Friday, February 21, 2020

हमारा गुमान हमारा डर बन गया है

सुप्रीम कोर्ट की ओर से शाहीन बाग का रास्ता खुलवाने के लिए पहुंचे दो वार्ताकारों में से एक साधना रामचंद्रन ने यह पूछा कि क्या आप लोगों को सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा नहीं है तो वहां मौजूद लगभग सभी लोग एक स्वर में यही बोले कि भरोसा है। लेकिन मेरे पास रिकॉर्डेड दूसरा सुर, जो पहले वाले से थोड़ा मध्यम था, और जो वार्ताकारों तक नहीं पहुंचा, वह यही था कि भरोसा नहीं है। अदालत पर 'भरोसा है भी और नहीं भी' की जो भावना है, यह सिर्फ शाहीन बाग तक ही नहीं है। पिछले कुछ सालों में हमारी अदालतें, खासतौर पर हमारे सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से कायदे कानून का तिया पांचा किया है, भरोसा रहना और ऐन उसी वक्त भरोसे के न रहने को क्या मानें? एक सामान्य बात या एक नियति, जो संसद से लेकर अदालत की उस गोल गुंबद वाली इमारत में बैठे लोग अपने-अपने हिसाब से तय कर रहे हैं? जस्टिस दीपक मिश्र से लेकर जस्टिस रंजन गोगोई और अब जस्टिस बोबडे जो कुछ और जैसा कुछ भी कर रहे हैं, उसका खामियाजा कम से कम यह तीनों तो नहीं भुगतेंगे। उसका खामियाजा सिर्फ और सिर्फ हमारी न्याय व्यवस्था भुगतेगी। आज अगर शाहीन बाग सुप्रीम कोर्ट के वार्ताकारों को सुनने को तैयार नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट को खुद सोचना होगा कि आखिरी बार उसने मुसलमानों की कब सुनी थी?

तीन तलाक का मामला हो, बाबरी मस्जिद विध्वंस का मामला हो या फिर जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का मामला हो, शाहीन बाग को ही नहीं, कायदा कानून जानने-मानने वाले हर किसी को लगता है कि अन्याय हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी नजर में जो न्याय किया, उसको अनुचित ठहराने और बताने के लिए एक से बढ़कर एक फैसले पहले से ही हैं, नजीरें हैं और शाहीन बाग जैसे देश भर में जो साढ़े चार सौ से भी अधिक बाग बन चुके हैं, सभी बागों में इन दिनों यही सब डिसकस हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने तो खैर अन्याय करके अपना दरवाजा यों बंद कर लिया कि चेहरा नहीं दिखाएंगे। फिर जब शाहीन बाग की दादी कहती हैं कि कागज नहीं दिखाएंगे तो सुप्रीम कोर्ट कहता है कि वो चीजें बाद में बताएंगे, पहले रास्ते से हटो। गुरुवार को जब सुप्रीम कोर्ट के वार्ताकार संजय हेगड़े और साधना रामचंद्रन शाहीनबाग में बातचीत कर रहे थे, जामिया के पास रहने वाले इमरान अपनी दो बच्चियों के साथ उनके सामने पहुंचे और बेसाख्ता रोने लगे। कहने लगे कि उन्हें डर लगता है। अपने लिए और अपनी दो बच्चियों के लिए डर लगता है। इमरान की दोनों बच्चियों ने अपनी साइकिल पर तिरंगे बांध रखे थे और हाथ में एक पोस्टर ले रखा था, जिसपर लिखा था कि हम आपको हिम्मत देने आए हैं। इमरान का कहना था कि ये तिरंगा जो आज तक हमारा गुमान हुआ करता था, अब हमारा डर बन गया है। डर के मारे हमें तिरंगा अपने साथ रखना पड़ रहा है क्योंकि इसे नहीं रखेंगे तो आप हमें हिंदुस्तानी नहीं मानेंगे।

'किसे हिंदुस्तानी मानें और किसे न मानें' की शायद कोई याचिका अभी तक सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर नहीं पहुंची है। 'किसे हिंदुस्तानी मानें और किसे न मानें' का कोई गैजेट अभी तक केंद्र की मोदी सरकार ने जारी नहीं किया है। सीएए जब सीएबी था, तभी से केंद्र सरकार के गृह मंत्री अमित शाह सहित कई दूसरे मंत्री समूचे भारत में घूम-घूमकर वह क्रोनोलॉजी समझा रहे हैं, जिसकी आग से इन दिनों असम भभक रहा है। असम की आंच समूचे भारत को महसूस हो रही है और इसी आंच से वह भय पैदा हुआ जो गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट के वार्ताकारों के सामने बेसाख्ता बह निकला। वार्ताकार कहते रहे कि कौन कहता है कि आप हिंदुस्तानी नहीं हो, वार्ताकार ढांढस बंधाते रहे कि आप हिंदुस्तानी ही हो, मगर भय का बहना बंद नहीं हुआ। भरी सभा से भय उठा और बाहर जाकर फुटपाथ पर बैठ गया। मैंने देखा, सभा से एक शाहीन उठी, फुटपाथ पर गई और उसने उस भय के आंसू पोंछ दिए। उसका इमरान से कोई नाता नहीं था, एक रिश्ता था, जिसे हम दर्द के रिश्ते के रूप में समझ सकते हैं और इन दिनों दर्द के इस रिश्ते में डर के एक नाते ने भी घर कर लिया है।

मोदी सरकार हर मंच से यही कह रही है कि किसी को भी डरने की जरूरत नहीं है। फिर क्या बात है कि डरे हुए सारे लोगों ने हर शहर में अपना एक घेरा बना लिया है, जो मुसलसल बढ़ता जा रहा है?  इस बात का जवाब शाहीन बाग की सरवरी दादी देती हैं। वो कहती हैं कि हमें तो ये लोग एकदम बीच में लाकर घेर रहे हैं। दादी की बात में सचाई है। 2014 में जब से नरेंद्र मोदी की केंद्र में सरकार बनी है, तब से जो मॉब लिंचिंग शुरू हुई, अगर इसे हांकने के रूप में ग्रहण करें तो दादी की बात बिलकुल सही है। मार मार कर मुसलमानों को बीच में लाकर खड़ा कर दिया है और अब क्रोनोलॉजी के जरिए उनमें से लोगों को चुनने की कवायद होने वाली है। और ये कवायद होने ही वाली है क्योंकि बीजेपी की सरकार ने संसद में यह लिखकर दिया है कि अभी उन्होंने एनआरसी लागू करने के बारे में तय नहीं किया है। शाहीन बाग में बैठे लोगों की मांग यही है कि एनआरसी को सिरे से रद्द किया जाए। अगर इसके बारे में सोचा भी गया है तो उस सोच को भी रद्द किया जाए और संसद को यह लिखकर दिया जाए कि एनआरसी नहीं होगी।

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की ओर से जो दो वार्ताकार शाहीन बाग भेजे गए, उनका कोई मतलब बनता नहीं दिख रहा है। गुरुवार को शाहीन बाग और वार्ताकारों के बीच कुछ बातों को लेकर कई बार गहमागहमी हुई। पहली यही कि वार्ताकारों का कहना था कि वो सिर्फ रास्ते की बात करने आए हैं, कैसे दूसरों को परेशानी न हो, उनके अधिकार की रक्षा हो, इसकी बात करने आए हैं। शाहीन बाग की महिलाओं का कहना था कि दो महीने छह दिन से वे यहां रास्ते की बात करने नहीं बैठी हैं। वे यहां सीएए, एनआरसी और एनपीआर की बात करने बैठी हैं और सुख से नहीं बैठी हैं। उन्हें दुख और डर, दोनों है। मगर सुप्रीम कोर्ट ने अपने वार्ताकार शाहीन बाग का दुख सुनने नहीं भेजे थे, इसलिए जब भी लोग यह कहें कि हमारा दुख तो सुनिए तो साधना रामचंद्रन उन्हें डांट दें कि हमें हमारा काम मत बताइये। जाहिर है कि इस तरह की लाग-डांट बेनतीजा ही रहने वाली थी और बेनतीजा रही भी। सुप्रीम कोर्ट जो सुनना चाहता है, सड़क पर बैठे लोग वह बात बोलें भी तो कैसे बोलें? मौके पर मौजूद रुखसाना सवाल करती हैं कि सवा दो महीने से यहां बैठे हैं, अभी तक तो कोई बात करने आया नहीं। ये लोग बात करने आए हैं तो हमारे दुख पर नहीं बल्कि इनके सुख कैसे पूरे हों, इस पर बात करने आए हैं। फिर क्या गारंटी है कि कहीं और जाकर बैठ जाएंगे तो कोई बात करने आ ही जाएगा? नब्बे की हो रही आसमां बेगम, जो शाहीन बाग की दादी के नाम से मशहूर हैं, कहती हैं कि वे बापू के जुग-जमाने की हैं। मुंह दुख गया बताते-बताते कि ये बापू वाली बात नहीं है। दादी ने तो पूछा नहीं, मगर हम खुद से तो पूछ ही सकते हैं कि बापू वाली बात क्या है? बापू होते तो ये होता?   

Sunday, February 16, 2020

शकरकंदी की कड़वाहट

मेरा एक दोस्त अक्सर कहता है कि लोग अच्छे नहीं होते, तो मैं कहता हूं कि लोग तो अव्वल अच्छे ही होते हैं, वक्त या हालात बुरे होते हैं। इस पर वह तुनककर अपनी उस पड़ोसी की बातें बताने लगता है, जिसे उसने आज तक किसी से सीधे मुंह या जरा सी मुलायमियत से बात करते नहीं देखा। मैं उसे समझाता हूं कि इसके पीछे उस पड़ोसी के वक्त का मुंह शायद हमेशा टेढ़ा रहता होगा या उसके हालात इतने कठोर होते होंगे। लेकिन वह नहीं माना। एक दिन वह मुझे अपने घर ले गया और अपनी उस पड़ोसन की निगरानी पर बैठा दिया। मैंने देखा कि उसकी पड़ोसन का मुंह कामवाली से लेकर मां-भाई के साथ भी टेढ़ा ही था। थी तो वह ठीक-ठाक घर की। देखने में गदराई शकरकंदी सी, लेकिन शकरकंदी जैसी अनाकर्षक तो नहीं थी। उसकी मां की आवाज तनिक तेज तो थी, लेकिन उसमें भी एक दिल्ली वाली पंजाबी शाइस्तगी तो थी ही।
फिर क्या वजह रही होगी कि इतनी सुंदर पड़ोसन का वक्त इस कदर टेढ़ा हो चुका था? मैंने दोस्त से पड़ोसन के बारे में कुछ पूछताछ की। वह पैंतीस पार थी, सुंदर थी। हंसे तो गोया फूल झड़ें। हालांकि मेरे दोस्त को मुझे दिखने वे फूल अब भी मेरी भूल ही लगते हैं और ज्यों ही मैं कभी भी उसकी हंसी में फूल देखता हूं, झट से वह हमेशा यही बोलता है, 'आई ऑब्जेक्ट मीलॉर्ड!' उस वक्त भी उसने यही जारी रखा। फूल दर फूल गिरते ऑब्जेक्शन से जब मैं परेशान हो गया तो मैंने दोस्त से पूछा, 'शादी हो गई है इसकी?' दोस्त बोला, 'नहीं हुई।' अब समस्या का एक सिरा तो मेरी गिरफ्त में था। इस सिरे पर अपनी गिरफ्त मजबूत करने के लिए मैंने फिर पूछा, 'कोई ब्वॉयफ्रेंड? किसी इश्क की कोई कहानी? या सिरे न चढ़ पाई किसी मोहब्बत की कोई दास्तां?' दोस्त बोला, 'पांच साल तो हो गए मुझे इस इलाके में रहते हुए, अभी तक तो ऐसी कोई चीज दिखी नहीं।'
फिर मैंने पूछा, 'क्या वह निपट अकेली है?' दोस्त ने जवाब दिया, 'लगता तो ऐसा ही है, जभी तो जब भी खिड़की पर आती है, खाती हुई आती है या खाते-खाते वापस चली जाती है।' इस जवाब पर मैं भड़क गया। मैंने कहा, 'खाने का अकेलेपन से क्या रिश्ता?' अरस्तू से सुकरात की देह में विचरते हुए दोस्त बोला, 'अकेला आदमी अक्सर किसी न किसी छोर पर ही रहता है। इस तरफ, या उस तरफ। उसके मन में बीच का रास्ता कहां होता है? फिर उसकी कोई ऐसी मजबूरी भी तो नहीं होती कि वह बीच का रास्ता अख्तियार करे ही करे।' उसके यह कहते ही मुझे याद आया कि मेरे दो मालिकों (जिनके यहां मैं कभी नौकरी करता था) ने कहा था कि साथ बहुत जरूरी होता है। एक बार जब मैं निपट अकेली महिलाओं से रूबरू था तो वहां भी मुझे ऐसी ही झल्लाहट दिखी थी। मैंने दोस्त से कहा, 'उसे समझाओ, अकेली न रहे।' अब तो दोस्त बिदक गया, बोला, 'अकेले के गले में समझाइश की घंटी बांधने की हिम्मत तुममें हो तो हो, मुझमें नहीं है।' 

Saturday, February 15, 2020

डाटा से प्यार, डाटा से सेक्स और डाटा से बच्चे!

मुझे वो टिंडर पर मिली थी, या मैं उसे टिंडर पर मिला, यह तो ठीक से याद नहीं, लेकिन मैच हो गया था। झारखंड की थी, अनारक्षित वर्ग की और साढ़े तीन शादियां कर चुकी थी। साढ़े तीन यूं कि आखिरी में बात मंगनी के बाद टूट गई थी, लेकिन मिलना-मिलाना हो चुका था। हमारी बातें आगे बढ़ने लगीं तो पहले तो उसने धीमे से मुझे यह बताया कि उसके पापा मोदी जी के खिलाफ एक बात नहीं सुनते और अगर कोई कह दे तो उसको ऐसी-ऐसी सुनाते हैं कि पानी पनाह मांगे। मैंने उससे कहा, ‘तो क्या हुआ। मेरे घर में भी कुछ बीजेपी वाले हैं, कुछ कांग्रेस वाले हैं, सपा-बसपा वाले भी हैं और खुद मैं कम्यूनिस्ट हूं।’ तो वह बोली कि उसके यहां भी कुछ यही हाल है, उसका भाई कांग्रेसी है, भाभी को आम आदमी पार्टी अच्छी लगती है और मां इधर-उधर डोलती रहती हैं, और जो भी जोर से बोल दे, उसी की तरफ हो जाती हैं। मैंने उससे पूछा, ‘और तुम? तुम क्या हो’? वह बोली, ‘मैं तो वर्कोहलिक हूं। काम पसंद करती हूं। जो भी काम करता है, उसे पसंद करती हूं।’

यह सुनकर मेरे मन में लड्डू फूटा। आज के जमाने में जब लोग काम से ज्यादा नाम पसंद करते हों, ऐसे लोग मिलने मुश्किल होते हैं। कुछ दिन तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा। फिर उसने धीमे-धीमे स्कूलों के बारे में फेक इन्फॉरमेशन मेरी ओर पुश करनी शुरू की। जैसे पहली तो यही कि अब देखो, सारे स्कूलों में पढ़ाई हो रही है। सारे टीचर्स स्कूलों में वक्त पर पहुंच रहे हैं और क्लासेस ले रहे हैं। लगातार आती इन फर्जी खबरों से जब मैं पक गया तो एक दिन मैंने उससे पूछ ही लिया, ‘आखिरी बार तुमने किस स्कूल का दौरा किया था?’ कहने लगी, ‘दौरा तो नहीं किया था, लेकिन उसका एक रिश्तेदार मध्य प्रदेश के स्कूल में पढ़ाता है, वही हमेशा सरकार से इस बात को लेकर हमेशा परेशान रहता है कि टाइम पर स्कूल पहुंचना है।’ मैंने उससे पूछा, ‘उसकी बीएलओ में ड्यूटी लगती है?’ वह बोली, ‘ये तो न पूछो, रोज ही जाने कहां कहां ड्यूटी लगती रहती है।’ मैंने फिर पूछा, ‘फिर वह स्कूल कब जाता है‌?’ इस पर वह थोड़ी नाराज हो गई और बोली, ये सब फालतू की बात है, वक्त पर तो स्कूल आना ही पड़ेगा।

फिर कुछ दिन बाद वह मुझसे सरकारी दफ्तरों की बेहतरी की बात बताने लगी। वहां भी आने-जाने के वक्त की पाबंदी की बात। मैंने पूछा, ‘अधिकारियों के दफ्तर वक्त पर आने जाने से क्या सारे काम वक्त पर होने लगे?’ वह बोली, ‘और क्या।’ मैंने पूछा, तुम अपनी जीएसटी कैसे फाइल करती हो तो बोली कि उसने इस काम के लिए एजेंट कर रखा है। मैंने पूछा कि अगर अधिकारी या सरकारी कर्मचारी अपने काम के इतने ही पाबंद हैं तो बीच में दलाल क्यों लगाया? क्या दलाल पूरा काम ईमानदारी से कराता है? छूटते ही वह बोली, ‘तुम मोदी विरोधी हो।’ पहले तो मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि मैं इस गलीच सिस्टम का विरोधी हूं, लेकिन वो तो समझने का नाम ही न ले। फिर मैंने उससे पूछा, ‘तुम मोदी समर्थक हो?’ इस बार वह खुलकर बोली, ‘हां। और मोदी जी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।’ मैंने पूछा, ‘क्या अच्छा काम कर रहे हैं?’ बोली, ‘नोटबंदी करके काले धन की कमर तोड़ दी।’ मैंने कहा, ‘लेकिन सारा पैसा तो रिजर्व बैंक वापस आ गया।’ इस पर वह बोली, ‘इतना अंधा विरोध तो न करो।’ मैंने कहा, ‘ये मैं नहीं, रिजर्व बैंक का डाटा कह रहा है। ’तो कहती है, ‘जाओ, उसी डाटा से प्यार करो, उसी से सेक्स करो और उसी से बच्चे पैदा करना।’