Sunday, December 27, 2009

अवध को बचाइए

अवध, अवध की संस्कृति, अवधी.... एक संस्कृति का नाम है अवध। गंगा जमुनी- जैसा कि लोग अभी तक कहते आये हैं- वो नहीं। अपने मे ही पूरी एक संस्कृति। हिंदू हो या मुसलमान, हिन्दू हो या सिख, हिंदू हो या इसाई, कोई फर्क नहीं। लेकिन हिंदू हो और दलित, तब कुछ अंतर आ जाता है। निगाहें बदल जाती हैं। यहाँ हिंदू वर्सेस अन्य का उल्लेख इसलिए किया है क्योंकि पिछले कुछ दिनों से धर्म की रिपोर्टिंग करते हुए मुझे कुछ ऐसे ही अनुभव मिले हैं. यहाँ सारी चीजें हिंदू वर्सेस ही देखी जाती हैं. जैसे हिंदू वर्सेस मुसलमान, हिंदू वर्सेस इसाई आदि . यहाँ मीठा भी है खट्टा भी है और काफी कुछ कड़वा भी है। समझ नहीं आता कि इसे कोई और नाम भी दिया जा सकता है? नहीं आता....सच। हर रात मैखानो के आगे और अन्दर जमा होती भीड़, चौक पर चाय के लिए मोटर साइकिल पर बैठकर गपियाते लोग। शायद हर उस शहर मे मिल सकते हैं , जिसने अपनी मासूमियत बचा पाने मे गनीमत पाई हो। इसलिए ये कुछ नया नहीं है। लेकिन कुछ और है, जो नया नहीं है, लेकिन वर्तमान मे हो रहा है, इसलिए चिंताजनक है। अवध पर हमेशा से ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद की छाया रही है या यू कहे कि अवध ब्राह्मणवाद के आगोश मे रहा है। पिछले कुछ सालों से पहले ये खुले आम चलता था। लेकिन अवध मे कुछ पैरलल सोच रखने वालों ने इस पर कुछ हद तक रोक और वो भी चर्चा करने के लिए चर्चा ही न हो , के बहाने लगे हुई थी। लब्बो लुआब ये है कि या खत्म या फिर कम नहीं हुआ था। लेकिन हकीकत ये है कि कुछ तो राहत मिली थी, भले ही वो वक्ती क्यों न हो। लेकिन इन दिनों अवध एक बार फिर से उसी ब्राह्मणवाद के हवाले होने जा रहा है, होने की राह पर है। अभी कुछ देर पहले मैंने फैजाबाद की एक खबर पढ़ी। उस खबर मे कोई सिंह हैं तो कोई पांडे हैं तो कोई उपाध्याय हैं। इन लोगो ने मिलकर अवधी जन जागरण यात्रा निकली है। इनकी मांग है अवध को पूरी उत्तर प्रदेश की राजधानी बनाना. इस यात्रा का अंतिम पड़ाव नेपाल मे होगा, इसका विषय अवधी होगा और नेपाल रेडियो इसे प्रसारित भी करेगा। जैसा कि जाहिर है, नेपाल मे माओवाद अब नहीं है। माओवादी मधेसियों को निकाल बाहर करने की फ़िराक मे हैं। ऐसे मे इसका क्या मतलब हो सकता है, कहना जरूरी नहीं है।हो सकता है कि नेपाल मे वर्तमान से लेकर अगले कुछ सालो के भविष्य पर नेपाल मे फिर से उसी राजशाही की शुरआत हो रही हो, गौरतलब है कि राजशाही के लिए राजसी खून का होना जरूरी नहीं। इन सबके बावजूद, अभी तक अवध मे जो चाय पार्टी चलती थी, वो बुरी तरह से दूषित हो रही है। अपने इन्ही चाय पार्टी वाले दोस्तों से बात हो रही थी। वो नहीं चाहते क्योकि शहर की नब्ज़ ऐसा ही कुछ कह रही है। शहर नहीं चाहता कृष्ण को खुद से जुदा करना। राम का शहर है ये। लेकिन ब्राह्मणवाद वही फूलता है जहा विरोधी होते हैं। क्योंकि तभी उसकी सार्थकता होती है। तो, अवध ब्राह्मणवाद के हवाले होने जा रहा है। इसे बचाइए। क्योकि यहाँ, इस इलाके मे अवसर बहुत कम हैं। फिर भी यहाँ के लोग एक दूसरे से- सबसे तो नहीं, प्यार करते हैं। उन्हें चाहते हैं। वो नहीं चाहते किसी से दूर जाना।

Tuesday, December 8, 2009

धीमे धीमे पकता है......


"धीमे धीमे पकता है सपना"
कैप्शन बाई- प्रमोद सिंह

Tuesday, November 24, 2009

लिब्राहन आयोग रिपोर्ट नही, साजिश है

जिस वक्त संघ और बी जी पी ने पूरे मुल्क को जहर की जद मे ले लिया था, कुछ कथित समाचार पत्र भी उसी जहर की जद मे आकर जहर फ़ैलाने का काम कर रहे थे, उस वक्त अयोध्या मे के पी सिंह शायद उन गिने चुने पत्रकारों मे एक थे जिन्होंने जहर को मानने से ही इनकार कर दिया थालिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर के पी सिंह मानते हैं कि रिपोर्ट कोई सजा नही है, बल्कि ये मौजूदा हालात को एक बार फ़िर से भुला देने के सोची समझी कवायद है, साजिश हैऔर यही कारण है कि संसद सत्र के आखिर मे पेश होने वाली लिब्राहन योग की रपट लीक हुई और संसद सत्र के शुरुआत मे पेश की गई. ताकि मूलभूत समस्याओं की जगह अगर बहस हो तो मन्दिर पर-जिससे किसी का पेट नही भरने वाला, किसी हाथ को काम नही मिलने वाला. पेश है लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश.....

लिब्राहन आयोग के ये जो एक्शन टेकन रिपोर्ट है, इसकी टाइमिंग से मुझे काफ़ी दिक्कत है। जो आयोग किसी रिपोर्ट मे इतना ज्यादा वक्त लगा दे, उसकी विश्वसनीयता पर मुझे संदेह है। जो आयोग अपने लिए इतने एक्सटेंशन मांगता है, और एक पीढ़ी पूरी ख़त्म हो जाती है उसकी रिपोर्ट आने मे, और उसके बाद वो रिपोर्ट देता है। रिपोर्ट देने से पहले, रिपोर्टिंग कार्यकाल मे उसके अपने ही वकील से नाइत्तेफाकी होती है, जो उसकी विश्वसनीयता पर संदेह खड़े करते हुए उससे अलग हो जाता है। ऐसे मे ये जो रिपोर्ट है, इसे मैं बहुत प्रमाणिक मानने के लिए तैयार नही हूँ। और दूसरे इस रिपोर्ट पर जो भी रियेक्शंस आ रहे हैं, वह सब राजनितिक स्वार्थ साधने वाले ऐक्संस हैं। सबने अपनी अपनी लाइन ले ली है। कांग्रे का खेल बिगाड़ने के लिए मुलायम सिंह कह रहे हैं कि विवादित स्थल पर मस्जिद बननी चाहिए, जो अब तक उन्हें याद नही थी। क्योंकि मुलायम सिंह से अल्पसंख्यक रूठ कर चले गए हैं। वही राष्ट्र के नाम संदेश मे नरसिंह राव ने बयान दिया था कि मस्जिद का निर्माण कार्य कराया जाएगा। लेकिन ऐसा नही हुआ। इसलिए अब मुझे बी जे पी से ज्यादा कुसूरवार कांग्रेस नजर आ रही है। बी जे पी का जो खेल था, वो उसने किया और उससे लाभ उठाया। अब अगर इसमे इन लोगो को सजा नही मिलती है, और मुझे विश्वास है कि नही मिलेगी। क्योंकि सी बी आई ने जो चार्जशीट फ़ाइल की है, उसमे से अडवाणी की आवाज ही गायब है। जिस वक्त अडवाणी गृहमंत्री थे, उस वक्त उन्होंने ये खेल किया। तो योग की रिपोर्ट पर बहस अब सिर्फ़ लकीर पीटने जैसा है। रिपोर्ट मे छद्म उदारवाद का जो जिक्र हुआ है उसका ठीक ठीक मतलब तो लिब्राहन साहब ही बता सकते हैं। और अगर इस शब्द पर बहस हो तो खाली ये कहने से काम नही चलेगा कि बी जे पी कैसे थी। इस शब्द का अर्थ तभी समझा जा सकेगा जब आप (कांग्रेस ) बताएँगे कि आप कैसे हैं। क्योंकि बी जे पी को जो करना था, वो वह कर के गई और देश की जनता ने उसे कूड़े पर डाल दिया। अब कांग्रेस को बताना ही पड़ेगा कि जिन लोगों ने पूरे देश को कठघरे मे खड़ा कर दिया, उनका क्या करने जा रहे हैं? लेकिन कांग्रेस से ये सवाल पूछे कौन? क्या संसद मे बैठा विपक्ष? विपक्ष देश मे है ही नही। सवाल पूछने वाले विपक्ष को अभी इस देश मे बनना है। फिलहाल दिखने वाला विपक्ष सत्ता का ही एक संस्करण है। इतनी सरकारें देश ने देखी, यहाँ तक कि कम्युनिस्टों की भी, लेकिन किसी मे कोई फर्क नजर तो नही आया। इसका सीधा सा मतलब है, संसद मे विपक्ष है ही नही। खाली संसद मे विपक्षी दीर्घा मे बैठा विपक्ष नही होता। तो कुल मिलकर ये सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की सोची समझी साजिश है, खासकर कांग्रेस की। क्योंकि ऐसे वक्त मे जब देश मे बेरोजगारी चरम पर है, मंदी की मार से युवा वर्ग टूट रहा है, रही सही कसर महगाई पूरी कर दे रही है। तो इस वक्त ऐसे थोथी बातों का शिगूफा खड़ा करने का मतलब क्या है? कहीं ये देश की मूलभूत समस्याओं को एक झटके मे भुला देने की साजिश तो नही है?

Friday, November 6, 2009

आज मे बीतता हुआ कल- प्रभाष जोशी

उन्हें युगपुरुष कहना कोई अतिशयोक्ति नही होगी। एक बार उन्होंने ही कहा था कि अखबार कल का इतिहास बनाता है। बीते हुए कल का। उनकी ये बात कोई नई नही है। अखबार का चरित्र ही कुछ ऐसा है। लेकिन अखबार का एक और चरित्र होता है। एक अनोखा रूप, रंग, भाषा, संवाद शैली और निष्पक्षता। ये अखबार का सम्पादक बनाता है। ये काम प्रभाष जी ने किया और क्या खूब किया। उन्होंने नई दुनिया मे काम किया, मध्य प्रदेश के एक और अखबार मे काम किया लेकिन उनकी सारी यादें जनसत्ता मे ही सिमट कर रह जाती है। जनसत्ता से इतर जो यादे हैं, वो एक ऐसे अभिवावक की, जिसपर भरोसा रहा, हमेशा भरोसा रहा कि जब भी किसी पत्रकार के साथ कुछ हुआ या होगा, वो साथ रहेंगे। शारीरिक रूप से नही तो कलम से, माइक से या किसी भी तरह से। उनके रहने से डर नही लगता था। उनके चले जाने के बाद अब यह डर एक आत्मविश्वास मे बदलने लगा है कि वो ऐसा कर सकते थे तो हम क्यों नही। लेकिन ये आत्मविश्वास भी बगैर उनके खोखला है, सूना है। वो कल थे जो हमेशा आज के साथ बीतते थे। आने वाले कल मे भी उनका ही साया रहता था और साथ मे इंतज़ार- कि कल क्या होगा। पिछले दस से ज्यादा सालों मे, जबसे मैंने उन्हें पढ़ना-गुनना शुरू किया, हमेशा मन मे यही उत्कंठा रहती थी, न जाने कब मैं इस शख्स से मिल पाउँगा। उनके घर के इतने पास रहते हुए भी मैं कभी मिलने नही जा पाया। और शायद यही कारण है कि उनकी मौत की ख़बर सुनकर भी मैं जान बूझकर उनके घर नही गया। मुझसे ये सबकुछ बिल्कुल भी बर्दाश्त नही हो रहा था। क्योंकि ख़ुद उनका कहा आज बेमानी साबित हो रहा है। उनकी मौत पूरी तरह से बेमानी है। जो नही होनी चाहिए थी। लेकिन मौत को जस्टिफाई नही किया जा सकता। ये बात मैं जानता हूँ। फ़िर ये मन मानने को तैयार क्यों नही होता कि वो आज बीते हुए कल हो गए हैं। नही.....ऐसा नही हो सकता। गुरूजी हमेशा हैं और रहेंगे। जैसे पिछले दस सालों से मेरे साथ हैं, वैसे ही आगे भी रहेंगे.....

Thursday, September 24, 2009

गोल वार्निंग : नहाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है

अब भई , अपनी उत्तर प्रदेश सरकार के इस रवैये से हम भी इत्तेफाक रखते हैं। आदमी को नहाना नही चाहिए। नहाना खतरनाक हो सकता है। और ये कोई आज से नही, बचपन से झेल रहे हैं। बचपन मे जब हम चुपके से गुप्तार घाट पर पतारू के साथ भागकर नहाते थे, और लौटकर आते थे तो अनिल की अम्मा से लेकर अगम और मेरी अम्मा तक सोंटी लेकर पीछे पड़ जाती थीं। कि कैसे हिम्मत हुई बगैर पूछे गुप्तार घाट जाने की और वहां नहाने की। दो चार सोंटी का परसाद देकर ही मेरी और बाकी मोहल्ले की अम्माओं को चैन मिलता था। उसके बाद जब मौसी के यहाँ बाथरूम की नाली बंद करके बाथरूम मे पानी भरकर नहाते थे, तो मौसी पीछे पड़ती थी। तब से आज का दिन है, हम बेवजह नहाते ही नही। भले ही दो-दो दिन गुजर जायें। और वैसे भी उत्तर प्रदेश का जो इतिहास रहा है, उसमे नहाना काफी बुरा विषय माना गया है। अपने मुरलीवाले (अरे मुरली मनोहर ही, जोशी नही ! ) अक्सर गोपियों के कपड़े नहाते वक्त ही चुराते थे। पूरा गाँव उल्हाना देता फिरता था। कुम्भ के मेले मे एक बस नहाने के लिए लाखों लोग भागे चले जाते हैं। काहे भई? घर पे पानी नही आ रहा होता है क्या? एक बार तो इसी नहान के चक्कर मे अयोध्या के पास बड़ी रेल दुर्घटना हुई थी, कई लोगो की जान चली गई थी। नहाने से बचने का उल्लेख हमारी पुरानी किताबों मे भी मिलता है। कि फला देवता नहाने ही तो गए थे कि कोई उनका पैर ही पकड़े खीचे चला जा रहा था। बड़ी मुश्किल से अपने साथी देवताओं का ध्यान किया, मख्खन लगाया, तब कही जाकर छूटे। अब ऐसे मे कांग्रेस देस के युवराज भइया राहुल गाँधी अपने छेदी भइया के घर हैंडपंप से नहा लें, तो उत्तर प्रदेश सरकार और अब बहन नही, अम्मा मायावती को बुरा लग जाय तो इसमे हैरानी की कोई बात ही नही। भई , पुराना इतिहास रहा है प्रदेश का। उत्तर से उत्तम होते हुए भले चाहे गन्धैलों का प्रदेश हो जाए। छेदी भइया भले ही गदगद हो जाए, नहाना खतरे से खाली नही है। एक बात नही समझ आ रही है, अम्मा मायावती का झगडा राहुल के हैंडपंप के नीचे बैठकर नहाने से है, या सिर्फ़ नहाने से है या फ़िर एस पी जी वालों की सुरक्षा मे नहाने से है? अब ये तो खैर वही बता सकती हैं। लेकिन एक नहाने के मुद्दे पर पूरी एक सरकार का भड़कना.....
लेकिन ठीक भी है। रोज रोज नहाने से एक तो साबुन घिसता है और अगर ऐसे मे किसी छेदी भइया जैसे के घर पर नहाया जाय तो क्या पता? कल को वह घिसे हुए साबुन का हर्जाना मांग बैठे? ऐसे मे तो प्रदेश सरकार के राजकोष पर बुरा असर पड़ेगा। पार्क बनने बंद हो जायेंगे, लखनऊ की विकास योजनायें अधूरी रह जाएँगी, बिजली तो वैसे ही रुला रही है, तब और भी रुलाने लगेगी। सरकार का पूरा ध्यान साबुन की आपूर्ति मे ही लग जाएगा। अब एक साबुन के लिए तो सरकार बैठी नही है। बिजली की कोई जिम्मेदारी नही है। सड़क क्या होती है, अभी तक समझ मे ही नही आया, हाँ, साबुन क्या होता है, ये जरूर समझ मे आ रहा है। आखिर राजकोष से चवन्नी निकल जाने का खतरा जो है। लेकिन सरकार के पंच प्यारों पर भरोसा रखिये। जल्द ही वह प्रदेश का साबुनीय घाटा पूरा करने के लिए साढ़े दो हजार करोड़ का एक मांग बजट केन्द्र के समक्ष प्रस्तुत करने जा रहे हैं। अब इस साबुन से लखनऊ के तरह तरह के पार्कों मे लगे पत्थर नहायेंगे या फ़िर छेदी पासवान। इसके बारे मे सूचनाएँ अभी गोपनीय रखी जा रही हैं। बहरहाल, प्रदेश मे रहने वालों के लिए इतना ही संदेस काफ़ी है कि नहाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

Friday, August 28, 2009

तनी देखो, मर तो नही गवा ?

कुछ दिन पहले फैजाबाद के पास के जंगल मे एक तेंदुआ आया। कुछ जानवरों को तो कुछ बच्चो को खा भी गया। बड़ा हल्ला मचा। यहाँ वहाँ, न जाने कहाँ कहाँ से शिकारी आए, कई दिन तक जंगल की ख़ाक छानते रहे, लेकिन तेंदुआ भी कम नही। शिकारी एक कदम आगे बढायें तो तेंदुआ चार फर्लांग दूर जाकर मुह चिढाये। राम राम करते हुए आखिरकार शिकारियों ने तेंदुए को मार गिराया। जब तेंदुए के मरने की ख़बर फैजाबाद पहुची तो वह से कई लोग उसे देखने के लिए गए। तेंदुए के आस पास देखने वाले लोग बार बार उसे टहोक रहे थे। जैसे कि पता लगाने की कोशिश कर रहे हों कि मर तो गया है या नही? जिन्दा हुआ तो अभी और लोगों को मारेगा। आजकल बी जे पी कि भी हालत खौराये तेंदुए से कुछ ज्यादा अच्छी नही दिखाई दे रही है। यहाँ वहां न जाने कहा कहा से लोग बी जे पी को देखने आ रहे हैं। वही उसके हाथ से बने शिकारों की भी कोई कमी नही है। वैसे बी जे पी के पास शिकारों के शायद ही कभी कोई कमी रही हो। जिस विचारधारा की ये पार्टी है, आजादी के आन्दोलन मे हमेशा लोगों से उल्टे चले, उसके बाद फैजाबाद मे मस्जिद तोड़कर एक बार फ़िर से साबित कर दिया कि उन्हें इस देश के लोगों से कुछ लेना देना नही है। और फ़िर गुजरात मे जो किया, वो तो खैर तेंदुए को भी शर्माने पर मजबूर कर देता है। बी जे पी और उसके समर्थकों ने गुजरात मे मौत का जो तांडव किया, लोगों को मारा, उनकी बददुआयें कभी तो नजर आनी थी। बददुआओं ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। बी जे पी का विनाश सुनिश्चित हो चुका है। मदनलाल खुराना हों या उमा भरती। जसवंत सिंह हों या अरुण शौरी। एक के बाद एक नेता अब बी जे पी की खिलाफत मे उतरने लगे हैं। मजे की बात तो ये कि सबसे बड़ा शिकारी भी दिल्ली मे ये देखने के लिए पहुच गया कि मर तो नही गई बी जे पी? और अंत मे उन्हें कहना ही पड़ा कि भाई , खून का रिसाव तो हो रहा है....उसे बंद करने की जरूरत है। लेकिन एक बात तो तय है, बी जे पी अब दोबारा कभी भी सत्ता मे नही आने वाली। अगले लोक सभा चुनाव मे वह प्रमुख विपक्षी दल भी बनकर रह जाए तो भी गनीमत ही समझिये।

Monday, August 17, 2009

मेरे बहाने पत्रकारिता की मर्यादा पर आत्ममंथन हो- -जरनैल सिंह-

भड़ास फॉर मीडिया से साभार....
सर्वाधिकार भड़ास फॉर मीडिया

मैंने पत्रकारिता की मर्यादा का उल्लंघन किया था। इसकी मुझे सजा भी मिल गई। मुझे सजा से कोई ऐतराज नहीं है। सजा कितनी होनी चाहिए थी, ये जरूर बहस का विषय हो सकता है। लेकिन सवाल यह है कि जो अखबार रिपोर्टर को खुद दलाली करने पर मजबूर करते हैं, पैसा लेकर उम्मीदवारों को चुनाव हराते और जिताते हैं, ईमानदारी से पत्रकारिता करने की सजा देते हैं, नेताओं के दबाव में निर्दोष पत्रकार की नौकरी लेते हैं या दंडित करते हैं, खबरों को सही परिप्रेक्ष्य से हटा कर जानबूझ कर पक्षपाती एंगल देते हैं, पैसे लेकर माफियाओं और अपराधियों को दूध का धुला साबित करते हैं, क्या वह पत्रकारिता की मर्यादा का उल्लंघन करने में मुझसे बड़े गुनाहगार नहीं है? मेरा तरीका गलत था लेकिन मुद्दा हजारों-लाखों मजबूर दंगा पीड़ितों की आह को आवाज देना था। मैंने अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई, वह भी 25 साल के इंतजार के बाद। जो अखबार व पत्रकार सिर्फ स्वार्थ के आधार पर पत्रकारिता की मर्यादा को जूतों तले रौद रहे हैं, क्या वह पत्रकारिता की मर्यादा की बात करने के काबिल हैं?

सोचना होगा कि आज कलम की ताकत कम क्यों होती जा रही है? मीडिया की विश्वसनीयता कटघरे में क्यों है? आखिर वह काम जो कलम को करना चाहिए था, वह जूते से कैसे संभव हुआ? अन्याय के खिलाफ विरोध के अप्रत्याशित तरीके अपनाने को लोग क्यों मजबूर हो रहे हैं? आखिर कलम व अखबार उनके उत्पीड़न को स्वर क्यों नही दे पा रहा है? अगर कुछ लिख भी रहे हैं तो उसका प्रभाव क्यों कम हो गया है? ये घटनाएं कलम की घटती विश्वसनीयता, जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने की प्रवृत्ति का ही परिणाम तो नहीं है?

Wednesday, August 12, 2009

भूपेन याद हैं ?

भूपेन याद हैं आप सबको ? नही? जाहिर है कि ब्लॉग जगत मे पहली बार समानता का परचम लहराने वाले भूपेन और समानता की वकालत का नतीजा भुगत चुके भूपेन अपनी ब्लॉग जगत पर कम हलचल की वजह से शायद ब्लॉग जगत मे भुला दिए गए हों, लेकिन मैं नही भूल सकता। और जिसे करने मेमुझे अभी बार बार सोचना पड़ता है, उन्होंने कर के दिखा दिया। उनके बारे मे अक्सर लोग फोन पर या किसी और माध्यम पर मुझसे सवाल किया करते हैं। जैसे कि भूपेन आजकल कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं। दरअसल पिछले कई महीनों से वह काफी परशान चल रहे थे- नौकरी और जिन्गदी, दोनों से। उनके बारे मे याद है मुझे कि कई लोगों ने मुझसे कहा कि भूपेन कुछ अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के तो नही लगते। मैंने कहा नही, मुझे तो वो ऐसे नही लगते। सिनेमा हो या कहानी, राजनीति हो या थियेटर - किसी भी विषय पर उनसे बात कर लीजिये, कई सारी नई जानकारियां मिलेंगी। ज्यादातर लोगों को पता होगा कि भूपेन इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार हैं। लेकिन अब ऐसा नही है। मीडिया जगत की हंस नुमा कहानियों के किसी नायक की तरह उन्होंने इस दुनिया को न अलविदा करने का पूरा मन बना लिया बल्कि उन्होंने पत्रकारिता जगत को अलविदा कर दिया है.... पिछले कुछ सालों मे उनसे मेरी वाकफियत के दौरान मैंने जितना उन्हें जाना है, उसके मुताबिक ये काम तो उन्हें कई सालों पहले कर लेना चाहिए था, लेकिन अब जाकर किया है, तो अब भी अच्छा ही है। आज तक हमारी जब भी मुलाकात हुई, उन्होंने मुझसे हमेशा ही कहा कि काश उन्हें कही पढ़ाने को मिल जाए। पढाना भूपेन का सपना था और अब हकीकत मे बदल रहा है। इस सपने को पूरा करने मे मेरा मानना है कि उनके दफ्तर , उनके कामकाज का भी बड़ा हाथ रहा है। पिछले कुछ दिनों से वह मुझसे लगातार कह रहे थे कि अब दफ्तर मे काम करना आसान नही रह गया है। पिछले महीने मिले तो बुरी तरह मानसिक रूप से थके हुए। (भूपेन के मानसिक रूप से थके होने पर भी हमने कितने मजे किए, वो किस्सा बाद मे ) तब भी उन्होंने यही इच्छा जाहिर की थी। भूपेन अपने सपने को आंशिक रूप से साकार करने मे कामयाब हो गए हैं, फिलहाल आई ई एम् सी मे पढ़ा रहे हैं। रोज सुबह ऑन लाइन उनसे जब बात होती है तो अब भूपेन यह नही कहते कि काश पढाने को मिल जाता.....भूपेन कहते हैं कि बच्चे इन्तजार कर रहे होंगे... वैसे भूपेन जैसे पत्रकार का जाना पत्रकारिता जगत के लिए काफ़ी नुकसानदायक है। भूपेन को जितना मैं जानता हूँ, उनके जैसे पत्रकार पत्रकारों मे उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। ये पत्रकारिता जगत की खामी रही की ये जगत उन्हें संभल नही पाया, खो दिया।

Saturday, August 8, 2009

आख़िर क्यों आई खरीफ की कम उपज ?

प्रधानमन्त्री के नाम एक पत्र।

प्रिय प्रधानमन्त्री जी।
अभी कल की ही तो बात है जब आपने ये बयान दिया कि खरीफ की कम उपज आने पर आने वाले समय मे अनाज की कीमतों मे बढोत्तरी हो सकती है। लेकिन ये क्यों नही बताया कि आख़िर क्या बात रही कि देश मे खरीफ की कम उपज आई। पिछले साल भी तो इस देश मे आपकी ही सरकार थी और उसके भी पिछले साल आपकी ही सरकार थी और आप ही प्रधानमन्त्री थे। बरसात की बात करें तो पिछले दो सालों से तो बरसात बस यूँ ही आ रही ही और गुजर जा रही है। क्या इसके लिए आपने कुछ इंतजामात किए? आपको तो सिर्फ़ कह भर देना है की कीमतों मे बढोत्तरी होनी ही है। लेकिन क्या आप जानते हैं की इससे सबसे पहले आपका वही किसान मारा जाएगा जो खेतों मे फसलें उगाता है। जाहिर है कि आपने कुछ भी नही किया। रक्षा बजट हो या विदेशी कंपनियों को बढ़ावा देना उन्हें सब्सिडी देना, आप उन मामलो को तो सबसे पहले आगे बढाते हैं, लेकिन देश के ३२ करोड़ लोगो को एक साथ क्यों भूल जाते है । कृषि बजट आपका कितना रहा, ये शर्मनाक बात तो आप बताना ही नही चाहेंगे। आप किसानो के कितने हित चिन्तक है, ये बात तो उस महाराष्ट्र से पता चल गई जहाँ आप पैसे बांटने गए थे और आज तक किसी को भी पैसे नही मिले। मुझे तो लगता है कि ये नियत मे खोट है। नही तो आदमी अगर कोई काम करना चाहे और ना कर पाये, ऐसा तो हो ही नही सकता। आख़िर आपने प्रधानमंत्री बनना चाहा और बन भी गए। उस नियत मे कोई खोट नही था तो फ़िर हमारे अन्न दाताओं के लिए नियत मे खोट क्यों? क्यों नही खरीफ का इंतजाम पिछले साल ही किया गया। पश्चिम के कुछ प्रदेशों को छोड़ दें तो भारत के ज्यादातर प्रदेशों मे किसान किस अनाज पर निर्भर रहते हैं ? प्रधानमन्त्री जी, पता नही आवाजें आपके कान मे जाती हैं या नही, मुझे उम्मीद है कि नही जाती होंगी। नही तो आपकी पार्टी के युवराज के पास सिर्फ़ बुंदेलखंड का मुद्दा न होता। पिछले ६ सालों से तो पूरा देश और पूरे देश के किसान ख़ुद मे ही बुंदेलखंड बन गए हैं। कभी कोई फ़िक्र की आपने? या शर्म अल शेक आपके लिए ज्यादा जरूरी है? अमेरिका का पिछलग्गू बनना आपके लिए ज्यादा जरूरी है? प्रधान मंत्री जी, इस पत्र मे लिखी गई बातों के लिए आप बुरा ना माने, क्यों कि ये एक आम आदमी की आवाज है, वह आदमी, जिसके बच्चों के स्कूल वालों ने मनमानी फीस बढ़ा दी है लेकिन आप कुछ नही कर रहे, जिसे दाल के लिए दुगनी कीमत चुकानी पड़ रही है लेकिन उसकी तनख्वाह नही बढ़ी है।

Thursday, August 6, 2009

कार्ड खरोचन मशीन

दफ्तर से वापस लौटकर कही बाहर जाने का मन नही होता है। और अगर थोड़ा सा भी पसर लिए, तब तो अल्लाह ही मालिक है। फ़िर तो चाहे कोई भी आवाज देता रहे, मैं और मेरी तन्हाई पीछा छोड़ने का नाम ही नही लेते। और अगर ऐसे मे अगर मजबूरन कुछ लाने बाहर निकलना हो और जेब मे पैसे न हों तो.... पहले अम्मा याद आती थीं, अब टी एम् या वो कार्ड खरोचने वाली मशीन याद आती है। कुछ ख्याली पुलाव भी मन मे घपर झोल करने लगे। सोचा की काश ऐसा होता की जो समान मांगना है, उसका फोन पर ही ऑर्डर हो जाता और फोन करने पर जो डिलीवरी बॉय आता , वो वही कार्ड खरोचने वाली मशीन भी साथ लाता। अब जब कैश लेस बनने का संकल्प किया ही है तो ससुर सब्जी और बंधानी हींग भी घर पे ही कैश लेस मिले। लेकिन फ़िर सोचे साला ऐसा अगर हो गया तो ससुर पूरे देस की हालत ही पतली हो जायेगी। ब्लैक मनी कहा जायेगी?.......
ब्लैक मनी कहा गई, आगे जानने के लिए चट्काइये..... डेली डायरी

Tuesday, August 4, 2009

माफ़ी के साथ....

माफ़ी के साथ मैं ये बताना चाहता हूँ की १२ पत्थर के नाम से जो ब्लॉग शुरू हुआ था, उसमे मेरे नाम की जगह किसी दूसरे शख्स का नाम हैएक ऐसा शख्स, जिसे पढने लिखने से कोई मतलब नही, और ये बात मैंने पिछले साल मे अच्छी तरह से जान ली हैइसलिए, अब वो ब्लॉग मेरा है, और उसमे लिखी सारी चीजें मेरी हैं। ye सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मैंने ही वो सारी चीजें लिखी थी.... इसके साथ ही उस शख्स से भी माफ़ी, की मैं अब मेरा ही बनाया और लिखा हुआ ब्लॉग उससे वापस ले रहा हूँ....पेश है उस ब्लॉग की पहली पोस्ट जो मुझे काफ़ी पसंद है....

एक मुहल्ले का मिलन स्थल , सभी उमरों की पसंदीदा जगह , चारों तरफ़ से पेड़ों से घिरा और बीच मे एक ख़ूब बड़ा सा मैदान । जिसके अगल बगल होमिओपैथी, एलोपैथी ,तरह तरह के नर्सिंग होम और डॉक्टरी के ढेर सारे खंभे पाए जाते हैं और उनसे निकलने वाला करंट सारे शहर मे मुसलसल दौड़ता रहता है ॥दौड़ता रहता है ..हमने सोचा कि क्यों ना इस दौड़ को एक मुकाम दिया जाए जो सीधे उस जगह से शुरू हो जहाँ पर हमने दौड़ना सीखा था . बस यही सोच कर हमने उस मुकाम को नाम दिया बारह पत्थर . यही वो जगह है जहा मुहल्ले का हर बड़ा आदमी जो अब काफ़ी बड़ा हो गया है , कभी बगलों से फटी शर्ट पहन के फ़ुटबॉल खेलने मे कोई शर्म महसूस नही करता था लेकिन पता नही क्यों अब करता है .. ख़ैर ये ब्लॉग नामा इस बात को कुरेदने की क़तई कोशिश नही कर रहा है कि अब वो लोग वहा नज़र क्यों नही आते .. ये तो बस एक याद को संभालने के लिए है जिसे हम सब भूल नही सकते , क्योंकि नगर पालिका की चहारदीवारी से घिरा वो इमली का पेड़ अभी भी है. लेकिन वहाँ जो नही है , वो है वहाँ का मैदान , जिस पर अब मिलेट्री वालों ने क़ब्ज़ा कर लिया है और पूरी तरह से उस मोहल्ले के ही नही बल्कि आस पास के तीन चार ज़िलों के लोग अब उस मैदान से मरहूँ हो गये हैं और इसकी छाया अक्सर पुराने लोगों के चेहरे पर देखी जा सकती है , अब मुहल्ले के बच्चे अपनी अपनी छतों पे खेलते हैं या शायद फिर आर्यकन्या वाले मैदान मे , डंपू तो अपने मैदान मे किसी को खेलने ही नही देता बहुत बदमाश था और अभी भी है .. पता नही उसकी लड़की "शांति" के क्या हाल हैं . जबसे मैदान बंद हुआ तबसे सब लोग मुहल्ले मे ही सिमट गाये हैं . सेंट्रल स्कूल भी कहीं और चला गया है , वही स्कूल जहाँ से गली मे पहली बार गमले चुरा कर लाए गये थे और गली मे एक नये फ़ैशन की शुरुवात हुई थी ... ये बारह पत्थर कभी छूट सकता है क्या ?


इस मैदान मे मैंने अपना पूरा बचपन गुजरा है....बल्कि जवानी मे दाढी का पहला बाल भी यहीं से निकलना याद आता है....इस १२ पत्थर का कोई मोल है क्या ?

डेली डायरी - एक नया ब्लॉग

डेली डायरी के नाम से आज से एक नया ब्लॉग शुरू कर रहा हूँ। ये ब्लॉग पत्रकारिता के उन रहस्यों को साफ़-साफ़ सामने लाने की कोशिश करेगा, जो रोज की दिनचर्या मे किसी एक पत्रकार के सामने आते हैं। मुश्किलें कम होंगी, इसकी आशा तो न के बराबर है, लेकिन कई नई और रोचक जानकारियाँ सामने आयेंगी इस बात की उम्मीद पूरी है। इसे ब्लॉग सूची मे दाल दिया है और यहाँ लिंक भी दे रहा हूँ। टाइम कम होने की वजह से चिठ्ठाजगत और ब्लोग्वानी से ये कुछ समय बाद ही जुड़ पायेगा। ये रहा लिंक--- डेली डायरी

Friday, July 31, 2009

और पीछे जाता समय

अयोध्या से लौटते हुए ऐसा नही लगा की पीछे कुछ छोड़े जा रहा हूँ। यही लगा की पीछा छूटा। दरअसल लगातार हिंदुत्व की राजनीती का शिकार बनी अयोध्या का अब कोई नामलेवा नही रह गया है। हर तरफ़ एक भयाक्रांत अव्यवस्था का ही बोलबाला दिखा। एक भय हमेशा संगीनों के साए मे रहने का, एक अव्यवस्था जो सरकारों से लेकर प्रशासनिक अधिकारीयों की बदौलत फैली रहती है। बाकी जो कुछ बचता है, वह लोगो की आदतें पूरी कर देती हैं। विकास के नाम पर एक ईंट भी नही लगी दिखाई दी, अलबत्ता ये जरूर सुनने को मिला की अगर किसी ने यहाँ का विकास करना चाहा तो जानबूझकर उसे दरकिनार कर दिया गया।
ये तकरीबन नौ दस साल पहले की बात है। अयोध्या मे कोरिया से एक प्रतिनिधिमंडल आया। ये लोग कोरिया के करक वंश से थे और बताते थे की काफ़ी समय पहले अयोध्या के राजवंश की एक राजकुमारी समुद्र यात्रा करके कोरिया पहुची। वहा उसने राजा से शादी की और उस राजा से उसे आठ बच्चे हुए। उनमे से सात तो बौध भिक्षु बन गए और बाकि बचे एक बच्चे से आज कोरिया मे करक वंश के लोग मौजूद हैं। ये लोग अपने नाम के आगे या पीछे किम लगते हैं। बहरहाल, इन लोगो का कहना था की अयोध्या उनकी ननिहाल है और वह अपनी ननिहाल को सुंदर और विकसित देखना कहते हैं। इसके लिए इन्होने विकास का एक प्रस्ताव भी रखा। इस प्रस्ताव पर जब बात आगे बढ़ी तो सन २००० से २००२ के बीच मे उत्तर प्रदेश सरकार का एक प्रतिनिधिमंडल कोरिया भी गया। इसमे तत्कालिन पर्यटन मंत्री कोकब भी शामिल थे। इसके बाद एक और प्रतिनिधिमंडल गया और दूसरे दौर के वार्ता शुरू हुई। दूसरे दौर की वार्ता मे तय हुआ की कोरियन प्रतिनिधिमंडल एक प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजे। प्रस्ताव भेजा गया। उस समय केन्द्र मे भाजपा की सरकार थी । माननीय कथित लौह पुरूष अडवाणी गृहमंत्री हुआ करते थे। अयोध्या के ही कुछ लोगो ने बताया की उन्होंने कोरियन प्रतिनिधिमंडल को अयोध्या मे विकास कराने की अनुमति नही दी।
ये तो हुई वक्त की बात। अब थोड़ा सा वक्त के और पीछे चलते हैं। श्री लंकाई और वर्मा के कुछ ग्रंथो मे मिलता है की भगवन बुध साल मे कुछ समय अयोध्या मे काटा करते थे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिला जब जन्म भूमि की खुदाई के दौरान बुध कालीन भांड और अन्य बर्तन, मूर्तियाँ मिलने लगी। हिंदुत्व की सारी राजनीति इसमे मिलकर गायब होने जा रही थी। ऊपर से अगर केन्द्र की भाजपा सरकार कोरियन प्रतिनिधिमंडल का प्रस्ताव स्वीकार कर लेती तो इस बात पर पक्की मुहर लग जाती की अयोध्या का इतिहास न तो हिन्दुओं से सम्बंधित है और न ही मुस्लिम समुदाय से। हिंदू मुस्लिम की राजनीति चलती रहे, उसका लौह पुरूष ने लोहा लाट तरीका निकला। अयोध्या को विकास की दौड़ मे पीछे कर देने का। तभी अयोध्या से लौटते वक्त कुछ ऐसा नही लग रहा की कुछ पीछे छोड़ आए।

मिल गया एक कनेक्शन

चंद लाइने हैं जो शायद ख़ुद को मुबारक बाद देने के लिए हैं, या फ़िर एक बीते हुए युग को याद करके उसे दोबारा वापस पाने की खुशी मे हैं.. मुझे एक इंटरनेट कनेक्शन मिल गया है, जाहिर है, अब ब्लॉग्गिंग फ़िर से शुरू हो सकती है, तकरीबन शुरू हो चुकी है। बजार खुल चुका है... देर है तो अभी दुकानों के लगने की। वैसे शनि बजार की मानिंद सुबह सुबह ही तख्ते गिरने शुरू हो गए हैं.... मिस्टर बजार .... मुबारक हो....