ग्लोबल होती दुनिया में प्रेमचंद का यथार्थ
आज जब हम प्रेमचंद को याद करते हैं तो हमें यह भी याद करना चाहिए कि उन्होंने हमें किन हथियारों से लैस किया. जब देश को गांधी का आंदोलन एक अंधेरी गुफ़ा में ले जा रहा था, जहां समझौतों और दलालियों का एक अंतहीन सिलसिला था और जब लुटेरों की एक फ़ौज बन रही थी, प्रेमचंद ने समय रहते अपनी रचनाओं से हमें उनके प्रति सचेत किया. आज के दौर में भी हम उन हथियारों की ज़रूरत शिद्दत से महसूस करते हैं. कथाकार शैवाल का आलेख.
ग्लोबल होती दुनिया में प्रेमचंद का यथार्थ
शैवाल
सृजन में व्याख्या सन्निहित नहीं होती. सृजन मनुष्य और समुदाय के बीच का सेतुबंध है. रचना पाठ के जरिये हम तक पहुंचती है. हर काल में उसके पाठ से अलग अर्थ की प्राप्ति होती है. समाज काल और रचना-तीनों के अंतर्संबंध हैं. इसी कारण ग्लोबल विलेज में प्रेमचंद की रचनाओं का पुनर्पाठ आवश्यक है. उसकी अलग उपादेयता दिखेगी. उपादेयता इस संदर्भ में कि मनुष्य और समुदाय का अस्तित्व कैसे बचे आखिर.
मैं एक कथा कहना चाहूंगा. तब शायद यह प्रसंग ज्यादा खुले. क्योंकि हम बेहद नाजुक दौर से गुजर रहे है. यह ऐसा पड़ाव है, जहां एक व्यक्ति जीवित बचता है तो समुदाय का दूसरा हिस्सा मर जाता है. यहां सपने बचते हैं तो आदमी की कीमत मर जाती है. परंपरा और नैतिक मूल्यों के शवदाह केंद्र में अपने सपने को फलता-फूलता देख कर हम खुश नहीं हो सकते. होते हैं तो हम कब्रिस्तान के उस मुलाजिम की तरह हैं जो मुर्दों की आमद पर खुश होता है. हम आदमी की तरह बच पायें, ऐसे कातिल दौर में, तो समझें-जिंदगी जीने का यह तरीका ही कला है. कला वाकई समुदायजीवी जीवन जीने की पद्धति है. पर हम मानते नहीं. हम तो मानते हैं कि कला बैठे-ठाले लोगों का कार्य व्यापार है. जो कार्य व्यापार बाजार में बिकता नहीं या बिकने को तैयार नहीं होता, वह सब कुछ भद्रजनों की दृष्टि में कला है. तंत्र भद्रजनों के इशारे पर चलता है. तो होता या? कला हाशिये पर चली गयी या डाल दी गयी. यह अलग-सा सवाल है कि कला को हाशिये पर डाल कर या समुदाय बोध से अलग होकर अपने वजूद को हम बचा सकते हैं. आज के विध्वंसक दौर का यह सब से बड़ा प्रश्न है. निश्चय ही यह भूमंडलीकरण की पैदाईश है.
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कथा कहता हूं. रेड इंडियन लोगों की बस्ती थी एक. वहां के निवासी खाली वक्त में छोटी-छोटी टोकरियां बनाते थे, उन्हें रंगते थे. टोकरी खूबसूरत हो जाती थी. एक चॉकलेट कंपनी के अधिकारी ने वहां की टोकरियां देखीं. उसके मन ने कहा-इन टोकरियों में चॉकलेट रख कर बेचा जाये तो बिक्री बढ़ जायेगी. उसकी दृष्टि में बाजार की मांग थी. वह बस्ती में पहुंचा. वहां के बुजुर्ग से मिला. पूछा- एक टोकरी का दाम कितना लोगे?
बुजुर्ग ने कहा- दो रुपये. अधिकारी चला गया. पर एक सप्ताह बाद फिर आया. पूछा- 10 टोकरियां चाहिए, दाम क्या होगा? बुजुर्ग ने बताया, अरे वही दो रुपये. अधिकारी चला गया. दो दिन बाद फिर आया. पूछा- मुझे 10 हजार टोकरियां चाहिए. अब दाम तय करो. बुजुर्ग चिंता में पड़ गया. बोला- सोचना होगा. तुम एक सप्ताह बाद आओ. अधिकारी नियत वक्त पर आया. बुजुर्ग ने छूटते ही कहा- बात-विचार कर लिया बस्ती के लोगों से. एक टोकरी का दाम 10 रुपये होगा.
अधिकारी अवाक रह गया. खीझ कर बोला- पागल हुए हो. दाम बढ़ा रहे हो. मांग बढ़ने पर दाम घटना चाहिए, बाजार का नियम है. बुजुर्ग ने कहा, पागल तो तुम बना रहे हो हमें. हमें 10 हजार टोकरियां बनाने के लिए अपनी खेती-बारी सब को छोड़ना होगा. तो इसका दाम कहां जुड़ेगा?
आज के दौर में जब लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, केंद्र सरकार की नीतियां गांव को दरकिनार कर रही हैं, सेज ग्राम के निवासी निरंतर विद्रोह कर रहे हैं, हमें प्रेमचंद इस रेड इंडियन समुदाय के वृद्ध सदस्य की तरह दिखते हैं. इनकी रचनाओं में वर्णित समुदाय के संकेतवत निर्णय प्रभावी दिखते हैं. उनमें भारतीय ग्रामीण समाज की दस्तावेजी पहचान सन्निहित है. उस पहचान के आधार पर हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगी, चाहे वह नीतियों की प्राथमिकता हो या सामाजिक व्यवहार की या आर्थिक मसलों की. वस्तुत: यथार्थ से बहुत आगे तक का रास्ता तय करता है इन रचनाओं का यथार्थ. सच्चाई यही है कि जब आप यथार्थ को पाते हैं, एक निजी संदर्भ से गुजरते हैं और यथार्थ का स्वरूप इसीलिए संकुल होता है. लेकिन जब आप यथार्थ को देने की प्रक्रिया में होते हैं, लोक आपकी निजता में समाहित होता है और इसी कारण रचना यथार्थ से बड़ी हो जाती है. और उसकी संघर्ष यात्रा आगे के दिनों में भी जारी रह पाती है क्योंकि आदमी, उसके जीवन और जीवन संघर्ष के बीच पैदा हुई एक संपूर्ण रचना- पुन: लोक जीवन और लोक संघर्ष में समाहित हो जाती है. प्रेमचंद की रचनाएं इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं.
पर इन रचनाओं का ग्लोबल प्रक्षेपण हम नहीं कर पा रहे हैं. क्यों? प्रेमचंद जयंती पर यह सवाल अपने आप से करना वाजिब होगा. हैरी पॉटर की एक करोड़ प्रतियां एक दिन में बिकती हैं. नौ सौ रुपये की किताब की प्रतियों की अग्रिम बुकिंग होती है. इसमें सिर्फ जादुई कारनामे हैं. तो क्या विशुद्ध अयथार्थ और बाजार के करिश्मे के आगे सामाजिक यथार्थ हार रहा है? क्यों हमारे बच्चे पांच-दस रुपयेवाले पंचफूल को खरीद कर पढ़ने को आतुर नहीं दिखते.
जवाब न्यूयार्क के विश्व हिंदी सम्मेलन में मिल जाता है. चीन के हिंदी विद्वान छियांग छिंग कुई यह स्वीकारते हैं कि हिंदी बहुत पहले अंतरराष्ट्रीय भाषा बन चुकी है, लेकिन विडंबना यह है कि भारत में हिंदी को लेकर वह आग्रह नहीं है जो होना चाहिए. हम छाती ठोंक कर कभी यह नहीं कहते कि प्रेमचंद हिंदी के पर्याय हैं. हम गर्व के साथ विदेशी भाषा-भाषियों के सम्मुख यह नहीं कह पाते कि तुम्हारे पास पूंजी है, बाजार है, सुविधाएं हैं, सुख है पर हमारे पास प्रेमचंद हैं.
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