Tuesday, August 28, 2018

अमेरिका के संबित पात्रा, अर्नब गोस्वामी और रवीश कुमार

हममें से शायद ही ऐसा कोई होगा, जो बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा के चीख चिल्लाकर लगातार झूठ बोलने की आदत न जानता हो। संबित एक ही झूठ को बार-बार और कुछ एक न्यूज चैनलों को छोड़ तों तो तकरीबन सभी चैनलों पर बैठकर बोलते हैं। उनका झूठ लगभग हर बार पकड़ा जाता है, लेकिन बजाय उससे सीख लेने के, संबित और भी ज्यादा बेशर्मी और दुगने वॉल्यूम से दूसरा झूठ दोहराने लगते हैं।

वहीं अगर बात करें पत्रकार बिरादरी के संबित पात्राओं की तो पांच नाम सबसे पहले आते हैं। पहला नाम है अर्नब गोस्वामी, दूसरा नाम है अर्नब गोस्वामी, तीसरा नाम है अर्नब गोस्वामी, चौथा नाम भी अर्नब गोस्वामी ही है और पांचवे नंबर पर हम सुधीर चौधरी को रख सकते हैं। सुधीर चौधरी को पांचवे नंबर पर इसलिए रखा जा सकता है क्योंकि उनकी कुछ कानूनी मजबूरिया हैं जिन्हें खत्म करने के लिए उनकी गैरकानूनी मजबूरी यह है कि वे सत्ता के तलवे चाटें। मगर एक से लेकर चार तक जिन अर्नब गोस्वामी साहब का नाम रखा गया है, उनकी कोई कानूनी मजबूरी नहीं है। न तो उन्होंने अपनी लाल लैंबोर्गिनी फुटपाथ पर सोते मजदूरों पर चढ़ाई है और न ही किसी जिंदल ने अभी तक उन्हें रिश्वत खाते रंगे हाथों पकड़वाया है। फिर भी अर्नब गोस्वामी पूरी श्रद्धा और लगन से सत्ता के तलवे चाटते हैं जो जाहिर है कि बात किसी मजबूरी से भी कहीं ऊपर की है।

बहरहाल इस बार खबर अपने देश से सात समुंदर पार के उस देश से है, जिसकी हम बेशर्मी की हद तक नकल करते हैं, और अभी तक हर बार ही उतनी ही बेशर्मी से फेल हुए हैं। लेकिन यह खबर बताती है कि बेशर्मी में भी हममें और उनमें हद दर्जे की समानता है।

मशहूर मीडिया मुगल राघव बहल बताते हैं कि आज भी भारत और अमेरिका के राजनीतिक माहौल की सरगर्मियां हैरान करने की हद तक एक जैसी हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व वैसे तो बिलकुल अलग हैं- मसलन ट्रंप भद्दे ट्वीट लिखते रहते हैं, जबकि मोदी सोची-समझी रणनीति के तहत खामोशी से काम लेते हैं, लेकिन दोनों नेताओं में जो बात एक जैसी है, वह ये कि दोनों ने दस हजार मील की दूरी पर मौजूद दो बड़े लोकतांत्रिक देशों में एक जैसा ध्रुवीकरण पैदा कर दिया है। दोनों सबके पास कट्टरपंथी समर्थकों की फौज है, जो लगातार जहर उगलने और विरोधियों को धमकाने का काम करते हैं। बेहद विनम्र आलोचकों को भी गद्दार घोषित कर दिया जाता है। आप या तो उनके प्यादे हो सकते हैं या फिर दुश्मन।

दोनों ही देशों में हाल यह है कि दूसरे देशों से आकर बसे लोग और अल्पसंख्यक डरे-सहमे रहते हैं। दोनों ही नेता अपना सीना ठोककर बड़े-बड़े दावे करते हैं और हर बात का श्रेय खुद को देते हैं, फिर चाहे वो ऊंची आर्थिक विकास दर और शेयर बाजार में उछाल हो या फिर पिछली सरकार का कचरा साफ करने और सत्ता के गलियारों में पसरी गंदगी को बाहर निकालने जैसे दावे। जो भी लोग स्वतंत्र और निष्पक्ष समाचार देते हैं या ऐसी कंपनियां किस्मत से बची रह गई हैं, उनके बारे में उनका मानना है कि झूठी और फर्जी खबरें फैलाने वाली इन तमाम राष्ट्र-विरोधी दुकानों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए।

लेकिन एक चीज है जो अमेरिका को वाकई अमेरिका बनाती है और भारत को लोकतंत्र की राह में लंगड़ाने को मजबूर कर देती है। भारतीय मीडिया में मोदी सरकार के सामने दर्जनों मीडिया संस्थानों और संपादकों ने कायरता भरा सरेंडर कर दिया है। यहीं लोकतंत्र का चौथा खंबा दरकने लगता है और लोकतंत्र यानी कि डेमोक्रेसी लंगड़ी हो जाती है। लेकिन अमेरिका के समाचार संस्थान ट्रंप को डटकर जवाब देने का दमखम और साहस दिखा रहे हैं। हाल ही में बोस्टन ग्लोब अखबार की पहल पर अमेरिका के तीन सौ अखबारों ने ट्रंप के खिलाफ संपादकीय लिखे। अपने यहां किसी को याद हो तो वह बताए कि किसी अखबार ने मोदी सरकार की सीधी आलोचना कब की थी? इस मामले में मेरे तथ्य थोड़े कम और थोड़े कमजोर पड़ रहे हैं, शायद आप लोग मुझे कुछ आंख खोलने वाले तथ्य दे सकें।

लेकिन बात हो रही है अमेरिका के संबित पात्राओं, अर्नब गोस्वामियों और सुधीर चौधरियों की। पहले तो जान लें कि कौन से चैनल अमेरिका के रिपब्लिक टीवी हैं और कौन से जी न्यूज। अमेरिका का फॉक्स न्यूज वहां का रिपब्लिक टीवी है। पत्रकारिता के नाम पर मैला परोसने वाला फॉक्स न्यूज अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का पसंदीदा चैनल है और गाहे बगाहे ट्रंप इसकी तारीफों का पहाड़ खड़ा करते नजर आते हैं।

पहले नंबर पर आते हैं अमेरिका के उपराष्ट्रपति माइक पेंस। अबॉर्शन अपने यहां कोई खास मुद्दा नहीं माना जाता, मगर ईसाइयत में यह बड़ा मुद्दा है। हम सभी जानते हैं कि अबॉर्शन कोई मन से नहीं, बल्कि मजबूरी में कराता है। मसलन गर्भवती महिला की जान को खतरा हो, बच्चा पेट में मर गया हो या ऐसी कई बातें, जिन्हें डॉक्टर अच्छे से बता पाएंगे। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने चुनाव में मुद्दा ही यही रखा कि अबॉर्शन कराने वाली महिलाओं को सजा दी जाएगी। उनके चेले माइक पेंस भी जब इंडियाना में गर्वनर थे, तब उन्होंने गर्भपात विरोधी बिल पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें विकलांगता, लिंग या फिर भ्रूण की नस्ल के आधार पर गर्भपात पर भी रोक लगाई गई थी। जब वह उपराष्ट्रपति बने तो पूरे अमेरिका से लोगों ने उनके विरोधस्वरूप गैर सरकारी संस्था प्लैंड पेरेंटहुड को उनके नाम पर चंदा दिया और हर बार उसकी रसीद माइक पेंस को भेजी। प्लैंड पेरेंटहुड अमेरिका में अबॉर्शन के लिए मदद देने वाली सबसे बड़ी संस्था है। लोगों को उम्मीद थी कि माइक पेंस को शायद इससे कुछ शर्म आए, लेकिन बेशर्मी में वह ट्रंप को टक्कर देते दिखाई देते हैं। संबित पात्रा को माइक पेंस से बेशर्मी की क्लास लेनी चाहिए।

वहीं अर्नब गोस्वामी का रोल अमेरिका में एक महिला ने संभाल रखा है। इनका नाम है जीनी फेरिस पिरो। जीनी फेरिस पिरो फॉक्स न्यूज पर आने वाले वीकेंड शो "जस्टिस विद जज जीनी" की होस्ट हैं। 1990 के दशक की शुरुआत में वो वेस्टचेस्टर काउंटी कोर्ट की जज रह चुकी हैं और रिपब्लिकन पार्टी की राजनीति में भी सक्रिय रही हैं। उनके पति को (जिनसे बाद में उनका तलाक हो गया) टैक्स फ्रॉड का दोषी पाए जाने पर 29 महीने की जेल हो चुकी है। जीनी पिरो 2005 में न्यूयॉर्क सीनेटर के चुनाव के दौरान हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ उम्मीदवार घोषित होने के बेहद करीब तक पहुंच गई थीं. उस वक्त रियल एस्टेट कारोबारी डॉनल्ड ट्रंप (और टॉमी हिलफिगर) ने उनके कैंपेन के लिए फंड भी दिया था। जीनी पिरो में हम संबित पात्रा, अरनब गोस्वामी और कभी कभार सुधीर चौधरी को भी देख सकते हैं। टॉमी हिलफिगर को हम दूसरा संबित पात्रा भी मान सकते हैं और चाहें तो दूसरा अडानी भी। इन्होंने ट्रंप को चुनाव जितवाने के लिए दिल खोलकर पैसा लुटाया था।

जीनी फेरिस पिरो ने बाद में न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्टसेलर लिस्ट में नंबर वन रही अपनी किताब “लायर्स, लीकर्स एंड लिबरल्स : द केस अगेंस्ट द एंटी-ट्रंप कॉन्सपिरेसी” में ट्रंप का पूरी ताकत से बचाव किया। जीनी पिरो एक बेहूदी और बेशर्म पोस्ट-ट्रुथ एक्टिविस्ट हैं, जो ये दावा कर चुकी हैं कि अबु बकर अल बगदादी को “ओबामा ने 2009 में कैद से रिहा कर दिया था”।

जब रूस के राष्ट्रपति पुतिन के साथ उस "शर्मनाक" प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए ट्रंप की चौतरफा आलोचना हुई, तो पिरो ने उनके बचाव में कूदते हुए उलटा सवाल दाग दिया, "तो उन्हें क्या करना चाहिए था? क्या वो बंदूक लेकर पुतिन को गोली मार देते?" कुछ लोगों का तो यहां तक कयास है कि ट्रंप जेफ सेशन्स को हटाकर पिरो को अटॉर्नी जनरल भी बना सकते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे अपने यहां संबित पात्रा को झूठ बोलने के लिए मोदी जी ने ओएनजीसी का डायरेक्टर बना रखा है। ये कोई हैरानी की बात नहीं है कि पिरो सेशन्स को "अमेरिका का सबसे खतरनाक आदमी" कह चुकी हैं।

इसी अगस्त में एक शनिवार जीनी पिरो ने रॉबर्ट म्यूलर पर बेहद एकतरफा और पक्षपातपूर्ण शो टेलीकास्ट किया, जिसे देखकर अर्नब गोस्वामी चीखने चिल्लाने की ट्रेनिंग लेते हैं। आपको बता दें कि रॉबर्ट म्यूलर वही हैं जो किसी तरह के दबाव में झुके बगैर दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी यानी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के खिलाफ जांच कर रहे हैं। अपने इस शो में पिरो ने कहा, "जब बात बुरी तरह बिगड़ जाती है और क्राइम सीन से सारे सबूत मिटाने होते हैं तो माफिया डॉन क्लीनर को बुलाता है, जो मारे गए व्यक्ति के शव को ठिकाने लगाता है या अपराध के बाद सबूतों को छिपाने का काम करता है। और जब डेमोक्रेट्स के लिए हालात पूरी तरह बिगड़ जाते हैं, तो वो सीरियल क्लीनर (यानी म्यूलर) को बुलाते हैं।"

आरोपों से भरे अपने इस बयान का अंत उन्होंने ये कहते हुए किया कि "म्यूलर बौखला गए हैं" क्योंकि उनके पास ट्रंप के खिलाफ "कुछ नहीं" है। उन्होंने ऐसा कोई सबूत पेश नहीं किया जो एक पत्रकार को करना चाहिए और न ही कोई तथ्य दिए। सिर्फ एक बड़ा और निराधार दावा कि "म्यूलर बौखला गए हैं" - और फिर इस दावे को अनगिनत बार दोहराया गया, ताकि उसे किसी भी तरह "सच" मान लिया जाए। ठीक वैसे ही, जैसे सुधीर चौधरी चीख चीखकर झूठ दर झूठ बोलते जेएनयू में लगे नारों का देश विरोधी टेंपर्ड वीडियो दिखा रहे थे या ठीक वैसे ही, जैसे कि अर्नब गोस्वामी रोज चीखते हैं। पत्रकारिता का मूल धर्म सुनना होता है, लेकिन अब पत्रकारिता का धर्म बदल गया है और यह महज चीखना होता है, वह भी झूठ बोलते हुए। बार बार, लगातार।

अमेरिका के लिए यह गनीमत है कि वहां रवीश कुमार कुछ अधिक संख्या में बचे रहने में कामयाब हो गए हैं। जैसे सीएनएन चैनल पर आने वाला ब्रायन का शो रिलायबल सोर्सेस। अपने यहां हालांकि रवीश कुमार ऐसी हिम्मत नहीं कर पाए हैं और शायद अर्जुन की तरह किसी कृष्ण का इंतजार कर रहे हैं कि कृष्ण आकर उन्हें सच्चे धर्मयुद्ध में उतरने का गीता ज्ञान दें, लेकिन ब्रायन ने न तो किसी कृष्ण का इंतजार किया और न ही गीता पढ़ी है। अपने शो रिलायबल सोर्सेस में ब्रायन अमेरिकी संबित पात्राओं, अरबन गोस्वामियों और सुधीर चौधरियों जैसे पथभ्रष्ट और मतिभ्रष्ट लोगों का बाकायदा नाम लेकर पोल खोल रहे हैं।

अगस्त 2018 के जिस शनिवार जीनी का झूठ का पुलिंदा ऑन एयर हुआ, उसकी की अगली सुबह सीएनएन पर ब्रायन ने अपने शो "रिलायबल सोर्सेस" जीनी पिरो की वो क्लिप दिखाई जिसमें म्यूलर पर "बौखलाने" का आरोप लगाया गया था - CNN के एक शो में फॉक्स न्यूज की क्लिप खुलेआम दिखाई जा रही थी, पूरी ब्रैंडिंग और सौजन्य के साथ ! कोई सावधानी भरे शब्द नहीं, कोई खेद नहीं, कोई हिचकिचाहट नहीं। और फिर स्टेल्टर ने "म्यूलर के बौखला जाने" की मनगढ़ंत खबर दिखाने पर पिरो की जमकर धुलाई कर दी। ये आमने-सामने की सीधी टक्कर थी। अपने उसी शो में स्टेल्टर ने NBC के कार्यक्रम "मीट द प्रेस विद रुडी गुलियानी" की क्लिप भी दिखाई, जिसमें ट्रंप के करीबी ने ये अविश्वसनीय दावा किया कि "सत्य नहीं है सत्य"। रूडी गुलियानी भी ट्रंप के भरोसेमंद और पालतू संबित, अर्नब और सुधीर के मिक्सचर हैं।

तो ये थे अमेरिका के संबित पात्रा, अर्नब गोस्वामी और सुधीर चौधरी। हालांकि वहां ऐसे लोगों की लाइन काफी लंबी है और यकीनन अपने यहां से ज्यादा लंबी। आखिर अमेरिका हमसे कहीं ज्यादा बड़ा देश भी तो है। लेकिन सवाल पैदा होता है कि सच दिखाने का दावा करने वाले अपने यहां के बचे खुचे चैनल आखिर कब तक चैनलों पर चीख चीख कर झूठ बोलने और दिखाने वाले पत्रकार के नाम पर सत्ता की दलाली करने वाले लोगों को बचाकर रखेंगे? कब उनके झूठ को अपने यहां भी अमेरिकी तर्ज पर बेपर्दा किया जाएगा? क्या तब, जब लोकतंत्र लंगड़ाने की जगह रेंगने लगेगा? या तब, जब वह मर जाएगा?

- यह लेख अमेरिका से लौटे राघव बहल के लिखे लेख से पूरी तरह से प्रेरित है।

Friday, August 17, 2018

अटल बिहारी बाजपेयी और भारतीय दक्षिणपंथ की विकास यात्रा

पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी का गुरुवार को देहान्‍त हो गया.

भारत में दक्षिणपंथी राजनेताओं में वे सबसे बड़े कद और सर्वाधिक प्रतिष्‍ठा वाले नेता रहे हैं. संसदीय अखाड़े में जनसंघ और जनता पार्टी के दौर से गुजरते हुए भाजपा तक उन्‍होंने राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ की राजनीति का नेतृत्‍व किया. गांधीवादी समाजवाद के साथ संम्‍बंध का उनका संक्षिप्‍त दौर अब भाजपा के इतिहास में एक भूला बिसरा पन्‍ना बन चुका है. आडवाणी के आक्रामक हिन्‍दुत्‍व वाले अभियान की परिणति में भाजपा के सबसे बड़ा दल बनने के बाद ये बाजपेयी ही थे जिन्‍हें शासन के प्र‍मुख चेहरे के रूप में भाजपा ने चुना था.

आरएसएस के सिद्धांतकार गोविन्‍दाचार्य ने उन्‍हें भाजपा का उदारवादी ‘मुखौटा’ कहा था, जबकि आडवाणी भाजपा का असली चेहरा थे. वे एक ऐसे दौर में भाजपा के सर्व प्रमुख प्रतिनिधि थे जब भाजपा को अपनी साम्‍प्रदायिक फासीवादी राजनीति के लिए एक मुखौटे की जरूरत थी. प्रथम राजग गठबंधन सरकार के सहयोगियों के लिए जिन्‍हें आडवाणी या मोदी जैसे ‘कट्टर’ माने जाने वाले संघियों को समर्थन देने में असुविधा हो सकती थी, बाजपेयी का मुखौटा उनके लिए उपयोगी था.

राजग की पहली सरकार के दौर में उनसे जिस भूमिका की मांग थी उसे निभाने के लिए बाजपेयी को अपनी राजनैतिक भाषा को थोड़ा नरम बनाना पड़ा. आज जब हम मोदी या अमित शाह द्वारा एनआरसी के सवाल पर आप्रवासियों के बारे में जहरीले प्रचार को सुनते हैं तो हमें 1983 में असम में एक चुनावी भाषण में बाजपेयी के उस वक्‍तव्‍य को भी नहीं भूलना चाहिए जिसमें उन्‍होंने कहा था ‘‘विदेशी यहां घुस आये हैं और सरकार कुछ नहीं करती. अगर वे पंजाब में घुसे होते तो लोगों ने उनके टुकड़े-टुकड़े करके बिखरा दिये होते.’’ ठीक उसके बाद ही असम के नेल्‍ली में 2000 मुसलमानों का जनसंहार किया गया था. 1992 में बाजपेयी उन नेताओं में थे जो संघ की रणनीति के अनुरूप बाबरी मस्जिद विध्‍वंस की पूर्व संध्‍या पर ही अयोध्‍या छोड़ कर दिल्‍ली आ गये थे. अयोध्‍या छोड़ने से पहले बाजपेयी ने इशारों वाली भाषा में – वे निस्‍संदेह भाषण देने की कला के दिग्‍गज थे- कारसेवकों से कहा था कि उनके लिए विध्‍वंस के औजारों की जरूरत होना बिल्‍कुल स्‍वाभाविक है क्‍योंकि ‘जमीन को समतल करना जरूरी है’. इस भाषण के बाद श्रोताओं की उन्‍मादी गड़गड़ाहट से उसी क्षण स्‍पष्‍ट हो गया था कि उनका इशारा वे समझ गये हैं – अगले दिन कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को बाकायदा समतल कर दिया था.

प्रधानमंत्री के रूप में बाजपेयी ने गुजरात में 2002 में हुई साम्‍प्रदायिक हिंसा के लिए मोदी को राजधर्म निभाने की ‘नसीहत’ दी थी. पर साथ ही उन्‍होंने मोदी को मुख्‍यमंत्री की कुर्सी पर बने रहने दिया और गुजरात के मुसलमानों की दंगों के दौरान और उसके बाद सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं किया. वे शिष्‍टाचार और बहस की हिमायत करते थे; पर गुजरात में धर्म परिवर्तन का विरोध करने के बहाने संघ द्वारा ईसाइयों के विरुद्ध की गई साम्‍प्रदायिक हिंसा के बाद उन्‍होंने ‘धर्म परिवर्तन पर बहस’ का आवाहन किया था. गुजरात जनसंहार, और इण्डिया शाइनिंग के जुमले के धराशायी होने के बाद 2004 में बाजपेयी नेतृत्‍व वाले राजग को भारी पराजय मिली.

आज भाजपा, राजग और उनकी सरकार एक बिल्‍कुल ही दूसरे दौर में हैं. अब उन्‍हें किसी मुखौटे की जरूरत नहीं रह गई है – भाजपा के दो स्‍टार प्रचारक मोदी और योगी अपने साम्‍प्रदायिक मंसूबों को छुपा कर नहीं रखते हैं. मंत्रियों द्वारा आज भीड़-हत्‍यारों को हार पहनाये जाते हैं, कैमरे के सामने एक मुसलमान को जिन्‍दा जलाने वाले को संघ के संगठन अपना नायक कहने में नहीं हिचकिचाते. ऐसी घटनाओं के बाद भाजपा को अब ‘गौ हत्‍या’ और ‘लव जेहाद’ पर घुमा-फिरा कर यह कहने की जरूरत नहीं रह गई है कि ‘राष्‍ट्रीय बहस’ चलनी चाहिए. आडवाणी समेत, जो बाजपेयी दौर में राजग के भीतर उनके पूरक की भूमिका में थे, उस दौर के भाजपा नेता ‘मार्गदर्शक मण्‍डल’ में भेजे जा चुके हैं.

भारत के शासक वर्गों और दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों की उस वैचारिक मरीचिका के प्रतिनिधि बाजपेयी रहे जिसके अनुसार भाजपा बगैर फासीवादी कोर के एक नरम दक्षिणपंथी पार्टी बन सकती है. बाजपेयी जी के देहान्‍त से बहुत पहले ही यह मरीचिका धुंधली हो गयी थी.

भारतीय दक्षिणपंथ के राजनीतिक इतिहास के लिए आज अटल बिहारी बाजपेयी एक महत्‍वपूर्ण संदर्भबिन्‍दु हैं, एक ऐसा पैमाना जिससे हमें कल के बाजपेयी युग और आज के मोदी के दौर के बीच की निरंतरता और फर्क को समझ कर वर्तमान फासीवादी हमले की तीव्रता को मापने में मदद मिलती है.

-    भाकपा(माले) लिबरेशन

16 अगस्‍त 2018

Tuesday, August 7, 2018

दिल छोटा औ नाक बड़ी, सिर पै चुरखी चढ़ी चढ़ी

दिल छोटा औ नाक बड़ी
सिर पै चुरखी चढ़ी चढ़ी
पढ़ पढ़ के भइन हैं चरखा
सूत न निकलै, चलै घड़ी।

अपनेन रंग से रंग मिलावें
जो न मिले तौ जंग लगावें
मेला देख के होवैं पागल
क्रांति क्रांति कहि मैला खावैं।

धान न चीन्हैं मान न चीन्हैं
भूंई पे ओलरा किसान न चीन्हैं
खर का समझैं स्विटजरलैंड
मौनी म पड़ा पिसान न चीन्हैं।

अइसेन बाटे दिल्ली वाले
दिल कै खोटे मन कै काले
लाल लाल के लगन लगावैं
हरियर पियर के फूंक उड़ावैं।

- रेजिंग राहुल, हैरिंग्टनगंज मिल्कीपुर - अवध बीज भंडार वाले