Friday, March 12, 2021

बधाई हो, भारत में तानाशाही आई है

 


डेमोक्रेसी पर दुनिया भर के देशों की लगातार रिसर्च करने वाले एक विदेशी इंस्टीट्यूट ने बताया है कि भारत अब चुनावी तानाशाही में बदल चुका है। पिछले साल इस इंस्टीट्यूट ने वॉर्न किया था कि भारत बस अपनी लोकतांत्रिक हालत खोने ही वाला है। स्वीडन के रिसर्च इंस्टीट्यूट वेरायटीज ऑफ डेमोक्रेसी, यानि की वी डेम ने पूरे एनालिटिकल डेटा के साथ अपनी यह रिसर्च रिपोर्ट पब्लिश की है और खास बात ये कि यह रिपोर्ट स्वीडन के विदेश मंत्री रॉबर्ट रिडबर्ग की मौजूदगी में पेश की गई। स्वीडन की गोथेनबर्ग यूनिवर्सिटी से जुड़े इस इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट में कहा गया है कि खासतौर से 2019 के बाद से, जबसे नरेंद्र मोदी दोबारा सत्ता में आए, तबसे मीडिया, अकादमियां और सिविल सोसायटी कुचली जा रही हैं। 2019 के बाद से सेंसरशिप तो बिलकुल रूटीन की चीज बन गई है और पहले सरकारें ही सेंसर करती थी, अब तो भारत में जिसकी जो मर्जी आ रहा है, वो सेंसर कर दे रहा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि मोदी के आने से पहले भारत सरकार सेंसरशिप जैसी चीजों का कभी कभार ही यूज करती थी। मोदी जी लगातार राजद्रोह, मानहानि जैसे कानूनों का तो यूज कर ही रहे हैं, जो भी उनके खिलाफ बोलता है, उस पर काउंटर टेररिज्म का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, जैसा कि हम अनुराग ठाकुर से लेकर कपिल मिश्रा तक को आतंकवादियों जैसा व्यवहार करते देख ही चुके हैं। आपको सिर्फ एक नंबर बताता हूं। ये नंबर और इस नंबर से जुड़ी बस एक लाइन की कहानी सुनकर आपके होश उड़ जाएंगे। मोदी जी जबसे केंद्र की सरकार में आए हैं, उन्होंने सात हजार से ज्यादा लोगों पर देशद्रोह लगा डाला है। और ये देशद्रोह की धारा उसने अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों पर तो लगाया ही है, बीजेपी के खिलाफ आवाज उठाने वालों पर भी लगाया है। स्वीडन की यह रिपोर्ट कहती है कि मोदी जी ने भारत की सिविल सोसायटी को लाचार कर दिया है और भारतीय संविधान में जो सेक्युलिज्म, यानी धर्मनिरपेक्षता शामिल है, उसे छिन्न भिन्न कर दिया है। 


इस रिपोर्ट में कहा गया है कि बीजेपी यानी मोदी जी ने फॉरेन कॉन्ट्रीब्यूशंस रेग्युलेशन एक्ट यानी एफसीआरए का यूज सिविल सोसायटी को कमजोर करने के लिए जमकर किया है। याद रखें, जिस भी लोकतांत्रिक देश में सिविल सोसायटीज कमजोर होती हैं, लोकतंत्र में इसका मतलब तानाशाही माना जाता है। हालांकि बीजेपी और संघ से जुड़े जितने भी संगठन हैं, इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वो धड़ल्ले से विदेशों से पैसा मंगा रहे हैं। इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि मोदी जी ने अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट यानी कि यूपा को सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधियों पर यूज किया है और उन पर सभी लोगों पर किया है, जो उनकी नीतियों का विरोध करते हैं या फिर विरोध करने के लिए सड़क पर उतरे। आपको बता दें कि यह रिपोर्ट साल 2021 की है, जो बुधवार 10 मार्च को जारी हुई है। कोई भी इसे वी डेम डेमोक्रेसी रिपोर्ट के नाम से गूगल पर सर्च करके पढ़ सकता है, यह पूरी तरह से फ्री है। यह रिपोर्ट कहती है कि इन सारे फैक्ट्स की रौशनी में यह घोषित करने में उन्हें कोई हिचक नहीं है कि पिछले दस सालों के बाद भारतीय लोकतंत्र अब एक चुनावी तानाशाही में बदल चुका है। अच्छा, एकबारगी कोई कह सकता है कि स्वीडन की क्या औकात, या नॉर्वे की क्या औकात या फिर कोई बड़ा भक्त हुआ तो ये भी कह सकता है कि अमेरिका की क्या औकात। लेकिन अगर हम वाकई भारत की डेमोक्रेसी को लेकर या सिर्फ डेमोक्रेसी को ही लेकर चिंतित हैं तो इसके बारे में और जानना चाहते हैं तो हमें पिछले कुछ सालों में आई सारी रिपोर्टें देखनी चाहिए। आखिर मोदी जी भी तो अपने मर्जी का सर्वे लेकर आते हैं, उनके भी रिजल्ट देखने चाहिए। तो चलिए, सारी तो नहीं, लेकिन मेन मेन देखने की कोशिश करते हैं। 



पिछले हफ्ते, यानी मार्च 2021 की शुरुआत में ही अमेरिकी थिंक टैंक फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा था कि भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार के शासन में भारत में लोकतांत्रिक स्वतंत्रता लगातार गिर रही है और ‘भारत ने एक वैश्विक लोकतांत्रिक अगुवा का रास्ता बदलकर एक संकीर्ण हिंदु हितकारी देश का रुप अख्तियार कर लिया है। और इसकी कीमत समावेशी और समान अधिकारों को तिलांजलि देकर चुकाई जा रही है।‘ यह कहना है लोकतांत्रिक संस्था फ्रीडम हाऊस का, जिसने भारत की रैंकिंग स्वतंत्र देश से घटाकर ‘आशंकि स्वतंत्र’ देश के रूप में की है। आपको बता दें कि फ्रीडम हाऊस अमेरिकी सरकार से मदद पाने वाला एक स्वतंत्र लोकतंत्र रिसर्च इंस्टीट्यूट है। अपनी रिपोर्ट में इस संस्था ने कहा है कि भारत में मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं, पत्रकारों को धमकियां देने और उत्पीड़न की घटनाओं और अत्यधिक अदालती हस्तक्षेप की घटनाओं में बहुत तेजी आई है। रिपोर्ट कहती है कि इन सबमें तेजी 2014 में नरेंद्री मोदी की अगुवाई में बीजेपी की सरकार आने के बाद हुई है। फ्रीडम हाऊस की सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत ने विश्व में लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने वाले देश के तौर पर अपना रुतबा बदलकर चीन जैसे देशों की तरह एक तानाशाही रुख अपना लिया है। मोदी और उनकी पार्टी ने भारत को एक अधिनायकवादी राष्ट्र के रूप में बदल दिया है। एक सर्वे मोदी का भी देख लेते हैं। 10 फरवरी को आजतक ने खबर छापी कि अमेरिका में रह रहे भारतीयों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अभी भी सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं. कार्नेगी सेंटर फॉर एनडाउमेंट ऑफ़ पीस के सर्वे के मुताबिक अमेरिका में रह लोगों का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी पर भरोसा अभी भी कायम है. हालांकि भारत में लोकतंत्र की मौजूदा स्थिति को लेकर भारतीय अमेरिकियों की राय बंटी हुई है. यह सर्वे पिछले साल यानी 2020 में एक सितंबर से बीस सितंबर के बीच ऑनलाइन करवाया गया था. 


गजब बात तो यह कि जहां स्वीडन के वी डेम में करोड़ों लोगों की हिस्सेदारी थी, दस साल की रिसर्च थी, वहीं इस सर्वे में सिर्फ 1200 लोगों ने हिस्सा लिया और भारत भर के सारे मीडिया हाउसों ने इसे हाथोहाथ लिया। आज अभी जब मैं वीडेम की रिसर्च रिपोर्ट की खबर बना रहा हूं, हिंदी में यह खबर दोपहर तक कहीं नहीं आई है, जबकि इसकी रिपोर्ट बुधवार को ही जारी हो चुकी थी। बहरहाल, इस सर्वे में शामिल लोगों से जब पूछा गया कि क्या भारत सही रास्ते पर है तो 36 फीसदी ने कहा कि हां, सही रास्ते पर है, मगर इस सर्वे में भी 39 प्रतिशत लोगों ने कहा कि नहीं, भारत सही रास्ते पर नहीं है। मगर यह बात भारतीय मीडिया हाउसों ने हाइलाइट नहीं की। ऐसे ही एक सर्वे जनवरी 2021 में आया था, जिसमें कहा गया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक अमेरिकी डाटा फर्म ने अपने सर्वे में दुनिया का सबसे लोकप्रिय और स्वीकार्य राजनेता माना है। अमर उजाला में छपी खबर बताती है कि दुनियाभर के राजनेताओं की लोकप्रियता पर नजर रखने वाली कंपनी मॉर्निंग कंसल्टेंट ने अपने सर्वे में कहा है कि 75 फीसदी लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व पर भरोसा जताया है। वहीं, 20 फीसदी ने उन्हें स्वीकार नहीं किया है। कुल मिलाकर 55 फीसदी लोगों ने माना है कि भारत के प्रधानमंत्री मोदी दुनिया के सबसे स्वीकार्य राजनेता हैं। यह सर्वे अमेरिका, फ्रांस, ब्राजील, जापान समेत दुनिया के 13 लोकतांत्रिक देशों में हुआ था। जब जब भारत की डेमोक्रेसी को लेकर कोई रिसर्च रिपोर्ट या कोई सर्वे आती है या कोई बड़ा आदमी कोई बात कहता है तो मोदी जी फटाक से एक सर्वे करा डालते हैं। आपको बता दें कि दुनिया भर में सर्वे करने वाली हजारों कंपनियां हैं, जिन्हें आप पैसे देकर मनचाहा सर्वे करा सकते हैं और मनचाहा रिजल्ट भी पा सकते हैं। मगर किसी कंपनी से कहीं ज्यादा मायने एक रिसर्च इंस्टीट्यूट रखता है, जो जनता के पैसे से बिना किसी लाभ या फायदे के लिए चलता है। तो फिर से एक बार वापस हम अपनी डेमोक्रेसी की तरफ चलते हैं और देखते हैं कि कबसे इसका महासत्यानाश शुरू हुआ है।  



पिछले महीने यानी फरवरी में खबर आई कि भारत लोकतंत्र सूचकांक में दो स्थान नीचे फिसल गया है. '2020 लोकतंत्र सूचकांक' की वैश्विक रैंकिंग में भारत दो स्थान फिसलकर 53वें स्थान पर आ गया है. 'द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट' (ईआईयू) ने कहा कि प्राधिकारियों के 'लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछा हटने' और नागरिकों की स्वतंत्रता पर 'कार्रवाई' के कारण देश 2019 की तुलना में 2020 में दो स्थान फिसल गया. हालांकि भारत इस सूची में अपने अधिकतर पड़ोसी देशों से ऊपर है.  ईआईयू ने बताया कि नरेंद्र मोदी ने 'भारतीय नागरिकता की अवधारणा में धार्मिक तत्व को शामिल किया है और इसे कई आलोचक भारत के धर्मनिरपेक्ष आधार को कमजोर करने वाले कदम के तौर देखते हैं. इस रिपोर्ट में भारत को अमेरिका, फ्रांस, बेल्जियम और ब्राजील के साथ 'त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र' के तौर पर वर्गीकृत किया गया है. ईआईयू की रिपोर्ट में कहा गया कि भारत और थाईलैंड की रैंकिंग में 'प्राधिकारियों के लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछे हटने और नागरिकों के अधिकारों पर कार्रवाई के कारण और गिरावट आई.' विडियो की शुरुआत में स्वीडन के जिस वी डेम इंस्टीट्यूट के बारे में बताया, उसने पिछले साल यानी 2020 में बताया था कि नरेंद्र मोदी की सरकार में मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए कम होती जगह के कारण भारत अपना लोकतंत्र का दर्जा खोने की कगार पर है. तब इसने बताया था कि 2001 के बाद पहली बार ऑटोक्रेसी यानी निरंकुशतावादी शासन बहुमत में हैं और इसमें 92 देश शामिल हैं जहां वैश्विक आबादी का 54 फीसदी हिस्सा रहता है. इसमें कहा गया है कि प्रमुख जी-20 राष्ट्र और दुनिया के सभी क्षेत्र अब ‘निरंकुशता की तीसरी लहर’ का हिस्सा हैं, जो भारत, ब्राजील, अमेरिका और तुर्की जैसी बड़ी आबादी के साथ प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित कर रहा है. रिपोर्ट की प्रस्तावना कहा था कि भारत ने लगातार गिरावट का एक रास्ता जारी रखा है, इस हद तक कि उसने लोकतंत्र के रूप में लगभग अपनी स्थिति खो दी है. 


दो साल पहले मशहूर पत्रकार प्रताप भानु मेहता ने एक कॉन्क्लेव में कहा था कि एक बात तो साफ़ है कि भारतीय लोकतंत्र ना केवल ख़तरे में है. 2019 के चुनाव में दांव पर बहुत कुछ लगा है लेकिन उम्मीद बहुत कम है. ऐसा क्यों है, क्योंकि सबसे बड़ा सवाल यही है कि लोकतंत्र बचेगा या नहीं. पिछले कुछ सालों में जो माहौल बना है उससे बीते 10-15 सालों में जो उम्मीदें जगाई थीं वो सब दांव पर लगा हुआ है. जाहिर है कि इन सारी रिपोर्टों के आने के बाद यह कहना मायूब न होगा कि हम भारतीय अपने देश को और ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की लड़ाई लगातार हारते जा रहे हैं। प्रताप भानु मेहता का कहना अब सही हो रहा है। 

Wednesday, March 10, 2021

महिलाओं ने मांगा इस्तीफा, सीजेआई बोले- सवाल नहीं कर सकते

 


पिछले महज हफ्ते भर में समूचे देश भर से पांच हजार से ज्यादा लोगों ने एक ऑनलाइन पेटीशन साइन करके मांग की है कि भारत के चीफ जस्टिस एसए बोबडे तुरंत अपनी कुर्सी छोड़ दें। इतना ही नहीं, तकरीबन चार हजार से अधिक महिलाओं ने चिट्ठी लिखकर मांग की है कि अब उन्हें चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के पद पर बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। उस दिन कोर्ट में जिस तरह से उन्होंने बलात्कार के आरोपी से पूछा कि क्या वो उस महिला से शादी कर लेगा, जिसका कि उसने बलात्कार किया है, उसके बाद से सीजेआई बोबडे लगातार महिलाओं के निशाने पर हैं। मामला बढ़ता देखकर सोमवार को उन्होंने सफाई भी दी कि वो महिलाओ का बहुत सम्मान करते हैं। उन्होंने कहा कि उनको गलत समझा जा रहा है। उनकी सोच एकदम ऐसी नहीं है। उन्होंने कहा कि वे महिलाओं का सर्वोच्च सम्मान करते हैं, उन्होंने रेपिस्ट से शादी का प्रस्ताव कभी नहीं दिया और इस मसले पर मीडिया ने गलत रिपोर्टिंग की। इंग्लैंड का अखबार द गार्डियन इस बारे में लिखता है कि बोबडे साहब से पहले जो सीजेआई थे, गोगोई साहब, वो भी अपने ही एक महिला स्टाफ के साथ मीटू मामले में आरोपी बनाए थे। उनपर भी सेक्सुअल असॉल्ट का आरोप था, मगर उनको जुडिशरी ने छोड़ दिया। अब जरा देखिए कि बोबडे साहब के उस कमेंट पर, जिस पर उन्होंने बलात्कारी से यह पूछा था कि तुमने जिससे रेप किया, उससे शादी करोगे या नहीं, उस पर सोमवार को सुप्रीम कोर्ट की जो बेंच बैठी, उसमें क्या हुआ। आपको कसम है, भाषा की शालीनता बनाए रखिएगा। बहरहाल, चीफ जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस ए एस बोपन्ना और जस्टिस वी रामासुब्रमण्यम की बेंच ने पिछले हफ्ते बलात्कार के एक मामले की सुनवाई पूरी तरह से गलत तरीके से किए जाने पर असंतोष व्यक्त किया, जिसमें उसने कथित तौर पर एक बलात्कार के आरोपी से पूछा था कि क्या वह पीड़िता से शादी करने जा रहा है। 


सुनवाई की शुरुआत में चीफ जस्टिस बोबडे ने साफ किया कि उन्होंने नारीत्व को सर्वोच्च सम्मान दिया है। सीजेआई ने कहा कि उन्होंने पूछा क्या आप शादी करने जा रहे हैं? हमने उसे शादी करने का आदेश नहीं दिया। CJI बोबडे की बेंच ने कहा कि उस मामले में अदालती कार्यवाही की पूरी तरह से गलत रिपोर्टिंग की गई। क्या उससे शादी करोगे पूछने और जाओ और शादी करो का आदेश देने में बहुत अंतर है। आरोपी से तो बस पूछा गया था? मीडिया और एक्टिविस्टों ने इसे दूसरा एंगल दे दिया है। जज साहब जब यह बोले तो मोदी जी, मतलब भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बिना देर लगाए कहा, यस माई लॉर्ड, यू आर राइट। कथित गलत बयानबाजी को सुप्रीम कोर्ट की इमेज खराब करने वाला करार दिये जाने के बाद, चीफ जस्टिस बोबडे ने तुषार मेहता से भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 को पढ़ने के लिए कहा, जिसमें कहा गया है कि धारा 165 सवाल करने या पेश करने का ऑर्डर देने की अदालती ताकत जज प्रॉपर फैक्ट्स का पता लगाने के लिए या उनका उचित सबूत पाने के लिए, किसी भी रूप में, किसी भी समय, किसी भी साक्षी या पक्षकारों से, किसी सुसंगत या विसंगत फैक्ट के बारे में कोई भी सवाल, जो वह चाहे, पूछ सकेगा तथा किसी भी दस्तावेज या चीज को पेश करने का आदेश दे सकेगा। और न तो पक्षकार और न उनके एजेंट इसके हक़दार होंगे कि वे किसी भी ऐसे सवाल या ऑर्डर के प्रति कोई भी आक्षेप करें, न ऐसे किसी भी सवाल के जवाब में दिए गए किसी भी जवाब पर किसी भी साक्षी की अदालत की इजाजत के बिना एंटिसिपेशन के हकदार होंगे। जब वकील बीजू ने कोर्ट की प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए एक सिस्टम के बारे में बात की तो सीजेआई बोबडे ने कहा कि हमारी प्रतिष्ठा हमेशा बार के हाथों में होती है। 



इसके बाद बेंच ने लड़की के माता-पिता के साथ बात करने की इच्छा जताई और मामले को शुक्रवार 12 मार्च तक के लिए स्थगित कर दिया। तो ये तो अदालत में सोमवार को जो कुछ भी हुआ, वह था। कुल मिलाकर इसका मतलब है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के मुताबिक वे जो चाहें, पूछ सकते हैं, और कोई ये नहीं पूछ सकता कि ऐसा कुछ पूछते वक्त जज साहब के दिमाग में क्या चल रहा था। लेकिन क्या यह मामला सिर्फ यह कह देने से खत्म हो जाने वाला है, जैसा कि कानून में कहा गया है? बोबडे साहब ने जो सवालात पूछे, उससे भारत भर के महिला संगठनों और एक्टिविस्ट और बुद्द्जीवियों में घनघोर नाराजगी है। इसी गुस्से को उन्होंने चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया के नाम लिखे एक ओपन लेटर में व्यक्त किया है। आइए देखते हैं कि इस ख़त का मजमून क्या है ? कौन से सवाल पूछ कर नाराजगी जताई गई है। इस चिट्ठी में लिखा है कि माननीय चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया, हम भारत की महिलाओं से जुड़े आंदोलनों के, प्रगतिवादी सोच से जुड़े आंदोलनों के प्रतिनिधि हैं। मीडिया के ज़रिये पता चला कि आरोपी मोहित सुभाष चव्हाण बनाम महाराष्ट्र सरकार केस में आपने जो टिप्पणी की है वो काफी आपत्तिजनक है। उससे हम आक्रोशित हैं। आपका सवाल था कि क्या आरोपी, पीड़िता से शादी करेगा? ये सुझाव मात्र भी एक पीड़िता को एक ज़िंदगी भर के रेप में धकेलने वाला था। ये बात हमें घृणा से भर देती है कि एक महिला को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के सामने सिडक्शन, रेप और शादी जैसे शब्दों के मायने एक्सप्लेन करने पड़ें। भारत में महिलाएं ऐसे लोगों से घिरी हुई हैं, जिन्हें लगता है कि  रेप के लिए आरोपी से ‘कॉम्प्रोमाइज़’ करने से उनकी तकलीफ़ का समाधान हो जायेगा। इस पत्र में आगे लिखा है कि बस बहुत हो चुका  आपके शब्द कोर्ट की गरिमा को नीचे गिराने वाले हैं। 

 


चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया जैसे प्रतिष्ठित पद से देश की अन्य अदालतों, पुलिस और अन्य एजेंसियों तक ये संदेश जा रहा है कि भारत में महिलाओं के लिए न्याय उनका संवैधानिक अधिकार ही नहीं है। वहीं रेपिस्ट को ये मैसेज जा रहा है कि शादी, रेप का लाइसेंस है। चीफ जस्टिस से इस सुझाव के लिए माफ़ी की अपेक्षा करते हुए साफ़ लिखा है कि हम कहना चाहेंगे कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को 1 मार्च 2021 को कोर्ट में कहे अपने इन शब्दों को वापस लेना चाहिए, माफी मांगनी चाहिए। बिना एक पल गंवाए पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। चीफ जस्टिस के नाम ये ओपन लेटर लिखने वालों में महिला अधिकारों की बात करने वाले तमाम नाम शामिल हैं। एनी राजा, मरियम धवले, कविता कृष्णन, मीरा संघमित्रा आदि जैसे तमाम नाम हैं। साथ ही तमाम ग्रुप और एक्टिविस्ट भी इस मुहिम में शामिल हैं। एक तरफ जहां बोबडे साहब की महिला विरोधी हरकत के चलते महिलाएं बेहद नाराज हैं, वहीं उनकी इस हरकत पर देश दुनिया के बड़े अखबारों या मीडिया हाउसों में एक बार फिर से भारत की जुडिशरी की छवि वाकई धूमिल हुई है। अदालत और कानून चाहे जो समझे या कहे, मगर जिस तरह के तथ्य पूरी दुनिया के सामने हैं, उससे कोई भी यह आरोप बड़ी आसानी से लगा सकता है कि इंडियन जुडिशरी में महिलाओं की इज्जत तो हो सकता है कि बहुत है, मगर औकात कुछ भी नहीं है। बोबडे साहब के बहाने, जैसा कि हमने पहले बताया कि द गार्डियन अखबार ने पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई के भी तार छेड़ दिए हैं और यह कहने की कोशिश की है कि इंडियन जुडिशरी तो भई, बस ऐसी ही है। क्योंकि महिला संगठनों की जो चिट्ठी हमने आपको सुनाई, वह सोमवार को आए बोबडे साहब के कमेंट से पहले उनको लिखी गई थी, और जैसा कि देखा जा सकता है कि अदालत ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के पीछे कहीं न कहीं छुपने की कोशिश की और महिला संगठनों की नाराजगी को धारा 165 लगाकर खारिज कर दिया। जो शब्द इज्जत और औकात यूज किया गया, उसके बारे में भी तथ्य बड़े साफ हैं। औरत की इज्जत सुप्रीम कोर्ट में बहुत है, जिसके बारे में बोबडे साहब ने बयान दे ही दिया है। रही बात औकात की तो भारतीय जुडिशरी में कितनी महिला जज हैं, सुप्रीम कोर्ट में कितनी महिला जज हैं, हाई कोर्टों में कितनी महिला जज हैं, उनके नंबर्स बड़ी आसानी से गूगल पर देखे जा सकते हैं।


मोदी राज में कैग की ऑडिटिंग का बुरा हाल


 क्या आप जानते हैं कि 2018 में कैग ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि 2013-14 से 2015-16 के बीच एफसीआई ने हरियाणा के कैथल में अडानी ग्रुप के गोदाम में इसकी औकात के मुताबिक गेहूं नहीं रखा और खाली जगह का किराया भरती रही? इसके चलते 6।49  करोड़ रुपये फालतू में खर्च हो गए। मोदी सरकार के उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय, जिसके अंडर में एफसीआई आता है, उसने कैग को चिट्ठी लिखकर मांग की है कि इस पैराग्राफ को रिपोर्ट से हटाया जाना चाहिए। इस पैराग्राफ बोले तो जो मोदी जी ने अडानी जी को खाली डब्बों के पैसे दे दिए, उस पैराग्राफ को। मगर कैग ने कहा है  कि ये पैराग्राफ हटाया नहीं जा सकता है और उनका आकलन सही है। पूरा खुलासा वेबसाइट ‘द वायर’ ने अपनी रिपोर्ट में किया है। ये जो साढ़े छह करोड़ मोदी जी ने अडानी जी को फ्री फंड में दे दिए, इसके बारे में कैग ने एफसीआई को फटकार लगाते हुए लिखा था कि इस फालतू के खर्च के चलते टैक्सपेयर्स का साढ़े छह करोड़ बेवजह खर्च किया गया है। मंत्रालय अब कैग के पीछे पड़ा है कि इसे हटा दे, मगर कैग हटाने का नाम नहीं ले रहा है। हो सकता है कि इस बात से एकबारगी किसी को फख्र महसूस होने लगे कि कोई तो है, जो सही से हिसाब किताब पर ध्यान दे रहा है। मगर आगे जो हम बताएंगे, वो ऐसे किसी भी फख्र को मिनटों में छूमंतर करने वाला है। एक आरटीआई से भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी कैग की रिपोर्ट्स को लेकर चौंकाने वाला खुलासा हुआ है। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस को आरटीआई के तहत जो जानकारी मिली है, वह चीख चीखकर बता रही है कि साल 2015 से 2020 के बीच कैग की की रिपोर्ट में 75 फीसदी की गिरावट आई है। साल 2015 में कैग ने 55 रिपोर्ट्स पेश की थी, लेकिन 2020 तक इसकी संख्या घटकर महज 14 रह गई है। 


कैग रिपोर्ट में 75 प्रतिशत की गिरावट मामूली बात नहीं है। इसका एक मतलब यह भी है कि मोदी जी जो कर रहे हैं, कैग उसका चौथाई या आधा नहीं, सीधे सीधे पौना काम चेक ही नहीं कर रहा है। ऐसे में बिना कैग रिपोर्ट के यह पता ही नहीं चल सकता कि मोदी जी किस मद में कहाँ क्या खर्च कर रहे हैं और उससे बड़ी बात यह कि कहां बेवजह खर्च कर रहे हैं। दरअसल कैग की रिपोर्ट्स के जरिये ही सरकार की वित्तीय जवाबदेही तय होती है और अगर सरकार द्वारा कोई अनियमितता की जा रही है तो उसका भी खुलासा होता है। अब जैसे इसी सूचना में पता चला कि आज तक मोदी जी ने नोटबंदी की ऑडिटिंग ही नहीं होने दी है। वो नोटबंदी की ऑडिटिंग क्यों नहीं होने देना चाहते, इसका अंदाजा आपको इसी से लग सकता है कि कैग रिपोर्ट कांग्रेस की अगुवाई वाली मनमोहन सिंह की सरकार को इन्ही रिपोर्ट्स की वजह से हार का सामना करना पड़ा था। क्योंकि यूपीए के कार्यकाल के दौरान हुए ये घोटाले चुनाव का मेन मुद्दा बन गए थे। 2 जी आवंटन, कोयला आवंटन, आदर्श हाउसिंग सोसायटी और 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स का घोटाला ये सब नाम तो सबको याद ही होंगे। ये सब के सब कैग रिपोर्ट से ही उजागर हुए थे। यूपीए सरकार के कार्यकल के दौरान हुए इन तमाम घोटालों को भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट्स ने उजागर किया था। इसके चलते तत्कालीन यूपीए सरकार की छवि की धज्जियाँ उड़ गई थी। और इसका फायदा भाजपा ने खूब उठाया था।  यहाँ तक की साल 2014 के चुनाव में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा बना और मोदी सरकार सत्ता में आ गई। लेकिन जब से बीजेपी, खासकर हम दो हमारे दो की सरकार सत्ता में आई है, कैग को उसने करीने से ठिकाने लगा दिया है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोकपाल आंदोलन की बेंच पर बेताल की तरह सवार होकर मोदी सरकार आई थी। लेकिन एक बार सत्ता में आने के बाद व्यवस्था में पारदर्शिता की बात भुला ही दी गई। 



और तो और जो इसके पहले यूपीए सरकार के दौरान पारदर्शिता थी वो भी सिरे से गायब है। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘एनडीए सरकार के शुरुआती वर्षों के दौरान संसद में कैग की रिपोर्ट की संख्या 10 वर्षों में सबसे अधिक थी। लेकिन उसके बाद संख्या में लगातार गिरावट आई है।’ एक बार कैग के काम की भी थोड़ी जानकारी ले ली जाये और उसका महत्त्व समझ लिया जाये। भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक भारत के संविधान के तहत एक स्वतंत्र प्राधिकरण है। इस संस्था के जरिए संसद और राज्य विधानसभाओं के लिये सरकार और अन्य सार्वजनिक प्राधिकरणों (सार्वजनिक धन खर्च करने वाले) की जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है और यह जानकारी जनसाधारण को दी जाती है। लेकिन फिलहाल ये जानकारी किसी को नहीं मिल रही है। सबको मालूम ही है कि रफायल विमान सौदा कितना बड़ा मामला रहा है लेकिन हैरत की बात यह है कि सरकार इस मामले में ज्यादा जवाबदेही से बचती रही है और यह बात आरटीआई के जवाब से भी सामने आई है। रिपोर्ट से पता चलता है कि रक्षा ऑडिट रिपोर्ट के संख्या में काफी गिरावट आई है। साल 2017 में इस तरह की आठ ऑडिट रिपोर्ट संसद में पेश की गई थी, लेकिन पिछले साल यह संख्या शून्य रही। रेलवे ऑडिट रिपोर्ट्स के मामले में भी यही हाल है। 2017 में 5 रिपोर्ट आई थी लेकिन पिछले साल 1 ही आई। नोटबंदी जैसा बड़ा कदम मोदी सरकार ने उठाया था। बहुत लोग इसे आजाद भारत का सबसे बड़ा घोटाला तक कह रहे थे। इसके बारे में तो जरूर रिपोर्ट आणि चाहिए थी। इससे सरकार का पक्ष और मकसद साफ़ होता लेकिन हैरत ये कि नोटबंदी जैसे विवादित मामलों की भी कैग ने ऑडिटिंग नहीं की, जो बेहद अजीब बात है। जबकि नोटबंदी सरकार का एक फ़िज़ूल कदम साबित हुआ। तो यह बाते पता लगनी चाहिए 1,000 रुपये के नोट को बैन करने से क्या प्रभाव पड़ा?  नोटबंदी की किसी बात का कुछ पता नहीं चला। 


जबकि इस मामले में संस्था की जिम्मेदारी बहुत बड़ी थी।  इस सुस्ती का जवाबदेह कौन है कोई खबर नहीं है। कैग के इस लचर प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए पूर्व आईएएस अधिकारी जवाहर सरकार ने कहा कि कैग अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी नहीं निभा रहा है, जो फंड के खर्च की ऑडिटिंग करना है। आरटीआई की इस रिपोर्ट पर लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य ने कहा कि कैग को यह पता लगाना होता है कि क्या पैसा सही तरीके से और नियम-कानूनों के मुताबिक खर्च किया गया है। कैग को सरकार के इन सभी लेनदेन की जांच करनी होती है। इसका मतलब है कि कैग ने ऑडिट के लिए कम मामलों को उठाया या फिर उन्हें खर्च में कुछ भी गलत नहीं लगा।’ मामला केंद्र तक सीमित नहीं है केंद्र के साथ ही बीते कुछ सालों में विधानसभाओं में ऑडिट रिपोर्ट्स पेश करने में भी ख़ासी देर हुई है। विशेषज्ञों का मानना है कि रिपोर्ट पेश होने में हुई देर से उसका प्रभाव कम हो जाता है, साथ ही सरकार में ग़ैर-जवाबदेही के चलन को बढ़ावा भी मिलता है। वित्तीय वर्ष 2017-18 से संबंधित कम से कम नौ राज्यों के लिए कैग की ऑडिट रिपोर्ट अभी भी विधायकों और नागरिकों के लिए उपलब्ध नहीं है, जबकि वित्तीय वर्ष को खत्म हुए 30 महीने से ज्यादा का समय बीत चुका है। ये राज्य आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल हैं। इस तरह की देरी के चलते रिपोर्ट पेश होने के बाद वाले कामों जैसे लोक लेखा समिति यानी पीएसी और सार्वजनिक उपक्रम समिति यानी सीओपीयू की निगरानी प्रक्रियाओं पर गहरा प्रभावित पड़ता है। क्योंकि जब रिपोर्ट ही पेश नहीं होगी तो आगे कोई एक्शन कैसे लिया जायेगा। इस वजह से संबंधित मामले पर विभागों द्वारा एक्शन टेकन रिपोर्ट यानी एटीआर जमा करने में भी देरी होती है। यह ऑडिट रिपोर्ट के असर को प्रभावित करता है। अब  यह सवाल उठता है कि ऑडिट रिपोर्ट को पेश करने में हुई देरी के लिए कौन जिम्मेदार है? 


क्या चुनी हुई सरकारों को दोषी ठहराया जाना चाहिए? या फिर कुछ हद तक या कुछ मामलो में कमियां राष्ट्रीय लेखा परीक्षक संस्थान में भी है? जो भी हो यह जिम्मेदारी तो सरकार की है ही की वह विभिन्न मामलों में जो भी विवाद है उसमे अपनी स्थिति साफ़ करे। और यह सफाई ओडिट रिपोर्ट के जरिये ही पेश की जा सकती है। तमाम वित्तीय अनियमितताओं को लेकर सरकार पहले ही तमाम सवालों के घेरे में खड़ी है सबसे बड़ा मामला  नोटबंदी और रक्षा सौदे हैं। इसलिए ऐसा लगता है कि सरकार की खुद ही कोई दिलचस्पी  इन रिपोर्ट्स में नहीं बची है। इसलिए कोई न कोई वजह खोजकर जानबूझकर देरी की जा रही है।

Monday, March 8, 2021

तोहरे कागज के टुकड़न कै, का करिहैं बतलाओ राम

 जौ तू मनई हौ असली तौ 

बात हमार ई लिहौ तू मान 

राम नाम पै लाखौं लुटावौ 

अइसे ना खुश होइहैं राम

चार आना या आठ आना

चाहे जेतना लगावौ दाम 

तोहरे कागज के टुकड़न कै

का करिहैं बतलाओ राम

राम प्रेम परतापी राजा 

के उनका दै पाए दान 

उनके नाम जे चंदा मांगै

ओकर देह कै दिहौ तू जाम।

राम रसायन निकला चंदा

 राम रसायन निकला चंदा 

राम नाम कै होय रहा धंधा 

राम राम कहिके गोहरावैं 

राम जौ निकरैं, चक्कू देखावैं

राम नाम कै लूट रही तब 

अब तौ राम का नोच उड़ावैं

राम नाम का कै दिहिन गंदा 

दिखैं गली मा तौ मारौ डंडा।

Thursday, March 4, 2021

दिख ही गई सीजेआई बोबडे की स्त्री विरोधी मानसिकता

 सोमवार एक मार्च को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एसए बोबडे ने एक रेप पीड़िता के लिए ऐसा फैसला दे दिया, कि लोगों को पूछना पड़ रहा है कि आखिर अदालत में ये सब हो क्या रहा है। हर तरफ सीजेआई बोबडे के इस फैसले की मुखालफत जारी है। महिलाओ ने खास तौर पर इस पर नाराजगी जताते हुए इसे स्त्री विरोधी बताया है। इस फैसले में जो कहा गया है उससे सवाल उठता है कि कोर्ट के फैसले भी बोलीवुड की तरह अब फिल्मी ही होंगे क्या ? या फिर जस्टिस बोबडे ये देश की सुप्रीम कोर्ट के बजाय कहीं किसी खाप पंचायत में तो नहीं जाकर बैठ गए? दरअसल मामला कुछ यूं है कि  सुप्रीम कोर्ट में रेप के आरोपी  की याचिका पर सुनवाई करते हुए सीजेआई बोबडे ने उससे पूछा कि क्या वह पीड़ित महिला से शादी करेगा? उन्होंने कहा कि अगर वह पीड़िता से शादी करने को तैयार है तो उसे राहत दी जा सकती है। रेप का ये आरोपी सरकारी कर्मचारी है उसने गिरफ्तारी से राहत के लिए


सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। उसके वकील का कहना था कि गिरफ्तारी होने पर उसे नौकरी से सस्पेंड कर दिया जाएगा। उसकी ये दलीलें सुनने के बाद सीजेआई बोबडे ने कहा, "अगर आप शादी करना चाहते हैं तो हम आपकी मदद कर सकते हैं। अगर नहीं तो आपको अपनी नौकरी गंवानी पड़ेगी और जेल जाना पड़ेगा। आपने लड़की से छेड़खानी की, उसका रेप किया।" क्योंकि मोहित नाम का यह आरोपी व्यक्ति पहले से शादी –शुदा है इसलिए उसके वकील ने बताया कि शादी भी नहीं हो सकती है। सवाल यह है कि क्या इस तरह के फैसले से उस पीडिता को न्याय मिल सकता है जिसके साथ इतना वीभत्स कृत्य किया गया हो। क्या सजा से बचने के लिए आरोपी शादी का प्रस्ताव दे तो उस पर रहम करना चाहिए ? एक सवाल यह भी है कि सीजेआई बोबडे का काम पीड़ित को न्याय देना है या फिर वे वहां बलात्कारियों की शादी कराने के लिए बैठाए गए हैं? और इससे भी बड़ा सवाल महिलाओं की तरफ से यह है कि ऐसी महिला विरोधी मानसिकता के साथ किसी भी शख्स को क्या सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बनने का हक है? क्यों नहीं सीजेआई बोबडे को महिलाओं का सम्मान करते हुए स्वेच्छा से अपनी गलती मानते हुए कुर्सी छोड़ देनी चाहिए? फिल्म अभिनेत्री तापसी पन्नू ने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट पर कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने किसी ने लड़की से यह सवाल पूछा कि क्या वह दुष्कर्म करने वाले शख्स से शादी करना चाहती है या नहीं? क्या यह सवाल है? यही हल है या सजा? एकदम घटिया। वहीं माकपा पोलित ब्यूरो की सदस्य वृंदा करात ने भारत के चीफ जस्टिस एस ए बोबडे को पत्र लिख कर उनसे वह टिप्पणी वापस लेने का आग्रह किया है, जिसमें उन्होंने बलात्कार के मामले की सुनवाई के दौरान आरोपी से पूछा था कि क्या वह पीड़िता के साथ विवाह करने के लिये तैयार है।

वैसे अदालत में यह कोई पहली बार नहीं है कि उसका महिला विरोधी चेहरा दिखा है। असल में हमारी अदालतें अपनी जड़ से ही महिला विरोधी हैं। पिछले साल यानी दस जुलाई 2020 में एक बहुत ही विचित्र घटना हुई जो बताती है कि हमारा अदालती सिस्टम किस कदर स्त्री विरोधी हो चुका है। ये घटना  बिहार के अररिया जिले की है। जहां सामूहिक दुष्कर्म की शिकार युवती को ही जेल भेज दिया गया। उस पर न्यायिक कार्य में कथित तौर पर बाधा डालने का आरोप लगाया गया। हुआ ये कि इस केस में युवती के किसी परिचित ने ही अपने दोस्तों के साथ मिलकर उसका रेप किया था और शिकायत करने पर उसे ही जेल जाना पड़ गया था। जब घटना सामने आई तो हंगामा मच गया। इस घटना पर देश के जाने माने वकीलों और सामाजिक संस्थाओं ने पटना हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश से दखल देने की अपील करते हुए एक पत्र लिखा . 15 जुलाई 2020 को लिखे पत्र में साफ़ कहा गया कि ऐसा मामला पहली दफा सुनने में आया है कि मजिस्ट्रेट के सामने अपना बयान दर्ज कराने आई बलात्कार पीड़ित युवती व उसके दो सहयोगियों को उसकी मनोदशा को संवेदनशीलता के साथ देखे बिना अदालत की अवमानना के आरोप में माननीय मजिस्ट्रेट द्वारा न्यायिक हिरासत में लेने का निर्देश जारी किया गया। तीनों को न्यायिक हिरासत में लेकर वहां से 240 किलोमीटर दूर दलसिंहसराय जेल भेज दिया गया। लगभग 376 वकीलों द्वारा लिखे पत्र का नतीजा था कि  इन पर संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट ने इन पत्रों को जनहित याचिका (पीआइएल) में बदल दिया। इस तरह के मामलों की जैसे पूरे देश में ही झड़ी लगी हो।  एक मामला 2018 का है जब सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार के एक आरोपी की सजा में बदलाव करने या संशोधन करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी निहित शक्तियों का उपयोग किया था। सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी द्वारा जेल में बिताए गए दिनों को ही पर्याप्त सजा माना था ताकि पीड़िता या शिकायकर्ता को कोई और कष्ट न झेलना पड़े क्योंकि घटना के तुरंत बाद आरोपी से उससे शादी कर लिया था।


अब यहां सवाल ये है कि शादी करने या करवाने से अपराध कम हो जाता है क्या ? क्या यह संभव नहीं है कि कई बार शातिर अपराधी सजा से बचने के लिए भी शादी का फैसला कर सकता है। और कोई पीडिता समाज की उपेक्षा से बचने के लिए राजी भी हो सकती है लेकिन इसका परिणाम अंतत उस पीड़ित स्त्री को ही भुगतना पड़ता है जैसा की दिल्ली में हुए 2017 में एक केस में हुआ था। मामला कुछ ऐसा था कि इसमें एक रेप पीडिता और रेप आरोपी की शादी की गई थी। कुछ ही दिनों बाद आरोपी उस लड़की से छुटकारा पाने की सोचने लगा। उसने अपनी ही पत्नी के अश्लील वीडिओ बनाकर उन्हें वायरल करने की धमकी दी। तंग आकर लड़की ने रिपोर्ट की तब जाकर पुलिस को पता चला यह हरकत उसका पति कर रहा था। वो उसे तमाम धमकियां भी देता था जिससे लड़की खुद भाग जाये। शायद इस तरह करायी गई शादी का यही हश्र होता है। एक निहायत बचकाना फैसला बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने कुछ ही अरसा पहले 19 जनवरी को २०२१ दिया था इसमें एक मामले में जस्टिस पुष्पा वी। गनेदीवाला की एकल पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि टॉप को हटाए बिना किसी नाबालिग लड़की का ब्रेस्ट छूना यौन हमले की श्रेणी में नहीं आएगा, लेकिन इसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत किसी महिला का शीलभंग करने का अपराध माना जाएगा। हैरत की बात यह है कि ऐसा फैसला एक महिला जज की पीठ से आया था। जिसमे पाक्सो एक्ट के तहत यौन हमले की व्याख्या कुछ इस तरह की गई। कहा गया कि यौन इरादे और स्किन-टू-स्किन कांटैक्ट के बिना किसी बच्चे के ब्रेस्ट को जबरन छूना यौन अपराधों से बच्चों को बचाने के लिए बने विशेष कानून प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस (पोक्सो) एक्ट के तहत यौन हमला नहीं है।

इस फैसले से महिला संगठनो सहित तमाम लोगो ने नाराजगी जताई। गुजरात की एक महिला देवश्री त्रिवेदी ने इस फैसले से नाराज होकर तमाम जगह कंडोम के पैकेट ही भेज दिए और जज पुष्पा गनेदीवाला को निलंबित करने की मांग की। एक और मामला बेहद भयावह है जिसमे ये सुनकर ही गुस्सा आ जाये कि आखिर कोई न्यायधीश ऐसी सलाह कैसे दे सकता है। मामला दिल्ली की अदालत का है जहां भूरा नाम के आदमी पर रेप का केस था। युवक ने  अस्पताल में काम करने वाली एक नर्स के साथ बलात्कार किया था और फिर उसकी एक आंख निकाल ली थी। मुक़दमे में जब दोषी ने पीड़ित महिला के संग शादी का सुझाव दिया था तो न्याधीश ने पीड़ित महिला को सुझाव पर गौर करने को कहा था। न्यायाधीश की सलाह के बावजूद नर्स ने भूरा के साथ शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था जिसके बाद अदालत ने भूरा को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई थी। इतने हिंसक व्यव्हार के बाद किसे कोई स्त्री ऐसे इन्सान से शादी करने का सोच सकती है इसे एक पुरुष न्यायाधीश ही सोच सकता है। जाहिर है आरोपी तो शादी का प्रस्ताव अपने बचाव में दे रहा। शारीरिक और मानसिक चोट देने वाले से शादी का फैसला करना आसन नहीं है। जिसने किया भी कोर्ट की सलाह के बाद मज़बूरी में ही किया होगा। जबलपुर की एक अदालत भी ऐसे ही एक फैसले में आरोपी  कमलनाथ पटेल और पीड़ित लड़की की शादी अदालत परिसर में बने मंदिर में ही करा चुकी है।

इसी तरह का एक और केस पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट का है। इस केस में एक नाबालिग का गैंगरेप चार लोगों ने किया। इनमें से एक आरोपी ने 1 दिसंबर 2019 को ज़मानत के लिए याचिका लगाई कहा कि उसने जेल में विक्टिम के साथ शादी कर ली है। कोर्ट ने उसे ज़मानत दे दी। पर बाकी तीन आरोपियों की याचिका खारिज़ कर दी। कोर्ट ने जमानत इस चेतावनी के साथ दी कि अगर आरोपी ने लड़की को तलाक देने की भी कोशिश करता है तो भी उसकी ज़मानत रद्द हो जाएगी। और अगर आरोपी आने वाले समय में शादी तोड़ेगा तो भी उसके खिलाफ उचित आपराधिक कार्यवाही भी की जाएगी।  जहां शादी वाली सलाह से काम नहीं चला वहां भाई बनाने की सलाह भी दी गई। रक्षाबंधन सलाह मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की है। एक महिला का रेप करने पर आरोपी को जमानत दी गई और उसे कहा गया कि  शिकायतकर्ता के घर जाए उसकी रक्षा का वचन देकर उससे  "राखी बांधने" का अनुरोध करे। सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता अपर्णा भट और आठ अन्य महिला वकीलों ने इस जमानत आदेश में चुनौती दी। इस तरह की सलाह बेहद ही हास्यास्पद है। पीड़िता की तकलीफ़ को बढ़ाने वाली है। कोर्ट ने महज शादी करने ,भाई बनाने की की सलाह दी हो यहीं तक सीमित नहीं है उसने एक मामले में सास की भूमिका भी निभा डाली। 19 जून 2020 का एक फैसला गुआहाटी का है जिसमें  हाईकोर्ट ने ‘सिंदूर’ लगाने और ‘चूड़ी’ पहनने से इनकार करने पर एक व्यक्ति को अपनी पत्नी से तलाक लेने की अनुमति दे दी। उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा, ‘चूड़ी पहनने और सिंदूर लगाने से इनकार करना यह दर्शाएगा कि वह अपने पति साथ इस शादी को स्वीकार नहीं करती है।  समझ से परे है कि फैसले में ऐसी बातें किसी स्मृति या शास्त्र के हिसाब से कही गईं हैं या फिर संविधान के हिसाब से।


दिल्ली में ही एक केस में रेप के एक आरोपी को हाईकोर्ट से एक टैटू की वजह से ज़मानत मिल गई। आरोपी के वकील ने कहा कि शिकायत करने वाली महिला शादीशुदा है और आरोपी के साथ सहमति से रिलेशन में थी। अपनी इस दलील के पीछे वकील ने सबूत के तौर पर महिला के हाथ पर बने एक टैटू का ज़िक्र किया जिसमें आरोपी व्यक्ति का नाम लिखा है। आरोपी के वकील ने कहा कि महिला भी आरोपी से प्यार करती थी, जिसका सबूत ये टैटू है। इस पर शिकायतकर्ता महिला ने कहा कि ये टैटू उसके हाथ पर जबरन बनवाया गया है। लेकिन कोर्ट ने महिला की इस बात को ना मानते हुए कहा कि “सामने वाले की रज़ामंदी के बगैर टैटू बनाना कोई आसान काम नहीं है। हमारी राय में टैटू बनाना एक कला है और उसे बनाने के लिए एक विशेष प्रकार की मशीन की ज़रूरत होती है। शिकायतकर्ता के हाथ पर जहां ये टैटू बनाया गया है, वहां बनाना आसान नहीं। वो भी तब, जब उसने इस बात का विरोध किया हो। इस तरह के ना जाने कितने फैसले हैं जो बहुत सारे सवाल खड़े करते हैं। इनमे एक अहम् सवाल है कि क्या इस तरह के फैसलों का एक बड़ा कारण न्यायपालिका में पुरुष वर्चस्व है। पूरे भारत में उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में 1,113 न्यायाधीशों की कुल स्वीकृत संख्या में से केवल 80 महिला न्यायाधीश हैं।  इन 80 महिला जजों में से, सुप्रीम कोर्ट में केवल दो हैं, और अन्य 78 विभिन्न उच्च न्यायालयों में हैं, जो कुल न्यायाधीशों की संख्या का केवल 7।2 प्रतिशत है। इस सख्या को और बढ़ाने की जरुरत है। माना कि कुछ केसेज गलत हो सकते हैं लेकिन कुछ की वजह से तमाम पीड़ित महिलाओं की हक़तलफी ना हो जाये। कोर्ट कम से कम पीड़िता लिए इतना संवेदनशील हो कि सलाह उसके लिए सजा न बन जाये।