Sunday, March 27, 2016

सब ठीकी ठैरा डाक साब- 6

अपने यहां अगर डॉक्‍टर शुद्ध हवा का नुस्‍खा पर्चे पर लि‍खने लगें तो मुझे पूरा यकीन है कि देश की सबसे बड़ी कमीशनखोरी वहीं होगी। पता नहीं क्‍यों मुझे वो तस्‍वीर भी दि‍ख रही है जि‍समें दवाखानों में इसके लि‍ए मारामारी मची हुई है। हर पर्चे में शुद्ध हवा ठीक वैसे ही लि‍खी मि‍ल रही है, जैसे इन दि‍नों हर दवा के साथ एंटीएसि‍ड या एंटीएलर्जिक लि‍खी मि‍लती है। कभी मन हो तो एक छोटा सा टेस्‍ट करें। अपने यहां कि‍सी भी फूं-फां वाले डॉक्‍टर की क्‍लीनि‍क के बाहर खड़े होकर पांच पर्चे चेक कर लें, सारा माजरा साफ हो जाएगा।

हमारे देश की जो आबोहवा है, उसमें दो दवाइयों की खपत सबसे ज्‍यादा है। पहली दवा नहीं है बल्‍कि वो ग्‍लूकोज है जो मरीज के कि‍सी भी अस्‍पताल में पहुंचते ही उसे दि‍या जाता है और दूसरी दवा है पैरासीटामॉल। दोनों ही बेसि‍क नीड हैं, हर वक्‍त की बड़ी जरूरत हैं। सरकार का नि‍यम है कि ग्‍लूकोज (कॉमन सोल्‍यूशन) या डीएनएस-5 की एमआरपी 25 रुपये से ज्‍यादा नहीं होगी और सोडि‍यम क्‍लोराइड की 100 एमएल की बोतल की एमआरपी 14 रुपये से ज्‍यादा नहीं होगी। इतनी कम एमआरपी और कड़े सरकारी नि‍यंत्रण के बाद भी कमीशनखोर कंपनि‍यों और डॉक्‍टरों ने इसका तोड़ नि‍कालकर रख दि‍या है। कैसे?? ऐसे!!

दो कंपनि‍यां हैं बेक्‍सटर और बी ब्राउन। सबसे पहले तो इन्‍होंने दुनि‍या में ऐसी जगह से वो ग्‍लूकोज और सोडि‍यम क्‍लोराइड खरीदे, जहां पर ये सबसे सस्‍ते मि‍लते हैं। (सबसे सस्‍ता माल चीन में ही मि‍लता है।) वहां से इन्‍होंने माल इम्‍पोर्ट कि‍या मलेशि‍या। मलेशि‍या में ये चीजें कांच या प्‍लास्‍टि‍क की बोतल की जगह पॉलीथि‍न में पैक कराईं और भारत मंगा लि‍या। कुल मि‍लाकर जो लागत आई, वो भारत में इन्‍हें बनाने से भी कम की लागत आई। अब जब माल भारत पहुंच गया तो शुरू हुआ खुल्‍ला खेल फर्रुखाबादी।

खेल ऐसे कि ग्‍लूकोज की जो बोतल सरकारी नियंत्रण के चलते 25 रुपये से ज्‍यादा की नहीं बेची जा सकती थी, पॉलि‍थि‍न के पैक में वही चीज 80 रुपये में बेची जा रही है और हमारे कमीशनखोर डाक साब जबरदस्‍ती यही पॉलीथि‍न का ही पैक मरीजों को चढ़ा रहे हैं। यही हाल सोडि‍यम क्‍लोराइड की 100 एमल की बोतल के साथ हुआ। ये 14 रुपये से ज्‍यादा की नहीं बेची जा सकती थी, लेकि‍न पॉलीथि‍न के पैक में ये 90 रुपये की बेची जा रही है। जबरदस्‍ती बेची जा रही है।

अगली कि‍स्‍त पैरासीटामॉल पर...


सब ठीकी ठैरा डाक साब- 5


आदि‍वासि‍यों के इलाज के आरोप में जेल से नि‍कलते डॉ. सैबाल
पि‍छले महीने फरवरी में एमसीआइ (मेडि‍कल काउंसि‍ल ऑफ इंडि‍या) ने सर्कुलर जारी करके कहा कि हे धनवंतरि के नवअवतारों, कुबेर बनने की अंधी दौड़ छोड़ो और जेनरि‍क दवा लि‍खो। सोचि‍ए आखि‍रकार ऐसी क्‍या बात रही होगी कि काउंसि‍ल को इस सब्‍जेक्‍ट पर बाकायदा सकुर्लर जारी करने की जरूरत आन पड़ी। जाहि‍र है डॉक्‍टरों की कमीशनखोरी। जेनरि‍क दवाओं पर कमीशन नहीं मि‍लता और वो ब्रांडेड दवाओं से दस गुने से भी ज्‍यादा सस्‍ती होती हैं। इनसे मरीजों का भला तो होता है, बस हमारे डाक साब वेनेजुएला जाकर स्‍ट्रि‍प्‍टीज नहीं देख पाते हैं। डाक साब आदि‍वासि‍यों का भी डांस समझ नहीं आता..

पैसा कमाने की हवस इन डॉक्‍टरों को कहां लेकर जाएगी, ये यूरोपि‍यनों के लि‍ए शोध का वि‍षय हो सकता है, बहरहाल सेवा न करने की ज़ि‍द दि‍न ब दि‍न डॉक्‍टरों को गर्त में ही लेकर जा रही है। नि‍यम है कि एमबीबीएस करने के बाद डॉक्‍टरों को कम से कम एक साल तक ग्रामीण इलाकों में अपनी सेवाएं देनी होंगी। न दी तो एमबीबीएस वाले दस लाख और पीजी वाले 50 लाख रुपये तक फाइन देंगे। पि‍छले साल ग्रामीण इलाकों में सेवा न देने के लि‍ए हमारे डॉक्‍टरों ने अकेले महाराष्‍ट्र में दस करोड़ रुपये का जुर्माना दि‍या है। मने जुर्माना दे देंगे लेकि‍न वो काम नहीं करेंगे जि‍सके लि‍ए डॉक्‍टर बने हैं। शाबास डॉक्‍टरों... शाबास। वैसे साथ साथ ये भी इसमें जोड़ते चलें कि जुर्माने की ये सारी धनराशि दवा कंपनि‍यों के कमीशन से ही आई है। वो कमीशन... जो हमारी जेब काटकर जाता है- वि‍दाउट टैक्‍स।

गांव न जाने की ये जाने कैसी ज़ि‍द है कि कर्नाटक में पि‍छले साल साढ़े सात हजार एमबीबीएस पासआउट की डि‍ग्री रोक दी गई, फि‍र भी मजाल है कि साहब गांव की तरफ मुंह भी कर लें। कैसे कर लेंगे... वहां धूल है, धक्‍कड़ है, मलेरि‍या से ग्रस्‍त लोग भैंस बैल पर चढ़कर पहुंचते हैं, सीधे सीधे सपाट चेहरे नहीं हैं, काले चीकट लोग हैं जि‍नको देखने को उनका मन नहीं करता। कभी कभी मुझे लगता है कि हमारे देश में लोग कुछ बनते ही इसीलि‍ए हैं कि वो खुद कुछ बन सकें। इति‍हास देखता हूं तो पाता हूं कि अपने यहां बनने से ज्‍यादा बनाने पर ज्‍यादा जोर है लेकि‍न अब इति‍हास बदल चुका है। डाक साब तो बदल ही रहे हैं।

चलते चलते-
ये जो एनआरआइ भाई हैं, जो बाहर बैठकर भारत माता की जै बोलने की जिद पर अड़े रहते हैं, पि‍छले तीन सालों में इनमें से एक भी एमबीबीएस या पीजी का स्‍टूडेंट ग्रामीण इलाकों में अनि‍वार्य सेवा देने नहीं गया है। अमेरि‍का से रि‍जेक्‍टेड ये लोग यहां कोटे से तो दाखि‍ला ले ले रहे हैं, हमारे टैक्‍स से पढ़ाई कर ले रहे हैं लेकि‍न सेवा अमेरि‍का में ही दे रहे हैं। इनकी भारत माता की अमेरि‍का में ही जाकर जै हो रही है। जै हो... जै जै हो..

और जो गांव जाएगा, गरीबों का, आदि‍वासि‍यों का इलाज करेगा, वो डॉ.सैबाल जाना की तरह इलाज करने के आरोप में जेल में ठूंस दि‍या जाएगा।

....ये भी मेरा ही देश है।


सब ठीकी ठैरा डाक साब- 4

Dr. Saibal Jana with his son
अभी-अभी एक डाक साब ने कहा- महंगी मशीन लगाते हैं, महंगी पढ़ाई करते हैं, टैक्‍स भरते हैं तो डॉक्‍टरों को बदनाम न करो। जि‍न डॉक्‍टरों का जि‍क्र मैं कर रहा हूं, उन डाक साब के हि‍साब से वो देश के सबसे बड़े डॉक्‍टर हैं। बड़े डॉक्‍टर... बड़े डॉक्‍टर.. ये बड़ी चीज़ कहीं फंस सी गई है। कौन है बड़ा डॉक्‍टर.. कि‍से कहें बड़ा डॉक्‍टर...

एक मेरे बड़े अच्‍छे दोस्‍त हैं। भारत में डॉक्‍टरों ने उन्‍हें बड़ा मानने से मना कर दि‍या है। उनका दोष बस यही है कि कान के जि‍स ऑपरेशन में 25 हजार की मशीन, 20 हजार कमीशन और 15-20 हजार की दवा दारू लगती थी, उनने इस पूरे खर्चे को सिर्फ ढाई हजार रुपये में नि‍पटा दि‍या। एक रि‍सर्च कर दी और रि‍सर्च सफल रही। दुनि‍या भर के जर्नलों में वो रि‍सर्च छपी भी। लेकि‍न वो बड़े नहीं हो सकते क्‍योंकि वो सरकारी डॉक्‍टर हैं और इन दि‍नों पहाड़ के गरीब गुरबा लोगों का इलाज में अपने जीवन का रहस्‍य खोजने की कोशि‍श कर रहे हैं। हां ठीक है सर, वो नहीं हैं बड़े डॉक्‍टर, बस मेरे बड़े अच्‍छे दोस्‍त हैं। कि‍तनी बार कहा कि कम से कम ठीक ठाक खर्च के लि‍ए दो चार मरीज तो प्राइवेट देख लो, लेकि‍न जनाब में कुछ दूसरा ही खून दौड़ रहा है।

एक और भाई साहब हैं। बदन के अंदर और बाहर, जहां जहां दर्द होता है, उसके इलाज के लि‍ए पूरी तरह से नया मैनेजमेंट डेवलप कि‍या। सरकारी नौकरी से छुट्टी लेकर दो साल रि‍सर्च करते रहे। दर्द को उनकी तरह संभालने वाले इस देश में 25 से ज्‍यादा डॉक्‍टर नहीं। सरकारी डॉक्‍टर हैं और दर्द से उबरा मरीज जब कुछ देने की कोशि‍श करता है तो आर्शीवाद नि‍कालकर माथे लगाते हैं, बाकी मरीज को वापस। सरकारी राजनीति के चलते कभी मेरठ, कभी लखनऊ, कभी कानपुर तो कभी बनारस ट्रांसफर होता रहता है लेकि‍न मजाल कभी सरकारी अस्‍पताल के बाहर कदम जाता हो। साफ कहते हैं कि भाई, दि‍माग में बलून डालकर नस सही करने वाला वाला इलाज सलमान खान अमेरि‍का में तो करा लेगा, लेकि‍न तकि‍या वाला सलमान दि‍ल्‍ली तक नहीं जा पाएगा। कोई तो यहां होना चाहि‍ए उस सलमान के लि‍ए...

और एक डॉ. सैबाल जाना हैं। 35 साल तक फ्री में आदि‍वासी मरीजों की सेवा करने के लि‍ए इन दि‍नों जेल काट रहे हैं।

मेरे सामने बड़े और छोटे को लेकर कोई खास समस्‍या नहीं है मेरे डॉक्‍टर दोस्‍तों। आप जैसे भी हैं, ठीक ही कर रहे होंगे। अच्‍छा करने के लि‍ए बस थोड़ा सा अपने पड़ोसी के बारे में भी सोचना होता है। बाइबि‍ल, कुरान, वेद... सबमें अच्‍छे के लि‍ए यही कहा है।

सूरा सो पहचानि‍ए जो लरै दीन के हेत
पुर्जा पुर्जा कट मरे, तबहूं न छाड़ैं खेत।


Saturday, March 26, 2016

सब ठीकी ठैरा डाक साब- 3

बलोदा बाजार वाले डॉ. आरके गुप्‍ता याद हैं या भूल गए? वैसे हम लोग बहुत जल्‍दी जल्‍दी भूलते हैं। वही आरके गुप्‍ता जि‍न्‍होंने एक दस्‍ताना पहन के एक ही इंजेक्‍श्‍न और एक ही सि‍रिंज और एक ही सुई से 90 मि‍नट में 83 आदि‍वासी महि‍लाओं की जिंदगी सी दी थी। 13 तो मौके पर ही मर गई थीं। वही मामला जि‍सके ठीक बाद रायपुर में साहि‍त्‍य महोत्‍सव हुआ था और कई कथि‍त प्रगति‍शील लेखकों ने वहां लाशों पर ठुमके लगाए थे। ''गुप्‍ता जी'' को तो छत्‍तीसगढ़ के स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री ''अग्रवाल जी'' ने बेहतरीन डॉक्‍टर होने का तमगा भी दि‍या था। मुसीबत ये है कि डॉ. सैबाल जाना न तो गुप्‍ता जी हैं न बनि‍या जी। होते भी तो न तो गुप्‍ता जी की तरह मरीजों की ''सेवा'' कर रहे हैं और न ही अग्रवाल जी की तरह गुप्‍ता जी की।

पता है कहां हैं आजकल ये गुप्‍ता जी? इतनी महि‍लाओं को जान से मारकर लापरवाही से बच चुके गुप्‍ता जी आराम से बि‍लासपुर में अपने प्राइवेट क्‍लीनि‍क पर मरीज देख रहे हैं। हो सकता है कि नया रि‍कॉर्ड बनाने के लि‍ए आदि‍वासि‍यों की कैसे हत्‍या करें, इसपर कोई थीसि‍स भी लि‍ख रहे हों। मर चुकी महि‍लाओं की बि‍सरा रि‍पोर्ट साफ कह रही है कि गुप्‍ता जी ने जानबूझकर मारा है, लेकि‍न डॉ. गुप्‍ता डॉ. सैबाल जाना नहीं कि इतनी जल्‍दी जेल चले जाएंगे। कुछ भी हो, छत्‍तीसगढ़ सरकार की सोहबत में की हत्‍या हत्‍या नहीं होती और अलग हटकर की गई सेवा सेवा नहीं होती। न यकीन हो तो डॉ. सैबाल जाना का ही केस उठा लीजि‍ए।

दुनि‍या में ऐसे कई लोग हैं जि‍न्‍हें हत्‍या करने का शौक होता है। ऐसों की संख्‍या तो बहुतायत में है जो कई लोगों की कई तरहों से हत्‍या करने की कल्‍पना में दि‍वास्‍वप्‍न देखते हैं। ऐसे लोगों के लि‍ए छत्‍तीसगढ़ सरकार मर्डर टूरि‍ज्‍म मुहैया करा रही है। ये मैं नहीं कह रहा, खुद पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडि‍या की डायरेक्‍टर पूनम कहती हैं कि यहां पर आदि‍वासि‍यों को बधि‍या करने की जि‍तनी भी स्‍कीम चल रही हैं, सब उनकी जान लेने के लि‍ए चल रही हैं। इन स्‍कीमों से अगर कोई आदि‍वासी जिंदा बच जाता था तो शहीद अस्‍पताल पहुंचता था जहां डॉ. सैबाल उसका इलाज करते थे। आइ रि‍पीट- इलाज करते थे। अब नहीं करेंगे। अब उन्‍हें सरकारी हत्‍या से बच गए लोगों की जान बचाने के आरोप में छत्‍तीसगढ़ सरकार ने जेल में बंद कर दि‍या है।

सब ठीकी ठैरा डाक साब- 2

कमीशन ही ईमानदारी है। कमीशन से जो धन आता है, वह सफेद धन होता है। मोटा कमीशन काटकर अगर अमेरि‍का की बदनाम गलि‍यों में घूमा जाए तो वो गंगासागर स्‍नान होता है। हमारे डॉक्‍टर हमारे देवता हैं! वो साल में कम से कम दो बार गंगासागर स्‍नान करके आते हैं। उनके हाथ पवि‍त्र हैं क्‍योंकि वो कमीशन से रंगे हैं! बाकी कोई पागल डॉ. सैबाल अगर मजदूरों और गांव वालों के चंदे से पि‍छले 35 साल से उनकी सेवा कर रहा हो तो वो नक्‍सली है। वो नक्‍सली इसलि‍ए भी है क्‍योंकि वो महात्‍मा गांधी को मानता है। वैसे हमारे कमीशन वाले डॉक्‍टर साहब भी महात्‍मा गांधी को ही मानते हैं। आज देश में दो तरह के महात्‍मा हैं। दो गांधी हैं। आप मानि‍ए न मानि‍ए, सत्‍ता और उसके सहयोगी तो यही मानते हैं।

खैर, लंतरानी के लि‍ए माफी। मि‍लि‍ए डॉ. अशोक राज गोपाल से। कई राष्‍ट्रपति‍यों की बूढ़ी हड्डि‍यां खटखटा चुके हैं। ऑस्‍ट्रेलि‍या, मलेशि‍या, चीन, स्‍पेन.. कहां कहां नहीं जाकर ये डाक साब ऑपरेशन करके आते हैं। इनका पूरा रेकॉर्ड चेक कि‍या, क्‍या मजाल जिंदगी में कभी बस्‍तर जैसी कि‍सी जगह कि‍सी की टूटी उंगली भी ठीक करने गए हों। बस्‍तर तो दूर, दि‍ल्‍ली में ही इतने आंदोलनों में लोगों की हड्डि‍यां तोड़ गईं, क्‍या मजाल डाक साब सामने आए हों। अण्‍णा वाले में तो त्रेहन कूदकर आ गए थे क्‍योंकि मामला टीवी का था। वैसे असल मामला तो इनकम टैक्‍स वालों को भी नहीं पता चल सकता क्‍योंकि कूदफांद बाहर की है, लेकि‍न इन्‍हीं के साथ काम करने वाले डॉक्‍टरों का मानना है कि ये रोजाना कम से कम सवा से डेढ़ लाख रुपये कमाते हैं।

बंगलुरू वाले डॉ. एमजी भट की बात सुन लीजि‍ए। चार टांके के 50 हजार रुपये लेने वाले इन सज्‍जन का कहना है कि रुपये के पीछे नहीं भागते। दस मि‍नट बाद एक आंख दबाके कहते हैं कि अय्याशी बि‍ना जीना भी क्‍या जीना!! साल में कम से कम चार बार ''अपने पैसे'' से वि‍देश घूमकर आते हैं, लेकि‍न क्‍या मजाल अपने ही शहर के अगल बगल जाकर आदि‍वासि‍यों का हाल पूछ लें। वहां वो अय्याशी कहां डाक साब जो एम्‍सटर्डम के डे वालेन में मि‍लती है। वहां तो कोई पागल डॉ. सैबाल जाना जाने क्‍यों खट रहा होता है, जि‍से ठीक-ठीक खाने को भी नहीं मि‍लता।

सब ठीकी ठैरा डाक साब- 1

एक डॉ. सुधांशु भट्टाचार्या हैं। मुंबई में बड़े डॉक्‍टर हैं, बड़ी फीस है, बड़ा कमीशन है, बड़ा घर है, बड़ा अस्‍पताल है, बड़ी दाढ़ी है, बड़ी उम्र है। दि‍ल के डॉक्‍टर हैं, बस यही एक चीज है जो उनके पास बड़ी नहीं। पूरी बेरहमी से दि‍ल के मरीजों से एक ऑपरेशन के लि‍ए तीन लाख कम से कम लेते हैं, शाम वाम को ऑपरेट कराया तो नौ लाख रुपये तक ले लेंगे। दंभ के साथ कहते हैं- ''जेब देखकर लेता हूं।'' डॉ. सैबाल जाना को नहीं जानते और न जानना चाहते होंगे। आदि‍वासि‍यों को नहीं जानते और न जानना चाहते हैं। गरीब की हि‍म्‍मत नहीं कि फटक जाए इनके पास। वैसे कभी कभी धनपशुओं के क्‍लबों के कहने पर शायद कि‍सी गरीब का दि‍ल चीरकर देखा हो... क्‍या नि‍कला उस गरीब के दि‍ल में, इस बारे में जानने को न तो दुनि‍या का मेडि‍कल साइंस बेताब है और न हजूर खुद।

एक और हैं वहीं मुंबई में। डॉ. एस नटराजन। आंख के डॉक्‍टर हैं। बीस साल पहले महीने का 4200 रुपया कमाते थे, अब 42 लाख से ज्‍यादा कमाते हैं। 15 साल के अंदर मुंबई में 15 करोड़ का अस्‍पताल बनवा लि‍या। कैसे?? अरे कमीशन से और कैसे?? चिंता न करें, ये भी कमाने भकोसने वाले ही हैं! समाज से लेने वाले हैं, देने वाले नहीं। सेवा करने वाले डॉक्‍टर सैबाल 35 साल बि‍ना पैसे की सेवा करते हैं और 35 साल बाद छत्‍तीसगढ़ पुलि‍स सारे मानव अधि‍कारों को डॉ. नटराजन के अस्‍पताल के ओटी में पहुंचा देती है और सेवादार को जेल! कि‍तना सिंपल गणि‍त है ना?

नरेश बाबू को कैसे भूल गए भैया? बताते नहीं हैं वो कि कि‍तना लेते हैं, फि‍र भी दर्द-ए-दि‍ल में मुब्‍ति‍ला शख्‍स की हि‍म्‍मत नहीं कि त्रेहन की तरफ जाने की सोच भी ले! महंगे डॉक्‍टर हैं, महंगे अस्‍पताल में काम करते हैं, महंगे लोगों का इलाज करते हैं। महीने में साढ़े तीन सौ लोगों का सीना चीर देते हैं। एस्‍कॉर्ट में एक बार सीना खुलवाने का खर्च ढाई लाख रुपये से शुरू होता है। आदि‍वासी हुए, गरीब हुए, लाचार हुए तो वो महंगे नहीं हुआ करते। ये देश के सबसे सस्‍ते लोग हैं। इनके जो दि‍ल का ध्‍यान रखता है, छत्‍तीसगढ़ सरकार ही नहीं, सारी सरकारें उसे जेल की अंडा सेल में ठूंसकर कायदे से ध्‍यान रखती हैं।


Friday, March 18, 2016

वो राजा नरक योग्‍य है जि‍सकी प्रजा दुखी है

हम आहत भी बड़े सेलेक्‍टि‍व तरीके से होने लगे हैं। कश्‍मीर की आज़ादी सुनते ही हताहत हो जाते हैं लेकि‍न तेलंगाना की आज़ादी के लि‍ए राष्‍ट्र के खि‍लाफ जो हिंसा हुई जो नारे लगे, हमारी आह भी नहीं नि‍कलती। पूर्वांचल बनने तक जो जंग जारी है, वो हमारे मुंह से आ भी नहीं नि‍कालती। हरि‍त प्रदेश नाम से एक नया देश बनने वाला है भारत में, इससे हम टन से खुश हो जाते हैं। नागालैंड वाले चूं से भी कर दें तो उन्‍हें दि‍ल्‍ली में पकड़कर हताहत कर डालते हैं। अन्‍ना आंदोलन में झंडा लेकर आज़ादी आज़ादी करने वाले हाय क्‍या जोश भर देते हैं, वो कहां आहत करते थे।

जो खुद अपने धर्म दर्शन को समझने को तैयार नहीं हैं, वही बार बार सेलेक्‍टि‍व तरीके से आहत होते हैं। देवों के देव कि‍सने नहीं सुने। कई देवों को धारण करने पर एक महादेव बनता है। ये देश, जि‍से हम सब भारत कहते हैं, असल में ये एक महादेश है। कई देशों से मि‍लकर बना महादेश। हर राज्‍य एक देश है। एक आज़ाद देश जहां उसकी अपनी अस्‍मि‍ता बि‍लकुल अलग है। यूपी के भैया बि‍हारी नहीं और अन्‍ना कभी चटर्जी नहीं बन सकते। अलबत्‍ता इसे न समझने की जि‍द पकड़कर आप बार बार आहत हो सकते हैं।

सेना पर सवाल आपको आहत कर देता है लेकि‍न देश में सैन्‍य शासन की आप कल्‍पना तक नहीं कर सकते। क्‍यों नहीं कर सकते.. क्‍योंकि मन में डर है कि ये सैनि‍क कश्‍मीर में जो कर रहे हैं... फ़ैज़ाबाद के सिवि‍ल लाइन्‍स में भी वही करने लगेंगे। घर में घुसकर। और तब आपके पास आहत होने न होने के लि‍ए कोई सेलेक्‍शन नहीं रहेगा।

जासु राज प्रि‍य प्रजा दुखारी। ते नृप अवसि नरक अधि‍कारी।। इसे समझेंगे तो थोड़ा ठीक से समझ में आएगा कि नृप के वि‍रोध के स्‍वर कहां से उठ रहे हैं और क्‍यों उठ रहे हैं। वैसे समूचे भारतीय उपमहाद्वीपीय इति‍हास में मुझे दूसरा कोई ऐसा नृप नहीं नजर आता जि‍सका इतना प्रबल वि‍रोध हुआ हो। ये तुलसी ही हैं जो बोल रहे हैं। ये आहत आप है जि‍नने तब भी तुलसी का वि‍रोध कि‍या था और आपकी आहत होने की आदत के चलते वो लि‍खने को मजबूर हुए थे-

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जुलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों बेटा न ब्‍याहब काहू की जाति बि‍गार न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलाम है राम कौ जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।
मांगि कै खैबो मसीत को सोइबो लेबे को एक न देबे को दोऊ।

राजा कोई भी रहा हो, यहां के लोगों ने गलत का हमेशा प्रबल वि‍रोध कि‍या है। फर्क बस ये है कि पहले राजाओं का इति‍हास लि‍खा जाता था, अब जनता का लि‍खा जाता है।

Tuesday, March 15, 2016

भसम: भग्‍न संस्‍कृति मंच

आप दि‍ल पर मत लीजि‍ए मैसी जी, आपके लि‍ए नहीं लि‍ख रहा हूं। और आप तो कहीं भी मत लीजि‍एगा साशा जी, आपको कहीं भी कुछ दे देने के लि‍ए तो मैं ये बि‍लकुल भी नहीं लि‍ख रहा हूं। आप तो खुद ही पि‍छले पंद्रह साल से इस पेरि‍स को कुछ नहीं दे पाई हैं तो अभी का जन्‍मा और ऐफि‍ल टॉवर के छोटे ए जि‍तना बड़ा भी न हो पाया मैं आपके लि‍ए क्‍या लि‍ख पाउंगा। वैसे क्‍या लि‍ख पाउंगा से भी महती प्रश्‍न है कि क्‍यों लि‍ख पाउंगा। जबसे पेरि‍स आया हूं, यहां की गलि‍यों से ज्‍यादा तो आपको देने के लि‍ए गालि‍यां ही मन में घूम रही हैं क्‍योंकि आपकी करतूतें देखने के बाद  तो हज़रत आंद्रे आंतोआं को भी अपने थि‍एटर लि‍ब्र पे शरम आ रही होगी।

बहरहाल, पेरि‍स में हूं और यहां पर एक भग्‍न संस्‍कृति मंच बना दि‍या है। अब तक तीन बैच नि‍काल चुका हूं। एक ऐफि‍ल पे कर रहा है तो दूसरा नेशनल म्‍यूजि‍यम के सामने है। तीसरा घंटे वाली गली में अभी हारमोनि‍यम नि‍काल रहा है। हारमोनि‍यम पर आपका ऐतराज खारि‍ज कि‍या जाता है क्‍योंकि थ्‍योरि‍टि‍कली, हमने उसे जन और भस्‍म से अलग करके संस्‍कृति से कनेक्‍ट कर दि‍या है। ऐसा हमने एक पुराने मंच से सीख लेते हुए कि‍या क्‍योंकि वो पुराना मंच जन के नाम पर अभी तक बैठकर हारमोनि‍यम ही बजा रहा है।

वैसे मैसी साहेब, आपने कभी ये नया वाला सिंथेसाइजर इस्‍तेमाल कि‍या क्‍या, इसमें से कई तरह का आवाज़ नि‍कलता है। खैर आपके पास तो ऑलरेडी कई तरह की आवाज नि‍कालने वाले लोग हैं, और पुराने भी हैं और अनुभवी भी हैं। लात खाए लोग भी हैं जि‍नके मुंह से तो अब बस आंद्रे व्रेतॉ, फि‍लि‍प सुपोल, लूई आरागॉ, जॉर्ज हीनि‍ये, रने क्रेव्‍हेल और पॉल एलुआर अइसे झरते हैं कि गुरुजी की सिम्‍फोनी भी पनाह मांगती है। पेरि‍स में आके नया वाला दाढ़ी का कट भी ले लि‍ए हैं।

कल सात्र हारमोनि‍यम फाउंडेशन गया था। हर तरफ हारमोनि‍यम ही हारमोनि‍यम थे। हर तरफ सुर साधे जा रहे थे। हर तरफ शोर था। सुर सध नहीं पा रहे थे। कुछ चालीस साल पुराने हारमोनि‍यम थे तो कुछ साठ। कुछ तो बीस साल से लगातार फाउंडेशन में आ आकर बजते जाने वाले हारमोनि‍यम थे। लात खाए नए रंग में नहाए हारमोनि‍यम भी थे। मैने इसीलि‍ए हारमोनि‍यम को कल्‍चर से जोड़ा है। सब जब एक साथ बजते हैं तो कल्‍चर भी तो बनती है ना।

फ्रेंच के महान नाटककार लि‍ख गए थे कि- कबि‍त बि‍बेक एक नहीं मोरे। सत्‍य कहौं लि‍खि कागर कोरे। इसके आलोक में मैं देखता हूं तो खुद को कहीं टि‍का हुआ पाता ही नहीं हूं। सोचता हूं कि कैसे वो सात्र फाउंडेशन वाले हारमोनि‍यम इतने साल से टि‍के हुए हैं। दरअसल यहां का एफि‍ल दुनि‍या का आश्‍चर्य नहीं है। इतने सालों से नाटक के नाम पर एक न पर टि‍के हुए ये हारमोनि‍यम ही दुनि‍या के सबसे बड़े आश्‍चर्य हैं। सात सुर सबने सुने हैं लेकि‍न न का आठवां सुर इनके हारमोनि‍यम से नि‍कलता है। साशा जी प्‍लीज, अब तो इसे आपको जहां लेना हो, ले लीजि‍ए, आइ डोंट केयर।

कामता प्रसाद हों या कि‍शोरीदास या काशीप्रसाद। श्‍यामसुंदर दास हों चाहे कल्‍लू अल्‍हैत या हीरा डोम.. (इस हिंदी को फ्रेंच ही समझें), इधर पख्‍तूनी भाषा पुरस्‍कारों पर उंगली उठाने वालों को चि‍न्‍हि‍त कि‍या जा रहा है और वो जहां भी होंगे, उन्‍हें खोद नि‍काला जाएगा। ऐसा शीलाजी का फरमान है। कमरे में दर्द भरा पड़ा है तो मजबूरी में मैं बस इतना ही कर सकता था कि बोल दि‍या।

मिस्‍‍सेज पीपी मि‍स्‍टर्र केके
नाउ खुलेंगे सबके ठेके
सि‍ट्टेंगे मग हाथ में लेके
थिंकेंगे कब मरेंगा जेके

Thursday, March 10, 2016

भारतीय सेना की सेक्‍सुअलि‍टी पर बात करके तो देखि‍ए..

रंगीलाल अगर कहेंगे कि सब कोई एक जइसा नहीं होता तो वो आप इसलि‍ए नहीं समझेंगे कि रंगीलाल आपका कपड़ा प्रेस करने वाला मजूर मनई है न कि आपको हौंके रखने वाला आपका मालि‍क। कन्‍हैयालाल कहेंगे तो आप सुनेंगे नहीं क्‍योंकि सब कोई एक जइसा नहीं होता जइसी बात भी कुछ कुछ देशद्रोही टाइप का मामला बन जाता है तो सुनने न सुनने का कोई मतलब नहीं रह जाता। हम कहेंगे तो आप हमको भी गाली देंगे। न सुनने से, न समझने से और मुंह से अपशि‍ष्‍ट की उलटी दन्‍न से कर देने की सदइच्‍छा से सत्‍य तो बदलता नहीं, अलबत्‍ता झूठ को मनमाने तरीके से बदल बदलकर चमेली चाची की लाल लि‍पि‍स्‍टक लगाकर जि‍तना चाहे दि‍खा लीजि‍ए, उसका कोई मतलब है नहीं।

होमोसेक्‍सुअलि‍टी अपराध नहीं है। भारत में नहीं है। दि‍ल्‍ली हाइकोर्ट ने इसे स्‍पष्‍ट कर दि‍या है। सेक्‍स से जुड़ी हमारी कोई भी आदत/सोच/पसंद जबतक हमारे बेडरूम से बाहर नि‍कलकर बलात्‍कार में नहीं बदलती है, तब तक वो अपराध नहीं है, न हो सकती है। मगर अगर बात हमारी भारतीय सेना की हो तो वहां इसे अभी भी अपराध ही माना जाता है। ऐसा ' अपराध', जो सेना में भी उतना ही हो रहा है, जि‍तना कि इस देश में। सेना में भी होमोसेक्‍सुअल सैनि‍कों का वही अनुपात है जो इस देश की सारी आबादी के बरक्‍स। ये मैं नहीं कह रहा भाई लोग, मैनें सेना में नौकरी नहीं की है। पिछले दि‍नों सेना के एक रि‍टायर्ड अधि‍कारी ने रेडिट पर सेना से जुड़े कई खुलासे कि‍ए, लेकि‍न आलमोस्‍ट भगवा रंग में रंग चुकी हमारी मीडि‍या को वो दि‍खाई नहीं दि‍ए। जो नहीं रंगे हैं, उन्‍हें भी क्‍यों न दि‍खाई दि‍ए, मैं ये सवाल उठाता हूं।

देश्‍ा में एक संवि‍धान होता है जि‍सके हि‍साब से सारी चीजें तय होती हैं। हम अपनी मर्जी से कि‍ससे सेक्‍स करेंगे, ये हमारी अपनी आज़ादी है और होनी ही चाहि‍ए। लेकि‍न जब भारतीय सेना की बात करें तो इन लोगों ने पि‍छले दि‍नों एक सामान्‍य कैडेट को एनडीए के इम्‍ति‍हान में इसलि‍ए फेल कर दि‍या क्‍योंकि इंटरव्‍यू में उसने होमोसेक्‍सुअल राइट्स का सपोर्ट कि‍या था। वो कैडेट गे नहीं था। सारा मामला क्‍वोरा डाइजेस्‍ट पर छपा भी था। ये तब किया गया, जबकि भर्ती के वि‍ज्ञापन में कहीं भी ये नहीं लि‍खा जाता कि आर्मी में भर्ती के लि‍ए आप स्‍ट्रेट होने चाहि‍ए, होमोसेक्‍सुअल या लेस्‍बि‍यन नहीं।

पि‍छले साल एलजीबीटी राइट्स के लि‍ए काम करने वाले संगठन ने दुनि‍या का सबसे बड़ा सैन्‍य सर्वे कराया था जि‍समें भारतीय सेनाएं दुनि‍या की सबसे कम एलजीबीटी फ्रेंडली सेनाओं की सूची में रखी गईं। एलजीबीटी फ्रेंडली सेनाओं की सूची में न्‍यूजीलैंड नंबर एक बार आता है और ब्रि‍टेन नंबर दो पर। भारतीय सेनाओं को इस सूची में सौ में से 34 नंबर मि‍ले हैं। यहां की सेना में एलजीबीटी को लेकर सहि‍ष्‍णुता लेवल रवांडा, नेपाल, लाइबेरि‍या, कांगो और श्रीलंका की सेना जि‍तना है। एलजीबीटी को लेकर सबसे कम टॉलरेंस लेवल ईरान, सीरि‍या, जि‍म्‍बॉब्‍वे, घाना वगैरह में है और इन सबको सौ में से दस से कम अंक मि‍ले हैं। इस सूची एक जवाब मि‍लता है और फि‍र एक सवाल भी खड़ा होता है। जवाब ये कि आर्मी में होमोसेक्‍सुअलि‍टी है और सवाल ये कि अगर है तो उसे अपराध क्‍यों समझा जा रहा है?

आप सैनि‍कों को साल के दस महीने सेक्‍स नहीं करने देंगे। हस्‍तमैथुन को मजाक और होमोसेक्‍सुअलि‍टी को अपराध बनाएंगे तो सैनि‍क कहां जाएंगे? क्‍या करेंगे? कुछ तो करेंगे ना? कुछ हैवानि‍यत सा ही करेंगे फि‍र...

Wednesday, March 9, 2016

कश्‍मीर अपना है तो कश्‍मीरी क्‍यों नहीं?

कश्‍मीर में हालात वाकई भयावह हैं। कन्‍हैया अब कह रहा है, मैंने तो जबसे फेसबुक पर लि‍खना शुरू कि‍या है, तबसे कह रहा हूं कि सेना वहां अमानवीय कुकर्मों में जुटी हुई है। गूगल पर ह्यूमन राइट वॉयलेशन इन कश्‍मीर सर्च करने पर 4,19,000 रि‍जल्‍ट आते हैं और हर स्‍टोरी सेना की नंगई तो दि‍खाती ही है, स्‍टेट की बद्तमीजी भी नुमायां करती है। इसी गूगल पर रेप बाइ सीक्‍योरि‍टी फोर्सेस इन कश्‍मीर सर्च करने पर 9,93,000 इतने रि‍जल्‍ट्स आते हैं। लेकि‍न ये सुवि‍धाजनक सच है जि‍से कभी लि‍या जाता है तो कभी नहीं।

ऐसा नहीं है कि ऐसा करने पर इन सैनि‍कों पर कार्रवाई न हुई हो। फि‍र भी, ये असलि‍यत साथ साथ बरकरार है कि जि‍तने पकड़े जाते हैं, उससे कहीं ज्‍यादा छूट जाते हैं। ये सब करने के लि‍ए तर्क यह गढ़ा जाता है कि वो लोग करते हैं तो हम लोग भी करेंगे। कौन लोग हैं वो और कि‍सके खि‍लाफ वहां सेना खड़ी है? कश्‍मीरि‍यों के? क्‍यों? कश्‍मीर अपना है तो कश्‍मीरी क्‍यों नहीं?

कौन हैं वो लोग जो करते हैं और क्‍या करते हैं? क्‍या ये छुपा है कि आतंकवादी सीमापार से डांककर सबकुछ करने आता है? क्‍या ये छुपा है कि कश्‍मीर का नौजवान आज अशि‍क्षा, बेरोजगारी और अपनी जान बचाने से लेकर सैन्‍य गुलामी से जूझ रहा है? अगर ये सच नहीं है तो फि‍र सच क्‍या है?

डल झील सच है। बाग बागान सच हैं। ठंडी हवा सफेद बर्फ सच है। लबादे के अंदर जलती अंगीठी और उसकी आंच भी सच है। चि‍कारे सच हैं। पहाड़ सच हैं। बस जो सच नहीं है तो ये कि कश्‍मीर में इंसान को जीने के लि‍ए जो चाहि‍ए होता है वो नहीं मि‍लता। कहां से ये झूठ फैल रहा है? कौन फैला रहा है ये झूठ?

कुनान में आर्मी 23 कश्‍मीरी महि‍लाओं के साथ गैंगरेप करती है, लेकि‍न आप उसे सच क्‍यों मानेंगे? यूएन तक में इसके और इसके बाद के सैकड़ों रेप केसेस दर्ज हैं, लेकि‍न आपने सि‍र रेत में गाड़ रखा है तो देख नहीं पाएंगे। सोफि‍यां में 22वें ग्रेनेडि‍यर्स की पूरी रेजीमेंट गैंगरेप करती है, बि‍लकुल मत मानि‍ए इसे सच।

इतनी नफरत कि सैनि‍क कश्‍मीरी महि‍लाओं की बच्‍चेदानी तक फाड़ डालते हैं.. ये नि‍गलना काफी असुवि‍धाजनक लग रहा होगा ना और बदलें में हम क्‍या बोलते हैं - साले करेंगे तो भरेंगे ही। कोई एक सिंगल कश्‍मीरी दि‍खा दीजि‍ए जो पटना में आकर बलात्‍कार करता हो और थि‍रुवनंतपुरम में जाकर डकैती। बजाए इसके कि अनुशासन भंग करती सेना को कंट्रोल करने की कोई कवायद हो.. उठाइये लाठी और पड़ जाइये कन्‍हैया के पीछे उसे कंट्रोल करने को!!

क्‍यों.. क्‍योंकि वो आपका सबसे असुवि‍धाजनक सत्‍य बोलता है!

#jnurow #kanhaiyakumar

Saturday, March 5, 2016

आपाधापी में एक मजे की बात

इतनी सारी आपाधापी में एक मजे की बात-

भाजपा और संघ के पुराने समर्थक भी मोदी सरकार को गाली दे रहे हैं। बहरहाल उतनी बुरी बुरी नहीं जि‍तनी कि नए समर्थक देते हैं, लेकि‍न केंद्र सरकार इन दि‍नों जि‍तनी गाली बाहर से खा रही है, उससे बस थोड़ी सी ही कम वो अपने अंदर वालों से खा रही है।

मैनें मेरठ में कुछ भाजपाइयों से बात की। उनका कहना था कि पार्टी तो अब रही नहीं, जो भी यहां बचा है वो गुंडों की जमात है जो पार्टी के ही पुराने लोगों की नहीं सुनते। कुछ सुनाने चलि‍ए तो फि‍र उनसे मा बहन की गाली ही सुनि‍ए।

लखनऊ, इलाहाबाद, फैजाबाद, मुरादाबाद, गाजि‍याबाद या फि‍र नोएडा/दि‍ल्‍ली, भाजपा का सब जगह यही हाल है। यूपी वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि हमने नहीं लड़ाना वि‍धानसभा का चुनाव। सवाल ये है कि भाजपा का आधार इतना कैसे हि‍ल गया।

जवाब बहुत आसान है। राजनीति‍क पार्टी अपने कार्यकर्ताओं से चलती है, नौकरी पर रखे गए सोशल मीडि‍या मैनेजरों से नहीं। गुजरात में अपनी इसी हि‍टलरशाही के बलबूते पार्टी का नाश मारने के बाद मोदी-शाह की जुगलबंदी अब पूरे देश में पार्टी के साथ यही कर रही है।

वहां भी पहले सोशल मीडि‍या मैनेजर रखे गए। पार्टी में जमीनी नेताओं को दरकि‍नार कि‍या गया। गुंडों की फौज भरती की गई। नतीजतन पार्टी और प्रदेश, दोनों अभी तक सुलग रहे हैं। इसे बुझाने के लि‍ए जो पानी था, वो पहले ही मोदी ने अंबानी अडानी के हाथ बेच दि‍या तो अब आग और भड़क रही है।

यूपी में तो पुराने लोगों में कोई नामलेवा बचा नहीं है। जो बचे हैं तो वो सिर्फ इसलि‍ए बचे हैं क्‍योंकि कहीं और बचने की उन्‍हें कोई संभावना ही नहीं बची दि‍खती। और बचे हुए लोगों के दम पर राजनीति नहीं की जाती।

मैं नि‍श्‍चि‍ंत हूं और बंसी भी बजा रहा हूं क्‍योंकि रोम नहीं जल रहा है। जल रहा होता तो चि‍ल्‍लाता, वहां से आवाज आती। लेकि‍न चि‍ल्‍लाने, चोकरने की जो भी आवाज आ रही है.. वो भाजपा और संघ की ही ओर से आ रही है।

सो डोंट वरी भाई लोग.... आप भी बंसी बजाइए.. चैन की नहीं तो बेचैनी की ही सही। आवाज करते रहि‍ए।

Thursday, March 3, 2016

हिंदी कैसे लि‍खें

हिंदी कैसे लि‍खें? कैसे लि‍खें हिंदी कि अभी तक जि‍तनी लि‍खी गई है, उसकी जब तक चिंदी चिंदी ना उड़ जाए, मा कसम, हिंदी लि‍खते रहें- कुछ ऐसे लि‍खें हिंदी

कैसे लिखेंगे हिंदी कि अभी तक कि‍तने हिंदी लि‍खने वाले कीपैड को क्रुति‍ देव और मंगल समझे हुए हैं और इससे भी दो कदम आगे कि रेमिंगटन, फोनेटि‍क और रोमन को समझना उनके सपने में भी नहीं आता।

जि‍तनी तरह से उंगली चल सकती है, उतने तरह के कीपैड बने हैं और मुई मोबाइल कंपनि‍यां हर मॉडल के साथ एक ठो और जोड़के दुनि‍या को कि‍स अंधेरे जाल में ले जाना चाह रही हैं, नहीं पता। नो सर.. जानना भी नहीं है।

आइपैड खोलि‍ए तो अलग कीबोर्ड, मोटो जी का मोबाइल खोलि‍ए तो अलग, सैमसंग का खोल लीजि‍ए तो उसमें भी अलग। कंप्‍यूटर पर तो अलग हइये है। कीबोर्डों के जंजाल में फंसा आदमी जाए तो कहां जाए और उधि‍राए तो क्‍यों न उधि‍राए

हम अपलि‍टि‍कल हुए इल्‍जाम लगाना चाह रहा हूं कि आधी चड्ढी पहनने वाले इसी जंजाल से मुक्‍त होने के लि‍ए इतना छनछनाए हैं। अगर देश सुलग रहा है तो उसमें काफी सारा हाथ उंगलि‍यों के सरल स्‍वाभावि‍क नृत्‍य को तांडव में बदलना है। और दीजि‍ए ढेर सारा कीपैड।

एक तरफ वि‍देशी हैं कि एक बटन पे पूरी दुनि‍या लाके रख दि‍ए हैं और एक दांत काटा सेब चि‍पका के सबका हाथ एक बटन पे नचा रहे हैं और एक हम हैं कि हमारे लि‍ए सबसे अच्‍छा वही जि‍समें सत्रह बटन पंद्रह काज हो।

रवि भाई एक ठो बनाने की कोशि‍श कि‍ए रहे, अगर ये न होता तो आपका तो पता नहीं लेकि‍न मेरा काफी कुछ डि‍स्‍बैलेंस हो गया होता। सधे रहि‍ए, नॉर्मल रहि‍ए और कंप्‍यूटर या लैपटॉप पे हिंदी लि‍खने का लि‍ए यहां क्‍लि‍क करि‍ए। 

बाकी तो जीवन और हिंदी जैसी चल रही है, वैसी चलती ही रहेगी। बल्‍कि‍ जब जब संघी सरकार आएगी, आशा है कि नई नई हिंदि‍यों का जन्‍म होगा जो गूगल के सर्च इंजन सेटिंग को ध्‍वस्‍त करते हुए सीधे मंगल ग्रह तक मार करेगी।