Friday, August 17, 2007

वो काटा !!

पन्द्रह अगस्त के दिन मैंने अपनी छत से नोयडा के आसमान मे न जाने कितनी रंग बिरंगी पतंगों को नाचते , इठलाते देखा और शायद पतंग से ज्यादा लोगों को। अच्छा लगा । मैंने इस पतंग बाजी को आज़ादी से जोड़ने की कोशिश की तो यही नतीजा हाथ लगा कि जैसे पतंग आज़ादी से उड़ रही है लेकिन डोर किसी और के हाथ मे है , उसी तरह कहने को तो हम आजाद हैं पर डोर किसी दूसरे देश के हाथ मे हैं। फर्क यही है कि १९४७ के पहले हम मजबूरन गुलाम थे , आज हमने अपनी गुलामी मोल ले ली है। खैर, इस देश की राजनीति को छोड़ कर मैं अपनी सीधी साधी बात पर आती हूँ। मैं एक छोटे से शहर रांची की लडकी हूँ। हालांकि है तो वो भी एक राजधानी ही लेकिन so called delhi वाले , मेरा मतलब है नोयडा वाले बिना किसी भावना का ख्याल किये मुझे गाँव का ठहरा देते हैं। या शायद चार महानगरों को छोड़कर बाक़ी जगह इनके लिए गाँव जैसा ही है।
बहरहाल , वहाँ ऎसी पतंगबाजी का नज़ारा रोज़ ही होता है। इसके लिए किसी दिन विशेष का इन्तजार करने की जरूरत नही। बस मौसम का ख्याल जरूर होता है। इसे एक काम कि तरह नही लिया जाता है कि आज उडाना है , उड़ा लिया। और ऐसा उड़ाये कि बीस-पच्चीस हादसे तो तय हैं। मैंने अपने शहर मे इसका जो आनंद लिया , यहाँ ऎसी बात ही नही दिखी। ये सच है कि पतंग कोई मंहगी चीज़ नही पर इसका मर्म तो समझिए । वहाँ किसी की पतंग हलकी सी फटी तो चिपका के उडाई जाती है। किसी के छत पर चली गई तो जब तक उससे ले ना लें , चैन कहॉ ? सीढ़ी के नीचे चाहे चार पतंगे छुपा के रखी हों लेकिन किसी की लूटी हुई पतंग को उड़ाने का मजा कि कुछ और है। पर यहाँ ऐसा कुछ नही कि । एक कटी तो रईसों की तरह दूसरी निकली , हलकी सी फटी तो फाड़ के फेंक दिया । हो सकता है एक दिन उडाना है तो इस सबका ख्याल नही रखा जाता है। हमारे यहाँ तो रोज़ उडाना है , सो बज़ट के बारे मे भी सोचना पड़ता है।
पहले हम सभी छत पर चढ़ जाते थे। भाई पतंग उडाता और हम पीछे पीछे हेल्पर बनके रहते । कभी कभी डोर हमारे हाथ मे आ जाती , बस फिर क्या था.....हम लगते थे पगलाने। धीरे धीरे ये सब छूटता गया। अब उड़ाना तो नही हो पाता पर सबको उड़ाते चिल्लाते देख बहुत मजा आता है। और अगर कोई पतंग मेरे छत पर आ जाती है तो मैं चुपचाप उसे छुपा देती हूँ और सड़क पर घूमने वाले बच्चों को बुलाकर दे देती हूँ , जिनके लिए ये बहुत कीमती होता है और उसको पाकर उनके चहरे की ख़ुशी मेरे लिए शायद सबसे कीमती है।

कम्युनिस्ट मुसलमानों के बीच काम क्यों करें

बजार पर चढ़ी शाहनवाज आलम की पोस्ट आतंकवादी कौन बनाता है के जवाब में एक बेनामी टिप्पणी छपी है जिसमें कम्युनिस्टों के नाम लानत भेजी गई है- यह कहते हुए कि मुसलमानों के बीच इनका कोई काम नहीं है और यहां उनका जनाधार भाजपा से भी कम है। इस आक्रोश का कारण चाहे जो भी हो लेकिन बात यह तथ्य से परे है। देश के जिन-जिन इलाकों में कम्युनिस्टों का काम है वहां अन्य समुदायों की तरह ही आनुपातिक रूप से मुसलमानों के बीच भी उनका जनाधार मौजूद है, फिर चाहे वह केरल, बंगाल और त्रिपुरा हो, आंध्र प्रदेश और बिहार हो, या फिर उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और अन्य राज्यों के छिटपुट इलाके हों। यह बताने का मकसद सिर्फ एक तथ्य का हवाला देना है, इसमें आत्मसंतुष्टि जैसी कोई बात नहीं है। यह हकीकत अपनी जगह है कि मुसलमानों के बीच कम्युनिज्म तो क्या उदार-वाम या मध्यमार्गी सोच की भी अपनी कोई मुख्तलिफ धारा नहीं है। इसपर अलग से विचार करने की जरूरत है क्योंकि समाजवादियों से लेकर क्षेत्रीय दलों, और तो और कांग्रेंस तक, शायद ही देश की कोई राजनीतिक धारा दावे के साथ यह कह सके कि मुसलमानों के बीच एक स्वतंत्र सोच के रूप में उसकी मौजूदगी है और वहां जरूरत पड़ने पर वह किसी कट्टरपंथी अलोकतांत्रिक विचारधारा का डटकर मुकाबला कर सकती है। कोई दो पैसे के फायदे के लिए या अपनी किसी मजबूरीवश आपके चुनाव चिह्न पर मोहर मार देता है, इसका मतलब यह तो कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि वह आपकी विचारधारा से जुड़ा हुआ है। कम्युनिस्टों के लिए मुसलमानों को अपनी पार्टी या जनसंगठनों में शामिल करना और मुस्लिम समुदाय के भीतर अपनी स्वतंत्र धारा बनाना दो अलग-अलग काम हैं, जिनमें पहला काम वे अपनी समझ के मुताबिक पूरी ईमानदारी और मनोयोग से करते आए हैं। इसमें जो ढीलापोली हुई है उसका शिकार उनका पूरा जनाधार हुआ है, मुसलमानों के लिए इसमें अलग से कहने को कुछ नहीं है। जहां तक दूसरे काम का सवाल है, इस बारे में अलग से उनका कभी कोई एजेंडा नहीं रहा और इसे लेकर उनके बीच काफी कन्फ्यूजन भी देखने को मिलता रहा है। बुनियादी मुश्किल दर्शन और विचारधारा के स्तर पर आती है। एक समुदाय के रूप में मुसलमानों के बीच नास्तिकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है और कम्युनिस्ट उस सामूहिक धार्मिकता के साथ कोई तालमेल नहीं बिठा पाते जो किसी भी मुस्लिम जमावड़े में सहज ही जाहिर होने लगती है। पुराने कम्युनिस्टों का सामना इस मुश्किल से शायद उतना न हुआ हो लेकिन जिन कम्युनिस्टों ने पिछले बीस वर्षों में, यानी 1987 के बाद से मुसलमानों के बीच काम किया है, वे इससे काफी नजदीकी से जूझते रहे हैं। आक्रामक हुए हिंदुत्व ने इस समुदाय के भीतर जो असुरक्षा पैदा की उसमें इस समुदाय के उदार हिस्सों को कम्युनिस्ट अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी मालूम पड़े। लेकिन इस लगाव को कोई दीर्घकालिक स्वरूप नहीं दिया जा सका क्योंकि इसका कोई सांगठनिक या वैचारिक आधार खोजा या बनाया नहीं जा सका। नतीजा यह हुआ कि जो राजनीतिक-सामाजिक शक्तियां 1989 से 1992 तक लगभग लगातार ही मुसलमानों के खिलाफ चली सांप्रदायिक हिंसा में दुम दबाए घर में बैठी रहीं या वक्त-बेवक्त मुसलमानों के खिलाफ खड़ी रहीं, वे ही बाद में उनका नेतृत्व करने लगीं। जमीनी स्तर पर 1992 के बाद से एक समुदाय के रूप में मुसलमानों का जबर्दस्त अराजनीतिकरण हुआ। विधायिका, कार्यपालिका और न्यापालिका से लेकर मीडिया तक हर संस्था से अचानक हुए मोहभंग ने उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसका दी। आत्मरक्षा के नाम पर वे चुनाव में किसी को भी वोट देने को तैयार होने लगे, मोहल्ले का सबसे कुंदजेहन कट्टरपंथी गुंडा उन्हें अपना रक्षक लगने लगा और घरों के भीतर लाल किले से लेकर ह्वाइट हाउस तक इस्लाम का हरा झंडा गाड़ देने का दावा करने वाले कैसेट और सीडी देखने-सुनने में उन्हें अपने-अपने से लगने लगे। सन् 2004 के अप्रत्याशित सत्ता परिवर्तन के बावजूद यह स्थिति आज भी रत्ती भर बदली नहीं है लिहाजा जो लोग मुसलमानों के बीच वामपंथी या उदारवादी विचारधाराओं की अनुपस्थिति से चिंतित हैं वे यह अच्छी तरह जान लें कि यह मामला बहुत गंभीर है और इस बारे में सिर्फ कम्युनिस्टों की लानत-मलामत करने का मतलब होम्योपैथी से ऐडवांस स्टेज कैंसर का इलाज करने जैसा है। इस बारे में मैं धनिए की छौंक की तरह थोड़ा सा अपना तजुर्बा बता सकता हूं जो हर मायने में किसी भी आम कम्युनिस्ट जैसा ही है। आरा शहर में मुस्लिम इलाकों में हमारा काम पेशा आधारित था। कुछ पेशे ऐसे थे जिसमें मुसलमान मजदूरों की बहुतायत थी। जैसे दर्जी का काम, बक्सा बनाना, कुछ खास तरह के चमड़े के काम, घोड़े की नाल ठोंकने जैसे छिटपुट काम, फुटपाथ की दुकानदारी या ठेले पर अंडा-आमलेट बेचना वगैरह। इन पेशों में हमारी पार्टी सीपीआई-एमएल का पुराना संगठन मौजूद था। काम के दौरान संपर्क में आए हमारे साथी सीधे-सादे जुझारू लोग थे। राजनीतिक आधार पर अपने समुदाय में काम करना या संगठन बनाना उनकी कल्पना से परे था। 1989-92 में इस दिशा में काम शुरू हुआ तो थोड़ी कामयाबी मिली। आरा के मुस्लिम इलाकों में कुल 32 बिरादरियों के लोग रहते थे जिनमें ज्यादातर के चौधरियों के यहां हमारी बैठकें हुईं। और तो और, जुमे के दिन हमें मस्जिदों में भाषण देने के लिए बुलाया गया। लेकिन उसके बाद मुस्लिम समाज के ताकतवर और रसूखदार लोगों को लगने लगा कि अब उनकी हैसियत इतनी ही रह गई है कि वे दर्जियों, बक्सा बनाने वालों और अंडे बेचने वालों के साथ मिलकर मीटिंग करें, नारा लगाएं। नतीजा यह हुआ कि जल्द ही वे लालू यादव की पार्टी के नजदीक चले गए और मुसलमानों के बीच हमारी पार्टी पुनर्मूषको भव वाली स्थिति में आ गई। इस बात को लेकर मैं आश्वस्त हूं कि कम्युनिस्टों के लिए मुसलमानों के बीच अपना प्रभावक्षेत्र बढ़ाने का रास्ता वर्गीय और तबकाई संगठनों के निर्माण से ही शुरू होता है लेकिन इसमें भी एक मुश्किल है कि खड्डी चलाने और दर्जीगिरी जैसे मेहनतकश पेशों में भी उनका दखल दिनोंदिन कम होता जा रहा है। जहां तक सामुदायिक पहलकदमी का सवाल है तो देश की तमाम उदार वाम धाराओं को इस बारे में मिलकर कोई पहलकदमी लेनी चाहिए- फिर चाहे वे समाजवादी हों, कम्युनिस्ट हों या गांधीवादी स्वयंसेवी संगठन हों। इस तरह की एक बुनियादी कोशिश राम मनोहर लोहिया ने जमायते उलेमा ए हिंद के जरिए की थी जो ज्यादा सिरे नहीं चढ़ी लेकिन उस कोशिश से जो कुछ भी सीखा जा सके उसे सीखा जाना चाहिए। माले की तरफ से इस दिशा में हुई इन्कलाबी मुस्लिम कॉन्फ्रेंस अपने संगठन का दायरा पार नहीं कर पाई लेकिन उस पहल से भी कुछ बचाया जरूर जाना चाहिए। विचार के स्तर पर इस मामले में कम्युनिस्टों को एक बड़े जोखिम के लिए तैयार होना होगा। आप सामूहिक धार्मिकता में यकीन करने वाले लोगों और नास्तिक दर्शन में भरोसा रखने वालों को दिल से एक कभी नहीं कर सकते। मेरे ख्याल से कम्युनिस्ट विचारधारा पर काम करने वालों को इन दोनों विचारधाराओं के बीच सैकड़ों या हजारों साल लंबे सह-अस्तित्व और बहस के लिए जगह तैयार करनी चाहिए। लेनिन जब अजरबैजान और उज्बेकिस्तान जैसे तुर्क-मुस्लिम देशों की कम्युनिस्ट क्रांति को ईरान, अफगानिस्तान और अरब मुल्कों तक फैलाने का सपना देखते थे उसके पीछे शायद उनकी कुछ ऐसी ही सोच रही हो। स्टालिन की सोच का टाइम-फ्रेम इतना लंबा नहीं था लिहाजा उन्होंने 15 आजाद समाजवादी मुल्कों के एक ढीले-ढाले लेनिनवादी जमावड़े को रूसी नेतृत्व और लौह दीवारों वाले एक अकेले देश सोवियत संघ में तब्दील कर दिया। इससे न सिर्फ एक लंबी क्रांति योजना का असमय गर्भपात हो गया बल्कि मुस्लिम समुदाय के भीतर कम्युनिस्टों को लेकर एक स्थायी संदेह का बीज भी पड़ गया। इसका सबसे पहला शिकार ईरान की तूदे पार्टी हुई, जिसे एशिया की पहली समाजवादी पार्टी होने का गौरव प्राप्त है। बाद में इसी प्रक्रिया की पूर्णाहुति स्टालिन के मानसपुत्र ब्रेज्नेव ने अफगानिस्तान में रूसी फौजें भेजकर कर दी। इस इतिहास को आज पोंछा तो नहीं जा सकता लेकिन मुसलमानों के बीच उदार-वाम विचारधारा के प्रसार को अगर सचमुच कम्युनिस्ट एजेंडा पर लाना है तो भविष्य के लिए सोच के स्तर पर बंद कुछ दरवाजे जरूर खोले जा सकते हैं।

Tuesday, August 14, 2007

कम्युनिस्टों का मुसलमानो के बीच क्या आधार है ?


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अक्सर
बेनाम लोग गुमनाम रहकर कुछ ऐसा कर जाते हैं जिसे आसानी से नज़रअंदाज नही किया जा सकताहालांकि ये बेनाम भाई कि एक टिपण्णी ही थी लेकिन इसे ऐसे ही जाने देना या इस पर बहस का होना खुद मे कई सवाल खडे कर देता हैशाहनवाज़ के लेख "कौन बनाता है आतंकवादी " पर आयी इस बेनाम टिपण्णी ने भी कई सारे सवाल खडे किये हैं

बेनामी ने कहा…

शाहनवाज़ भाई ,
आप ने जिस गहराई से पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण किया है , वह कबीले तारीफ़ है| लेकिन मैं आपकी कुछ बातों से इत्तेफ़ाक नही रखता | मसलन अगर सांप्रदायिकता की बात आती है तो मैं कम्युनिस्टों को भी वही खड़ा देखता हूँ जहाँ भाजपा और कॉंग्रेस जैसी सांप्रदायिकता का समर्थन करने वाली पार्टियों को. फ़र्क बस इतना है कि वामपंथी अगर बाएँ हैं तो ये लोग दाहिने हैं | लेकिन हैं दोनो अगल बगल ही. दोनो की राजनीति की दुकान ही एक दूसरे के विरोध से चल रही है और वो भी सब हवा मे ही. अगर ज़मीने बात करें तो ज़रा मुझे बताइए कि कम्युनिस्टों का मुसलमानो के बीच कहाँ और कैसा आधार है ? क्या गुजरात मे आपका कोई आधार है ? क्या तमिलनाडु मे आपका संगठन मुसलमानो के बीच कोई आधार है ? अच्छा चलिए , ये बताइए कि आपका बिहार के मुसलमानो मे कितना आधार है ? कोई मुसलमान आपका कहा मानता है ? उनमे भी तो उसी तरह के अंतर्विरोध पाए जाते हैं जिस तरह हिंदुओं मे . बल्कि कभी कभी तो ज़्यादा ही पाए जाते हैं , कम नही. अब आप कहेंगे कि मुसलमान अल्पसंख्यक हैं , दबाए गये हैं इसलिए उनकी आवाज़ को प्राथमिकता दी जाएगी . तो भाई साहब कब तक ? और मुसलमानो की जनसंख्या मे भागीदारी पर ध्यान जाता है आपका ? 18 करोड़ से उपर ही हैं , कम नही हैं. इतने मुसलमान तो पाकिस्तान मे भी नही हैं जितने कि यहाँ , भारत मे . हैं. और इस 17 करोड़ मे भी वही हिंदुओं वाला हाल है . कुछ ऊँची जातियाँ सबसे ऊपर हैं उनके नीच फिर उनके नीचे और फिर उनके नीचे. कभी इस बेहाल हुए हाल को आपमे से किसी ने जानने की कोशिश की या उसे ठीक करने की ? जब आपका कोई जनाधार नही है उनके बीच , कोई काम नही है , सिर्फ़ चिल्लाना है तो पड़े चिल्लाते रहिए. कुछ संघ वाले सुनेगे , च्यूटपुटीया छोड़ेंगे , फूल झड़ी जलाएँगे और उसकी रोशनी मे आप भी हर किसी को दिखाई देंगे. लीजिए , आपकी राजनीतिक पहचान का संकट तो हल हो गया. लेकिन मुसलमानों का क्या हुआ ? वो तो हर दंगो मे वैसे ही मारे जाएँगे जैसे कि मारे जाते हैं.

Sunday, August 12, 2007

कौन बनाता है आतंकवादी ?

शाहनवाज़ आलम
शाहनवाज़ का यह लेख बजार के शुरूआती दौर मे पोस्ट किया गया थामुम्बई दंगो को ध्यान मे रखते हुए यह आज और ज्यादा प्रासंगिक हो गया हैइसलिये इसे फिर से प्रकाशित कर रहा हू क्योंकि जिन्होंने इसे नही पढा था और जिन्होंने पढा था , उनके लिए ये एक अच्छा मुद्दा साबित हो सकता है

न्यायालय द्वारा किसी जघन्य अपराधी को सज़ा सुनाए जाने के बाद उसकी कही गयी बातों को अमूमन नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है . आमतौर पर एसे मे अपराधी भी ख़ुद को बेक़सूर ही कहता है लेकिन 1993 के मुंब्ई बम धमाकों के एक प्रमुख आरोपी अब्दुल ग़नी तुर्क ने अपना जुर्म और सज़ा दोनो क़बूल करते हुए विशेष टाडा न्यायालय के सामने जो बाते कही उसे लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता मे आस्था रखने वाला कोई भी आदमी नज़रअंदाज़ नही कर सकता . तुर्क , जिसके द्वारा रखे गए बमों से उन धमाको मे मारे गाये कुल 273 लोगों मे से 113 लोग हताहत हुए थे , ने सज़ा सुनने के बाद कहा कि वो क़ानून व्यवस्था मे आस्था रखने वाला व्यक्ति था और गुज़र बसर के लिए टैक्सी चलाता था . लेकिन 1992 के बाबरी ध्वंस और उसके बाद हुए दंगो मे मारे गए उसके समुदाय के लोगो तथा सांप्रदायिक पुलिस द्वारा क़ी गयी ज़्यादतियों के कारण वह बहुत हताश और क्रोधित था . उसने अपना जुर्म स्वीकार करते हुए कहा क़ी अगर क़ानून उसे सज़ा देता है तो श्री कृष्ण आयोग द्वारा दंगो मे दोषी पाए गाये लोगों को भी सज़ा मिलनी चाहिए . तुर्क क़ी इन बातों को नज़रअंदाज़ करना इसलिए ख़तरनाक है क्योकि ये हमारे पूरे तंत्र और उसकी खोखली धर्मनिरपेक्षता पर सवालिया निशान खड़ा करती है तो वही इसकी पृष्टभूमि मे एक बिना किसी अपराधिक रिकॉर्ड वाले साधारण नागरिक के एक ख़तरनाक आतंकवादी बनने क़ी पूरी प्रक्रिया को भी दर्शाती है . जिसके केंद्र मे अपने देश मे किसी इस्लामी सत्ता क़ी स्थापना या शरिया क़ानून लागू करवाने जैसी जेहादी मंशा नही बल्कि न्याय न मिल पाने के कारण उपजी मायूसी है. बहरहाल , बात करते हैं उस श्री कृष्ण आयोग की जिसे दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 के मुंब्ई दंगो तथा बम विस्फोटों की जाँच के लिए नियुक्त किया गया था . जिससे इन हादसों मे मारे गये लोगों के परिजन ने न्याय मिलने की उम्मीद की थी और जिसके पूरे न होने के कारण तुर्क जैसे कई और आतंकवाद के रास्ते पर भटकने के लिए मजबूर हुए. 6 दिसंबर,1992 को बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद मुंब्ई में भड़के सांप्रदायिक दंगो में, जिनमे सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 900 लोग मारे गये थे, जिनमे 575 मुस्लिम ,275 हिंदू और 45 अज्ञात धर्म (ये वो लोग थे जिनकी लाशों के कमर के निचले हिस्से ग़ायब थे या सड़ चुके थे जिसके कारण हमारी धर्मनिरपेक्ष पुलिस उनके धर्मों का पता नही लगा पाई) व 5 अन्य धर्मों के लोग थे . इसकी जाँच के लिए तत्कालीन नरसिंहा राव सरकार ने 25 जनवरी 1993 को एक आयोग नियुक्त किया, जिसके कार्य क्षेत्र मे मुंब्ई बम धमाकों को भी बाद मे जोड़ दिया गया . आयोग ने 16 फ़रवरी 1998 को महाराष्ट्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी . श्री कृष्ण आयोग की ये रिपोर्ट आज तक दंगो पर नियुक्त किए गये तमाम आयोगों की अपेक्षा ज़्यादा गंभीर और तटस्थ थी , विश्लेसन मे भी और सुझावों मे भी . उसकी गंभीरता का अंदाज़ सिर्फ़ इससे लग जाता है की विभिन्न राजनैतिक व धार्मिक संगठनों की बातें तो सुनी ही गयीं , मुंब्ई के टाटा इन्चिट्युट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के विशेषज्ञों की एक समिति भी दंगो के पीछे के सामाजिक व आर्थिक कारणो की जाँच के लिए नियुक्त की । तो वंही पुलिस व्यवस्था का, जिसका सांप्रदायिक रुझान इन दंगो मे खुलकर दिखा पर अध्ययन करने की ज़िम्मेदारी सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महासंचालक के.एफ़.रुसतमज़ी व महाराष्ट्र के पूर्व पुलिस महानिदेशक डी.रामचनद्रन को सौंपी . ज़ाहिर था कि ऐसी गंभीर जाँच से मुख्यधारा कि तमाम पार्टियों का चरित्र खुलकर जनता के सामने आ जाता . इसलिए इस आयोग के गठन के समय से ही इसे कई तरह से बाधित करने कि कोशिश सरकारें करने लगी नरसिंहा राव कि कांग्रेस सरकार,जिस पर न्यायमूर्ति श्री कृष्ण आयोग ने रिपोर्ट मे कई जगह तल्ख़ टिप्पड़ी की है , ने 23 जनवरी 1996 को इस जाँच मे अधिक समय लग जाने का बहाना बनाकर आयोग को समेट दिया . सरकार कि ओर से यह तर्क दिया गया कि आयोग की रिपोर्ट के कारण दंगो के पुराने ज़ख़्म हरे हो जाएँगे . आम जनता मे इस मुद्दे पर तीखी प्रतिक्रिया हुई . कई संगठन इस निर्णय के विरुढ़ अदालत मे भी गाये . अंत मे जन दबाव के कारण इन दंगो मे प्रमुख भूमिका निभाने वाली भाजपा की 13 दिनो वाली सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को 28 मई 1996 को आयोग कि पुनर्स्थापना करनी पड़ी . लेकिन जैसे जैसे आयोग अपने निष्कर्षों कि ओर बड़ रहा था , वैसे वैसे इसे लेकर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों मे खलबली मचने लगी . हद तो तब हो गयी , जब बिना रिपोर्ट पढ़े ही शिवसेना - भाजपा गठबंधन सरकार ने इसे हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक घोषित करते हुए मानने से इनकार कर दिया . विपक्षी कॉंग्रेस भी रस्म अदायगी मे थोड़ा ही हो हल्ला मचाकर शांत हो गयी . आख़िर क्या था इस रिपोर्ट मे कि पक्ष-विपक्ष ने अपने तमाम दलगत विभेदों को मिटाकार इस रिपोर्ट को दबा जाने कि साझा कोशिशें की और अंततः इसमे वे सफल भी हुए . 700 पृष्ठों तथा दो हिस्सों मे विभाजित श्री कृष्ण आयोग कि रिपोर्ट ने 1992-93 के दंगो के लिए मुख्य रूप से शिवसेना-भाजपा को ज़िम्मेदार माना है . रिपोर्ट के पहले खंड के पृष्ठ 21 पर ठाकरे का उल्लेख किया है कि "8 जनवरी,1993 से शिवसेना और शिव सैनिकों ने मुसलमानों के जान माल पर संगठित हमले किए . एक शक्तिशाली सेनापति की तरह इन हमलों का नेतृत्व शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने किया. उनके मार्गदर्शन मे शाखा प्रमुखों से लेकर शिवसेना नेताओं तक , सभी ने दंगो मे भाग लिया." इसी तरह इस दंगो के समय शासन कर रही सुधाकर राव नाइक की कॉंग्रेस सरकार की दंगो को रोकने मे अक्षमता तथा पार्टी के अंदर इस मुद्दे पर नेताओं द्वारा एक दूसरे से पुराना हिसाब चुकाने की अवसरवादिता को भी रिपोर्ट ने बेनक़ाब किया है . श्री कृष्ण आयोग कि रिपोर्ट के दूसरे खंड के पेज 161 पर सुधाकर राव नाइक का बयान दर्ज है तो पेज 164 व 167 पर शरद पवार की गवाही है . ये दोनो बयान काफ़ी मुखर हैं . नाइक ने अपनी गवाही मे, शरद पवार जो उस समय केंद्र मे रक्षा मंत्री थे , पर दंगो को नियंत्रित करने मे सहयोग नही करने का आरोप लगाया है तो वंही शरद पवार ने अपने बयान मे नाइक के आरोपों का खंडन का उनके उपर ही अक्षमता का आरोप लगाया है . इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि कॉंग्रेसियों ने अपनी दलगत प्रतिस्पर्धा के लिए इस महत्वपूर्ण जाँच आयोग का उपयोग किस तरह किया . आयोग के समक्ष " दंगों को नियंत्रित करने के लिए सेना क्यू नही बुलाई गयी ? " के जवाब मे सुधाकर राव द्वारा दिया गया बयान हमारे तंत्र के संचालन कि ज़िम्मेदारी संभालने वाले लोगो कि योग्यता व क्षमता का भंडाफोड़ करता है न्यायमूर्ति ने पेज 164 पर दर्ज किया है कि " सेना की टुकड़ी को आदेश कौन देगा , इस बारे मे मुख्यमंत्री अनभिग्य थे ." दंगो के समय सुधाकर राव नाइक से वरिष्ठ नागरिकों के एक शिष्ट मंडल ने मुलाक़ात की और पुलिस पर मुसलमानों के विरुढ़ पक्षपातपूर्ण रवैये की शिकायत की तथा शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को गिरफ़्तार करने की माँग की . लेकिन सरकार ने न तो पुलिस को फटकारा और ना ही ठाकरे या शिवसैनिकों पर कोई कार्यवाही करने का निर्णय लिया . जिसका कारण उन्होने आयोग के समक्ष " राजनीतिक" बताया . इन दंगों मे पुलिस की संदिग्ध भूमिका की जाँच पर आयोग ने अपनी रिपोर्ट का बड़ा हिस्सा ख़र्च किया और पाया की पुलिस की सांप्रदायिक मनोवृत्ति के कारण ही दंगो को नियंत्रित नही किया जा सका . तत्कालीन अपर पुलिस आयुक्त वी एन देशमुख की इस बात को आयोग ने स्वीकार किया है की " मुसलमानों के विरुद्द पुलिस वालों के मान मे एक गाँठ थी जो उनके व्यवहार मे दिखी " (पेज 12) पुलिस ने इन दंगो में कैसी भूमिका निभाई इसकी कुछ बानगी रिपोर्ट मे देखी जा सकती है " 9 जन वरी को माहिम मे रात 9 बजे शिवसेना नगर सेवक मिलिंद वैद्य के नेतृत्व मे हिंदुओं ने मुस्लिम बस्ती पर हमला किया . पुलिस हवलदार संजय गावदे भी हाथ मे तलवार लेकर इस हमले मे शामिल हो गाये " (पेज 14) तुर्क द्वारा न्यायलय में कही गयी बातों पर तो आयोग जैसे मुहर लगाता है . दंगो और बम विस्फोटों के परस्पर संबंधों को स्वीकार करते हुए आयोग कहता है की " बाबरी मस्जिद के ढहने और दिसंबर 1992 , जन वरी 1993 मे हुए दंगो का कारण मुंबई मे सांप्रदायिक फूट पड़ गयी , जिसके कारण मुसलमानों के मान मे असुरक्षा और क्रोध की भावना उपजी . राज्य सरकार और पुलिस उनकी निगाह मे दोषी थी . इन दोनो ने उनके हितों की रक्षा करने के बदले सांप्रदायिक दंगों का नेतृत्व करने वाले लोगों से हाथ मिलाया , ऐसा मुस्लिमों को पक्का विश्वास था . इन मुस्लिमों का उपयोग राष्ट्र विरोधी शक्तियों द्वारा किया गया . पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आई एस आई की मदद से उन लोगों ने क्रोधित मुस्लिमों को भड़का कर प्रतिशोध के लिए प्रेरित किया . दुबई के कुख्यात तस्कर दाउद इब्राहिम की मदद से एक बड़ा षडयंत्र रचा गया , जिसके अनुसार हिंदू बाहुल्य क्षेत्रों मे बम विस्फोट किए गये . जिनके लिए दंगों मे सताए गये मुस्लिम युवकों का इस्तेमाल किया गया . (प्रथम खंड , पेज 43 ) श्री कृष्ण आयोग के इन तथ्यों के आलोक मे देखा जाए तो स्पष्ट है की कुछ लोगों को कठोर से कठोर सज़ा देने पर भी आतंकवाद की समस्या हल नही होनी है . उल्टे अपने समुदाय मे तुर्क जैसे लोगों की छवि एक " शहीद " की ही बनेगी , जिसने न्याय न मिलने के कारण आतंक का रास्ता अपनाया . दरअसल हमारे देश के "मुस्लिम आतंकवाद" का किसी वैश्विक जेहादी मिशन से उतना संबंध नही है जितना कि हमारी अंदरूनी राजनीति से . जिसके केंद्र मे अपने ही देश मे न्याय न मिलने के कारण उपजी उपेक्षा बोध और आक्रोश है . लेकिन "सांप्रदायिक इंजीनियरिंग " पर ही पल बढ़ रही राजनीतिक पार्टियाँ इन उपेक्षितों के न्याय के दायरे मे लाकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगी , इसकी उम्मीद भी किसे है ?

दबी , दबती , दब गई जन पत्रकारिता

डा पुश्कर राज
पुष्कर राज जी पी यू सी एल के सचिव हैं लेकिन इससे ज्यादा वे उनकी आवाज़ हैं जिनकी कोई आवाज़ नहीया फिर जिनकी आवाजें जबरदस्ती दबा दी गई हैंकुछ लोगो के लिए मानव अधिकारों की बात करना एक फैशन की तरह है और कुछ के लिए पैशन की तरहहम कहते तो हैं कि आपकी आज़ादी वहाँ से शुरू होती है जहाँ मेरी नाक ख़त्म होती है लेकिन मानव अधिकारों के मामले मे तो कही नाक है और ना ही आज़ादीपड़े होते रहें आज़ादी के साठ साल पूरेआज भी वही बेआवाज़ हैं जो आज से साठ साल पहले थेमीडिया भी मानव अधिकारों के वही मामले उठाती है जिसमे टी आर पी हो , ग्लैमर हो , अंग्रेजी हो और चट्खारापन होइन सारी बातो से पुष्कर जी काफी व्यथित नज़र आते हैंइन्होने यह लेख मेरे आग्रह पर एक संध्य्कालीन अखबार के लिए दिया था जो अब मैं बजार मे प्रकाशित कर रहा हूँ -राहुल


कुछ वर्ष पहले एक जाने माने पत्रकार द्वारा संचालित एक पत्रकारिता आधारित वेबसाईट ने रक्षा सौदों से सम्बंधित घोटालों का पर्दाफाश किया था। नतीजतन देश की राजनीति व नौकरशाही मे खलबली मच गई। भाजपा , जो उस समय सत्ता मे थी उसके अध्यक्ष को इस्तीफ़ा देना पड़ा था तथा कई सैनिक अफसरों पर गाज भी गिरी। देश की जनता ने 'तहलका' नामक इस वेबसाईट की काफी तारीफ की। आम जनता का मानना था कि राष्ट्रिय हित ही पत्रकारिता का पहला धर्म होना चाहिऐ न कि किसी विशेष वर्ग अथवा दल का हित साधन। आम नागरिक का मानना था कि तहलका ने रक्षा सौदों मे भ्रष्टाचार उजागर करके सामाजिक हित का कार्य किया , लेकिन अगले तीन चार साल तहलका नामक इस संस्था के लिए काफी कष्ट भरे साबित हुए। भाजपा सरकार ने बदले की भावना से प्रेरित होकर उस छोटे से औधोगिक प्रतिष्ठान के खिलाफ कई मुकदमे बना दिए जिसकी आर्थिक सहायता तहलका को मिल रही थी। नतीजा यह हुआ कि तहलका बंद हो गया , पत्रकार बेरोजगार हो गए और सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाना महंगा साबित हुआ। हालांकि कुछ अंतराल बाद तहलका फिर शुरू हुआ जो कि एक अलग किस्सा है ।
यह घटना इस तथ्य की द्योतक है कि पत्रकारिता एक मुश्किल शगल है। खास करके जब इसके पीछे एक राजनितिक अथवा आर्थिक वरद हस्त न हो और अगर राजनितिक और आर्थिक उद्देश्य पत्रकारिता के पीछे होंगे तो वह पत्रकारिता नही है बल्कि एक व्यवसाय है ,जैसे दुकान पर बैठकर चीज़े बेचना। यही बात आम नागरिक को समझनी चाहिऐ। विशेषकर तब जब वह एक लोकतांत्रिक समाज मे रह रहा हो। देश मे आज की पत्रकारिता के परिदृश्य पर अगर नज़र दौडायें तो कमोबेश एक समरूप स्थिति नज़र आती है। जो चमकीला है वह बिकता है। अगर किसी अमीर के घर चोरी होती है तो वह पहले पेज के खबर बनती है , गरीब के घर की चोरी को अन्तिम पन्ना भी नसीब नही होता । मुझसे अक्सर मेरे टेलीविजन के पत्रकार दोस्त कहते हैं कि कही कोई मानव अधिकारों के हनन का मामला हो तो हमे बतायें। पर हाँ , जिसके मानव अधिकारों का हनन हो उसकी प्रोफाइल अच्छी होनी चाहिऐ । मतलब अगर वह महिला है तो खूबसूरत हो , और उस पर भी अंग्रेजी बोले । बेहतर टी आर पी का तर्क जन संवेदनाओं तथा जन आकाँक्षाओं को दरकिनार करते हुए हमारे वर्तमान जीवन की पत्रकारिता की कड़वी सच्चाई है।
पिछले दिनों दादरी मे किसानो की विरोध सभा को पुलिस ने बेरहमी से कुचला। स्त्रियों , बच्चों व बूढों को लाठियों से पीता गया , गाँव वालों के घरों को लूटा गया लेकिन क्योंकि किसानो का समूह कोई टेलीविजन चैनल या अख़बार नही चलाता इसलिये इस खबर की रिपोर्टिंग का नजरिया इस तरह का था जैसे सरकार तो अधिकृत जमीन का मुआवजा दे रही है पर किसान ही बखेडा खड़ा कर रहे हैं। क्योंकि मामला देश के एक बडे औधोगिक प्रतिष्ठान से जुडा था इसलिये रिपोर्टरों द्वारा भेजी लंबी तफ्सीलें मालिकों के इशारे पर अख़बार मे एक या दो कालम की बनकर रह गई ,वह भी बीच के किन्ही पन्नो पर।
पूरे देश के पत्रकारिता पर नज़र डालें तो आप पाएंगे कि अख़बार , टेलीविजन और एफ एम् रेडियो पर सिर्फ औधोगिक प्रतिष्ठानों का क़ब्जा है। इसीलिये जब हिंदुस्तान टाइम्स के कर्मचारी अपनी आम करने की परि स्थितियों के विरोध मे हड़ताल करते हैं या यू एन आई के पत्रकार जी टी वी द्वारा अधिग्रहण का विरोध करते हैं तो उनके विरोध का स्वर जनता तक नही पंहुचता । उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर मे संसाधनों का केंद्रीकरण , पूँजी का केंद्रीकरण , ज्ञान का केंद्रीकरण तथा सूचना का केंद्रीकरण एक उभरता खतरा है। इस ख़तरे की चाय देश के विभिन्न भागों मे महसूस की जा रही है तथा विरोध के स्वर छोटे छोटे जन आंदोलनों के रुप मे उभर रहे हैं।
इन जन आंदोलनों को एक व्यापक स्तर पर लाने के लिए जन पत्रकारिता की जरुरत है। ऎसी पत्रकारिता जो आम जनता की आवाज़ आम जनता के बीच पंहुचाते हुए मानवीय अस्मिता तथा अधिकारों की रचना करे। ऐसा तभी होगा जब इनमे से ही कुछ लोग धन की बैसाखी का सहारा लिए बिना पत्रकारिता को एक सामाजिक कर्म के रुप मे देखेंगे और पोषित करेंगे।
फोटो-जय देव सिंह , किसान , दादरी फोटो साभार - बी बी सी

ये बुर्जुवा सरकार कब समझेगी ?

प्रदीप सिंह
सरकार कपडे उतार कर नाच रही है -
पहला भाग यहाँ पढ़ें
पहली ध्यान देने की बात यह है कि बडे उद्योगों मे एक रोजगार पैदा करने के लिए जहाँ तकरीबन एक करोड़ रुपये लगते हैं वहीं छोटे उद्योग मे दस लाख और हथकरघा उद्योग तो सिर्फ लाख दो लाख से ही शुरू हो जाता है। इस सबकी तुलना मे सिंचित जमीन मे नाम मात्र के निवेश से ही बड़ी संख्या मे रोजगार पैदा किया जा सकते हैं। लेकिन सरकार का ध्यान तो परमाणु समझौता - हथियारों की खरीद मे लगा हुआ है , इस तरफ नही। या फिर उद्योगों की तरफ जिसके लिए वो किसानो का पेट सर हाथ पैर सब कुछ काटने के लिए नई नई नीतियाँ बनाने मे लगी है। बडे उद्योग जहाँ छोटे उद्योगों को खाकर लघु और कुटीर उद्योग से बने रोजगार के अवसरों को ख़त्म कर रहे हैं , वहीं कृषि जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा भी इन उद्योगों को दिया जा रहा है । जो भी किसान इसमे आनाकानी कर रहा है उसे जान से मार डाला जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्र के परंपरागत व्यवसाय बडे उद्योगों की वजह से नष्ट हो रहे हैं। सरकार इस पैतृक एवम ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ को बचने के लिए कुछ कर तो रही नही है उल्टे उस जर्जर हो चुकी पीठ पर खर्चे का और ज्यादा बोझ लादने के लिए तैयार बैठी है।
लघु और कुटीर उद्योगों की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि कुछ विशिष्ट वस्तुओं के उत्पादन का कार्य इन्हें ही दिया जाय। लघु एवम कुटीर उद्योगों से जिन उत्पादों का निर्माण संभव है उनसे बडे उद्योगों को वंचित किया जाय। आज पंखे और टोकरियाँ बनाने के क्षेत्र मे बड़ी बड़ी कम्पनियाँ लग गई हैं । अब तक बांस की टोकरियों एवम पंखे और ग्रामीण क्षेत्रों की अन्य जरूरतों का सामान गाँव मे ही बनाने वाले लोग थे , लेकिन अब ये सामान बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिरफ्त मे है। मिटटी के बरतन बनाने वाले कुम्हार बेकार बैठे हैं। क्यों ? क्योंकि इसकी जगह अब प्लास्टिक ने ले ली है । ये मिटटी के कुल्हडों से सस्ता भी पड़ रहा है। प्लास्टिक से होने वाले ख़तरे का अनुमान तो सबको है लेकिन फिर भी सब कबूतर बने हुए हैं।
एक अनुमान के अनुसार सन २०२० तक भारत की जनसँख्या डेढ़ अरब तक पहुच जायेगी। उस हालत मे तकरीबन पचास करोड़ बेरोजगार हमारे देश मे होंगे। इससे अधिक भी हो सकते हैं लेकिन कम होने के आसार नज़र नही आते। और इस संख्या मे आधे से ज्यादा बेरोजगार होंगे युवक । अभी क्या है कि सरकार की ओर से औधोगिक क्रान्ति का सब्ज़ बाग़ दिखाया जा रहा है । शेयर बाज़ार के भावों से उन्नति का बखान किया जा रहा है। आवारा पूँजी के दम पर अंतरिक्ष मे छलांग लगाने के सपने देखे और दिखाए जा रहे हैं। हमारे प्रधानमंत्री और उनके अफसर बडे बडे दावे कर रहे हैं। मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि आगामी पांच वर्षों मे नौ करोड़ रोजगार पैदा होंगे। इसी तरह का दावा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी किया था कि प्रत्येक वर्ष एक करोड़ रोजगार के अवसरों को उनकी सरकार बनाएगी । उस सरकार का क्या हश्र हुआ ये किसी से छिपा नही है। सरकारें अगर वस्तु स्थिति का आकलन करके कोई दूरगामी नीति नही बनाएँगी तो यह समस्या विस्फोटक रुप अख्तियार कर लेगी । भारत खेती किसानी का देश है। दिल्ली नही है भारत। यहाँ की संस्कृति खेती पर ही निर्भर है। सीमित पूँजी वाला भारत बेरोजगारी की समस्या का हल केवल कृषि के विकास से ही कर सकता है। हमने एक बंगलौर तो बना लिया है लेकिन हमारी खेती अभी भी मानसून पर निर्भर है। न तो पर्याप्त सिंचाई की व्यवस्था है और न ही खाद , बीज एवम फसलों का उचित मूल्य। अखिर ये बुर्जुवा सरकार कब ये समझेगी कि विकास नीचे से ऊपर की तरफ चलता है न कि ऊपर से नीचे की तरफ।
(अभी तो ये शुरुआत है ...)

सरकार कपडे उतार कर नाच रही है

प्रदीप सिंह
अपनी आज़ादी को साठ साल होने जा रहे हैं । शायद इसी उपलक्ष्य मे किसानो को एक तोहफा दिया जाने वाला है - सिंचाई के खर्चे को और बढ़ाकर । पहले से ही कर्ज़ मे डूबे किसान , जिनके पढे लिखे बच्चों ने कब का घर छोड़ दिया है और कही बड़ी अच्छी कमाई भी नही कर रहे हैं कि वो अपने अपने बाबू को इतना पैसा दे दें कि धान लग जाय, उनके लिए स्वतंत्रता के ये साठ साल कोई मायने नही रखते । वहीं गाव के नौजवान ताश के पत्तों के साथ शहर का सपना भी संजोये हुए हैं। बेरोजगारी अलग से कोढ़ मे खाज का काम कर रही है। जो कुछ बच रहा है उसे सेज लील जाने को तैयार बैठा है। इन्ही सारी समस्यायों की विवेचना लेकर बजार मे प्रदीप जी आये हैं ......

भारत मे बेरोजगारी बढती जा रही है। देश की संसद के पास इस समस्या का कोई हल नही है। आर्थिक सर्वेक्षण मे यह बताया जा रहा है कि ग्रामीण क्षेत्रों मे १० % पुरुष व इससे भी ज्यादा महिलाएं रोजगार से वंचित हैं। यह संख्या बहुत ही कम है। हमारे देश मे बेरोजगारी की समस्या बहुत ही भयावह हो गई है। अशिक्षित लोग तो कुछ छोटा मोटा काम पा भी जा रहे हैं , किन्तु पढे लिखे बेरोजगारों की संख्या मे गुणात्मक वृद्धि हो रही है। विडम्बना तो यह है कि विकास के बावजूद बेरोजगारों की संख्या मे बढोत्तरी हो रही है और लगातार रोजगार के अवसर घट रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद से ही जिस क्षेत्र मे रोजगार पैदा करने की अपूर्व क्षमता है , उस क्षेत्र की तरफ पर्याप्त ध्यान नही दिया गया। यदि हमारे देश मे सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस सरकार ने कृषि क्षेत्र को थोडा भी गम्भीरता से लिया होता तो आज भारत की दूसरी ही तस्वीर होती। लेकिन उनके लिए तो कम्प्यूटर महत्वपूर्ण है , किसान नही। हमारे देश मे आज किसान और कृषि की दशा अत्यंत ही दयनीय है। कृषि की दुर्दशा के पीछे गहरी साजिश है। विकसित देश विकास शील देशों पर जबरन दबाव डालकर कृषि पर मिलने वाली सब्सिडी कम करा रहे हैं। कृषि उत्पादन के लगत मूल्य मे वृद्धि , कृषि सब्सिडी मे लगातार की जा रही कमी , सिंचाई के साधनों का आभाव , किसानो का ऋण के जाल मे उलझना , फसलों का समुचित मूल्य न मिलना आदि अनेक कारण हैं । अब तो किसानो को सिंचाई का भी अच्छा खासा मूल्य चुकाना पड़ेगा। बड़ी संख्या मे किसान अब खेती करना पसंद ही नही कर रहे हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार ४०% ग्रामीण युवक खेती नही करना चाहते । कृषि से लगातार घट रही आय के कारण ग्रामीण क्षेत्र से लोग शहर की तरफ पलायन कर रहे हैं। इस तरह शहरों पर जहाँ काम के इच्छुक लोगों का बोझ बढ रहा है , वहीं कृषि पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। सवाल यह है कि जब प्रोद्योगिकी के प्रभाव से हर क्षेत्र उन्नति कर रह है तो कृषि पिछ़ड क्यों रही है। इसका एक उत्तर हो सकता है कि सिंचाई की पर्याप्त सुविधा का न होना और कृषि को उद्योग की तरह विकसित न करना। आज बडे उद्योगों के लिए जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किसानो की उपजाऊ जमीन पर उद्योग लगाने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है । पूँजी निवेश को रिझाने के लिए हमारी सरकार किसी भी निवेशक के सामने अपने कपडे उतार कर नाचने के लिए तत्पर दिखती है। जो उद्योग लग रहे हैं उनमे स्वचालित मशीनों को प्रधानता दी जा रही है। ओद्योगिक घराने कारखानों मे ऎसी मशीने लगा रहे हैं जहाँ कम से कम मजदूरों की जरुरत पडे।

जारी .....

Thursday, August 9, 2007

अभी और कितनी मंहगी होगी खेती बाड़ी ?

किसानो से वसूला जाएगा सिचाई का खर्चा
मदन जैडा
देश के अन्नदाता की दुश्वारियाँ बढ़ने वाली हैं। खाद,बीज और अन्य जरूरतों के लिए , लिए गए कर्ज़ का जाल , मंडी और मौसम की मार के बाद अब सरकार भी किसान की जेब से पैसा निकलने की तयारी मे है। पहले ही घाटे का सौदा साबित हो रही खेती बाड़ी अब और मंहगी होने वाली है। योजना आयोग की योजना है कि सिंचाई परियोजनाओं के संचालन और रख रखाव की लागत किसानो स वसूल की जाय।
इस बारे मे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निर्देश पर शरद पवार के नेतृत्व मे बनी राष्ट्रिय विकास परिषद की उप समिति की सिफारिशों को आयोग अन्तिम रुप देने मे जुटा है। आयोग सूत्रों का कहना है कि कई दक्षिणी राज्यों ने सैधान्तिक तौर पर सहमति व्यक्त कर दी है लेकिन उत्तरी राज्यों -उत्तर प्रदेश , पंजाब , हरियाणा अदि ने भारी विरोध किया है। बहरहाल , इसी महीने संभावित एन डी सी बैठक मे इस मुद्दे पर विचार किये जाने की सम्भावना है। ११ वीं योजना के दौरान एक करोड़ दस लाख हेक्टेयर असिंचित भूमि को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया है। इस मद मे १,३७,५०० करोड़ रुपये खर्च होंगे। केंद्र चाहता है कि एक बार योजना बना देने के बाद सरकार को योजनाओं के संचालन और रख रखाव पर किये जाने वाले खर्चे से मुक्ति मिल जाय। पहले से चल रही सिंचाई परियोजनाओं के संचालन और रख रखाव पर सालाना १५-२० हज़ार करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। यदि पुरानी योजनाओं पर ही सरकार इतना खर्च करती रहेगी तो नई योजनायें कैसे शुरू हो पाएँगी। इसलिये योजनाओं का खर्च किसानो की जेब काटकर निकला जाएगा। जो खाका आयोग ने तैयार किया है उसके अनुसार सिंचाई परियोजनाओं की लगत पांच साल के भीतर वसूल की जाय। इसके लिए किसानो को सिंचाई के पानी का हज़ारों रुपये प्रतिमाह शुल्क देना पड़ेगा । ज़्यादातर राज्यों मे सिंचाई सुविधा किसानो को निः शुल्क हासिल है। कुछ राज्यों मे बहुत मामूली शुल्क लिया जाता है। आयोग कमेटी के इस सिफारिश पर सहमत है कि शुल्क तय करने का अधिकार राज्यों को दिया जाय ताकी वह अपने हिसाब से निर्धारण कर सकें।