Saturday, June 20, 2015

मि‍लेगा तो देखेंगे- 12

औरत अंधेरे की नहीं थी। औरत पूरी तरह से उजाले की भी नहीं हो पाई थी। औरत शाम में वि‍चरती, सुबह के धुंधलके में कुछ खोजती थी। दोपहर में छुप जाती थी और रात में न सोते हुए भी सो जाती थी। जगह जगह से नि‍कलते तार उसे कि‍सी भी जगह नहीं जोड़ते थे। जगह जगह से लगी चोटें उसे कहीं से भी नहीं तोड़ती थीं। ढहने को तैयार अपनी ढलान पर वो समझौता करना तो चाहती थी लेकि‍न हर बार डरकर पहाड़ की दूसरी चोटी पर दूसरे के साथ बैठने की इच्‍छा लि‍ए अकेली अपनी इच्‍छाओं को दमि‍त करती, शायद कुंठि‍त भी करती रहती थी। दमि‍त इच्‍छाओं की कुंठा वो आदमी पर नि‍कालती थी, उसके कसकर पकड़कर दबाती थी, मर्दाना आवाज लगाती थी, मर्द की तरह हाथ या शायद अक्‍सर आदमी की उंगली ही पकड़कर उसे सड़क पार कराती थी। आदमी नहीं समझ पाता था कि असल में हि‍ल कौन रहा है या हि‍ला हुआ कौन है। सड़क की गाड़ि‍यां हि‍ल रही हैं या लोगों के हाथ के झंडे या गोलचक्‍कर के चक्‍कर या जेब्रा क्रॉसिंग या नीचे तहखाने को जाती सीढ़ि‍यां या तहखाने से ऊपर आती सीढ़ि‍यां। इस सुस्‍थि‍र हि‍लन को अपनी उंगलि‍यों में उतारकर आदमी उस औरत की मजबूत पकड़ में जकड़ा घि‍सटता चला जाता था।
* लाओ रे, तनी चावल पछोर दी।
न जाने कहां से ये बात आदमी में गूंज जाती और आदमी पछोरे जाने पछोरे जाने के बाद सूप से उलट भूसी के साथ सुलगने से डर औरत से गुहार लगाता कि एक बार फि‍र से वो उसे पकड़ ले। औरत बीच की चीजें हटा देती और उसे पकड़ती तो दोनों चुपचाप एक दूसरे में जकड़े कुछ भी न करते, सि‍वाय कभी कभी हि‍लने के... 

Friday, June 19, 2015

मि‍लेगा तो देखेंगे- 11

आदमी कुछ इधर से जोड़ लेता था तो कुछ थोड़ी दूर जाकर उधर से जोड़ लेता था। दमि‍त इच्‍छाओं और अवश्‍यंभावी आकांक्षाओं के दोहरे बोझ पर दो जोड़ों का बोझ था कि लगातार उसकी कमर की हड्डि‍यों में वो वि‍चलन अनचाही चि‍लकन के साथ कुछ यूं उभारता था, आदमी सब जोड़ा हुआ तोड़कर चिंदी-चिंदी बि‍खेर देता था। कुछ था, कहीं कुछ जरूर था जो टूटने को तैयार नहीं था, जो फूटने को और फूटकर बहने को भी तैयार नहीं होता था। आदमी सवार था रेत के उस वक्‍ती घोड़े पर जो अपनी पहली हि‍नहि‍नाहट पर ही बि‍खर जाने का आदती और कि‍स्‍मती, दोनों ही था। हाथ में दबी पेन हो या कान में लगा हेडफोन या फि‍र एक पैर का सही सलामत बच गया जूता, सबके मुंह नि‍कल आए थे, जीभ और दांत भी। आदमी डरता था, फि‍र भी इनके साथ ही रहता था, फि‍र डरता था और फि‍र साथ रहता था। अंदर के तय बेकार के समय में वो न तो फि‍सलता था, न घि‍सटता था, बस उन सबको अपने आसपास बि‍खेरकर यूं ही खि‍ड़की से झांका करता, झांका करता कि शायद वो बंद खि‍ड़की कभी खुल जाए और उसके वो अरमान पूरी तरह से पूरे हो जाएं जो बंद खि‍ड़की को देख देख उसने मजबूरी में अधूरे छोड़ दि‍ए या अधूरे छोड़ने को मजबूर कर दि‍या गया। ये कोई सवाल नहीं कि क्‍यों मजबूर कर दि‍या गया और ये कोई जवाब भी नहीं कि मजबूर कर दि‍या गया। बंद खि‍ड़की बड़ी हद सवाल ही पैदा कर सकती है, जवाब तो नहीं ही दे सकती। खि‍ड़की बंद है। आदमी भी और संगीत तो पूरी तरह से।