Saturday, December 15, 2007

यहाँ कौन रहता है...

पिछले महीने वर्ल्ड एड्स डे मनाया जा रहा था। मैं और मेरे साथी विपिन धनकड़ एक स्वयं सेवी संस्था मे एड्स रोगियों से मिलने और उनका हाल चाल लेने के लिए पहुचे। सबसे पहले आगरा से आये एक कपल के पास गए। उन लोगो की हिम्मत और जीने की आदमी अभिलाषा देख मुझे ये बिल्कुल नही लगा कि एड्स कोई ऐसी बहुत बड़ी बीमारी है जो आदमी को एकदम तोड़ देती है। पति घडी बनाने का काम करता था और हाई स्कूल पास था जबकि पत्नी एम् ए थी। वो भी समाजशास्त्र मे । उन लोगों ने बताया कि आगरा के जिस गाव से वो लोग आये हैं, काफी बड़ी संख्या मे उधर लोग एड्स के मरीज बन रहे हैं। मैंने पूछा कि क्या उधर सरकारी डिस्पेंसरी नही है या फिर अच्छे डॉक्टर नही है? उनका जवाब था कि एक तो डिस्पेंसरी कम है और दूसरे झोला छाप डॉक्टर वहाँ ज्यादा है । वो लोग बिना उबाले ही इंजेक्शन लगा देते हैं। बात आसान थी और पकड़ मे आ गई। हाँ, वहाँ दो चीज़ ऐसी पता चली जिसे जानकर मैं हिल गया । पहला तो ये कि उन लोगों ने अपनी बीमारी के बारे मे घर पर नही बताया था। दोनो की दो बेटियाँ थीं, पहली १२ वीं मे पढ़ती है और दूसरी आठवीं मे । (मैंने सोचा कि जब इन्हें पता चलेगा तो क्या होगा घर मे , कुछ भी हो, हम कितना भी कह लें, हमारे घर मे एड्स जैसी बिमारी हिला तो देती ही है ) बहरहाल दूसरी बात ये थी कि उसकी पत्नी समाजसेवा का काम करती थी । बच्चों को पढाती थी, नगरनिगम से लड़कर मोहल्ले की सफाई भी करवाती थी।
ये सब नोट करके हमलोग वहाँ से निकले। बाहर हमे उसी मोहल्ले के एक अधेड़ उम्र के शख्स मिले। उम मुझसे पूछ रहे थे कि यहाँ क्या होता है। उनकी नज़रों मे कुछ शक सा झलक रहा था। उनने कहा कि मुझे लगता है कि यहाँ जरूर कोई गलत काम होता है। मैंने उन्हें बताया, यहाँ कोई गलत काम नही होता है। लेकिन वो मानने के लिए तैयार ही नही हो रहे थे। मैं और मेरे साथी उन्हें लगातार समझा ही रहे थे कि ये लोग बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं, कोई गलत काम नही। लेकिन वो थे कि समझें ही न । वो कह रहे थे कि इन लोगों को इस मोहल्ले से निकाल दिया जाय । मुझे लगी गुस्सा, मैंने उनसे कहा कि ऐसा है, ये लोग जो काम कर रहे हैं , ठीक कर रहे हैं। और अगर आपको कोई तकलीफ हो तो जाइए, जो आपसे बन पड़ता है, कर लीजिये। हम भी देखते हैं कि आप क्या करेंगे। मुझे गुस्सा इसलिए आया क्योंकि इन्ही लोगों को पहले भी तीन बार इसी मेरठ मे इन्ही कारणों से अपना आशियाना छोड़ना पड़ा था। बहरहाल तब तक मेडिकल कोंलेज मे रैगिंग की खबर मिली और हम लोग वहाँ भागे।
रास्ते भर मैं सोचता रहा, क्यों ये लोग ऐसा करते हैं। क्यों आदमी ही आदमी की जान का दुश्मन बन जाता है....और भी बहुत सारे सवाल....क्यों क्यों क्यों!!!

Wednesday, December 12, 2007

ये थी नीतू और ये रही उसकी बच्ची




मेरी बीवी को बचा लो, वो मर जायेगी

बात कल शाम की है, लेकिन लगता है कि जैसे अभी ये सब हो रहा हो। कल दोपहर तकरीबन तीन बजे मैं मेरठ के मेडिकल कालेज से निकल रहा था, मेरे मोबाइल पर एक काल आई। ये कोई राजू था जो बता रहा था कि उसकी बीवी काफी बीमार है, उसे बच्चा होने वाला है और अस्पताल वालों ने उसे मेडिकल कालेज ले जाने के लिए कहा है। बात सीधी थी, अस्पताल वालों ने उस केस को मेडिकल कालेज रेफर किया था। सो मैंने उससे कहा कि १०१ नंबर पर फोन करे और एम्बुलेंस मँगाए। वो फोन करेगा और उसे एम्बुलेंस मिल जायेगी, ये सोच कर मैं घर कि तरफ खाना खाने चल दिया। लेकिन बीच रस्ते मे ही फिर से उसका फोन आ गया कि कोई एम्बुलेंस नही मिली और उसकी बीवी मरने वाली है। इसके बाद वो फोन पर ही रोने लगा और कहने लगा कि मेरी बीवी को बचा लो, वो मर जायेगी।
मैं पंहुचा अस्पताल
मैंने अपनी गाड़ी के टॉप गियर लगाए और बहुत तेजी से अस्पताल पंहुचा। ये सरकारी महिला अस्पताल था। वहाँ पहुच कर मैंने जो नज़ारा देखा, मेरे तो होश ही गायब हो गए। भयंकर लेबर पेन मे वो औरत अस्पताल के दरवाज़े के बाहर तड़प रही थी। मैंने तुरंत एक प्राइवेट नर्सिंग होम मे फोन किया और उनसे एम्बुलेंस भेजने को कहा। उन लोगो ने कहा कि वो एम्बुलेंस भेज रहे हैं। इसके बाद शुरू हुई मामले की तहकीकात। ये लोग मलियाना नाम के गाँव से आये थे । पति का नाम राजू था और पत्नी नीतू। पहले नीतू को तीन बच्चे हुए थे जिसमे दो मर गए थे। अस्पताल वालों का कहना था कि बच्चा प्री मेच्योर है और अस्पताल मे नर्सरी नही है, इसलिए वो लोग रिस्क नही लेंगे। लेकिन इस समय तक नीतू की हालत इतनी बिगड़ चुकी थी कि वही पर ओपरेशन करने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नही था। खैर, ऑपरेशन से पहले कागजी कारवाही को लेकर भी डॉक्टरों से काफी झिकझिक हुई। राम राम कहकर ऑपरेशन शुरू हुआ और जैसे ही बच्चा पेट से बाहर निकला, उस प्राइवेट अस्पताल के एम्बुलेंस वाले उसे लेकर इन्क्युबेटर मे रखने के लिए भागे। अब अस्पताल वालों के मुह पर कालिख पुट गयी। जच्चा और बच्चा , जिसे वो कह रहे थे कि नही बचेंगे, दोनो को बचा लिया गया था। लेकिन कब तक ऐसे हर मरीज को मैंने मिलता रहूंगा.... कब तक, रोज़ ही ये लोग कोई न कोई खेल करते हैं।