इस तरह से अगवा क्यों करना पड़ा, जबकि वे उन्हें औपचारिक रूप से गिरफ्तार कर सकते थे? उस प्रोफेसर को जो व्हीलचेयर पर चलते हैं क्योंकि पांच बरस की उम्र से अपनी कमर के नीचे लकवे के शिकार हैं. इसकी दो वजहें हैं: पहली कि वे अपने पहले के दौरों की वजह से ये जानते थे कि अगर वे दिल्ली विश्वविद्यालय में उनके घर से उन्हें उठाने जाएंगे तो उन्हें क्रुद्ध लोगों की एक भीड़ से निबटना पड़ेगा - वे प्रोफेसर, कार्यकर्ता और छात्र जो प्रोफेसर साईबाबा से प्यार करते हैं और उन्हें पसंद करते हैं, सिर्फ इसलिए नहीं कि वे एक समर्पित शिक्षक थे, बल्कि दुनिया के बारे में उनके बेखौफ राजनीतिक नजरिए की वजह से भी. दूसरी वजह, क्योंकि अपहरण करने पर यह बात ऐसी दिखेगी मानो महज अपनी चतुराई और साहस से लैस होकर, उन्होंने एक खतरनाक आतंकवादी का सुराग लगा लिया हो और उसको पकड़ लिया हो. हालांकि सच्चाई कहीं ज्यादा नीरस है. हममें से अनेक लोग यह लंबे समय से जानते थे कि प्रोफेसर साईबाबा को गिरफ्तार किए जाने की आशंका है. कई महीनों से यह एक खुली चर्चा का मुद्दा था. इन महीनों में कभी भी, उनको अगवा किए जाने के दिन तक यह बात न तो उनके खयाल में आई और न किसी और के, कि उन्हें इसका सामना करने के बजाए कुछ और करना चाहिए. असल में, इस दौरान उन्होंने ज्यादा मेहनत की और पॉलिटिक्स ऑफ द डिसिप्लिन ऑफ इंडियन इंगलिश राइटिंग (भारतीय अंग्रेजी लेखन में अनुशासन की राजनीति) पर अपना पीएच.डी. का काम पूरा किया.

हमें क्यों लगा था कि वे गिरफ्तार कर लिए जाएंगे? उनका जुर्म क्या था?

सितंबर 2009 में, तब के गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने लाल गलियारे (रेड कॉरीडोर) के रूप में जाने जानेवाले इलाके में, ऑपरेशन ग्रीन हंट कही जानेवाली एक जंग का ऐलान किया था. इसका प्रचार किया गया कि यह मध्य भारत के जंगलों में माओवादी 'आतंकवादियों' के खिलाफ अर्धसैनिक बलों का सफाया अभियान है. हकीकत में, यह उस लड़ाई का आधिकारिक नाम था, जो राज्य प्रायोजित हत्यारे दस्तों (बस्तर में सलवा जुडूम और दूसरे राज्यों में कोई नाम नहीं) द्वारा दुश्मन के काम में आने वाली हर चीज को तबाह करने की लड़ाई रही है. उनको दिया गया हुक्म, जंगल को इसके तकलीफदेह निवासियों से खाली करने का था, ताकि खनन और बुनियादी निर्माण के कामों में लगे कॉरपोरेशन अपनी रुकी हुई परियोजनाओं को आगे बढ़ा सकें. इस तथ्य से तब की यूपीए सरकार को कोई परेशानी नहीं हुई कि आदिवासी जमीन को निजी कंपनियों के हाथों बेचना गैरकानूनी और असंवैधानिक है. (मौजूदा सरकार के नए भूमि अधिग्रहण अधिनियम में उस गैर कानूनियत को कानून में बदलने की पेशकश की गई है.) हत्यारे दस्तों के साथ-साथ हजारों अर्धसैनिक बलों ने हमला किया, गांव जलाए, गांववालों की हत्या की और औरतों का बलात्कार किया. दसियों हजार आदिवासियों को अपने घरों से भाग कर जंगल में खुले आसमान के नीचे पनाह लेने के लिए मजबूर किया गया. इस बेरहमी के खिलाफ जवाबी कार्रवाई करते हुए सैकड़ों स्थानीय लोग जनमुक्ति छापामार सेना (पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी) में शामिल हुए, जिसे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने खड़ा किया है. यह वो पार्टी है, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मशहूर तरीके से भारत की 'आंतरिक सुरक्षा का अकेला सबसे बड़ा खतरा' बताया था. अब भी, इस पूरे इलाके में उथल-पुथल बरकरार है, जिसे गृह युद्ध कहा जा सकता है.

जैसा कि किसी भी दीर्घकालिक युद्ध में होता है, हालात सीधे-सरल होने से कहीं दूर हैं. प्रतिरोध में जहां कुछ लोगों ने अच्छी लड़ाई लड़ना जारी रखी है, कुछ दूसरे लोग मौकापरस्त, रंगदारी वसूलनेवाले और मामूली अपराधी बन चुके हैं. दोनों समूहों में फर्क कर पाना हमेशा आसान नहीं होता, और यह उन्हें एक ही रंग में पेश करने को आसान बना देता है. उत्पीड़न की खौफनाक घटनाएं हुई हैं. एक तरह का उत्पीड़न आतंकवाद कहा जाता है और दूसरे को तरक्की.

2010 और 2011 में, जब ऑपरेशन ग्रीन हंट अपने सबसे बेरहम दौर में था, इसके खिलाफ एक अभियान में तेजी आनी शुरू हुई. अनेक शहरों में जनसभाएं और रैलियां हुईं. जैसे जैसे जंगल में होने वाली घटनाओं की खबर फैलने लगी, अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इस पर ध्यान देना शुरू किया. डॉ. साईबाबा उन मुख्य लोगों में एक थे, जिन्होंने ऑपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ इस सार्वजनिक और पूरी तरह से गैर-खुफिया अभियान को गोलबंद किया था. कम से कम अस्थायी रूप से ही, वह अभियान सफल रहा था. शर्मिंदगी में सरकार को यह दिखावा करना पड़ा कि ऑपरेशन ग्रीन हंट जैसी कोई चीज नहीं है, कि यह महज मीडिया की बनाई हुई बात है. (बेशक आदिवासी जमीन पर हमला जारी है, जिसके बारे में ज्यादातर कोई खबर नहीं आती, क्योंकि अब यह एक ऑपरेशन बेनाम है. एक माओवादी हमले में मारे गए सलवा जुडूम के संस्थापक महेंद्र करमा के बेटे छविंद्र करमा ने इस हफ्ते, 5 मई 2015 को सलवा जुडूम-2 की शुरुआत का ऐलान किया. यह सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले के बावजूद किया गया, जिसमें अदालत ने सलवा जुडूम-1 को गैरकानूनी और असंवैधानिक घोषित किया था और इसे बंद करने का आदेश दिया था.)

ऑपरेशन बे-नाम में, जो कोई भी राज्य की नीति की आलोचना करता है, या उसे लागू करने में बाधा पैदा करता है उसे माओवादी कहा जाता है. इस तरह माओवादी बताए गए हजारों दलित और आदिवासी, देशद्रोह और राज्य के खिलाफ जंग छेड़ने जैसे अपराधों के बे सिर-पैर के आरोपों में आतंकवादी गतिविधि निरोध अधिनियम (यूएपीए) के तहत जेल में बंद हैं. यूएपीए एक ऐसा कानून है कि सिर्फ अगर इसको इस्तेमाल में लाया जाना इतना त्रासदी भरा नहीं होता, तो इससे किसी भी समझदार इंसान की बड़ी जोर की हंसी छूट सकती थी. एक तरफ, जबकि गांव वाले कानूनी मदद और इंसाफ की किसी उम्मीद के बिना बरसों तक जेल में पड़े रहते हैं, अक्सर उन्हें पक्के तौर पर यह तक पता नहीं होता कि उन पर किस अपराध का इल्जाम है, दूसरी तरफ अब सरकार ने अपनी निगाह शहरों में उनकी तरफ फेरी है, जिसे यह 'ओजीडब्ल्यू' यानी खुलेआम काम करनेवाले कार्यकर्ता (ओवरग्राउंड वर्कर्स) कहती है.

इसने पहले जिन हालात में खुद को पाया था, उन्हें नहीं दोहराने पर अडिग गृह मंत्रालय ने 2013 में सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामे में अपने इरादों को साफ साफ जाहिर किया था. उसमें कहा गया था: 'नगरों और शहरों में भाकपा (माओवादी) के विचारकों और समर्थकों ने राज्य की खराब छवि पेश करने के लिए संगठित और व्यवस्थित प्रचार चलाया हुआ है...ये वे विचारक हैं जिन्होंने माओवादी आंदोलन को जिंदा रखा है और कई तरह से तो पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के कैडरों से ज्यादा खतरनाक हैं.'

डॉ. साईबाबा हाजिर हों.

हम यह जान गए थे कि उनकी निशानदेही की जा चुकी है, जब उनके बारे में साफ तौर पर गढ़ी हुई और बढ़ा चढ़ा कर अनेक खबरें अखबारों में आने लगीं. (जहां उनके पास असली सबूत नहीं थे, उनके पास आजमाया हुआ दूसरा सबसे बेहतर तरीका था कि अपने शिकार के बारे में संदेह का एक माहौल तैयार कर दो.)

12 सितंबर 2013 को उनके घर पर पचास पुलिसकर्मियों ने महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर अहेरी के मजिस्ट्रेट द्वारा चोरी की संपत्ति के लिए जारी किए गए तलाशी वारंट के साथ छापा मारा. उन्हें कोई चोरी की संपत्ति नहीं मिली. बल्कि वे उन्हीं की संपत्ति उठा (चुरा?) ले गए. उनका निजी लैपटॉप, हार्ड डिस्क और पेन ड्राइव्स. दो हफ्ते बाद मामले के तफ्तीश अधिकारी सुहास बवाचे ने डॉ. साईबाबा को फोन किया और हार्ड डिस्क खोलने के लिए उनसे पासवर्ड पूछा. डॉ. साईबाबा ने उन्हें पासवर्ड बताए. 9 जनवरी 2014 को पुलिसकर्मियों के एक दल ने उनके घर पर आकर घंटों उनसे पूछताछ की. और 9 मई को उन्होंने उन्हें अगवा कर लिया. उसी रात वे उन्हें नागपुर लेकर गए जहां से वे उन्हें अहेरी ले गए और फिर नागपुर ले आए, जिस दौरान सैकड़ों पुलिसकर्मी, जीपों और बारूदी सुरंग रोधी गाड़ियों के काफिले के साथ चल रहे थे. उन्हें नागपुर केंद्रीय जेल में, इसकी बदनाम अंडा सेल में कैद किया गया, जहां उनका नाम हमारे देश के जेलों में बंद, सुनवाई का इंतजार कर रहे तीन लाख लोगों की भीड़ में शामिल हो गया. हंगामेभरे इस पूरे नाटक के दौरान उनका व्हीलचेयर टूट गया. डॉ. साईबाबा की जैसी हालत है, उसे '90 फीसदी अशक्त' कहा जाता है. अपनी सेहत को और बदतर होने से बचाने के लिए उन्हें लगातार देखरेख, फिजियोथेरेपी और दवाओं की जरूरत होती है. इसके बावजूद, उन्हें एक खाली सेल में फेंक दिया गया (वे अब भी वहीं हैं), जहां बाथरूम जाने में उनकी मदद करने के लिए भी कोई नहीं है. उन्हें अपने हाथों और पांवों के बल पर रेंगना पड़ता था. इसमें से कुछ भी, यातना के दायरे में नहीं आएगा. एकदम नहीं. राज्य को अपने इस खास कैदी के बारे में एक बड़ी बढ़त इस रूप में हासिल है कि वह बाकी कैदियों के बराबर नहीं है. उसे बेरहमी से यातना दी जा सकती है, शायद उसको मारा भी जा सकता है, और ऐसा करने के लिए किसी को उस पर उंगली तक रखने की जरूरत नहीं है.

अगली सुबह नागपुर के अखबारों के पहले पन्ने पर महाराष्ट्र पुलिस के भारी हथियारबंद दल द्वारा अपनी जीत की निशानी के साथ शान से पोज देते हुए तस्वीरें छपी थीं - अपनी टूटी हुई व्हीलचेयर पर खतरनाक आतंकवादी, प्रोफेसर युद्धबंदी.

उन पर यूएपीए के इन सेक्शनों के तहत आरोप लगाए गए: सेक्शन 13 (गैरकानूनी गतिविधि में भाग लेना/उसकी हिमायत करना/उकसाना/ उसे अमल में लाने के लिए भड़काना), सेक्शन 18 (आतंकवादी कार्रवाई के लिए साजिश/कोशिश करना), सेक्शन 20 (एक आतंकवादी गिरोह या संगठन का सदस्य होना), सेक्शन 38 (एक आतंकवादी संगठन की गतिविधियों को आगे बढ़ाने के इरादे से उससे जुड़ना) और सेक्शन 39 (एक आतंकवादी संगठन के लिए समर्थन को बढ़ावा देने के मकसद से सभाएं करने में मदद करना या उसे संबोधित करना). उन पर भाकपा (माओवादी) के कॉमरेड नर्मदा के पास पहुंचाने की खातिर, जेएनयू के एक छात्र हेम मिश्रा को एक कंप्यूटर चिप देने का आरोप लगाया गया. हेम मिश्रा को अगस्त 2013 में बल्लारशाह रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार किया गया और वे डॉ. साईबाबा के साथ नागपुर जेल में हैं. उनके साथ इस 'साजिश' के अन्य तीनों आरोपी जमानत पर रिहा हो चुके हैं.

आरोपपत्र में गिनाए गए अन्य गंभीर अपराध ये हैं कि डॉ. साईबाबा रिवॉल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट (आरडीएफ) के संयुक्त सचिव हैं. आरडीएफ उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में एक प्रतिबंधित संगठन हैं, जहां इस पर माओवादी 'फ्रंट [खुला]' संगठन होने का संदेह है. दिल्ली में यह प्रतिबंधित नहीं है. न ही महाराष्ट्र में. आरडीएफ के अध्यक्ष जाने-माने कवि वरवर राव हैं, जो हैदराबाद में रहते हैं.

डॉ. साईबाबा के मामले की सुनवाई अभी शुरू नहीं हुई है. इसको शुरू होने में अगर बरसों नहीं तो महीनों लगने की संभावना है. सवाल है कि 90 फीसदी अशक्तता वाला एक इंसान जेल की उन बेहद खराब दशाओं में कब तक बचा रह पाएगा?

जेल में बिताए गए इस एक साल में, उनकी सेहत खतरनाक रूप से बिगड़ी है. वे लगातार, तकलीफदेह दर्द में रहते हैं. (जेल अधिकारियों ने मददगार बनते हुए, इसे पोलियो पीड़ितों के लिए 'खासा मामूली' बताया.) उनका स्पाइनल कॉर्ड खराब हो चुका है. यह टेढ़ा हो गया है और उनके फेफड़ों में धंस रहा है. उनकी बाईं बांह काम करना बंद कर चुकी है. जिस स्थानीय अस्पताल में जांच के लिए जेल अधिकारी उन्हें ले गए थे, उसके कार्डियोलॉजिस्ट [दिल के डॉक्टर] ने कहा कि फौरन उनकी एंजियोप्लास्टी कराई जाए. अगर वे एंजियोप्लास्टी से गुजरते हैं, तो उनकी मौजूदा दशा और जेल के हालात को देखते हुए, यह इलाज खतरनाक ही होगा. अगर उनका इलाज नहीं हुआ और उनकी कैद जारी रही, तो यह भी खतरनाक होगा. जेल अधिकारियों ने बार बार उन्हें दवाएं देने से इन्कार किया है, जो न सिर्फ उनकी तंदुरुस्ती के लिए, बल्कि उनकी जिंदगी के लिए बेहद जरूरी है. जब वे उन्हें दवाएं लेने की इजाजत देते हैं, तो वे उन्हें वह विशेष आहार लेने की इजाजत नहीं देते, तो उन दवाओं के साथ दी जाती है.

इस तथ्य के बावजूद कि भारत अशक्तता अधिकारों के अंतरराष्ट्रीय समझौते का हिस्सा है और भारतीय कानून एक ऐसे इंसान को सुनवाई का इंतजार करते हुए (अंडरट्रायल) लंबे समय तक कैद में रखने की साफ तौर पर मनाही करते हैं जो अशक्त है, डॉ. साईबाबा को सत्र अदालत द्वारा दो बार जमानत देने से मना कर दिया गया है. दूसरे मौके पर जमानत की अर्जी इस आधार पर खारिज कर दी गई कि जेल अधिकारियों ने अदालत के सामने यह दिखाया था कि वे वह जरूरी और खास देखरेख मुहैया करा रहे हैं, जो उनकी जैसी हालत वाले एक इंसान के लिए जरूरी है. (उन्होंने उनके परिवार को इसकी इजाजत दी थी, कि वे उनकी व्हीलचेयर बदल दें.) डॉ. साईबाबा ने जेल से लिखी गई एक चिट्ठी में कहा कि जिस दिन जमानत देने से मना करने वाला फैसला आया, उनकी खास देखभाल वापस ले ली गई. निराश होकर उन्होंने भूख हड़ताल शुरू की. कुछ दिनों के भीतर वे बेहोशी की हालत में अस्पताल ले जाए गए.

बहस की खातिर, चलिए इसके बारे में फैसले को अदालत पर छोड़ देते हैं कि अपने ऊपर लगाए गए आरोपों में डॉ. साईबाबा कसूरवार हैं या बेकसूर. और महज थोड़ी देर के लिए सिर्फ जमानत के सवाल पर गौर करते हैं, क्योंकि उनके लिए यह हर्फ ब हर्फ जिंदगी और मौत का सवाल है.

उन पर लगाए गए आरोप चाहे जो हों, क्या प्रोफेसर साईबाबा को जमानत मिलनी चाहिए? यहां  उन जानी-मानी सार्वजनिक शख्सियतों और सरकारी कर्मचारियों की एक फेहरिश्त पेश है, जिन्हें जमानत दी जाती रही है.

23 अप्रैल 2015 को बाबू बजरंगी को गुजरात उच्च न्यायालय में 'आंख के एक फौरी ऑपरेशन' के लिए जमानत पर रिहा किया गया, जो 2002 में नरोदा पाटिया कत्लेआम में, जहां दिन दहाड़े 97 लोग मार दिए गए थे, अपनी भूमिका के लिए कसूरवार साबित हो चुके हैं और जिन्हें आजीवन कैद की सजा सुनाई जा चुकी है. यह बाबू बजरंगी हैं, जो खुद अपने शब्दों में अपने किए गए जुर्म के बारे में बता रहे हैं: 'हमने एक भी मुसलमान दुकान को नहीं बख्शा, हमने हर चीज में आग लगा दी, हमने उन्हें जलाया और मार डाला...टुकड़े-टुकड़े किए, जलाया, आग लगा दी...हमारी आस्था उन्हें आग लगाने में है क्योंकि ये हरामी चिता पर जलना नहीं चाहते. वे इससे डरते हैं.' ['आफ्टर किलिंग देम आई फेल्ट लाइक महाराणा प्रताप' तहलका, 1 सितंबर 2007]

आंख का ऑपरेशन, हुह? शायद हम थोड़ा ठहरकर सोचें तो यह एक फौरी जरूरत ही है कि वह जिनसे दुनिया को देखता था, उन हत्यारी आंखों को कुछ कम बेवकूफ और कुछ कम खतरनाक आंखों से बदल दिया जाए.

30 जुलाई 2014 को गुजरात में मोदी सरकार की एक पूर्व मंत्री माया कोडनानी को गुजरात उच्च न्यायालय ने जमानत दे दी, जो उसी नरोदा पाटिया कत्लेआम में कसूरवार साबित हो चुकी हैं और 28 साल के लिए जेल की सजा भुगत रही हैं. कोडनानी एक मेडिकल डॉक्टर हैं और कहती हैं कि उन्हें आंतों की टीबी है, दिल की बीमारी है, क्लीनिकल अवसाद है और स्पाइन की दिक्कत है. उनकी सजा भी स्थगित कर दी गई है.

गुजरात में मोदी सरकार के एक और पूर्व मंत्री अमित शाह को जुलाई 2010 में तीन लोगों - सोहराबुद्दीन शेख, उनकी बीवी कौसर बी और तुलसीराम प्रजापति की गैर-अदालती हत्या का आदेश देने के आरोप में गिरफ्तार किया गया. सीबीआई ने जो फोन रेकॉर्ड पेश किए वे दिखाते थे कि शाह उन पुलिस अधिकारियों के लगातार संपर्क में थे, जिन्होंने पीड़ितों के मारे जाने के पहले उन्हें गैरकानूनी हिरासत में लिया था. वे यह भी दिखाते थे कि उन दिनों अमित शाह और उन पुलिस अधिकारियों के बीच फोन कॉलों की संख्या तेजी से बढ़ गई थी. (आगे चले कर, परेशान कर देने वाली और रहस्यमय घटनाओं के एक सिलसिले के बाद, वे पूरी तरह से छूट गए हैं). वे अभी भाजपा के अध्यक्ष हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दाहिने हाथ हैं.

22 मई 1987 को हाशिमपुरा से पुलिस आर्म्ड कॉन्स्टेबुलरी (पीएसी) द्वारा पकड़ कर ट्रक में ले जाए गए 42 मुसलमानों को गोली मार कर उनकी लाशें कुछ दूर, एक नहर में फेंक दी गईं. इस मामले में पीएसी के उन्नीस जवान आरोपित बनाए गए. उनमें से सभी सेवा में बने रहे, दूसरों की तरह तरक्की और बोनस हासिल करते रहे. तेरह साल बाद, सन 2000 में उनमें से सोलह ने आत्मसमर्पण किया (तीन मर चुके थे). उन्हें फौरन जमानत दे दी गई. कुछ ही हफ्ते पहले, मार्च 2015 में सभी सोलह जवानों को सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया.

दिल्ली विश्वविद्यालय में एक शिक्षक और कमेटी फॉर द डिफेंस एंड रीलीज ऑफ साईबाबा के एक सदस्य हैनी बाबू हाल ही में कुछ मिनटों के लिए अस्पताल में डॉ. साईबाबा से मिलने में कामयाब रहे. 23 अप्रैल 2015 को एक प्रेस सम्मेलन में, जिसकी कमोबेश कोई खबर नहीं छपी, हैनी बाबू ने उस मुलाकात के हालात के बारे में बताया: डॉ. साईबाबा को एक सेलाइन ड्रिप चढ़ रही थी. वे बिस्तर पर उठ कर बैठे और उनसे बात की. उनके सिर की तरफ एके-47 ताने एक सुरक्षाकर्मी उनके पीछे खड़ा रहा. यह उसकी ड्यूटी थी कि वह सुनिश्चित करे कि उसका कैदी अपनी लकवाग्रस्त टांगों से भाग न जाए.

क्या डॉ. साईबाबा नागपुर केंद्रीय जेल से जिंदा बाहर आ सकेंगे? क्या वे चाहते हैं कि साईबाबा बाहर निकलें? बहुत सारी वजहें हैं, जो इशारा करती हैं कि वे ऐसा नहीं चाहते.

यही सब तो है, जिसे हम बर्दाश्त कर रहे हैं, जिसके लिए हम वोट डालते हैं, जिस पर हम राजी हैं.

यही तो हैं हम.

- हाशि‍या से साभार 

Tuesday, December 22, 2015

दि‍खती है धन के एश्‍वर्य की आभा

 बरेली वाली बाला कि‍स्‍मत की धनी है और शायद ही कहीं कमजोर पड़ी हो। 
बरेली में रहे लोग मजबूत होते हैं फि‍र चाहे वीरेन दा हों या प्रियंका। 
धन का भी एक एश्‍वर्य होता है, लेकि‍न ये जरूरी नहीं कि एश्‍वर्य से हर बार वो आभा नि‍कले, जि‍सके लि‍ए सौंदर्यसम्‍मत कलात्‍मक कोशि‍श की जा रही हो। ये भी जरूरी नहीं कि न नि‍कले। बहरहाल, भैसाली भाई जि‍स एश्‍वर्य की आभा ताउम्र दि‍खाने की कोशि‍श करते रहे, ईमानदारी से, अब जाकर थोड़ी थोड़ी झलक उसकी दि‍खाई दी है। भारी भरकम सेट और तकनीक का कि‍तना भी सद्उपयोग कर लें, कहानी कहने की कला का जादू सबको रंग देता है।

कहानी क्‍या है, ये कि‍सी से नहीं छुपा। तो फि‍र ऐसी क्‍या छुपी हुई चीज है, जि‍से देखने के लि‍ए ये फि‍ल्‍म बुलाए। छुपी हुई चीजों को देखने के लि‍ए ये फि‍ल्‍म देखनी पड़ेगी। वैसे अदाकारी पर बात की जा सकती है जि‍समें बाजीराव और मस्‍तानी कई जगहों पर कमजोर पड़े हैं। अपना भैसाली भाई चाहता तो कई जगहों पर रीटेक ले सकता था, लेकि‍न शायद इन दोनों की अदाओं के सामने वो भी कमजोर पड़ गया होगा। बरेली वाली बाला कि‍स्‍मत की धनी है और शायद ही कहीं कमजोर पड़ी हो। बरेली में रहे लोग मजबूत होते हैं फि‍र चाहे वीरेन दा हों या प्रियंका।

मैं सौ में से सत्‍तर फीसद मानकर चलता हूं कि बनाए हुए गीत फि‍ल्‍म का वास्‍तवि‍क हि‍स्‍सा नहीं होते हैं। तीस फीसद इसलि‍ए मानकर चलता हूं क्‍यों सि‍नेमा और उसका संगीत मेरे यहां बमुश्‍कि‍ल इतने ही लोगों तक पहुंचता है। भैंसाली भाई खुद इसका संगीत दि‍ए हैं और अलबेला सजन दूसरी टोन में लेकर आए हैं, सुनि‍एगा जरूर। कहने का बस इतना मतलब है कि न गीत और न संगीत, कहीं पर डि‍स्‍टर्ब नहीं कर रहे हैं। कम से कम उतना तो नहीं, जि‍तना फेसबुक की कति‍पय कवि‍ताएं करती हैं।

फि‍ल्‍म के अंत में कट्टर हिंदुत्‍व की हमलावर काली ध्‍वजा और काले घोड़े क्‍या संदेश देना चाहते हैं, ये लि‍खी हुई कहानी बयां नहीं कर सकती, इसका बयान सिर्फ एक फि‍ल्‍म ही कलमबंद कर सकती है। ऐति‍हासि‍क फि‍ल्‍मों की श्रेणी में अगर ये कहा जाए कि इस फि‍ल्‍म ने रि‍स्‍क लेने के नए रास्‍ते और इति‍हास में दर्ज होने के नए हर्फ गढ़े हैं तो अति‍श्‍योक्‍ति नहीं होगी। देखकर महसूस करना पढ़ने सुनने लि‍खने से कहीं अलग की अनुभूति है और वो भी तभी महसूसेगी जब दि‍खने वाले में वो स्‍पार्क होगा।

फि‍ल्‍म पाकि‍स्‍तान में बैन की गई, इसका कहानी से कोई रि‍श्‍ता नज़र नहीं आता। अगर मोइन अख्‍तर भाई साहब का लूजटाक देखें तो सबसे पहले तो वो बैन होना था। पाकि‍स्‍तानी लोगों को उन्‍हीं की इस कहानी से महरूम रखने के क्‍या वजहें हो सकती हैं, फि‍ल्‍म देख लेने के बाद ये जानना चाहें तो आपका 10 साल का बच्‍चा पूरी कहानी बता देगा। उनपर यकीन करें, वो आपसे ज्‍यादा इनफॉर्म्‍ड हैं।

ये फि‍ल्‍म शाहरुख को सोचने देने के लि‍ए दि‍या गया आराम है, लगातार कॉपी कि‍ए जाने पर अल्‍पवि‍राम है।

Monday, December 21, 2015

एक पति‍त वि‍वाह के फुटकर नोट्स- 2

वैसे भी वि‍वाह का नाम सुनते ही मन में बीस तरह की बेचैनियां शुरू हो जाती हैं कि भूले से भी अगर कि‍सी को न्‍योतना भूल गए तो चार गांव चालीस कि‍स्‍सा बनाएगा और गाएगा। वि‍वाह पूरा एक देश होता है जि‍से आज तक कि‍सने संभाला हुआ है, ये पता ही नहीं चलता और ये बनता जाता है।

पति‍त वि‍वाह से पूर्व होने वाले इस पाठ में प्रसाद की पंजीरी की जगह पंपलेट बंटवाऊं। साथ में दो चार गाय बैल कुत्‍ता बि‍ल्‍ली भी रखे रहूं कि जि‍सकी नहीं हुई है या कति‍पय कारणों से जि‍नकी न हो पा रही है, मन न मसोसें, मन होने पर पूरे मनोयोग से इन्‍हीं की पीठ सहला लि‍या करें, कोई नहीं देखेगा।

जि‍तने कवि हैं, उन सबकी पूर्व और अपूर्व, दोनों तरह की प्रेमि‍काओं का आना अनि‍वार्य कर दूं और श्रोताओं की पहली पंक्‍ति में उन्‍हीं को बैठाऊं। मेकअप का सारा सामान पति‍त वि‍वाह में पूर्णतया फ्री ही रहेगा, जि‍तना मर्जी उतना करें, कोई नहीं टोकेगा। जो टोकेगा, उसे उसी वि‍वाह में पुरुषवि‍रोधी करार दि‍या जाएगा।

गंगा-गोमती तट पर इस वि‍वाह को घटि‍त होने की सारी संभावनाओं को इतना पति‍त कर दूं कि सरयूतीरे के अलावा कोई दूसरा ऑप्‍शन रह ही न जाए। वहां भी पंडों को तैनात कर दूं कि एक भी कवि या कहानीकार बगैर बछि‍या की पूंछ पकड़े न पुल पार कर पाए न सड़क और न घाट। हर घाट पर खाट लगाकर नावों पर वो नंगा नाच कराऊं कि मेरे घरवाले आने वाले सैकड़ों साल तक मुझे अपना मानने से ही मना कर दें।

शेखर की जीवनी की जि‍तनी मरी दबी इच्‍छाएं आकांक्षाएं रही होंगी, जि‍तने भी शेखर इस वि‍वाह में आएं, सारी की सारी ऐसी पूरी करूं कि पूरा फैजाबाद देखे और कहे कि ठीक ही कि‍या कि इसे फैजाबाद का न होने दि‍या। हो जाता तो आज यही कालि‍ख पूरे शहर पर मल रहा होता।

उदय जी, आपको तो आना ही आना है। सारे महंतों से आपका सम्‍मान उसी शादी में समारोह के साथ करना है।

(एक पति‍त वि‍वाह के फुटकर नोट्स- 2) 

एक पति‍त वि‍वाह के फुटकर नोट्स- 1

अकवि का पतित वि‍वाह है तो ऐसा हो कि सुप्रीम कोर्ट तक बि‍लबि‍ला उठे और मार हथौड़ा हवनकुंड को इतना चौड़ा कर दे, जि‍समें से हिंदी साहि‍त्‍य की सारी सेवाकातर संस्‍थाएं नाच नाच के नि‍कलें।

अगर वो पंडि‍त है तो मैं एक बैनर भी बनवाने जा रहा हूं जि‍सपर लि‍खा होगा ''पंडि‍त की शादी है, हमारी नंगई का प्‍लीज़ कहीं कि‍सी तरफ से कतई बुरा न मानें।'' दो पंडि‍तों को इसी ठंड में डि‍जायनर धोती और जनेऊ पहनाकर बैनकर पकड़ाकर बारात में सबसे आगे चलाउंगा। धोती भी ऐसी धोती होगी कि भगाया गया कवि अंपनी लंगोट देखकर शर्मा जाएगा कि उनकी लंगोट पर वो डि‍जाइन बनाना उसे पुराने वाले घर में पहले काहे नहीं सूझा। एक तरफ तुलसीदास की चौपाइयां लि‍खाउंगा तो दूसरी तरफ काम के सत्‍तावन सूत्र। अड़सठ जि‍न्‍हें लि‍खना था वो लि‍खते रहें मेरी बला से।

अकवि का पति‍त वि‍वाह है तो कार्ड की जगह खाली डि‍ब्‍बा भेज दूंगा कि जब जब इसे बजाया जाएगा, वि‍द्यामाई की कसम, इसमें से मेरे देस की धरती नागि‍न डांस करते सोना उगलते हुए ही नि‍कलेगी। अगर नि‍कली वो चांदी फांदी उगलते हुए तो मार चप्‍पल मुंह लाल कर दूंगा कि इस कंगाली में सोना हीरा न सही मोती ही उगल सकती रही या नहीं।

देश के सेवाकातरों को समझना चाहि‍ए कि वैवाहि‍क गर्मी ही उनके साहि‍त्‍य को वो नई दि‍शा दे सकती है, जि‍सकी दरकार उनको अपने हर कि‍ए और पड़े से है। बारात में कवि‍यों का अलग स्‍टाल होगा और कहानीकारों का अलग। एक वि‍वाह समारोह में कम से कम बीस मंच दि‍ए जाएंगे और ऐसा करके मैं मर चुकी हिंदी साहि‍त्‍य की सरस धारा को एक बार फि‍र से खोदकर नि‍कालने की तुच्‍छ कोशि‍श करूंगा।

शेखर का वैसे भी मेरे जीवन में सुख से लेशमात्र भी संबंध नहीं रहा तो उनको भी अलग से चि‍ट्ठी लि‍ख रहा हूं कि बहुत सही गुरु, तुम तो हमसे बहुत तेज नि‍कले कि हम तो नि‍कलते नि‍कलते रह गए और तुम नि‍कल लि‍ए अपना साजो सामान लेकर। वैसे जब तुम नहीं नि‍कले थे तो भी नि‍कले नि‍कले ही लगते थे।

रही बात न्‍योते वाला झोला रजि‍स्‍टर संभालने की तो हमको शशि‍भूषण पे पूरा भरोसा है। संभाल तो वो खुद को भी नहीं पाते जब तीन चार गटागट अंदर चले जाते हैं और इसी भरोसे और डकैती के सुवि‍चार के चलते न्‍योता संभालने का काम पूरी तरह से शशि भैया ही करेंगे।

जब सब लुटा रहे हैं तो कोई लूटने वाला भी होना चाहि‍ए, ये सुवि‍चार मन में बैठाकर मैं हर कवि की जेब काटने की इसी वि‍वाह में करूंगा और ये पूरी तरह से वि‍वाह को पति‍त बनाने के लि‍ए सम्‍यक मन से कि‍या गया सत्‍कर्म ही माना जाएगा, इसके लि‍ए सभी साहि‍त्‍यकार आइपीसी में परि‍वर्तन करने की समवेत मांगपत्र जारी करेंगे, मांग न पूरी होने पर सब इस बार पुरस्‍कार वापसी अभि‍यान की तर्ज पर वापस कि‍ए गए पुरस्‍कार वापस मागेंगे।

मेरा भरसक प्रयास है कि समस्‍त वैवाहि‍क कार्यक्रम सुपति‍त हो और इस कार्यक्रम में शामि‍ल होने के लि‍ए देश के कोने अतरे से आने वाले साहि‍त्‍यकार और पत्रकार जब यहां से जाएं तो उनके सामने सिर्फ और सिर्फ पतन की राह हो, बहुत दि‍न हो गए जतन की राह पर चलते चलते।

ओम जी, सुन रहे हैं न आप। आपको जरूर आना है। पतनशीलता पर डि‍बेट है।

(एक पति‍त वि‍वाह के फुटकर नोट्स- 1)

Friday, December 11, 2015

मि‍लेगा तो देखेंगे- 15

उन ढलानों की याद जि‍नपर हम कभी फि‍सले, उन मैदानों की भूल जि‍न पर हमने चलने की कोशि‍श की और उस पानी की महक जि‍नमें हमने कभी तैरना चाहा, सब मि‍लाकर तुम्‍हे मि‍टटी की वो महक कर देते हैं जो हर बूंद पर बरबस नाक में घुस ही जाती है। बरसात की वो बूंद जो सि‍मटी पड़ी है, तुम्‍हारे बहने पर बहती दि‍खती काइयों की तरह अपार में हि‍लती तो दि‍खती है। वही तो अपार होता है जि‍सके बीच गति है। जि‍सके बीच समग्र समयांतर है जो खुद के फासलों को खाते चबाते है। तुम्‍हारी गति की शांति मैं कैसे महसूस करूं जबकि मैं पानी के बाहर बैठ तुमको ताकता हूं। तुम्‍हारी शांत क्‍लांत अवस्‍थाओं को मैं कैसे महसूस करूं जबकि मैं उन सबसे बाहर हूं।
आदमी झूठ बोलना चाहता था। आदमी अपने आस पास की तरह होना चाहता था। आदमी पत्‍थरों को देख पत्‍थर तो पानी को देख पानी होना चाहता था। आधारभूत समस्‍या उसके खुद आदमी हो जाने की थी। भूत की समस्‍या उसके आदमी का अंत कर देने की थी और जो कुछ भी नहीं था, वो एकमात्र वो आदि था जि‍सके बीच का एक भी सि‍रा आदमी के हाथ न आ पाया था।
ये बीच का सि‍रा ही तो है जो बीच में हाथ आ जाए तो आदि और अंत दोनों ही सध जाते हैं। सधने के लि‍ए जो होना होता है औरत बखूबी जानती थी। सध पाने के लि‍ए कि‍तना औरत होना होता है, आदमी ने भी सब का सब शुरू से ही पढ़ रखा था। सधी सीधी रेखा पर औरत चलती चली जाती थी और प्रस्‍थान बिंदु पर हि‍लता आदमी उसे जाता देख उसका औरत होना सीखने की व्‍यर्थ कोशि‍श करता रहता। आदमी सुस्‍थि‍र हि‍लन में स्‍वयं को गति‍मान समझ गुनगुनाता था। औरत सधी गति से सीधे चलती जाती थी।

राम लला हम आएंगे, गली गली बौराएंगे

राम लला हम आएंगे
गली गली बौराएंगे
हग हग गंद मचाएंगे
नंग धड़ंग चि‍ल्‍लाएंगे
मंदि‍र वहीं बनाएंगे।

मलबा होगा चारों ओर
बलवा होगा चारों ओर
इंसा काटे जाएंगे
काट काट के गाएंगे
मंदि‍र वहीं बनाएंगे।

जब होगा काला अंधेरा
छोड़ेंगे हम अपना डेरा
घर घर आग लगाएंगे
खून से ही हम नहाएंगे
मंदि‍र वहीं बनाएंगे।

सरयू होगी लालो लाल
लूटपाट के सारा माल
फि‍र फि‍र वापस जाएंगे
लौटके फि‍र फि‍र आएंगे
मंदि‍र वहीं बनाएंगे।

-हाल-ए-अयोध्‍या

नतमस्‍तक मोदक की नाज़ायज औलादें (38)

प्रश्‍न: पतंग उड़ाई है कभी?
उत्‍तर: हम समझ रहे हैं!
प्रश्‍न: क्‍या समझ रहे हैं?
उत्‍तर: कि तुम्‍हें अभी उड़ाने की काहे सूझी?
प्रश्‍न: सवाल का जवाब तो दीजि‍ए!!
उत्‍तर: बाजी लड़ाए हैं बे, हलके में लि‍ए हो का?
प्रश्‍न: जीते कि हारे?
उत्‍तर: हमसे कौन बेटी***?? जीतेगा बे?
प्रश्‍न: मांझा जि‍सका तेज होगा, वो तो..!
उत्‍तर: अब बेटी*** तुम तो मांझा लूटते थे ना?
प्रश्‍न: हां!
उत्‍तर: तो भो*** के, बाजी तो हमी लगाते थे ना!!
प्रश्‍न: हां, तो?
उत्‍तर: हां तो सिंपल है!
प्रश्‍न: क्‍या सिंपल है?
उत्‍तर: जो बाजी लगाएगा, ऊ जीतेगा!
प्रश्‍न: ये आपका सिद्धांत है?
उत्‍तर: अबे भो**** के, ये दुनि‍या का सिद्धांत है।
प्रश्‍न: लेकि‍न बाजी लगाएगा कि‍ससे?
उत्‍तर: जे भी सामने होगा!
प्रश्‍न: अब मैं अप्रश्‍नतरि‍त हूं..
उत्‍तर: ई का होता है बे?
प्रश्‍न: कुछ नहीं!

Thursday, December 3, 2015

भारत नाम का अंडरवि‍यर... Fit to All..

कुछ भी बना लो इसे। अलग अलग नामों और तरहों की माएं बना लो या फि‍र कि‍सी को भी उठाकर इसका बाप बना लो। एक बाप से मन भर गया हो तो दूसरा बाप अवतार कहके खड़ा कर लो, ईमान से, ये कुछ भी बन जाएगा। मां-बाप के अलावा जि‍तने रि‍श्‍ते हों, वो भी बना लो, कसम से, ये उफ भी नहीं करेगा। जब चाहो, जि‍ससे चाहो बोल दो धमकी देने को तो धमकी दि‍ला लो इसे, घंटा इसपर कोई असर नहीं पड़ेगा। ये इतना बड़ा है कि पि‍छले दो हजार से भी ज्‍यादा साल से जब चाहे, जो चाहे और जहां चाहे, आकर अपनी नाप का कुछ न कुछ सि‍ल ले रहा है। सि‍लना ही नहीं, कुछ भी बनकर कि‍सी से भी मि‍ल ले रहा है।

अबे कोई धोबी है का, आंय, अबे धोबी लंगोट नहीं सि‍एगा त का आं... त का घंटा बजाएगा

कुछ भी सि‍ल लो इसका, ये अपने कटने का बुरा नहीं मानेगा। कटने पर जो कीचड़ होगा, उसे भी सोखकर सड़क बना देगा। पहले भी कि‍तनी बार कट चुका, कराह चुका अभी भी अपना पूरा बदन लेकर तैयार है और नोचने वाले नोच नोचकर ठीक ठाक खा भी चुके, मजाल है कि इसके मुंह से एक अदद बड़ी कराह नि‍कल जाए जो सबको नहीं तो कम से कम हमें सुनाई पड़े। जब चाहो इसका कान बंद कर दो और जब चाहो इसका मुंह या फि‍र... वो भी। जब चाहो इसे धोती पहना दो तो जब चाहो तो पूरा न्‍यूड कर दो। अबे मजाल है कि ये कभी बुरा मान जाए।

हे हनुमान जी माराज, हमको बर दो, यही रसरी से यही खाट पे बर दो हमको

भरी सभा में उछाल लो, नेट न भी हो तो भी गोल मार लो। अंदर तो अंदर बाहर भी खंगाल लो तो भी न तो ये मि‍लेगा न अपने मि‍लने का बुरा मानेगा। भीड़ में धकेल दो, ट्रेन में पेल दो, जब चाहो तब जेल दो, गारंटी है पूरे पांच साल की, सब भूल जाएगा और उप्‍पर देख कहेगा कि आएगा.. नया रूल आएगा। यकीन मानो, तब भी चलता नजर आएगा, हि‍लता नजर आएगा।

ठस नहीं है ये। भारत है ये।

इंदू जी इंदू जी क्‍या हुआ आपको
कउन सा नसे में भूल गईं बापको