Tuesday, July 31, 2007

ग्लोबल होती दुनिया में प्रेमचंद का यथार्थ

आज जब हम प्रेमचंद को याद करते हैं तो हमें यह भी याद करना चाहिए कि उन्होंने हमें किन हथियारों से लैस किया. जब देश को गांधी का आंदोलन एक अंधेरी गुफ़ा में ले जा रहा था, जहां समझौतों और दलालियों का एक अंतहीन सिलसिला था और जब लुटेरों की एक फ़ौज बन रही थी, प्रेमचंद ने समय रहते अपनी रचनाओं से हमें उनके प्रति सचेत किया. आज के दौर में भी हम उन हथियारों की ज़रूरत शिद्दत से महसूस करते हैं. कथाकार शैवाल का आलेख.

ग्लोबल होती दुनिया में प्रेमचंद का यथार्थ

शैवाल
सृजन में व्याख्या सन्निहित नहीं होती. सृजन मनुष्य और समुदाय के बीच का सेतुबंध है. रचना पाठ के जरिये हम तक पहुंचती है. हर काल में उसके पाठ से अलग अर्थ की प्राप्ति होती है. समाज काल और रचना-तीनों के अंतर्संबंध हैं. इसी कारण ग्लोबल विलेज में प्रेमचंद की रचनाओं का पुनर्पाठ आवश्यक है. उसकी अलग उपादेयता दिखेगी. उपादेयता इस संदर्भ में कि मनुष्य और समुदाय का अस्तित्व कैसे बचे आखिर.
मैं एक कथा कहना चाहूंगा. तब शायद यह प्रसंग ज्यादा खुले. क्योंकि हम बेहद नाजुक दौर से गुजर रहे है. यह ऐसा पड़ाव है, जहां एक व्यक्ति जीवित बचता है तो समुदाय का दूसरा हिस्सा मर जाता है. यहां सपने बचते हैं तो आदमी की कीमत मर जाती है. परंपरा और नैतिक मूल्यों के शवदाह केंद्र में अपने सपने को फलता-फूलता देख कर हम खुश नहीं हो सकते. होते हैं तो हम कब्रिस्तान के उस मुलाजिम की तरह हैं जो मुर्दों की आमद पर खुश होता है. हम आदमी की तरह बच पायें, ऐसे कातिल दौर में, तो समझें-जिंदगी जीने का यह तरीका ही कला है. कला वाकई समुदायजीवी जीवन जीने की पद्धति है. पर हम मानते नहीं. हम तो मानते हैं कि कला बैठे-ठाले लोगों का कार्य व्यापार है. जो कार्य व्यापार बाजार में बिकता नहीं या बिकने को तैयार नहीं होता, वह सब कुछ भद्रजनों की दृष्टि में कला है. तंत्र भद्रजनों के इशारे पर चलता है. तो होता या? कला हाशिये पर चली गयी या डाल दी गयी. यह अलग-सा सवाल है कि कला को हाशिये पर डाल कर या समुदाय बोध से अलग होकर अपने वजूद को हम बचा सकते हैं. आज के विध्वंसक दौर का यह सब से बड़ा प्रश्न है. निश्चय ही यह भूमंडलीकरण की पैदाईश है.

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कथा कहता हूं. रेड इंडियन लोगों की बस्ती थी एक. वहां के निवासी खाली वक्त में छोटी-छोटी टोकरियां बनाते थे, उन्हें रंगते थे. टोकरी खूबसूरत हो जाती थी. एक चॉकलेट कंपनी के अधिकारी ने वहां की टोकरियां देखीं. उसके मन ने कहा-इन टोकरियों में चॉकलेट रख कर बेचा जाये तो बिक्री बढ़ जायेगी. उसकी दृष्टि में बाजार की मांग थी. वह बस्ती में पहुंचा. वहां के बुजुर्ग से मिला. पूछा- एक टोकरी का दाम कितना लोगे?
बुजुर्ग ने कहा- दो रुपये. अधिकारी चला गया. पर एक सप्ताह बाद फिर आया. पूछा- 10 टोकरियां चाहिए, दाम क्या होगा? बुजुर्ग ने बताया, अरे वही दो रुपये. अधिकारी चला गया. दो दिन बाद फिर आया. पूछा- मुझे 10 हजार टोकरियां चाहिए. अब दाम तय करो. बुजुर्ग चिंता में पड़ गया. बोला- सोचना होगा. तुम एक सप्ताह बाद आओ. अधिकारी नियत वक्त पर आया. बुजुर्ग ने छूटते ही कहा- बात-विचार कर लिया बस्ती के लोगों से. एक टोकरी का दाम 10 रुपये होगा.
अधिकारी अवाक रह गया. खीझ कर बोला- पागल हुए हो. दाम बढ़ा रहे हो. मांग बढ़ने पर दाम घटना चाहिए, बाजार का नियम है. बुजुर्ग ने कहा, पागल तो तुम बना रहे हो हमें. हमें 10 हजार टोकरियां बनाने के लिए अपनी खेती-बारी सब को छोड़ना होगा. तो इसका दाम कहां जुड़ेगा?
आज के दौर में जब लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, केंद्र सरकार की नीतियां गांव को दरकिनार कर रही हैं, सेज ग्राम के निवासी निरंतर विद्रोह कर रहे हैं, हमें प्रेमचंद इस रेड इंडियन समुदाय के वृद्ध सदस्य की तरह दिखते हैं. इनकी रचनाओं में वर्णित समुदाय के संकेतवत निर्णय प्रभावी दिखते हैं. उनमें भारतीय ग्रामीण समाज की दस्तावेजी पहचान सन्निहित है. उस पहचान के आधार पर हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगी, चाहे वह नीतियों की प्राथमिकता हो या सामाजिक व्यवहार की या आर्थिक मसलों की. वस्तुत: यथार्थ से बहुत आगे तक का रास्ता तय करता है इन रचनाओं का यथार्थ. सच्चाई यही है कि जब आप यथार्थ को पाते हैं, एक निजी संदर्भ से गुजरते हैं और यथार्थ का स्वरूप इसीलिए संकुल होता है. लेकिन जब आप यथार्थ को देने की प्रक्रिया में होते हैं, लोक आपकी निजता में समाहित होता है और इसी कारण रचना यथार्थ से बड़ी हो जाती है. और उसकी संघर्ष यात्रा आगे के दिनों में भी जारी रह पाती है क्योंकि आदमी, उसके जीवन और जीवन संघर्ष के बीच पैदा हुई एक संपूर्ण रचना- पुन: लोक जीवन और लोक संघर्ष में समाहित हो जाती है. प्रेमचंद की रचनाएं इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं.
पर इन रचनाओं का ग्लोबल प्रक्षेपण हम नहीं कर पा रहे हैं. क्यों? प्रेमचंद जयंती पर यह सवाल अपने आप से करना वाजिब होगा. हैरी पॉटर की एक करोड़ प्रतियां एक दिन में बिकती हैं. नौ सौ रुपये की किताब की प्रतियों की अग्रिम बुकिंग होती है. इसमें सिर्फ जादुई कारनामे हैं. तो क्या विशुद्ध अयथार्थ और बाजार के करिश्मे के आगे सामाजिक यथार्थ हार रहा है? क्यों हमारे बच्चे पांच-दस रुपयेवाले पंचफूल को खरीद कर पढ़ने को आतुर नहीं दिखते.
जवाब न्यूयार्क के विश्व हिंदी सम्मेलन में मिल जाता है. चीन के हिंदी विद्वान छियांग छिंग कुई यह स्वीकारते हैं कि हिंदी बहुत पहले अंतरराष्ट्रीय भाषा बन चुकी है, लेकिन विडंबना यह है कि भारत में हिंदी को लेकर वह आग्रह नहीं है जो होना चाहिए. हम छाती ठोंक कर कभी यह नहीं कहते कि प्रेमचंद हिंदी के पर्याय हैं. हम गर्व के साथ विदेशी भाषा-भाषियों के सम्मुख यह नहीं कह पाते कि तुम्हारे पास पूंजी है, बाजार है, सुविधाएं हैं, सुख है पर हमारे पास प्रेमचंद हैं.

पेंटिंग : वीर मुंशी

Monday, July 23, 2007

नारद का रंग भगवा क्यों है ?

नारद का रंग भगवा क्यों है ?






यह
अवचेतन मे हो गया या चेतना के साथ ?

Tuesday, July 17, 2007

मेले और झमेले के बीच फंसी हिंदी

क्या हमारी भाषा साहित्य के बजाय सत्ता की मुखापेक्षी है ?
मंगलेश डबराल
न्यूयार्क मे आठवा विश्व हिंदी सम्मेलन कुछ ठोस या नया किये बग़ैर लगभग घटनाहीन तरीके से सम्पन्न हो
गया। इस आयोजन के सिलसिले मे असमंजस ,अफरातफरी और खींचतान का जो माहौल था ,उसे देखते हुए यह उम्मीद भी नही थी कि आठवें सम्मेलन मे ऐसा कोई काम होगा जो पिछले सात सम्मेलनों से अलग , नया और स्मरणीय हो। सम्मेलन के अंत मे रखे गए प्रस्तावों मे भी कोई नया मुद्दा नही उभरा। हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का संकल्प भी शायद आठवीं बार दोहराया गया होगा और जहाँ तक नागरी लिपि का एक सर्वमान्य-सर्वसुलभ यूनीकोड बनाने की बात है , तो यह जरूरी माँग लंबे समय से उठाई जाती रही है। लेकिन हिंदी फाँट के मानकीकरण मे किसी हिंदी सेवी संस्था की वास्तविक रूचि ना होने के कारन इस भाषा मे तरह तरह के फाँट चल रहे हैं और एक दूसरे के लिए पेचीदगियाँ पैदा कर रहे हैं। कुल मिलाकर इस सम्मेलन की उपलब्धि यह थी कि उदघाटन के मौक़े पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने एक मिनट हिंदी मे भाषण करके वहाँ एकत्र लोगों को 'चमत्कृत' और 'गदगद' कर दिया। उन्होने 'नमस्ते' किया, हालचाल पूछे और कहा कि 'मैंने दिल्ली दूतावास मे रहते हुए हिंदी सीखी है,पर यह मुझे अच्छी तरह से नही आती' और 'मेरा दामाद हिंदी जानता है' । यह महासचिव का शिष्टाचरण था ,जिसका सिर्फ एक प्रतीकात्मक महत्त्व है। कई वर्ष पहले अटलबिहारी वाजपेयी ने भी संयुक्त राष्ट्र मे अचानक हिंदी मे अनुप्रास-अलंकारमय भाषण करके ऎसी ही प्रतीकात्मकता का परिचय दिया था,जिसकी चर्चा कट्टर हिंदी-हिंदूवादी आज भी किया करते हैं। हमारे प्राण ऐसे ही प्रतीकों मे बसते हैं और असली मुद्दे अपनी जगह ठहरे , अनसुलझे या सड़ते-गलते रहते हैं।

शायद ऎसी ही प्रतीकात्मकता की आलोचना मे प्रसिद्ध कवि और समाज चिन्तक रघुवीर सहाय ने अपनी एक कविता मे कहा था : 'भारत मे हर संकट एक गाय है / रास्ते मे गोबर कर देता है विचार।' विश्व मे हिंदी भाषा -भाषियों की संख्या ७० से ८० करोड़ के बीच बताई जाती है। हालांकि वास्तविकता मे उसे पढने लिखने और बोलने वाले ४५ करोड़ से अधिक नही हैं। इसी तरह विश्व हिंदी सम्मेलन के समय यह कहा जाता है कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनने के रास्ते मे एक कदम और बढ़ा चुकी है। हालांकि वास्तविकता यह है कि उसने ऐसा कोई कदम आगे नही बढाया है, क्योंकि किसी भाषा के संयुक्त राष्ट्र मे शामिल होने की प्रक्रिया बिल्कुल अलग है,जिसके लिए सदस्य देशों को काफी धन देना पड़ता है और उसके सचिवालय की तामझाम जुटाना पड़ता है। न्यूयार्क मे अगर साल के ३६५ दिन भी विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किये जाये , तब भी यह काम नही हो सकता क्योंकि इसे सिर्फ भारत सरकार कर सकती है।

विश्व हिंदी सम्मेलन के क्षेत्र पर अब तक ऎसी शक्तियों का वर्चस्व रहा है , जो हिंदीवाद को हिंदूवाद का ही विस्तार मानती हैं और हिंदी के वैश्विक मंचों पर अपने अधिकार को जन्मजात समझती हैं। यही वजह है कि पिछले सातों सम्मेलनों को एक अर्ध धार्मिक और अर्ध राजनितिक कथ्य के साथ आयोजित किया गया। लंदन मे हुए छठे सम्मेलन के बारे मे यह सुना गया कि वहाँ आमंत्रित लेखको को लक्ष्मीनारायण मंदिर की परिक्रमा के लिए भी ले जाया गया और सूरीनाम मे हुए सातवे सम्मेलन मे कमलेश्वर जैसे वरिष्ठ और सम्मानित लेखकों को काफी अपमानजनक परिस्थिति मे रहना पड़ा था। इन सम्मेलनों के केंद्र मे ऎसी हिंदी रही है, जो साहित्य के बजाय सत्ता-राजनीति की मुखापेक्षी है, देश की दूसरी भाषाओं पर सरकार के माध्यम से अपना वर्चस्व कायम करना चाहती है या जिसे सुखी सम्पन्न अंग्रेजी की छोटी और कुछ गरीब बहन बनकर रहना स्वीकार है। इस हिंदी की अंतर्वस्तु प्रगतिशील होना तो दूर , आधुनिक सेकुलर और लोकतांत्रिक भी नही है , क्योंकि वह भक्तिकाल के सगुण और निर्गुण नाम के दो पैरों पर खडी नागरी प्रचारिणी सभा छाप हिंदी है , जो भारतेंदु युग और छायावाद से आगे के साहित्य को साहित्य नही मानती। हिंदूवादी हिंदी शक्तियों के अतिरिक्त विश्व हिंदी मंचो पर सरकारी हिंदी तंत्र की भी ताक़तवर उपलब्धि है , जिसके पास राजभाषा नाम का अस्त्र है। इस बार के सम्मेलन मे सम्मानित किये गए हिंदी 'विद्वानो' की सूची से सरकार के हिंदी ज्ञान को समझा जा सकता है। सम्मान पाने वाले १७ लोगो मे से सिर्फ चार-पांच व्यक्ति ऐसे हैं , जिनके हिंदी भाषा और साहित्य मे कुछ योगदान से लोग परिचित है , शेष 'विद्वान ' राजनितिक कारणों से ही सम्मानित किये जाते हैं । हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकारों की एक लंबी सूची तैयार की जा सकती है जिन्हे किसी विश्व हिंदी सम्मेलन मे सम्मानित नही किया गया। इस बार के सम्मानीय लोगों मे सबसे प्रमुख केदारनाथ सिंह थे , लेकिन वह विदेश मंत्रालय के व्यवहार से इतने आहत हुए कि उन्होने न जाना ही उचित समझा। पिछले दो सम्मेलनों के कुछ साम्प्रदायिक स्वरूप से जो लेखक क्षुब्ध थे , इस बार उन्हें अपेक्षा थी कि कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार इसे एक सेकुलर और लोकतांत्रिक हिंदी का मंच बनाएगी , लेकिन उन्हें भी निराश होना पड़ा। अब तक के सभी विश्व हिंदी सम्मेलनों मे साहित्य और साहित्यकार सबसे अधिक उपेक्षित रहे हैं , जबकि साहित्य ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जिस पर हिंदी कुछ गर्व कर सकती है। ज्ञान के दूसरे क्षेत्रों मे हिंदी की दरअसल कोई उपलब्धि नही है। उसमे दर्शन , विज्ञानं , समाजशास्त्र , पर्यावरण , इतिहास संबंधी मौलिक और गम्भीर लेखन बहुत कम हुआ है , इसलिये उसकी सारी बौद्धिक संपदा साहित्यिक ही है । लेकिन विचित्र यह है कि हिंदी लेखक की भूमिका विश्व मंचो पर नगण्य ही रहती है। क्या इसका कारण यह है कि ऐसे मंचो की बागडोर जिन नई पुरानी संस्थाओं के हाथ मे है , उनके लिए हिंदी संघर्ष की नही , सत्ता और ताकत की भाषा है ? विश्व विजय की थोथी आकांक्षा रखने वाले हिंदी के इस स्वरूप पर कवि रघुवीर सहाय करीब २५ वर्ष पहले ही गम्भीर हताशा व्यक्त कर चुके थे। 'लोग भूल गए हैं' शीर्षक की कविता मे उन्होने कहा था ,
हिंदी का प्रश्न अब हिंदी का प्रश्न नही रह गया है / हम हार चुके हैं...../ हिंदी के मलिक जो हैं गुलाम हैं / उनके गुलाम हैं जो वे आजाद नही / हिंदी है मलिक की/ तब आज़ादी के लिए लड़ने की भाषा फिर क्या होगी/ हिंदी की माँग/ अब दलालों की अपने दास मालिकों से/ एक माँग है/ बेहतर बर्ताव की/ अधिकार की नही.....

रघुवीर सहाय की यह कविता विश्व हिंदी सम्मेलन जैसे सैर सपाटों और विजयी भावों पर एल स्थाई टिपण्णी की तरह पढी जा सकती है।

साभार: अमर उजाला

Thursday, July 12, 2007

मैं विचारों से समझौता नही कर सकती !!

साम्प्र्दयिकों के साथ मंच कैसे शेयर करूं : महाश्वेता देवी
कृपाशंकर चौबे
विख्यात लेखिका महाश्वेता देवी ने कहा कि विश्व हिंदी सम्मेलन मे उनके नही जाने के ठोस कारण हैं । उन्होने कहा " केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय से मेरे पास फोन आया था जिसमे बताया गया था कि न्यूयार्क मे १३ जुलाई से हो रहे तीन दिनी आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन मे कई अन्य दूसरे लेखकों के साथ मुझे सम्मानित करने का फैसला किया गया है। लेकिन जब मैंने पाया कि सम्मानित होने वालों मे कतिपय साम्प्रदायिक दृष्टिकोण वाले लेखक भी हैं तो तत्क्षण मैंने मना कर दिया।" महाश्वेता ने कहा," उनके साथ मैं सम्मान कैसे ग्रहण कर सकती हूँ जिनके साथ मेरा वैचारिक विरोध है। वैसे भी कोई सम्मान मुझे स्पर्श नही करता ।"
बुजुर्ग लेखिका ने कहा,"चुंकि मंत्रालय से पहली ही बातचीत मे मैंने न्यूयार्क जाने से मना कर दिया था , इसलिये आमंत्रण पत्र भी नही आया। अब मुझे पता चला है कि समालोचक नामवर सिंह , कवि केदारनाथ सिंह , अशोक वाजपेयी , मंगलेश डबराल और कथाकार राजेंद्र यादव ने भी विश्व हिंदी सम्मेलन मे भाग नही लेने का फैसला किया है। इससे स्पष्ट होता है कि मेरा फैसला सही था।" महाश्वेता देवी ने कहा,"विश्व हिंदी सम्मेलन मे मेरे नही जाने का कोई दूसरा अर्थ नही निकला जाना चाहिऐ।"
उन्होने कहा,"हिंदी के प्रति मेरे मन मे अगाध श्रद्धा है। मैं मानती हूँ कि हिंदी मे छप कर ही मैं राष्ट्रिय लेखिका हुई। लेकिन इसीलिये मैं अपने विचारों से कोई समझौता नही कर सकती। धर्मनिरपेक्षता मेरे लिए बड़ा मूल्य है और ग़ैर धर्मनिरपेक्ष लोगों के साथ मैं मच नही शेयर कर सकती। वैसे भी साम्राज्यवाद के प्रतीक अमेरिका मे इस उम्र मे जाने का क्या मतलब ? हमने अमेरिका और बुश का चेहरा इराक़ से लेकर अफगानिस्तान मे ख़ूब देखा है। नए सिरे से अब क्या देखना बाक़ी है ?"

साभार: हिंदुस्तान

Monday, July 9, 2007

काल की चपेट मे महाकाल ?

प्रदीप सिंह

अमरनाथ , एक पवित्र गुफा , जिसकी खोज या प्रथम दर्शन सबसे पहले मुस्लिम चरवाहों को हुआलेकिन इससे हिंदू श्रद्धालुओं की आस्था कम नही हुई अपितु शंकर की महिमा और व्यक्तित्व और विलक्षण बन गयाऎसी हिम्मत भोले शंकर ही कर सकते थे कि प्रथम दर्शन दूसरे धर्म के लोगो को देंतभी तो वो महादेव कहलाते हैंदेश के अन्य तीर्थ स्थल तक दूसरे धर्म के लोग सिर्फ माला और प्रसाद बेचने तक सीमित हैं , वहीँ इस पवित्र गुफा की व्यवस्था तंत्र मे भी मुसलमान भाईयों का अहम योगदान रहता हैफिलहाल ये तो आपसी समझदारी का मामला हैसमाचार के विभिन्न माध्यमों से मिली सूचना से हमारा ह्रदय काँप उठासमाचार अपने नग्न रुप मे यह बयाँ कर रह है कि पवित्र गुफा बाब भोले का दैवीय लिंग अचानक गल गया हैतर्क-वितर्क , धर्म-विज्ञानं से इस अनहोनी घटना के कारणों का परीक्षण शुरू हो गया हैवैज्ञानिक अपनी धृष्टता से बाज नही आये और इस घटना को सीधे सीधे ग्लोबल वार्मिंग का दुष्परिणाम मान रहे हैंजो गुफा तक जाने वाली सड़क , गुफा के पास लैंड होने वाले हवाई जहाज , भारी संख्या मे पंहुचने वाले तीर्थ यात्रियों के द्वारा फैलाये गए कूड़े कचरे से हुए प्रदूषण के कारण वहाँ का तापमान बढ जाने से हुआ माना जा रहा हैधार्मिक नेता और संत महंत इसे मानव जाति पर आसन्न संकट का संकेत ही बताएँगे , इसके आगे वो कुछ सोच भी नही सकतेअभी तक शंकर की कुंडली किसी ज्योतिषी के हाथ नही लगी , नही तो ये ग्रह और नक्षत्रों की गणना करके उम्र के इस पड़ाव मे उनके ऊपर आये इस संकट का ज्योतिषीय समाधान बतातेहर समस्या पर तत्काल अपनी राय देने वाले को क्या हो गया है ? इसे क्या कहा जाय ? ज्योतिषियों की आलस्य , भगवन के प्रति अनादर या ज्योतिष की सीमा ? कुछ भी समझा जा सकता हैज्योतिष का कोई वीर बालक इस अनोखी घटना का विश्लेषण नही कर रहा है....ऐसा क्यों ? लेकिन जो बात पकड़ मे आई उससे साफ पता चल गया कि गुफा मे सीमा की रक्षा करने वाले भारतीय सेना के कुछ जवान शिवलिंग से अनधिकृत और अनपेक्षित छेड़ छाड़ कर रहे थेलिंग से छेड़ छाड़ करने की या पहली घटना नही हैआपको याद होगा , अबु गरेब जेल मे अमेरिकी सैनिकों ने किस तरह से इराकी बंदियों के लिंग से छेड़ छाड़ कर रहे थेभारतीय सेना अमेरिकी सेना के साथ संयुक्त युध्ध्भ्यास कर चुकी हैछेड़ छाड़ का यह तरीका उसने अमेरिकी सैनिकों से सीखा ? फिलहाल हम इसपर कुछ नही कहेंगेभारतीय सेना पर प्रश्न चिन्ह लगाना किसी देश द्रोह से कम नही हैमेघा राजदान की (हत्या - आत्महत्या ) भी हमे कुछ छेड़ छाड़ का ही नतीजा हैफिलहाल श्रधालुओं के मन मे भय , संशय और आक्रोश हैभगवान शिव हिंदू पौराणिक आख्यानों मे आदि देवता माने जाते हैंजो कालातीत हैंभूत-वर्तमान-भविष्य तीनो कालों मे उनका अस्तित्व विद्यमान माना जाता हैहिंदू देवी देवताओं मे शिव का लिंग ही इतना पवित्र है कि जो हमेशा से पूज्यनीय हैऔर ये संहारकर्ता के रुप मे प्रसिद्ध हैंचाहे पृथ्वी पर अधर्म बढ जाने के कारण संहार, सर्व शक्तिमान प्रभु की अपनी इच्छा अथवा अपनी लीला के अनुसार संहार करना पडेसर्व शक्तिमान ,संहार कर्ता आदि पुरुष का शिव लिंग का अचानक गल जाना समझ से परे हैइसे क्या कहा जाय ? इसे परम पुरुष और प्रकृति का संघर्ष माना जाय या भगवान् की लीला मानकर छोड़ उसकी जाय ? वह प्रदेश हमेशा से ही सुर्ख़ियों मे बाना रहता हैकभी पैगम्बर का बाल ग़ायब हो जाता है तो कभी कुछ औरलेकिन बाल अचानक मिल भी गया थाअगर शिवलिंग के साथ ऐसा कुछ नही होता है तो पैगम्बर बाजी मार लेंगेउनका करिश्मा और चमत्कार भारी पड़ेगाफिलहाल किसकी बात मानी जाय ? धर्म की या विज्ञानं की ? विज्ञानं का कारण भी विनाशकारी ही मालुम पड़ता हैधार्मिक कारण भी मानव समाज के लिए और ही विनाश का संकेत देता हैश्रद्धालुओं के मन मे कई सवाल उमड़ रहे हैंउन्हें अपनी और अपने उसकी चिन्ता सता रही हैक्या जगत नियंता इतना कमजोर है ? या ये विनाश का प्राकृतिक संकेत है ?

Saturday, July 7, 2007

कौन सी 'रचनात्मकता' हमारे पास है ?

समय की कमी के चलते जिस दिन यू जी की पहली पोस्ट चढाई थी , उसके दो तीन दिन बाद तक अगली पोस्ट नही चढा पायालेकिन इस बार एक साथ दो प्रश्न और उनके उत्तर दे रहा हूँ
प्रकृति मे जो परिवर्तन होते रहते हैं , लगता है कि उनके पीछे कोई खास योजना या प्रयोजन हैआपका क्या ख्याल है ?
मुझे बिल्कुल भी नही लगता कि वहाँ कोई योजना या प्रयोजन है। एक प्रक्रिया चल रही है। जरूरी नही कि मैं इसे विकास की प्रक्रिया कहूँ। जब यह प्रक्रिया धीमी होने लगती है तो क्रान्ति हो जाती है। प्रकृति कुछ चीजों को साथ लाना चाहती है। और सिर्फ नए सृजन के लिए फिर से नए सिरे से शुरुआत करती है। यही एक मात्र वास्तविक सृजनात्मकता या रचनात्मकता है। प्रकृति किसी 'मॉडल' बने बनाए आदर्श या पूर्व प्रसंग को इस्तेमाल नही करती है। इसलिये उसका कला से अपने आप कोई संबंध नही होता।

आपका मतलब है कि कलाकारों ,कवियों, संगीतज्ञों, और मूर्तिकारों की रचनात्मकता मे कोई रचनात्मकता नही है ?
आप कला को कौशल और कारीगरी से ऊपर क्यों मानना चाहते हैं? कलाकार की कलाकृति अगर बाज़ार मे नही बिकती तो उसका धंधा भी बंद हो जाता है। इन तमाम कलात्मक विश्वासों के लिए मात्र बाज़ार जिम्मेदार है। कलाकार सिर्फ कारीगर है- दूसरे कारीगरों की तरह। अपने आपको व्यक्त करने के लिए वह उसी औजार का इस्तेमाल करता है। मानव की सारी रचनात्मकता, एन्द्रिकता और काम भावना से उत्पन्न होती है। मैं एन्द्रिकता और काम भावना के विरुद्ध नही हूँ। सारी कला एक प्रकार की हर्ष-क्रिया है। हर्ष भी सायास। उसके लिए कोशिश करनी होती है। आप ऐसा नही कर सकते तो उस सौन्दर्य और कला यदि आप कृति के बारे , मे प्रश्न करने लगते हैं तो। यदि आप कृति के बारे मे प्रश्न करने लगते हैं तो कलाकार अपने आप को उंचा समझने लगते हैं। वे समझते हैं कि कलात्मकता को समझने की अभिरुचि ही आपमें नही है। अब वे आपको यह सुझाव देते हैं कि आप किसी विद्यालय या इन्स्टीट्यूट मे जाकर उसकी कला की परख की शिक्षा ग्रहण करें। किसी तथाकथित महान कवि की कविता में अगर आपको कोई आनंद नही मिलता तो वे आपको जबरदस्ती इस बात की शिक्षा देंगे कि आप उस कविता का आनंद लें । शिक्षा -संस्थाएं यही सब करती हैं। वे हमे सिखाती रहती हैं कि सौन्दर्य को कैसे ग्रहण करें, संगीत को कैसे समझें , चित्रकारी की कद्र किस प्रकार करें , इत्यादि । इस बीच आपके भरोसे वे अपनी जीविका चलाते रहते हैं। कलाकारों को यह सोचना बहुत अच्छा लगता है कि वे रचनात्मक कार्य कर रहे हैं। 'रचनात्मक कला' या 'रचनात्मक चिन्तन' , क्या वे कोई मौलिक अभिनव या स्वतंत्र कार्य कर रहे हैं ? बिल्कुल नही। इस अर्थ मे उनमे कोई रचनात्मकता नही है। कलाकार क्या करते हैं ? यहाँ से कुछ उठाते हैं , वहाँ से कुछ उठाते हैं , फिर उसे जोड़कर साथ रख देते हैं और सोचते हैं कि उन्होने किसी महान कृति की रचना कर ली है। किंतु सत्य यह है कि पहले से ही विद्यमान किसी न किसी चीज़ की वे नक़ल कर रहे होते हैं। कौन सी 'रचनात्मकता' हमारे पास है ? नक़ल,शैली, बस और कुछ नही। हममे से हर एक की अपनी शैली होती है। शैली इस बात पर निर्भर करती है कि हमने किस विद्यालय में शिक्षा पाई है , कौन सी भाषा हमे पढ़ाई गई है , कौन सी पुस्तकें हमने पढी हैं , कौन सी परीक्षाएं हमने उत्तीर्ण की हैं । फिर इसी चौखटे के अंदर हमारी अपनी शैली का निर्माण होता है। शैली और तकनीक पर पूर्णधिकार प्राप्त करना ही कलात्मक गतिविधि है। आपको आर्श्चय होगा कि निकट भविष्य मे कम्प्यूटर चित्रकारी करेंगे, संगीत की रचना करेंगे और यह चित्रकारी उन तमाम रचनाओं से कहीँ श्रेष्ठ होगी , जिन्हे दुनिया के सभी चित्रकारो और संगीत कारों ने आज तक जन्म दिया है । हमारे जीवन काल मे शायद यह स्थिति न आये , मगर आएगी जरूर। आप कम्प्यूटर से भिन्न नही हैं। हम इसे मानने के लिए तैयार नही हैं, क्योंकि हमे समझाया गया है कि हम मात्र यन्त्र नही हैं। हमारे अंदर कुछ और है। लेकिन आपको यह स्थिति स्वीकार करनी होगी और मान लेना होगा कि हम यन्त्र मात्र हैं। शिक्षा और तकनीक के मध्यम से हमने जिस बुद्धि का विकास किया है , वह प्रकृति के सामने कही ठहर नही सकती। उन्हें (रचनात्मक कार्यों को ) जो महत्त्व अब तक दिया गया है, वह मात्र इसलिये कि उन्हें आध्यात्मिक, कलात्मक और बौद्धिक मूल्यों की अभिव्यक्ति माना गया है। आत्माभिव्यक्ति की चालना एक प्रकार के नाड़ी रोग का परिणाम है। मानव जाति के आध्यात्मिक गुरुओं पर भी यही बात लागू होती है। प्रत्यक्ष संवेदनात्मक अनुभूति नाम की कोई चीज़ नही है। कला के सभी रुप मात्र एन्द्रिकता की अभिव्यक्ति हैं और कुछ नही है।

देर से आने वालो के लिए .... यू जी के बारे मे यहाँ देखे रचनात्मकता नाम की कोई चीज़ नही है।, यहाँ भी देखें .....इसे चट्काएं ....

Thursday, July 5, 2007

ई ससुर शाखा लगावय वाले

शाखा । संघ की शाखा । संघ वाले देवी देवताओं की तस्वीर बनाए जाने पर दंगा करने लगते हैं और जरा यहाँ देखिए , इनकी हकीकत क्या है .....यहाँ चट्कायिये .....

ये (नारद और उसके (कु)कर्म ) हिंदी की सेवा नही जीतू जी

कुवैत मे रहकर हिंदी और हिंदीभाषियों की सच्चाई नही जानी जा सकती है(हिंदी भाषी के अलावा भी , किसी की भी हकीकत देश के बाहर रहने वाले कितना जानते हैं वो नारद की कड़ी कार्यवाही से पता चल जाता है ) और आपके पास जो स्रोत हैं उन्हें सूचनाये कैसे मिलती हैं और कैसे बनती हैं , इसको मैं अच्छी तरह से जानता हूँजीतू जी , नारद के पुष्पक विमान मे बैठकर सतही चीज़े जान लेना और एक अवधारणा बना लेना एक बात है और जमीन पर रहकर काम करना दूसरी बातखैर आपसे और क्या कहू , आप तो खुद ही पलायन वादी हैं तभी देश छोड़कर बाहर बैठे हुए हैं और देशभक्ति का सिला जमीनी आवाजों को दबाकर दे रहे हैंलेकिन अगर ये सोचते हैं कि नारद की इस अहमकाना हरकत से मैं भी पलायन वादी बन जाऊंगा और मेरा चिठ्ठा बंद हो जाएगा तो ये सिर्फ नारद की खामख्याली है , और कुछ नहीआप जिस हिंदी की बात कर रहे हैं , जरा इमानदारी से बताइए कि कितने लोग उस हिंदी मे बात करते हैं ? और आप जिस हिंदी की बात कर रहे हैं , जरा बता दीजिए कितने लोग उससे प्रभावित होते हैं ? हाँ , संघ या संघी अगर गालियों (तेल लगाओ डाबर का - %^*& मारो बाबर का , सन ९२ ) मे भी कुछ कहते हैं तो आप जैसे कुछ लोगो का वह नारा बन जाता हैउस पर कोई भी बैन लगाने की बात नही करता । बल्कि उस naare साथ देने वालों के लिए दूसरों की अभिव्यक्ति मुह मे बैन का डंडा डाल kar बंद kar दीं जाती hai। uske baad अगर कोई उन जैसे लोगो से उन्ही की जबान मे बात करता है तो आप उसे बुरा कहते हैं और उसके खिलाफ मोर्चा खोल देते हैंये (नारद और उसके (कु)कर्म ) हिंदी की सेवा नही जीतू जीये जान बूझ कर पूरी दुनिया से एक ही विचारधारा के लोगों को एक साथ करके इण्टरनेट जैसे माध्यम से फैलायी जा रही साम्प्रदायिक साजिश है , जो मेरे ब्लोग पर बैन लगाने के बाद पूरी दुनिया मे नंगी हो चुकी हैअब ये खेल खुल कर सामने गया हैअगर आप हिंदी के अनन्य सेवक या भक्त (जो भी आप अपने आप को कहते हैं ) होते तो आप कम से कम यह तो लिखते
एक दो साथियों ने नारद से अपने ब्लॉग हटाने की अर्जी दी थी, उनकी अर्जियां हमारे पास पेंडिंग है, अभी नारदमुनि छुट्टी पर है, समय मिलते ही उनपर विचार किया जाएगा, उनको भी पुनर्विचार का वक्त दिया जा रहा है वे दोबारा सोच लें और २० जुलाई तक अपनी अर्जियां वापस ले अथवा हम उन पर विचार करें।

इसका क्या अर्थ लगाया जाय ? आप समझते क्या हैं नारद को ? अब वो जमाना गया जीतू जी कि जब नारद इकलौता फीड गेटर थाये बाजार है और रोज़ लोग आते रहते हैं ! ! ये मत कहियेगा कि आप निष्काम भाव से हिंदी की सेवा कर रहे हैंविचारो के भी बाजार होते हैं जीतू जी और विचारो की इस जंग मे चुंकि ताकत आपके पास थी और आपने उसका भरपूर उपयोग कियाअगर आप हिंदी के इतने ही अन्य सेवक होते तो ऊपर दीं गई बाते कभी लिखते , बल्कि ऐसा कोई विचार आपके मन मे आता ही नहीलेकिन क्योंकि आपके मन मे पहले से ही धर्म निरपेक्षता की बात करने वालो के लिए "जहर " भरा हुआ है , तो हम ये मान लेते हैं कि ये उसी जहर का असर बोल रहा हैकभी कभी मुझे आश्चर्य होता है कि कैसे मैं इतने जहरीले माहौल मे रह गया और वो भी इतने दिन तकमुझे बहुत पहले ही नारद से किनारा कर लेना चाहिऐ थाखैर चलिये , देर आये दुरुस्त आयेआपके पास जो दो तीन लोगों की ब्लोग हटाने की अर्ज़िया पडी हुई हैं , उसी मे मेरी भी शामिल कर लीजियेक्योंकि बेईमानी मुझसे होती नही और गलत बात मैं बर्दाश्त नही करताछूटते ही गलियां देता हूँक्या पता , अभी बजार पर अवैध अतिक्रमण को बैन किया है , कल को बजार पर भी आपके हिसाब से कुछ उल्टा सीधा छप गया तो आप उसपर भी बैन लगा देंगेऔर उसके बाद बाक़ी के नारदिये बंदरो की तरह कूद कूद के खौखियाने लगेंगे , कि वो मारा , बहुत अच्छे मारा
rahul

Tuesday, July 3, 2007

रचनात्मकता नाम की कोई चीज़ नही है।

एक आदमी , जिसने पहली बार ज्ञान और बोध को अस्तित्व की न्यूरो बायोलोजिकल अवस्था के रुप मे देखाजिसने कहा कि इसका धार्मिक , मनोवैज्ञानिक या रहस्यवादी आशयों से कोई संबंध नही हैयह एक बिकुल नयी अवधारणा है , "प्रबुध्धता" जैसी चीज़ के प्रति वास्तव मे एक बिल्कुल नया रवैया हैगम्भीर और पवित्र मानी जानेवाली चीजो के प्रति , धर्म के प्रति और विशेष रुप से प्रबुध्धता की सारी अवधारणा के प्रति यू जी का पूरा ज्ञान उस व्यक्ति से बेहतर नही है जो आत्म वंचना मे जिंदा रहता हैलेकिन वास्तविक ज्ञान और बोध की तलाश करने वालों के लिए यू जी के तमाम कथन बहुत ही महत्वपूर्ण हैंयू जी तो व्याख्यान देते थे और ही उन्होने कोई किताब लिखीवे जोर देकर कहते थे "यदि आप परम ज्ञान की खोज मे मेरे पास आये हैं तो आप गलत आदमी के पास गए हैं। " यू जी और अन्य लोगों के बीच समय समय पर जो वार्ता लाप हुए उन्हें रिकॉर्ड कर लिया गयाया प्रश्नोत्तर और आगे आने वाले प्रश्नोत्तर इसी वार्ता के आधार पर लिखे गए हैं
सृजनशीलता या रचनात्मकता विषय पर काफी कुछ कहा जा चुका हैआप इस संदर्भ मे क्या कहना चाहेंगे ?
रचनात्मकता नाम की कोई चीज़ नही है। लोग पहले से ही विद्यमान इस या उस चीज़ की नक़ल करने की कोशिश करते हैं। रचनात्मकता तो उस समय मानी जायेगी जब आप किसी को आदर्श या "मॉडल" के रुप मे इस्तेमाल नही करते। यह भी जरूरी है कि आपकी भावी कृतियों के लिए आपकी यह पूर्व कृति खुद "मॉडल" न बन जाय। बस, बात यहीं ख़त्म हो जाती है। यदि आप दो व्यक्तियों के चेहरों या दो पत्तों के तरफ देखें तो पाएंगे कि कोई भी दो चहरे या दो पत्ते एक ही तरह के नही दिखाई देते।

यू जी - यू जी कृष्णमूर्ति