Friday, October 26, 2018

25 आईपीएस जिनका मोदी ने कैरियर और जीवन तबाह किया

संस्थाओं की तोड़फोड़ करके किनारे लगा देने की आदत नरेंद्र मोदी एंड पार्टी की आज की नहीं है, बल्कि काफी से भी काफी पुरानी है। सीबीआई में फिलहाल उनके खास रहे आईपीएस तो अब भुगत रहे हैं, गुजरात में तो दर्जनों आईएएस इस पार्टी का शिकार बन चुके हैं और इस्तीफा तक दे चुके हैं। कितने ही आईएएस और आईपीएस का कैरियर और पूरा जीवन ही इस पार्टी ने खराब कर दिया है। जिसने हर काले गोरे में साथ दिया, उसे पीके मिश्रा और वाईसी मोदी बना दिया, और जब खुद पर आंच आई तो साथ देने वाले को ही डीजी वंजारा बनाकर मक्खन में से बाल की तरह निकाल फेंका। आइए देखते हैं नरेंद्र मोदी एंड पार्टी ने कितने आईएएस आईपीएस का जीवन चौपट किया है। हालांकि लिस्ट बहुत बहुत और वाकई बहुत लंबी है, इसलिए हमने चुने हुए दर्जन भी ऐसे अधिकारी लिए हैं, जो वाकई इस गुजराती पार्टी के सताए हुए हैं।

नंबर एक पर आते हैं आईएएस प्रदीप शर्मा। प्रदीप शर्मा ने गुजरात दंगों में एसआईटी को लिखा था कि उन्हें मुख्यमंत्री के दफ्तर से फोन आया था और कहा गया था कि वो अपने भाई कुलदीप शर्मा को जो कि उस वक्त अहमदाबाद रेंज के आईजी थे, उन्हें समझाएं कि वो अल्पसंख्यकों को बचाने के लिए सक्रिय कदम ना उठाए। शर्मा का नाम स्नूपगेट यानि की जिस महिला की जासूसी के आरोप नरेंद्र मोदी एंड पार्टी पर लगे थे, उसमें भी आया। इनपर उस मामले में एफआईआर कराने के लिए शर्मा जी हाईकोर्ट तक लड़े, लेकिन तब तक मोदी जी प्रधानमंत्री बन चुके थे और शर्मा जी यह सब कुछ सस्पेंशन में रहकर कर रहे थे। सन 2014 की शुरुआत में नरेंद्र मोदी एंड पार्टी पर एफआईआर दर्ज करने से हाई कोर्ट ने इन्कार किया और उसी साल के अंत में यानी कि 30 सितंबर को एसीबी ने प्रदीप शर्मा को गिरफ्तार कर लिया। अब जाकर वे अगस्त में जमानत से जेल पर बाहर आए हैं।

नंबर दो पर आते हैं आईपीएस संजीव भट्ट। 1988 बैच के आईपीएस अधिकारी संजीव को सेवा से ‘अनधिकृत रूप से अनुपस्थित’ रहने के आधार पर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अगस्त 2015 में बर्खास्त कर दिया था। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर किया था कि वह गांधीनगर स्थित मोदी के आवास पर 27 फरवरी 2002 को आयोजित बैठक में शामिल थे। उन्होंने दावा किया था कि बैठक में मुख्यमंत्री ने सभी शीर्ष पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिया था कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में आग लगाने की घटना के बाद आक्रोशित हिंदुओं को अपना बदला पूरा करने दें। इसका बदला उन्हें खूब चुकाना पड़ा है। फर्जी मामलों में गिरफ्तारी से लेकर उनका घर पर अहमदाबाद नगर निगम बुलडोजर तक चढ़ा चुका है।

नंबर तीन पर आते हैं आईपीएस राहुल शर्मा। गुजरात दंगों के दौरान भावनगर के एसपी रहे राहुल उन चुनिंदा वरिष्ठ अधिकारियों में गिने जाते हैं, जिन्होंने दंगे रोकने का भरसक प्रयास किया। शर्मा ने कथित तौर पर चार्जशीट में दर्ज 'आधिकारिक' बयान पर असहमति जताई थी। उस दौरान शर्मा का प्रमोशन भी रोक दिया गया था और उनका तबादला कर दिया गया। 2004 में शर्मा ने नानावती कमिशन को एक सीडी सौंपी थी, जिसमें नेताओं, पुलिसकर्मियों और दंगे के आरोपियों की 5 लाख कॉल रिकॉर्ड थीं। 2011 में दुराचार के केस की चार्जशीट में राहुल का भी नाम था। इन्होंने भी इस्तीफा दे दिया है और पिछले साल यानी कि 2017 में गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले बताया था कि वे अपनी राजनीतिक पार्टी लाने जा रहे हैं. हालांकि वो आ नहीं पाई। फिलहाल वे गुजरात हाईकोर्ट में बतौर वकील प्रेक्टिस कर रहे हैं.

नंबर चार पर आते हैं आईपीएस समीउल्लाह अंसारी। कहते हैं कि जनाब यूपी के फैजाबाद से हैं, लेकिन इस बारे में हम कन्फर्म नहीं हैं। गोधरा कांड व गुजरात दंगों के दौरान वे अहमदाबाद यातायात पुलिस में उपायुक्त के पद पर तैनात थे, इसी दौरान सेंट्रल आइबी की ओरसे रिकार्ड किए गए थे। इसमें प्रदेश के कई मुस्लिम धार्मिक, सामाजिक नेताओं की ओर से समीउल्लाह को फोन करने का खुलासा हुआ था। इसकी सीडी बाद में गुजरात सरकार को भी उपलब्ध कराई गई थी। आइपीएस समीउल्लाह अंसारी ने अमेरिका से अपना इस्तीफा सरकार को भेजा था। अंसारी अक्टूबर 2010 से स्वास्थ्य कारणों से अवकाश पर थे। इन्होंने अपना इस्तीफा दंगों व फर्जी मुठभेड मामलों के चलते नाराज होकर भेजा। मीउल्लाह अंसारी वर्ष 1992 बैच के अधिकारी हैं तथा एमए व आइआइएम बैंगलोर से एमबीए किया है।

नंबर पांच पर डीजी वंजारा को रखा जा सकता है। सितंबर 2014 में मुंबई की एक अदालत ने वंज़ारा को सोहराबुद्दीन, तुलसीराम प्रजापति के फर्जी मुठभेड़ मामले में ज़मानत दे दी थी. साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने जब सोहराबुद्दीन केस को ट्रायल के लिए गुजरात से महाराष्ट्र स्थानांतरित किया, तब से वंज़ारा मुंबई जेल में थे. माना जाता है कि मुंबई जेल में रहने के कारण वंज़ारा काफ़ी निराश हो गए थे और इसी कारण उन्होंने सितंबर 2013 में इस्तीफ़ा दे दिया. हालाँकि सरकार ने तकनीकी कारणों का हवाला देते हुए कहा है कि जब तक वंजारा पर केस चल रहा है, तब तक वह इस्तीफा नहीं दे सकते.

नंबर छह पर आते हैं आईपीएस ऑफिसर जी एल सिंघल। इशरत एनकाउंटर मामले में शामिल जीएल सिंघल ने भी पत्र लिखकर इस्तीफ़ा दे दिया था. अपने पत्र में जीएल सिंघल ने भी यही कहा था कि सरकार उनका बचाव नहीं कर रही है और उन्होंने जो भी काम क्राइम ब्रांच में अपनी नौकरी के दौरान किए, वे सब सरकार के दिशा-निर्देशन पर किए. हालांकि नरेंद्र मोदी की सरकार बनने ही आसपास उन्हें बहाल कर दिया गया और उन्हें गांधीनगर में स्टेट रिजर्व पुलिस में ग्रुप कमांडेंट बना दिया गया। एक निजी वेबसाइट ने अमित शाह और सिंघल के बीच की निजी बातचीत को सार्वजनिक किया था. यह बातचीत अन्य कई दस्तावेज़ों के साथ सीबीआई के छापे में सिंघल के घर से बरामद हुई थी. स्नूपगेट' में मिस्टर मोदी एंड पार्टी पर जिस महिला की जासूसी का आरोप लगा था, उस मामले के केंद्र में भी सिंघल ही थे. इस मामले को लेकर मोदी सरकार पर काफ़ी तीखे हमले हुए थे

सातवें नंबर पर आते हैं गुजरात कैडर के आईपीएस अधिकारी रजनीश राय। इसी साल यानी कि 2018 में तंग आकर आखिरकार इन्होंने भी इस्तीफा दे ही दिया। इन्होंने सोहराबुद्दीन फर्जी एनकाउंटर मामले में डीजी वंजारा और दूसरे पुलिसकर्मियों को ऑन ड्यूटी गिरफ्तार किया था।  गुजरात में रजनीश राय, राहुल शर्मा और सतीश वर्मा ये तीन ऐसे आईपीएस अधिकारी हैं जिन्होंने 2001 में मोदी सरकार के आने के बाद सरकार के काम का खुलकर विरोध किया था. 2014 में मोदी सरकार के केंद्र में आने के बाद रजनीश राय का ट्रांसफर आंध्र प्रदेश में सीआरपीएफ में कर दिया गया था. मोदी सरकार के आने के बाद रजनीश पिछले साल उस समय चर्चा में आए जब उन्होंने सीआरपीएफ के शीर्ष अधिकारियों को अपनी एक रिपोर्ट दी जिसमें बताया था कि कैसे सेना, अर्द्धसैनिक बल और असम पुलिस ने 29-30 मार्च चिरांग जिले के सिमालगुड़ी इलाके में फर्जी मुठभेड़ को अंजाम दिया और दो व्यक्तियों को एनडीएफबी (एस) का सदस्य बताकर मार डाला था. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार, डिफें मिनिस्ट्री, असम सरकार और सीआरपीएफ से जवाब-तलब किया था. जिसके बाद बिना किसी वजह इस साल जून में रजनीश राय का ट्रांसफर आंध्र प्रदेश कर दिया गया.

आईपीएस पीपी पाण्डेय को पहले ही आ जाना था, लेकिन वह आए हैं आठवें नंबर पर। आजकल पाण्डेय जी आईएएस मेंस क्लियर करने वालों को इंटरव्यू की तैयारी कराते हैं। यह भी इशरत जहां सहित तीन दूसरे लोगों के फर्जी एनकाउंटर में फंसे थे, लेकिन सीबीआई की विशेष अदालत ने इन्हें बरी कर दिया।

नवें नंबर पर आते हैं आरबी श्री कुमार जो गुजरात में एडीजी (इंटेलिजेंस) थे। श्री कुमार का तबादला गुजरात दंगों के दौरान संजीव भट्ट के साथ ही किया गया था। कुमार का तबादला इसलिए किया गया, क्योंकि उन्होंने अल्पसंख्यक आयोग को मोदी के उस भाषण की क्लिप सौंप दी थी, जिसमें कथित तौर पर मोदी ने मुस्लिम समुदाय के बारे में अपमानजनक टिप्पणी की थी।कुमार ने मोदी और बीजेपी के कई नेताओं के खिलाफ दुर्भावनापूर्ण अभियान शुरू करने का आरोप लगाते हुए मानहानि और साजिश रचने का केस भी दर्ज कराया था।

10वें नंबर पर आते हैं गुजरात के पूर्व आईएएस कुलदीप शर्मा। कुलदीप शर्मा के खिलाफ पुलिस ने गुजरात भेड़ और ऊन विकास निगम (जीएसडब्ल्यूडीस) का महाप्रबंधक रहते हुए बिना उपयोग किया अनुदान वापस नहीं करने के आरोप में सन 2015 में चार्जशीट फाइल की थी। मामला 2010 11 का है। आईएएस रहते शर्मा और राज्य सरकार के बीच रिश्ता काफी खराब था। शर्मा ने वर्ष 2005 में सीआईडी (अपराध) के प्रमुख के तौर पर गुजरात के तत्कालीन मुख्य सचिव सुधीर मांकड को लिखे पत्र में गुजरात के पूर्व गृह राज्यमंत्री अमित शाह पर माधवपुरा मर्केंटाइल कोऑपरेटिव बैंक धोखाधड़ी मामले के अभियुक्त केतन पारिख से रिश्वत लेने का आरोप लगाया था. पदोन्नति न दिए जाने के खिलाफ शर्मा ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसके चलते राज्य सरकार के साथ उनके रिश्ते और खराब हुए थे। पिछले विधानसभा चुनावों में कुलदीप शर्मा ने कांग्रेस के बूथ मैनेजमेंट की कमान संभाली थी।

11वें नंबर पर आते हैं राजकुमार पांडियान। राजकुमार पांडियान भी सोहराबुद्दीन शेख और तुलसीराम प्रजापति की कथित फर्जी मुठभेड़ में मौत के मामले में फंसे थे जिन्हें सीबीआई की विशेष अदालत ने बरी कर दिया है। इंटेलिजेंस ब्यूरो में तैनात आईपीएस अधिकारी राजकुमार पांडियन को सोहराबुद्दीन केस में अप्रैल, 2007 में गिरफ्तार किया गया था. सात साल जेल में रहने वाले पांडियन को मई, 2014 में सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली थी लेकिन उन्हें मुंबई छोड़ने की इजाजत नहीं मिली. इसके बाद गुजरात सरकार ने मुंबई स्थित गुजरात औद्योगिक विकास निगम पांडियन को संपर्क अधिकारी बनाया है. विशेष सीबीआई न्यायाधीश एमबी गोसावी ने इस आधार पर पांडियन को आरोपमुक्त किया कि उनके खिलाफ (अभियोजन के लिए) मंजूरी नहीं है. इसलिए उनके खिलाफ अभियोजन नहीं चलाया जा सकता. सीबीआई के अनुसार, पांडियान गुजरात एटीएस की उस टीम का हिस्सा थे, जिसने सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी कौसर बी को पकड़ा था. सीबीआई ने कहा कि उसने शुरुआती चरण से ही साजिश में सक्रिय भूमिका निभाई थी.

12वें नंबर पर आती हैं आईपीएस नीरजा गोत्रू। अहमदाबाद में एसपी (प्रोहिबिशन) नीरजा गोत्रू ने दाहोद और पंचमहल में हुए दंगों के केस की दोबारा जांच के लिए खुलवाया था। सितंबर, 2004 में उन्हें अपनी जांच बंद करने का आदेश देकर सीबीआई (डेप्युटेशन) में भेज दिया गया था। नीरजा से सितंबर 2004 में जांच खत्म करने को कहा गया था। जब नीरजा ने अंबिका सोसायटी नरसंहार मामले में 13 लोगों की बॉडी जलाने के आरोपी सब इंस्पेक्टर की गिरफ्तारी का ऑर्डर दिया तो सूबूत मिटाने के लिए उन्हें ही सीबीआई डेप्युटेशन पर भेज दिया गया।

13वें हैं आईपीएस सतीश चंद्र वर्मा। बीजेपी विधायक शंकर चौधरी की गिरफ्तारी का आदेश देने के बाद भुज के पूर्व डीआईजी वर्मा का तबादला हो गया था। चौधरी पर दंगों के दौरान दो मुस्लिम लड़कों की हत्या में शामिल होने का आरोप था। वर्मा ने गुजरात हाई कोर्ट में 80 पन्नो का एक ऐफिडेविट भी दिया था, जिसमें इशरत जहां एनकाउंटर केस को फर्जी बताया गया। सतीश ने भी प्रताड़ित किए जाने का आरोप लगाते हुए कैट का दरवाजा खटखटाया था।

14वें हैं आईपीएस एमडी अंतानी। 2002 के गुजरात दंगों के दौरान भरूच के एसपी रहते हुए अंतानी वीएचपी और बीजेपी ऐक्टिविस्टों से काफी मुश्किल से निपटे थे। उनका जल्द ही नर्मदा जिले में तबादला कर दिया गया। इसके बाद गोधरा और आखिर में उनकी नियुक्ति स्थानीय पासपोर्ट ऑफिसर के तौर पर कर दी गई, जहां उन्होंने कई साल काम किया।

15वें नंबर पर आते हैं आईपीएस विवेक श्रीवास्तव। दंगों के दौरान विवेक कच्छ के एसपी थे और मुख्यमंत्री कार्यालय से मिले निर्देशों को नजरअंदाज करते हुए वीएचपी नेता को गिरफ्तार करना उनके लिए परेशानी का सबब बन गया। उन्हें रातों-रात जिले से बाहर शिफ्ट कर दिया गया था और फिर उन्हें डेप्युटेशन पर दिल्ली जाने के लिए बाध्य होना पड़ा।

16वें नंबर पर हैं अनुपम गहलोत। रिपोर्ट्स के मुताबिक मेहसाना के एसपी रहते हुए अनुपम ने दंगों के दौरान लगभग एक हजार लोगों की जान बचाई, जिसके बाद मेहसाना से उनका ट्रांसफर कर दिया गया था। इसके बाद लगातार गहलोत को दरकिनार किया जाता रहा और मुश्किल जगहों पर पोस्टिंग दी गई।

17वें नंबर पर हैं सीबीआई वाले आईपीएस एके शर्मा। कभी नरेंद्र मोदी एंड पार्टी के खास रहे एके शर्मा अब उनकी आंख की किरकिरी बन चुके हैं। हाल ही में मोदी सरकार ने आलोक श्रीवास्तव के साथ ही एके शर्मा पर भी अपना अवैध हथौड़ा चलाया है। एके शर्मा पर विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चौकसी को देश से भगाने के आरोप हैं। सूत्रों के मुताबिक जब राकेश अस्थाना को एके शर्मा का वरिष्ठ बनाकर बैठा दिया गया, तभी से वह अस्थाना की अपोजिट लॉबी में चले गए। पिछले दिनों जो रातों रात पीएमओ के जरिए तुगलकी फरमान निकला, उसके तहत सीबीआई के ज्वाइंट डायरेक्टर अरुण शर्मा को जेडी पॉलिसी और जेडी एंटी करप्शन हेडक्वार्टर से हटा दिया गया है।

18वें हैं अजय बस्सी। अजय बस्सी दिल्ली हेडक्वार्टर में डिप्टी एसपी के पद पर तैनात थे और राकेश अस्थाना घूसकांड की जांच कर रही टीम का नेतृत्व कर रहे थे. बस्सी का ट्रांसफर पोर्ट ब्लेयर किया गया है.

19वें हैं एसएस ग्रूम- सीबीआई के एडिशनल एसपी एसएस ग्रूम का ट्रांसफर जबलपुर किया गया है. इन पर डिप्टी एसपी देवेंद्र कुमार की गिरफ्तारी और उनसे जबरदस्ती कोरे कागज पर दस्तखत कराने का आरोप है.

20वें हैं ए साई मनोहर- सीबीआई में तैनात आईपीएस मनोहर को राकेश अस्थाना का करीबी कहा जाता है और इन्हें चंडीगढ़ में पोस्ट किया गया है.

21वें नंबर पर हैं वी मुरुगेसन। सीबीआई में तैनात आईपीएस वी मुरुगेसन को चंडीगढ़ में नियुक्त किया गया है.

22वें हैं अमित कुमार- अमित कुमार सीबीआई में डीआईजी की जिम्मेदारी संभाल रहे थे जिन्हें मोदी सरकार के बैठाए सीबीआई के कार्यवाहक निदेशक ने JD, AC-1 में ट्रांसफर कर दिया है।

23वें नंबर पर हैं मनीष सिन्हा- मनीष सिन्हा सीबीआई में डीआईजी का पद संभाल रहे थे और इनका ट्रांसफर नागपुर किया गया है.

24वें हैं जसबीर सिंह- ये सीबीआई में डीआईजी हैं और इन्हें बैंक धोखाधड़ी विंग का अतिरिक्त प्रभार दिया गया है.

25वें हैं सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा। आलोक वर्मा भी कभी नरेंद्र मोदी एंड पार्टी के खास माने जाते हैं, लेकिन अब हालात यह हैं कि नरेंद्र मोदी अजित डोवाल की मदद से उनके घर आईबी के लोगों को भेजकर जासूसी करा रहे हैं तो आलोक वर्मा के लोग भी कम नहीं हैं। वे नरेंद्र मोदी और अजीत डोवाल के भेजे जासूसों को सड़क पर घसीट घसीटकर पीट रहे हैं। अभी नरेंद्र मोदी एंड पार्टी और सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा के बीच रस्साकसी जारी है, जिसमें आलोक वर्मा का पलड़ा भारी पड़ता दिख रहा है। अगर आईपीएस लॉबी ठीक से काम करने लगे तो पिछले 17-18 सालों से जो नरेंद्र मोदी ने आईपीएस लॉबी का जीना दुश्वार कर रखा है, इसी एक मामले से उसे कुछ राहत मिल सकती है। आखिरकार आलोक वर्मा के पास जो फाइलें हैं, तोते की जान तो उसी में है।

Friday, October 5, 2018

Fake News से लड़ने का facebook का fake दावा

जबसे कैंब्रिज एनालिटका और फेसबुक का चुनावी घोटाला खुला है, फेसबुक के मार्क जकरबर्ग बार बार कह रहे हैं कि उनकी कंपनी फेक न्यूज और अफवाहों से लड़ने के लिए अपनी तकनीक विकसित कर रही है। जब अमेरिकी कांग्रेस ने यह पूछा कि इस तकनीक को विकसित करने की अंतिम तारीख बताइए तो मार्क जकरबर्ग ने उन्हें जवाब दिया कि इसमें महीनों लगेंगे। मामला खुले अब एक साल होने को आए हैं, लेकिन मार्क जकरबर्ग ने फेसबुक पर सिवाय थर्ड पार्टी चेक लगाने के ऐसा और कोई भी मैकेनिज्म तैयार नहीं किया है, जिससे फेक न्यूज पर रोक लग सके। अपने यहां भारत में तो फेसबुक ने न तो फेक न्यूज पर किसी तरह की कोई रोक लगाई है और न ही फेक न्यूज फैलाने वालों पर ही कोई रोक लगाई है। भारत के चुनाव आयोग से फेसबुक ने ये तो कह दिया है कि वह मतदान के दो दिन पहले अपने प्लेटफॉर्म पर चुनावी चकल्लस रोक देगा, लेकिन फेसबुक ऐसा कैसे करेगा, उसे खुद ही नहीं पता है।

इंडिया 272 प्लस, शंखनाद, पोस्टकार्ड न्यूज, सोशल तमाशा, द इंडिया आई, डार्क ट्वीट्स फ्रॉम लिबरल बेसमेंट जैसे फेक न्यूज के सैकड़ों पेज अभी भी फेसबुक पर धड़ल्ले से फेक न्यूज और अफवाह फैलाने का काम कर रहे हैं, लेकिन फेसबुक इनपर किसी तरह की कोई रोक नहीं लगा रहा है। उल्टे हो यह रहा है कि सही खबरें देने वाली वेबसाइटों को फेसबुक पर से ब्लॉक किया जा रहा है। इन्हीं बातों को लेकर सीएनएन के रिपोर्टर ऑलिवर डैरसी ने फेसबुक के न्यूज फीड हेड जॉन हेगमैन से बड़ा सही सवाल पूछा। उन्होंने पूछा कि अगर फेसबुक सच में अफवाहों और फेक न्यूज से लड़ने के लिए सीरियस है तो इस तरह के फेक न्यूज फैलाने वाले अकाउंट्स अभी तक फेसबुक पर क्या कर रहे हैं? आप चेक करेंगे तो पाएंगे कि इंडिया 272 प्लस, शंखनाद, पोस्टकार्ड न्यूज, सोशल तमाशा, द इंडिया आई, डार्क ट्वीट्स फ्रॉम लिबरल बेसमेंट जैसे फेक न्यूज के सैकड़ों पेजों को फॉलो करने वालों की संख्या हजारों लाखों में है। जवाब में जॉन हेगमैन ने जो कहा, उससे आपकी चिंता और बढ़ने वाली है। उन्होंने कहा कि फेसबुक फेक न्यूज को नहीं हटाता।

लेकिन इसके आगे हेगमैन ने जो कहा, वह तो दुनिया को, सच को और लोकतंत्र को पूरी तरह से गड्ढे में धकेलने वाली बात है। उन्होंने कहा कि फेक न्यूज कम्यूनिटी स्टैंडर्ड को वॉयलेट नहीं करतीं और न ही फेक न्यूज फैलाने वाले ऐसे पेज हमारे समाज का ऐसा कोई नियम तोड़ते हैं, जिसके लिए कि उन्हें ब्लॉक किया जाए। एक बार फेसबुक पर चेक करिए तो आप पाएंगे कि इंडिया 272 प्लस, शंखनाद, पोस्टकार्ड न्यूज, सोशल तमाशा, द इंडिया आई जैसे फेक न्यूज फैलाने वाले फेसबुक पेज रोजाना ढेर सारी फेक न्यूज पोस्ट कर रहे हैं, लेकिन उनपर कोई रोक नहीं लगी है।

यह बात बिलकुल नहा धोकर साफ है कि फेसबुक भारत में किसी तरह की फेक न्यूज पर रोक लगाने नहीं जा रहा है। उसने जो थर्ड पार्टी चेकर लगाया भी है, वह उन्हीं खबरों को छूट देता है जो सब जगह होती हैं। लेकिन ऐसी खबरें, जो एक्सक्लूसिव होती हैं, उन्हें यह थर्ड पार्टी चेकर फेक न्यूज साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। मसलन जज लोया की मौत की जो खबरें चलीं, हम जानते हैं कि मेन स्ट्रीम मीडिया ने उन्हें हम लोगों को न दिखाने के लिए पूरी कमर कसी और नहीं दिखाईं। आज की तारीख में जज लोया की मौत से जुड़ी न्यूज फाइलें जब फेसबुक पर डाली जाती हैं तो बीजेपी की ट्रॉल आर्मी उन्हें रिपोर्ट करती है। चूंकि वह खबरें मेनस्ट्रीम मीडिया में सभी जगहों पर नहीं मिलतीं, इसलिए उन्हें फेसबुक डाउन कर देता है। इस वजह से देश के इतने बड़े मामले से जुड़ी खबरें अधिकतर लोग न तो देख पाए और न ही जान पाए। इसी तरह से आदिवासियों के साथ जो घटनाएं होती हैं, मेनस्ट्रीम मीडिया उन्हें कवर नहीं करता। लेकिन जो लोग उन्हें कवर करते हैं, फेसबुक उन्हें फेक न्यूज कैटेगरी में डाल देता है।

देश के कई पत्रकारों को भी फेसबुक ने टारगेट कर रखा है। मसलन एनडीटीवी के रवीश कुमार और खुद मैंने भी जब फेसबुक के फ्री बेसिक्स के गोरखधंधे के खिलाफ आवाज उठाई और लोगों को समझाना शुरू किया कि फ्री बेसिक्स के तहत कैसे फेसबुक और अंबानी मिलकर ठगी का नया धंधा लाने जा रहे हैं तो हमारी फेसबुक रीच 80 प्रतिशत तक कम कर दी गई। उस वक्त मैंने इस मामले को लेकर इंग्लैंड में गैरी मैक्किननन से बात की थी। गैर मैक्कनिन स्कॉटिश हैं और हैकिंग के इतिहास में पहले सबसे बड़े हैकर माने जाते हैं जिन्होंने सन 2002 में दुनिया की सबसे बड़ी मिलिट्री हैकिंग की थी और अमेरिकी सेना के कई कंप्यूटर्स हैक किए थे। गैरी ने बताया कि वह खुद फेसबुक पर ब्लॉक हैं और फेसबुक पर उनके हजार से ज्यादा दोस्त नहीं हैं। लेकिन उसके बावजूद कोई भी उन्हें फ्रेंड रीक्वेस्ट नहीं भेज सकता है। अभी वह जेल से बाहर हैं, लेकिन बेहद डरे हुए हैं, इसलिए उन्होंने इस बारे में सीधे-सीधे कुछ भी बात करने से मना कर दिया, अलबत्ता इतना जरूर कहा कि वह कतई नहीं मानते कि यह प्लेटफॉर्म सुरक्षित है। खैर, मैंने फेसबुक की इसी अघोषित बदमाशी के चलते फेसबुक हमेशा के लिए छोड़ दिया और उस वक्त रवीश कुमार को भी यही राय दी थी। अभी का हाल जानने के लिए रवीश कुमार को फोन मिलाया गया, लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया। शायद अब वह भी फेसबुक के कीड़े हो चुके हैं कि जो जब तक फेसबुक को अच्छे से चाट न ले, उसे चैन नहीं मिलेगा। मेरा मानना है कि जिसे भी सही खबर जानने की ख्वाहिश होगी, वह मेहनत करेगा, सर्च करेगा, चार जगहों पर जाकर चीजों को पढ़ेगा या देखेगा। और जिसे सही खबर जानने की इच्छा नहीं होगी, वह इसी तरह से इंडिया 272 प्लस, शंखनाद, पोस्टकार्ड न्यूज, सोशल तमाशा, द इंडिया आई जैसे फेक न्यूज फैलाने वाले फेसबुक पेजों पर जा जाकर लाइक कमेंट और शेयर करता रहेगा। वह सच जानने के लिए मेहनत बिलकुल नहीं करेगा।

फेक न्यूज का किला बन चुके फेसबुक को छोड़ने के लिए मैं कई बार लोगों को समझा चुका हूं, लेकिन देखता हूं कि भारत में लोगों पर झूठ खाने और पचाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। इसकी सीधी वजह यही है कि अभी अपने यहां लोकतंत्र को आए सिर्फ 70 साल हुए हैं और भारत के लोगों की सोच न तो लोकतंत्र को लेकर साफ हो पाई है और न ही सच को लेकर और न ही अपनी खुद की सुरक्षा को लेकर। लेकिन अमेरिका में लोकतंत्र हमसे कहीं ज्यादा पुराना है और गनीमत है कि वहां पर काफी लोगों की सोच लोकतंत्र को लेकर साफ है। इसी महीने, यानी कि सितंबर 2018 में वहां पर प्यू रिसर्च सेंटर वालों ने एक सर्वे कराया है, जिससे वहां पर साफ लोकतांत्रिक सोच बिलकुल साफ दिखाई पड़ती है। आपको बता दें कि प्यू रिसर्च सेंटर वही है, जिसने अपने यहां नोटबंदी के बाद सर्वे कराया था, जिसमें काफी लोगों ने नरेंद्र मोदी की सरकार में आस्था व्यक्त की थी। इसके बाद पिछले साल भी इसके सर्वे में देश के आर्थिक हालात में लोगों की बड़ी आस्था दिखाई गई थी और इसी महीने फिर से इसकी नई रिसर्च सामने आई है, जिसमें बताया गया है कि लोगों का देश के आर्थिक हालात में अब भरोसा नहीं रह गया है।

तो फेसबुक के बारे में प्यू की ताजी रिसर्च कहती है कि अमेरिका की तकरीबन आधी आबादी अब फेसबुक पर बिलकुल भरोसा नहीं करती है। सन 2017 से लेकर अभी तक यानी कि सितंबर 2018 तक वहां के 42 प्रतिशत लोगों ने फेसबुक से किनारा कर लिया है। प्यू के सर्वे में शामिल 26 प्रतिशत लोगों ने  बताया कि उन्होंने अपने मोबाइल फोन से फेसबुक डिलीट कर दिया है। 54 प्रतिशत लोगों ने फेसबुक पर अपनी प्राइवेसी सेटिंग बदल डाली है और इन सबमें से 74 प्रतिशत लोग ऐसे रहे, जिन्होंने माना कि उन्होंने इन तीनों एक्शन में से कोई एक एक्शन लिया है। इस सर्वे की जो सबसे खास बात है, वह ये कि युवाओं ने सबसे ज्यादा फेसबुक के खिलाफ मोर्चा खोला है। 18 से 49 साल के लोगों ने सबसे ज्यादा फेसबुक डिलीट किया है या फिर उसकी प्राइवेसी सेटिंग बदली है या फिर फेसबुक का इस्तेमाल कंप्यूटर या मोबाइल या लैपटॉप पर करना बंद कर दिया है। लेकिन बात बुजुर्गों की करें, जिनके कंधे पर हम युवाओं को रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी है तो वह फेक न्यूज, अफवाह और प्राइवेसी को लेकर सबसे ज्यादा लापरवाह निकले हैं। 50 से 65 साल के लोगों में महज 33 प्रतिशत लोगों ने ही फेसबुक से किसी भी रूप में किनारा किया है, बाकी के 67 प्रतिशत लोग पहले की ही तरह फेसबुक पर बने हुए हैं और पहले की ही तरह फेक न्यूज और अफवाहों के साथ खड़े हुए हैं।

आपका डाटा यहां बेचता है फेसबुक

हम सभी ने देखा कि कैसे फेसबुक ने कैंब्रिज एनालिटिका के साथ शातिर गठजोड़ करके हम सभी का डाटा रूसियों को बेचा। इस मामले में जब सवाल उठा तो पहले पहल मार्क जकरबर्ग यही कहते नजर आए कि उन्हें तो कुछ पता ही नहीं था। सन 2014 से लेकर 2016 तक रूसियों ने फेसबुक पर एक के बाद एक 80 हजार फेक न्यूज पोस्ट अपडेट की, लेकिन मार्क जकरबर्ग चैन की बंसी बजाते रहे। जब मामला खुला और अमेरिकी कांग्रेस ने उनका कान पकड़कर कांग्रेस के सामने बैठा दिया, तब कहीं जाकर मार्क जकरबर्ग के मुंह से बड़ी मुश्किल से सॉरी निकला, वह भी सूखते गले के साथ। कांग्रेस की उस पूछताछ के इसी चैनल पर ढेर सारे वीडियो मौजूद हैं, उनमें आप देख सकते हैं कि कैसे वह बार बार पानी पीकर अपना गला तर करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन कांग्रेस के लोग उनके हलक में हाथ डालकर कैसे सच बाहर निकलवा रहे हैं। फेसबुक ने माना है कि उसने हम सभी भारतीयों का डाटा भी स्टोर किया है। सवाल उठता है कि क्या हमारी संसद में इतना भी दम नहीं है कि वह एक ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी बनाकर मामले की जांच करे और मार्क जकरबर्ग को बिलकुल उसी तरह से कान पकड़कर हमारी संसद के सामने बैठा दे, जैसा कि अमेरिकी संसद ने किया और बिलकुल उसी तरह से उनके हलक में हाथ डालकर सच उगलवाए?

लेकिन यह बात फेसबुक और कैंब्रिज एनालिटिका के उस गठजोड़ की नहीं है, जिसके तहत दोनों ने मिलकर हम सबके डाटा के साथ खिलवाड़ किया था। बात यह है कि क्या फेसबुक खुद हमारा डाटा बेचता है? क्या फेसबुक खुद हमारा डाटा स्टोर करता है और हमारी क्लोनिंग करके हमें डॉली नाम की भेड़ बनाने पर तुला है? क्या हो अगर डेनमार्क से कोई आपके ही नाम से बिलकुल ओरिजनल आईडी बनाए? क्या हो कि अगर कोई आपके ही नाम से बिलकुल आपकी ही भाषा में फेक न्यूज या अफवाह फैलाए? क्या हो कि कोई आपके नाम से आपकी वह तस्वीरें पोस्ट करे, जो आपने कभी फेसबुक पर डाली ही नहीं और जो आपके मोबाइल के गैलरी सेक्शन में रखी हुई हैं? क्या हो कि कोई आपकी ही आवाज में आपके नाते रिश्तेदारों को फोन करे और किसी खास पार्टी को वोट देने की पैरवी करे? इन सवालों के जवाब इसी वीडियो में मिलेंगे, लेकिन पहले यह जान लें कि क्या फेसबुक हमारा डाटा खुले बाजार में बेच देता है? वह खुला बाजार, जो बेहद खतरनाक है और अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकता है और किसी भी हद तक जा सकता है। और हर हद तक जाने के बावजूद हमारी सरकारें, फिर चाहे वह किसी भी पार्टी की क्यों न हों, कुछ नहीं करेंगी क्योंकि वह भी सिर्फ वोटबैंक की राजनीति ही करती आई हैं और उन्होंने इसके अलावा और कुछ भी न तो सीखा है और न ही किया है। वह हम भारतीयों की औकात एक भेड़ से अधिक और कुछ नहीं समझते।

जब अमेरिकी कांग्रेस यानी कि अमेरिकी संसद ने मार्क जकरबर्ग के हलक में हाथ डाला, तब कहीं जाकर यह राज खुला कि फेसबुक ने अकेले कैंब्रिज एनालिटिका को ही हम सबका डाटा नहीं बेचा। ऐसी 81 कंपनियां हैं, जिनके नाम फेसबुक ने अमेरिकी संसद को दिए गए एफीडेविट में बताए हैं कि वह उन्हें डाटा बेचता आ रहा है। अपने सात सौ पेज के मेनीफेस्टो में फेसबुक ने अमेरिकी संसद की एनर्जी और कॉमर्स कमेटी को इन कंपनियों के नाम बताए हैं। कैंब्रिज एनालिटिका के साथ किए गए शातिर और आपराधिक गठजोड़ में नाम सामने आने के बावजूद इसी साल फेसबुक ने एप्पल, अमेजॉन, सैमसंग और अलीबाबा जैसी कंपनियों के साथ हमारा आपका डाटा बेचने का कॉन्ट्रैक्ट किया है। क्या आपने कभी देखा कि फेसबुक ने आपसे आपका डाटा किसी को भी बेचने के लिए अनुमति मांगी है? नहीं देखेंगे क्योंकि फेसबुक ने ऐसी कोई अनुमति कभी मांगी ही नहीं है।

हुवाई और अलीबाबा जैसी कंपनियां, जो भारत में भारतीय डाटा की स्मगलिंग के लिए पकड़ी गई हैं और जिनपर जांच भी चल रही है, फेसबुक ने हमारा सारा डाटा इन कंपनियों को बेच दिया है। फेसबुक का दावा है कि जिन 81 कंपनियों को वह हमारा डाटा बेच रहा है, उनमें से 38 कंपनियों से उसने अपनी पार्टनरशिप तोड़ दी है। लेकिन अभी भी 43 कंपनियां हैं, जिन्हें वह हमारा सारा डाटा बेच रहा है। हालांकि फेसबुक का दावा है कि वह सिर्फ 14 कंपनियों को हमारा डाटा बेच रहा है। सारा डाटा का मतलब सिर्फ हमारे फेसबुक का ही डाटा नहीं है। जो लोग मोबाइल से फेसबुक या फेसबुक का कोई भी प्रोडक्ट मसलन व्हाट्सएप्प और इंस्टाग्राम यूज करते हैं, इन एप्स को इंस्टाल करने से पहले और इंस्टाल करते ही फेसबुक हमारे मोबाइल में मौजूद सारा अपने पास फेच कर लेता है, यानी कि खींच लेता है। इसका वह बाकायदा फॉर्म भरवाता है और जिसे न भरने पर आप उसका कोई भी प्रोडक्ट यूज नहीं कर सकते। इस फॉर्म में हमारे मोबाइल का कैमरा, गैलरी, कॉन्टैक्ट लिस्ट, एसएमएस, दूसरे एप्स और मोबाइल में तकरीबन जो कुछ भी है, वहां तक पहुंचने के लिए फेसबुक को इजाजत देनी पड़ती है। इजाजत न देने की हालत में फेसबुक का कोई भी एप इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
इस बात के अप्रत्यक्ष सबूत मिल चुके हैं कि भारत में जितनी राजनीतिक पार्टियां हैं, बीजेपी और उसके सहयोगी दल फेसबुक के इस डाटा के सबसे बड़े खरीदार हैं। नरेंद्र मोदी के लिए तो फेसबुक ने अपनी पूरी टीम ही भारत में तैनात कर रखी है, जिसकी ग्लोबल हेड कैथी हरबाथ लगभग हर तीसरे महीने ही भारत भागी चली आती हैं। कैथी हरबाथ के बीजेपी के सभी बड़े नेताओं और मुख्यमंत्रियों से संबंध हैं और वे भारत में तरह तरह के ट्रेनिंग प्रोग्राम भी चलाती हैं। इसी तरह से दुनिया भर में जितने भी तानाशाह हैं, चाहे वह म्यांमार हो या अजरबैजान या फिर अमेरिका के ट्रंप, यह सभी फेसबुक से डाटा खरीदते हैं, लेकिन इस खरीद का जो चेहरा दुनिया को दिखाया जाता है, वह बिलकुल दूसरा होता है।

जैसा कि पहले बताया कि फेसबुक हमारा डाटा प्राइवेट कंपनियों को बेच रहा है। पहले जान लें कि इस डाटा में क्या क्या है। मोटे तौर पर हम अपना फेसबुक डाटा दो कैटेगरी में बांट सकते हैं। पहली कैटेगरी है आम लोग जो फेसबुक का इस्तेमाल अपने लोगों से जुड़ने और सूचनाओं को पाने के लिए करते हैं। दूसरी कैटेगरी है उन लोगों की, जो फेसबुक पर विज्ञापन देते हैं और कई तरह के बिजनेस या राजनीतिक पार्टियों से जुड़े हुए हैं। कैंब्रिज एनालिटिका के घोटाले में जब फेसबुक पकड़ा गया तो उसने हमें अपना डाटा डाउनलोड करने की सुविधा दी। अब कोई भी अपनी फेसबुक की सेटिंग में जाकर अपना डाटा डाउनलोड कर सकता है। डाटा डाउनलोड करने के बाद अब हर कोई देख सकता है कि फेसबुक ने उसकी क्या क्या चीजें अपने पास स्टोर कर रखी हैं। आम लोगों की कैटेगरी में फेसबुक का स्टोरेज दिखाता है कि वह अबाउट यू, एप्स एंड वेबसाइट, कॉल्स एंड मैसेजेस, कमेंट्स, ईवेंट्स, फ्रेंड एंड फालोइंग, ग्रुप्स, लाइक्स एंड रियेक्शन, लोकेशन हिस्ट्री, इनबॉक्स की सारी बातचीत, दूसरी एक्टीविटी, फोटो और वीडियो, पोस्ट, प्रोफाइल फॉरमेट, सर्च हिस्ट्री, सीक्योरिटी और लॉगिन करने की जगहें और मशीन वगैरह रिकॉर्ड करता है। विज्ञापन देने वाले लोगों में मार्केटप्लेस, फेसबुक के पेज, पेमेंट हिस्ट्री वगैरह बढ़ जाती है। यह तो वह डाटा है जो फेसबुक हमें बताता है कि उसने स्टोर किया है। अब एक छोटा सा प्रयोग करें। अमेजन या फ्लिपकार्ट पर जाकर पेन ड्राइव के बारे में सर्च करें और बगैर कुछ खरीदे वापस आकर अपना फेसबुक रीफ्रेश करें। आप पाएंगे कि जो चीज आप उन वेबसाइटों पर सर्च कर रहे थे, उन्हीं चीजों का विज्ञापन फेसबुक आपको दिखा रहा है। यानि कि जो चीजें आपने फेसबुक पर की ही नहीं, वह भी फेसबुक रिकॉर्ड कर रहा है। इसी तरह से हम मोबाइल पर किससे क्या बातचीत करते हैं या किसे क्या एसएमएस करते हैं कि किसी कौन सी फोटो खींचते हैं, यह सबकुछ फेसबुक रिकॉर्ड कर रहा है, और उन सभी कंपनियों को बेच रहा है, जिनके प्रोडक्ट हम सर्च कर रहे हैं। अब जरा इसी सर्च को राजनीतिक पार्टियों के रूप में सर्च करके देखें। इसी तरह से हमारा सारा डाटा उन्हें भी बेचा जा रहा है।

फेसबुक बार बार यह कहता है कि वह किसी को भी हमारा डाटा नहीं बेचता है। लेकिन फिर वह अमेरिकी कांग्रेस को उन कंपनियों की लिस्ट भी पकड़ाता है, जिन्हें वह हमारा डाटा बेचता है या जिन्हें उसने पहले कभी हमारा डाटा बेचा। फेसबुक का कहना है कि वह कंपनियों को डाटा नहीं बेचता, लेकिन जिस तरह के डाटा पर कंपनियां अपना विज्ञापन दिखाना चाहती हैं, उस जगह पर वह उन कंपनियों का विज्ञापन ले जाकर रख देता है। जाहिर है कि बीजेपी अपना विज्ञापन वहीं या उन्हीं लोगों को सबसे पहले दिखाना चाहेगी, जो बीजेपी के बारे में जानना चाहते हैं या जिनके दिमाग में बीजेपी को लेकर कुछ चल रहा है। लोगों के दिमाग में क्या चल रहा है, फेसबुक से ज्यादा इस बारे में कौन जानेगा? आखिर फेसबुक खुलते ही जो सबसे पहला सवाल हमारे सामने आता है, वह होता है- व्हाट्स इन योर माइंड? इसमे जो सबसे ज्यादा चिंता की बात है, और जिसपर अमेरिकी कांग्रेस ने सवाल भी उठाया था और जिसका जवाब मार्क जकरबर्ग नहीं दे पाए थे, वह ये कि क्या वह हमारा डाटा किसी को भी बेचने से पहले, फिर चाहे वह उन्हीं की वेबसाइट पर विज्ञापन देने वाले ही क्यों न हों, उससे पहले क्या कभी उन्होंने हमसे पूछा या हमें बताया कि वह हमारा डाटा किसे बेच रहे हैं?

यहां से डाटा चोरी कर रहा है फेसबुक

28 सितंबर को फेसबुक ने एक प्रेस नोट जारी करके बताया कि उसके सरवर से पांच करोड़ लोगों की प्रोफाइल हैक हो चुकी हैं। हैक बोले तो चोरी। उन प्रोफाइल्स में जो कुछ भी था, वह सब चोरी हो गया। यह चोरी किसने की, फेसबुक का कहना है कि उसे इस बारे में कुछ भी नहीं पता। पांच करोड़ लोगों की प्रोफाइलों से क्या क्या चोरी गया, यह भी फेसबुक को नहीं पता। अलबत्ता फेसबुक को यह जरूर पता है कि इस बार जिन पांच करोड़ लोगों की फेसबुक प्रोफाइल्स चोरी हुई हैं, उसका असर फेसबुक पर मौजूद चार करोड़ दूसरे लोगों पर पड़ा है। इसके चलते फेसबुक ने कुल मिलाकर नौ करोड़ लोगों को उनके मोबाइल या कंप्यूटरों से लॉगआउट करा दिया है। सन 2016 में जब अमेरिका में चुनाव हो रहे थे, तब कैंब्रिज एनालिटिका ने फेसबुक पर मौजूद 8.7 करोड़ लोगों की प्रोफाइल का डाटा चुराया था। सन 2016 में हुई फेसबुक की पहली सबसे बड़ी डाटा चोरी के बाद दुनिया ने देखा कि कैसे अमेरिकी चुनाव में खेल हुआ और कैसे किसी के भी न चाहते हुए डॉनल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बन बैठे। अब अमेरिका में मध्यावधि चुनाव होने वाले हैं और भारत में राजस्थान मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव तो होने ही वाले हैं, कुछ ही महीनों में लोकसभा चुनावों के लिए वोटिंग होने वाली है। ऐसे वक्त में फेसबुक ने ऐलान किया है कि उसपर मौजूद नौ करोड़ लोगों का डाटा या तो चोरी हो चुका है, या फिर हैकर उनके डाटा तक पहुंच चुके हैं। हालांकि फेसबुक ने बताया है कि जिस रास्ते चोरी हुई है, उसने वह रास्ता बंद कर दिया है, लेकिन इंटरनेट की तकनीकी दुनिया में सभी जानते हैं कि यह रास्ता बंद नहीं हुआ है और अब इसे बंद कर पाना सिर्फ एक ही सूरत में संभव है। और वह है कि फेसबुक को ही बंद कर दिया जाए। दुनिया को अगर बचाना है, दुनिया को अगर साफ सुथरा रखना है, जैसी दुनिया बनाने का सपना हमारे बुजुर्गों ने देखा और हमारी उंगली थामकर हमें देखना सिखाया है, फेसबुक को बंद करने के अलावा और कोई भी दूसरा रास्ता नहीं है।

फेसबुक ने बताया है कि इस चोरी के लिए हैकरों ने फेसबुक प्रोफाइल पर मौजूद व्यू एज बटन का इस्तेमाल किया। इस बटन के जरिए फेसबुक यूजर अपने आपको बिलकुल वैसे देख सकते हैं, जैसा कि दूसरे उनकी प्रोफाइल पर उनको देखते हैं। पिछले साल यानी कि जुलाई 2017 में फेसबुक ने अपने वीडियो फीचर में कुछ बदलाव किए थे, जिसकी वजह से उसकी साइट में तीन तरह के कीड़े यानी कि बग लग गए। इन्हीं कीड़ों ने फेसबुक की सीक्योरिटी को कुतरकर हैकरों के लिए वह रास्ता तैयार किया, जिसके जरिए फेसबुक की नौ करोड़ प्रोफाइलों का डाटा चोरी हो गया।

अपने यहां अक्सर लोग यह पूछते हैं कि डाटा चोरी हुआ तो उनपर क्या फर्क पड़ेगा। इसका बड़ा ही सीधा जवाब है कि पहले यह जान लिया जाए कि फेसबुक के पास हमारा ऐसा कौन सा डाटा है जिसे पाने के लिए दुनिया भर के हैकर, तानाशाह और चुनाव में जीतने के लिए साम दाम दंड भेद अपनाने वाले नेता मरे जा रहे हैं। इसका बड़ा आसान तरीका है। अपने फेसबुक प्रोफाइल की सेटिंग्स में जाइए। वहां आपको डाउनलोड योर इन्फॉरमेशन नाम से एक बटन दिखेगा। यहां पर क्लिक करके आप अपना सारा फेसबुक डाटा डाउनलोड कर सकते हैं। इसे डाउनलोड करने के बाद जब आप इस फाइल को खोलेंगे तो पाएंगे कि यहां पर आपके बारे में अबाउट अस है, आप कब कहां गए, उसकी अलग फाइल है। आपने कब और कहां कौन सी तस्वीर फेसबुक पर अपलोड की, उसकी अलग फाइल है। आपने कब कौन सी वीडियो अपलोड की, उसकी अलग फाइल है। आपने कब कहां और क्या कमेंट किया, उसकी अलग फाइल मिलेगी। आपके दोस्तों की अलग फाइल मिलेगी तो आपके फॉलोवस और आप जिसे फॉलो करते हैं, उसकी अलग फाइल मिलेगी। लेकिन जो सबसे संवेदनशील फाइलें मिलेंगी, वह हैं आपकी चैटिंग का पूरा डाटा और आपने फेसबुक पर जो सर्च किया है, उसका पूरा डाटा। चैटिंग और सर्च की भी आपको फाइलें वहां मिल जाएंगी। चैटिंग में हम सभी अक्सर बेहद संवेदनशील जानकारियां बांटते हैं और इस विश्वास के साथ कि कम से कम इसे कोई और नहीं देख रहा है। सिर्फ वही देख रहा है, जिससे बात की जा रही है। इस चैटिंग में हम सभी ने अक्सर अपने बैंक अकाउंट, पासवर्ड, पैन कार्ड, आधार कार्ड और अपने बारे में लगभग सारी संवेदनशील जानकारियां अपने किसी ऐसे जाननेवाले को दे रखी हैं, जिसपर कि हमें पूरा भरोसा है। यह ऐसी जानकारियां होती हैं, जो किसी क्रिमिनल टाइप के आदमी के हाथ लग जाए तो वह हमें कंगाल बना देने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेगा। हमारी दूसरी सबसे संवेदनशील जानकारी है कि हमने सर्च क्या किया? हमारे दिमाग में जो सवालात आते हैं, वह हम सर्च करते हैं। हम जो कुछ भी जानना चाहते हैं, हम वह सर्च करते हैं। हमारे दिमाग में जो कुछ भी चल रहा है, वह इन्हीं सर्च से सामने आता है।

अब हमारे दिमाग में क्या चल रहा है, इसका सीधा फायदा दो लोग उठाते हैं। पहला बिजनेसमैन यानी कि धंधा पानी करने वाले। अगर हमारे दिमाग में चलती चीजें उनके प्रोडक्ट से मेल खाती हैं तो वह अपना प्रोडक्ट हमें बेचने पहुंच जाते हैं। दूसरे हैं हमारी राजनीतिक पार्टियां। हमारे दिमाग की थाह लेकर ही वह हमारी भावनाओं से खेलती आई हैं। फेसबुक ने इस खेल को और भी ज्यादा आसान बना दिया है। यही वजह है कि फेसबुक के आने के बाद से दुनिया भर की राजनीति में गंदगी और भी बढ़ गई है। इस गंदगी के चलते दुनिया भर के उन देशों में, जहां जनता का राज है, यानी कि जहां लोकतंत्र है, वहां के लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर बहुत ही बड़ा खतरा मंडरा रहा है। वक्त वक्त पर फेसबुक के जरिए इसे भारी चोट भी पहुंचाई गई है। अमेरिका से लेकर म्यांमार और यूरोपियन यूनियन से लेकर मिडल ईस्ट तक हमने इसी फेसबुक के जरिए लोकतंत्र को घायल होकर कराहते देखा है।

इस साल यानी कि 2018 के सितंबर में फेसबुक ने जिन पांच करोड़ प्रोफाइलों का डाटा चोरी होने की बात बताई है और जिन दूसरी चार करोड़ प्रोफाइलों पर उसका असर होने की बात बताई है, अगर फेसबुक का पिछला रिकॉर्ड देखें तो पूरी संभावना है कि यह चोरी खुद फेसबुक ने कराई है। कैंब्रिज एनालिटिका में जब फेसबुक पकड़ा गया तो उसका मालिक मार्क जकरबर्ग पहले तो यह मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था कि ऐसी कोई चोरी हुई है। अमेरिकी संसद ने जब उसे हाजिर होने का समन भेजा, तब भी वह हाजिरी से बचने के लिए बहाने बनाता रहा। जब अमेरिकी संसद ने अपने तेवर कड़े किए, जब कहीं जाकर वह अमेरिकी संसद के सामने हाजिर हुआ। अमेरिकी संसद की पूरी कार्यवाही मैंने इसी चैनल पर अपलोड कर रखी है। उसे देखें तो आपकी आंख खुल जाएगी कि फेसबुक ने दुनिया को जोड़ने के नाम पर कैसे दुनिया को तोड़ताड़कर अलग थलग कर दिया है। भाई भाई में दुश्मनी पैदा करा दी है, पति पत्नी में फेसबुक के नाम पर अलगाव पैदा करा दिया है। लोग हत्याओं का सीधा प्रसारण फेसबुक पर कर रहे हैं और फेसबुक के अंदर बैठे लोग अपनी टीम को ट्रेनिंग देते पकड़े गए हैं कि इन हत्याओं का उल्टा सीधा या कैसा भी प्रसारण हो, उसे फेसबुक से नहीं हटाना है। यही हाल फेसबुक का यूरोपियन यूनियन में चले मुकदमे में हुआ है, जहां वह आईएसआईएस के लोगों को आगे बढ़ाता पकड़ा गया है। इंग्लैंड ने तो मार्क जकरबर्ग के ईंग्लैंड में घुसने पर तब तक के लिए पाबंदी लगा दी है, जब तक कि वह वहां की संसद के सामने हाजिर नहीं होता। आज की तारीख में मार्क जकरबर्ग इंग्लैंड से बिलकुल वैसे ही तड़ीपार कर दिया गया है, जैसे अपने यहां कभी अमित शाह को गुजरात से तड़ीपार किया गया था

फेसबुक ने इस बार की यह चोरी तो घोषित कर दी, लेकिन जो चोरी वह चौबीसों घंटे कर रहा है, उसे वह छुपाने की पूरी कोशिश करता रहा है। जिस चोरी को वह छुपाने की कोशिश करता रहा है, वह कैंब्रिज एनालिटिका और अब की हुई चोरी से भी कहीं बड़ी चोरी है। मैंने पहले ही बताया कि फेसबुक हमारा दिमाग पढ़ता है। हम पर्सनली क्या बातें करते हैं, हर एक चीज वह पढ़ता है। ऐसा वह सिर्फ फेसबुक पर ही नहीं करता, बल्कि व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर भी करता है। यह सारी जानकारियां वह इन तीनों माध्यमों यानी कि व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर विज्ञापन देने वालों को बेचता है। अमेरिकी संसद में यह सवाल उठा तो मार्क जकरबर्ग ने जवाब दिया कि वह यह जानकारियां सीधे सीधे नहीं बेचता। बल्कि लोग अपनी पसंद उसे बताते हैं, जिसके हिसाब से वह इन जानकारियों में उनकी पसंद की चीजें खंगालता है और सीधे वहीं पर उनका विज्ञापन दिखाता है, जहां लोग उसे देखना चाहते हैं। लेकिन जो लोग फेसबुक पर विज्ञापन का काम करते हैं, वह जानते हैं कि मामला सिर्फ इतना ही नहीं है। विज्ञापन देने वालों को फेसबुक इसके अलावा भी ऐसा बहुत कुछ बताता है जो कि पूरी तरह से गैरकानूनी है। अमेरिकी संसद ने फेसबुक की इस हरकत पर कड़ी नाराजगी भी जताई है, इसके बावजूद उसका खुला खेल फर्रुखाबादी चालू है।

गिज्मोडो डॉट कॉम ने खुलासा किया है कि फेसबुक विज्ञापनों पर रिसर्च करने वालों ने पाया है कि फेसबुक हमारा बेहद संवेदनशील डाटा ही नहीं बेच रहा है, बल्कि वह हमारे मोबाइल नंबरों के साथ+साथ हमारे जानने वालों के भी मोबाइल नंबर विज्ञापन देने वालों को बेच रहा है। इसके अलावा नंबरों से ही जुड़ा एक और खुलासा किया है। अक्सर लोग अपना मोबाइल नंबर बदलते रहते हैं। अपने यहां जिस तरह से कनेक्टिविटी की प्रॉब्लम है, लोगों की मजबूरी बन जाती है कि वह किसी और कंपनी का नंबर लेकर अपना काम चलाएं। दुनिया के दूसरे देशों में भी कनेक्टिविटी की प्रॉब्लम खूब है। ऐसे देशों में भारत, पाकिस्तान, कंबोडिया, श्रीलंका, पोलैंड, इजरायल, लेबनान सहित थोड़ा बहुत अमेरिका भी शामिल है। इन सभी देशों में इस प्रॉब्लम के चलते लोगों को अपना मोबाइल नंबर बदलना पड़ता है, वरना वह बात ही नहीं कर पाते हैं। अब सवाल उठता है कि जब हम नंबर बदलते हैं तो हमारे पुराने नंबर का क्या होता है? जाहिर सी बात है कि कंपनियां वह नंबर किसी दूसरे को बेच देती हैं। अब जैसे मैंने अपना मोबाइल नंबर बदला और फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया कि अब मेरा ये वाला पुराना नंबर नहीं है बल्कि ये मेरा नया नंबर है। वहीं से फेसबुक पुराना वाला नंबर ट्रेस कर लेता है और विज्ञापन देने वाले चुनिंदा लोगों को बता देता है कि मेरा पुराना नंबर किसी नए आदमी के पास है। नया आदमी अपना नया नंबर अपनी फेसबुक प्रोफाइल से कनेक्ट करता है और फेसबुक उसकी सारी रुचियां जानकर विज्ञापन देने वाली उन्हीं चुनिंदा कंपिनयों को बता देता है। इस तरह से जो कोई भी नया नंबर लेता है, उसके नंबर पर तरह तरह की स्पैमिंग शुरू हो जाती है।

कुल मिलाकर बात इतनी है कि फेसबुक, व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर आप चाहे जो करें, भले ही वह सबके सामने हो या इनबॉक्स की चैटिंग हो, फेसबुक वह सबकुछ रिकॉर्ड कर रहा है। यह सारी रिकॉर्डिंग वह विज्ञापन देने वालों को बेच रहा है। काफी कड़ाई से हुई पूछताछ में फेसबुक ने अमेरिकी संसद के सामने यह बात मानी है, लेकिन साजिशन यह बात उसने दुनिया के सामने नहीं आने दी है। 

बीजेपी, फेसबुक और महान भारतीय लोकतंत्र का गैंगरेप- Part- 2

वैसे कई बार फेसबुक से पूछा गया कि वह अपनी ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स यूनिट में काम करने वालों की संख्या बता दे, लेकिन उसने कभी नहीं बताया। लेकिन फेसबुक के ऑफिस में खुद उसके कर्मचारी कंपनी की नीतियों से परेशान हैं तो वह गाहे बगाहे मुंह खोल देते हैं। ऐसे ही फेसबुक के एक एग्जीक्यूटिव ने नाम सामने न आने देने की शर्त पर बताया चुनावों के वक्त जब फेसबुक की ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स यूनिट काम करना शुरू करती है तो इसमें कंपनी के लीगल, सूचना सीक्योरिटी और पॉलिसी टीम से सैकड़ों लोगों का ट्रांसफर कर दिया जाता है। चुनाव भर ये सब इस यूनिट में काम करते हैं और चुनाव के बाद वापस इन्हें इनके विभागों में ट्रांसफर कर दिया जाता है। चुनावों में जब फेसबुक की ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स यूनिट अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए इकट्ठा होती है तो केटी हरबाथ की टीम फेसबुक के विज्ञापन और सेल्स विभाग के साथ ही बैठने लगती है। विज्ञापन और सेल्स विभाग के लोग फेसबुक समर्थित उम्मीदवार के लिए अधिक से अधिक रिजल्ट लाने में पूरी मदद करते हैं। ये सब लोग मिलकर नेताओं को इस बात की ट्रेनिंग देते हैं कि वह किस तरह से अपना विज्ञापन तैयार करें कि जिससे अधिक से अधिक लोग उल्लू बनें। या फिर कैसे फेसबुक का वह नीला निशान चुटकी बजाते ही हासिल करें, जिसे कोई भी आसानी से नहीं पा सकता। या फिर वे किस तरह के वीडियो बनाएं कि जिसे देखते ही हमारे आपके जैसे वोटर्स उल्लू बन जाएं। और फिर जैसे ही फेसबुक समर्थित उम्मीदवार जीतता है, केटी हरबाथ अपनी टीम लेकर उसकी चौखट पर पहुंच जाती हैं और तुरंत सरकारी अधिकारियों के बीच अपनी पैठ बनाने लगती हैं ताकि आने वाले दिनों में वे और उनकी टीम मार्क जकरबर्ग के लिए और भी अधिक कानून तोड़ सके और किसी भी देश के नियम कायदों को ठेंगा दिखा सके।

इसी तरह से फेसबुक की इस यूनिट ने सन 2015 में स्कॉटिश नेशनल पार्टी को जीतने में न सिर्फ मदद की, बल्कि अपनी कॉरपोरेट वेबसाइट पर बेशर्म अदाबाजी के साथ इसकी सक्सेस स्टोरी भी पब्लिश कर रखी है। और तो और, जो लोग इंग्लैंड छोड़कर स्कॉटलैंड नहीं जाना चाहते थे, उन्होंने भी फेसबुक की यह बदमाशी खुलेआम देखी।

पिछले साल यानी कि 2017 के अप्रैल में वियतनाम के अधिकारियों ने सीना ठोंककर कहा कि फेसबुक ने उनके लिए बाकायदा अलग से ऐसा चैनल तैयार किया है, जिससे कि वे सरकार की आलोचना करने वालों का मुंह बंद कर सकते हैं। कुछ दिन पहले स्क्रॉल डॉट इन ने खबर छापी थी कि भारत सरकार के दर्जनों विभाग हम लोगों के सोशल मीडिया पर गहरी निगाह रख रहे हैं। वैसे एक बात और है। फेसबुक पर अगर कोई भारत का कानून तोड़ने वाली पोस्ट अपडेट करता है तो भले वह भारत से हट जाती है, लेकिन बाकी दुनिया में वह दिखाई देती है। ऐसा फेसबुक दुनिया के हर देश में करता है और कानून की खुलेआम खिल्ली उड़ाता है। यह समस्या और भी गहरी हो जाती है, जब हमें पता चलता है कि दुनिया भर में फैले फेसबुक के दफ्तरों में पहले कभी जो लोकतांत्रिक माहौल था, अब वह पूरी तरह से तानाशाही में बदल चुका है। अमेरिका के राजनीतिक और मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था फ्रीडम हाउस ने 2017 के नवंबर में रिपोर्ट जारी करके बताया था कि कैसे दुनिया भर में ऐसे देशों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है जो सोशल मीडिया का प्रयोग लोकतंत्र को गड्ढे में धकेलने के लिए करते हैं। फ्रीडम हाउस ने इसमें सबसे बड़ा उदाहरण पैट्रियॉटिक ट्रॉलिंग का दिया था। पैट्रियॉटिक ट्रॉलिंग यानि कि देशभक्तों की ट्रॉलिंग। राष्ट्रवादियों की ट्रॉलिंग। ऐसे लोग जो देश या राष्ट्र के नाम पर किसी को भी मा बहन की गालियां देने लगते हैं, किसी को भी बलात्कार की धमकी देने लगते हैं या किसी को सरेआम कुल्हाड़ी से काट डालते हैं या गाय के नाम पर इंसान का बीफ बना देते हैं, ये सभी पैट्रियॉटिक ट्रॉलर्स होते हैं। इनका काम असहमतियों को कुचलना होता है और जो असहमत हैं, उन्हें किसी भी तरह से देशद्रोही साबित करना होता है।

फेसबुक के अंदर उसके एग्जीक्यूटिव्स हमेशा इस तरह के लोगों को बचाने में लगे रहते हैं, ताकि वे धड़ल्ले से नफरत फैलाने वाली बातें फैला सकें। वैसे दुनिया को दिखाने के लिए फेसबुक कभी कभार, बोले तो सौ में से प्वाइंट पांच पर्सेंट बार नफरत फैलाने वालों पर रोक भी लगता है। मसलन वह ग्रीस की अल्ट्रा नेशनलिस्ट पार्टी गोल्डेन डॉन की एकाध पोस्ट कभी बैन कर देता है तो कभी अमेरिका में सफेद चमड़ी वाले नफरती चिंटुओं की पोस्ट बैन करता है तो कभी मिडल ईस्ट में आईसिस यानी कि आईएसआईएस की पोस्ट बैन करता है। लेकिन सौ में से मुश्किल से प्वाइंट पांच पर्सेंट या फिर उससे भी कम। आईएसआईएस के साथ गांठ जोड़कर काम करने के चलते यूरोपियन यूनियन में भी फेसबुक पर मुकदमा चल रहा है और कड़ी जांच हो रही है। फेसबुक के डाटा का गलत प्रयोग और अवैध राजनीतिक गठजोड़ कंक्रीट की तरह मजबूत हो चुका है। सन 2007 में हमने बराक ओबामा को अमेरिका का पहला फेसबुकिया राष्ट्रपति बनते देखा था। इसी साल फेसबुक ने वॉशिंटन में अपना पहला ऑफिस खोला था। ओबामा ने तब अपने वोटरों को रिझाने और भरमाने के लिए फेसबुक की मदद ली थी। सन 2010 से लेकर 2011 के बीच में मिडल ईस्ट में फेसबुक यूजर्स कई गुना बढ़ गए और हमने पाया कि ये वही वक्त था जब मिडल ईस्ट में इस्लामिक स्टेट यानी कि आईएसआईएस और उसके भाई बंधु तेजी से अपना कद बढ़ा रहे थे।

सन 2014 के पहले तक अपने यहां जो चुनाव होते थे, वह लगभग पहले की तरह सामान्य रूप से हुआ करते थे। लेकिन सन 2014 में जबसे मार्क जकरबर्ग ने ट्रंप के दाहिने हाथ कहे जाने वाले रूडी जुलियानी की खासमखास केटी हरबाथ तो नौकरी पर रखा और उसे इस यूनिट की जिम्मेदारी दी, तबसे चुनाव सोशल मीडिया पर लड़े जाने लगे हैं। दुनिया में होने वाले बड़े से बड़े आयोजनों से कहीं ज्यादा और कई गुना कमाई फेसबुक इन चुनावों से कर रहा है। जैसे कि अर्जेंटीना में सन 2015 के चुनाव में मॉरिसियो मैक्री ने अपनी रैलियां फेसबुक पर लाइव दिखाईं और जब वे वहां के राष्ट्रपति बने तो अपना पूरा मंत्रिमंडल ही हंसती-गाती, आंख मारती इमोजीज के साथ फेसबुक पर उतार दिया। 2015 में ही पोलैंड के राष्ट्रवादी राष्ट्रपति आंद्रेज डूडा दुनिया के पहले ऐसे नेता बने जिन्होंने अपना शपथ ग्रहण समारोह ही पूरी दुनिया को फेसबुक पर लाइव दिखाया। आंद्रेज डूडा साहब ने पोलैंड में प्रेस की आजादी की जमकर वाट लगाई है। पूरी बेशर्मी से फेसबुक अपनी कॉरपोरेट वेबसाइट पर यह कहता भी है कि वह चुनावों में होने वाली जीतों का स्थाई और ठोस हिस्सा है।

अमेरिका के बाद फेसबुक का सबसे बड़ा बाजार भारत है। यहां इसके यूजर्स अमेरिका की तुलना में दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहे हैं। इसमें फेसबुक के दूसरे प्रोडक्ट व्हाट्सएप्प के दो सौ मिलियन से भी अधिक यूजर्स शामिल नहीं हैं। व्हाट्सएप्प पर जितने यूजर्स अपने यहां हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं हैं। प्रतिष्ठित मीडिया हाउस ब्लूमबर्ग ने खुलासा किया है कि सन 2014 के चुनावामें में फेसबुक नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के साथ महीनों सिर जोड़कर काम करता रहा था। इन तीनों ने मिलकर फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर काम करने के लिए आईटी सेल बनाई जिसका काम सोशल मीडिया पर तरह तरह की अफवाहें फैलाना है। आपको याद होगा कि इसका बड़ी जोर शोर से प्रचार भी किया गया था कि इस आईटी सेल में इंडियन इंस्टीट्यूट और टेक्नोलॉजी और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट से काफी लोगों की भर्ती की गई थी। यानि कि हमारे देश में जो कुछ भी सड़ा गला लोकतंत्र बाकी थी, इन्हीं आईआईटी और आईआईएम वालों ने उसे खत्म करने में काफी बड़ी भूमिका निभाई है। पता नहीं हम लोग किस मन से इन इंस्टीट्यूट में पढ़ने वालों पर गर्व करते हैं, जबकि दुनिया भर के शिक्षण संस्थानों की रैंकिंग में ये नाखून बराबर भी औकात नहीं रखते। सन 2014 में जब नरेंद्र मोदी चुनाव जीते थे, तब फेसबुक पर फॉलोअर्स की संख्या 14 मिलियन के आसपास थी। लेकिन चुनाव जीतने के बाद यह संख्या अब 43 मिलियन फॉलोअर्स तक पहुंच गई है। यानी कि ट्रंप से भी दोगुनी। यह सब यूं ही नहीं हो गया। आपको याद होगा कि नरेंद्र मोदी सन 2014 में जब फेसबुक के इसी फर्जीपने के चलते चुनाव जीते थे तो जकरबर्ग अपनी चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर शेरिल सैंडबर्ग को लेकर महज कुछ ही हफ्ते में उनसे मिलने पहुंच गया था। यह दोनों तो तब अपना फ्री बेसिक्स का ठगी का ठेला लेकर पहुंचे थे। फ्री बेसिक्स के नाम पर होने वाली धोखाधड़ी को वक्त रहते हम लोग पहचान गए और नरेंद्र मोदी को न चाहते हुए भी अंबानी और मार्क जकरबर्ग के उस मनचाहे गठजोड़ से हाथ जोड़ना पड़ा था, लेकिन उसी वक्त मार्क जकरबर्ग के साथ पहुंची कैटी हरबाथ ने तब सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए एक के बाद एक लगातार कई सारे ट्रेनिंग कैंप लगाए थे। इसमें उन्होंने छह हजार सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को इस बात की ट्रेनिंग दी थी कि कैसे नरेंद्र मोदी के झूठ को सच बनाकर या उनके मन की बात बनाकर हम लोगों के सामने परोसा जाए।

सन 2014 के बाद जबसे नरेंद्र मोदी की सोशल मीडिया रीच बड़ी है, उनकी ट्रॉल आर्मी फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ लगातार हैरेस करने वाली कैंपेन चला रही है। सन 2014 के बाद से ही भारत पूरी दुनिया में फेक न्यूज और अफवाहों का सबसे बड़ा बाजार बन चुका है। इन अफवाहों और फेक न्यूज के चलते कहीं पर लोग गाय के नाम पर पीट पीटकर जान से मार दिए जा रहे हैं तो कहीं बच्चा चोरी के नाम पर तो कहीं डायन होने के नाम पर तो कहीं सिर्फ मुसलमान होने के नाम पर मार दिए जा रहे हैं। रॉयटर्स की रिपोर्ट है कि सन 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के महज छह महीने के अंदर गाय के नाम पर होने वाली हत्यायों में सीधे सीधे 75 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बॉबी घोष ने जब मॉब लिंचिंग मीटर तैयार किया तो नरेंद्र मोदी ने उन्हें नौकरी से बाहर करा दिया। हिंदुस्तान टाइम्स की मालिका शोभना भरतिया ने अमित शाह और नरेंद्र मोदी के कहने पर बॉबी घोष को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया और बॉबी को इस्तीफा देना पड़ा। महाराष्ट्र से लेकर मणिपुर तक इन अफवाहों और फेक न्यूज का जाल ऐसा फैला कि एक दो नहीं, सात-सात लोग एक साथ पीट-पीटकर जान से मारे जाने लगे। कई पत्रकारों की हत्या कर दी गई। और यह सब सोशल मीडिया पर बाकायदा धमकी देकर किया गया और नरेंद्र मोदी के उन्हीं समर्थकों ने किया, जिन्हें फिलहाल एनआईए से लेकर सीबीआई तक से हर तरह का अपराध करके छूट जाने की छूट मिली हुई है। मसलन पिछले साल यानी 2017 के सितंबर की पांचवीं तारीख को बेंगलुरु में रहने वाली पत्रकार गौरी लंकेश जब अपने घर का दरवाजा बंद कर रही थीं, नरेंद्र मोदी के समर्थकों ने खुलेआम उनकी गोली मारकर हत्या कर दी। गौरी लंकेश काफी समय से नरेंद्र मोदी और अमित शाह की फेसबुक समर्थित ट्रॉल आर्मी का निशाना बनी हुई थीं। यह ट्रॉल आर्मी एक महिला को भद्दी से भद्दी गालियां दे रही थी, बलात्कार की धमकियां दे रही थी, जान से मारने की और लाश घसीटने की धमकियां दे रही थी और फेसबुक की केटी हरबाथ इन धमकियों से आनंदित हो रही थीं। मरने से पहले गौरी लंकेश ने अपने अखबार के लिए जो आखिरी संपादकीय लिखा था, उसकी हेडिंग थी- झूठी खबरों के इस युग में। इस संपादकीय में उन्होंने बताया था कि किस तरह से सोशल मीडिया पर फैलाया जा रहा अफवाह और झूठ का प्रोपेगेंडा हमारे राजनीतिक वातावरण को जहरीला कर रहा है।

बीजेपी, फेसबुक और महान भारतीय लोकतंत्र का गैंगरेप- Part-1

कई बार आपने देखा होगा कि जो लोग फेसबुक पर गाली गलौज करते हैं, अश्लील हरकतें करते हैं, कितनी बार भी आप उनकी रिपोर्ट कर दें, फिर भी वो यह सब करते रहते हैं। कई बार तो कई कई बार उनकी रिपोर्ट करने के बावजूद वो दुगनी बेशर्मी से यह सब करने में लग जाते हैं और हम सब यूं ही गालियां खाते रह जाते हैं। लेकिन अगर हमने बगैर गाली दिए, या बगैर कोई गलत शब्द कहे  उन्हें कुछ कह दिया तो उल्टे हमीं लोग फेसबुक पर ब्लॉक हो जाते हैं। फेसबुक हमसे कई तरह की आईडी जमा कराता है, कई तरह के पासवर्ड और कई तरह के फॉर्म। तब कहीं जाकर हमारी आईडी खुलती है और हमें उस काम की सजा मिलती है, जो हमने किया ही नहीं। यही चीजें अपने चेहरे का रंग नीले से हरा करते हुए व्हाट्सएप्प पर हमारे सामने होती हैं और अपना चेहरा सफेद करके इंस्टाग्राम पर भी होती हैं। यह तो हम सभी जानते हैं कि सोशल मीडिया पर एक ट्रॉल आर्मी है जो भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन तक के लिए काम करती है। यह ट्रॉल आर्मी हर उस यूजर को, यानी जो कोई भी सोशल मीडिया यूज कर रहा है, अगर वह सत्ता समर्थक नहीं है और विरोध में कानून के दायरे में रहकर कुछ भी कह रहा है या कर रहा है, उसे टारगेट बना लेती है। टारगेट बनाने के बाद यह बेहद बुरी बुरी गालियों के साथ उसपर अटैक करती है और कुल मिलाकर उसकी इज्जत से खिलवाड़ करने में जुट जाती है। जिसे यह गालियां देती है, इसी ट्रॉल आर्मी का एक हिस्सा उसपर फेक यानी कि नकली खबरें तैयार करता है और सोशल मीडिया पर वायरल करता है।

मगर एक मिनट। माफ करिए लेकिन सोशल मीडिया पर चीजों को वायरल करना ट्रॉल आर्मी का काम नहीं है। यह काम है खुद फेसबुक का, खुद मार्क जकरबर्ग का, जिसने इसके लिए अलग से पूरा एक ऑफिस बना रखा है। फेसबुक का यह ऑफिस इस ट्रॉल आर्मी को हर तरह की तकनीकी मदद और ट्रेनिंग देता है। इसी तकनीकी मदद के बल पर ट्रॉल आर्मी बेखौफ होकर लोगों के साथ गाली गलौज करती है, फेक न्यूज फैलाती है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी यानी कि भारतीय जनता पार्टी की जो ट्रॉल आर्मी है, उसे हर तरह की तकनीकी मदद और ट्रेनिंग देने के लिए मार्क जकरबर्ग ने अमेरिका के वॉशिंगटन में भरा पूरा ऑफिस खोल रखा है। इस ऑफिस की इंचार्ज हैं केटी हरबाथ।

कैंब्रिज एनालिटिका, व्लादीमीर पुतिन और डॉनल्ड ट्रंप के साथ गैंग बनाकर अमेरिकी चुनाव में वोटर्स के साथ खेल करते हुए फेसबुक के मार्क जकरबर्ग जब रंगे हाथों पकड़े गए तो कहने लगे कि फेसबुक का किसी के भी साथ भी किसी तरह का कोई राजनीतिक गठजोड़ नहीं हैं। फेसबुक अपने सभी यूजर्स को राजनीति का बराबर मौका देता है। लेकिन मार्क जकरबर्ग बड़ी चालाकी से यह छुपा गए कि उनकी कंपनी दुनिया भर की राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती है। और जिनके साथ वह काम करती है, हम सभी जानते हैं कि उनके पास मौजूद ट्रॉल आर्मी किस तरह की फेक न्यूज फैलाती है और किस तरह का जहर लोगों के दिमाग में भर रही है। इतना ही नहीं, कंपनी बाकायदा अपने बिजनेस पेज पर इसका प्रचार प्रसार भी करती है कि वह कैसे लोगों को लांच कराती है या प्रोडक्ट लांच कराती है। या फिर कैसे फटाफट वह ब्लू मार्क दिलाती है। आप फेसबुक पर सालों टिक टुक करते रह जाएंगे, आपको यह कभी नहीं मिलेगा, लेकिन अगर आपके मोहल्ले का सभासद बीजेपी से होगा तो वह दो चार दिन में ये ब्लू मार्क लेकर के मोहल्ले के ही ग्रुपों में रौब गांठता फिरेगा।

तो फेसबुक के जिस नंगेपन के बारे में मार्क जकरबर्ग ने पूरी बेशर्मी से पर्दा डाला, वह है फेसबुक ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स यूनिट। फेसबुक के बिजनेस पेज पर दावा है कि यह पूरी तरह से न्यूट्रल है और उन सभी के साथ मिलकर काम करती है जो पॉवर यानी कि शक्ति यानी कि बेइंतिहा ताकत के तलबगार हैं। मगर सिर्फ तलबगार होने से काम कैसे चलेगा? पीछे अंबानी जी और अडानी जी भी तो चाहिए होते हैं। अमेरिका हुआ तो पीछे टॉमी हिलफिगर जी चाहिए होते हैं, या पाकिस्तान हुआ तो? इमरान खान ने किसके बल पर छक्का मारा है, आप बताइए, ये आपके सामान्य ज्ञान का बड़ा ही सामान्य सा टेस्ट है। बहरहाल, इस फेसबुक ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स टीम की हेड हैं केटी हरबाथ। केटी हरबाथ पहले अमेरिकी रिपब्लिक पार्टी की डिजिटल रणनीति बनाती थीं। कभी न्यूयॉर्क के मेयर रहे और अब ट्रंप के खासमखास बने रूडी जुलियानी के लिए इन्होंने सन 2008 में प्रेसीडेंसियल कैंपेन चलाई थी। सन 2014 में मार्क जकरबर्ग ने इन्हें अपने यहां नौकरी पर रख लिया और फेसबुक ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स टीम का चीफ बना दिया। तब से केटी हरबाथ अपनी टीम के चुनिंदा लोगों के साथ दुनिया भर के नेताओं से मिलकर शातिर गठजोड़ बनाने में लगी हैं। ऊपरी तौर पर उनका दावा है कि वह अपने पॉलिटिकल क्लाइंट्स को कंपनी के पॉवरफुल डिजिटल टूल्स का इस्तेमाल करना सिखाती हैं।

केटी हरबाथ के कनेक्शन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, न्याय और सूचना मंत्री रविशंकर प्रसाद से तो हैं ही, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के चीफ सहित वहां के और दूसरे मंत्रालयों के छह हजार दूसरे अधिकारियों से भी हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में, चाहे वह भारत हो या ब्राजील, जर्मनी हो या ब्रिटेन, केटी हरबाथ जैसे ही किसी नेता के साथ चुनावी कॉन्ट्रैक्ट साइन करती हैं, उनकी टीम के लोग उस नेता के साथ उसके कैंपेन वर्कर्स की तरह जुड़ जाते हैं। वे उस नेता के लिए हर तरह का कानूनी और गैरकानूनी काम करते हैं। ज्यादातर तो वे गैरकानूनी काम ही करते हैं जिसपर पर्दा नेता के चुनाव जीतने के बाद उसके देश के सरकारी अधिकारी ही डाल देते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जैसे ही फेसबुक समर्थित नेता चुनाव जीतता है, केटी हरबाथ की टीम तुरंत उसके पास पहुंचकर उसके सरकारी कर्मचारियों को हर तरह की तकनीकी मदद और ट्रेनिंग देना शुरू कर देती है। जैसे कि जब नेता जी मन की बात करें तो कर्मचारियों को क्या करना है। जैसे कि जब नेता जी मन की बात कहें तो कर्मचारियों या अधिकारियों को क्या कहना है। और जैसे कि जब नेता जी के मन की बात का झूठ पकड़ा जाए तो अधिकारियों को फटाफट लीपापोती कैसे करनी है।

अमेरिका के चुनाव में रूसी राष्ट्रपति पुतिन और कैंब्रिज एनालिटिका के साथ गैंग बनाकर साजिश करने के आरोप में जब फेसबुक पकड़ा गया तो अमेरिकी संसद ने मार्क से पूछा कि बताओ भैया, जब अमेरिका में चुनाव हो रहा था तो तुम्हारे खाते में रूस से इतना ढेर सारा पैसा कहां से आया? आपको बता दें कि अमेरिकी चुनाव के वक्त रूसी विज्ञापनों से फेसबुक की इनकम में दो चार दस या बीस नहीं, सीधे सेवेंटी नाइन पर्सेंट का इजाफा हुआ था और इस इजाफे की एकमात्र वजह रूस से मिलने वाले विज्ञापन थे। यह विज्ञापन अमेरिकी नामों से चलाए जा रहे थे। न्यूयॉर्क टाइम्स ने ऐसे दर्जनों फर्जी विज्ञापन पकड़े हैं जो ट्रंप को जिताने से लेकर जनता को भरमाने का काम पूरे धड़ल्ले से कर रहे थे। मार्क जकरबर्ग ने अभी इन विज्ञापनों से मिलने वाले पैसे का न तो हिसाब दिया है और न ही अमेरिकी संसद के इस सवाल का जवाब दिया है कि इतना ढेर सारा पैसा उनकी जेब में आखिर आया कहां से? उल्टे वह तो इस कोशिश में ही लगे रहे कि कैसे भी करके इस मामले पर पर्दा डाल दिया जाए। हमारे न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद फेसबुक को बड़ी मीठी मीठी धमकियां देते हैं, पर क्या कभी किसी ने सुना कि सन 2014 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने फेसबुक को कितना पैसा दिया? कभी मार्क जकरबर्ग का कान पकड़कर कोर्ट के कटघरे में खड़ा करके किसी ने उस तरह से पूछने की हिम्मत की जैसे अमेरिकी संसद ने इस धोखेबाज को इन दिनों घुटने पर बैठा रखा है? वैसे अपने लालाजी ऐसी हिम्मत करेंगे ही क्यों जब केटी हरबाथ जब चाहें, उनके बगल आ बैठती हैं

और उन्हें 2019 के चुनावों में जीतने का सब्जबाग दिखाने लगती हैं। इसी साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजेपी के हर सांसद से कहा है कि हर एक सांसद के फेसबुक पेज को कम से कम तीन लाख जेनुइन लाइक्स करने वाले होने चाहिए वरना टिकट मिलना मुश्किल है। यह बयान भले ही हमारे मोदी जी के मुखारबिंद से निकला है, लेकिन सप्लाई फेसबुक की ओर से ही हुआ है। फेसबुक का पेज लाइक रेट पर लाइक अस्सी पैसे से ढाई रुपये के बीच बैठता है। सन 2014 के इलेक्शन में बीजेपी के 355 उम्मीदवार सांसद बने थे। मोदी का यह आदेश चुनाव के चार साल बाद का है। चुनाव के बाद रकम कम लगती है, और चार साल बाद तो और भी कम रकम लगती है,  इसलिए आप अंदाजा लगा सकते हैं कि चुनाव के वक्त बीजेपी ने फेसबुक को कितने पैसे दिए होंगे। अंदाजा ही लगाना पड़ेगा क्योंकि आप चाहे जितने घोड़े दौड़ा लें, बीजेपी आपको चुनावी खर्च का असल ब्योरा नहीं देगी। और फिर ये अमेरिका भी नहीं कि वहां की तरह यहां भी जो चाहे, सबूतों के साथ राष्ट्रपति हो या प्रधानमंत्री, उसे कटघरे में लाकर खड़ा कर दे। जस्टिस बृज गोपाल लोया की हत्या के मामले में हम सबने देखा कि कैसे सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक एक गुजराती तड़ीपार को बचाने के लिए खड़ा हो गया था। अपने देश में हमारी औकात इतनी भी नहीं है कि हम अपने एक जज की हत्या की सिर्फ जांच करा सकें, उसके हत्यारों को सजा दिलाना तो बहुत दूर की बात है।

कभी फेसबुक की इसी फेसबुक ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स टीम में काम करने वाली एलिजाबेथ लिंडर बताती हैं कि किसी भी राजनीतिक कैंपेन से जुड़ना कम से कम फेसबुक का काम तो नहीं ही है। एलिजाबेथ ने सन 2016 में फेसबुक की इसी यूनिट के साथ यूरोप, मिडल ईस्ट और अफ्रीका में काम किया है। पहले पहल तो एलिजाबेथ अपने काम को लेकर बहुत एक्साइटेड थीं, लेकिन जब उन्होंने इस टीम की गैरकानूनी और लोकतंत्र को गहरी चोट पहुंचाने वाली हरकतों को अपनी आंख के सामने होते देखा तो उन्होंने वहां से नौकरी छोड़ दी। अमेरिका में तो अब सब जान गए हैं कि फेसबुक की इस अवैध टीम ने किस तरह से डॉनल्ड ट्रंप को चुनाव जीतने में मदद की। वैसे इस टीम ने हिलेरी क्लिंटन को भी ऑफर दिया था, लेकिन उन्होंने मना कर दिया था। दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया हाउसेस में से एक ब्लूमबर्ग बताता है कि इसी टीम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फेसबुक पर स्टैब्लिश किया। इसी यूनिट ने नरेंद्र मोदी के फेसबुक पेज में इतने फॉलोवर्स जोड़ दिए, जितने कि दुनिया के किसी भी नेता के पास नहीं हैं। यहां तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के पास भी नहीं हैं। यह इस यूनिट का ही काम है कि जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पेज को लाइक नहीं भी किया, उसकी आईडी से चुपके से इस पेज को लाइक करा दिया गया। ऐसे ही फिलीपींस के हत्यारे तानाशाह रोड्रिगो दुत्रेते के लिए भी इसी यूनिट ने काम किया। जर्मनी में इस यूनिट ने अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी पार्टी की भरपूर मदद की और इसे वहां से पहला चुनाव बंडेस्टाग से जितवाया। यह वही पार्टी है जो जर्मनी में शरणार्थियों के खिलाफ क्रिमिनल कैंपेनिंग करती रही है।

वैसे फेसबुक का कहना है कि वह हर तरह से सभी लोगों के लिए खुला प्लेटफॉर्म है और जो चाहे इसका यूज कर सकता है। फेसबुक तो बस उसे पैसे देने वालों को इतना बताता है कि उसकी तकनीक का प्रयोग कैसे करना है, न कि वह ये बताता है कि फेसबुक पर आकर कहना क्या है। इस मामले में हमने जब फेसबुक की ग्लोबल गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स यूनिट की हेड केटी हरबाथ को ईमेल लिखकर पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि उन्हें गर्व है कि वह दुनिया के ऐसे हजारों नेताओं के साथ काम करती हैं जो चुनाव जीत चुके हैं और उनके सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को ट्रेनिंग देती हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि कंपनी अब इस काम में आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस का प्रयोग कर रही है। बहाना बनाया कि कंपनी हेट स्पीच और धमकियों को रोक रही है। बीजेपी का पैसा खाकर केटी की कंपनी यानी कि फेसबुक की सारी आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस डकार लेकर सो जाती है और हमारे यहां कोई शंभू रैगर हिंदुत्व के नाम पर कुल्हाड़ी से बेगुनाह इंसान को काटते हुए बेरोकटोक फेसबुक लाइव करता है तो सिर्फ इसलिए कि कहीं न कहीं से उसे भी इसी फेसबुक की ऑफिशियल ट्रॉल आर्मी का समर्थन मिला हुआ है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की आईटी सेल उस वीडियो को हाथोंहाथ शेयर करती है और उसपर भी कहीं कोई रोक नहीं लगती तो सिर्फ और सिर्फ केटी की टीम की वजह से। आप अभी चेक करें तो अभी भी फेसबुक पर शंभु रैगर की यह हैवानियत आपको देखने को मिल जाएगी। केटी ने ईमेल के जवाब में यह भी कहा कि उनकी कंपनी अभी इस गठजोड़ को और मजबूत करने में लगी हुई है। यानी आइंदा दिनों में हमें हिंदुत्व के नाम पर होने वाली कई और हत्याओं के फेसबुक लाइव देखने के लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिए।

to be continued...