Tuesday, March 11, 2008

ये कोई ज्यादा बड़ी कहानी नही है...

ये कोई ज्यादा बड़ी कहानी नही है। मेरठ का एक इलाका है फिरोजनगर। ज्यादा नही, पिछले दो तीन दशक से यह पीने का पानी गन्दा आ रहा है। यहा रहने वाले बच्चों मे से एक दो बच्चा हर दूसरे तीसरे महीने मर जाता है। कारण, डायरिया, उलटी, दस्त। इन्ही की कुछ फोटो हैं।

इसका नाम इयत्ता है। फिरोज नगर मे ही रहती है। हो सकता है कुछ दिन बाद ये भी मर जाय ।

ये मिस्बाह है। दो महीने पहले इसकी बहन डायरिया से मर गई। अब शायद इसकी बारी है। ये भी फिरोज नगर मे रहती है।
ये भूरा है. इसकी उम्र १६ साल है. पैदा होने के बाद से ही गन्दा पानी पीने की वजह से इसका विकास ही नही हो पाया.
और भी फोटो हैं, यहाँ क्लिक कीजिये- photobajaar

Sunday, March 9, 2008

बेल्कुल ठीयिक

बेल्कुल ठीयिक ... असल मे है तो वैसे ये बिल्कुल ठीक लेकिन मेरठ मे आजकल ये लफ्ज एक बड़े तबके की जुबान पर कुछ ऐसे ही आ रहा है। बिल्कुल ठीक को ये तबका बेल्कुल ठीयिक बोल रहा है। हो सकता है की टाइपिंग मे वो बात ना आ रही हो, लेकिन बिल्कुल ठीक को कुछ उसी तरह से बोला जा रहा है। दरअसल इसके पीछे की जो कहानी है, लगता है प्रकाश झा की कोई फ़िल्म चल रही है। मेरठ के एस एस पी हैं ज्योति नारायण। बिहार से हैं, और उनके बोलने की टोन भी बिहारी ही है। यहाँ की कमाऊ और नॉन कमाऊ, दोनों तरह के रिपोर्टरों से एक बात सुनने को मिलती है की एस एस पी साहब बड़े इमानदार हैं। हो सकता है की वो ऐसे ही हो, लेकिन मुझे नही लगता की वो ठीक वैसे ही होनेगे जैसा की पुलिस वाले या फ़िर रिपोर्टर्स कहते हैं। ऐसा होना सम्भव ही नही है। आप नही खायेंगे तो आप बाहर कर दिए जायेंगे। ऐसा ही सिस्टम है। बहरहाल ये जो बेल्कुल ठीयिक है, ये उनका तकिया कलाम है। हफ्ते मे दो तीन दिन मुझे भी क्राइम देखना होता है तो एस एस पी से बात करनी पड़ती है। मुझसे भी वो यही तकिया कलाम बोला करते हैं। अब इन कप्तान साहब के तकिया कलाम की ये हालत है की पुलिस डिपार्टमेंट के बाकी लोगों मे जो लग हैं, वेस्ट यू पी के हैं । भाषा उनकी उसी तरह है जैसी की वेस्ट यू पी की होती है। लेकिन सब के सब आजकल बिहारी मे बात कर रहे हैं। कल रात मैं अपने क्राइम रिपोर्टर के साथ आबू लेन जा रहा था। रस्ते मे एस एस पी के घर के सामने उन्ही के एक हवलदार मिल गए। कोई उभास जैसा नाम था उनका। लगे बिहारी मे बात करने। आमतौर से फिल्म मे बिहारी स्टाइल की बोली का मजाक उड़ाया जाता है। लेकिन यहाँ तो बात कुछ और ही थी। हवलदार साहब बिहारी टोन मे बात करके ख़ुद को एस एस पी टाइप का कोई जीव मान रहे थे। ये मजाक नही था। ये था एक मोडल और उसके पीछे का असर। बात फ़िर से वही से शुरू हुई के एस एस पी इमानदार हैं और कुछ एक पुलिस वालों के लिए रोल मोडल भी । लेकिन फ़िर भी मैं कहता हूँ की एस एस पी इमानदार नही है, बेईमान भी नही । बस यू ही काट रहा है अपनी जिंदगी को। शायद ऐसी हो किसी बात ने हमारे क्राइम रिपोर्टर सचिन त्यागी पर कोई असर किया होगा और वो बुरी तरह से उनका फैन बन गया । लेकिन बात तो फ़िर से वही अटक जाती है ... ठाकरे परिवार बिहार और बिहारियों के पीछे हाथ पैर धोकर और नहाकर पडा हुआ है। एक बार काफी हाउस पर भूपेन ने लिखा था ....
भले ही अघाये हुए आलोचक
इस भूमिका के लिए
कोई पुरस्कार दे दे
पर वो शर्म कहां जायेगी
जो अब चेहरे पर नहीं दिखती

Friday, March 7, 2008

बिहार को नरक मीडिया ने बनाया

आज सुबह अखबारों की सुर्खी बने बाल ठाकरे के एक बयान पर नजर गई। लिखा था कि सामना मे छपे उनके सम्पादकीय मे उन्होंने लिखा कि बिहार को नरक से बदतर बना दिया गया है। मैं बिहारी नही। यू पी का हूँ। कभी सोचा नही कि बिहारी क्या और यू पी क्या..या फ़िर कुछ और ही क्या और क्यों। लोग अच्छे मिले और मिलते गए। बहरहाल, मुझे लगता है की बिहार को नरक बाल ठाकरे या नितीश या फ़िर लालू ने उतना बुरा नही बनाया जितना की मीडिया ने। यू पी मे इस वक्त मैं मेरठ मे काम कर रहा हूँ। हर रोज़ यहाँ पर क्राइम की दो बड़ी खबरें होती हैं। अपहरण , लूट, हत्या, डकैती तो यहा के लिए सामान्य बात है। एन सी आर बी की रिपोर्ट मे मुम्बई मे भी क्राइम कुछ कम नही दिखाया जाता। और ये क्राइम ना तो मुम्बई मे रह रहे बिहारी करते हैं और ना ही मेरठ मे रह रहे बिहारी। ये बात अलग है की मीडिया बिहार मे जरा सा भी कुछ होता है तो उसे कुछ ज्यादा ही बड़ा बनाकर दिखाता है। एक तरह से ट्रेंड चल पड़ा है ये कहने का की अगर ये बिहार मे हुआ होगा तो वहा तो ये सब चलता ही रहता है। सड़कें जैसी बिहार मे हैं वैसी दिल्ली मे भी हैं, मुम्बई मे भी हैं, उसी तरह से टूटी फूटी। सरकारी अस्पतालों की बिहार मे जो हालत है, यू पी मे उससे भी बुरी ही है, मुम्बई के सरकारी अस्पतालों मे शायद डॉक्टर एक मरीज को ज्यादा टाइम दे पाते होंगे...मुझे तो नही लगता। हाँ, मुझे ये जरूर लगता है की मिडिया का काम छिछला होता जा रहा है। या फ़िर आत्मकेंद्रित। आत्म मुग्ध । ये जो कर रहे हैं, सनसनी फैला रहे हैं, आज से नही, पिछले दस सालों से, अब उसका खामियाजा आम आदमी को भुगतना पड़ रहा है। और ये आक्रोश दिख भी जाता है। निठारी काण्ड मे तो लोकल मिडिया का एक पत्रकार मेरे सामने ही पिटा। पहाड़गंज बोम्ब ब्लास्ट मे भी एक बड़े चैनल का पर्त्रकार मे सामने पिटा। और लोग पिटते ही रहते हैं। अभी मेरठ मे भी कुछ एक पत्रकारों की पिटाई हुई थी। कारण जो भी रहे हों। बहरहाल, इस समय जो बिहारियों पर राजनीती हो रही है, मुझे लगता है कि ये सब मीडिया की नासमझी का ही परिणाम है।