Tuesday, March 3, 2020

मिशेल बैचले : शुक्र मनाइये कि वे खुद सुप्रीम कोर्ट आई हैं

बात तनिक पुरानी है। सितंबर सन 1973 की। साउथ अमेरिकी देश चिली में अमेरिका ने सेना के एक गुट से विद्रोह करा दिया। इनका इरादा तख्तापलट करके सत्ता हथियाने का था। उस वक्त चिली में लोक कल्याणकारी जनवादी सरकार बनी थी। इस सरकार में चिली की तकरीबन आधा दर्जन कम्यूनिस्ट पार्टियां शामिल थीं। चिली में एक अरसे से ठीक वैसे ही लोगों का शासन था, जैसा कि हम भारत में कांग्रेस, बीजेपी और बिना कोई विचारधारा वाली क्षेत्रीय पार्टियों के शासन में देखते हैं। लब्बोलुआब यह कि बस लूटो खाओ और कोई बोले तो मोदी और शाह बन जाओ। इन लोगों को जनवादियों का शासन बर्दाश्त नहीं हो रहा था। एक वजह यह भी थी कि राष्ट्रपति सल्वादोर अलांदे की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही थी।

उधर सेना और तथाकथित डेमोक्रेट्स की नेतागिरी सेना का ही एक अफसर आगस्तो पिनोचेट कर रहा था। उसने सल्वादोर की रातों-रात हत्या करा दी। इसके लिए उसे अमेरिका ने पैसा दिया था। तब रिचर्ड निक्सन अमेरिका के राष्ट्रपति थे। जानकार बताते हैं कि जब सागा को मारा जा रहा था तो उस कमरे में आगस्तो भी मौजूद था। उसी रात चिली भर में हजारों लोगों को जेल में ठूंस दिया गया, दर्जनों लोगों को गोली मार दी गई, जिनमें चिली एयरफोर्स के ब्रिगेडियर अल्बर्तो आतुरो मिगुएल बैचले, उनकी आर्कियोलॉजिस्ट पत्नी एंजेला जेरिया गोम्ज और बेटी मिशेल बैचले भी थी। ब्रिगेडियर ने पिनोचेट के शासन का विरोध किया था। ऐवज में पिनोचेट ने ब्रिगेडियर अल्बर्तो बैचले को तब तक यातना दी, जब तक की उनकी मौत नहीं हो गई। यातना का यह दौर कई महीनों तक चला।

ब्रिगेडियर की बेटी मिशेल ने मुल्क में तानाशाही को हम भारतीयों से भी अधिक नजदीक से देखा। पिनोचेट ने चिली के 29वें राष्ट्रपति/तानाशाह के रूप में कुर्सी हथियाई और उसके बाद वहां की सरकारी संस्थाएं बेच दीं, बैंक बेच दिए, बाजार बेच दिए, व्यापारी बेच दिया, मतलब, जो कुछ भी उसके दिमाग में आया, सब बेच दिया और जो उसके दिमाग में अमेरिका ने भरा, वह भी बेच दिया। पिनोचेट की यह बेखौफ बिकवाली लगातार सत्रह साल तक चलती रही, शुक्र मनाइये कि अभी बीजेपी वालों को छह साल ही हुए हैं। पिनोचेट ने एक कमेटी बनाई और उससे चिली का संविधान पूरा बदलवा दिया। सन 85 आते-आते चिली में वही हाल हो गया, जैसा कि अभी नोटबंदी के बाद शुरू हुआ है।

पिनोचेट चिली पर सन 90 तक शासन करता रहा। जब रिटायर हुआ तो सेनाध्यक्ष बन बैठा और जनता पर वैसा ही अत्याचार कराता रहा, जैसा इन दिनों मोदी जी की तरह तरह की सेनाएं कर रही हैं, बल्कि इससे भी बुरा। सन 98 तक वो जबरदस्ती सेनाध्यक्ष बना रहा और जब रिटायर हुआ तो बिना चुनाव लड़े अपने आप सांसद बन बैठा। वैसे वह मरने तक संसद का सदस्य बना रहे, इसके लिए उसने तरकीब की हुई थी। जब वह संविधान बदलवा रहा था, तभी उसने अपने लिए संसद का सदस्य बने रहने की बात उसमें डलवा ली थी। मतलब जब तक इसने जिंदा रहना था, तब तक जुल्म करते रहना था, इसकी इसने पूरी व्यवस्था करा ली थी। मोदी जी चाहें तो पिनोचेट से भी सीख ले सकते हैं, आखिर डोलांड ट्रंप उनको भी बहुत-बहुत मानते हैं।

सांसद बनने के बाद एक बार पिनोचेट लंदन गया इलाज कराने। वहां पर उसे मानवाधिकारों के उल्लंघन के सैकड़ों मामलों के आरोप में इंटरपोल ने गिरफ्तार कर लिया। दो साल तक तो पिनोचेट वहां बंद रहा। सन 2000 में सेहत खराब होने का बहाना बनाकर वह वापस चिली लौटा। चार साल तक चिली में ही रहा, कहीं बाहर नहीं निकला। चार साल बाद चिली के ही एक जज जॉन गज्मॅन तापिया ने फैसला दिया कि पिनोचेट की हेल्थ टनाटन है, इन पर मुकदमा चलाया जा सकता है। इस फैसले के दो साल बाद यानी 2006 में पिनोचेट मर गया। जब वह मरा, उसके ऊपर तीन सौ क्रिमिनल चार्जेस पेंडिंग थे।

बहरहाल, एक बार फिर से लौटते हैं मिशेल बैचले पर। ब्रिगेडियर की बेटी चिली की पहली चुनी हुई समाजवादी राष्ट्रपति बनी, और बेहद लोकप्रिय भी। 2006 में एक बार तो 2014 में एक बार। मिशेल चिली की पहली महिला राष्ट्रपति भी हैं। और ब्रिगेडियर की इस बेटी की चिली में लोकप्रियता की सिर्फ और सिर्फ एक ही वजह है- मानवाधिकारों के प्रति उनका डेवोशन। जब वे चिली की राष्ट्रपति नहीं होती हैं तो दुनिया भर में घूम-घूमकर मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करती हैं। राष्ट्रपति बनने से पहले भी वे मानवाधिकारों के लिए काम करती थीं, अब तो खैर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की हाई कमिश्नर हैं ही।

इन्हीं मिशेल ने ही सुप्रीम कोर्ट में नागरिकता संशोधन अधिनियम के लिए याचिका दाखिल की है। भारत को और सुप्रीम कोर्ट को इनका आभारी होना चाहिए कि मिशेल ने सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया में याचिका दाखिल की है। वरना मिशेल चाहें तो जेनेवा से ही मोदी जी, शाह जी और इनकी सेना के खिलाफ इतने वारंट तो जारी कर ही सकती हैं, जितने अभी दिल्ली में लोग मर गए। और यकीन मानिए, ये सारे वारंट उन सारे देशों में तामील होंगे, जिन्होंने यूएन ह्यूमन राइट कमीशन के चार्टर पर साइन किए हैं।

तो हे विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मिस्टर रवीश कुमार, जिस तरह का आपका बयान है कि संसद भारत में कुछ भी कर सकती है तो भारत के बाहर रहने वाले लोग भी यही कुछ भी भारत के तानाशाहों के साथ भी कर सकते हैं। और बोबडे साहब, आप तो अंतराष्ट्रीय कानूनों के प्रकांड पंडित हैं, आप तो साफ साफ जानते हैं कि मिशेल ने सीन में एंट्री ले ली है तो अब मामला कहां तक पहुंच चुका है। क्या इससे बड़ी कोई और बेइज्जती हमारे लिए होगी कि पीएम और होम मिनिस्टर के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन के वारंट इश्यू हो जाएं? 

Sunday, March 1, 2020

कौन मरा है? किसका बेटा?

कौन मरा है
किसका बेटा
अभी यहीं था
पलंग पे लेटा
किसने थी
आवाज लगाई
किसने शामत
नियति बनाई
किसने मारा
पहला पत्थर
किसने ली
पहली अंगड़ाई
जांच करो भाई
जांच करो
किसने पहले
आग लगाई
मगर सुनो तो
हमको दे दो
बेटे की जो
लाश है आई
दे दो दे दो
जहां छुपाई
रोक के रखी
हमने रुलाई
रोना है अब
खून पर अपने
रोना है
सब जून पर अपने
रोना है
पी पीकर पानी
रोना है
जो छंटी जवानी
रोना है
क्यों ईंट उठाई
रोना है
अब लाश जलाई
रोना है
पहले नहीं सोचा
रोना है
लो भीगा अंगोछा
रोना है
कि तब क्यों बोले
रोना है
कि आ अब रो लें
रोना है
हर इक नारों पर
रोना है
दंगों के मारों पर
रोना है
क्यों आग लगाई
रोना है
क्यों बुझ ना पाई
रोना है
ये फेर जो आया
रोना है
सब घेर के आया
रोना है
अब उन आवाजों पर
रोना है
टूटे साजों पर
रोना है
सब रूठ चुका है
रोना है
सब टूट चुका है
होता सलामत
बच्चा अपना
पूरा करता
अपना सपना
मार पीट
दंगा फसाद में
बच्चा मरा
और मर गया सपना।

Friday, February 21, 2020

हमारा गुमान हमारा डर बन गया है

सुप्रीम कोर्ट की ओर से शाहीन बाग का रास्ता खुलवाने के लिए पहुंचे दो वार्ताकारों में से एक साधना रामचंद्रन ने यह पूछा कि क्या आप लोगों को सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा नहीं है तो वहां मौजूद लगभग सभी लोग एक स्वर में यही बोले कि भरोसा है। लेकिन मेरे पास रिकॉर्डेड दूसरा सुर, जो पहले वाले से थोड़ा मध्यम था, और जो वार्ताकारों तक नहीं पहुंचा, वह यही था कि भरोसा नहीं है। अदालत पर 'भरोसा है भी और नहीं भी' की जो भावना है, यह सिर्फ शाहीन बाग तक ही नहीं है। पिछले कुछ सालों में हमारी अदालतें, खासतौर पर हमारे सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से कायदे कानून का तिया पांचा किया है, भरोसा रहना और ऐन उसी वक्त भरोसे के न रहने को क्या मानें? एक सामान्य बात या एक नियति, जो संसद से लेकर अदालत की उस गोल गुंबद वाली इमारत में बैठे लोग अपने-अपने हिसाब से तय कर रहे हैं? जस्टिस दीपक मिश्र से लेकर जस्टिस रंजन गोगोई और अब जस्टिस बोबडे जो कुछ और जैसा कुछ भी कर रहे हैं, उसका खामियाजा कम से कम यह तीनों तो नहीं भुगतेंगे। उसका खामियाजा सिर्फ और सिर्फ हमारी न्याय व्यवस्था भुगतेगी। आज अगर शाहीन बाग सुप्रीम कोर्ट के वार्ताकारों को सुनने को तैयार नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट को खुद सोचना होगा कि आखिरी बार उसने मुसलमानों की कब सुनी थी?

तीन तलाक का मामला हो, बाबरी मस्जिद विध्वंस का मामला हो या फिर जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का मामला हो, शाहीन बाग को ही नहीं, कायदा कानून जानने-मानने वाले हर किसी को लगता है कि अन्याय हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी नजर में जो न्याय किया, उसको अनुचित ठहराने और बताने के लिए एक से बढ़कर एक फैसले पहले से ही हैं, नजीरें हैं और शाहीन बाग जैसे देश भर में जो साढ़े चार सौ से भी अधिक बाग बन चुके हैं, सभी बागों में इन दिनों यही सब डिसकस हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने तो खैर अन्याय करके अपना दरवाजा यों बंद कर लिया कि चेहरा नहीं दिखाएंगे। फिर जब शाहीन बाग की दादी कहती हैं कि कागज नहीं दिखाएंगे तो सुप्रीम कोर्ट कहता है कि वो चीजें बाद में बताएंगे, पहले रास्ते से हटो। गुरुवार को जब सुप्रीम कोर्ट के वार्ताकार संजय हेगड़े और साधना रामचंद्रन शाहीनबाग में बातचीत कर रहे थे, जामिया के पास रहने वाले इमरान अपनी दो बच्चियों के साथ उनके सामने पहुंचे और बेसाख्ता रोने लगे। कहने लगे कि उन्हें डर लगता है। अपने लिए और अपनी दो बच्चियों के लिए डर लगता है। इमरान की दोनों बच्चियों ने अपनी साइकिल पर तिरंगे बांध रखे थे और हाथ में एक पोस्टर ले रखा था, जिसपर लिखा था कि हम आपको हिम्मत देने आए हैं। इमरान का कहना था कि ये तिरंगा जो आज तक हमारा गुमान हुआ करता था, अब हमारा डर बन गया है। डर के मारे हमें तिरंगा अपने साथ रखना पड़ रहा है क्योंकि इसे नहीं रखेंगे तो आप हमें हिंदुस्तानी नहीं मानेंगे।

'किसे हिंदुस्तानी मानें और किसे न मानें' की शायद कोई याचिका अभी तक सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर नहीं पहुंची है। 'किसे हिंदुस्तानी मानें और किसे न मानें' का कोई गैजेट अभी तक केंद्र की मोदी सरकार ने जारी नहीं किया है। सीएए जब सीएबी था, तभी से केंद्र सरकार के गृह मंत्री अमित शाह सहित कई दूसरे मंत्री समूचे भारत में घूम-घूमकर वह क्रोनोलॉजी समझा रहे हैं, जिसकी आग से इन दिनों असम भभक रहा है। असम की आंच समूचे भारत को महसूस हो रही है और इसी आंच से वह भय पैदा हुआ जो गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट के वार्ताकारों के सामने बेसाख्ता बह निकला। वार्ताकार कहते रहे कि कौन कहता है कि आप हिंदुस्तानी नहीं हो, वार्ताकार ढांढस बंधाते रहे कि आप हिंदुस्तानी ही हो, मगर भय का बहना बंद नहीं हुआ। भरी सभा से भय उठा और बाहर जाकर फुटपाथ पर बैठ गया। मैंने देखा, सभा से एक शाहीन उठी, फुटपाथ पर गई और उसने उस भय के आंसू पोंछ दिए। उसका इमरान से कोई नाता नहीं था, एक रिश्ता था, जिसे हम दर्द के रिश्ते के रूप में समझ सकते हैं और इन दिनों दर्द के इस रिश्ते में डर के एक नाते ने भी घर कर लिया है।

मोदी सरकार हर मंच से यही कह रही है कि किसी को भी डरने की जरूरत नहीं है। फिर क्या बात है कि डरे हुए सारे लोगों ने हर शहर में अपना एक घेरा बना लिया है, जो मुसलसल बढ़ता जा रहा है?  इस बात का जवाब शाहीन बाग की सरवरी दादी देती हैं। वो कहती हैं कि हमें तो ये लोग एकदम बीच में लाकर घेर रहे हैं। दादी की बात में सचाई है। 2014 में जब से नरेंद्र मोदी की केंद्र में सरकार बनी है, तब से जो मॉब लिंचिंग शुरू हुई, अगर इसे हांकने के रूप में ग्रहण करें तो दादी की बात बिलकुल सही है। मार मार कर मुसलमानों को बीच में लाकर खड़ा कर दिया है और अब क्रोनोलॉजी के जरिए उनमें से लोगों को चुनने की कवायद होने वाली है। और ये कवायद होने ही वाली है क्योंकि बीजेपी की सरकार ने संसद में यह लिखकर दिया है कि अभी उन्होंने एनआरसी लागू करने के बारे में तय नहीं किया है। शाहीन बाग में बैठे लोगों की मांग यही है कि एनआरसी को सिरे से रद्द किया जाए। अगर इसके बारे में सोचा भी गया है तो उस सोच को भी रद्द किया जाए और संसद को यह लिखकर दिया जाए कि एनआरसी नहीं होगी।

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की ओर से जो दो वार्ताकार शाहीन बाग भेजे गए, उनका कोई मतलब बनता नहीं दिख रहा है। गुरुवार को शाहीन बाग और वार्ताकारों के बीच कुछ बातों को लेकर कई बार गहमागहमी हुई। पहली यही कि वार्ताकारों का कहना था कि वो सिर्फ रास्ते की बात करने आए हैं, कैसे दूसरों को परेशानी न हो, उनके अधिकार की रक्षा हो, इसकी बात करने आए हैं। शाहीन बाग की महिलाओं का कहना था कि दो महीने छह दिन से वे यहां रास्ते की बात करने नहीं बैठी हैं। वे यहां सीएए, एनआरसी और एनपीआर की बात करने बैठी हैं और सुख से नहीं बैठी हैं। उन्हें दुख और डर, दोनों है। मगर सुप्रीम कोर्ट ने अपने वार्ताकार शाहीन बाग का दुख सुनने नहीं भेजे थे, इसलिए जब भी लोग यह कहें कि हमारा दुख तो सुनिए तो साधना रामचंद्रन उन्हें डांट दें कि हमें हमारा काम मत बताइये। जाहिर है कि इस तरह की लाग-डांट बेनतीजा ही रहने वाली थी और बेनतीजा रही भी। सुप्रीम कोर्ट जो सुनना चाहता है, सड़क पर बैठे लोग वह बात बोलें भी तो कैसे बोलें? मौके पर मौजूद रुखसाना सवाल करती हैं कि सवा दो महीने से यहां बैठे हैं, अभी तक तो कोई बात करने आया नहीं। ये लोग बात करने आए हैं तो हमारे दुख पर नहीं बल्कि इनके सुख कैसे पूरे हों, इस पर बात करने आए हैं। फिर क्या गारंटी है कि कहीं और जाकर बैठ जाएंगे तो कोई बात करने आ ही जाएगा? नब्बे की हो रही आसमां बेगम, जो शाहीन बाग की दादी के नाम से मशहूर हैं, कहती हैं कि वे बापू के जुग-जमाने की हैं। मुंह दुख गया बताते-बताते कि ये बापू वाली बात नहीं है। दादी ने तो पूछा नहीं, मगर हम खुद से तो पूछ ही सकते हैं कि बापू वाली बात क्या है? बापू होते तो ये होता?   

Sunday, February 16, 2020

शकरकंदी की कड़वाहट

मेरा एक दोस्त अक्सर कहता है कि लोग अच्छे नहीं होते, तो मैं कहता हूं कि लोग तो अव्वल अच्छे ही होते हैं, वक्त या हालात बुरे होते हैं। इस पर वह तुनककर अपनी उस पड़ोसी की बातें बताने लगता है, जिसे उसने आज तक किसी से सीधे मुंह या जरा सी मुलायमियत से बात करते नहीं देखा। मैं उसे समझाता हूं कि इसके पीछे उस पड़ोसी के वक्त का मुंह शायद हमेशा टेढ़ा रहता होगा या उसके हालात इतने कठोर होते होंगे। लेकिन वह नहीं माना। एक दिन वह मुझे अपने घर ले गया और अपनी उस पड़ोसन की निगरानी पर बैठा दिया। मैंने देखा कि उसकी पड़ोसन का मुंह कामवाली से लेकर मां-भाई के साथ भी टेढ़ा ही था। थी तो वह ठीक-ठाक घर की। देखने में गदराई शकरकंदी सी, लेकिन शकरकंदी जैसी अनाकर्षक तो नहीं थी। उसकी मां की आवाज तनिक तेज तो थी, लेकिन उसमें भी एक दिल्ली वाली पंजाबी शाइस्तगी तो थी ही।
फिर क्या वजह रही होगी कि इतनी सुंदर पड़ोसन का वक्त इस कदर टेढ़ा हो चुका था? मैंने दोस्त से पड़ोसन के बारे में कुछ पूछताछ की। वह पैंतीस पार थी, सुंदर थी। हंसे तो गोया फूल झड़ें। हालांकि मेरे दोस्त को मुझे दिखने वे फूल अब भी मेरी भूल ही लगते हैं और ज्यों ही मैं कभी भी उसकी हंसी में फूल देखता हूं, झट से वह हमेशा यही बोलता है, 'आई ऑब्जेक्ट मीलॉर्ड!' उस वक्त भी उसने यही जारी रखा। फूल दर फूल गिरते ऑब्जेक्शन से जब मैं परेशान हो गया तो मैंने दोस्त से पूछा, 'शादी हो गई है इसकी?' दोस्त बोला, 'नहीं हुई।' अब समस्या का एक सिरा तो मेरी गिरफ्त में था। इस सिरे पर अपनी गिरफ्त मजबूत करने के लिए मैंने फिर पूछा, 'कोई ब्वॉयफ्रेंड? किसी इश्क की कोई कहानी? या सिरे न चढ़ पाई किसी मोहब्बत की कोई दास्तां?' दोस्त बोला, 'पांच साल तो हो गए मुझे इस इलाके में रहते हुए, अभी तक तो ऐसी कोई चीज दिखी नहीं।'
फिर मैंने पूछा, 'क्या वह निपट अकेली है?' दोस्त ने जवाब दिया, 'लगता तो ऐसा ही है, जभी तो जब भी खिड़की पर आती है, खाती हुई आती है या खाते-खाते वापस चली जाती है।' इस जवाब पर मैं भड़क गया। मैंने कहा, 'खाने का अकेलेपन से क्या रिश्ता?' अरस्तू से सुकरात की देह में विचरते हुए दोस्त बोला, 'अकेला आदमी अक्सर किसी न किसी छोर पर ही रहता है। इस तरफ, या उस तरफ। उसके मन में बीच का रास्ता कहां होता है? फिर उसकी कोई ऐसी मजबूरी भी तो नहीं होती कि वह बीच का रास्ता अख्तियार करे ही करे।' उसके यह कहते ही मुझे याद आया कि मेरे दो मालिकों (जिनके यहां मैं कभी नौकरी करता था) ने कहा था कि साथ बहुत जरूरी होता है। एक बार जब मैं निपट अकेली महिलाओं से रूबरू था तो वहां भी मुझे ऐसी ही झल्लाहट दिखी थी। मैंने दोस्त से कहा, 'उसे समझाओ, अकेली न रहे।' अब तो दोस्त बिदक गया, बोला, 'अकेले के गले में समझाइश की घंटी बांधने की हिम्मत तुममें हो तो हो, मुझमें नहीं है।' 

Saturday, February 15, 2020

डाटा से प्यार, डाटा से सेक्स और डाटा से बच्चे!

मुझे वो टिंडर पर मिली थी, या मैं उसे टिंडर पर मिला, यह तो ठीक से याद नहीं, लेकिन मैच हो गया था। झारखंड की थी, अनारक्षित वर्ग की और साढ़े तीन शादियां कर चुकी थी। साढ़े तीन यूं कि आखिरी में बात मंगनी के बाद टूट गई थी, लेकिन मिलना-मिलाना हो चुका था। हमारी बातें आगे बढ़ने लगीं तो पहले तो उसने धीमे से मुझे यह बताया कि उसके पापा मोदी जी के खिलाफ एक बात नहीं सुनते और अगर कोई कह दे तो उसको ऐसी-ऐसी सुनाते हैं कि पानी पनाह मांगे। मैंने उससे कहा, ‘तो क्या हुआ। मेरे घर में भी कुछ बीजेपी वाले हैं, कुछ कांग्रेस वाले हैं, सपा-बसपा वाले भी हैं और खुद मैं कम्यूनिस्ट हूं।’ तो वह बोली कि उसके यहां भी कुछ यही हाल है, उसका भाई कांग्रेसी है, भाभी को आम आदमी पार्टी अच्छी लगती है और मां इधर-उधर डोलती रहती हैं, और जो भी जोर से बोल दे, उसी की तरफ हो जाती हैं। मैंने उससे पूछा, ‘और तुम? तुम क्या हो’? वह बोली, ‘मैं तो वर्कोहलिक हूं। काम पसंद करती हूं। जो भी काम करता है, उसे पसंद करती हूं।’

यह सुनकर मेरे मन में लड्डू फूटा। आज के जमाने में जब लोग काम से ज्यादा नाम पसंद करते हों, ऐसे लोग मिलने मुश्किल होते हैं। कुछ दिन तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा। फिर उसने धीमे-धीमे स्कूलों के बारे में फेक इन्फॉरमेशन मेरी ओर पुश करनी शुरू की। जैसे पहली तो यही कि अब देखो, सारे स्कूलों में पढ़ाई हो रही है। सारे टीचर्स स्कूलों में वक्त पर पहुंच रहे हैं और क्लासेस ले रहे हैं। लगातार आती इन फर्जी खबरों से जब मैं पक गया तो एक दिन मैंने उससे पूछ ही लिया, ‘आखिरी बार तुमने किस स्कूल का दौरा किया था?’ कहने लगी, ‘दौरा तो नहीं किया था, लेकिन उसका एक रिश्तेदार मध्य प्रदेश के स्कूल में पढ़ाता है, वही हमेशा सरकार से इस बात को लेकर हमेशा परेशान रहता है कि टाइम पर स्कूल पहुंचना है।’ मैंने उससे पूछा, ‘उसकी बीएलओ में ड्यूटी लगती है?’ वह बोली, ‘ये तो न पूछो, रोज ही जाने कहां कहां ड्यूटी लगती रहती है।’ मैंने फिर पूछा, ‘फिर वह स्कूल कब जाता है‌?’ इस पर वह थोड़ी नाराज हो गई और बोली, ये सब फालतू की बात है, वक्त पर तो स्कूल आना ही पड़ेगा।

फिर कुछ दिन बाद वह मुझसे सरकारी दफ्तरों की बेहतरी की बात बताने लगी। वहां भी आने-जाने के वक्त की पाबंदी की बात। मैंने पूछा, ‘अधिकारियों के दफ्तर वक्त पर आने जाने से क्या सारे काम वक्त पर होने लगे?’ वह बोली, ‘और क्या।’ मैंने पूछा, तुम अपनी जीएसटी कैसे फाइल करती हो तो बोली कि उसने इस काम के लिए एजेंट कर रखा है। मैंने पूछा कि अगर अधिकारी या सरकारी कर्मचारी अपने काम के इतने ही पाबंद हैं तो बीच में दलाल क्यों लगाया? क्या दलाल पूरा काम ईमानदारी से कराता है? छूटते ही वह बोली, ‘तुम मोदी विरोधी हो।’ पहले तो मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि मैं इस गलीच सिस्टम का विरोधी हूं, लेकिन वो तो समझने का नाम ही न ले। फिर मैंने उससे पूछा, ‘तुम मोदी समर्थक हो?’ इस बार वह खुलकर बोली, ‘हां। और मोदी जी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।’ मैंने पूछा, ‘क्या अच्छा काम कर रहे हैं?’ बोली, ‘नोटबंदी करके काले धन की कमर तोड़ दी।’ मैंने कहा, ‘लेकिन सारा पैसा तो रिजर्व बैंक वापस आ गया।’ इस पर वह बोली, ‘इतना अंधा विरोध तो न करो।’ मैंने कहा, ‘ये मैं नहीं, रिजर्व बैंक का डाटा कह रहा है। ’तो कहती है, ‘जाओ, उसी डाटा से प्यार करो, उसी से सेक्स करो और उसी से बच्चे पैदा करना।’

Friday, January 3, 2020

सबसे मीठी तो बेहद गुस्सैल भी है उर्दू: संजीव सराफ

उर्दू पर दिल्ली में होने वाला सालाना जलसा जश्न-ए-रेख्ता पिछले दिनों भारी भीड़ के साथ संपन्न हुआ। एक भाषा को लेकर इतने सारे लोगों की मोहब्बत देखकर एकबारगी किसी को भी ताज्जुब हो सकता है। उर्दू की रगें झनझनाने का श्रेय संजीव सराफ को जाता है। उर्दू की मशहूर वेबसाइट रेख्ता डॉट ओआरजी इन्हीं की है और संजीव खुद भी उर्दू के जुनूनी पाठक हैं। पैदाइश नागपुर की है और पढ़ाई-लिखाई मुंबई, ग्वालियर और आईआईटी खड़गपुर की। फैमिली बिजनेस के बाद खुद का बिजनेस किया। पांच-छह मुल्कों में प्लांट्स हैं। सात साल पहले अपने जुनून के लिए सारे काम-धंधे से अलग हो गए। जुनून थी उर्दू, जिसकी महक पिछले दिनों दिल्ली सहित दुनिया भर में फिर से फैली। मैंने संजीव सराफ से बात की। पढ़िये प्रमुख अंश :

वेबसाइट रेख्ता की शुरूआत के बारे में बताएं?
अपने रोज-रोज के काम से उकता गया था। शांति मिल ही नहीं रही थी। शौक कहिए या अपनी रूह के लिए कहिए, मैंने उर्दू में शायरी और दूसरी चीजें पढ़नी-लिखनी शुरू कीं। तब लगा कि मुझ जैसे करोड़ों होंगे जो उर्दू पढ़ना चाहते हैं पर एक्सेस नहीं कर सकते। इसीलिए रेख्ता शुरू की। शुरू में लगभग पचास-एक शायरों के कलाम देवनागरी और रोमन में पेश किए। पर साल भर में उसमें पर लग गए। आज उसमें साढ़े चार हजार शायरों के कलाम हैं, चालीस हजार गजलें हैं, आठ हजार नगमे हैं। ऑडियो-वीडियो, डिक्शनरी के अलावा और भी बहुत कुछ है।

आपने नायाब किताबों को डिजिटली सेफ करने का भी काम किया है। इसके बारे में बताएं।
हम वेबसाइट के लिए कलाम खोज रहे थे, लेकिन उनकी अवेलिबिलिटी नहीं थी। कुछ किताबें लाइब्रेरी में थीं, कुछ लोगों के पर्सनल कलेक्शन में। मेरा मानना था कि धूल, दीमक, पानी या आग में ये सब बरबाद हो जाएंगी। तो हमने बड़े-छोटे पैमाने पर किताबों को स्कैन करके डिजिटली प्रिजर्व करना शुरू किया। फिर देखा कि किताबों की तादाद बहुत ज्यादा थी। तब हमारे पास सिर्फ एक मशीन थी। अब 17 शहरों में हमारी तीस मशीनें लगी हैं। अब तक हमने एक लाख किताबें डिजिटली प्रिजर्व की हैं।

ऐसी कितनी किताबें रहीं जो लगभग खत्म हो चुकी थीं, जिनकी दूसरी कॉपियां नहीं थीं? उनके बारे में बताइए।
ये कहना तो बहुत मुश्किल है। किताबें कहां-कहां हैं, ये किसी को अंदाजा नहीं है। जखीरा इतना बड़ा है, कि कहना मुश्किल है कि कितनी छपीं और कितनी बची हुई हैं? लेकिन नायाब किताबें तो बहुत हैं। सन 1700 से 1800 में छपी किताबें हैं। सन 1860 के बाद मुंशी नवल किशोर ने काफी किताबें छापी थीं, उसमें से भी काफी हैं।

पिछले दिनों दिल्ली में हुए जश्न-ए-रेख्ता में तकरीबन दो लाख लोग आए। यह दिल्ली का सबसे बड़ा सांस्कृतिक कार्यक्रम हो चुका है। लेकिन बजरिए रेख्ता वेबसाइट, आप इस जुबान का ज्यादा बड़ा फैलाव देख पा रहे हैं। इसके बारे में बताइए।
ये तो जबान का कमाल है साहब, हम तो सिर्फ अरेंजमेंट करते हैं। इतनी मीठी जुबान दुनिया में कोई है ही नहीं। इसके जरिए ढेरों आर्ट फॉर्म्स बने हैं। गजल सिंगिंग, सूफी सिंगिंग, कव्वाली हो या ड्रामा या दास्तानगोई, इतने आर्ट फॉर्म्स किसी और जुबान में जल्दी नहीं मिलते। दुनिया के डेढ़-पौने दो सौ मुल्कों से रेख्ता वेबसाइट के दो करोड़ यूनीक यूजर्स हैं। जहां-जहां हिंदुस्तान और पाकिस्तान के लोग बसे हैं, उनको रेख्ता के अलावा और कहीं भी इतना कंटेंट नहीं मिलता। 40 हजार लोगों ने तो उर्दू सीखने के लिए हमारी वेबसाइट जॉइन की है।

उर्दू क्या सिर्फ शायरी की जुबान है? शेर-ओ-शायरी के अलावा उर्दू को आप कहां देखते हैं?
ये गलत इलजाम है। शायरी की भाषा तो है ही, लेकिन इतनी खूबसूरत जुबान है कि इसमें आप कोई भी गुफ्तगू करें, लगता है कि शायरी कर रहे हैं। ये इजहार का जरिया है। हमारे इंडिपेंडेंट मूवमेंट के पहले से ही इंकलाबी शायरी हुई है। इंकलाब-जिंदाबाद हसरत मोहानी ने लिखा। सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है, बिस्मिल अजीमाबादी ने लिखा। शायरी हर जगह इस्तेमाल हुई है। ये बोलचाल जुबान थी। ब्रिटिश ने थोड़ा पर्सनलाइज करके इसे मुसलमानों के लिए कर दिया और थोड़ा संस्कृटाइज करके हिंदुओं के लिए। फिर लिट्रेचर और बोलचाल की जुबान अलग भी होती है। जितना तंज-ओ-मजाह उर्दू में है, मेरे ख्याल से शायद अंग्रेजी के अलावा कहीं नहीं है। सोशल कॉन्टेस्ट में भी खूब लिखा गया है। मंटो की शॉर्ट स्टोरीज हों या इस्मत चुगताई की हों! ऑटोबायोग्राफीज हैं। वैसे ये बेहद गुस्सैल जुबान है, लेकिन ज्यादातर लोग शायरी या नगमे सुनते हैं तो उनके दिमाग में इसका इंप्रेशन वैसा ही है।

शायरी का पाठकों की उम्र से कुछ रिश्ता है? लोग किन शायरों को पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं?
लोगों की पसंद होती है। पहले कहते थे कि जब तक कॉलेज में हो, साहिर लुधियानवी को पढ़ो, और बाद में भूल जाओ। साहिर को यों कि वो थोड़े रिवोल्यूशनरी प्रोग्रेसिव मूवमेंट के थे, थोड़ा इश्क भी किया था। लेकिन मैं मानता हूं कि उसी उम्र में रीडर को गालिब भी पसंद आएंगे और वह अर्थ भी अलग लेगा। वही शेर वह बाद में पढ़ेगा तो दूसरा ही मतलब समझ में आएगा। बात कैफियत की है जो बदलती रहती है और उसी हिसाब से अर्थ और शायर भी।

आप के पास उर्दू को देखने की तकनीकी नजर है। आप इस पर लगातार काम भी कर रहे हैं। इस नजर से बताइये कि उर्दू आज से दस साल पहले कहां थी, अब कहां है और आज से दस साल बाद इसे आप कहां देख रहे हैं?
जब हमने शुरू किया था, तब सुनते थे कि उर्दू जुबान पस्त है, मर रही है या कोमा में आ गई है, वगैरह-वगैरह। लेकिन रेख्ता की सक्सेस के बाद अब आप देखेंगे कि इसी तर्ज पर सैकड़ों जश्न होने लगे हैं। सबका नाम जश्न से ही शुरू हो रहा है। दरअसल पब्लिक कॉन्शस हुई और जबरदस्त चेंज आया है। अब ये जुबान मेनस्ट्रीम में आ गई है। अब आपको ये सुनने में नहीं आएगा कि उर्दू मर रही है।

अगर हिंदी से उर्दू निकाल दें तो क्या बचेगा?
सुबह-शाम मुंह से नहीं निकलेगा। प्रात:काल या संध्याकाल यूज करेंगे। या प्यार इश्क मोहब्बत न बोलकर प्रेम या फिर ऐसा ही कोई लफ्ज यूज करेंगे। हिंदी सिनेमा से निकाल के बताइए उर्दू, फिर क्या बचेगा? दूध में से चीनी निकाल दीजिए, फिर क्या बचा? कर लीजिए कोशिश। हमारी बोलचाल हिंदुस्तानी है। उर्दू-हिंदी का ग्रामर एक है। जो निकालना चाहें, निकाल दें, कर लें कोशिश।