tag:blogger.com,1999:blog-72781375633636772712024-03-14T00:05:44.627-05:00bajaarसमाचार, विचार, व्यवहार और सारा संसार Unknownnoreply@blogger.comBlogger455125tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-19840879151428632812023-01-29T11:53:00.003-06:002023-01-29T11:56:23.696-06:00दस देवता और मटन पुराण AS05<p> आठ बजे अन्नप्राशन की पूजा शुरू होनी थी, मगर बिद्यापुर से आते-आते खुद पंडित दिजेन भट्ट लेट हो गए। बालीकोरिया से बिद्यापुर तीन चार किलोमीटर का ही फासला है, मगर दिजेन बाबू को अपने जुगाड़ी के साथ बालिकोरिया पहुंचने में ही साढ़े आठ या शायद नौ से ऊपर हो गए। वो आए, फिर केले का तना छीलकर उसे परत दर परत काटकर कामचलाऊ बरतन टाइप के बनाए गए। प्रसाद तैयार किया गया। </p><p>यहां पूजा कोई सी भी हो, प्रसाद में रात के भिगोए चने, मूंग ही मिलते हैं, गन्ने का मौसम हुआ तो कटा हुआ गन्ना भी। इधर दिजेन बाबू चौकी पूरने में लगे थे। जैसे अपनी ओर सत्यनारायण की पूजा में चार कोनों पर केले का छोटा पौधा गाड़कर बीच में एक चौकी बनाई जाती है, इधर भी यही किया गया। मगर अपने यहां भगवान की फोटो या मूर्ति रखी जाती है, असम में इस चौकी पर भगवदगीता रखी जाती है। भगवतगीता असमिया में थी। डॉ सदानंद और उनका परिवार स्वयं को संकरदेव का वंशज कहता है। </p><p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAwDuK4-ahR9Pr71S_bDV2QSUqhF86TbXi9UqaSm78M-jbPyNXMx1pcVf5LfKT_spaQgxjWLjNkjsRDc13o3VSIfsqgs5l64_9KWCUOd6CLbpsH3AMF3rJ4TL5Zr6UPgzDv1-wJeWcqyRqT8zulGJLukn0IvFuzzLVreWxbVn-O6T2IQsb6TfKZdLD4g/s1024/IMG-20230106-WA0139.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img alt="सिद्धार्थ" border="0" data-original-height="768" data-original-width="1024" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAwDuK4-ahR9Pr71S_bDV2QSUqhF86TbXi9UqaSm78M-jbPyNXMx1pcVf5LfKT_spaQgxjWLjNkjsRDc13o3VSIfsqgs5l64_9KWCUOd6CLbpsH3AMF3rJ4TL5Zr6UPgzDv1-wJeWcqyRqT8zulGJLukn0IvFuzzLVreWxbVn-O6T2IQsb6TfKZdLD4g/w320-h240/IMG-20230106-WA0139.jpg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>देवताओं के सामने बैठे US में रहने वाले सिद्धार्थ</i></td></tr></tbody></table><br />सिद्धार्थ ने बताया कि उनके परिवार में मूर्तिपूजा हमेशा से चली आ रही है। बल्कि लोकल दुर्गापूजा में दुर्गा की प्रतिमा इन्हीं के परिवार से जाती है। संकरदेव कायस्थ थे, इसलिए यह लोग भी कायस्थ हैं। संकरदेव की सबसे बड़ी जगह नगांव है, जो अपर असम और लोअर असम के ऐन बीच में है। वहीं मेरी साली यानी मेरी ससुराल पक्ष के लोग नामधारी हैं। </p><p>तकरीबन दो दशक पहले तक नामधारियों में मूर्ति पूजा बिलकुल नहीं होती थी। बल्कि संकरदेव और उनके बाद माधवदेव ने यह पंथ ही इसलिए शुरू किया कि इस तरह की चीजों से हिंदू धर्म को निजात मिले और इसे वे लोग भी मान पाएं, जो हिंदू नहीं थे। अभी भी अधिकतर नामघरों में आपको कोई मूर्ति देखने को नहीं मिलेगी। बस गीता, एक जलता दिया और अपनी ओर बजने वाले नगाड़े का एक सेट। हां, शंकर भगवान की फोटो जरूर अधिकतर नामघरों में देखने को मिलती है। </p><p>थाईलैंड या म्यांमार की ओर से असम में जो लोग शिफ्ट हुए, वे हिंदू नहीं थे, मगर अब लगभग वे सभी खुद को हिंदू ही कहते हैं। संकरदेव और उनके शिष्य रहे माधवदेव के समय और दोनों के काफी बाद तक यह लोग नामधारी हुए, नाम ग्रहण किया, मगर पिछले डेढ़-दो दशकों में बहुत सारे नामधारियों ने मूर्ति भी ग्रहण कर ली है। </p><p>दिजेन बाबू के जुगाड़ी ने केले के तने काटकर उन्हें परत दर परत अलग किया और उनके कुल आठ सेट बनाए। यहां पुजारी के हेल्पर को जुगाड़ी कहते हैं। इन आठ सेटों से मैंने अंदाजा लगाया कि यहां आठ देवता या तो बैठेंगे या फिर आठ देवताओं को भोग लगेगा। मगर दिशाएं तो दस हैं, तो देवता भी दस होने चाहिए थे! मैंने जुगाड़ी बाबू से अपनी जिज्ञासा बताई। वह बोले, आपने सही पकड़ा है। देवता दस ही हैं, मगर एक परत पर एक साथ हमने तीन देवता बैठाए हैं, और बाकी सब पर एक-एक विराजमान हैं। </p><p>पूजा और प्रसाद की इतनी मालूमात मेरे लिए काफी थी, इससे ज्यादा मुझे अगवान-भगवान में कोई रुचि भी नहीं। बल्कि उससे अधिक रुचिकर मुझे हर हाल में भोजन ही लगता है। दुनिया में ऐसे बहुतेरे हैं जो पकाने से लेकर खाने तक अपना गम गलत करने में लगे रहते हैं। अब मैं घर की बाड़ी की ओर बढ़ा। बाड़ी यानी घर का पीछे का हिस्सा। यहीं तालाब किनारे गूले खुदे थे, कड़ाह खदबदा रहे थे। </p><p>खाना पकाने वाले थे बापधन बाबू, जो कॉलेज रोड पर अब अपनी दुकान चलाते हैं। बापधन बाबू ने पहले नलबाड़ी कॉलेज की कैंटीन से अपना काम शुरू किया था। इनके हाथ का खाना कॉलेज के शिक्षकों को अच्छा लगा तो अब लगभग सभी शिक्षक अपने यहां होने वाले समारोहों में खाना इन्हीं से तैयार कराते हैं। जैसा कि पहले बताया, बापधन बाबू चावल, पुलाव, असमी मटन, मछली, मुरी घंटों (मछली का सिर तोड़कर उसमें 2-3 तरह की दाल डालकर), पनीर वेज, मिक्स वेज, बैंगन भाजा, पपीते का हलवा, चिली चिकन, सिवईं बनाने में लगे थे। आमतौर पर बैंगन भाजा गोल होता है, एक टिक्की की तरह। मगर यहां पतले-पतले बैंगनों को बीस से कई हिस्सों में काट लिया गया था, ऐसे कि जैसे कोई फूल। फिर उसे बेसन में डुबोकर तला जा रहा था। </p><p>चूंकि मटन मुझे पसंद है, इसलिए मैंने बापधन बाबू से पूछा कि असमी मटन कैसे बना रहे हैं? मुझे उनके गूले के आसपास रेडीमेड मसाले दिख रहे थे। रेडीमेड मसाले तो अब मेरी ओर यानी अवध में भी खूब शुरू हो चुके हैं, वरना टीन ऐज तक मैं ऐसे भी ब्रह्मभोजों की व्यवस्था में शामिल रहा हूं, जिनमें पूरी तरह से घर में बने मसाले ही यूज किए जाते हैं। अब अगर किसी को पूरी और कद्दू की सब्जी बनानी हो, तो वैसे भी मसालों की बहुत जरूरत नहीं पड़ती। </p><p>अवध का आदमी ब्रह्मभोजों में यही जीमता रहा है, मगर इन दिनों वह भी रेडीमेड मसाला होने की कगार पर है। बापधन बाबू ने बताया कि हमारे यहां मटन में पपीता जरूर पड़ता है। एक तो यह मटन जल्दी गलाता है, दूसरे पचाने में भी मदद करता है। हम असमी लोग खाने पर जितना ध्यान देते हैं, उतना ही ध्यान पचाने पर देते हैं। केला और पपीता हमारी राष्ट्रीय दवाई है। मैं बोला, आप तो यह कम से एक पूरा बकरा पका रहे हैं, मगर किलो भर के हिसाब से मुझे बताइए, कैसे कौन सी चीज? </p><p>वह बोले, तेल डाला, आधी चम्मच चीनी डाली, फिर प्याज डालकर लाल होने तक भूनी। फिर अदरक-लहसुन डाला और इसे इसकी महक खत्म होने तक भूना। अब नमक-हल्दी मिलाकर मटन डाला और जब तक इसका पानी सूख न जाए, भूनते रहना है। मसाले हम लोग बहुत कम यूज करते हैं। एक किलो मटन है तो बस आधा चम्मच जीरा और इतना ही धनिया पाउडर। एक चम्मच मीट मसाला, रंग के हिसाब से कश्मीरी मिर्च। यह सब एक कटोरी में पानी मिक्स करके एक गिलास अतिरिक्त पानी के साथ डाला। इसे तब तक भूनेंगे, जब तक कि मीट का रंग सही न लगने लगे। जब रंग सही लगे तो एक गिलास पानी और डालना है। </p><p>मैंने कहा, यह तो आपका अभी का तरीका हुआ और फिर मैंने उनको अपने गांव का पारंपरिक तरीका बयान किया। अब बापधन बाबू ने जाकर असल राज खोला। बोले, सबसे पहले तो आप यह जान लीजिए कि हम तीखा और खट्टा कैसे यूज करते हैं। तीखे में अगर काली मिर्च पड़ेगी तो हरी मिर्च नहीं पड़ेगी। हरी पड़ेगी तो भूत झोलकिया नहीं पड़ेगी। भूत झोलकिया संसार की सबसे तीखी मिर्चों में से एक है। मैंने पूछा, भूत झोलकिया किस हिसाब से आप लोग डालते हैं? उन्होंने बताया, अगर बहुत तीखा खाने वाले हैं तो किलो भर में पूरी एक मिर्च भी डाल देते हैं। </p><p>बता दूं कि पूरी एक मिर्च डेढ़ इंच से ऊपर की नहीं होती और अपनी ढेंपी पर पौन इंच का व्यास लिए होती है। अगर कम तीखा खाने वालों की दावत है तो इस मिर्च का पांचवां हिस्सा डालते हैं। आज की दावत में बापधन बाबू ने काली मिर्च का इस्तेमाल किया था। वैसे काली मिर्च हर मौके पर एक सेफ साइड मानी जाती है। ज्यादा हो भी जाए, तो भी जीभ या तलुओं को उतनी नहीं लगती, जितनी कि हरी या भूत झोलकिया। </p><p>वहीं खट्टे में अगर आम डाला तो इमली, अमरख या फिर आंवला नहीं पड़ेगा। आज के खट्टे में उन्होंने अमरख का इस्तेमाल किया था। अमरख से असमिया लोग बहुत पहले से पीलिया जैसी बीमारी भगाते रहे हैं। बहरहाल, पारंपरिक असमी मटन में नमक हल्दी मिले मटन का पानी सुखाने के बाद पपीता डालना है। पांच दस मिनट बाद काली मिर्च डाली और ऐसे कौरा कि मटन के हर ओर काली मिर्च लग जाए। एक गिलास पानी डाला। असमी मटन में पानी बहुत कम डालते हैं। मटन को इतना गलाते हैं कि वह खुद ही अपनी ग्रेवी तैयार कर ले। </p><p>असमिया मटन पुराण से निपटने के बाद मैं घर के सामने पूजा स्थल पर पहुंचा। पूजा शुरू हो चुकी थी और सिद्धार्थ अपनी चौकी पर बैठ चुका था। पता चला कि अभी यह पूजा कम से कम दो-तीन बजे तक चलेगी। भास्कर को अपने भांजे को पहला अन्न चखाना था, सो वह भी उपवास पर था। उपवास के चलते वह मेरा तांबूल चबाने में साथ भी नहीं दे पा रहा था, और मैं लगातार बोर ही हो रहा था। वह तो शुक्र रहा कि डॉ सदानंद लगातार मुझे अपने दोस्तों से मिलवाते रहे, वरना इस तरह से तो मेरा वहां वक्त काटना मुश्किल था। </p><p>मैं अपने घर में होने वाली पूजाओं से भी दूर रहता हूं, और इसी तरह से बोर होता रहता हूं। एक बजे के लगभग खाना शुरू हो गया। पहली पांत में लगभग पचास-साठ लोगों ने खाया। भूख तो मुझे भी लगी थी लेकिन घर का आदमी होने के चलते पहली पांत में खा लेना बेजा बात समझी जाती। मगर दूसरी पांत तक न मुझसे इंतजार हुआ और न मेरी सास से बर्दाश्त हुआ। हम दोनों दूसरी पांत में बैठ गए। बापधन बाबू ने वाकई खाना बेहद लज्जतदार बनाया था। यह पहली बार था कि घर हो या होटल, मैंने बहुत खाया। पपीते का हलवा तो जबरदस्त था और बैंगन भाजा के तो कहने ही क्या। मेरी सास ने सबसे ज्यादा तारीफ असमिया स्टाइल वाले मटन की बांधी। </p><p>खाने के बाद हमने तांबूल खाया। यह तांबूल सिद्धार्थ की बाड़ी का था और मुंह में रखते ही ऐसे घुल रहा था कि बनारसी पान क्या घुलेगा। आमतौर पर पेड़ से तांबूल तोड़ने के बाद इसे महीने दो महीने जमीन में गाड़कर सड़ाया जाता है, फिर इसे छीलकर इसमें से सुपारी निकाली जाती है। मगर यह ताजा टूटा तांबूल था। पेड़ से ताजे टूटे तांबूल का स्वाद और मजा दो महीने तक सड़े तांबूल और सूखी सुपारी से कहीं ज्यादा अच्छा होता है। मैंने एक के बाद एक कई तांबूल दबा लिए। असम पहुंचने के कई दिनों बाद भरपेट खाना खाया था तो नींद भी लगी थी। एक कमरे में जाकर मैं सो गया। शाम को हम सब वापस गुवाहाटी निकल लिए। सब इतने थके थे कि रास्ते में कहीं रुके भी नहीं। </p><p><br /></p><p>नलबाड़ी किस्सा समाप्त, अब मेघालय, फिर काजीरंगा शुरू होगा।</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-65851294350652774322023-01-29T11:44:00.006-06:002023-01-29T11:55:58.210-06:00अहोमों की शादी, नामधारियों का उत्सव AS04<p> <br />जैसे अपने यहां, मने ईस्ट यूपी में ब्रह्मभोज की शुरुआत गूला खोदने से होती है, ऐन वैसे ही यहां भी खाना बनाने वास्ते आग दहकाने के लिए गूले खोदे गए, फिर आग जलाने से पहले इनकी पूजा हुई। अग्नि पूजा कहीं न कहीं हम सारे भारतीयों को एक सी तपिश देती है। यूपी में आमतौर पर मेरी ओर, यानी फैजाबाद-सुल्तानपुर की ओर दो गूले खोदे जाते हैं, या फिर महज एक। पूरी-सब्जी एक साथ बनेगी, या फिर एक ही चूल्हे यानी गूले पर एक के बाद एक बनेगी। दावतों के चूल्हे को गूला शायद इसलिए कहते हैं क्योंकि यह जमीन में अंदर गोल आकार में खोदा जाता है। वैसे भी गूला शब्द गोला के ज्यादा पास है। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjjOz2XXYrJdSXk35fcr0om-Plu6pkfDrsEr9MNFThLlMQX0ji_FAqA-RKUIcMKBC7NrPdJ7puYFCQzBM6guryxXGVfu8kBtK3ZEmaXxfhAFVF97GHkpfqtXSaX_b_xr3fYLMsRAhl_BcBltNaMbpXECCWV-MW1NHhjRArmJeV9cUGVW4EEI58eQ7CxBw/s1920/IMG_20230101_153832.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1920" height="224" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjjOz2XXYrJdSXk35fcr0om-Plu6pkfDrsEr9MNFThLlMQX0ji_FAqA-RKUIcMKBC7NrPdJ7puYFCQzBM6guryxXGVfu8kBtK3ZEmaXxfhAFVF97GHkpfqtXSaX_b_xr3fYLMsRAhl_BcBltNaMbpXECCWV-MW1NHhjRArmJeV9cUGVW4EEI58eQ7CxBw/w400-h224/IMG_20230101_153832.jpg" width="400" /></a></div><p></p><p>यहां भी इन्हें गूला ही कहते हैं। मगर यहां एक साथ तीन गूले खोदे गए। एक पर लगातार पानी गरम होता रहा, और बाकी दोनों पर पकवान पकते रहे। जैसे अब अपनी ओर गूलों के साथ-साथ एकाध गैस के चूल्हे भी रहने लगे हैं, यहां भी एक चूल्हा गैस का था। मने चार चूल्हे जले, जिनमें चावल, पुलाव, असमी मटन, मछली, मुरीघंटो (मछली का सिर तोड़कर उसमें 2-3 तरह की दाल डालकर), पनीर वेज, मिक्सवेज, बैंगन भाजा, पपीते का हलवा, चिली चिकन, सिवईं बनी। इन सबको जीमने के बाद आखीर में भुनी हुई सौंफ के साथ घर के पेड़ों से तोड़े तांबूल और घर में ही उगाए गए पान के पत्ते। </p><p>अपनी ओर जिस तरह से गांव भर की महिलाएं पूरी बेलने और मर्द पिसान मर्दने आते हैं, मैं देखना चाहता था कि गांव के बाकी लोग इस भोज में क्या प्रबंध करते हैं। बदकिस्मती से गांव से आया पहला प्रबंधक वही दिखा, जिसके बारे में रात ही ताकीद कर दी गई थी कि इससे दूर रहो। यानी नबाज्योति। मुझे याद आया, मेरी ओर भी वही लोग सबसे कुशलता से ऐसी दावतों का प्रबंधन संभालते हैं, जिनके बारे में दावत देने वाले बहुत अच्छी राय नहीं रखते। फिर मामला अगर पटीदारों का हो, तो और भी चुभता हुआ होता है। </p><p>मगर मुझे यह बात बेहद अच्छी लगती है। यह हमारे समाज के उन लोगों का अहिंसक प्रदर्शन है, जो कहीं न कहीं यह चाहते और मानते हैं कि सब एक ही घर या कबीले के हैं और भले उन्होंने कुछ अच्छा न किया हो, मगर आज तो अच्छा करके दिखा रहे हैं। जैसे ही मैं गूलों की ओर से मुख्य पूजास्थल पर आया, नबाज्योति बाबू मुझे ही ताड़ते मिले। वह तो अच्छा हुआ कि मुझे तुरंत मेरी साली के ससुर (मेरी साली ने ताकीद की है कि मैं उन्हें अपने रिश्ते का ससुर लिखने की जगह उसी का ससुर लिखूं) यानी डॉ सदानंद का साथ मिल गया, वरना फिर से मुझे कल रात वाली बातें सुनने को मिलतीं- दूर रहो उससे। </p><p>डॉक्टर साहब के पास पहुंचा तो उन्होंने मुझे शहर के लोगों से मिलवाना शुरू किया। बहुत लोग थे, बीस से अधिक। मुझे सबके नाम तो नहीं याद, मगर सिद्धार्थ के मामा प्रभाष दत्ता और बुआ इला दत्ता जरूर याद हैं। जैसे ही बुआजी ने यह सुना कि मैं जबसे असम आया हूं, तांबूल पर तांबूल चबाए जा रहा हूं, झट उन्होंने दावत दे डाली कि हमारे पेड़ों के तांबूल खाकर देखो, ऐसे तांबूल पूरे असम में कहीं नहीं मिलेंगे। बुआजी, मेरी शिकायत नोट करिए, बल्कि उसी पोटली में बांधिए, जिसमें कि मुझे शक है कि जरूर आपके घर का तांबूल बंधा था... </p><p>बुआ से मिल ही रहा था कि डॉ सदानंद मुझे गेट की ओर खींच ले गए। वहां उनके चार दोस्त आए थे। उन्होंने उन सबसे मेरा परिचय कराया कि मैं उनकी बहू की बड़ी वाली बहन से ब्याहा हूं और इससे भी बड़ा मेरा परिचय यह है कि मैं अयोध्या से आया हूं, और मेरा घर अयोध्या में बन रहे नए राम जन्म भूमि मंदिर के पांच किलोमीटर की रेंज में है। </p><p>आपस में परिचय चल ही रहा था कि मेरे सलिया ससुर बोले, मोदीजी ने तो मंदिर बनवा दिया! मैं भी तपाक से बोला, मोदी जी ने नहीं बनवाया। यह तो आपके असमिया भाई गोगोई ने बनवाया। उसी ने तो सुप्रीम फैसला दिया था। वह फैसला न देता तो क्या मोदी और क्या कोई दूसरी पार्टी मंदिर न बनवा पाती। इसी बीच उनके एक दोस्त ने कहा, मगर गोगोई साहब भी तो कई दिक्कतों में फंसे थे? </p><p>मैंने कहा, हां, फंसे तो थे, मगर यह सब राजकाज का मामला है। आपने चाणक्यनीति पढ़ी है? उसमें यह सारे टंट-घंट दिए हुए हैं। वैसे एक तरह से डॉ साहब का कहना सही है ही कि मोदी जी ने मंदिर बनवा दिया। मगर कायदे कानून के हिसाब से मेरा बयान यही होगा कि गोगोई जी ने मंदिर बनवा दिया। मेरा यह कहना था कि मेरे सलिया ससुर के चार के चारों दोस्तों ने, जो मेरे से उम्र में और नहीं तो कम से कम बीस साल बड़े होंगे, मेरी पीठ ठोंकी, और बोले, यह सही कह रहा है। </p><p>इसके बाद तो हाजरीन, मैं कहूं तो क्या ही कहूं। मेरे सलिया ससुर यानी डॉ सदानंद ने वहां आए ढेरों मेहमानों को खोज-खोज कर मुझसे मिलवाया। मैं थोड़ा इंट्रोवर्ड हूं तो कुछेक मौकों पर छुप भी जाता कि अभी डॉक्टर साहब फिर किसी से मुलाकात कराने लगेंगे। कुछ ही देर में तीन तल्ले मकान के हरेक कमरे में यह खबर पहुंच गई कि डॉक्टर साहब को मैं बहुत पसंद आया हूं और वो ब्रह्मभोज में आने वाले लगभग सभी लोगों से मुझे ही मिलवा रहे हैं। </p><p>चूंकि मैं भी वहीं किसी तल्ले में था तो अलट-पलटकर यह खबर मेरे भी कानों में गूंजी। रश्क हुआ। कम से कम एक अनजान असमिया तो मुरीद हुआ! भले गोगोई साहब के नाम पर हुआ, मगर हुआ तो सही। जो लोग मुझे ठीक से जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि जुडिशरी की हिस्ट्री में मैंने बहुत कायदे से गोगोई साहब की क्लास लगाई है। मेरी चलती तो मैं उनको जेल कराकर ही मानता। मगर यह बात मैं वहां छुपा गया। कहीं कहीं खुद को ठीक से जानने न देना भी बहुत जरूरी होता है। रिश्तों में तो यह बात और भी कड़ाई से लागू होती है, खासकर इन दिनों के दिनों में। </p><p>इस ओर पंडित जी अपना आसन लगा चुके थे। हमें बताया गया था कि सात-आठ बजे से पूजा शुरू हो जाएगी, मगर अब तो दस बजे को थे। मैं पूजा की जगह पर पहुंचा। मेरे सलिया ससुर नामधारी हैं, खुद मेरी भी ससुराल नामधारी है। बोरगोहनों की पारंपरिक शादी नामघर में ही होती है। बेहद सादा शादी समारोह। जिस तरह से अपने यहां हवन होने के पहले से लेकर हवन होने के बाद तक वर-वधु को धुंआ होना पड़ता है, ऐसा कोई चक्कर नामघरों में नहीं है। बोरगोहेन अहोम हैं और इनकी शादी को चक-लॉन्ग कहा जाता है। </p><p>इसमें 101 दिए जलाए जाएंगे। फिर पुरखों को याद किया जाएगा, जिसके बाद पुरानी वाली थाई में दूल्हा-दुल्हन कुछ मंत्र बोलेंगे। अगर किसी की औकात सौ दियों की ना हो, तो वह एक दिया जलाकर भी इन मंत्रों के साथ वह शादी कर सकता है, जिसके बारे में मुझे नहीं पता कि कानूनी मान्यता है या नहीं, मगर पारंपरिक और सामाजिक मान्यता पूरी है। बहरहाल, इतने से ही इनकी शादी पूरी हो जाती है, जिसके बाद दूल्हा-दुल्हन सहित मेहमान रोभा में जाते हैं। रोभा इनकी शादी में सजे पंडाल को कहते हैं। गुवाहाटी के जिस पहले होटल में मैंने असमिया थाली खाई थी, उसका नाम भी राभा ही था। मगर राभा यहां की कम्युनिटी है और रोभा मतलब पंडाल।</p><p>भास्कर ने भी इन्हीं दियों और मंत्रों के साथ शादी की थी और उसकी जिद यह थी कि यह शादी बिहू के दिन ही हो। बिहू के दिन में असल में असमिये पूरी तरह से पगला जाते हैं। असल में इस पागलपन की जड़ प्रेम और परंपरा का मिलाजुला वह वृक्ष है, जिसके वाकई पूरे राज्य को एक कर रखा है। जैसे अपनी ओर किसी और जाति या फिर गोत्र में शादी करने पर कत्ल हो जाते हैं, यहां ऐसा बिलकुल नहीं होता। </p><p>यहां तो बिहू होता है और आप जिस किसी से भी प्रेम करते हैं, बिहू के वक्त उससे कैसे भी करके शादी कर सकते हैं। पूरे समाज में इतनी हिम्मत नहीं कि इस वक्त हुई शादी पर एक भी सवाल उठा सके। मसलन, बोरगोहनों में आपस में शादी नहीं होती, मगर जाखलोबंधा में मेरी फुफेरी सास ने यह परंपरा तोड़ी और किसी ने भी इसका विरोध नहीं किया। सब खुशी-खुशी दोनों शादी में शामिल हुए। </p><p>अहोम राजाओं ने चाहे जो किया हो, या चाहे जो ना किया हो, असम को बिहू जैसे प्रेम करने के मौके देकर इसे वाकई दुनिया से एकदम अलहदा और अनोखा राज्य तो बना ही दिया है। अपने यूपी या बिहार में प्रेम करने के क्या ऐसा कोई भी उत्सव हैं? उत्तराखंड में? हरियाणाा में? दिल्ली में? राजस्थान में? कहीं हो ऐसा उत्सव तो कोई बताए? </p><p>... जारी</p><div><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-58058179056194877282023-01-12T00:31:00.002-06:002023-01-29T11:55:45.380-06:00असम डायरी : यह रायबरुआ कौन जाति होते हैं? AS03<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjh8LHNVdpiCK9azScDso4l7o1XqykaGlLkGHW4njlkVQ7gI8N8Pn6YxXNYFUB6hi5knlH_GX4zHUd2cEbhK_Z9IJR4HjBv6fFpvGTUTcS6zCICHhRXuef4tbeUeXodmVUsAvznAms7uaEtw-PmslmBnNS8lQyvxVNHcxC-frJ7nNQ-ITgjvik1-OPU2A/s1525/n1.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="925" data-original-width="1525" height="194" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjh8LHNVdpiCK9azScDso4l7o1XqykaGlLkGHW4njlkVQ7gI8N8Pn6YxXNYFUB6hi5knlH_GX4zHUd2cEbhK_Z9IJR4HjBv6fFpvGTUTcS6zCICHhRXuef4tbeUeXodmVUsAvznAms7uaEtw-PmslmBnNS8lQyvxVNHcxC-frJ7nNQ-ITgjvik1-OPU2A/s320/n1.jpg" width="320" /></a></div><br />बालीकोरिया पहुंचते-पहुंचते शाम होने लगी थी। महीना दिसंबर-जनवरी का हो तो असम में तीन-साढ़े तीन बजे तक शाम होने लगती है और पांच-साढ़े पांच बजे तक रात हो जाती है। यहां मेरे सास मेरी मोहतरमा के साथ पहले ही दिल्ली से पहुंची हुई थीं। इन दिनों वर्क फ्रॉम होम ही चल रहा है, सो मुझे दफ्तर के जरूरी काम निपटाने थे। जो कमरा मुझे एलॉट हुआ था, वहां मैं अपना लैपटॉप लेकर बैठ गया। काम निपटाने के बाद वापस घर के मेन हॉल में पहुंचा तो डॉ सदानंद रायबरुआ आ चुके थे, कुछ देर में डॉ निबिर रायबरुआ भी आ पहुंचे। वह अपने साथ पढ़ने वाले किसी दोस्त के ढाबे से चिकन भुनवाकर लाए थे, और आते ही नए साल की पार्टी में कुछ लज्जत भरने के काम में लग गए। रात हमें छत पर आग जलानी थी और डॉ निबिर के पकाए चिकन के स्वाद के साथ सबने नए साल का खैरमकदम करना था। आग जलाने का जिम्मा मुझे सौंपा गया, यह कहकर कि एक तो यूपी वाला, ऊपर से ब्राह्मण- इससे जल्दी और इससे अच्छी आग भला कौन लगाएगा? मोहतरमा ने भी गवाही दी कि घर पर रखी कोयले की अंगीठी को यह यूपी वाला पांच-दस मिनट में दहका देता है। <p></p><p>अभी तैयारी हो ही रही थी कि मेरी तलब ने मुझे कुछ परेशान सा किया। मैं घर से बाहर निकल आया और अंधेरे में पैदल ही धुंआ उड़ाते हुए नामघर की ओर बढ़ा। रास्ते में गांव के ही एक साहब नबाज्योति टकरा गए। अपनी ओर के राहुल या विजय की तरह असम में भी आपको दो नाम खूब मिलेंगे- नबाज्योति और ध्रुबाज्योति। पहले असमी में कुछ पूछा, मैं बोला मुझे असमी नहीं आती, हिंदी आती है। फिर उन्होंने पूछा कि किसके घर? मैंने बताया। वह बोले, फिर तो आप हमारे भी मान्य हुए। अब आपको हमारे घर चलना पड़ेगा। मेरी तलब शांत नहीं हुई थी, मैं बड़ी अनिच्छा से उनके साथ चला। नामघर के पहले ही उनका घर था। गेट के अंदर घुसते ही बड़ा सा खाली दलान, जिसमें चूल्हा जलाकर उनकी पत्नी मुर्गी पका रही थीं। दुआ-सलाम हुई, परिचय हुआ। पता चला कि नबाज्योति अच्छे तैराक हैं और इन दिनों गुवाहाटी में कहीं तैराकी कोच हैं। उनकी पत्नी भी एनसीसी में रही हैं और बच्चा बारहवीं गुवाहाटी से कर रहा है। उनकी पत्नी ने तुरंत कढ़ाई से मुर्गी निकालकर मुझे पेश करनी चाही, पर मैंने बहाना बना दिया कि मैं नॉनवेज नहीं हूं। इस पर नबाज्योति घर के अंदर गए और स्पंज का रसगुल्ला दो बिस्कुट के साथ ले आए। </p><p>मैं उनके घर था तो, मगर मेरी सहाफी नाक को चूल्हे पर पकती मुर्गी के अलावा भी कुछ गंध आ रही थी। उधर नबाज्योति कह रहे थे कि सिद्धार्थ को समझाते क्यों नहीं? यहां इतनी खेती-बाड़ी है, पिता का इतना बड़ा नाम है, अमेरिका में क्या रखा है? रसगुल्ले के बाद किसी तरह से बिस्कुट पानी से निगले और यह कहते हुए मैं वहां से उठ खड़ा हुआ कि आपका कहना बिलकुल वाजिब है, मैं आपकी बात आगे तक पहुंचा दूंगा। वह मेरे पीछे-पीछे मुझे छोड़ने घर तक आए। घर के बाहर जैसे ही उन्होंने डॉ सदानंद को देखा, तुरंत छुप गए। यानी मेरी सहाफी वाली नाक सही थी। अपनी नाक पर अपनी सहाफत लेकर मैं आगे बढ़ा। डॉ सदानंद नबाज्योति की परछाईं भी पहचानते थे। इससे पहले कि वो कुछ बोलें, मैंने बोल दिया- आपके गांव में कोई नबाज्योति हैं, वो मुझे अपने घर लेकर गए थे। डॉ सदानंद तुरंत बोले, उसके घर नहीं जाना चाहिए था। वह अच्छा आदमी नहीं है। एकाध बार जेल के चक्करों में भी पड़ चुका है। मैंने कहा, इसका कुछ-कुछ अंदाजा तो मुझे हो चला था, बस मेरे अंदाजे पर आपकी मुहर लगनी बाकी थी।</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPE6yfQ13fuW7kuGi7LMzEiiSRpc9PjFeYI0gC3a7AJYadMmZ6VS_5qhy0V1cYep8pNEqm-znmiiFkabfNstqV1xYt2moSGE84XAIASd6JeU4W1LBxnrd3Md73V0vdLfgSXvRHXboDJ_XYdPaWb5L4Y1eJCe998EW4nlIxGzwpp0E3WH71LgrPRK4fOg/s768/WhatsApp%20Image%202022-12-31%20at%209.55.38%20AM%20(1).jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="489" data-original-width="768" height="204" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPE6yfQ13fuW7kuGi7LMzEiiSRpc9PjFeYI0gC3a7AJYadMmZ6VS_5qhy0V1cYep8pNEqm-znmiiFkabfNstqV1xYt2moSGE84XAIASd6JeU4W1LBxnrd3Md73V0vdLfgSXvRHXboDJ_XYdPaWb5L4Y1eJCe998EW4nlIxGzwpp0E3WH71LgrPRK4fOg/s320/WhatsApp%20Image%202022-12-31%20at%209.55.38%20AM%20(1).jpeg" width="320" /></a></div><br />वहां से मैं सीधे छत पर पहुंचा। डॉक्टर साहब की इकलौती बेटी, जो खुद भी डेंटिस्ट हैं- डॉ दीक्षिता रायबरुआ, उन्होंने तसले में आग लगा दी थी। आग भड़की नहीं थी, सो मैंने पहुंचते ही भड़का दी। साथ ही आग के आसपास बैठे लोगों को यह खबर भी दी कि नबाज्योति के घर से होकर आ रहा हूं। सबका वही कहना था, जो कुछ देर पहले डॉ सदानंद ने कहा था। इतने में देखता हूं कि नबाज्योति का फोन मेरे मोबाइल पर आने लगा था। डॉ दीक्षिता रायबरुआ ने पूछा, फोन नंबर भी दे आए? मैं बोला, अब कोई नंबर मांगता है तो सहाफी होने के नाते मुझे कभी भी हिचकिचाहट नहीं होती, सबको दे देता हूं। वह बोलीं, अब ये आपको परेशान करेगा। मैं बोला, वो मैं देख लूंगा, पहले आप मेरी सबसे बड़ी जिज्ञासा शांत करिए। मैंने यहां देखा कि मारवाड़ियों के घर अपने चैनल डोर की वजह से पहचान लिए जाते हैं। मगर आपके यहां बिहारी भी रहते हैं, बंगाली भी। सिर्फ बाहर से ही पहचानने हों तो उनके घर कैसे पहचाने जाएं? <p></p><p>उन्होंने बताया कि बिहारियों के घर हम ऐसे पहचानते हैं कि उनके छोटे से घर में बड़ी भीड़ रहती है। एक छोटे से घर में दस से पंद्रह लोग पाए जाते हैं। और बंगालियों के घर उनकी औरतों की आवाज से पहचानते हैं। अगर घर के अंदर से किसी औरत के चिल्लाकर बात करने की आवाज आ रही है तो हम समझ जाते हैं कि बंगाली है। मगर यह मेरे सवाल का जवाब नहीं था। मैंने फिर से सवाल को चैनल डोर पर केंद्रित किया। इस बार उनका कहना था कि बिहारी और बंगाली के घर के बाहर ऐसा कोई साइन नहीं मिलेगा, जो उन्हें मारवाड़ियों की तरह अलग करता हुआ दिखाएगा। उनके घर की बनावट भी यहीं के बाकी घरों की तरह होती है। फिर उन्होंने मुझसे सवाल पूछा, पूछा क्या, सवाल दागा- आपके यूपी में तो जात-पात बहुत चलता है? मैंने कहा, खूब, बल्कि जरूरत से ज्यादा। बल्कि खुद मेरे घर में खूब जात-पात और छूत-छिरकन है। उन्होंने बताया कि पढ़ने के लिए जब वह लखनऊ गई थीं तो पहले तो किराए पर कमरा ना मिले। बड़ी मुसीबत से एक कमरा मिला तो यूपी वालों को रायबरुआ न समझ में आए। </p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9P5VgR5qZhzC9VoPfEoiJljU7LD2MSM-x8ZuHIlwm3HOKr70Y6_hkkZ5pK3-vIDVfzzoXhnMcREPFlHnyNR9Ma7SHsP0IE2-3QDQsXSpwAHDMj2oEMuART5R4WJH49axq_tjAkC6mGTNGrQymuDKQhaCtWEtfUmNusNzbyTXpZDbepwYF0Oq1qYgUAg/s344/b2.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="282" data-original-width="344" height="262" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9P5VgR5qZhzC9VoPfEoiJljU7LD2MSM-x8ZuHIlwm3HOKr70Y6_hkkZ5pK3-vIDVfzzoXhnMcREPFlHnyNR9Ma7SHsP0IE2-3QDQsXSpwAHDMj2oEMuART5R4WJH49axq_tjAkC6mGTNGrQymuDKQhaCtWEtfUmNusNzbyTXpZDbepwYF0Oq1qYgUAg/s320/b2.jpg" width="320" /></a></div><br />और फिर एक दिन मकान मालकिन ने पूछ ही लिया- ये रायबरुआ क्या चीज होते हैं? डॉक्टर साहिबा ने बताया- कायस्थ होते हैं। और जब उन्होंने यह किस्सा कॉलेज में अपने सीनियर से बयान किया तो सीनियर का कहना था, उसे बता देती कि तुम ब्राह्मण हो तो जब तक तुम रहती, तुमसे ज्यादा सवाल या किचकिच करने की जगह बड़े ठीक से रहती। मैं खिसियानी हंसी हंसा। यूपी की जो छूत-छिरकन और जात-पात की आदत है, उसकी वजह से इकलौता मैं ही नहीं हूं जो बाहर के प्रदेशों या देशों में बेइज्जत होता हूं, मेरी तरह और भी बहुतेरे हैं। मगर इससे यूपी को क्या, यूपी वालों को क्या? यूपी की छूत-छिरकन की इन कहानियों के साथ नया साल आया, हमने एक दूसरे को मुबारकबाद दी और अपने-अपने बिस्तरों के हवाले हुए। कल सुबह घर पर देवता बैठाए जाएंगे, कुछ लोग व्रत रहेंगे और सैकड़ों लोग जीमेंगे। कल हमारे यहां नलबाड़ी में ब्रह्मभोज है। <p></p><p>....जारी</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-52371081858620817522023-01-11T03:32:00.003-06:002023-01-29T11:55:29.042-06:00असम डायरी : अहोमों से मारवाड़ियों तक AS02<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxxdw3czXXOHhkm1JjVVBkpvsCQAhoWIcTczSgNVIRnTHhCknVUOei6bIiEHR22F5H5DkDBtI5y0jKPWyqIJN3Ct92SeH4cJD3S-1m_35iq-_mi1ajEDyitdBzx3WB7QuyPwm6Ba_KRJgf7Ot9ch0c2U5UxgwsgH4gpkeMaZgkTv_-Ca_YtXbSjFPuxw/s346/b10.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="262" data-original-width="346" height="242" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxxdw3czXXOHhkm1JjVVBkpvsCQAhoWIcTczSgNVIRnTHhCknVUOei6bIiEHR22F5H5DkDBtI5y0jKPWyqIJN3Ct92SeH4cJD3S-1m_35iq-_mi1ajEDyitdBzx3WB7QuyPwm6Ba_KRJgf7Ot9ch0c2U5UxgwsgH4gpkeMaZgkTv_-Ca_YtXbSjFPuxw/s320/b10.jpg" width="320" /></a></div><br />कटे पहाड़ों से उपजी शर्म और जाम से जूझते हुए हम आगे बढ़े। आगे हमें ब्रह्मपुत्र पार करना था। पहले इसे पार करने के लिए लोहे का पुल था, मगर अब नया पुल बन गया है। बनावट में यह काफी-कुछ अयोध्या में सरयू पार करने के लिए बने पुल सा है, यानी कोई खास डिजायनिंग नहीं- बस एक साधारण सा पुल। नाम है सराईघाट पुल। सराईघाट वही जगह है जहां अहोम राजाओं और मुगलों की जंग हुई थी। मेरा साला बोरगोहेन है। अहोम राजाओं के दरबार में बोरगोहेन लोग राजा के सेकंड सबसे सीनियर काउंसलर हुआ करते थे। नंबर एक पर बरगोहांई थे। यहां पर असम पर बेहद प्रसिद्ध ट्रैवेलॉग- यह भी कोई देस है महाराज लिखने वाले अनिल कुमार यादव मुतमईन नहीं हैं। उनका मानना है कि बोरगोहेन और बरगोहांईं लोग एक ही हैं। बरगोहांईं अपने यहां के गुसाईं हैं। इसके लिए उन्होंने साहित्य अकादमी से सम्मानित असम के प्रसिद्ध साहित्यकार होमेन बरगोहांईं का नाम बताया।<p></p><br />वहीं मेरे साले के मुताबिक असम में बोरगोहनों की चार उपजातियां हैं- गोहेन, बोरपात्रागोहन, बोरगोहेन, बरगोहांईं। अंग्रेजी में इनकी स्पेलिंग ये होगी- Gohain, Borpatragohain, Borgohain, Buragohain. असम या फिर नॉर्थ ईस्ट की सातों परियों की बात हो तो यह हमेशा याद रखना चाहिए बोर यानी बड़ा। वैसे एक मायने में यह ठीक वैसे ही है जैसे कि मिश्रा, शर्मा, तिवारी, पाण्डेय, त्रिवेदी, या फिर गुंसाईं। सब ब्राह्मण हैं, मगर सोसाइटी में काम सभी का एक सा नहीं है। इसी तरह सारे गोहाईं अहोम राजाओं के काउसंलर नहीं थे। सराईघाट पार करते हुए साले ने बताया कि सन 1671 में जब मुगलों ने यहां हमला किया तो लचित ने यहां आसपास के गावों से मिट्टी भरवा दी और किनारों को कम से कम सौ डेढ़ सौ फीट ऊंचा कर दिया। गुवाहाटी के आसपास की मिट्टी दरबर है। जैसे ईंट भट्टे से निकली राबिश। ताजी खुद मिट्टी तो रंग में भी सूखी राबिश जैसी दिखती है, यानी रेड और फेडेड रेड का मेल। <br /><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjo9mCCzeMGAvXPy1uyWb4a0aQKyhSdtsaYI_OVUP6VOSPxFBEOU-BIlSkltjSWbvRFSHLm95oZyAgi5kFD2xmxR_54gPl5oRg4WRo95MjmErv3gg6Gou4dDQ9Ce0EZOtAc816xNe79BYjI9PEmyT8M44KEuAt-n6bF1bZLXGfSPXIcRQeeJXcJF0Ksog/s4080/IMG_20221228_165847.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2296" data-original-width="4080" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjo9mCCzeMGAvXPy1uyWb4a0aQKyhSdtsaYI_OVUP6VOSPxFBEOU-BIlSkltjSWbvRFSHLm95oZyAgi5kFD2xmxR_54gPl5oRg4WRo95MjmErv3gg6Gou4dDQ9Ce0EZOtAc816xNe79BYjI9PEmyT8M44KEuAt-n6bF1bZLXGfSPXIcRQeeJXcJF0Ksog/s320/IMG_20221228_165847.jpg" width="320" /></a></div><br />इस पहाड़ पर चढ़ना आसान नहीं होता। इसका अंदाजा मुझे यूं लगा कि पहली बार ब्रह्मपुत्र मैंने ऐसी ही उठान से देखा। कहीं मिट्टी में पैर धंस रहे थे तो कहीं सम थे। मैदानी होने के नाते मुझे इसका बिल्कुल भी अंदाजा नहीं लग पा रहा था कि कहां पैर रखने चाहिए और कहां कमर झुकानी चाहिए। मुगल सेना ने जब इन पर चढ़ने की कोशिश की तो अहोम सेना ने इन्हें ऊपर से ही काट डाला। वे अपनी मिट्टी का धंसान जानते थे, सो उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी। धंसान से याद आया, जिस सड़क पर हम चल रहे थे, वह भी लेवल में नहीं थी। यहां की मिट्टी कहीं से भी धंस सकती है और इसीलिए गुवाहाटी में मेट्रो नहीं चल सकती। मेट्रो के लिए हुई सॉइल टेस्टिंग में गुवाहाटी फेल हो चुका है। बहरहाल, पूरी गुवाहाटी में आपको दीवारों पर इसी युद्ध के सरकारी विज्ञापन कलात्मक ढंग में देखने को मिलेंगे। ब्रह्मपुत्र के किनारों और ब्रह्मपुत्र के बीचोबीच होने वाले युद्ध। पता चला कि दीवारों पर ऐसी जंग खासकर तबसे उकेरी जा रही है, जबसे यहां बीजेपी की सरकार आई है। जंग का बखान इंसानी आदतों की उतनी ही बुरी चीजों में है, जितनी की खुद जंग है। फिर भी हमें लड़ने में ही सबसे ज्यादा रस मिलता है तो हम क्या करें?<br /><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgithBO9fMe0Q48reoDMnp7tYqsfAEM3GLEcCxBVv4Vr5doPPls2EWGoeg1EPu9g3-168CnLjSjeiBuKUhEemYFFIE_OywNfdR6IeKPc2oEGzqvi6_dYkos4c0H6t_AYqk07OPzu_tqMrKfz6aOXMDqbJRwysGjI0UXUSERX0oO0gfSI6asKbxukwbbuA/s4080/IMG_20221231_142830.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2296" data-original-width="4080" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgithBO9fMe0Q48reoDMnp7tYqsfAEM3GLEcCxBVv4Vr5doPPls2EWGoeg1EPu9g3-168CnLjSjeiBuKUhEemYFFIE_OywNfdR6IeKPc2oEGzqvi6_dYkos4c0H6t_AYqk07OPzu_tqMrKfz6aOXMDqbJRwysGjI0UXUSERX0oO0gfSI6asKbxukwbbuA/s320/IMG_20221231_142830.jpg" width="320" /></a></div><br />हम तकरीबन साढ़े ग्यारह पर पांजाबाड़ी गुवाहाटी से निकले थे, मगर ब्रह्मपुत्र पार करते-करते दो बजने को हो रहे थे। अभी तो हम नलबाड़ी के रास्ते में आधे भी नहीं आ पाए थे। अब तलाश शुरू हुई ढाबे की। हम बाजोइ नाम के ढाबे पर रुके। यहां असमिया थाली 80 रुपये की थी और यह पहली असमिया थाली थी, जो मुझे अब तक दूसरी जगहों पर खाए गए खाने में सबसे अच्छी लगी। असमी थाली में आपको पांच तरह की सब्जी, सलाद, चटनी, दो तरह की दाल बैंगन भाजे और पापड़ के साथ मिलती है। दाल एक अरहर की और एक यहां की लोकल उड़द की। यहां की काली उड़द हम लोगों की तरफ होने वाली उड़द से साइज में लगभग आधी होती है। सब्जी आमतौर पर एक आलू भुजिया, एक साग- अक्सर लाही का, कहीं कहीं नींबू की सब्जी, बीन्स, चना वगैरह होती है, जिसे मछली चाहिए, उसका भी इंतजाम इन्हीं पैसों में हो जाता है। <br /><br />अस्सी रुपये में आप जितना खा सकते हों, यहां उतना खिलाया जाता है। यहां क्या, मेन गुवाहाटी में भी जितने होटलों में आप थाली ऑर्डर करेंगे, वे सब आपके पेट भरने तक आपको थाली की हर चीज परोसेंगे, कोई एक्स्ट्रा चार्ज नहीं। इससे पहले मैं 6 माइल गुवाहाटी पर राजबोंग्शी और राभा में भी खाया था, मगर बाजोइ वाली थाली ज्यादा सही लगी। एक खास बात और, यहां के होटलों-ढाबों में अधिकतर वेटर महिलाएं हैं। ढाबों की बात करें तो कई जगहों पर गल्ले से लेकर चूल्हे तक पर भी महिलाएं ही मिलती हैं। सुंदर, स्मार्ट और हर चीज एक प्रेमिल मुस्कान के साथ परोसने वाली। एकाध बार तो मुझे ऐसा भी फील हुआ कि जैसे कोई महिला वेटर बिहू मोड में परोस रही है। <br /><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSu86Wx04hmjzZlAxNFHZzqBv6m9MGWE932bOiBDzhudvi5vVIZ5LDSmmdYQEh1r2wvBjIEnrCy1Xm9Pl2on7zprDdBy3Lmy-36jY_kXrC0hc-YJ53RuEJ1FldfZ5pr03xhCXl96hkZ7RQO5-00YkaFDySdFLV-NuVsmqf35pGiJmknEVulMHg3TvTGg/s512/b8.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="383" data-original-width="512" height="239" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSu86Wx04hmjzZlAxNFHZzqBv6m9MGWE932bOiBDzhudvi5vVIZ5LDSmmdYQEh1r2wvBjIEnrCy1Xm9Pl2on7zprDdBy3Lmy-36jY_kXrC0hc-YJ53RuEJ1FldfZ5pr03xhCXl96hkZ7RQO5-00YkaFDySdFLV-NuVsmqf35pGiJmknEVulMHg3TvTGg/s320/b8.jpg" width="320" /></a></div><br />वैसे इन दिनों समूचा असम बिहू मोड में है, घर-घर में बिहू की तैयारियां जोरों पर हैं। जिस दिन अपनी ओर खिचड़ी का नहान होता है, उस दिन इस ओर बिहू शुरू होता है। बिहू अहोम राजाओं ने शुरू कराया था और मुख्य बिहू सिवसागर के रंगमहल में आज भी मनाया जाता है। रंगमहल असम राज्य के प्रतीकों में है और लकड़ी के गैंडे-बारहसिंगे की तरह यहां इसके भी छोटे-बड़े हर साइज में मॉडल बिकते मिलेंगे। सिवसागर में ही मेरी नानी सास मेरे इंतजार में है, जिसने मेरे ब्याह में असम में सबसे पवित्र माने जाने वाले कांसे और पीतल के बर्तन भेजे थे। वैसे कांसे और पीतल के बिना क्या अपने यूपी में भी शादी पूरी हो सकती है? आई थिंक- नो। कांसे के ये बरतन अब तो बांग्लादेशी भी बनाने लगे हैं, वरना मुगलों से हुई लड़ाई के बाद जो मुसलमान सैनिक यहां घायल होकर जिंदा बचे रहे गए, उन्होंने यह काम संभाला, और उनके बाद उनकी पीढ़ियों ने। <br /><br />खाना खाने के बाद हमारा अगला पड़ाव था परिणिता की दुकान। इन्होंने नलबाड़ी गुवाहाटी के रास्ते में पूरी-सब्जी से अपनी दुकान शुरू की थी, जो चल निकली तो अब इनकी यहां पर तीन-तीन बड़ी दुकानें हो चुकी हैं, जो हमेशा भीड़ से भरी रहती हैं। यहां हमें मिठाई वगैरह खरीदनी थी। असम में रिवाज है कि आप किसी के घर जा रहे हों तो अपने नाश्ते का सामान खुद बंधवाकर ले जाइए, जो वहां चाय के साथ खुद भी खाइए, अपने मेजबान को भी खिलाइए। हमने यहां से दो तीन तरह की बरफी पैक कराई। नलबाड़ी में हमें बालीकोरिया जाना था। पहले यह नलबाड़ी का एक गांव था, मगर अब शहर डिवेलप होते हुए यहां तक पहुंचने को बेताब है तो कह सकते हैं कि यह एक अधगंवई इलाका है। मने गांव भी और शहर भी। मकान गांव जैसे कच्चे-पक्के भी मिलेंगे और शहर जैसे तीन तल्ला भी। <br /><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYQ_Wxw-zA167lYqFjkHmixd8WH98eYWiNo8AxkpOI-LNfNG1f5fJ2MtMXXJwZTOds_riGsROxpBrwwBI1m3P4mJsUEdAIXmpsPSczFIbHmtaJkwruxuy7MPjzLz_TUtsIpBZEg-Q8B8nJEu_eFT2SycpDo2eiuch8UgLR11zTvu39xZ8dI-khKJqkQQ/s354/n2.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="243" data-original-width="354" height="220" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYQ_Wxw-zA167lYqFjkHmixd8WH98eYWiNo8AxkpOI-LNfNG1f5fJ2MtMXXJwZTOds_riGsROxpBrwwBI1m3P4mJsUEdAIXmpsPSczFIbHmtaJkwruxuy7MPjzLz_TUtsIpBZEg-Q8B8nJEu_eFT2SycpDo2eiuch8UgLR11zTvu39xZ8dI-khKJqkQQ/s320/n2.jpg" width="320" /></a></div><br />यहां नोट करने लायक एक खास बात दिखी। नलबाड़ी में मारवाड़ी खूब हैं। जिस तरह से इनके जगह जगह पर मकान दिखते हैं, लगता है कि गुवाहाटी में इतने नहीं होंगे। सबके घरों के बाहर लोहे के स्लाइडिंग चैनल बने हुए हैं, और घर की हर खुली जगह, चाहे वो खिड़की हो, रौशनदान हो या बालकनी हो, लोहे की मजबूत ग्रिल से लैस होगी। मगर अब यही कल्चर धीमे-धीमे गुवाहाटी में नए बनने वाले लगभग सारे असमी घरों में लागू होने लगा है। वे भी मकानों में ग्रिल लगवाने लगे हैं। मैंने पूछा तो पता चला कि उल्फा के जमाने में इन पर वसूली के लिए खूब अटैक हुए। असम में बड़ा पैसा मारवाड़ियों के पास था। असम की आबादी के दस से पंद्रह फीसदी मारवाड़ी असम के कुल व्यापार का अस्सी से पचासी फीसदी कंट्रोल करते हैं। बिजनेसमैन हैं, करंसी नोट बहुतायत में इन्हीं के पास हैं तो जाहिर है कि कभी इनसे वसूली होती तो कभी इन लोगों ने खुद अपनी ताकत जताने के लिए उल्फा और आसु जैसी चीजों में पैसा लगाया। बहरहाल, यहां बस इसी पहचान के सहारे कोई भी मारवाड़ियों के घर पहचान सकता है। लोहे के गेट असमियों के घर के बाहर भी लगे हैं, मगर वो ठीक वैसे ही हैं, जैसे यूपी या उत्तराखंड में दिखते हैं। सरकाने वाला फोल्डिंग टाइप का चैनल गेट सिर्फ मारवाड़ियों के घर के बाहर दिखता है। <br /><br />नलबाड़ी के प्रसिद्ध आई सर्जन डॉ. सदानंद रायबरुआ का परिवार हमारा मेजबान था। मेरी साली इन्हीं के सबसे बड़े लड़के से ब्याही है। लड़का-लड़की दोनों यूएस में रहते हैं, और इन्हीं के आठ महीने के सुपुत्र के अन्नप्राशन समारोह में हम पहुंचे थे। पहले डॉक्टर साहब का मकान एकदम असमिया स्टाइल में था। बस बांस और मिट्टी से बनी कच्ची दीवारों की जगह दीवारें पक्की थीं, मगर डिजाइन वही था जो पूरे असम के मकानों का डिजाइन है- टिन की छत। पीछे लंबी चौड़ी बाड़ी, यानी बागीचा और मछली के लिए तालाब। मगर कुछ साल पहले इसी घर के आगे तीन तल्ले का काफी बड़ा मकान बना लिया है और पुराना पीछे वाला मकान किराए पर चढ़ा दिया है। <br /><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhHizjhsitsxIiSmRdNz9uaZSm6Sw_dwCyFxOAatOaToiPLYTJE53KXjhniTJUFMjnccPIWlN9RkHx9-bEfKa72cUOuoxg7A1q2eHN8567ZIorV9yoTJmdD4rS50oWRSbcjpPeQY04VyQm59NWXt2yv6xiUnGJXWTFAAD0RPmKwzHvYV0FtktOYDcnsqA/s4080/IMG_20230101_125948.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4080" data-original-width="2296" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhHizjhsitsxIiSmRdNz9uaZSm6Sw_dwCyFxOAatOaToiPLYTJE53KXjhniTJUFMjnccPIWlN9RkHx9-bEfKa72cUOuoxg7A1q2eHN8567ZIorV9yoTJmdD4rS50oWRSbcjpPeQY04VyQm59NWXt2yv6xiUnGJXWTFAAD0RPmKwzHvYV0FtktOYDcnsqA/s320/IMG_20230101_125948.jpg" width="180" /></a></div><br />डॉक्टर साहब अपनी स्टूडेंट और उसके कुछ बाद की लाइफ तक किसी न किसी रूप से आरएसएस से जुड़े रहे हैं। अभी भी वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कट्टर वाले समर्थक हैं और आयुष्मान भारत योजना के तहत कैटरैक्ट ऑपरेशन करने में नलबाड़ी में अव्वल जगह बना रहे हैं। वाइफ, यानी कि किसी न किसी रिश्ते में मेरी सास मंजुला दत्ता रायबरुआ हैं जो नलबाड़ी कॉलेज में जूलॉजी की प्रफेसर तो रही ही हैं, वहां की एक्टिंग प्रिंसिपल के पद से अब रिटायर हो चुकी हैं। साइज में लगभग मेरी मम्मी की तरह, रंग और आदतों में भी। जैसे मेरी मम्मी घर में किसी को यूं ही बैठा या राह से गुजरता देखती हैं तो कुछ न कुछ खाने के लिए पूछती रहती हैं, और मैं उनसे परेशान होता रहता हूं, इन्होंने भी मेरा वही हाल किया। <br /><br />मैंने अपनी साली के पति यानी इनके लड़के सिद्धार्थ से पूछा कि क्या नौकरी के दिनों में भी ये ऐसी ही थीं तो वह बोला- हां। सिद्धार्थ प्रोजेक्ट मैनेजर है, अमेरिका में पोस्टेड है। पता चला कि सिद्धार्थ अकेला नहीं है, नलबाड़ी के बहुतेरे लोग अमेरिका में काम कर रहे हैं। इसकी वजह पूछने पर पता चला कि नलबाड़ी असम के दो तीन सबसे स्मार्ट जिलों में से एक है, यहां के बहुत सारे लोग अमेरिका और यूरोप में फैले हुए हैं। असम.ओआरजी के मुताबिक अमेरिका में दो चार हजार असमी लोग काम कर रहे हैं। और ये आज से नहीं, 1960 के भी पहले से वहां पर हैं और वहां पर इनका असोम संघ, असम सोसायटी ऑफ अमेरिका, असम एसोसिएशन ऑफ नॉर्थ अमेरिका, असम साहित्य सभा नॉर्थ अमेरिका भी है। <br />...जारीUnknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-10862245369957599972023-01-10T06:43:00.006-06:002023-01-29T11:55:11.057-06:00असम डायरी : धरती को शर्मिंदा करती गुवाहाटी AS01<p><b></b></p><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-T-IL9Ku5tsq5ZrASZ2hSJTMqFhQM9mozgRfBc0uSY1-ZBHuxo_0wBZ8jYItPEGXIBAqAod7mm2sU258NMqvsxdylJkzKrjJEGs-KKZmOCTT2-mkLVoaPhtdaj3IYcZ-kQInfYN_Ihkc9WHLABQIy7qBpTxVV2Em9kImpztUL_bM3S2coWl7AXiOYgg/s4080/IMG_20221231_133923.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="2296" data-original-width="4080" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-T-IL9Ku5tsq5ZrASZ2hSJTMqFhQM9mozgRfBc0uSY1-ZBHuxo_0wBZ8jYItPEGXIBAqAod7mm2sU258NMqvsxdylJkzKrjJEGs-KKZmOCTT2-mkLVoaPhtdaj3IYcZ-kQInfYN_Ihkc9WHLABQIy7qBpTxVV2Em9kImpztUL_bM3S2coWl7AXiOYgg/w400-h225/IMG_20221231_133923.jpg" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>गुवाहाटी बसिष्ठ आश्रम के पास बीजेपी मुख्यालय</i></td></tr></tbody></table><b>हम सब</b> आज गुवाहाटी से नलबाड़ी जा रहे हैं। हम सब यानी मैं, मेरा साला, मेरी साले की वाइफ जो उसके तांबूल खाने पर उसे नाराज होकर कूट रही है, और इन दोनों का बेहद प्यारा सा बच्चा। यह बच्चा बोरगोहनों और बड़फुकनों की सम्मिलित संतान है, जिसने मेरी नाक में दम कर रखा है। नलबाड़ी मेरी साली की ससुराल है। उनके सुपुत्र महोदय अब 8 महीने के हो चुके हैं और कल सुबह उनका अन्नप्राशन समारोह है। गुवाहाटी से नलबाड़ी तकरीबन 50-60 किलोमीटर है, जैसे फैजाबाद से सुल्तानपुर, हरिद्वार से देहरादून, मेरठ से दिल्ली या बरेली से बदायूं। मगर फैजाबाद से सुल्तानपुर वाले या पिछले कुछ सालों से मेरठ से दिल्ली वाले रास्ते में जाम नहीं मिलता, यहां जाम खूब मिलता है। इसके चलते यह रास्ता ढाई से तीन घंटे और कभी-कभी चार घंटे तक का हो जाता है। यह जाम लगता इसलिए है क्योंकि गुवाहाटी में चार पहिया वाली गाड़ियां जरूरत से ज्यादा हो चुकी हैं, जिनपर शायद अभी यहां की सरकार कोई खास गंभीर नहीं है। यह मेरा नहीं, बल्कि इस शहर के तकरीबन हर कारवाले का कहना है। किसी भी शहर में अगर इतनी ज्यादा गाड़ियां हों तो मेरा मानना है कि ऑड-ईवन वाला प्रयोग सड़कों और लोगों को राहत देने के लिए इतना भी बुरा नहीं। <p></p><p>फिर गुवाहाटी से नलबाड़ी जाने वाला रास्ता चौड़ा किया जा रहा है तो इन दिनों जगह-जगह से खुदा पड़ा है, डायवर्जन अलग से बोनस में मिलता है। सड़क बनाने का यही सीजन होता है, यानी सर्दियों का। इसके बाद तो गर्मियां अपने साथ बाबा ब्रह्मपुत्र का वो पानी लेकर आती हैं, जो असम, यानी ऐसी जगह जो कहीं से भी सम नहीं है, उसे हर जगह भरकर सम कर देता है। ऐसे में सड़क तो दूर, लोगों के घरों में दो जून का भात ही बन जाए तो बड़ी बात है। असम में दो जून की रोटी नहीं, दो जून का भात चलता है। काजीरंगा में जब मैं बड़े शौक से धान की साढ़े तीन सौ किस्में रेकॉर्ड कर रहा था तो उन्हें दिखाने वाले ने कौतूहल से पूछा- आप तो रोटी वाले हैं ना? मैंने कहा, भैया, मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश का हूं और विशुद्ध भात वाला हूं। हमारे यहां जितने लोकगीत धान रोपने पर हैं, गेहूं पर उसके आधे तो दूर, चौथाई भी नहीं हैं। रोटी हमारे यहां बनती है, लोग खाते हैं, मगर ज्यादा शौक से भात ही खाते हैं। और एक बात, यूपी तो दूर, उत्तराखंड वालों का भी जीवनमंत्र भट-भात ही है। बेचारे का मुंह खुला का खुला रह गया था, मैं बोला कि बंद कर लो, मक्खी घुस जाएगी। मेरे इतना कहते ही वह ठठाकर हंस पड़ा, और फिर मुझे उसने इतने शौक से अपने सारे के सारे धान दिखाए कि उसका एक अलग अध्याय न लिखा तो बड़ी बेइमानी होगी। </p><p>बहरहाल, वापस चलते हैं नलबाड़ी की ओर। बल्कि नलबाड़ी पहुंचने से पहले क्यों न रास्ते का पूरा जायजा लेते चलें। गुवाहाटी से जरा सा बाहर निकलते ही आपको बीजेपी का एक फाइव स्टार दफ्तर दिखेगा। पिछले साल अक्टूबर में भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने इसका फीता काटा था। यह समूचे नॉर्थ ईस्ट में बीजेपी का सबसे बड़ा दफ्तर और शायद यहां पार्टी की सबसे बड़ी प्रॉपर्टी भी है। इसके पास है बसिष्ठ मंदिर और एक साउथ इंडियन मंदिर। बसिष्ठ मंदिर अंदर है और साउथ इंडियन मंदिर सड़क किनारे ही है। असमिया में ब या श खूब होता है, मगर अक्सर वहां नहीं होता, जहां हम मानते हैं कि हिंदी में होना इसकी जरूरत है। इसीलिए हमारे यहां के वशिष्ट यहां आकर बसिष्ट हो जाते हैं, या फिर शंकर संकर में बदल जाते हैं, शिव सिव में। सिवसागर यहां का एक जिला है, जहां मेरी ननिहाल वाली ससुराल है। मैंने सुना है कि ननिया सास मुझे बड़े दिल से देखना चाहती हैं और यह मेरा वहां फिर से जाने का बहुत बड़ा बहाना भी है। खैर, गुवाहाटी से बढ़े तो नगांव, जाखलोबंधा, काजीरंगा, जोरहाट और फिर सिवसागर। कोई चाहे तो इसे शिवसागर कह सकता है, असमी लोग बुरा नहीं मानेंगे, मगर उनको कहना होगा तो वे सिवसागर ही कहेंगे। </p><p></p><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhi0OF3hRjbDhUEETlbJS2BTcfp7U7gus8Z4ydgiGc3BpZI-RA9ZENNMOO9iPJjBsurzf_ny_nVeOFD2NdT_VgOXSQyoaNxOh076m74SUYBRaWswxpPix_J477wyPMOdycvRcoS8FcimebcrFO-AEqdQ7HHejLSKOBadsHlpSShlgk6bteI-RQXBljjSQ/s1920/IMG_20221231_140105.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1920" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhi0OF3hRjbDhUEETlbJS2BTcfp7U7gus8Z4ydgiGc3BpZI-RA9ZENNMOO9iPJjBsurzf_ny_nVeOFD2NdT_VgOXSQyoaNxOh076m74SUYBRaWswxpPix_J477wyPMOdycvRcoS8FcimebcrFO-AEqdQ7HHejLSKOBadsHlpSShlgk6bteI-RQXBljjSQ/s320/IMG_20221231_140105.jpg" width="180" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>रैडिसन ब्लू प्रवेश द्वार</i></td></tr></tbody></table>इससे थोड़ा आगे बढ़ने से पहले मैं नगांव की जियोग्राफी बता दूं। नगांव से ही अपर असम शुरू होता है, और अपर असम के लोगों को पहचानने का तरीका यह है कि वे लंबे-चौड़े होंगे। डिब्रूगढ़ अपर असम में है और वहां के नहरकटिया में जन्मीं मेरी बुआ वाली सास कम से कम छह फीट की तो हैं ही, चौड़ाई में तो मैं उनका तिहाई भी निकलूं तो गनीमत है। खुद मेरी मोहतरमा मुझसे शायद एकाध सेंटीमीटर आगे ही निकलती होंगी। अब इससे आगे चलें तो आपको दिखेगा होटल रैडिसन ब्लू। यह वही होटल है, जिसमें अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन चुके शिंदे अपने साथी विद्रोही शिवसैनिकों/विधायकों को लेकर इसलिए रुके थे कि पीछे बचे शिवसैनिकों में इतना दम नहीं कि वो असम पर हमला बोल सकें। जब मुगलों में दम नहीं था तो आज के शिवसैनिकों की क्या बिसात! और वो भी बचे हुए! खैर, यह तो मजाक की बात हुई। मेरे साले ने बताया कि जब ये लोग यहां पर रुके थे और डीलिंग-फीलिंग चल रही थी, तो वह भी यहीं पास वाले एक फ्लैट में रुका था, क्योंकि उसका एक दोस्त बीमार था। कई हलचलें उसने अपनी आंखों से नोट की थीं तब।<p></p><p>कुछ और आगे बढ़े तो लाइम और स्टोन फैक्ट्रियां शुरू हुईं। मैं इन फैक्ट्रियों को बहुत अच्छे से पहचानता हूं। नब्बे के दशक की शुरुआत में देहरादून में जब अपनी मामी वाली लेडीज साइकिल से मैं रायपुर पोस्ट ऑफिस की रोड से निकलकर दुल्हनी नदी पार करते हुए डालनवाला की हफ्तिया हाट जाता था तो ये रास्ते में चूने सा सफेद धुंआ निकालती दिखती थीं। मुझे समझ में आ गया कि यहां जो भी टीले जैसे पहाड़ हैं, उनका हाल उत्तराखंड के लुटेरों की बदलौत लुट चुकी धरती की इस शान से कुछ अलग नहीं मिलने वाला। और वाकई कुछ आगे बढ़ने पर मुझे इन पहाड़ियों का वह हाल दिखा, जिसके बारे में मैं नहीं कहूंगा कि इसमें असम के शासन-प्रशासन का दोष है या लुटेरों का दोष है। या फिर उनको इस करतूत पर शर्म आनी चाहिए। मैं बस इतना कहता हूं कि हे पृथ्वी, हे प्रकृति, मैं समूची इंसानी कौम की इस करतूत के लिए भरे दिल से शर्मिंदा हूं। </p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEie5HZrbUEMtGeSGeazZnoIAZrTzo81jCySuKrxEbkNhWJz2H6TVMg0odIR-4l5n7ox1R96j7TREjbJsQSt8Yuezv9R_w8i6y7auyd-OyoqFBXa0zJsBdDcCANpnaAxhBaAhLSlathVUuvICGK6Z4VlmDEGD1ePfzEUk2qUqMsfPEOf7Ew2ZxRrofVcGQ/s607/a2.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="335" data-original-width="607" height="221" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEie5HZrbUEMtGeSGeazZnoIAZrTzo81jCySuKrxEbkNhWJz2H6TVMg0odIR-4l5n7ox1R96j7TREjbJsQSt8Yuezv9R_w8i6y7auyd-OyoqFBXa0zJsBdDcCANpnaAxhBaAhLSlathVUuvICGK6Z4VlmDEGD1ePfzEUk2qUqMsfPEOf7Ew2ZxRrofVcGQ/w400-h221/a2.jpg" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>गुवाहाटी में काटे जाते पहाड़</i></td></tr></tbody></table><br />जब मैं महोबा होते हुए कानपुर से खजुराहो अपनी बुलेट से जा रहा था, मुझे एक आधा कटा एकदम खून सा लाल पहाड़ दिखा। मैं वहीं उसी वक्त गाड़ी खड़ी करके अपने घुटनों पर बैठ गया था, इस पछतावे से कि इंसानों ने यह क्या कर दिया। एकदम वही फीलिंग मुझे इन रास्तों पर एक दो नहीं बल्कि आधा दर्जन या फिर इससे ज्यादा कट चुके खत्म होने की कगार पर पहुंचे पहाड़ों को देखकर आई। जिस किसी ने भी यह किया है, मैं उसी महोबा वाले भरे दिल से उसे बद्दुआ देता हूं कि ब्रह्मपुत्र का पानी न तो कभी उसके घर से निकले, ना खेतों से। मैं जो कुछ कह रहा हूं, पूरे सबूत के साथ कह रहा हूं और मेरे पास इन सबकी विडियो साक्ष्य के रूप में मौजूद है। और साक्ष्य वगैरह तो दूर की बात, इस सड़क से औसतन हर रोज गुजरने वाली हजारों गाड़ियों में बैठे हजारों हजार लोग यह सीन देखते हैं। मेरा सवाल है कि उनकी हिम्मत कैसे हो जाती है यह सीन देखने की। यार, मौसम तो असम का भी बदल रहा है, बूरापहार में चाय की पत्तियां जरूरत से ज्यादा हरी होने लगी हैं। ऐनीवे, महोबा के सबूतों को दोबारा देखने की हिम्मत मेरी आज तक नहीं हो पाई है, असम में कटे-फटे पहाड़ों के इस विडियो को भी मैं दोबारा देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं। एक बार फिर से साफ कर दूं कि इसकी शर्म सिर्फ और सिर्फ मुझे है, असमियों को हो या ना हो, भारतीयों को हो ना हो, इसका उससे कोई मतलब नहीं है। <p></p><p>....जारी</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-73540710603122002842023-01-10T01:40:00.004-06:002023-01-29T12:02:54.059-06:00असम डायरी : कार्बियों के एक गांव से AS011<p><b><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhovQ9Jf27sga6nhFnHC2hD6HuAuRJciUWZiAyMGmsAHVhSNM4eUaMCVtb6yGsd9jR7xInfCBibwT31M_wUO5nyek_zW6XkKM9N-3l7WLNJnQvD36B0tqF5KXkytD38nPIljs1gvbWR5T1FXJjfi4W9aXQKv59xRWxETQ7Jk862yPNsAtHQcqZcJa_7UQ/s1920/IMG20230106125813_01.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1920" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhovQ9Jf27sga6nhFnHC2hD6HuAuRJciUWZiAyMGmsAHVhSNM4eUaMCVtb6yGsd9jR7xInfCBibwT31M_wUO5nyek_zW6XkKM9N-3l7WLNJnQvD36B0tqF5KXkytD38nPIljs1gvbWR5T1FXJjfi4W9aXQKv59xRWxETQ7Jk862yPNsAtHQcqZcJa_7UQ/s320/IMG20230106125813_01.jpg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>कार्बी जनजाति की महिलाएं</i></td></tr></tbody></table><br />काजीरंगा से</b> लौटते वक्त हमने एक तय किया कि एक चक्कर चिरांग नेचर ट्रेल का भी चक्कर लगाएंगे। हम काजीरंगा के कोहोरा वाले प्रवेश द्वार पर रुके थे, जहां से चिरांग वाला रास्ता तकरीबन 25-30 किलोमीटर था। हालांकि अधिकतर लोग काजीरंगा के बागोरी गेट के आसपास ही रुकते हैं, फिर भी चाहे कोहोरा गेट हो, बागोरी गेट हो या फिर बूरापहार सफारी, काजीरंगा जाने वाले अधिकतर लोग यहां नहीं जाते हैं। इसकी दो-तीन वजहें हैं। पहली यह कि अधिकतर लोगों को इसके बारे में जानकारी नहीं है। इंटरनेट पर भी इसके बारे में कुछेक लोगों ने ही लिखा है, वह भी अंग्रेजी में। दूसरे, इसका जो रास्ता है, उसकी शुरुआत में बहुत छोटा सा बोर्ड लगा है, जो एनएच 74 पर स्पीड को बीस-तीस की लिमिट में रखने की दर्जनों चेतावनियों के बावजूद सरपट गुजरती गाड़ियों से किसी को ठीक से दिख ही नहीं सकता। एक वजह यह भी है कि काजीरंगा घुमाने वाले यहां जितने भी गाइड्स हैं, उनका मरकज जंगल का वही चार पांच किलोमीटर का घेरा ही रहता है, जिसकी खातिर वह लोगों से अच्छे खासे पैसे लेते हैं। </p><p><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2dcMM3j0zS1a3vWAeRqYx5FrmU5xObECELRW9q768ooZz1rVLrEELq0_mr2Ev0YzPLXd4PVGXAcEHn4XvKcLGyYFG4BwuNmyKsvJLRzSOk_ihXrS8p4wGDSBImP9TLz4mANi78nRlSTVLeFO8wvWXF5RPkPnEie7Ev9oI8VySpj6CUMR4zXDZd1pIdA/s4096/IMG20230106135315.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1840" data-original-width="4096" height="144" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2dcMM3j0zS1a3vWAeRqYx5FrmU5xObECELRW9q768ooZz1rVLrEELq0_mr2Ev0YzPLXd4PVGXAcEHn4XvKcLGyYFG4BwuNmyKsvJLRzSOk_ihXrS8p4wGDSBImP9TLz4mANi78nRlSTVLeFO8wvWXF5RPkPnEie7Ev9oI8VySpj6CUMR4zXDZd1pIdA/s320/IMG20230106135315.jpg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>जाखलोबंधा में एक कार्बी घर और बच्चे</i></td></tr></tbody></table><br />चिरांग नेचर ट्रेल असल में कार्बियों के तीन चार गावों का रास्ता है, जिसे किसी शौकीन ने कभी मशहूर किया और फिर काजीरंगा जाने वाले कुछ लोग जाने लगे। काजीरंगा की शुरुआत बूरापहार से होती है, हिंदी में इसका मतलब है बूढ़ा पहाड़। यह कोई पहाड़ नहीं है, बल्कि छोटे-छोटे टीले हैं, जहां टाटा के लिए अब चाय उगाई जाती है। यहां हर ओर आपको चाय बागान दिखेंगे। इन दिनों दिसंबर-जनवरी में चाय कम तोड़ी जाती है और चाय के पेड़ों की छंटाई कर दी जाती है ताकि नई पत्ती उगे। चाय के पेड़ से हमेशा नई पत्ती ही तोड़ते हैं। ऐसी नई पत्ती, जिसका रंग धानी हो। हरी पत्तियां नहीं तोड़ी जातीं हैं। यहां पर सिलिमकोवा, कनिया एंग्जाई, इंजाई, बूरा सिंग चेहोन, लॉन्ग टोक्बी, लॉन्ग थिंग पांग्चो जैसे और भी कई गांव हैं। मगर हर गांव का नाम सिर्फ असमिया में ही लिखा है। वह तो शुक्र है कि मेरे साथ के सब लोग असमिया ही थे, वरना इन गावों के नाम पढ़ पाना मेरे बस से बाहर की बात थी। जैसा कि पहले बताया, यह सारे के सारे प्योर कार्बियों के गांव हैं। कार्बी जनजाति असम की पहली मूल जनजाति है और कभी इस पूरे इलाके में इन्हीं का राज था। मगर इस कभी को गुजरे कम से कम छह सात सौ साल हो चुके हैं। अब तो कार्बी जनजाति यहां के हरवाहे हैं, क्योंकि ज्यादा बड़े कामों पर अधिकतर दूसरी जातियों का कब्जा है। वहीं कार्बी शहरों में छोटे मोटे कामों में ही लग पाए हैं। मेरी ससुराल की एक रिश्तेदारी यहां से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर जाखलोबंधा में है और उनके घर में एक कार्बी परिवार पारंपरिक असमिया घर बनाकर सालों से रह रहा है। उनके घर में रहने की कीमत यही है कि घर और खेतों के सारे काम संभालना। इससे एक बात तो साफ है कि यह जनजाति उसी काम में अव्वल है, जिससे कि दुनिया में नई सभ्यता की शुरुआत हुई, जिसे खेती-किसानी कहते हैं। </p><p><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-kGkr2DezC3ARDaBuNm484HTSozWsk4BdmvaA7wZuf17ZlezZwUB13sljsd2zGPKcEyK9PVEPx8PSLhPSK8Ri7VbZVLRhktZ0xz1J_uGi5TOX-GAS_UOQItVuoaFIl2u06okbwMkjHbt9uc8fJrS2HeOeqa8wnyH8jWBTan9ZywzyydkazltLkA9ZXg/s1920/IMG20230106125736_01.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1920" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-kGkr2DezC3ARDaBuNm484HTSozWsk4BdmvaA7wZuf17ZlezZwUB13sljsd2zGPKcEyK9PVEPx8PSLhPSK8Ri7VbZVLRhktZ0xz1J_uGi5TOX-GAS_UOQItVuoaFIl2u06okbwMkjHbt9uc8fJrS2HeOeqa8wnyH8jWBTan9ZywzyydkazltLkA9ZXg/s320/IMG20230106125736_01.jpg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>कार्बियों के चाय बागान</i></td></tr></tbody></table><br />इन गावों में जो चाय बागान हैं, पहले तो मुझे लगा कि यह भी सारे टाटा के ही हैं। अब जब टाटा ने सारा बूरापहार ही खरीद रखा है तो मेरा यह मानना लाजिमी था, मगर मैं गलत था। यह सारे के सारे बागान इन गावों में रहने वाले कार्बियों के हैं। आमतौर पर इंटरनेट पर मेघालय या मिजोरम की साफ-सफाई और सलीके की तस्वीरें वायरल होती हैं, मगर एक बार जो इन गावों में घूम लेगा, हम सबकी तरह वह भी इसी सुखद आश्चर्य से भर उठेगा कि यहां की साफ-सफाई और यहां के सलीकेदार लोग आज तक लोगों की नजरों से दूर कैसे। गांव की हर एक सड़क सलीके से बुहारी हुई, कहीं भी कूड़े का ढेर नहीं, ढेर तो छोड़िए- जिस तरह से अपने यहां जगह जगह पन्नियां उड़ा करती हैं, यहां कागज का एक कतरा या चाय की एक पत्ती भी सड़क के किनारे देखने को नहीं मिलती। जब हम पहुंचे तो कार्बियों का लंच आवर था। दूध, मछली, पोर्क, चावल और बांस से बनी तरह-तरह की खाने की चीजें इनका आहार है। गांव में स्कूल है, चर्च है और एक शायद नामघर भी दिखा था। नामघर असम के हर कोने में मिलते हैं और काजीरंगा से पहले पड़ने वाला नगांव जिला तो समझ लीजिए कि नामघर की राजधानी ही है। हिंदू संस्कृति की संस्कृत से भरपूर बेहद कठिन पूजा पद्धति को संकरदेव ने यहां आकर आसान किया था और लोगों को कोई मूर्ति पूजने की जगह नाम भजना सिखाया था। शायद इन्हें ही नामधारी समुदाय कहते हैं और इन नामधारियों की संख्या पूरे राज्य में सबसे ज्यादा है। इससे कोई मतलब नहीं कि कोई बोडो है, कार्बी है या फिर अहोम है, संकरदेव की लाई और फैलाई धार्मिक संस्कृति ने पूरे असम के लोगों को एक धागे में पिरो रखा है।</p><p><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZ8K_PeUTNes0pvF1uryIz4mzGUYJjRdJPLOBBUsR49tLIGUh-ypKXs_PCpMCDiUukDB0YDo0amb5tRbHQMlN68aLd-VXwIx3QPXiC1u66mSBWTlvOD-ugBRweocYwTeU8JluDVcLdwOdf-W8CS3oI8KAnyGL0b4aVaPT7CSmqLxdY7D_ZidRo1jShQQ/s1920/IMG20230106130209_01.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1920" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZ8K_PeUTNes0pvF1uryIz4mzGUYJjRdJPLOBBUsR49tLIGUh-ypKXs_PCpMCDiUukDB0YDo0amb5tRbHQMlN68aLd-VXwIx3QPXiC1u66mSBWTlvOD-ugBRweocYwTeU8JluDVcLdwOdf-W8CS3oI8KAnyGL0b4aVaPT7CSmqLxdY7D_ZidRo1jShQQ/s320/IMG20230106130209_01.jpg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>कार्बी लड़कियां</i></td></tr></tbody></table><br />घर बिलकुल असमिया स्टाइल के हैं, यानी चार कोनों में चार बांस लगाया। दीवार के लिए बांस की ही जाली बनाई और उसे मिट्टी से थोप दिया। छत यहां खपरैल या सरपत की नहीं बनती, टिन ही लगाया जाता है। घर के आगे नारियल, तांबूल के पेड़, घर के पीछे भी यही पेड़। जो साधारण पेड़ गांव में हैं, उन पर पान और कालीमिर्च की बेल चढ़ा रखी है। सारे के सारे घरों में दरवाजा एक बरामदे में खुलता है, जहां चार बजे के बाद चाहे जो भी जाति या जनजाति हो, चाय पीती और पड़ोसियों से चुहल करती नजर आती है। मगर अभी तो काम का वक्त था, सो कई औरतें और कुछेक मर्द हमें खेतों में नजर आए। चाय के खेत थे तो पौधों की कटाई-छंटाई में लगे थे, कुछ और खेत थे तो उनमें । इन सारे गावों का चक्कर लगाते हुए जब हम अंत तक पहुंचे तो देखा कि दो लड़कियां हाथ में शायद कॉपी लेकर आ रही थीं। इनमें से एक मिनी स्कर्ट में थी। मैंने अपने साले, जो कि खुद भी असमिया हैं, उनसे पूछा कि यहां के गांवों में क्या लड़कियां स्कर्ट, खासकर शॉर्ट स्कर्ट पहन सकती हैं? उसका कहना था कि यह बेहद खुला समाज है और यहां पहनने-ओढ़ने और प्रेम करने पर कहीं भी रोक नहीं है। मैंने मन में सोचा, काश हमारे यूपी के गांव भी इन कार्बियों से कुछ सीख लेते।</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-52496320762308379052022-10-02T01:06:00.001-05:002022-10-02T01:06:21.159-05:00वैष्णव की नई फिसलन<p>वैष्णव का होटल चल निकला था। शहर भर में धूम थी। बाहर से जो भी आता, स्टेशन पर ही उसे होटल का शानदार विज्ञापन दिखता। विज्ञापन तो और भी थे, लेकिन वैष्णव के होटल जितना बड़ा विज्ञापन और कोई नहीं था। फिर बत्ती भी उसी विज्ञापन पर जलती। वैष्णव ने बिजली विभाग से मिलकर जुगाड़ गांठ रखा था कि किसी और के बोर्ड पर बत्ती जले, तो तुरंत उसे नोटिस पहुंचा दिया जाए। </p><p>वैष्णव ने सारे सवालों को उठने से पहले ही समाप्त कर दिया था। वह खुश था। पहले प्रभु की आरती में कड़वे तेल की बत्ती जलाता था, अब देसी घी की बत्तियां जल रही थीं। सब कुछ सही चल रहा था कि एक दिन होटल का मुख्य रसोइया भाग गया। </p><p>ऐसा नहीं था कि वैष्णव उसे अच्छी तनख्वाह नहीं दे रहा था। मगर रसोइए को प्रेम हो गया था और वैष्णव उसे छुट्टी नहीं दे रहा था। छुट्टी के अलावा वैष्णव ने उसे ढेरों कसमें दीं, मगर जिन्होंने प्रेम किया है, वे जानते हैं कि प्रेम तो प्रेम ही होता है। चींटी की तरह प्रेमियों के भी पर निकल आते हैं। </p><p>यह भीषण आपदा थी, जिसके बारे में प्रभु ने वैष्णव को सपने में भी नहीं बताया था। वैष्णव ने प्रभु को उलाहना दी। माथा प्रभु की चौखट से टेक दिया। प्रभु ने सुन ली। वैष्णव आकर गल्ले पर बैठा तो देखा कि रसाइयों की कतार लगी है। सभी रसोइयों की विधिपूर्वक परीक्षा हुई। सबने एक से बढ़कर एक लजीज व्यंजन बनाकर दिखाए। </p><p>मगर एक रसोइया था, जिसने कुछ भी बनाकर नहीं दिखाया। बल्कि वह परीक्षा देने वाले रसोइयों की लाइन में भी खड़ा नहीं हुआ। वह फूड इंस्पेक्टर का भतीजा था और लाइसेंस कमिश्नर का साला भी। वैष्णव ने उससे पूछा, ‘क्या बनाते हो?’ रसोइया बोला, ‘मैं किसी भी तरह का लाइसेंस बनाता हूं।’ </p><p>वैष्णव संतुष्ट हुआ। फिर उसने पूछा, ‘और अगर किसी ग्राहक को तुम्हारा लाइसेंस पसंद न आया तो?’ रसोइया बोला, ‘सीएमओ मेरे चाचा लगते हैं, ग्राहक का इलाज हो जाएगा।’ और अगर तुमको भर्ती करने पर बाकियों ने शोर मचाया तो? वैष्णव ने पूछा। ‘लेबर कमिश्नर मेरे जीजा हैं।’ </p><p>यह सुनते ही वैष्णव ने बाकी रसोइयों को यह बोलकर वापस किया कि परिणाम रजिस्टर्ड डाक से आपके घर भेज दिए जाएंगे, और उस रसोइए को रख लिया। जब बाकी रसोइयों को इसका पता चला तो उन्होंने हंगामा कर दिया, धरने पर बैठ गए। कहने लगे कि हमारी योग्यता प्रमाणित है, फिर भी हमें नहीं रखा गया। </p><p>वैष्णव डर गया। फिर से प्रभु के पास पहुंचा। प्रभु ने पूछा, ‘तुम वैष्णव हो?’ हां प्रभु। ‘फिर तुम झूठ कैसे बोल सकते हो?’ वैष्णव की बत्ती जल गई। उसने तुरंत बयान जारी किया कि नियुक्ति पूरे पारदर्शी तरीके से हुई है। प्रभु के अलावा हम और किसी की भी सिफारिश नहीं मानते। </p><p>बात प्रभु की थी। सारे असंतुष्ट वापस चले गए। फिर वैष्णव ने होटल के बगल एक जमीन खरीद ली, और सीएमओ की मदद से उस पर तुरंत एक अस्पताल बनवा लिया। अब वैष्णव लाइसेंसी खाने के साथ लाइसेंसी इलाज भी करने लगा।</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-2073707657781686822021-04-06T02:55:00.004-05:002021-04-06T02:55:33.146-05:00योगी आदित्यनाथ ने पत्रकार को दी गाली<p> उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 5 अप्रैल को कैमरे के सामने एक पत्रकार को चूतिया बोल दिया। हालांकि आप सभी वह विडियो देख ही चुके होंगे, जिसमें योगी आदित्यनाथ एएनआई के कैमरामैन को क्या करते हो, चूतियापने का काम करते हो कहते देखे और सुने जा रहे हैं, लेकिन जिनने न देखा हो, एक बार फिर से देख लीजिए, उसके बाद हम बताएंगे इस खबर के पीछे की ऐसी खबर, जिसमें इस चूतिया शब्द के आने ने एक नई ही कहानी लिख रखी है। </p><p>इस विडियो के सामने आते ही सबसे पहले तो बीजेपी आईटी सेल यह कहने पर जुट गई कि यह फेक है। एक चैनल में काम करने वाले कथित गोदी मीडिया एंकर दीपक चौरसिया ने कहा कि सीएम योगी के आपत्तिजनक शब्द बोलने का मामला। एडिटेड निकला सीएम योगी का Video, वीडियो के आखिरी 3 सेकेंड में जोड़े गए आपत्तिजनक शब्द। लेकिन अल्ट न्यूज ने बताया कि विडियो एकदम सच्चा है और सिर्फ एनआई ही नहीं, उस वक्त चैनल पर इसी बातचीत का लाइव चलाने वाले एबीपी गंगा न्यूज और नेटवर्क 18 न्यूज पर भी चला है। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/G60PoHc1Dxg" width="498" youtube-src-id="G60PoHc1Dxg"></iframe></div><br /><p><br /></p><p>अब सबसे पहले तो यह सवाल पैदा होता है कि मुंह पर चूतिया कहने जाने के बाद एएनआई ने इस पर क्या प्रतिक्रिया दी है? इसके जवाब में हमें आपको बताने के लिए दो खबरें हैं। पहली यह कि 5 मार्च तक एएनआई ने अपने कैमरामैन को पड़ी गाली पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। उनके ट्विटर हैंडल पर अभी तक इस बारे में कोई रिएक्शन नहीं आया है। वहीं दूसरी बात यह है कि यूपी सरकार एएनआई को एक करोड़ रुपए सालाना दे रही है अपनी कवरेज के लिए, तो रिएक्शन लगता नहीं कि आएगा। जाने माने पूर्व आईएएस सूर्य प्रताप सिंह ने आदित्यनाथ सरकार की वह चिट्ठी अपने ट्विटर हैंडिल पर पोस्ट की है, जिसमें उसे एक करोड़ रुपए सालाना दिए जाने की बात है और जिसे आप स्क्रीन पर देख सकते हैं। यह चिट्ठी 27 अप्रैल 2018 को जारी की गई है, जिसमें एएनआई को एक करोड़ रुपए देकर यूपी सरकार अपने यूट्यूब चैनल पर अपनी क्लिपिंग चलवाने की बात भी है। पूर्व आईएएस सूर्य प्रताप सिंह कहते हैं कि साल के एक करोड़ लेकर योगी सरकार के लिए प्रचार करने वाली ANI को अपने आत्मसम्मान की बिलकुल चिंता नहीं है। किस स्तर तक गिर सकती है यह सरकार? माफी मांगने की जगह वीडियो को झूठा ठहराने का प्रयास? अगर झूठा है तो असली वीडियो जारी कर मुक़दमा दर्ज कर दीजिए सभी पर। कोर्ट में फ़ैसला होगा। </p><p><br /></p><p>वहीं प्रसिद्ध पत्रकार रोहिणी सिंह इस मसले पर कहती हैं कि तानाशाह की प्रवृत्ति होती है, जितना झुकोगे वो तुम्हें उतना ही डराता जाएगा और जब आंख मिला कर बात करोगे तो डर कर भागेगा या तो अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करेगा। गाली मुख्यमंत्री दें, चलाएं उनके पसंदीदा चैनल और FIR उनपर करेंगे जो सवाल पूछते हैं? ये है आपका रामराज्य? शर्म नहीं आती? यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने चार स्क्रीनशॉट शेयर करते हुए कहा कि पत्रकारों को दिये ‘मान्यवर’ के प्रवचन सुनिए मधुर, पर हेडफ़ोन लगा के सुनिए व ‘बच्चों से रखिए दूर!’ वैसे आपको बता दें कि ऐसी भी खबरें हैं कि इस विडियो को प्रसारित करने वालों पर यूपी सरकार मुकदमा दर्ज करा सकती है। अब जरा सुनिए कि इस पर पूर्व आईएएएस सूर्य प्रताप सिंह के क्या तेवर हैं, पांच मार्च को सूर्य प्रताप जी ने ट्वीट करके कहा है कि आज से योगी जी का गाली देने वाला वीडियो मीडिया को आईना दिखाने के लिए मैं रोज सुबह ट्वीट करूंगा। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/G60PoHc1Dxg" width="479" youtube-src-id="G60PoHc1Dxg"></iframe></div><br /><p><br /></p><p>मैं सरकार के पक्ष के सभी वीडियो एक्स्पर्ट्स, कानूनी जानकार और फ़ारेंसिक टीम को खुली चुनौती देता हूं की मुझे ग़लत साबित करें और गिरफ़्तार कर लें। याद रखिएगा, रोज सुबह करूंगा। गोदी पत्रकार दीपक चौरसिया के बारे में सूर्य प्रताप सिंह कहते हैं कि इस आदमी की नीचता देखिए। सच सामने आने के बाद भी ना ट्वीट हटाया और ना ही स्पष्टिकरण देने की लाज है इनमें। मीडिया का यह नीचतम स्तर भारत के इतिहास में पहली बार देखने को मिला है। जब सम्पादक स्तर के लोग ‘सत्ता’ के आगे ‘छम्मकछल्लो’ समान नृत्य कर रहे हैं। इन चेहरों को याद रखना। इस विडियो के सामने आने के बाद भारत में मीडिया की खबरों पर चलने वाली वेबसाइट भड़ास फॉर मीडिया के संपादक यशवंत सिंह ने कहा कि सीएम योगी आदित्यनाथ से ऐसी उम्मीद न थी. एक योगी नामधारी शख्स से ऐसी भाषा की तो कतई उम्मीद न थी. वह भी तब जब यह योगी इतने बड़े प्रदेश की सीएम की कुर्सी पर बैठा हो. </p><p><br /></p><p>सीएम आदित्यनाथ योगी ने वीडियो न्यूज एजेंसी एएनआई के कैमरामैन को ‘चूतिया’ बोल दिया. उनका यह गुस्सा, यह अभद्र वचन लाइव टेलीकास्ट हो गया. इसके कारण हर ओर सीएम योगी की किरकिरी हो रही है. सीएम योगी के भक्त गण, आईटी सेल और नौकरशाही डैमेज कंट्रोल में जुट गई है. हर तरफ झूठ फैलाया जा रहा है कि सीएम योगी द्वारा गाली दिए जाने वाला वीडियो फर्जी है, एडिटेड है. साथ ही वीडियो शेयर करने वालों को मुकदमा झेलने की धमकी दी जा रही है. पर सच्चाई ये है कि सीएम योगी द्वारा गाली दिए जाने वाला वीडियो बिलकुल सही है. इस वीडियो का लाइव टेलीकास्ट भी दो भक्त चैनलों पर हो चुका है. दरअसल कोविड वैक्सीन लगवाने के बाद जब सीएम योगी से एएनआई का रिपोर्टर बाइट ले रहा था तो योगी के मुखारबिंदु से निकलने वाले शब्दों को तत्काल दो भक्त चैनलों ने लाइव प्रसारित करना शुरू कर दिया. इसी दौरान एएनआई की रिकार्डिंग में कुछ डिस्टर्बेंस होने से सीएम योगी का धैर्य चुक गया और कैमरामैन को चूतिया बोल बैठे. तब तक इस सदवचन का दो दो भक्त चैनलों पर प्रसारण भी हो चुका था. </p><p><br /></p><p>यशवंत सिंह कहते हैं कि सीएम योगी द्वारा देश की जानी मानी वीडियो न्यूज एजेंसी एएनआई के कैमरामैन को गाली दिए जाने के मुद्दे पर पूरा मीडिया जगत खामोश है. निन्नायनबे फीसदी से ज्यादा चैनल तो भक्त चैनल में तब्दील हो चुके हैं. जो कुछ एक भक्त चैनल नहीं हैं वे भी डैमेज कंट्रोल की कवायद में फंस चुके हैं. अगर यही गाली अरविंद केजरीवाल या राहुल गांधी के मुंह से निकली होती तो भारतीय मीडिया अब तक आसमान सिर पर उठा चुका होता और पूरे देश की जनता को बता चुका होता कि ये नेता कितने गंदे हैं. पर ये कांड बीजेपी के एक सीएम द्वारा किया गया है इसलिए उनका हर खून माफ. वहीं पूर्व आईएएस सूर्य प्रताप सिंह इस मसले पर कहते हैं कि अब जब ‘गाली प्रकरण’ पर दूध का दूध और पानी का पानी हो चुका है </p><p><br /></p><p>तब मैं @dgpup और @ChiefSecyUP से अनुरोध करूंगा की मुख्यमंत्री के सभी सलाहकारों पर जनता को मुक़दमे की धमकी देने, अपने पद का दुरुपयोग कर डराने और भय का माहौल पैदा करने के जुर्म में मुक़दमा दर्ज किया जाए। वे कहते हैं कि आज की हरकत ने CM ऑफ़िस को पूरी तरह एक्स्पोज कर दिया। जब यह पत्रकारों को गाली दे सकते हैं, एक लाइव वीडियो को खुले आम एडिटेड बता कर मुक़दमा दर्ज करने की धमकी दे सकते हैं, तब यह किसी भी स्तर पर जा सकते हैं। मुझ पर निजी हमले होंगे, झूठे मुक़दमे लिखे जाएंगे, पर यह लड़ाई जारी रहेगी। सूर्य प्रताप सिंह ने एएनआई के संपादक जी से भी सवाल किया कि क्यूं @ishaan_ANI जी? आज आप कुछ नहीं बोलेंगे, क्या आपमें भी आत्मसम्मान नहीं बचा? क्या आप भी अपनी संस्था के बारे में ऐसा सोचते हैं? आज दो बातें हो सकती हैं: 1. या तो ANI अपने आत्मसम्मान की रक्षा करेगा 2. या तो साबित हो जाएगा की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ठीक ही कह रहे थे। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/G60PoHc1Dxg" width="435" youtube-src-id="G60PoHc1Dxg"></iframe></div><br /><p><br /></p><p>प्रसिद्ध पत्रकार और फिल्ममेकर विनोद कापड़ी कहते हैं कि ANI पर भारी दबाव है कि वो सफ़ाई दे कि आदित्यनाथ का गाली देने वाला वीडियो EDITED है पर ANI भी अब चाहते हुए भी ये नहीं कर सकता क्योंकि गाली LIVE गई थी , जिसे बाद में ANI ने हटा दिया ( screenshotsDown pointing backhand index) नतीजा ये है कि अब कुछ बिकाऊ एंकरों को योगी के रफू पैबंद के काम पर लगा दिया गया है। हालांकि ये रफू पैबंद बहुत चलता नजर नहीं आ रहा है। सच और झूठ अलग अलग करने वाली विश्व प्रसिद्ध वेबसाइट अल्ट न्यूज ने इस क्योंकि इस झूठ के ताबूत में आखिरी कील गाड़ दी है और बता दिया कि योगी आदित्यनाथ ने जो बोला, वह सौ फीसद सच बोला। अब कमेंट में ये बताइए कि योगी आदित्यनाथ जो कह रहे हैं, वह क्या सिर्फ एनएनआई ही है, या फिर और कौन कौन हैं? </p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-67156039273280730342021-03-12T01:54:00.008-06:002021-03-12T01:54:43.083-06:00बधाई हो, भारत में तानाशाही आई है<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/IafLP1DlsBs" width="516" youtube-src-id="IafLP1DlsBs"></iframe></div><br />डेमोक्रेसी पर दुनिया भर के देशों की लगातार रिसर्च करने वाले एक विदेशी इंस्टीट्यूट ने बताया है कि भारत अब चुनावी तानाशाही में बदल चुका है। पिछले साल इस इंस्टीट्यूट ने वॉर्न किया था कि भारत बस अपनी लोकतांत्रिक हालत खोने ही वाला है। स्वीडन के रिसर्च इंस्टीट्यूट वेरायटीज ऑफ डेमोक्रेसी, यानि की वी डेम ने पूरे एनालिटिकल डेटा के साथ अपनी यह रिसर्च रिपोर्ट पब्लिश की है और खास बात ये कि यह रिपोर्ट स्वीडन के विदेश मंत्री रॉबर्ट रिडबर्ग की मौजूदगी में पेश की गई। स्वीडन की गोथेनबर्ग यूनिवर्सिटी से जुड़े इस इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट में कहा गया है कि खासतौर से 2019 के बाद से, जबसे नरेंद्र मोदी दोबारा सत्ता में आए, तबसे मीडिया, अकादमियां और सिविल सोसायटी कुचली जा रही हैं। 2019 के बाद से सेंसरशिप तो बिलकुल रूटीन की चीज बन गई है और पहले सरकारें ही सेंसर करती थी, अब तो भारत में जिसकी जो मर्जी आ रहा है, वो सेंसर कर दे रहा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि मोदी के आने से पहले भारत सरकार सेंसरशिप जैसी चीजों का कभी कभार ही यूज करती थी। मोदी जी लगातार राजद्रोह, मानहानि जैसे कानूनों का तो यूज कर ही रहे हैं, जो भी उनके खिलाफ बोलता है, उस पर काउंटर टेररिज्म का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, जैसा कि हम अनुराग ठाकुर से लेकर कपिल मिश्रा तक को आतंकवादियों जैसा व्यवहार करते देख ही चुके हैं। आपको सिर्फ एक नंबर बताता हूं। ये नंबर और इस नंबर से जुड़ी बस एक लाइन की कहानी सुनकर आपके होश उड़ जाएंगे। मोदी जी जबसे केंद्र की सरकार में आए हैं, उन्होंने सात हजार से ज्यादा लोगों पर देशद्रोह लगा डाला है। और ये देशद्रोह की धारा उसने अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों पर तो लगाया ही है, बीजेपी के खिलाफ आवाज उठाने वालों पर भी लगाया है। स्वीडन की यह रिपोर्ट कहती है कि मोदी जी ने भारत की सिविल सोसायटी को लाचार कर दिया है और भारतीय संविधान में जो सेक्युलिज्म, यानी धर्मनिरपेक्षता शामिल है, उसे छिन्न भिन्न कर दिया है। <p></p><p><br /></p><p>इस रिपोर्ट में कहा गया है कि बीजेपी यानी मोदी जी ने फॉरेन कॉन्ट्रीब्यूशंस रेग्युलेशन एक्ट यानी एफसीआरए का यूज सिविल सोसायटी को कमजोर करने के लिए जमकर किया है। याद रखें, जिस भी लोकतांत्रिक देश में सिविल सोसायटीज कमजोर होती हैं, लोकतंत्र में इसका मतलब तानाशाही माना जाता है। हालांकि बीजेपी और संघ से जुड़े जितने भी संगठन हैं, इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वो धड़ल्ले से विदेशों से पैसा मंगा रहे हैं। इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि मोदी जी ने अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट यानी कि यूपा को सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधियों पर यूज किया है और उन पर सभी लोगों पर किया है, जो उनकी नीतियों का विरोध करते हैं या फिर विरोध करने के लिए सड़क पर उतरे। आपको बता दें कि यह रिपोर्ट साल 2021 की है, जो बुधवार 10 मार्च को जारी हुई है। कोई भी इसे वी डेम डेमोक्रेसी रिपोर्ट के नाम से गूगल पर सर्च करके पढ़ सकता है, यह पूरी तरह से फ्री है। यह रिपोर्ट कहती है कि इन सारे फैक्ट्स की रौशनी में यह घोषित करने में उन्हें कोई हिचक नहीं है कि पिछले दस सालों के बाद भारतीय लोकतंत्र अब एक चुनावी तानाशाही में बदल चुका है। अच्छा, एकबारगी कोई कह सकता है कि स्वीडन की क्या औकात, या नॉर्वे की क्या औकात या फिर कोई बड़ा भक्त हुआ तो ये भी कह सकता है कि अमेरिका की क्या औकात। लेकिन अगर हम वाकई भारत की डेमोक्रेसी को लेकर या सिर्फ डेमोक्रेसी को ही लेकर चिंतित हैं तो इसके बारे में और जानना चाहते हैं तो हमें पिछले कुछ सालों में आई सारी रिपोर्टें देखनी चाहिए। आखिर मोदी जी भी तो अपने मर्जी का सर्वे लेकर आते हैं, उनके भी रिजल्ट देखने चाहिए। तो चलिए, सारी तो नहीं, लेकिन मेन मेन देखने की कोशिश करते हैं। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/IafLP1DlsBs" width="528" youtube-src-id="IafLP1DlsBs"></iframe></div><br /><p><br /></p><p>पिछले हफ्ते, यानी मार्च 2021 की शुरुआत में ही अमेरिकी थिंक टैंक फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा था कि भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार के शासन में भारत में लोकतांत्रिक स्वतंत्रता लगातार गिर रही है और ‘भारत ने एक वैश्विक लोकतांत्रिक अगुवा का रास्ता बदलकर एक संकीर्ण हिंदु हितकारी देश का रुप अख्तियार कर लिया है। और इसकी कीमत समावेशी और समान अधिकारों को तिलांजलि देकर चुकाई जा रही है।‘ यह कहना है लोकतांत्रिक संस्था फ्रीडम हाऊस का, जिसने भारत की रैंकिंग स्वतंत्र देश से घटाकर ‘आशंकि स्वतंत्र’ देश के रूप में की है। आपको बता दें कि फ्रीडम हाऊस अमेरिकी सरकार से मदद पाने वाला एक स्वतंत्र लोकतंत्र रिसर्च इंस्टीट्यूट है। अपनी रिपोर्ट में इस संस्था ने कहा है कि भारत में मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं, पत्रकारों को धमकियां देने और उत्पीड़न की घटनाओं और अत्यधिक अदालती हस्तक्षेप की घटनाओं में बहुत तेजी आई है। रिपोर्ट कहती है कि इन सबमें तेजी 2014 में नरेंद्री मोदी की अगुवाई में बीजेपी की सरकार आने के बाद हुई है। फ्रीडम हाऊस की सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत ने विश्व में लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने वाले देश के तौर पर अपना रुतबा बदलकर चीन जैसे देशों की तरह एक तानाशाही रुख अपना लिया है। मोदी और उनकी पार्टी ने भारत को एक अधिनायकवादी राष्ट्र के रूप में बदल दिया है। एक सर्वे मोदी का भी देख लेते हैं। 10 फरवरी को आजतक ने खबर छापी कि अमेरिका में रह रहे भारतीयों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अभी भी सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं. कार्नेगी सेंटर फॉर एनडाउमेंट ऑफ़ पीस के सर्वे के मुताबिक अमेरिका में रह लोगों का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी पर भरोसा अभी भी कायम है. हालांकि भारत में लोकतंत्र की मौजूदा स्थिति को लेकर भारतीय अमेरिकियों की राय बंटी हुई है. यह सर्वे पिछले साल यानी 2020 में एक सितंबर से बीस सितंबर के बीच ऑनलाइन करवाया गया था. </p><p><br /></p><p>गजब बात तो यह कि जहां स्वीडन के वी डेम में करोड़ों लोगों की हिस्सेदारी थी, दस साल की रिसर्च थी, वहीं इस सर्वे में सिर्फ 1200 लोगों ने हिस्सा लिया और भारत भर के सारे मीडिया हाउसों ने इसे हाथोहाथ लिया। आज अभी जब मैं वीडेम की रिसर्च रिपोर्ट की खबर बना रहा हूं, हिंदी में यह खबर दोपहर तक कहीं नहीं आई है, जबकि इसकी रिपोर्ट बुधवार को ही जारी हो चुकी थी। बहरहाल, इस सर्वे में शामिल लोगों से जब पूछा गया कि क्या भारत सही रास्ते पर है तो 36 फीसदी ने कहा कि हां, सही रास्ते पर है, मगर इस सर्वे में भी 39 प्रतिशत लोगों ने कहा कि नहीं, भारत सही रास्ते पर नहीं है। मगर यह बात भारतीय मीडिया हाउसों ने हाइलाइट नहीं की। ऐसे ही एक सर्वे जनवरी 2021 में आया था, जिसमें कहा गया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक अमेरिकी डाटा फर्म ने अपने सर्वे में दुनिया का सबसे लोकप्रिय और स्वीकार्य राजनेता माना है। अमर उजाला में छपी खबर बताती है कि दुनियाभर के राजनेताओं की लोकप्रियता पर नजर रखने वाली कंपनी मॉर्निंग कंसल्टेंट ने अपने सर्वे में कहा है कि 75 फीसदी लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व पर भरोसा जताया है। वहीं, 20 फीसदी ने उन्हें स्वीकार नहीं किया है। कुल मिलाकर 55 फीसदी लोगों ने माना है कि भारत के प्रधानमंत्री मोदी दुनिया के सबसे स्वीकार्य राजनेता हैं। यह सर्वे अमेरिका, फ्रांस, ब्राजील, जापान समेत दुनिया के 13 लोकतांत्रिक देशों में हुआ था। जब जब भारत की डेमोक्रेसी को लेकर कोई रिसर्च रिपोर्ट या कोई सर्वे आती है या कोई बड़ा आदमी कोई बात कहता है तो मोदी जी फटाक से एक सर्वे करा डालते हैं। आपको बता दें कि दुनिया भर में सर्वे करने वाली हजारों कंपनियां हैं, जिन्हें आप पैसे देकर मनचाहा सर्वे करा सकते हैं और मनचाहा रिजल्ट भी पा सकते हैं। मगर किसी कंपनी से कहीं ज्यादा मायने एक रिसर्च इंस्टीट्यूट रखता है, जो जनता के पैसे से बिना किसी लाभ या फायदे के लिए चलता है। तो फिर से एक बार वापस हम अपनी डेमोक्रेसी की तरफ चलते हैं और देखते हैं कि कबसे इसका महासत्यानाश शुरू हुआ है। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/IafLP1DlsBs" width="519" youtube-src-id="IafLP1DlsBs"></iframe></div><br /><p><br /></p><p>पिछले महीने यानी फरवरी में खबर आई कि भारत लोकतंत्र सूचकांक में दो स्थान नीचे फिसल गया है. '2020 लोकतंत्र सूचकांक' की वैश्विक रैंकिंग में भारत दो स्थान फिसलकर 53वें स्थान पर आ गया है. 'द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट' (ईआईयू) ने कहा कि प्राधिकारियों के 'लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछा हटने' और नागरिकों की स्वतंत्रता पर 'कार्रवाई' के कारण देश 2019 की तुलना में 2020 में दो स्थान फिसल गया. हालांकि भारत इस सूची में अपने अधिकतर पड़ोसी देशों से ऊपर है. ईआईयू ने बताया कि नरेंद्र मोदी ने 'भारतीय नागरिकता की अवधारणा में धार्मिक तत्व को शामिल किया है और इसे कई आलोचक भारत के धर्मनिरपेक्ष आधार को कमजोर करने वाले कदम के तौर देखते हैं. इस रिपोर्ट में भारत को अमेरिका, फ्रांस, बेल्जियम और ब्राजील के साथ 'त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र' के तौर पर वर्गीकृत किया गया है. ईआईयू की रिपोर्ट में कहा गया कि भारत और थाईलैंड की रैंकिंग में 'प्राधिकारियों के लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछे हटने और नागरिकों के अधिकारों पर कार्रवाई के कारण और गिरावट आई.' विडियो की शुरुआत में स्वीडन के जिस वी डेम इंस्टीट्यूट के बारे में बताया, उसने पिछले साल यानी 2020 में बताया था कि नरेंद्र मोदी की सरकार में मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए कम होती जगह के कारण भारत अपना लोकतंत्र का दर्जा खोने की कगार पर है. तब इसने बताया था कि 2001 के बाद पहली बार ऑटोक्रेसी यानी निरंकुशतावादी शासन बहुमत में हैं और इसमें 92 देश शामिल हैं जहां वैश्विक आबादी का 54 फीसदी हिस्सा रहता है. इसमें कहा गया है कि प्रमुख जी-20 राष्ट्र और दुनिया के सभी क्षेत्र अब ‘निरंकुशता की तीसरी लहर’ का हिस्सा हैं, जो भारत, ब्राजील, अमेरिका और तुर्की जैसी बड़ी आबादी के साथ प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित कर रहा है. रिपोर्ट की प्रस्तावना कहा था कि भारत ने लगातार गिरावट का एक रास्ता जारी रखा है, इस हद तक कि उसने लोकतंत्र के रूप में लगभग अपनी स्थिति खो दी है. </p><p><br /></p><p>दो साल पहले मशहूर पत्रकार प्रताप भानु मेहता ने एक कॉन्क्लेव में कहा था कि एक बात तो साफ़ है कि भारतीय लोकतंत्र ना केवल ख़तरे में है. 2019 के चुनाव में दांव पर बहुत कुछ लगा है लेकिन उम्मीद बहुत कम है. ऐसा क्यों है, क्योंकि सबसे बड़ा सवाल यही है कि लोकतंत्र बचेगा या नहीं. पिछले कुछ सालों में जो माहौल बना है उससे बीते 10-15 सालों में जो उम्मीदें जगाई थीं वो सब दांव पर लगा हुआ है. जाहिर है कि इन सारी रिपोर्टों के आने के बाद यह कहना मायूब न होगा कि हम भारतीय अपने देश को और ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की लड़ाई लगातार हारते जा रहे हैं। प्रताप भानु मेहता का कहना अब सही हो रहा है। </p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-83126669233115269952021-03-10T01:34:00.002-06:002021-03-10T01:34:07.811-06:00महिलाओं ने मांगा इस्तीफा, सीजेआई बोले- सवाल नहीं कर सकते<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/x-GnaWl_4g8" width="488" youtube-src-id="x-GnaWl_4g8"></iframe></div><br />पिछले महज हफ्ते भर में समूचे देश भर से पांच हजार से ज्यादा लोगों ने एक ऑनलाइन पेटीशन साइन करके मांग की है कि भारत के चीफ जस्टिस एसए बोबडे तुरंत अपनी कुर्सी छोड़ दें। इतना ही नहीं, तकरीबन चार हजार से अधिक महिलाओं ने चिट्ठी लिखकर मांग की है कि अब उन्हें चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के पद पर बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। उस दिन कोर्ट में जिस तरह से उन्होंने बलात्कार के आरोपी से पूछा कि क्या वो उस महिला से शादी कर लेगा, जिसका कि उसने बलात्कार किया है, उसके बाद से सीजेआई बोबडे लगातार महिलाओं के निशाने पर हैं। मामला बढ़ता देखकर सोमवार को उन्होंने सफाई भी दी कि वो महिलाओ का बहुत सम्मान करते हैं। उन्होंने कहा कि उनको गलत समझा जा रहा है। उनकी सोच एकदम ऐसी नहीं है। उन्होंने कहा कि वे महिलाओं का सर्वोच्च सम्मान करते हैं, उन्होंने रेपिस्ट से शादी का प्रस्ताव कभी नहीं दिया और इस मसले पर मीडिया ने गलत रिपोर्टिंग की। इंग्लैंड का अखबार द गार्डियन इस बारे में लिखता है कि बोबडे साहब से पहले जो सीजेआई थे, गोगोई साहब, वो भी अपने ही एक महिला स्टाफ के साथ मीटू मामले में आरोपी बनाए थे। उनपर भी सेक्सुअल असॉल्ट का आरोप था, मगर उनको जुडिशरी ने छोड़ दिया। अब जरा देखिए कि बोबडे साहब के उस कमेंट पर, जिस पर उन्होंने बलात्कारी से यह पूछा था कि तुमने जिससे रेप किया, उससे शादी करोगे या नहीं, उस पर सोमवार को सुप्रीम कोर्ट की जो बेंच बैठी, उसमें क्या हुआ। आपको कसम है, भाषा की शालीनता बनाए रखिएगा। बहरहाल, चीफ जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस ए एस बोपन्ना और जस्टिस वी रामासुब्रमण्यम की बेंच ने पिछले हफ्ते बलात्कार के एक मामले की सुनवाई पूरी तरह से गलत तरीके से किए जाने पर असंतोष व्यक्त किया, जिसमें उसने कथित तौर पर एक बलात्कार के आरोपी से पूछा था कि क्या वह पीड़िता से शादी करने जा रहा है। <p></p><p><br /></p><p>सुनवाई की शुरुआत में चीफ जस्टिस बोबडे ने साफ किया कि उन्होंने नारीत्व को सर्वोच्च सम्मान दिया है। सीजेआई ने कहा कि उन्होंने पूछा क्या आप शादी करने जा रहे हैं? हमने उसे शादी करने का आदेश नहीं दिया। CJI बोबडे की बेंच ने कहा कि उस मामले में अदालती कार्यवाही की पूरी तरह से गलत रिपोर्टिंग की गई। क्या उससे शादी करोगे पूछने और जाओ और शादी करो का आदेश देने में बहुत अंतर है। आरोपी से तो बस पूछा गया था? मीडिया और एक्टिविस्टों ने इसे दूसरा एंगल दे दिया है। जज साहब जब यह बोले तो मोदी जी, मतलब भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बिना देर लगाए कहा, यस माई लॉर्ड, यू आर राइट। कथित गलत बयानबाजी को सुप्रीम कोर्ट की इमेज खराब करने वाला करार दिये जाने के बाद, चीफ जस्टिस बोबडे ने तुषार मेहता से भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 को पढ़ने के लिए कहा, जिसमें कहा गया है कि धारा 165 सवाल करने या पेश करने का ऑर्डर देने की अदालती ताकत जज प्रॉपर फैक्ट्स का पता लगाने के लिए या उनका उचित सबूत पाने के लिए, किसी भी रूप में, किसी भी समय, किसी भी साक्षी या पक्षकारों से, किसी सुसंगत या विसंगत फैक्ट के बारे में कोई भी सवाल, जो वह चाहे, पूछ सकेगा तथा किसी भी दस्तावेज या चीज को पेश करने का आदेश दे सकेगा। और न तो पक्षकार और न उनके एजेंट इसके हक़दार होंगे कि वे किसी भी ऐसे सवाल या ऑर्डर के प्रति कोई भी आक्षेप करें, न ऐसे किसी भी सवाल के जवाब में दिए गए किसी भी जवाब पर किसी भी साक्षी की अदालत की इजाजत के बिना एंटिसिपेशन के हकदार होंगे। जब वकील बीजू ने कोर्ट की प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए एक सिस्टम के बारे में बात की तो सीजेआई बोबडे ने कहा कि हमारी प्रतिष्ठा हमेशा बार के हाथों में होती है। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/x-GnaWl_4g8" width="485" youtube-src-id="x-GnaWl_4g8"></iframe></div><br /><p><br /></p><p>इसके बाद बेंच ने लड़की के माता-पिता के साथ बात करने की इच्छा जताई और मामले को शुक्रवार 12 मार्च तक के लिए स्थगित कर दिया। तो ये तो अदालत में सोमवार को जो कुछ भी हुआ, वह था। कुल मिलाकर इसका मतलब है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के मुताबिक वे जो चाहें, पूछ सकते हैं, और कोई ये नहीं पूछ सकता कि ऐसा कुछ पूछते वक्त जज साहब के दिमाग में क्या चल रहा था। लेकिन क्या यह मामला सिर्फ यह कह देने से खत्म हो जाने वाला है, जैसा कि कानून में कहा गया है? बोबडे साहब ने जो सवालात पूछे, उससे भारत भर के महिला संगठनों और एक्टिविस्ट और बुद्द्जीवियों में घनघोर नाराजगी है। इसी गुस्से को उन्होंने चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया के नाम लिखे एक ओपन लेटर में व्यक्त किया है। आइए देखते हैं कि इस ख़त का मजमून क्या है ? कौन से सवाल पूछ कर नाराजगी जताई गई है। इस चिट्ठी में लिखा है कि माननीय चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया, हम भारत की महिलाओं से जुड़े आंदोलनों के, प्रगतिवादी सोच से जुड़े आंदोलनों के प्रतिनिधि हैं। मीडिया के ज़रिये पता चला कि आरोपी मोहित सुभाष चव्हाण बनाम महाराष्ट्र सरकार केस में आपने जो टिप्पणी की है वो काफी आपत्तिजनक है। उससे हम आक्रोशित हैं। आपका सवाल था कि क्या आरोपी, पीड़िता से शादी करेगा? ये सुझाव मात्र भी एक पीड़िता को एक ज़िंदगी भर के रेप में धकेलने वाला था। ये बात हमें घृणा से भर देती है कि एक महिला को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के सामने सिडक्शन, रेप और शादी जैसे शब्दों के मायने एक्सप्लेन करने पड़ें। भारत में महिलाएं ऐसे लोगों से घिरी हुई हैं, जिन्हें लगता है कि रेप के लिए आरोपी से ‘कॉम्प्रोमाइज़’ करने से उनकी तकलीफ़ का समाधान हो जायेगा। इस पत्र में आगे लिखा है कि बस बहुत हो चुका आपके शब्द कोर्ट की गरिमा को नीचे गिराने वाले हैं। </p><p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/x-GnaWl_4g8" width="529" youtube-src-id="x-GnaWl_4g8"></iframe></div><br /><p></p><p>चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया जैसे प्रतिष्ठित पद से देश की अन्य अदालतों, पुलिस और अन्य एजेंसियों तक ये संदेश जा रहा है कि भारत में महिलाओं के लिए न्याय उनका संवैधानिक अधिकार ही नहीं है। वहीं रेपिस्ट को ये मैसेज जा रहा है कि शादी, रेप का लाइसेंस है। चीफ जस्टिस से इस सुझाव के लिए माफ़ी की अपेक्षा करते हुए साफ़ लिखा है कि हम कहना चाहेंगे कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को 1 मार्च 2021 को कोर्ट में कहे अपने इन शब्दों को वापस लेना चाहिए, माफी मांगनी चाहिए। बिना एक पल गंवाए पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। चीफ जस्टिस के नाम ये ओपन लेटर लिखने वालों में महिला अधिकारों की बात करने वाले तमाम नाम शामिल हैं। एनी राजा, मरियम धवले, कविता कृष्णन, मीरा संघमित्रा आदि जैसे तमाम नाम हैं। साथ ही तमाम ग्रुप और एक्टिविस्ट भी इस मुहिम में शामिल हैं। एक तरफ जहां बोबडे साहब की महिला विरोधी हरकत के चलते महिलाएं बेहद नाराज हैं, वहीं उनकी इस हरकत पर देश दुनिया के बड़े अखबारों या मीडिया हाउसों में एक बार फिर से भारत की जुडिशरी की छवि वाकई धूमिल हुई है। अदालत और कानून चाहे जो समझे या कहे, मगर जिस तरह के तथ्य पूरी दुनिया के सामने हैं, उससे कोई भी यह आरोप बड़ी आसानी से लगा सकता है कि इंडियन जुडिशरी में महिलाओं की इज्जत तो हो सकता है कि बहुत है, मगर औकात कुछ भी नहीं है। बोबडे साहब के बहाने, जैसा कि हमने पहले बताया कि द गार्डियन अखबार ने पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई के भी तार छेड़ दिए हैं और यह कहने की कोशिश की है कि इंडियन जुडिशरी तो भई, बस ऐसी ही है। क्योंकि महिला संगठनों की जो चिट्ठी हमने आपको सुनाई, वह सोमवार को आए बोबडे साहब के कमेंट से पहले उनको लिखी गई थी, और जैसा कि देखा जा सकता है कि अदालत ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के पीछे कहीं न कहीं छुपने की कोशिश की और महिला संगठनों की नाराजगी को धारा 165 लगाकर खारिज कर दिया। जो शब्द इज्जत और औकात यूज किया गया, उसके बारे में भी तथ्य बड़े साफ हैं। औरत की इज्जत सुप्रीम कोर्ट में बहुत है, जिसके बारे में बोबडे साहब ने बयान दे ही दिया है। रही बात औकात की तो भारतीय जुडिशरी में कितनी महिला जज हैं, सुप्रीम कोर्ट में कितनी महिला जज हैं, हाई कोर्टों में कितनी महिला जज हैं, उनके नंबर्स बड़ी आसानी से गूगल पर देखे जा सकते हैं।</p><div><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-77232589152436378942021-03-10T01:32:00.003-06:002021-03-10T01:32:11.112-06:00मोदी राज में कैग की ऑडिटिंग का बुरा हाल<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/2A2x_igPRSI" width="506" youtube-src-id="2A2x_igPRSI"></iframe></div><br /> क्या आप जानते हैं कि 2018 में कैग ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि 2013-14 से 2015-16 के बीच एफसीआई ने हरियाणा के कैथल में अडानी ग्रुप के गोदाम में इसकी औकात के मुताबिक गेहूं नहीं रखा और खाली जगह का किराया भरती रही? इसके चलते 6।49 करोड़ रुपये फालतू में खर्च हो गए। मोदी सरकार के उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय, जिसके अंडर में एफसीआई आता है, उसने कैग को चिट्ठी लिखकर मांग की है कि इस पैराग्राफ को रिपोर्ट से हटाया जाना चाहिए। इस पैराग्राफ बोले तो जो मोदी जी ने अडानी जी को खाली डब्बों के पैसे दे दिए, उस पैराग्राफ को। मगर कैग ने कहा है कि ये पैराग्राफ हटाया नहीं जा सकता है और उनका आकलन सही है। पूरा खुलासा वेबसाइट ‘द वायर’ ने अपनी रिपोर्ट में किया है। ये जो साढ़े छह करोड़ मोदी जी ने अडानी जी को फ्री फंड में दे दिए, इसके बारे में कैग ने एफसीआई को फटकार लगाते हुए लिखा था कि इस फालतू के खर्च के चलते टैक्सपेयर्स का साढ़े छह करोड़ बेवजह खर्च किया गया है। मंत्रालय अब कैग के पीछे पड़ा है कि इसे हटा दे, मगर कैग हटाने का नाम नहीं ले रहा है। हो सकता है कि इस बात से एकबारगी किसी को फख्र महसूस होने लगे कि कोई तो है, जो सही से हिसाब किताब पर ध्यान दे रहा है। मगर आगे जो हम बताएंगे, वो ऐसे किसी भी फख्र को मिनटों में छूमंतर करने वाला है। एक आरटीआई से भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी कैग की रिपोर्ट्स को लेकर चौंकाने वाला खुलासा हुआ है। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस को आरटीआई के तहत जो जानकारी मिली है, वह चीख चीखकर बता रही है कि साल 2015 से 2020 के बीच कैग की की रिपोर्ट में 75 फीसदी की गिरावट आई है। साल 2015 में कैग ने 55 रिपोर्ट्स पेश की थी, लेकिन 2020 तक इसकी संख्या घटकर महज 14 रह गई है। <p></p><p><br /></p><p>कैग रिपोर्ट में 75 प्रतिशत की गिरावट मामूली बात नहीं है। इसका एक मतलब यह भी है कि मोदी जी जो कर रहे हैं, कैग उसका चौथाई या आधा नहीं, सीधे सीधे पौना काम चेक ही नहीं कर रहा है। ऐसे में बिना कैग रिपोर्ट के यह पता ही नहीं चल सकता कि मोदी जी किस मद में कहाँ क्या खर्च कर रहे हैं और उससे बड़ी बात यह कि कहां बेवजह खर्च कर रहे हैं। दरअसल कैग की रिपोर्ट्स के जरिये ही सरकार की वित्तीय जवाबदेही तय होती है और अगर सरकार द्वारा कोई अनियमितता की जा रही है तो उसका भी खुलासा होता है। अब जैसे इसी सूचना में पता चला कि आज तक मोदी जी ने नोटबंदी की ऑडिटिंग ही नहीं होने दी है। वो नोटबंदी की ऑडिटिंग क्यों नहीं होने देना चाहते, इसका अंदाजा आपको इसी से लग सकता है कि कैग रिपोर्ट कांग्रेस की अगुवाई वाली मनमोहन सिंह की सरकार को इन्ही रिपोर्ट्स की वजह से हार का सामना करना पड़ा था। क्योंकि यूपीए के कार्यकाल के दौरान हुए ये घोटाले चुनाव का मेन मुद्दा बन गए थे। 2 जी आवंटन, कोयला आवंटन, आदर्श हाउसिंग सोसायटी और 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स का घोटाला ये सब नाम तो सबको याद ही होंगे। ये सब के सब कैग रिपोर्ट से ही उजागर हुए थे। यूपीए सरकार के कार्यकल के दौरान हुए इन तमाम घोटालों को भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट्स ने उजागर किया था। इसके चलते तत्कालीन यूपीए सरकार की छवि की धज्जियाँ उड़ गई थी। और इसका फायदा भाजपा ने खूब उठाया था। यहाँ तक की साल 2014 के चुनाव में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा बना और मोदी सरकार सत्ता में आ गई। लेकिन जब से बीजेपी, खासकर हम दो हमारे दो की सरकार सत्ता में आई है, कैग को उसने करीने से ठिकाने लगा दिया है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोकपाल आंदोलन की बेंच पर बेताल की तरह सवार होकर मोदी सरकार आई थी। लेकिन एक बार सत्ता में आने के बाद व्यवस्था में पारदर्शिता की बात भुला ही दी गई। </p><p><br /></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/2A2x_igPRSI" width="467" youtube-src-id="2A2x_igPRSI"></iframe></div><br />और तो और जो इसके पहले यूपीए सरकार के दौरान पारदर्शिता थी वो भी सिरे से गायब है। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘एनडीए सरकार के शुरुआती वर्षों के दौरान संसद में कैग की रिपोर्ट की संख्या 10 वर्षों में सबसे अधिक थी। लेकिन उसके बाद संख्या में लगातार गिरावट आई है।’ एक बार कैग के काम की भी थोड़ी जानकारी ले ली जाये और उसका महत्त्व समझ लिया जाये। भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक भारत के संविधान के तहत एक स्वतंत्र प्राधिकरण है। इस संस्था के जरिए संसद और राज्य विधानसभाओं के लिये सरकार और अन्य सार्वजनिक प्राधिकरणों (सार्वजनिक धन खर्च करने वाले) की जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है और यह जानकारी जनसाधारण को दी जाती है। लेकिन फिलहाल ये जानकारी किसी को नहीं मिल रही है। सबको मालूम ही है कि रफायल विमान सौदा कितना बड़ा मामला रहा है लेकिन हैरत की बात यह है कि सरकार इस मामले में ज्यादा जवाबदेही से बचती रही है और यह बात आरटीआई के जवाब से भी सामने आई है। रिपोर्ट से पता चलता है कि रक्षा ऑडिट रिपोर्ट के संख्या में काफी गिरावट आई है। साल 2017 में इस तरह की आठ ऑडिट रिपोर्ट संसद में पेश की गई थी, लेकिन पिछले साल यह संख्या शून्य रही। रेलवे ऑडिट रिपोर्ट्स के मामले में भी यही हाल है। 2017 में 5 रिपोर्ट आई थी लेकिन पिछले साल 1 ही आई। नोटबंदी जैसा बड़ा कदम मोदी सरकार ने उठाया था। बहुत लोग इसे आजाद भारत का सबसे बड़ा घोटाला तक कह रहे थे। इसके बारे में तो जरूर रिपोर्ट आणि चाहिए थी। इससे सरकार का पक्ष और मकसद साफ़ होता लेकिन हैरत ये कि नोटबंदी जैसे विवादित मामलों की भी कैग ने ऑडिटिंग नहीं की, जो बेहद अजीब बात है। जबकि नोटबंदी सरकार का एक फ़िज़ूल कदम साबित हुआ। तो यह बाते पता लगनी चाहिए 1,000 रुपये के नोट को बैन करने से क्या प्रभाव पड़ा? नोटबंदी की किसी बात का कुछ पता नहीं चला। <p></p><p><br /></p><p>जबकि इस मामले में संस्था की जिम्मेदारी बहुत बड़ी थी। इस सुस्ती का जवाबदेह कौन है कोई खबर नहीं है। कैग के इस लचर प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए पूर्व आईएएस अधिकारी जवाहर सरकार ने कहा कि कैग अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी नहीं निभा रहा है, जो फंड के खर्च की ऑडिटिंग करना है। आरटीआई की इस रिपोर्ट पर लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य ने कहा कि कैग को यह पता लगाना होता है कि क्या पैसा सही तरीके से और नियम-कानूनों के मुताबिक खर्च किया गया है। कैग को सरकार के इन सभी लेनदेन की जांच करनी होती है। इसका मतलब है कि कैग ने ऑडिट के लिए कम मामलों को उठाया या फिर उन्हें खर्च में कुछ भी गलत नहीं लगा।’ मामला केंद्र तक सीमित नहीं है केंद्र के साथ ही बीते कुछ सालों में विधानसभाओं में ऑडिट रिपोर्ट्स पेश करने में भी ख़ासी देर हुई है। विशेषज्ञों का मानना है कि रिपोर्ट पेश होने में हुई देर से उसका प्रभाव कम हो जाता है, साथ ही सरकार में ग़ैर-जवाबदेही के चलन को बढ़ावा भी मिलता है। वित्तीय वर्ष 2017-18 से संबंधित कम से कम नौ राज्यों के लिए कैग की ऑडिट रिपोर्ट अभी भी विधायकों और नागरिकों के लिए उपलब्ध नहीं है, जबकि वित्तीय वर्ष को खत्म हुए 30 महीने से ज्यादा का समय बीत चुका है। ये राज्य आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल हैं। इस तरह की देरी के चलते रिपोर्ट पेश होने के बाद वाले कामों जैसे लोक लेखा समिति यानी पीएसी और सार्वजनिक उपक्रम समिति यानी सीओपीयू की निगरानी प्रक्रियाओं पर गहरा प्रभावित पड़ता है। क्योंकि जब रिपोर्ट ही पेश नहीं होगी तो आगे कोई एक्शन कैसे लिया जायेगा। इस वजह से संबंधित मामले पर विभागों द्वारा एक्शन टेकन रिपोर्ट यानी एटीआर जमा करने में भी देरी होती है। यह ऑडिट रिपोर्ट के असर को प्रभावित करता है। अब यह सवाल उठता है कि ऑडिट रिपोर्ट को पेश करने में हुई देरी के लिए कौन जिम्मेदार है? </p><p><br /></p><p>क्या चुनी हुई सरकारों को दोषी ठहराया जाना चाहिए? या फिर कुछ हद तक या कुछ मामलो में कमियां राष्ट्रीय लेखा परीक्षक संस्थान में भी है? जो भी हो यह जिम्मेदारी तो सरकार की है ही की वह विभिन्न मामलों में जो भी विवाद है उसमे अपनी स्थिति साफ़ करे। और यह सफाई ओडिट रिपोर्ट के जरिये ही पेश की जा सकती है। तमाम वित्तीय अनियमितताओं को लेकर सरकार पहले ही तमाम सवालों के घेरे में खड़ी है सबसे बड़ा मामला नोटबंदी और रक्षा सौदे हैं। इसलिए ऐसा लगता है कि सरकार की खुद ही कोई दिलचस्पी इन रिपोर्ट्स में नहीं बची है। इसलिए कोई न कोई वजह खोजकर जानबूझकर देरी की जा रही है।</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-13057808350168223262021-03-08T22:11:00.006-06:002021-03-08T22:11:39.705-06:00तोहरे कागज के टुकड़न कै, का करिहैं बतलाओ राम<p> जौ तू मनई हौ असली तौ </p><p>बात हमार ई लिहौ तू मान </p><p>राम नाम पै लाखौं लुटावौ </p><p>अइसे ना खुश होइहैं राम</p><p>चार आना या आठ आना</p><p>चाहे जेतना लगावौ दाम </p><p>तोहरे कागज के टुकड़न कै</p><p>का करिहैं बतलाओ राम</p><p>राम प्रेम परतापी राजा </p><p>के उनका दै पाए दान </p><p>उनके नाम जे चंदा मांगै</p><p>ओकर देह कै दिहौ तू जाम।</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-58472314053545099992021-03-08T22:10:00.005-06:002021-03-08T22:10:55.212-06:00 राम रसायन निकला चंदा <p> राम रसायन निकला चंदा </p><p>राम नाम कै होय रहा धंधा </p><p>राम राम कहिके गोहरावैं </p><p>राम जौ निकरैं, चक्कू देखावैं</p><p>राम नाम कै लूट रही तब </p><p>अब तौ राम का नोच उड़ावैं</p><p>राम नाम का कै दिहिन गंदा </p><p>दिखैं गली मा तौ मारौ डंडा।</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-71975555255568358812021-03-04T23:23:00.001-06:002021-03-04T23:23:07.118-06:00दिख ही गई सीजेआई बोबडे की स्त्री विरोधी मानसिकता<p> सोमवार एक मार्च को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एसए बोबडे ने एक रेप पीड़िता के लिए ऐसा फैसला दे दिया, कि लोगों को पूछना पड़ रहा है कि आखिर अदालत में ये सब हो क्या रहा है। हर तरफ सीजेआई बोबडे के इस फैसले की मुखालफत जारी है। महिलाओ ने खास तौर पर इस पर नाराजगी जताते हुए इसे स्त्री विरोधी बताया है। इस फैसले में जो कहा गया है उससे सवाल उठता है कि कोर्ट के फैसले भी बोलीवुड की तरह अब फिल्मी ही होंगे क्या ? या फिर जस्टिस बोबडे ये देश की सुप्रीम कोर्ट के बजाय कहीं किसी खाप पंचायत में तो नहीं जाकर बैठ गए? दरअसल मामला कुछ यूं है कि सुप्रीम कोर्ट में रेप के आरोपी की याचिका पर सुनवाई करते हुए सीजेआई बोबडे ने उससे पूछा कि क्या वह पीड़ित महिला से शादी करेगा? उन्होंने कहा कि अगर वह पीड़िता से शादी करने को तैयार है तो उसे राहत दी जा सकती है। रेप का ये आरोपी सरकारी कर्मचारी है उसने गिरफ्तारी से राहत के लिए </p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/gp5VPy6AifI" width="468" youtube-src-id="gp5VPy6AifI"></iframe></div><p></p><p><br />सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। उसके वकील का कहना था कि गिरफ्तारी होने पर उसे नौकरी से सस्पेंड कर दिया जाएगा। उसकी ये दलीलें सुनने के बाद सीजेआई बोबडे ने कहा, "अगर आप शादी करना चाहते हैं तो हम आपकी मदद कर सकते हैं। अगर नहीं तो आपको अपनी नौकरी गंवानी पड़ेगी और जेल जाना पड़ेगा। आपने लड़की से छेड़खानी की, उसका रेप किया।" क्योंकि मोहित नाम का यह आरोपी व्यक्ति पहले से शादी –शुदा है इसलिए उसके वकील ने बताया कि शादी भी नहीं हो सकती है। सवाल यह है कि क्या इस तरह के फैसले से उस पीडिता को न्याय मिल सकता है जिसके साथ इतना वीभत्स कृत्य किया गया हो। क्या सजा से बचने के लिए आरोपी शादी का प्रस्ताव दे तो उस पर रहम करना चाहिए ? एक सवाल यह भी है कि सीजेआई बोबडे का काम पीड़ित को न्याय देना है या फिर वे वहां बलात्कारियों की शादी कराने के लिए बैठाए गए हैं? और इससे भी बड़ा सवाल महिलाओं की तरफ से यह है कि ऐसी महिला विरोधी मानसिकता के साथ किसी भी शख्स को क्या सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बनने का हक है? क्यों नहीं सीजेआई बोबडे को महिलाओं का सम्मान करते हुए स्वेच्छा से अपनी गलती मानते हुए कुर्सी छोड़ देनी चाहिए? फिल्म अभिनेत्री तापसी पन्नू ने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट पर कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने किसी ने लड़की से यह सवाल पूछा कि क्या वह दुष्कर्म करने वाले शख्स से शादी करना चाहती है या नहीं? क्या यह सवाल है? यही हल है या सजा? एकदम घटिया। वहीं माकपा पोलित ब्यूरो की सदस्य वृंदा करात ने भारत के चीफ जस्टिस एस ए बोबडे को पत्र लिख कर उनसे वह टिप्पणी वापस लेने का आग्रह किया है, जिसमें उन्होंने बलात्कार के मामले की सुनवाई के दौरान आरोपी से पूछा था कि क्या वह पीड़िता के साथ विवाह करने के लिये तैयार है।</p><p>वैसे अदालत में यह कोई पहली बार नहीं है कि उसका महिला विरोधी चेहरा दिखा है। असल में हमारी अदालतें अपनी जड़ से ही महिला विरोधी हैं। पिछले साल यानी दस जुलाई 2020 में एक बहुत ही विचित्र घटना हुई जो बताती है कि हमारा अदालती सिस्टम किस कदर स्त्री विरोधी हो चुका है। ये घटना बिहार के अररिया जिले की है। जहां सामूहिक दुष्कर्म की शिकार युवती को ही जेल भेज दिया गया। उस पर न्यायिक कार्य में कथित तौर पर बाधा डालने का आरोप लगाया गया। हुआ ये कि इस केस में युवती के किसी परिचित ने ही अपने दोस्तों के साथ मिलकर उसका रेप किया था और शिकायत करने पर उसे ही जेल जाना पड़ गया था। जब घटना सामने आई तो हंगामा मच गया। इस घटना पर देश के जाने माने वकीलों और सामाजिक संस्थाओं ने पटना हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश से दखल देने की अपील करते हुए एक पत्र लिखा . 15 जुलाई 2020 को लिखे पत्र में साफ़ कहा गया कि ऐसा मामला पहली दफा सुनने में आया है कि मजिस्ट्रेट के सामने अपना बयान दर्ज कराने आई बलात्कार पीड़ित युवती व उसके दो सहयोगियों को उसकी मनोदशा को संवेदनशीलता के साथ देखे बिना अदालत की अवमानना के आरोप में माननीय मजिस्ट्रेट द्वारा न्यायिक हिरासत में लेने का निर्देश जारी किया गया। तीनों को न्यायिक हिरासत में लेकर वहां से 240 किलोमीटर दूर दलसिंहसराय जेल भेज दिया गया। लगभग 376 वकीलों द्वारा लिखे पत्र का नतीजा था कि इन पर संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट ने इन पत्रों को जनहित याचिका (पीआइएल) में बदल दिया। इस तरह के मामलों की जैसे पूरे देश में ही झड़ी लगी हो। एक मामला 2018 का है जब सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार के एक आरोपी की सजा में बदलाव करने या संशोधन करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी निहित शक्तियों का उपयोग किया था। सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी द्वारा जेल में बिताए गए दिनों को ही पर्याप्त सजा माना था ताकि पीड़िता या शिकायकर्ता को कोई और कष्ट न झेलना पड़े क्योंकि घटना के तुरंत बाद आरोपी से उससे शादी कर लिया था।</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="260" src="https://www.youtube.com/embed/gp5VPy6AifI" width="482" youtube-src-id="gp5VPy6AifI"></iframe></div><br />अब यहां सवाल ये है कि शादी करने या करवाने से अपराध कम हो जाता है क्या ? क्या यह संभव नहीं है कि कई बार शातिर अपराधी सजा से बचने के लिए भी शादी का फैसला कर सकता है। और कोई पीडिता समाज की उपेक्षा से बचने के लिए राजी भी हो सकती है लेकिन इसका परिणाम अंतत उस पीड़ित स्त्री को ही भुगतना पड़ता है जैसा की दिल्ली में हुए 2017 में एक केस में हुआ था। मामला कुछ ऐसा था कि इसमें एक रेप पीडिता और रेप आरोपी की शादी की गई थी। कुछ ही दिनों बाद आरोपी उस लड़की से छुटकारा पाने की सोचने लगा। उसने अपनी ही पत्नी के अश्लील वीडिओ बनाकर उन्हें वायरल करने की धमकी दी। तंग आकर लड़की ने रिपोर्ट की तब जाकर पुलिस को पता चला यह हरकत उसका पति कर रहा था। वो उसे तमाम धमकियां भी देता था जिससे लड़की खुद भाग जाये। शायद इस तरह करायी गई शादी का यही हश्र होता है। एक निहायत बचकाना फैसला बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने कुछ ही अरसा पहले 19 जनवरी को २०२१ दिया था इसमें एक मामले में जस्टिस पुष्पा वी। गनेदीवाला की एकल पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि टॉप को हटाए बिना किसी नाबालिग लड़की का ब्रेस्ट छूना यौन हमले की श्रेणी में नहीं आएगा, लेकिन इसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत किसी महिला का शीलभंग करने का अपराध माना जाएगा। हैरत की बात यह है कि ऐसा फैसला एक महिला जज की पीठ से आया था। जिसमे पाक्सो एक्ट के तहत यौन हमले की व्याख्या कुछ इस तरह की गई। कहा गया कि यौन इरादे और स्किन-टू-स्किन कांटैक्ट के बिना किसी बच्चे के ब्रेस्ट को जबरन छूना यौन अपराधों से बच्चों को बचाने के लिए बने विशेष कानून प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस (पोक्सो) एक्ट के तहत यौन हमला नहीं है।<p></p><p>इस फैसले से महिला संगठनो सहित तमाम लोगो ने नाराजगी जताई। गुजरात की एक महिला देवश्री त्रिवेदी ने इस फैसले से नाराज होकर तमाम जगह कंडोम के पैकेट ही भेज दिए और जज पुष्पा गनेदीवाला को निलंबित करने की मांग की। एक और मामला बेहद भयावह है जिसमे ये सुनकर ही गुस्सा आ जाये कि आखिर कोई न्यायधीश ऐसी सलाह कैसे दे सकता है। मामला दिल्ली की अदालत का है जहां भूरा नाम के आदमी पर रेप का केस था। युवक ने अस्पताल में काम करने वाली एक नर्स के साथ बलात्कार किया था और फिर उसकी एक आंख निकाल ली थी। मुक़दमे में जब दोषी ने पीड़ित महिला के संग शादी का सुझाव दिया था तो न्याधीश ने पीड़ित महिला को सुझाव पर गौर करने को कहा था। न्यायाधीश की सलाह के बावजूद नर्स ने भूरा के साथ शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था जिसके बाद अदालत ने भूरा को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई थी। इतने हिंसक व्यव्हार के बाद किसे कोई स्त्री ऐसे इन्सान से शादी करने का सोच सकती है इसे एक पुरुष न्यायाधीश ही सोच सकता है। जाहिर है आरोपी तो शादी का प्रस्ताव अपने बचाव में दे रहा। शारीरिक और मानसिक चोट देने वाले से शादी का फैसला करना आसन नहीं है। जिसने किया भी कोर्ट की सलाह के बाद मज़बूरी में ही किया होगा। जबलपुर की एक अदालत भी ऐसे ही एक फैसले में आरोपी कमलनाथ पटेल और पीड़ित लड़की की शादी अदालत परिसर में बने मंदिर में ही करा चुकी है।</p><p>इसी तरह का एक और केस पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट का है। इस केस में एक नाबालिग का गैंगरेप चार लोगों ने किया। इनमें से एक आरोपी ने 1 दिसंबर 2019 को ज़मानत के लिए याचिका लगाई कहा कि उसने जेल में विक्टिम के साथ शादी कर ली है। कोर्ट ने उसे ज़मानत दे दी। पर बाकी तीन आरोपियों की याचिका खारिज़ कर दी। कोर्ट ने जमानत इस चेतावनी के साथ दी कि अगर आरोपी ने लड़की को तलाक देने की भी कोशिश करता है तो भी उसकी ज़मानत रद्द हो जाएगी। और अगर आरोपी आने वाले समय में शादी तोड़ेगा तो भी उसके खिलाफ उचित आपराधिक कार्यवाही भी की जाएगी। जहां शादी वाली सलाह से काम नहीं चला वहां भाई बनाने की सलाह भी दी गई। रक्षाबंधन सलाह मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की है। एक महिला का रेप करने पर आरोपी को जमानत दी गई और उसे कहा गया कि शिकायतकर्ता के घर जाए उसकी रक्षा का वचन देकर उससे "राखी बांधने" का अनुरोध करे। सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता अपर्णा भट और आठ अन्य महिला वकीलों ने इस जमानत आदेश में चुनौती दी। इस तरह की सलाह बेहद ही हास्यास्पद है। पीड़िता की तकलीफ़ को बढ़ाने वाली है। कोर्ट ने महज शादी करने ,भाई बनाने की की सलाह दी हो यहीं तक सीमित नहीं है उसने एक मामले में सास की भूमिका भी निभा डाली। 19 जून 2020 का एक फैसला गुआहाटी का है जिसमें हाईकोर्ट ने ‘सिंदूर’ लगाने और ‘चूड़ी’ पहनने से इनकार करने पर एक व्यक्ति को अपनी पत्नी से तलाक लेने की अनुमति दे दी। उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा, ‘चूड़ी पहनने और सिंदूर लगाने से इनकार करना यह दर्शाएगा कि वह अपने पति साथ इस शादी को स्वीकार नहीं करती है। समझ से परे है कि फैसले में ऐसी बातें किसी स्मृति या शास्त्र के हिसाब से कही गईं हैं या फिर संविधान के हिसाब से।</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/gp5VPy6AifI" width="485" youtube-src-id="gp5VPy6AifI"></iframe></div><br />दिल्ली में ही एक केस में रेप के एक आरोपी को हाईकोर्ट से एक टैटू की वजह से ज़मानत मिल गई। आरोपी के वकील ने कहा कि शिकायत करने वाली महिला शादीशुदा है और आरोपी के साथ सहमति से रिलेशन में थी। अपनी इस दलील के पीछे वकील ने सबूत के तौर पर महिला के हाथ पर बने एक टैटू का ज़िक्र किया जिसमें आरोपी व्यक्ति का नाम लिखा है। आरोपी के वकील ने कहा कि महिला भी आरोपी से प्यार करती थी, जिसका सबूत ये टैटू है। इस पर शिकायतकर्ता महिला ने कहा कि ये टैटू उसके हाथ पर जबरन बनवाया गया है। लेकिन कोर्ट ने महिला की इस बात को ना मानते हुए कहा कि “सामने वाले की रज़ामंदी के बगैर टैटू बनाना कोई आसान काम नहीं है। हमारी राय में टैटू बनाना एक कला है और उसे बनाने के लिए एक विशेष प्रकार की मशीन की ज़रूरत होती है। शिकायतकर्ता के हाथ पर जहां ये टैटू बनाया गया है, वहां बनाना आसान नहीं। वो भी तब, जब उसने इस बात का विरोध किया हो। इस तरह के ना जाने कितने फैसले हैं जो बहुत सारे सवाल खड़े करते हैं। इनमे एक अहम् सवाल है कि क्या इस तरह के फैसलों का एक बड़ा कारण न्यायपालिका में पुरुष वर्चस्व है। पूरे भारत में उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में 1,113 न्यायाधीशों की कुल स्वीकृत संख्या में से केवल 80 महिला न्यायाधीश हैं। इन 80 महिला जजों में से, सुप्रीम कोर्ट में केवल दो हैं, और अन्य 78 विभिन्न उच्च न्यायालयों में हैं, जो कुल न्यायाधीशों की संख्या का केवल 7।2 प्रतिशत है। इस सख्या को और बढ़ाने की जरुरत है। माना कि कुछ केसेज गलत हो सकते हैं लेकिन कुछ की वजह से तमाम पीड़ित महिलाओं की हक़तलफी ना हो जाये। कोर्ट कम से कम पीड़िता लिए इतना संवेदनशील हो कि सलाह उसके लिए सजा न बन जाये।<p></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-70066032401706512302021-02-27T06:20:00.003-06:002021-02-27T06:20:35.950-06:00ईवीएम के जरिए लोकतंत्र पर डाका <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/V-7P-xtDY_g" width="320" youtube-src-id="V-7P-xtDY_g"></iframe></div><br />क्या ईवीएम को लेकर भारत का चुनाव आयोग हम सभी से कोई बड़ा झूठ बोल रहा है? क्या ईवीएम को लेकर चुनाव आयोग हम सभी से अभी तक कोई ऐसी बात छुपाता आया है, जिससे कि हमारे लोकतंत्र को कहीं न कहीं कोई बड़ा धक्का लग रहा है? ईवीएम को लेकर देश भर के लोगों के दिमाग में ढेरों सवाल चल रहे हैं, लेकिन अब ईवीएम को लेकर पूर्व आईएएस अधिकारी कन्नन गोपीनाथन ने बड़ा खुलासा किया है। आपको बता दें कि पूर्व आईएएस कन्नन गोपीनाथन ने ईवीएम पर इतना बड़ा खुलासा तकरीबन साल भर से अधिक के इंतजार के बाद किया है। बल्कि उनकी मानें तो जब वे सर्विस में थे, तभी से उनका इलेक्शन कमीशन के साथ इस मसले पर पत्राचार चल रहा है। चुनाव आयोग को उनके सवालों का जवाब देते नहीं बन रहा है। अब इधर उधर की बात बंद और सीधे ईवीएम पर हुए महाखुलासे की ओर चलते हैं। आपको बता दें कि जब मोदी सरकार ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाया था तो इसके विरोध में आईएएस अधिकारी रहे कन्नन गोपीनाथन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। पूर्व आईएएस अधिकारी कन्नन गोपीनाथन ने कहा है कि चुनाव आयोग बार-बार दावा करता है कि वीवीपैट यानी वो मशीन, जिससे कि वोट देने के बाद पर्ची निकलती है और ईवीएम के साथ किसी एक्सटर्नल डिवाइस यानी बाहरी मशीन को नहीं जोड़ा नहीं जाता। लेकिन ईवीएम और वीवीपैट बनाने वाली कंपनी बीइएल यानी भारत इलेक्ट्रिकल लिमिटेड के मैनुअल से यह शीशे की तरह साफ होता है कि वीवीपैट को ऑन करने के लिए किसी बाहरी लैपटॉप या कंप्यूटर की ज़रूरत होती है। कन्नन पूछते हैं कि अगर वीवीपैट स्टैंडअलोन डिवाइस है तो उसकी कमीशनिंग के लिए लैपटॉप या कंप्यूटर की ज़रूरत क्यों पड़ती है? कन्नन गोपीनाथन के इन सवालों से चुनाव आयोग का यह दावा संदेह के दायरे में आ गया है कि ईवीएम एक स्डैंडअलोन मशीन है, जिसे किसी बाहरी मशीन से नहीं जोड़ा जाता। ईवीएम के साथ वीवीपैट जोड़ने के पीछे 2012 में आया सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला है, जिसमें उसने कहा था कि लोगों के विश्वास के लिए ईवीएम के साथ वीवीपैट जोड़ा जाना चाहिए। उसके बाद से देश भर में होने वाले चुनावों में ईवीएम से वीवीपैट जोड़ने की कवायद चल रही है<p></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/mT2CIT5dmyM" width="320" youtube-src-id="mT2CIT5dmyM"></iframe></div><br />आपको बता दें कि ईवीएम के बारे में चुनाव आयोग ने अपनी वेबसाइट पर साफ साफ लिखा है कि ईवीएम एक स्टैंड अलोन डिवाइस है, यानी कि इसे चलाने के लिए किसी दूसरी डिवाइस की जरूरत नहीं पड़ती। इसके अलावा इसे किसी भी नेटवर्क से रिमोट से भी कनेक्ट नहीं किया जा सकता है। चुनाव आयोग यह भी कहता है कि ईवीएम को चलाने के लिए किसी ऑपरेटिंग सिस्टम की भी जरूरत नहीं होती। इसलिए चुनाव आयोग यह दावा करता है कि ईवीएम से किसी भी तरह की छेड़छाड़ मुमकिन नहीं है। लेकिन कन्नन गोपीनाथन ने ईवीएम को लेकर जो सवाल खड़े किए हैं, वे चुनाव आयोग के इन दावों को धुंए की तरह उड़ा रहे हैं। पूर्व आईएएस कन्नन गोपीनाथन का कहना है कि चुनाव आयोग बार-बार दावा करता है कि वीवीपैट और ईवीएम के साथ किसी एक्सटर्नल डिवाइस यानी बाहरी मशीन को जोड़ा नहीं जाता, लेकिन ईवीएम और वीवीपैट बनाने वाली कंपनी बीइएलके यानी भारत इलेक्ट्रिकल लिमिटेड के मैनुअल में बिलकुल साफ साफ लिखा है कि वीवीपैट को शुरू करने के लिए बाहरी लैपटॉप या कंप्यूटर की ज़रूरत होती है। स्क्रीन पर आप जो कटिंग देख रहे हैं, वह खुद चुनाव आयोग के मैन्यूअल की है और जिसमें खुद आयोग डेस्कटॉप या लैपटॉप से कनेक्ट करने की बात करता है। कन्नन गोपीनाथन का कहना है कि इस हिसाब से तो फिर ज्यों ही ईवीएम से जुड़ी वीवीपैट मशीन लैपटॉप या कंप्यूटर से जुड़ती है, वैसे ही चुनाव आयोग का मशीन के स्टैंड अलोन के दावे में कहीं न कहीं एक सेंध जरूर लग जाती है। शनिवार को हुई कन्नन गोपीनाथन से हुई हमारी बातचीत में उन्होंने बार बार कहा कि इसका मतलब यह बिलकुल न समझें कि हम चुनाव पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। इसका मतलब यह है कि हमें दिख रहा है कि कहीं न कहीं एक दरवाजा खुला हुआ है और हम सिर्फ ये कह रहे हैं कि चुनाव आयोग कम से कम एक बार इसे चेक तो कर ले, हम सबको बता तो दे कि दरवाजा खुला है या बंद, या फिर अगर खुला था तो उसे बंद कर दिया गया है। <p></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/c2crWrcSGAw" width="320" youtube-src-id="c2crWrcSGAw"></iframe></div><br />वैसे बात सिर्फ मशीन को शुरू करने की होती, तो भी गनीमत थी। पूर्व आईएएस अधिकारी ने इसके लिए उपयोग में लाए जाने वाले एक एप्लिकेशन सॉफ्टवेयर की भी पोल खोली है, जिसके बारे में चुनाव आयोग का दावा है कि ईवीएम को चलाने के लिए किसी ऑपरेटिंग सिस्टम की जरूरत नहीं होती। गोपीनाथन ने बताया है कि एप्लिकेशन सॉफ्टवेयर के ज़रिए ईवीएम और वीवीपैट पर उम्मीदवारों के नाम और उनके चुनाव चिह्नों को लोड करने के लिए लैपटॉप का इस्तेमाल किया जाता है। और लैपटॉप या डेस्कटॉप बिना किसी ऑपरेटिंग सिस्टम के काम नहीं करता है। यानि ईवीएम से किसी न किसी हालत में एक ऑपरेटिंग सिस्टम कनेक्ट किया जा रहा है, क्योंकि उसके बगैर ईवीएम चलेगी ही नहीं। कन्नन ने ईवीएम-वीवीपैट मशीनों की मैन्युफैक्चरिंग और खरीद को लेकर भी सवाल उठाए हैं। कन्नन का कहना है कि चुनाव आयोग दावा करता है कि ये मशीनें बीइएल/इसीआईएल द्वारा बनाई जाती हैं, लेकिन उनका दावा है कि बीईएल की ई-प्रोक्योरमेंट साइट पर मशीन की पीसीबी समेत कई कंपोनेंट के लिए टेंडर मंगाए गए हैं। कन्नन ने सवाल उठाया है कि अगर उपकरणों का निर्माण बीइएल/इसीआईएल द्वारा किया जाता है, तो पीसीबी के लिए टेंडर क्यों आमंत्रित किए गए? और अगर टेंडर जारी ही किए गए तो वह टेंडर किन कंपनियों को दिए गए, या किसी सरकारी कंपनी को दिए गए या प्राइवेट, इसकी जानकारी नहीं दी गई है। कन्नन जी ने इन सभी सवालों पर चुनाव आयोग से जवाब मांगे हैं। गोपीनाथन ने निर्वाचन आयोग के प्रवक्ता को ट्विटर पर टैग करते हुए लिखा है कि अगर मैं गलत हूं तो मुझे जवाब देने और गलत साबित करने की ज़िम्मेदारी आपकी है, ताकि मैं भ्रामक जानकारी न फैला सकूं और अगर मेरी बात में सच्चाई है, तो इसे संज्ञान में लेकर सुधार करना भी आपकी जिम्मेदारी है। कन्नन का कहना है कि चुनाव आयोग की ओर से उन्हें कोई जवाब नहीं मिला है। <p></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/pWyJumKWGkA" width="320" youtube-src-id="pWyJumKWGkA"></iframe></div><br />जबकि इस मामले में और भी कई लोगों ने आरटीआई लगा रखी है, चुनाव आयोग उनको भी जवाब नहीं दे रहा है। वहीं सुप्रीम कोर्ट में इलेक्शन कमीशन ने जो एफिडेविट दाखिल किया है, उसमें उसे ईवीएम को स्टैंड अलोन डिवाइस बता रखा है। कन्नन पूछते हैं कि अगर वह स्टैंड अलोन डिवाइस है तो वीवीपैट को जिस उम्मीदवार को वोट दिया, उसे छापने का कमांड कहां से मिलता है? इसका मतलब है कि ये कमांड उसमें कहीं न कहीं से फीड किया गया है। गोपीनाथन का दावा है कि पेपर ट्रेल मशीनों ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) को छेड़छाड़ की चपेट में ले लिया। आपको याद दिला दें कि साल 2017 के गोवा विधानसभा चुनावों के बाद से सभी ईवीएम के साथ मतदाता-सत्यापित पेपर ऑडिट ट्रेल मशीनों का इस्तेमाल किया गया है। आम चुनाव के दौरान दादर और नगर हवेली में निर्वाचन अधिकारी रहे गोपीनाथ ने फरवरी 2019 में चुनाव आयोग द्वारा प्रकाशित ‘मैनुअल ऑन इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन और वीवीपीएटी’ के नए संस्करण का हवाला देते हुए कहा है कि वो अभी भी अपने इस पक्ष पर कायम हैं, सिवाय इसके कि वीवीपैट के साथ हुए पहले चुनाव ने उनका भरोसा छीन लिया है। वीवीपैट ने ईवीएम कवच में एक छेद कर दिया है और इस प्रोसेस को हैकिंग के लिए रिस्पॉन्सिबल बना दिया है। कन्नन ने कहा कि अब ये चुनाव आयोग की जिम्मेदारी बनती है कि वह मुझे गलत साबित करे। उन्होंने कहा कि अगर वे जनता के बीच में कुछ भी गलत शक डाल रहे हैं तो भी इलेक्शन कमीशन की जिम्मेदारी बनती है कि मुझे गलत साबित करे। मगर शायद राजनीतिक पार्टियां अभी तक इस पर कोई सवाल नहीं उठा रही हैं तो नागरिक के सवाल उठाने का शायद उनके यानी इलेक्शन कमीशन के लिए कोई मतलब नहीं है। लेकिन कन्नन ने ये जोर देकर कहा कि उनके कहे का यह मतलब बिलकुल भी ना निकाला जाए कि वे ये कह रहे हैं कि 2019 का चुनाव हैक हो गया था। <p></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/Pg9EGPpDv9E" width="320" youtube-src-id="Pg9EGPpDv9E"></iframe></div><br />ऐसा बिलकुल नहीं है। मगर हमने जो लूप होल दिखाया है, कम से कम उनको इसका तो जवाब देना चाहिए। एक दरवाजा खुल रहा है, जब आप ईवीएम को बाहरी डिवाइस यानी लैपटॉप या डेस्कटॉप से कनेक्ट करते हैं तो एक दरवाजा खुलता है। हम बस इतना कह रहे हैं कि एक बार उसे चेक करके हम सबको मुतमईन कर दिया जाए कि भाई दरवाजा बंद है। वहीं राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस नेता और राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह ने ईवीएम की विश्वसनीयता पर एक बार फिर से गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने इस सिलसिले में पूर्व आईएएस अधिकारी कन्नन गोपीनाथन के उठाए प्रश्नों का समर्थन करते हुए चुनाव आयोग से उनका जवाब देने की मांग भी की है। कांग्रेस नेता ने कहा है कि कन्नन गोपीनाथन ने ईवीएम को लेकर जो खुलासे किए हैं, उनसे चुनाव आयोग के दावों पर सवालिया निशान लग गया है। दिग्विजय सिंह ने कहा है कि आयोग दावा करता रहा है कि ईवीएम एक स्डैंडअलोन मशीन है, जिसे किसी बाहरी मशीन से नहीं जोड़ा जाता, लेकिन कन्नन गोपीनाथ ने जो जानकारियां दी हैं, उनसे आयोग का यह दावा संदेह के दायरे में आ गया है। दिग्विजय सिंह ने कहा है कि चुनाव आयोग बार-बार दावा कर चुका है कि ईवीएम में वन टाइम प्रोग्रामेबल चिप होती है, यानी एक ऐसी चिप जिसे एक ही बार प्रोग्राम किया जा सकता है, लेकिन ऐसी बहुत सी रिपोर्ट्स हैं, जिनमें दावा किया गया है कि वीवीपैट में मल्टी प्रोग्रामेबल चिप लगी है। मल्टी प्रोग्रामेबल चिप का मतलब है ऐसी चिप जिसे बार-बार प्रोग्राम किया जा सकता है। दिग्विजय सिंह ने कहा है कि अगर ऐसा है तो इसका यह भी मतलब हो सकता है कि कंट्रोल यूनिट को मैसेज देने का काम वीवीपैट से किया जाता है, बैलेट यूनिट से नहीं। दिग्विजय सिंह ने कहा है कि निर्वाचन आयोग को कन्नन गोपीनाथन के उठाए गंभीर सवालों का जवाब ज़रूर देना चाहिए। कांग्रेस नेता ने कहा कि कन्नन खुद चुनाव संपन्न कराने की प्रक्रिया में शामिल रह चुके हैं। ऐसे में निर्वाचन आयोग को उनकी शंकाओं का जवाब जरूर देना चाहिए, लेकिन क्या आयोग जवाब देगा? ये तो आने वाले दिनों में ही पता चल पाएगा।<p></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-19491562632409832102021-02-16T01:12:00.005-06:002021-02-16T01:12:40.693-06:00रंजन गोगोई : पाप इतने कि सदियां भुगतेंगी <p style="text-align: left;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/pH6VhYTXXR4" width="320" youtube-src-id="pH6VhYTXXR4"></iframe></div><p></p><p style="text-align: left;"><br />अक्टूबर 2018 में जब रंजन गोगोई सीजेआई बने तो उनके सामने राफेल लड़ाकू जहाजों का मामला आया। नरेंद्र मोदी ने फ्रेंच कंपनी डसॉल्ट एविएशन से 36 लड़ाकू जहाज खरीदने के लिए सौदा किया था। रंजन गोगोई के नेतृत्व में तीन जजों की बेंच ने भारत और फ्रांस की सरकारों के बीच हुए समझौते से रिलेटेड चार याचिकाएं सुनीं. विपक्ष का आरोप था कि सरकार ने इन जहाजों की कीमत जानबूझकर इतनी बढ़ाई कि जिससे इस सौदे से जो लोग जुड़े हैं, उनके बेवजह का फायदा मिल सके. इस मामले में गोगोई ने ट्रांसपेरेंसी की हर थ्योरी सुप्रीम कोर्ट के गेट नंबर दो पर लगे कूड़ेदान में फेंक दी और इन जहाजों के दाम से रिलेटेड सारी जानकारी एक सीलबंद लिफाफे में मंगा ली। इसके बाद उन्होंने एयरफोर्स के अफसरों के साथ एक अनौपचारिक मीटिंग की और फिर सारी याचिकाएं खारिज कर दीं. इनकी अंधेरगर्दी तो ये कि इन्होंने राफेल से जुड़े अंतिम फैसले में सीएजी की एक रिपोर्ट का हवाला दिया। कैग की ऐसी रिपोर्ट, जो न तो उस वक्त तक संसद में पेश की गई थी और न ही पब्लिकली अवेलबल थी. एक तरह से वह फर्जी रिपोर्ट थी। गोगोई ने अपने फैसले में कहा कि हमारे सामने जो चुनौती है उसकी छानबीन हमें राष्ट्रीय सुरक्षा के दायरे में करनी होगी क्योंकि इन जहाजों को हासिल करने का मामला देश की संप्रभुता की नजर से बेहद इम्पॉर्टेंट है. पूरी दुनिया राफेल का रेट जानती है, बस गोगोई साहब नरेंद्र मोदी की ही तरह यही चाहते थे कि बस भारत के लोग इसका रेट ना जानें।</p><p>दूसरे नंबर पर है कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का मामला</p><p>5 अगस्त, 2019 को गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में घोषणा की कि कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म किया जाता है. इसके बाद समूचे कश्मीर की जनता को अनिश्चित काल के लिए लॉकडाऊन में डाल दिया, इंटरनेट बंद कर दिया और हर तरफ बड़ी बड़ी बंदूकें लेकर जवान लगा दिए। फिर पूरे राज्य भर में गिरफ्तारियां की गईं, लोगों को नजरबंदी में रखकर उनकी जो यातना शुरू हुई, वो अभी तक जारी है। इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट में दो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर हुईं. दोनों याचिकाओं पर गोगोई की ही बेंच ने सुनवाई की और अगर कहें कि कुछ भी नहीं सुना तो कोई मायूब बात नहीं होगी। एक याचिका तो उन्होंने दायर होने के बाद 18 दिनों तक सुनवाई के लिए लिस्ट ही नहीं की. जब लिस्ट में डाला, तो भी गोगोई ने केंद्र को न तो कोई नोटिस भेजा और न यह जानने की कोशिश की कि लोग गैरकानूनी ढंग से हिरासत में रखे गए हैं या नहीं. उलटे उन्होंने याचिकाकर्ताओं को कहा कि वे बंदियों से कश्मीर में जाकर मिलें. और वापस लौटने पर वे अपनी वहां की यात्रा के बारे में एक हलफनामा यहां जमा करें. </p><p>जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती ने जब सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि वह उन्हें अपनी मां से मिलने की इजाजत दे, जिन्हें अनुच्छेद 370 हटाने के बाद से ही हिरासत में रखा गया है. तो गोगोई बोला कि अगर वहां के स्थानीय सरकारी अधिकारी मानेंगे, तभी वे अपनी मां से मिल सकती हैं। अदालत में ही गोगोई ने इल्तिजा मुफ्ती से पूछा कि तुम श्रीनगर में घूमना क्यों चाहती हो? आजकल तो वहां बहुत ठंड है. इस बात पर तो गोगोई साहब, एक गंदी सी गाली मेरी तरफ से स्वीकार करें, जो मैं नहीं बक रहा हूं और इस अपराध में मैं जेल जाने के लिए तैयार हूं। शर्म तो आपको नहीं आती, मगर हमें आती है कि हमें ऐसा जज मिला, जो बच्चे को मां से ना मिलने दे। इतना अमानवीय? खैर, इसी तरह की गंदगी उन्होंने इंटरनेट पर रोक की याचिका पर भी फैलाई. कश्मीर टाइम्स अखबार की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन ने एक याचिका दाखिल की जिसमें राज्य में खबरों पर लगाई गई पाबंदी को चुनौती दी गई थी. याचिका दायर किए जाने के पांच महीने बाद गोगोई ने फैसला तो दिया, मगर इंटरनेट पर लगी रोक नहीं हटाई। ऐसे ही कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद को इस शर्त पर श्रीनगर जाने दिया कि वो अपनी यात्रा में न तो किसी राजनीतिक रैली में जाएंगे और न कोई पॉलिटिकल एक्टिविटी करेंगे. जम्मू कश्मीर में नाबालिगों को हिरासत में रखने को चुनौती देने से वाली याचिका में भी गोगोई ने खूब टाल-मटोल की. बाद में गोगोई ने जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को कहा कि वह एक रिपोर्ट भेजें कि क्यों उनकी अदालत तक पहुंचना मुश्किल है. इसके बाद उन्होंने अवैध रूप से जेल में बंद अपने बच्चे को तलाशते याचिकाकर्ता को धमकाया कि अगर जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट से यह संकेत मिलता है कि आपने जो कहा वह गलत है तो इसके नतीजे भुगतने के लिए तैयार रहिए. </p><p>तीसरा है बाबरी मस्जिद राम मंदिर मामला</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/pH6VhYTXXR4" width="320" youtube-src-id="pH6VhYTXXR4"></iframe></div><br /><p><br /></p><p>अयोध्या में बाबरी मस्जिद वर्सेस राम मंदिर विवाद में गोगोई साहब ने तो शायद कायदे कानून की हर किताब फाड़कर सुप्रीम कोर्ट के पास ही मौजूद हैदराबाद हाउस में ले जाकर जला दी। इस महाविचित्र फैसले में गोगोई साहब ने बताया कि राम की मूर्तियों को अवैध ढंग से विवादित स्थल में रखा गया और बाबरी मस्जिद का ध्वस्त किया जाना भी अवैध था. मुस्लिमों के खिलाफ किए गए इन अवैध कृत्यों को मानने के बावजूद कोर्ट ने यह आदेश दिया कि भले वहां मस्जिद रही हो, मगर अब राम मंदिर बनेगा। और हरजाने के तौर पर सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को अयोध्या में किसी अन्य स्थान पर पांच एकड़ जमीन दी जाए. इस पर टूजी मामले में फैसला देने वाले सुप्रीम कोर्ट के रिटार्यड जस्टिस अशोक कुमार गांगुली ने कहा कि अल्पसंख्यकों की पीढ़ियों ने वहां मस्जिद देखी. उसे तोड़ा गया. उन्होंने पूछा कि कैसे इस फैसले में कहा गया कि अगर किसी जगह नमाज पढ़ी जाती है तो किसी उपासक का इस विश्वास को खारिज नहीं किया जा सकता कि वह जगह मस्जिद है. चलो 1856-57 में वहां नमाज नहीं पढ़ी जा रही थी, पर 1949 में तो पक्का पढ़ी जा रही थी. इसका सबूत भी है. तो जब हमारा संविधान लागू हुआ, उस वक्त वहां नमाज पढ़ी जा रही थी. अगर किसी जगह नमाज पढ़ी जाती है और उस जगह को मस्जिद माना जाता है। ऐसे में यह फैसला संविधान को तोड़ देता है। इंडिया टुडे की ना सही, किसी कॉन्क्लेव में गोगोई साहब क्या कभी बताएंगे कि संविधान को तोड़ने का अधिकार वो कहां से लेकर आए?</p><p>और अगला, यानी कि चौथा है पोस्टिंग प्रमोशन का मामला</p><p>जब गोगोई चीफ जस्टिस थे, तब उनकी निगरानी में ढेरों कंट्रोवर्सियल पोस्टिंग्स हुईं. पहले सौमित्र सैकिया को गौहाटी हाईकोर्ट में एडिशनल जज बनाया, जो किसी जमाने में गोगोई के जूनियर थे. इसी तरह जज सूर्यकांत की नियुक्ति की गई, जिनके बारे में हमने पहले भी बताया था कि अब सुप्रीम कोर्ट में प्रॉपर्टी डीलर जज आ रहे हैं। जस्टिस सूर्यकांत पर भ्रष्टाचार और टैक्स चोरी के भी आरोप थे. ऐसे ही संजीव खन्ना की नियुक्ति की गई और यह नियुक्ति करते वक्त कोलेजियम की उस रिकमेंडेशन की अनदेखी की गई जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट में खन्ना के सीनियर प्रदीप नंदराजोग को प्रमोट करने बात कही गई थी. इसी तरह दिनेश माहेश्वरी को सुप्रीम कोर्ट में एंट्री मिली, जबकि उन पर आरोप थे कि वे कार्यपालिका के प्रभाव में काम करते हैं. गोगोई पर अपने बचपन के दोस्त और कलीग अमिताभ राय की पोस्टिंग में देर लगाने का भी आरोप है. जिससे दोनों की पदोन्नतियां एक साथ न हो सकें. 2000 में दोनों के नामों की सिफारिश साथ-साथ हुई. 2001 में गोगोई जज बन गए और अमिताभ राय इसके 17 महीनों बाद जज बने. अगर फाइलें साथ-साथ चली होतीं, तो कुल मिला कर अमिताभ राय गोगोई से सीनियर हो जाते और तब शायद अमिताभ राय भारत के चीफ जस्टिस के पद से और गोगोई गौहाटी हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के पद से रिटायर होते. कहते हैं कि तत्कालीन कानून मंत्री अरुण जेटली और गोगोई बड़े अच्छे दोस्त थे और जेटली ने ही गोगोई को कहा था कि अमिताभ राय कभी भी गोगोई से सीनियर नहीं होंगे. अपने बचपन के मित्र के साथ ऐसा सुलूक करने वाला किस तरह का व्यक्ति हो सकता है, आप सभी ज्यादा अच्छे से समझ सकते हैं। </p><p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/pH6VhYTXXR4" width="320" youtube-src-id="pH6VhYTXXR4"></iframe></div><br /><p></p><p>और आखिरी यानी पांचवा है सीएए / एनआरसी का मामला</p><p> अगर पूछें कि गोगोई ने मोदी शाह की जोड़ी को ऐसा कौन सा तोहफा दिया, जो राम मंदिर मुद्दे से कहीं ज्यादा बड़ा है तो उसका सिर्फ और सिर्फ एक ही जवाब है, नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी। राम मंदिर के बाद बीजेपी इसी में अपना राजनीतिक भविष्य देख रही है। अक्टूबर 2013 से अक्टूबर 2019 तक गोगोई ने एनआरसी के कई मामलों की सुनवाई की. उनके जरिए उन्होंने एक खाका तैयार किया जिससे राज्य में विदेशियों की पहचान कर उन्हें वापस भेजा जा सके. इसके लिए उन्होंने जो तरीका सुझाया वह इतना भयानक था कि जिसमें गड़बड़ी होनी तय थी और इसकी वजह से लाखों भारतीयों की नागरिकता जाने का खतरा था. सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने राज्य के डिटेंशन सेंटर्स की अमानवीय हालत के खिलाफ एक याचिका लगाई, पर गोगोई के चलते नतीजा सिफर रहा। फिर हर्ष मंदर ने कहा कि गोगोई को इस मामले की सुनवाई से अलग किया जाए। इसकी वजह उन्होंने बताई कि सुनवाई के दौरान गोगोई का व्यवहार पूरी तरह से पूर्वाग्रह ग्रस्त है. हर्ष मंदर की यह याचिका भी खारिज कर दी गई. मोदी सरकार ने कुछ आदेश पारित किए, जिसमें भारत में प्रवेश के लिए जो नियम तैयार किए गए उसमें धार्मिक भेदभाव को भी जोड़ दिया गया. नागरिकता संशोधन कानून पारित किया, जिसमें इस बात का प्रावधान है कि गैर मुस्लिम समुदायों के अधिकांश लोगों के लिए अब नागरिकता लेना आसान हो जाएगा. गोगोई के ही चलते सीएए और देशव्यापी एनआरसी का खतरा भारत के लगभग बीस करोड़ मुसलमानों सहित 50 करोड़ से अधिक एससी, एसटी ओबीसी और आदिवासियों की नागरिकता पर मंडराने लगा है। </p><div><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-64560832627960809992021-01-24T09:01:00.002-06:002021-01-24T09:48:26.250-06:00एक सुबह जब शाम हुई<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-s5cE58VhKeU/YA2L9wdBwvI/AAAAAAAAGy4/WYV5855Zs3EcAQqk9PHHrjLWYNxTyBRfQCLcBGAsYHQ/s1600/koh.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="900" data-original-width="1600" src="https://1.bp.blogspot.com/-s5cE58VhKeU/YA2L9wdBwvI/AAAAAAAAGy4/WYV5855Zs3EcAQqk9PHHrjLWYNxTyBRfQCLcBGAsYHQ/s320/koh.jpg" width="320" /></a></div>दिन निकला। दिन क्या निकला, उसके निकलने से पहले शाम निकली। तड़के से मैं करवटें बदल रहा था कि दिन निकले, उजाला हो तो मैं बिस्तर से निकलूं। काफी देर तक जब दिन की कोई आहट नहीं मिली तो मैंने कंबल फेंका। सर्दी अचानक बढ़ चुकी थी। ठीक वैसी ही, जैसे कि जाती जनवरी की शामें अचानक से गहरी और ठंडी होने लगती हैं। एक पल को मुझे लगा कि कहीं मैं दोपहर के खाने के बाद तो नहीं सोया था। मगर देह पर मौजूद सोने वाले कपड़ों ने मुझे टहोका, कि नहीं, ये सुबह ही है और ये वही सुबह है, जिसका मैं पिछले दो तीन घंटों से इंतजार कर रहा था। ये वही सुबह है, जिसके लिए मैंने अपना वह सपना तोड़ दिया था, जिसमें मैं उड़ीसा के कोर्णाक मंदिर के गलियारे में लड़की से औरत बनने को उतारू किसी लड़की के साथ घूम रहा था। सपने में मंदिर था, मंदिर के पत्थर थे, बुर्ज थे, हवा के अलसाए झोंके थे और सबसे बड़ी बात तो ये कि सपने में गरमी थी। मेरे उस्ताद शम्सुर्रहमान फारुकी साहब एक जगह पर लिखते हैं कि हम हिंदुस्तानियों के लिए गर्मी से ज्यादा सर्दी तकलीफदेह है और ये लिखने से पहले पता नहीं जमानत में या यूं ही वे कैफी आजमी साहब का एक मिसरा नज्र करते हैं- <p></p><p>आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी </p><p>आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है। </p><p>सो सपना था, सपने में गर्म हवा भी थी जो शायद इस डर से सपने में डोल रही थी कि बाहर बहुत सर्दी है और सर्दी के डर से हमारे हिंदुस्तान में आज का दिन रोज के दिन की तरह निकलने से इन्कार कर रहा है। आज हिंदुस्तान में आने के लिए उसे कल की शाम का भी साथ चाहिए, भले कल की शाम से ही उसके डर की वजह शुरू हुई हो। मैं सोचने लगा, जीवन में मैंने भी ऐसे लोगों का साथ खूब जोड़ा है, जो मेरा नुकसान करते रहे, जिनसे कहीं न कहीं मैं डरता रहा, फिर भी शायद किसी बड़े डर की वजह से मैंने नुकसान का साथ नहीं छोड़ा और शायद यही वजह है कि आज मैं घाटे में हूं। लोगों को लगता है कि ये बहुत नफा मार रहा है, लेकिन नफा मुझे उस जूते की तरह लगता रहा है, जो मुझे देखने में तो बहुत अच्छा लगता है, मगर उसे बर्दाश्त करने की काबलियत अपने पास न होने की वजह से मैं उसे देखकर ही संतोष कर लेता रहा हूं। तो क्या यह मेरा संतोष है जो मेरे नुकसान की वजह है? हिंदुओं के धर्मग्रंथों में तो बहुत कहा गया है कि संतोष ही परमधन है, तो क्या मेरा सारा नुकसान मेरे इस परमधन की वजह से हुआ? क्या मुझे संतोष नहीं करना चाहिए? मगर मैं संतोषी कब था? दुनिया की कोई भी चीज मेरे अंदर यह परमधन नहीं भर पाई, और शायद नहीं ही भर पाएगी। मैं संतोषी नहीं हूं। संतोष ने मुझे इतना दिक्क किया कि आखिरकार मैंने कंबल दूर फेंक दिया और उससे चार गज और दूर मैंने संतोष को फेंका। इसलिए भी फेंका कि पिछले दिन भर और आधी रात तक की मेहनत के बाद मैं नींद से संतुष्ट नहीं था। मैं सुबह से भी संतुष्ट नहीं था, जो इतनी मेहनत, इतने इंतजार के बाद आई, मगर शाम से हाथ मिलाकर आई। सुबह ऐसे भी कहीं आती है? भुनभुनाते हुए मैंने बिस्तर छोड़ा, कि आज मैं इस सुबह को नहीं छोड़ूंगा। इसी की खातिर मैंने सपने में बहती गर्म हवा छोड़ी, खुला आंगन छोड़ा, और सबसे बड़ी बात जो रही, वह बताने की नहीं है, कोई कहेगा, तो भी नहीं बताउंगा। </p><p>सुबह मैंने बिस्तर छोड़ा। रात के छोड़े हुए कपड़े कैसे-कैसे करके अपने बदन पर डाले और कमरे से बाहर आया। बाहर शाम होने को थी। बल्कि ये दिन ऐसा दिन था कि दिन निकलने के साथ ही शाम अपने होने की जिद लिए गठरी बनी बैठी थी। शाम को सर्दी बहुत लग रही थी, लेकिन किसी भी मौसम, या किसी भी दिन या किसी भी चीज से ज्यादा बड़ी चीज जिद होती है। शाम सुबह से ही अपनी जिद पर थी। एकबारगी मैंने सोचा कि आज मैं दिन से हार मान लूं क्या? फिर मैंने सोचा कि हर किसी से हारने के बाद अगर मैं दिन से भी हार गया, तो फिर अगले दिन में जाना और फिर उसके भी अगले दिन में जाना मुसीबत हो जाएगा। दिन अपना दरवाजा एक बार किसी के लिए बंद कर लेता है तो जल्दी खुलना मुश्किल हो जाता है। कई लोग तो पूरी उम्र खुद को रात का राही कहते रहे हैं। कई लोग आज तक अवध की शाम से नहीं निकल पाए, उनके जीवन में सुबह हुई ही नहीं। फिर शाम से मेरी उतनी दोस्ती भी नहीं रही, क्योंकि मेरे पेशे सहाफत की कुछ ऐसी मजबूरियां हैं कि हम लोग जब इस पेशे में आते हैं तो अपनी हर शाम मुल्तवी करके आते हैं। जब दुनिया शाम की रंगीनियत से दो चार हुई रहती है, हम लोग दुनिया से उड़ते रंगों की रपट लिखने में मगशूल होते हैं। क्या करें, पेशा ही ऐसा है। दुनिया जब रंग बिगाड़ती है, बदलती है तो हम दुनिया भर को बताने की तैयारी में लगते हैं कि रंग बिगड़ चुका है- बदल चुका है। </p><p>जब भी मैं शाम देखता हूं, एक बार यह जरूर सोचता हूं कि किसी और पेशे में होता तो कम से कम शाम देख लेता। जब तक मैं इस पेशे में नहीं था, या कि यूं कहें कि जब मैं कहीं भी नहीं था तो अपने बारा पत्थर के मैदान शाम का आसमान देख रहा होता था। पहले पीला, फिर नारंगी और फिर लाल होते हुए सबकुछ गाढ़े नीले में तब्दील होते देखता। मैं चित्रकार नहीं हूं और तब भी इसके बारे में नहीं सोचा, जब इतने सारे रंग मेरे सामने खेल रहे होते। बल्कि कभी कभी मुझे खुद से चिढ़ होती है कि मैंने इतने सुंदर सुंदर रंग देखे हैं, फिर भी जब बात रंग चुनने की हो तो मैं हमेशा कोई न कोई वाहियात रंग चुनता हूं। मेरे जीवन की सारी चित्रकारी सिर्फ इसी वजह से धरी रह गई, क्योंकि मुझे रंग देखने तो आते हैं, मगर चुनने नहीं आते। मेरे घर के सामने एक नीम का पेड़ है, जिसे मैं बचपन से देखता आ रहा हूं। मगर क्या मजाल कि मैं कभी भी उसके लिए एकदम सही सब्ज चुन पाऊं। फिर भी मैं रोज शाम का इंतजार किया करता, और अपने आप से शर्त लगाता कि आज वाला लाल कल वाले लाल से ज्यादा लाल होगा। बहुत बाद में जब मैंने पहाड़ देखे, वहां की शाम देखी तो नोट किया कि जितनी लाल, जितनी नर्म और जितनी रोमानी हमारे मैदानों की शाम होती है, उतनी पहाड़ों की शाम नहीं होती। बल्कि अगर कोई मुझे इसके लिए सजा न दे तो मैं ये भी कहूंगा कि पहाड़ों की शाम बेहद खुरदुरी और जकड़न से भरी होती है, जिसमें एक रंग डर का भी होता है। डर यह कि बाहर निकले तो जाने कौन खा जाए, जाने कहां से पैर फिसल जाए या जाने कौन सा कीड़ा-मकोड़ा काट ले। मैदानों की शाम बेखौफ होती है और शायद यही वजह है कि उसमें लाल, पीले और नीले के जितने शेड्स होते हैं, उतने मुझे कहीं भी देखने को नहीं मिले। कुछ लोग समुद्र का जिक्र कर सकते हैं, लेकिन समुद्र भी मैदान में ही होते हैं, पहाड़ों में नहीं होते। रंगों को फैलने के लिए बहुत ढेर सारी जगह चाहिए होती है, जिनमें धरती की सिकुड़न बेवजह शोर मचाती है। </p><p>मगर मैं यह क्या सोच रहा हूं? मैं यह क्या कह रहा हूं और आखिर क्यों कह रहा हूं? मैं तो सुबह के इंतजार में था और भले ही शाम के साथ हुई, मगर सुबह तो हुई ही। फिर मुझे किस चीज से इतनी शिकायत है? और फिर शिकायतों का बंडल तो शाम तले खुलता है, अभी तो सुबह हुई है? सुबह से कैसी शिकायत? वह तो नया दिन लेकर आई है। नया दिन, जिसमें वह सब कुछ होगा, जो उस दिन से पहले कभी नहीं हुआ। नया दिन, जिसमें उस दिन से पहले वह सारी चीजें सामने आएंगी, जो पिछले हजारों हजार दिनों से सामने आने से रह गई हैं। मुझे नए का स्वागत करना चाहिए, मगर मैं खीझ रहा हूं। मुझे सुबह का स्वागत करना चाहिए, मगर मैं उससे मुंह फेरकर बैठा हूं। अगर किसी सुबह दिन शाम के साथ आ जाएगा तो क्या मुझे बर्दाश्त नहीं होगा? आखिर मोहल्ले की सारी लड़कियों की शादी हुई, मैंने बर्दाश्त की और आज भी मोहल्ले में वापस जाना नहीं छोड़ा। ना चाहते हुए भी कानून की मोटी मोटी और नीरस किताबें मैं बर्दाश्त करता रहा हूं। बेमन से ही सही, मगर आंकड़ों की फेहरिस्त को घंटों बर्दाश्त करता हूं, फिर एक अदद सुबह मुझसे बर्दाश्त क्यों नहीं हो रही है? </p><p>.... नहीं पता कि जारी या खत्म।</p><p>एक सुबह जब शाम हुई</p><p>नींद तो यूं ही तमाम हुई</p><p>काम न कोई हो पाया</p><p>नाक लाल औ जाम हुई।</p><p>और ये मिसरे कैफी साहब के नहीं हैं, बल्कि ये मिसरे किसी के भी नहीं हैं। </p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-16817991162660012802020-03-03T08:56:00.001-06:002020-03-03T08:56:56.480-06:00मिशेल बैचले : शुक्र मनाइये कि वे खुद सुप्रीम कोर्ट आई हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बात तनिक पुरानी है। सितंबर सन 1973 की। साउथ अमेरिकी देश चिली में अमेरिका ने सेना के एक गुट से विद्रोह करा दिया। इनका इरादा तख्तापलट करके सत्ता हथियाने का था। उस वक्त चिली में लोक कल्याणकारी जनवादी सरकार बनी थी। इस सरकार में चिली की तकरीबन आधा दर्जन कम्यूनिस्ट पार्टियां शामिल थीं। चिली में एक अरसे से ठीक वैसे ही लोगों का शासन था, जैसा कि हम भारत में कांग्रेस, बीजेपी और बिना कोई विचारधारा वाली क्षेत्रीय पार्टियों के शासन में देखते हैं। लब्बोलुआब यह कि बस लूटो खाओ और कोई बोले तो मोदी और शाह बन जाओ। इन लोगों को जनवादियों का शासन बर्दाश्त नहीं हो रहा था। एक वजह यह भी थी कि राष्ट्रपति सल्वादोर अलांदे की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही थी।<br />
<br />
उधर सेना और तथाकथित डेमोक्रेट्स की नेतागिरी सेना का ही एक अफसर आगस्तो पिनोचेट कर रहा था। उसने सल्वादोर की रातों-रात हत्या करा दी। इसके लिए उसे अमेरिका ने पैसा दिया था। तब रिचर्ड निक्सन अमेरिका के राष्ट्रपति थे। जानकार बताते हैं कि जब सागा को मारा जा रहा था तो उस कमरे में आगस्तो भी मौजूद था। उसी रात चिली भर में हजारों लोगों को जेल में ठूंस दिया गया, दर्जनों लोगों को गोली मार दी गई, जिनमें चिली एयरफोर्स के ब्रिगेडियर अल्बर्तो आतुरो मिगुएल बैचले, उनकी आर्कियोलॉजिस्ट पत्नी एंजेला जेरिया गोम्ज और बेटी मिशेल बैचले भी थी। ब्रिगेडियर ने पिनोचेट के शासन का विरोध किया था। ऐवज में पिनोचेट ने ब्रिगेडियर अल्बर्तो बैचले को तब तक यातना दी, जब तक की उनकी मौत नहीं हो गई। यातना का यह दौर कई महीनों तक चला।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-b2li4pTMLKk/Xl5wKOSN33I/AAAAAAAAF-o/OLi3w8ccxrgflf5SPXZkDMN2AafVv6J7ACLcBGAsYHQ/s1600/unnamed.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="400" data-original-width="400" height="320" src="https://1.bp.blogspot.com/-b2li4pTMLKk/Xl5wKOSN33I/AAAAAAAAF-o/OLi3w8ccxrgflf5SPXZkDMN2AafVv6J7ACLcBGAsYHQ/s320/unnamed.jpg" width="320" /></a></div>
ब्रिगेडियर की बेटी मिशेल ने मुल्क में तानाशाही को हम भारतीयों से भी अधिक नजदीक से देखा। पिनोचेट ने चिली के 29वें राष्ट्रपति/तानाशाह के रूप में कुर्सी हथियाई और उसके बाद वहां की सरकारी संस्थाएं बेच दीं, बैंक बेच दिए, बाजार बेच दिए, व्यापारी बेच दिया, मतलब, जो कुछ भी उसके दिमाग में आया, सब बेच दिया और जो उसके दिमाग में अमेरिका ने भरा, वह भी बेच दिया। पिनोचेट की यह बेखौफ बिकवाली लगातार सत्रह साल तक चलती रही, शुक्र मनाइये कि अभी बीजेपी वालों को छह साल ही हुए हैं। पिनोचेट ने एक कमेटी बनाई और उससे चिली का संविधान पूरा बदलवा दिया। सन 85 आते-आते चिली में वही हाल हो गया, जैसा कि अभी नोटबंदी के बाद शुरू हुआ है।<br />
<br />
पिनोचेट चिली पर सन 90 तक शासन करता रहा। जब रिटायर हुआ तो सेनाध्यक्ष बन बैठा और जनता पर वैसा ही अत्याचार कराता रहा, जैसा इन दिनों मोदी जी की तरह तरह की सेनाएं कर रही हैं, बल्कि इससे भी बुरा। सन 98 तक वो जबरदस्ती सेनाध्यक्ष बना रहा और जब रिटायर हुआ तो बिना चुनाव लड़े अपने आप सांसद बन बैठा। वैसे वह मरने तक संसद का सदस्य बना रहे, इसके लिए उसने तरकीब की हुई थी। जब वह संविधान बदलवा रहा था, तभी उसने अपने लिए संसद का सदस्य बने रहने की बात उसमें डलवा ली थी। मतलब जब तक इसने जिंदा रहना था, तब तक जुल्म करते रहना था, इसकी इसने पूरी व्यवस्था करा ली थी। मोदी जी चाहें तो पिनोचेट से भी सीख ले सकते हैं, आखिर डोलांड ट्रंप उनको भी बहुत-बहुत मानते हैं।<br />
<br />
सांसद बनने के बाद एक बार पिनोचेट लंदन गया इलाज कराने। वहां पर उसे मानवाधिकारों के उल्लंघन के सैकड़ों मामलों के आरोप में इंटरपोल ने गिरफ्तार कर लिया। दो साल तक तो पिनोचेट वहां बंद रहा। सन 2000 में सेहत खराब होने का बहाना बनाकर वह वापस चिली लौटा। चार साल तक चिली में ही रहा, कहीं बाहर नहीं निकला। चार साल बाद चिली के ही एक जज जॉन गज्मॅन तापिया ने फैसला दिया कि पिनोचेट की हेल्थ टनाटन है, इन पर मुकदमा चलाया जा सकता है। इस फैसले के दो साल बाद यानी 2006 में पिनोचेट मर गया। जब वह मरा, उसके ऊपर तीन सौ क्रिमिनल चार्जेस पेंडिंग थे।<br />
<br />
बहरहाल, एक बार फिर से लौटते हैं मिशेल बैचले पर। ब्रिगेडियर की बेटी चिली की पहली चुनी हुई समाजवादी राष्ट्रपति बनी, और बेहद लोकप्रिय भी। 2006 में एक बार तो 2014 में एक बार। मिशेल चिली की पहली महिला राष्ट्रपति भी हैं। और ब्रिगेडियर की इस बेटी की चिली में लोकप्रियता की सिर्फ और सिर्फ एक ही वजह है- मानवाधिकारों के प्रति उनका डेवोशन। जब वे चिली की राष्ट्रपति नहीं होती हैं तो दुनिया भर में घूम-घूमकर मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करती हैं। राष्ट्रपति बनने से पहले भी वे मानवाधिकारों के लिए काम करती थीं, अब तो खैर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की हाई कमिश्नर हैं ही।<br />
<br />
इन्हीं मिशेल ने ही सुप्रीम कोर्ट में नागरिकता संशोधन अधिनियम के लिए याचिका दाखिल की है। भारत को और सुप्रीम कोर्ट को इनका आभारी होना चाहिए कि मिशेल ने सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया में याचिका दाखिल की है। वरना मिशेल चाहें तो जेनेवा से ही मोदी जी, शाह जी और इनकी सेना के खिलाफ इतने वारंट तो जारी कर ही सकती हैं, जितने अभी दिल्ली में लोग मर गए। और यकीन मानिए, ये सारे वारंट उन सारे देशों में तामील होंगे, जिन्होंने यूएन ह्यूमन राइट कमीशन के चार्टर पर साइन किए हैं।<br />
<br />
तो हे विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मिस्टर रवीश कुमार, जिस तरह का आपका बयान है कि संसद भारत में कुछ भी कर सकती है तो भारत के बाहर रहने वाले लोग भी यही कुछ भी भारत के तानाशाहों के साथ भी कर सकते हैं। और बोबडे साहब, आप तो अंतराष्ट्रीय कानूनों के प्रकांड पंडित हैं, आप तो साफ साफ जानते हैं कि मिशेल ने सीन में एंट्री ले ली है तो अब मामला कहां तक पहुंच चुका है। क्या इससे बड़ी कोई और बेइज्जती हमारे लिए होगी कि पीएम और होम मिनिस्टर के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन के वारंट इश्यू हो जाएं? </div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-42932309837240871422020-03-01T08:23:00.001-06:002020-03-01T08:23:25.618-06:00कौन मरा है? किसका बेटा?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कौन मरा है<br />
किसका बेटा<br />
अभी यहीं था<br />
पलंग पे लेटा<br />
किसने थी<br />
आवाज लगाई<br />
किसने शामत<br />
नियति बनाई<br />
किसने मारा<br />
पहला पत्थर<br />
किसने ली<br />
पहली अंगड़ाई<br />
जांच करो भाई<br />
जांच करो<br />
किसने पहले<br />
आग लगाई<br />
मगर सुनो तो<br />
हमको दे दो<br />
बेटे की जो<br />
लाश है आई<br />
दे दो दे दो<br />
जहां छुपाई<br />
रोक के रखी<br />
हमने रुलाई<br />
रोना है अब<br />
खून पर अपने<br />
रोना है<br />
सब जून पर अपने<br />
रोना है<br />
पी पीकर पानी<br />
रोना है<br />
जो छंटी जवानी<br />
रोना है<br />
क्यों ईंट उठाई<br />
रोना है<br />
अब लाश जलाई<br />
रोना है<br />
पहले नहीं सोचा<br />
रोना है<br />
लो भीगा अंगोछा<br />
रोना है<br />
कि तब क्यों बोले<br />
रोना है<br />
कि आ अब रो लें<br />
रोना है<br />
हर इक नारों पर<br />
रोना है<br />
दंगों के मारों पर<br />
रोना है<br />
क्यों आग लगाई<br />
रोना है<br />
क्यों बुझ ना पाई<br />
रोना है<br />
ये फेर जो आया<br />
रोना है<br />
सब घेर के आया<br />
रोना है<br />
अब उन आवाजों पर<br />
रोना है<br />
टूटे साजों पर<br />
रोना है<br />
सब रूठ चुका है<br />
रोना है<br />
सब टूट चुका है<br />
होता सलामत<br />
बच्चा अपना<br />
पूरा करता<br />
अपना सपना<br />
मार पीट<br />
दंगा फसाद में<br />
बच्चा मरा<br />
और मर गया सपना।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-6GWZ7uvroaQ/XlvFI5jJ2OI/AAAAAAAAF8k/nsugnWE3xAAMfjYXx2kZL8ODBKPJPxPXwCLcBGAsYHQ/s1600/87529547_256482382010767_1314627650366472192_o.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="681" data-original-width="968" height="225" src="https://1.bp.blogspot.com/-6GWZ7uvroaQ/XlvFI5jJ2OI/AAAAAAAAF8k/nsugnWE3xAAMfjYXx2kZL8ODBKPJPxPXwCLcBGAsYHQ/s320/87529547_256482382010767_1314627650366472192_o.jpg" width="320" /></a></div>
<br /></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-84743703885057438352020-02-21T01:24:00.002-06:002020-02-21T06:52:57.007-06:00हमारा गुमान हमारा डर बन गया है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-QT1BHXu8VB4/Xk-FekgamEI/AAAAAAAAF4M/se8pt1pOoCgG0obzsP5Nel8Ers9NLVJBgCLcBGAsYHQ/s1600/DSC_0572.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1060" data-original-width="1600" height="211" src="https://1.bp.blogspot.com/-QT1BHXu8VB4/Xk-FekgamEI/AAAAAAAAF4M/se8pt1pOoCgG0obzsP5Nel8Ers9NLVJBgCLcBGAsYHQ/s320/DSC_0572.JPG" width="320" /></a></div>
सुप्रीम कोर्ट की ओर से शाहीन बाग का रास्ता खुलवाने के लिए पहुंचे दो वार्ताकारों में से एक साधना रामचंद्रन ने यह पूछा कि क्या आप लोगों को सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा नहीं है तो वहां मौजूद लगभग सभी लोग एक स्वर में यही बोले कि भरोसा है। लेकिन मेरे पास रिकॉर्डेड दूसरा सुर, जो पहले वाले से थोड़ा मध्यम था, और जो वार्ताकारों तक नहीं पहुंचा, वह यही था कि भरोसा नहीं है। अदालत पर 'भरोसा है भी और नहीं भी' की जो भावना है, यह सिर्फ शाहीन बाग तक ही नहीं है। पिछले कुछ सालों में हमारी अदालतें, खासतौर पर हमारे सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से कायदे कानून का तिया पांचा किया है, भरोसा रहना और ऐन उसी वक्त भरोसे के न रहने को क्या मानें? एक सामान्य बात या एक नियति, जो संसद से लेकर अदालत की उस गोल गुंबद वाली इमारत में बैठे लोग अपने-अपने हिसाब से तय कर रहे हैं? जस्टिस दीपक मिश्र से लेकर जस्टिस रंजन गोगोई और अब जस्टिस बोबडे जो कुछ और जैसा कुछ भी कर रहे हैं, उसका खामियाजा कम से कम यह तीनों तो नहीं भुगतेंगे। उसका खामियाजा सिर्फ और सिर्फ हमारी न्याय व्यवस्था भुगतेगी। आज अगर शाहीन बाग सुप्रीम कोर्ट के वार्ताकारों को सुनने को तैयार नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट को खुद सोचना होगा कि आखिरी बार उसने मुसलमानों की कब सुनी थी?<br />
<br />
तीन तलाक का मामला हो, बाबरी मस्जिद विध्वंस का मामला हो या फिर जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का मामला हो, शाहीन बाग को ही नहीं, कायदा कानून जानने-मानने वाले हर किसी को लगता है कि अन्याय हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी नजर में जो न्याय किया, उसको अनुचित ठहराने और बताने के लिए एक से बढ़कर एक फैसले पहले से ही हैं, नजीरें हैं और शाहीन बाग जैसे देश भर में जो साढ़े चार सौ से भी अधिक बाग बन चुके हैं, सभी बागों में इन दिनों यही सब डिसकस हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने तो खैर अन्याय करके अपना दरवाजा यों बंद कर लिया कि चेहरा नहीं दिखाएंगे। फिर जब शाहीन बाग की दादी कहती हैं कि कागज नहीं दिखाएंगे तो सुप्रीम कोर्ट कहता है कि वो चीजें बाद में बताएंगे, पहले रास्ते से हटो। गुरुवार को जब सुप्रीम कोर्ट के वार्ताकार संजय हेगड़े और साधना रामचंद्रन शाहीनबाग में बातचीत कर रहे थे, जामिया के पास रहने वाले इमरान अपनी दो बच्चियों के साथ उनके सामने पहुंचे और बेसाख्ता रोने लगे। कहने लगे कि उन्हें डर लगता है। अपने लिए और अपनी दो बच्चियों के लिए डर लगता है। इमरान की दोनों बच्चियों ने अपनी साइकिल पर तिरंगे बांध रखे थे और हाथ में एक पोस्टर ले रखा था, जिसपर लिखा था कि हम आपको हिम्मत देने आए हैं। इमरान का कहना था कि ये तिरंगा जो आज तक हमारा गुमान हुआ करता था, अब हमारा डर बन गया है। डर के मारे हमें तिरंगा अपने साथ रखना पड़ रहा है क्योंकि इसे नहीं रखेंगे तो आप हमें हिंदुस्तानी नहीं मानेंगे।<br />
<br />
'किसे हिंदुस्तानी मानें और किसे न मानें' की शायद कोई याचिका अभी तक सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर नहीं पहुंची है। 'किसे हिंदुस्तानी मानें और किसे न मानें' का कोई गैजेट अभी तक केंद्र की मोदी सरकार ने जारी नहीं किया है। सीएए जब सीएबी था, तभी से केंद्र सरकार के गृह मंत्री अमित शाह सहित कई दूसरे मंत्री समूचे भारत में घूम-घूमकर वह क्रोनोलॉजी समझा रहे हैं, जिसकी आग से इन दिनों असम भभक रहा है। असम की आंच समूचे भारत को महसूस हो रही है और इसी आंच से वह भय पैदा हुआ जो गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट के वार्ताकारों के सामने बेसाख्ता बह निकला। वार्ताकार कहते रहे कि कौन कहता है कि आप हिंदुस्तानी नहीं हो, वार्ताकार ढांढस बंधाते रहे कि आप हिंदुस्तानी ही हो, मगर भय का बहना बंद नहीं हुआ। भरी सभा से भय उठा और बाहर जाकर फुटपाथ पर बैठ गया। मैंने देखा, सभा से एक शाहीन उठी, फुटपाथ पर गई और उसने उस भय के आंसू पोंछ दिए। उसका इमरान से कोई नाता नहीं था, एक रिश्ता था, जिसे हम दर्द के रिश्ते के रूप में समझ सकते हैं और इन दिनों दर्द के इस रिश्ते में डर के एक नाते ने भी घर कर लिया है।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-yzJBmAGx6AY/Xk-FnCUElPI/AAAAAAAAF4Q/-YpOkMeB2RYx8uAm_WM6TvENPUx8r6r2QCLcBGAsYHQ/s1600/DSC_0589.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1060" data-original-width="1600" height="211" src="https://1.bp.blogspot.com/-yzJBmAGx6AY/Xk-FnCUElPI/AAAAAAAAF4Q/-YpOkMeB2RYx8uAm_WM6TvENPUx8r6r2QCLcBGAsYHQ/s320/DSC_0589.JPG" width="320" /></a></div>
मोदी सरकार हर मंच से यही कह रही है कि किसी को भी डरने की जरूरत नहीं है। फिर क्या बात है कि डरे हुए सारे लोगों ने हर शहर में अपना एक घेरा बना लिया है, जो मुसलसल बढ़ता जा रहा है? इस बात का जवाब शाहीन बाग की सरवरी दादी देती हैं। वो कहती हैं कि हमें तो ये लोग एकदम बीच में लाकर घेर रहे हैं। दादी की बात में सचाई है। 2014 में जब से नरेंद्र मोदी की केंद्र में सरकार बनी है, तब से जो मॉब लिंचिंग शुरू हुई, अगर इसे हांकने के रूप में ग्रहण करें तो दादी की बात बिलकुल सही है। मार मार कर मुसलमानों को बीच में लाकर खड़ा कर दिया है और अब क्रोनोलॉजी के जरिए उनमें से लोगों को चुनने की कवायद होने वाली है। और ये कवायद होने ही वाली है क्योंकि बीजेपी की सरकार ने संसद में यह लिखकर दिया है कि अभी उन्होंने एनआरसी लागू करने के बारे में तय नहीं किया है। शाहीन बाग में बैठे लोगों की मांग यही है कि एनआरसी को सिरे से रद्द किया जाए। अगर इसके बारे में सोचा भी गया है तो उस सोच को भी रद्द किया जाए और संसद को यह लिखकर दिया जाए कि एनआरसी नहीं होगी।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-JPCu1FTcRpc/Xk-FuXxnFQI/AAAAAAAAF4U/7ROklIJth6k9oCS2B4fjDrvgQMF7zwpywCLcBGAsYHQ/s1600/DSC_0611.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1060" data-original-width="1600" height="211" src="https://1.bp.blogspot.com/-JPCu1FTcRpc/Xk-FuXxnFQI/AAAAAAAAF4U/7ROklIJth6k9oCS2B4fjDrvgQMF7zwpywCLcBGAsYHQ/s320/DSC_0611.JPG" width="320" /></a></div>
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की ओर से जो दो वार्ताकार शाहीन बाग भेजे गए, उनका कोई मतलब बनता नहीं दिख रहा है। गुरुवार को शाहीन बाग और वार्ताकारों के बीच कुछ बातों को लेकर कई बार गहमागहमी हुई। पहली यही कि वार्ताकारों का कहना था कि वो सिर्फ रास्ते की बात करने आए हैं, कैसे दूसरों को परेशानी न हो, उनके अधिकार की रक्षा हो, इसकी बात करने आए हैं। शाहीन बाग की महिलाओं का कहना था कि दो महीने छह दिन से वे यहां रास्ते की बात करने नहीं बैठी हैं। वे यहां सीएए, एनआरसी और एनपीआर की बात करने बैठी हैं और सुख से नहीं बैठी हैं। उन्हें दुख और डर, दोनों है। मगर सुप्रीम कोर्ट ने अपने वार्ताकार शाहीन बाग का दुख सुनने नहीं भेजे थे, इसलिए जब भी लोग यह कहें कि हमारा दुख तो सुनिए तो साधना रामचंद्रन उन्हें डांट दें कि हमें हमारा काम मत बताइये। जाहिर है कि इस तरह की लाग-डांट बेनतीजा ही रहने वाली थी और बेनतीजा रही भी। सुप्रीम कोर्ट जो सुनना चाहता है, सड़क पर बैठे लोग वह बात बोलें भी तो कैसे बोलें? मौके पर मौजूद रुखसाना सवाल करती हैं कि सवा दो महीने से यहां बैठे हैं, अभी तक तो कोई बात करने आया नहीं। ये लोग बात करने आए हैं तो हमारे दुख पर नहीं बल्कि इनके सुख कैसे पूरे हों, इस पर बात करने आए हैं। फिर क्या गारंटी है कि कहीं और जाकर बैठ जाएंगे तो कोई बात करने आ ही जाएगा? नब्बे की हो रही आसमां बेगम, जो शाहीन बाग की दादी के नाम से मशहूर हैं, कहती हैं कि वे बापू के जुग-जमाने की हैं। मुंह दुख गया बताते-बताते कि ये बापू वाली बात नहीं है। दादी ने तो पूछा नहीं, मगर हम खुद से तो पूछ ही सकते हैं कि बापू वाली बात क्या है? बापू होते तो ये होता? </div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-303471048474045882020-02-16T07:46:00.001-06:002020-02-16T07:46:24.731-06:00शकरकंदी की कड़वाहट<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मेरा एक दोस्त अक्सर कहता है कि लोग अच्छे नहीं होते, तो मैं कहता हूं कि लोग तो अव्वल अच्छे ही होते हैं, वक्त या हालात बुरे होते हैं। इस पर वह तुनककर अपनी उस पड़ोसी की बातें बताने लगता है, जिसे उसने आज तक किसी से सीधे मुंह या जरा सी मुलायमियत से बात करते नहीं देखा। मैं उसे समझाता हूं कि इसके पीछे उस पड़ोसी के वक्त का मुंह शायद हमेशा टेढ़ा रहता होगा या उसके हालात इतने कठोर होते होंगे। लेकिन वह नहीं माना। एक दिन वह मुझे अपने घर ले गया और अपनी उस पड़ोसन की निगरानी पर बैठा दिया। मैंने देखा कि उसकी पड़ोसन का मुंह कामवाली से लेकर मां-भाई के साथ भी टेढ़ा ही था। थी तो वह ठीक-ठाक घर की। देखने में गदराई शकरकंदी सी, लेकिन शकरकंदी जैसी अनाकर्षक तो नहीं थी। उसकी मां की आवाज तनिक तेज तो थी, लेकिन उसमें भी एक दिल्ली वाली पंजाबी शाइस्तगी तो थी ही।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-nJXb0_peO20/XklHjPy3ibI/AAAAAAAAF00/yCl00bjAf6wcT2beZU_EYqX1Hq-WNcBLACLcBGAsYHQ/s1600/10635721_956339207715106_9158704257862028229_n_956339207715106.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="388" data-original-width="400" height="309" src="https://1.bp.blogspot.com/-nJXb0_peO20/XklHjPy3ibI/AAAAAAAAF00/yCl00bjAf6wcT2beZU_EYqX1Hq-WNcBLACLcBGAsYHQ/s320/10635721_956339207715106_9158704257862028229_n_956339207715106.jpg" width="320" /></a></div>
फिर क्या वजह रही होगी कि इतनी सुंदर पड़ोसन का वक्त इस कदर टेढ़ा हो चुका था? मैंने दोस्त से पड़ोसन के बारे में कुछ पूछताछ की। वह पैंतीस पार थी, सुंदर थी। हंसे तो गोया फूल झड़ें। हालांकि मेरे दोस्त को मुझे दिखने वे फूल अब भी मेरी भूल ही लगते हैं और ज्यों ही मैं कभी भी उसकी हंसी में फूल देखता हूं, झट से वह हमेशा यही बोलता है, 'आई ऑब्जेक्ट मीलॉर्ड!' उस वक्त भी उसने यही जारी रखा। फूल दर फूल गिरते ऑब्जेक्शन से जब मैं परेशान हो गया तो मैंने दोस्त से पूछा, 'शादी हो गई है इसकी?' दोस्त बोला, 'नहीं हुई।' अब समस्या का एक सिरा तो मेरी गिरफ्त में था। इस सिरे पर अपनी गिरफ्त मजबूत करने के लिए मैंने फिर पूछा, 'कोई ब्वॉयफ्रेंड? किसी इश्क की कोई कहानी? या सिरे न चढ़ पाई किसी मोहब्बत की कोई दास्तां?' दोस्त बोला, 'पांच साल तो हो गए मुझे इस इलाके में रहते हुए, अभी तक तो ऐसी कोई चीज दिखी नहीं।'<br />
फिर मैंने पूछा, 'क्या वह निपट अकेली है?' दोस्त ने जवाब दिया, 'लगता तो ऐसा ही है, जभी तो जब भी खिड़की पर आती है, खाती हुई आती है या खाते-खाते वापस चली जाती है।' इस जवाब पर मैं भड़क गया। मैंने कहा, 'खाने का अकेलेपन से क्या रिश्ता?' अरस्तू से सुकरात की देह में विचरते हुए दोस्त बोला, 'अकेला आदमी अक्सर किसी न किसी छोर पर ही रहता है। इस तरफ, या उस तरफ। उसके मन में बीच का रास्ता कहां होता है? फिर उसकी कोई ऐसी मजबूरी भी तो नहीं होती कि वह बीच का रास्ता अख्तियार करे ही करे।' उसके यह कहते ही मुझे याद आया कि मेरे दो मालिकों (जिनके यहां मैं कभी नौकरी करता था) ने कहा था कि साथ बहुत जरूरी होता है। एक बार जब मैं निपट अकेली महिलाओं से रूबरू था तो वहां भी मुझे ऐसी ही झल्लाहट दिखी थी। मैंने दोस्त से कहा, 'उसे समझाओ, अकेली न रहे।' अब तो दोस्त बिदक गया, बोला, 'अकेले के गले में समझाइश की घंटी बांधने की हिम्मत तुममें हो तो हो, मुझमें नहीं है।' </div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-26775287478769219142020-02-15T00:57:00.002-06:002020-02-15T00:59:36.675-06:00डाटा से प्यार, डाटा से सेक्स और डाटा से बच्चे!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मुझे वो टिंडर पर मिली थी, या मैं उसे टिंडर पर मिला, यह तो ठीक से याद नहीं, लेकिन मैच हो गया था। झारखंड की थी, अनारक्षित वर्ग की और साढ़े तीन शादियां कर चुकी थी। साढ़े तीन यूं कि आखिरी में बात मंगनी के बाद टूट गई थी, लेकिन मिलना-मिलाना हो चुका था। हमारी बातें आगे बढ़ने लगीं तो पहले तो उसने धीमे से मुझे यह बताया कि उसके पापा मोदी जी के खिलाफ एक बात नहीं सुनते और अगर कोई कह दे तो उसको ऐसी-ऐसी सुनाते हैं कि पानी पनाह मांगे। मैंने उससे कहा, ‘तो क्या हुआ। मेरे घर में भी कुछ बीजेपी वाले हैं, कुछ कांग्रेस वाले हैं, सपा-बसपा वाले भी हैं और खुद मैं कम्यूनिस्ट हूं।’ तो वह बोली कि उसके यहां भी कुछ यही हाल है, उसका भाई कांग्रेसी है, भाभी को आम आदमी पार्टी अच्छी लगती है और मां इधर-उधर डोलती रहती हैं, और जो भी जोर से बोल दे, उसी की तरफ हो जाती हैं। मैंने उससे पूछा, ‘और तुम? तुम क्या हो’? वह बोली, ‘मैं तो वर्कोहलिक हूं। काम पसंद करती हूं। जो भी काम करता है, उसे पसंद करती हूं।’<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-8X16qE8S8aA/XkeWQ860DYI/AAAAAAAAFt8/AXJPwjs3OKQ04TYVFHeZP9NuJ4cSqQgewCLcBGAsYHQ/s1600/modi%2Blover.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="421" data-original-width="630" height="213" src="https://1.bp.blogspot.com/-8X16qE8S8aA/XkeWQ860DYI/AAAAAAAAFt8/AXJPwjs3OKQ04TYVFHeZP9NuJ4cSqQgewCLcBGAsYHQ/s320/modi%2Blover.jpg" width="320" /></a></div>
यह सुनकर मेरे मन में लड्डू फूटा। आज के जमाने में जब लोग काम से ज्यादा नाम पसंद करते हों, ऐसे लोग मिलने मुश्किल होते हैं। कुछ दिन तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा। फिर उसने धीमे-धीमे स्कूलों के बारे में फेक इन्फॉरमेशन मेरी ओर पुश करनी शुरू की। जैसे पहली तो यही कि अब देखो, सारे स्कूलों में पढ़ाई हो रही है। सारे टीचर्स स्कूलों में वक्त पर पहुंच रहे हैं और क्लासेस ले रहे हैं। लगातार आती इन फर्जी खबरों से जब मैं पक गया तो एक दिन मैंने उससे पूछ ही लिया, ‘आखिरी बार तुमने किस स्कूल का दौरा किया था?’ कहने लगी, ‘दौरा तो नहीं किया था, लेकिन उसका एक रिश्तेदार मध्य प्रदेश के स्कूल में पढ़ाता है, वही हमेशा सरकार से इस बात को लेकर हमेशा परेशान रहता है कि टाइम पर स्कूल पहुंचना है।’ मैंने उससे पूछा, ‘उसकी बीएलओ में ड्यूटी लगती है?’ वह बोली, ‘ये तो न पूछो, रोज ही जाने कहां कहां ड्यूटी लगती रहती है।’ मैंने फिर पूछा, ‘फिर वह स्कूल कब जाता है?’ इस पर वह थोड़ी नाराज हो गई और बोली, ये सब फालतू की बात है, वक्त पर तो स्कूल आना ही पड़ेगा।<br />
<br />
फिर कुछ दिन बाद वह मुझसे सरकारी दफ्तरों की बेहतरी की बात बताने लगी। वहां भी आने-जाने के वक्त की पाबंदी की बात। मैंने पूछा, ‘अधिकारियों के दफ्तर वक्त पर आने जाने से क्या सारे काम वक्त पर होने लगे?’ वह बोली, ‘और क्या।’ मैंने पूछा, तुम अपनी जीएसटी कैसे फाइल करती हो तो बोली कि उसने इस काम के लिए एजेंट कर रखा है। मैंने पूछा कि अगर अधिकारी या सरकारी कर्मचारी अपने काम के इतने ही पाबंद हैं तो बीच में दलाल क्यों लगाया? क्या दलाल पूरा काम ईमानदारी से कराता है? छूटते ही वह बोली, ‘तुम मोदी विरोधी हो।’ पहले तो मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि मैं इस गलीच सिस्टम का विरोधी हूं, लेकिन वो तो समझने का नाम ही न ले। फिर मैंने उससे पूछा, ‘तुम मोदी समर्थक हो?’ इस बार वह खुलकर बोली, ‘हां। और मोदी जी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।’ मैंने पूछा, ‘क्या अच्छा काम कर रहे हैं?’ बोली, ‘नोटबंदी करके काले धन की कमर तोड़ दी।’ मैंने कहा, ‘लेकिन सारा पैसा तो रिजर्व बैंक वापस आ गया।’ इस पर वह बोली, ‘इतना अंधा विरोध तो न करो।’ मैंने कहा, ‘ये मैं नहीं, रिजर्व बैंक का डाटा कह रहा है। ’तो कहती है, ‘जाओ, उसी डाटा से प्यार करो, उसी से सेक्स करो और उसी से बच्चे पैदा करना।’</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-62992114260019607482020-01-03T22:12:00.004-06:002020-01-03T22:12:59.593-06:00सबसे मीठी तो बेहद गुस्सैल भी है उर्दू: संजीव सराफ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-j7p7qrqmPzk/XhAQkRhol_I/AAAAAAAAFg8/9LvPnYawfVYjkQhxLDm2mUKb8RcA7U8SQCLcBGAsYHQ/s1600/%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%2595.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="375" data-original-width="333" height="200" src="https://1.bp.blogspot.com/-j7p7qrqmPzk/XhAQkRhol_I/AAAAAAAAFg8/9LvPnYawfVYjkQhxLDm2mUKb8RcA7U8SQCLcBGAsYHQ/s200/%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%2595.jpg" width="177" /></a><i><b>उर्दू पर </b>दिल्ली में होने वाला सालाना जलसा जश्न-ए-रेख्ता पिछले दिनों भारी भीड़ के साथ संपन्न हुआ। एक भाषा को लेकर इतने सारे लोगों की मोहब्बत देखकर एकबारगी किसी को भी ताज्जुब हो सकता है। उर्दू की रगें झनझनाने का श्रेय <b>संजीव सराफ</b> को जाता है। उर्दू की मशहूर वेबसाइट रेख्ता डॉट ओआरजी इन्हीं की है और संजीव खुद भी उर्दू के जुनूनी पाठक हैं। पैदाइश नागपुर की है और पढ़ाई-लिखाई मुंबई, ग्वालियर और आईआईटी खड़गपुर की। फैमिली बिजनेस के बाद खुद का बिजनेस किया। पांच-छह मुल्कों में प्लांट्स हैं। सात साल पहले अपने जुनून के लिए सारे काम-धंधे से अलग हो गए। जुनून थी उर्दू, जिसकी महक पिछले दिनों दिल्ली सहित दुनिया भर में फिर से फैली। मैंने संजीव सराफ से बात की। पढ़िये प्रमुख अंश :</i><br />
<br />
<b>वेबसाइट रेख्ता की शुरूआत के बारे में बताएं?</b><br />
अपने रोज-रोज के काम से उकता गया था। शांति मिल ही नहीं रही थी। शौक कहिए या अपनी रूह के लिए कहिए, मैंने उर्दू में शायरी और दूसरी चीजें पढ़नी-लिखनी शुरू कीं। तब लगा कि मुझ जैसे करोड़ों होंगे जो उर्दू पढ़ना चाहते हैं पर एक्सेस नहीं कर सकते। इसीलिए रेख्ता शुरू की। शुरू में लगभग पचास-एक शायरों के कलाम देवनागरी और रोमन में पेश किए। पर साल भर में उसमें पर लग गए। आज उसमें साढ़े चार हजार शायरों के कलाम हैं, चालीस हजार गजलें हैं, आठ हजार नगमे हैं। ऑडियो-वीडियो, डिक्शनरी के अलावा और भी बहुत कुछ है।<br />
<br />
<b>आपने नायाब किताबों को डिजिटली सेफ करने का भी काम किया है। इसके बारे में बताएं।</b><br />
हम वेबसाइट के लिए कलाम खोज रहे थे, लेकिन उनकी अवेलिबिलिटी नहीं थी। कुछ किताबें लाइब्रेरी में थीं, कुछ लोगों के पर्सनल कलेक्शन में। मेरा मानना था कि धूल, दीमक, पानी या आग में ये सब बरबाद हो जाएंगी। तो हमने बड़े-छोटे पैमाने पर किताबों को स्कैन करके डिजिटली प्रिजर्व करना शुरू किया। फिर देखा कि किताबों की तादाद बहुत ज्यादा थी। तब हमारे पास सिर्फ एक मशीन थी। अब 17 शहरों में हमारी तीस मशीनें लगी हैं। अब तक हमने एक लाख किताबें डिजिटली प्रिजर्व की हैं।<br />
<br />
<b>ऐसी कितनी किताबें रहीं जो लगभग खत्म हो चुकी थीं, जिनकी दूसरी कॉपियां नहीं थीं? उनके बारे में बताइए।</b><br />
ये कहना तो बहुत मुश्किल है। किताबें कहां-कहां हैं, ये किसी को अंदाजा नहीं है। जखीरा इतना बड़ा है, कि कहना मुश्किल है कि कितनी छपीं और कितनी बची हुई हैं? लेकिन नायाब किताबें तो बहुत हैं। सन 1700 से 1800 में छपी किताबें हैं। सन 1860 के बाद मुंशी नवल किशोर ने काफी किताबें छापी थीं, उसमें से भी काफी हैं।<br />
<br />
<b>पिछले दिनों दिल्ली में हुए जश्न-ए-रेख्ता में तकरीबन दो लाख लोग आए। यह दिल्ली का सबसे बड़ा सांस्कृतिक कार्यक्रम हो चुका है। लेकिन बजरिए रेख्ता वेबसाइट, आप इस जुबान का ज्यादा बड़ा फैलाव देख पा रहे हैं। इसके बारे में बताइए।</b><br />
ये तो जबान का कमाल है साहब, हम तो सिर्फ अरेंजमेंट करते हैं। इतनी मीठी जुबान दुनिया में कोई है ही नहीं। इसके जरिए ढेरों आर्ट फॉर्म्स बने हैं। गजल सिंगिंग, सूफी सिंगिंग, कव्वाली हो या ड्रामा या दास्तानगोई, इतने आर्ट फॉर्म्स किसी और जुबान में जल्दी नहीं मिलते। दुनिया के डेढ़-पौने दो सौ मुल्कों से रेख्ता वेबसाइट के दो करोड़ यूनीक यूजर्स हैं। जहां-जहां हिंदुस्तान और पाकिस्तान के लोग बसे हैं, उनको रेख्ता के अलावा और कहीं भी इतना कंटेंट नहीं मिलता। 40 हजार लोगों ने तो उर्दू सीखने के लिए हमारी वेबसाइट जॉइन की है।<br />
<br />
<b>उर्दू क्या सिर्फ शायरी की जुबान है? शेर-ओ-शायरी के अलावा उर्दू को आप कहां देखते हैं?</b><br />
ये गलत इलजाम है। शायरी की भाषा तो है ही, लेकिन इतनी खूबसूरत जुबान है कि इसमें आप कोई भी गुफ्तगू करें, लगता है कि शायरी कर रहे हैं। ये इजहार का जरिया है। हमारे इंडिपेंडेंट मूवमेंट के पहले से ही इंकलाबी शायरी हुई है। इंकलाब-जिंदाबाद हसरत मोहानी ने लिखा। सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है, बिस्मिल अजीमाबादी ने लिखा। शायरी हर जगह इस्तेमाल हुई है। ये बोलचाल जुबान थी। ब्रिटिश ने थोड़ा पर्सनलाइज करके इसे मुसलमानों के लिए कर दिया और थोड़ा संस्कृटाइज करके हिंदुओं के लिए। फिर लिट्रेचर और बोलचाल की जुबान अलग भी होती है। जितना तंज-ओ-मजाह उर्दू में है, मेरे ख्याल से शायद अंग्रेजी के अलावा कहीं नहीं है। सोशल कॉन्टेस्ट में भी खूब लिखा गया है। मंटो की शॉर्ट स्टोरीज हों या इस्मत चुगताई की हों! ऑटोबायोग्राफीज हैं। वैसे ये बेहद गुस्सैल जुबान है, लेकिन ज्यादातर लोग शायरी या नगमे सुनते हैं तो उनके दिमाग में इसका इंप्रेशन वैसा ही है।<br />
<br />
<b>शायरी का पाठकों की उम्र से कुछ रिश्ता है? लोग किन शायरों को पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं?</b><br />
लोगों की पसंद होती है। पहले कहते थे कि जब तक कॉलेज में हो, साहिर लुधियानवी को पढ़ो, और बाद में भूल जाओ। साहिर को यों कि वो थोड़े रिवोल्यूशनरी प्रोग्रेसिव मूवमेंट के थे, थोड़ा इश्क भी किया था। लेकिन मैं मानता हूं कि उसी उम्र में रीडर को गालिब भी पसंद आएंगे और वह अर्थ भी अलग लेगा। वही शेर वह बाद में पढ़ेगा तो दूसरा ही मतलब समझ में आएगा। बात कैफियत की है जो बदलती रहती है और उसी हिसाब से अर्थ और शायर भी।<br />
<br />
<b>आप के पास उर्दू को देखने की तकनीकी नजर है। आप इस पर लगातार काम भी कर रहे हैं। इस नजर से बताइये कि उर्दू आज से दस साल पहले कहां थी, अब कहां है और आज से दस साल बाद इसे आप कहां देख रहे हैं?</b><br />
जब हमने शुरू किया था, तब सुनते थे कि उर्दू जुबान पस्त है, मर रही है या कोमा में आ गई है, वगैरह-वगैरह। लेकिन रेख्ता की सक्सेस के बाद अब आप देखेंगे कि इसी तर्ज पर सैकड़ों जश्न होने लगे हैं। सबका नाम जश्न से ही शुरू हो रहा है। दरअसल पब्लिक कॉन्शस हुई और जबरदस्त चेंज आया है। अब ये जुबान मेनस्ट्रीम में आ गई है। अब आपको ये सुनने में नहीं आएगा कि उर्दू मर रही है।<br />
<br />
<b>अगर हिंदी से उर्दू निकाल दें तो क्या बचेगा?</b><br />
सुबह-शाम मुंह से नहीं निकलेगा। प्रात:काल या संध्याकाल यूज करेंगे। या प्यार इश्क मोहब्बत न बोलकर प्रेम या फिर ऐसा ही कोई लफ्ज यूज करेंगे। हिंदी सिनेमा से निकाल के बताइए उर्दू, फिर क्या बचेगा? दूध में से चीनी निकाल दीजिए, फिर क्या बचा? कर लीजिए कोशिश। हमारी बोलचाल हिंदुस्तानी है। उर्दू-हिंदी का ग्रामर एक है। जो निकालना चाहें, निकाल दें, कर लें कोशिश। </div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-6783800550879779632019-12-20T23:41:00.002-06:002019-12-20T23:41:30.893-06:00एनआरसी करने के लिए सीएए लाए हैं: कन्नन गोपीनाथन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b><i>अनुच्छेद 370 हटाए जाने को लेकर आईएएस ऑफिसर कन्नन गोपीनाथन ने इस्तीफा दे दिया। उसके बाद से वे देश भर में घूम-घूमकर अभिव्यक्ति की आजादी पर अपनी बात कहते रहे। इसी बीच नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) आ गया। केंद्र के कई नेताओं ने इसे एनआरसी के साथ जोड़कर लागू करने की बात कही। अब कन्नन देश भर में घूम-घूमकर सीएए और एनआरसी पर जागरूकता सभाएं कर रहे हैं। मैंने उनसे लंबी बातचीत की। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश:</i></b><br />
<br />
<b>अपने बारे में बताइए।</b><br />
मैं 12वीं तक केरल में पढ़ा। कोट्टयम का रहने वाला हूं। इसके बाद मैंने रांची के बिरला इंस्टीट्यूट्स ऑफ टेक्नोलॉजी से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की। इसके बाद मैं नोएडा आ गया और नौकरी करने लगा। नोएडा में रहने के दौरान मैं सेक्टर 16 की झुग्गी में बच्चों को पढ़ाता था। कुछ दिन बाद में नोएडा के ही अट्टा मार्केट में भी बच्चों को पढ़ाने लगा। वहां का हाल देखकर समझ में आया कि सिस्टम के अंदर रहकर काम करना होगा- तब कुछ सही होगा, इसलिए मैंने आईएएस का एग्जाम पास किया। 2012 बैच में आईएएस बना, फिर मिजोरम में डीएम रहा, दादरा-नगर हवेली में भी कलेक्टर के साथ-साथ वहां के कई विभागों में कमिश्नर रहा। वहां डिस्कॉम कॉरपोरेशन था जो लगातार लॉस में जा रहा था, उसे एक-डेढ़ साल में प्रॉफिट में ले आया। जम्मू-कश्मीर से जब अनुच्छेद 370 हटाया गया तो वहां पर प्रशासन ने लोगों की आवाज दबाई। अब भी दबा ही रही है। समस्या 370 हटाने या लगाने से नहीं, बल्कि आवाज दबाने से उपजी। फिर मुझे लगा कि ये सही बात नहीं है और कम से कम मैं लोगों की आवाज दबाने के लिए तो आईएएस में नहीं आया। इसलिए मैंने रिजाइन कर दिया। हालांकि सरकार ने अभी तक मेरा इस्तीफा स्वीकार नहीं किया है।<br />
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-ZwiNbnfoXKk/Xf2wWMkwcbI/AAAAAAAAFdc/ID5lVpMRvxMnH4KG71cM81Ssv2LPmpNdwCLcBGAsYHQ/s1600/%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%2595.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="400" data-original-width="400" height="200" src="https://1.bp.blogspot.com/-ZwiNbnfoXKk/Xf2wWMkwcbI/AAAAAAAAFdc/ID5lVpMRvxMnH4KG71cM81Ssv2LPmpNdwCLcBGAsYHQ/s200/%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%2595.jpg" width="200" /></a><br />
<b>इस्तीफा देने के बाद आप क्या कर रहे हैं?</b><br />
रिजाइन करने के बाद मैंने ठीक से तय नहीं किया था कि किस ओर जाना था। इसी बीच कुछ जगहों पर टॉक के लिए बुलाया। इसी सिलसिले में एक बार चेन्नई गया। वहां एक टॉक में मैं 'बोलने की आजादी' विषय पर बोल रहा था कि बीच में एक लड़की ने मुझे टोक दिया। नॉर्थ ईस्ट की उस 23 साल की लड़की का कहना था कि बोलने की आजादी उसकी समझ से बाहर है क्योंकि अभी तो उसे यही डर है कि वो इस देश में रह पाएगी या नहीं। उसका दादा आईएमए में था और वो कोई सन 1951 का डॉक्यूमेंट खोज रही थी जो उसे मिल नहीं रहा था। उस शो में खड़ी होकर वह रो रही थी और मैं निरुत्तर था। मैंने खुद से यही पूछा तो पता चला कि पेपर्स तो मेरे पास भी पूरे नहीं। बीस साल से ज्यादा पुराने कागज तो मेरे पास भी नहीं है। फिर मैं मुंबई आया और दोस्तों से इस पर चर्चा की, मामले को ठीक से समझा। तब से मैं लोगों को बता रहा हूं कि कैब और एनआरसी किस तरह से हम सभी लोगों के लिए नुकसानदेह हैं।<br />
<br />
<b>अब तक आप कहां कहां जा चुके हैं और आगे का क्या प्रोग्राम है?</b><br />
आगे का तो मैंने नहीं सोचा, लेकिन बिहार के कई जिलों में जा चुका हूं। सीएए और एनआरसी का खौफ देखना हो तो बिहार का दौरा करिए। वहां इस वक्त आधार कार्ड सेंटरों में वही नोटबंदी वाली भीड़ दिख रही है। रात के दो-दो बजे तक आधार कार्ड सेंटरों में लाइन लगी है। लोग अपना आधार कार्ड दुरुस्त करा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में भी कई जिलों में मैं लोगों को इसके नुकसान बता चुका हूं। महाराष्ट्र और साउथ में तो लगातार बोल ही रहा हूं। इसके बारे में अभी बहुत जागरुकता फैलानी होगी।<br />
<br />
<b>लोगों की क्या प्रतिक्रिया है?</b><br />
लोग बहुत डरे हुए हैं। सबसे ज्यादा तो गरीब मुसलमान और दलित-आदिवासी डरे हुए हैं। वजह यह कि भारत में किसी के भी कागजात या तो पूरे नहीं हैं और अगर पूरे हैं भी तो उनमें कहीं न कहीं कोई गड़बड़ी छूटी हुई है। यही वजह है कि बिहार में आधी-आधी रात तक लाइनें लगी हैं। लोगों को लगता है कि आधार करेक्शन से काम हो जाएगा। इससे पता चलता है कि लोगों में कितना ज्यादा डर का माहौल है। वॉट्सएप के मुस्लिम ग्रुप में इस वक्त सिर्फ एक ही चर्चा ट्रेंड में है- डॉक्यमेंट्स कैसे पूरे करें? उनको पता है कि कागजात नहीं होंगे तो ये सीधे डिटेंशन सेंटर भेजेंगे। सबने देखा कि पिछले दिनों कैसे केंद्र सरकार ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को डिटेंशन सेंटर बनाने का लेटर भेजा है।<br />
<br />
<b>सीएए और एनआरसी को अलग-अलग देखें या एक साथ?</b><br />
सीएए इसलिए आया क्योंकि एनआरसी करना चाहते हैं। वरना सीएए नहीं आता। असम में एनआरसी हुआ तो सबसे ज्यादा हिंदू ही डिटेंशन सेंटर पहुंच गए। कागज तो हिंदुओं के पास भी नहीं हैं। ये चीज राजनीतिक रूप से इनके खिलाफ जाती है। हालांकि सरकार उनको वापस लेने के लिए वहां नोटिफिकेशन जारी कर रही थी, लेकिन अब वह इसके लिए कैब ले आई है। एनआरसी और सीएए- दोनों आपस में जुड़े हुए हैं, सीएए का अकेले कोई खास मतलब नहीं है।<br />
<br />
<b>किसे किसे यह प्रभावित कर रहा है और कैसे?</b><br />
अगर आपके पास करेक्ट डॉक्यूमेंट्स नहीं है तो यह आपको भी प्रभावित करेगा। मुझे लगता है कि सरकार नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर के जरिए इसकी शुरुआत करेगी। सरकारी आदमी घर आएगा और हमारे कागजात चेक करेगा। वहां पर अगर कोई कमी हुई तो असम की ही तरह हमारे नाम के आगे संदिग्ध का निशान लग जाएगा और फिर हमें यह साबित करना होगा कि हम यहां के नागरिक हैं या नहीं हैं। पहले यह सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह साबित करे, लेकिन अब यह उल्टा हो गया है। अब हम सबको साबित करना होगा कि हम भारत के नागरिक हैं या नहीं। कागजात तो बहुत कम लोगों के पूरे हैं, ऐसे में सीन साफ है। जो सबसे गरीब हैं, वो इसे भुगतेंगे। जो बाहर काम कर रहे हैं, यानी जितने कामगार हैं, उन्हें इससे दिक्कत होगी। हर साल देश का बड़ा हिस्सा बाढ़ और सूखे से प्रभावित होता है, वहां विस्थापन नियमित चलता है, वो भुगतेंगे। आदिवासियों के पास तो कोई कागज ही नहीं होता।<br />
<br />
<b>डॉक्यूमेंट्स बनवाने में भ्रष्टाचार सबसे आम शिकायत है। क्या इससे भ्रष्टाचार भी बढ़ सकता है?</b><br />
बिलकुल। अब जिसका शासन-सत्ता में कनेक्शन नहीं है, जिनका भ्रष्टाचार से कनेक्शन नहीं है, वो इससे बहुत प्रभावित हो रहे हैं। दिल्ली में ऐसे हजारों लोग आपको मिल जाएंगे जो सड़क पर रहते हैं, वो कहां जाएंगे। फिर जनता को तो कैसे भी सर्वाइव करना है, वह कैसे भी करके कोशिश करेगी।<br />
<br />
<b>आईएएस लॉबी में इसे लेकर क्या कुछ प्रतिक्रिया है?</b><br />
मुझे आईएएस लॉबी इसे लेकर क्या कर रही है, ये नहीं पता। हम सब इंडीविजुअल्स हैं। ऐसे तो कई सारे हैं जिन्हें लगता है कि इस मुद्दे को अभी छोड़ देना चाहिए। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसके लिए कोई लॉबी है। अधिकतर तो यही सोचते हैं कि मनपसंद पोस्ट मिल जाए या मनपसंद जगह ट्रांसफर हो जाए। मुझे तो लगता है कि जिस संविधान पर हाथ रखकर इन्होंने शपथ ली है, आधे भी उसका अर्थ ठीक से नहीं जानते होंगे।<br />
<br />
<b>अब तो बिल पास हो गया तो अब क्या करें?</b><br />
बिल तो शुरुआत है। जब संसद फेल होती है तो जनता शुरू होती है। हमें संविधान ने यह अधिकार दिया है कि हम शांतिपूर्वक सभा कर सकते हैं और प्रदर्शन कर सकते हैं। हम यह अधिकार भूल चुके हैं। इसे हमें इस्तेमाल करना होगा, अब नहीं करेंगे तो कब करेंगे? सरकार हमारी नागरिकता पर सवाल उठा रही है तो हम सरकार ने अब नहीं पूछेंगे तो कब पूछेंगे? नोटबंदी में हमारा पैसा तीन महीने बाद वापस किया, ऐसे ही हमारी नागरिकता ले ली जा रही है जो कब वापस होगी, नहीं पता। </div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7278137563363677271.post-89989856282725114122019-09-28T03:53:00.000-05:002019-09-28T03:53:14.683-05:00मुसलमां हैं यूं बस खतावार हैं हम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b><i>व्हाटसएप्प पर एक बुजुर्ग इस लिखाई को सुनाते दिखे। पता किया तो सन 2017 में इनकी पहली रिकॉर्डिंग मिली, लेकिन नाम नहीं मिला। कुछ और पता किया तो पता चला कि शायद राहत इंदौरी साहब ने इसे लिखा हो सकता है, लेकिन कहीं भी इसकी स्क्रिप्ट नहीं मिली, इसलिए यह भी कन्फर्म नहीं कि इसे राहत इंदौरी ने ही लिखा है। बहरहाल, जिसने भी लिखा है, कमाल का लिखा है, कहीं गलती हो तो पहले से ही माफी दरकार है। आप भी मुलायजा फरमाएं, जब तक मोदी जी हैं, तब तक मौजूं है- </i></b><br />
<br />
<b>हु</b>कूमत के दिल से वफादार हैं हम,<br />
इशारों पे चलने को तैयार हैं,<br />
मुसीबत में फिर भी गिरफ्तार हैं हम,<br />
मुसलमां हैं यूं बस खतावार हैं हम।<br />
<br />
सजा मिल रही है अदावत से पहले,<br />
समझते हैं बागी बगावत से पहले,<br />
मुसलमां चीन और जापान में हैं,<br />
यही कौम रूस और यूनान में है,<br />
यही लोग यूरोप और सूडान में हैं,<br />
जहां भी हैं ये अमन ओ अमान में हैं,<br />
हर एक मुल्क में तो वफादार हैं हम,<br />
मगर हिंद में सिर्फ गद्दार हैं हम।<br />
<br />
हमें रोज धमकी भी दी जा रही है,<br />
घरों में तलाशी भी ली जा रही है,<br />
बिला वजह सख्ती भी की जा रही है,<br />
अदालत यहां से उठी जा रही है।<br />
<br />
जो मासूम थे वो तो मुजरिम बने हैं,<br />
जो बदफितना थे आज हाकिम बने हैं,<br />
कौन सिर में हमें ये रहने न देंगे,<br />
हमें दर्द अपना ये कहने न देंगे,<br />
गम ओ रंज सहिये तो सहने न देंगे,<br />
सितम है कि आंसू भी बहने न देंगे।<br />
<br />
जुंबा बंदियां हैं नजरबंदियां हैं,<br />
हमारे लिए ही सारी पाबंदियां हैं,<br />
अब उर्दू जुबां भी मिटानी पड़ेगी,<br />
कि बच्चों को हिंदी पढ़ानी पड़ेगी,<br />
यहां सबको चंदी रखानी पड़ेगी,<br />
रहोगे तो शुद्धि करानी पड़ेगी।<br />
<br />
वफादार होने का मेयार ये है,<br />
यकीं फिर भी आ जाए दुश्वार ये है,<br />
तकाजा है अपनी जमाअत को छोड़ो,<br />
मुसलमानों की तुम कयादत को छोड़ो,<br />
नहीं तो चले जाओ भारत को छोड़ो,<br />
यही नजरिया है यही जेहनियत है,<br />
इसी का यहां नाम जम्हूरियत है।<br />
<br />
गिराते हो तुम मस्जिदों को गिराओ,<br />
मिटाते हो तुम मकबरों को मिटाओ,<br />
बहाते हो अगर खूं ये नाहक बहाओ,<br />
मगर ये समझकर जरा जुल्म ढहाओ,<br />
जालिम का लबरेज जब जाम होगा,<br />
तो हिटलर और टीटो सा अंजाम होगा।<br />
<br />
हमें मुल्क से है भगाने की ख्वाहिश,<br />
हमें दहर से है मिटाने की ख्वाहिश,<br />
तो सुन लें जिन्हें है मिटाने की ख्वाहिश,<br />
तो हमको भी है सर कटाने की ख्वाहिश।<br />
<br />
कटेगा सर तो ये मजमून होगा,<br />
हिमालय से शिलांग तक खून होगा,<br />
बिहार और यूपी में हम कुछ न बोले,<br />
हुआ जुल्म देहली में हम कुछ न बोले,<br />
किया कत्ल गाड़ी में हम कुछ न बोले,<br />
घरों में घुसाए तो हम कुछ न बोले।<br />
<br />
जालिम अगर यूं ही होते रहेंगे,<br />
तो क्या अहले ईमां सोते रहेंगे?<br />
अलग होके बरतानिया देखता है,<br />
हरएक कौम का पेशवा देखता है,<br />
जमाना हरेक माजरा देखता है,<br />
कोई देखे न देखे खुदा देखता है,<br />
करेगा जो जुल्म यूं आजाद होकर,<br />
खुद ही मिट जाएगा वो बरबाद होकर।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-sK650-ZCha4/XY8fXUTM3oI/AAAAAAAAFOc/PlTLcJZUmVQE2VhIpCuvCUoeDWDTGn3KgCLcBGAsYHQ/s1600/Muslim.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="230" data-original-width="410" height="179" src="https://1.bp.blogspot.com/-sK650-ZCha4/XY8fXUTM3oI/AAAAAAAAFOc/PlTLcJZUmVQE2VhIpCuvCUoeDWDTGn3KgCLcBGAsYHQ/s320/Muslim.jpg" width="320" /></a></div>
<br /></div>
Unknownnoreply@blogger.com0