Saturday, August 27, 2016

हम लोगों के घरों में सोना नहीं मिलता

दोनों लड़ रहे थे। दोनों डर रहे थे। दोनों एक दूसरे से दूर भाग जाना चाह रहे थे। दोनों एक दूसरे से गुत्थमगुत्था होकर एक दूसरे को खत्म कर देना चाह रहे थे। दोनों विरोधी थे। दोनों चिपके हुए थे। एक के हाथ में दूसरे का बाल था तो दूसरे ने पहले का हाथ उमेठ रखा था। एक दूसरे से दूर होने के इच्छुक दोनों इस डर से दूर नहीं हो पा रहे थे कि उनमें से कोई एक लौटकर पास आ गया तो? इसी तो के चक्कर में दोनों उलझे हुए थे। तो का चक्कर तो कंगना के साथ भी चिपकाया गया था, तो?

इसी बीच एक कवि ऐलान करता था कि वह बहुत नहीं है। उसके पहले वह कह चुका था कि वह कहीं नहीं है और उसके कई साल पहले वह कह चुका था कि वह नहीं है। हालांकि ज्यादा नहीं तो कुछ एक लोग, जिनने उसकी इकलौती किताब पढ़ी थी, वो जानते थे कि कवि अक्सर उस खिड़की से झांकते होता रहता है जो उसके किसी एक बनबिगड़े घर के बाहर खुलती थी। बस कवि कमरे में नहीं होता।

एक कमरा है। एक न होने लायक कमरा है। आमतौर पर कमरे में चार दीवारें होती हैं, लेकिन उस कमरे में छह दीवारें हैं। कमरे को अपने कमरे होने के बारे में कोई भ्रम नहीं है। कवि को है, लड़नेवाले को है, हो सकता है कंगना को भी हो। हो तो हो। तो?

मैं सोना तलाश रहा हूं। नींद मेरी जेबों में ही नहीं, बुश्शर्ट के कॉलरों और कफों में भी भरी है। नदी नहाने गए लड़कों की जेब में तलाशी लेता हूं तो उसमें आलपिन मिलती है। एक की जेब में पांच पैसा मिलता है लेकिन सोना नहीं मिलता। हम लोगों के घरों में सोना नहीं मिलता। किसी के यहां मिलता भी है तो बक्से में, न कि जेब में। लेकिन मुझे वाकई नहीं पता, इसलिए मैं जेब ही टटोलता हूं।

दुनिया भरी भरी है सर। मैं भी भरा भरा हूं। मजे मजे में मजाज ने नोंच-नाच के मजा ले लिया। डाक्टर साहब ने कुल्हड़ रखवाकर उसपर लिंटर डलवा लिया। रामू के कैंप से भागकर लोग टाटशाह मस्जिद की छत पर बैठकर अपनी शामें खाली करने लगे। नेताजी ने धांसू बयान दे दिया। मनोज श्रीवास्तव सभासद की पत्नी सभासदी जीत गईं। इंडिया मार्का पंप पर नेतानी का सिर फूट गया। साइकैट्रिस्ट के सामने बैठी लड़की ने सबकुछ खाली कर दिया।

ऊपर से नीचे तक सब झूठ है। भरोसा रखें। नहीं है? तो?

डिस्क्लेमर: मैं टीवी नहीं देखता।

अंदर कश्मीरी लाठी खाते हैं, बाहर मैं लात

ये इस देश में मेरे ख्‍याल से सबके साथ सबसे बड़ी समस्‍या है। लोग हंसते हुए घर से नि‍कलते हैं कि वे बड़े सुखी हैं, लेकि‍न दस मि‍नट बाद नर्क की बातें करने लगते हैं। ठेले से एक पर्सेंट ठीक खाना मि‍ल जाता है तो लगने लगता है कि सारा कश्‍मीर मि‍ल गया, कश्‍मीर के सारे बाग मि‍ल गए। दो महीने बाद कोई रि‍श्‍तेदार आके पूछ लेता है कि गुरु, सेहत बना रहे हो क्‍या? बस उतने में ही फूलकर सब अपनी अपनी कंपनी पर लहालोट होने लगते हैं। हालांकि रि‍श्‍तेदार के जाने के बाद ये भी कहते देखे जाते हैं कि कंपनी वंपनी कुछ नहीं, कहीं कोई आजादी नहीं है। दोस्‍त सुनते ही समझाने के मोड में आ जाते हैं कि गुरु, आजादी तो कहीं नहीं है। न कंपनी के अंदर न बाहर। बड़ेघर में भी ठीक ठीक आजादी नहीं मि‍लती।

मैंने सोचा है कि चने का अचार बनाउंगा। लौकी का भी और तुरई का भी। अगर स्‍कॉर्पियन यहां बन सकती है, अगर पर्रिकर रक्षामंत्री बन सकते हैं और अगर फ्रांस बुर्किनी उतार कर चालान कर सकता है तो तुरई का अचार आने वाले सात साल तक सुरक्षि‍त रखकर देखा और मन होने न होने पर खाया भी जा सकता है। देश को नर्क से नि‍कालने के लि‍ए अचार खाना जरूरी है। लि‍खना जरूरी नहीं है, पढ़ना तो बि‍लकुल नहीं। कि‍ताब की बात करना फालतू का काम है। कवि‍ता गरीब की लुगाई है। आजाद तो सिर्फ गोवा है, थोड़ा बहुत युसुफ भाई भी हैं, कुछ दि‍न में पूरे हो जाएंगे। महबूबा... एक बार तो बगैर मुफ्ती के मि‍लो। आई वि‍ल टेक योर ऑल व्‍यू इन माई मर्तबान। यू नो आइ लव अचार। डोंट यू नो? यू मस्‍ट नो!! आफ्टरऑल, आई एम एन आईटीयोआइयन!! यू मस्‍ट मेक एन आईटीओ देयर एट लाल चौक।

भारतीय नामपंथ के वि‍रोध में कौन कौन है। प्‍लीज जल्‍द बताएं। एक स्‍मारि‍का नि‍काल रहा हूं जि‍समें वो सारे होंगे तो नामपंथ के वि‍रोध में हैं, नाम के वि‍रोध में हैं, पंथ के वि‍रोध में हैं, संधि के वि‍रोध में हैं, वि‍च्‍छेदों के वि‍रोध में हैं, छेदों के वि‍रोध में हैं और इन सारे विरोधों के विरोध में हैं। जो भी वि‍रोध में हैं अगर वो नहीं हैं तो वही बता दें जो सिर्फ हैं। जो कहीं नहीं हैं वो मंडी हाउस आकर मुझसे मि‍ल सकते हैं। मैं भी कहीं नहीं हूं। जो है वो बस एक सटकन है!!

कश्‍मीरि‍यों, तुम चिंता न करो। मैं भी नहीं कर रहा। लाठी खाना तुम्‍हारी नि‍यति है और लात खाना मेरी। जैसे तुम्‍हारे साथ कई सारी आत्‍माएं लाठी लेकर चलती रहती हैं, वैसे ही मेरे साथ कई आत्‍माएं लात लेकर चलती रहती हैं। कश्‍मीर में तुम कहीं भी रहोगे, लाठी खाते रहोगे। कश्‍मीर के बाहर मैं कहीं भी रहूंगा, लात खाता रहूंगा। हम दोनों का खाते रहना, खाके बैठे रहना लोगों को ज्‍यादा जरूरी महसूस होता है। हम लोगों का कुछ भी करना, कर लेना वाजि‍ब नहीं। मैं अब चुप होता हूं। तुम तो चुप कर ही दि‍ए गए हो।

Friday, August 26, 2016

दंगा है इनका हथि‍यार, राज में है मोदी सरकार

महेंद्र मि‍श्र 
क्या कोई शासक अपने राज में अराजकता चाहता है? पहली नजर में इस सवाल का उत्तर न है। लेकिन मोदी साहब दुनिया के शायद पहले शासक होंगे। जो चाहते हैं कि देश अराजकता की आग में डूब जाए। दरअसल इसके पीछे एक दूर की कौड़ी है। दो साल के शासन में क्या कभी वो हिंसक घटनाओं को रोकते हुए दिखे? या फिर उनकी तरफ से उन्हें हल करने का प्रयास दिखा? ज्यादातर घटनाओं पर मोदी जी चुप ही रहे। वह हैदराबाद का मसला हो या कि जेएनयू का। या फिर राष्ट्रवाद के नाम पर देश भर में उपद्रव हो। अखलाक की हत्या हो या मुजफ्फरनगर दंगा। दलित हो या कि जाट आंदोलन। इन्हें हल करने की पहल तो दूर उन्होंने अपना मुंह खोलना भी जरूरी नहीं समझा। दबाव में बयान जरूर आए, लेकिन वो बयान तक ही सीमित रहे। कार्रवाई में तब्दील नहीं हो सके। कश्मीर मसले पर सर्वदलीय बैठक तक कागजी साबित हुई। और अभी भी वहां हिंसा जारी है। वजीरे आजम को न घाटी की फिक्र है न उसके लोगों की। इस बीच उन्होंने बलूचिस्तान का एक नया राग शुरू कर दिया है। इन दो सालों के दौरान संघ के आनुषंगिक संगठन वीएचपी हो या कि विद्यार्थी परिषद। गाय से लेकर राष्ट्रवाद के मुद्दे पर सड़कों को रौंदते रहे। यह पहला शासक दल होगा जिसके संगठन खुद ही कानून और व्यवस्था को बिगाड़ने में लगे हुए हैं।

दरअसल मोदी जी के सामने 2019 के आम चुनावों की वैतरणी के तीन पतवार थे। विकास, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद। गुजरात के इस लौह पुरुष को विकास के मुद्दे की सीमाएं पता हैं। इसमें कारपोरेट का मुनाफा केंद्र में होता है और लोग हाशिए पर। इससे अमीरों की तिजोरी भले वजनी हो जाए। लेकिन जनता के अच्छे दिन आने से रहे। लिहाजा इसके नाम पर वोट पाना टेढ़ी खीर है। मोदी जी ने भी इसे अब जुमलेबाजी के खाते में डाल दिया है। इस कड़ी में सांप्रदायिकता के तावे पर पकी वोट की रोटी सबसे ठोस है। आजमाया हथियार है। इसलिए पार्टी-संगठन को इस पर पुराना विश्वास भी है। इसी भरोसे के साथ पार्टी और संगठन ने उस पर काम करना शुरू कर दिया। सांप्रदायिकता की गाड़ी रफ्तार से दौड़े उसके लिए कभी गाय तो कभी समान आचार संहिता के ईंधन का इस्तेमाल किया गया। गाय का दांव उल्टा पड़ते देख। मोदी जी इसी पेड़ की दूसरी डाल पर कूद गए हैं। लाल किले से उन्हें बलूचिस्तान में अपने प्रशंसक दिखने लगे। बलूचिस्तान का यह बम उनकी दूरगामी रणनीति का हिस्सा है। इसमें पाकिस्तान, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद तीनों शामिल हैं। मोदी साहब को इसमें बड़ा फायदा दिख रहा है। इसके साथ ही इस बात की संभावना बढ़ती जा रही है कि 2019 के चुनाव में मोदी जी सांप्रदायिकता के घोड़े की सवारी करेंगे। लिहाजा भविष्य में बड़े पैमाने पर दंगे हों और पाक से युद्धोन्माद का माहौल बने। तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। इसकी तार्किक परिणति सांप्रदायिक उन्माद और भीषण अराजकता है। इन सारी कोशिशों के बाद भी अगर सत्ता हाथ आती नहीं दिखती। तो मोदी जी के सामने इमरजेंसी का विकल्प खुला हुआ होगा। अराजकता से निपटने के नाम पर इसे लागू करना भी आसान हो जाएगा।

सत्ता में आने के साथ ही मोदी जी ने इसका अहसास भी कराना शुरू कर दिया था। संसदीय प्रणाली के ढांचे में राष्ट्रपति प्रणाली पर काम उसी की अग्रगति है। अनायास नहीं मंत्रालयों की भूमिका गौण कर शासन की कमान पीएमओ ने ले ली। संस्थाओं का वजूद ही अपने आप में एकाधिकारवाद विरोधी होता है। एकछत्र शासन की राह में सबसे बड़ी रोड़ा हैं। लिहाजा उनका खात्मा जरूरी है। मोदी जी उसी काम में जुट गए हैं। योजना आयोग का खात्मा हो या एफटीआईआई को डिजिटल संस्थान में बदलने का प्रस्ताव। नेहरू मेमोरियल से लेकर इंदिरा गांधी कला केंद्र तक यही हाल है। तमाम शैक्षणिक संस्थाओं में तब्दीली इसी का हिस्सा है। न्यायिक संस्थाओं तक को बगलगीर बनाने की हर संभव कोशिश की जा रही है। चीफ जस्टिस की बेबसी और गुस्से से भला कौन नहीं परिचित है। देश के सारे चुनावों को एक साथ कराने का पीएमओ का प्रस्ताव इसी का हिस्सा है। चुनाव आयोग उस पर विचार भी कर रहा है। इस कड़ी में या तो संस्थाएं खत्म कर दी जाएंगी। या फिर उन्हें कमजोर कर दिया जाएगा। या उनकी कमान सत्ता के इशारे पर नाचने वाले शख्स को दे दी जाएगी। अनायास नहीं संस्थाओं के शीर्ष पर खोज-खोज कर संघियों को बैठाया जा रहा है। इसके साथ ही संस्थाओं को तानाशाही ढांचे के मातहत काम करने का अभ्यस्त बना दिया जाएगा।

प्रधानमंत्री द्वारा बात-बात में बोला जाने वाला झूठ भी लगता है किसी एक रणनीति का हिस्सा है। दरअसल सांप्रदायीकरण की प्रक्रिया में एक हिस्सा पार्टी का आधार बन जाएगा। लिहाजा उसके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। मोदी झूठ बोलें या कि सच किसी भक्त पर भला क्या फर्क पड़ेगा? बाकी बचे विरोधी तो उनके गुस्से और विरोध से उपजा आंदोलन इनके लिए मददगार ही साबित होगा। जिसे अराजकता करार देकर सरकार को उसे दबाने का मौका मिल जाएगा। जिस मौके का मोदी जी को इंतजार है।

फूटा मोदीजी का हवाई गुब्‍बारा, जुमले हुए एक्‍सपायर

महेंद्र मि‍श्र 
इन्हें न विकास से लेना-देना है और न मेडल से। इन्हें युद्ध चाहिए। इसीलिए जो आज तक किसी प्रधानमंत्री ने लाल किले से नहीं किया। उसको इन्होंने कर दिखाया। वो है बलूचिस्तान के अलवगाववादियों का खुला समर्थन। पीएम साहब ने इस मौके पर न ओलंपिक का जिक्र किया और न ही मेडल का। एक अरब 30 करोड़ आबादी और एक भी मेडल नहीं। यह बात पीएम साहब को परेशान नहीं करती। चलिए देश के दूसरे हिस्सों में दूसरी नकारी सरकारें थीं। लेकिन गुजरात में तो 20 सालों से आप हैं। कम से कम एक खिलाड़ी पैदा कर दिए होते। एक मेडल वहां से आ जाता। इस पर आप क्या बोलेंगे? अब पूरा गुजरात बोल रहा है। विकास का बुलबुला फूट गया। न वहां दलितों को सम्मान मिला। न ही पटेलों को रोजी-रोटी। गुजरात और कुछ नहीं अदानियों-अंबानियों के जमीन लूट का माडल है। अब यह बात बिल्कुल साफ हो चुकी है। विकास के नाम पर इनके पास जुमले हैं। देश के पहले प्रधानमंत्री होंगे जो लाल किले की प्राचीर से झूठ बोले होंगे। और झूठे आंकड़े दिए होंगे। और वह भी झूठ तुरंत पकड़ लिया गया। जैसे ही गन्ना किसानों के 99 फीसदी बकाए के अदायगी की उन्होंने बात कही मुजफ्फरनगर शामली के किसान सच्चाई बताने टीवी पर आ गए। दिल्ली के पड़ोस में 70 सालों बाद बिजली पहुंचाने का दावा भी झूठा निकला। प्रधानमंत्री लाल किले से गांव वासियों के अपने भाषण को टीवी पर देखने का ऐलान कर रहे थे। लेकिन कुछ देर बाद ग्रामीण खड़े खंभे दिखाते पाए गए। जहां आज भी तार नहीं पहुंचा। बिजली की तो बात ही दूर है। पीएम के भाषण में देश की दो बुनियादी चीजें स्वास्थ्य और शिक्षा नदारद थीं। इन पर एक लफ्ज नहीं। हां मोदी साहब ने लाल किले से लेड बल्ब जरूर बांटे। लेकिन इन्हें नहीं पता कि अज्ञानता के अंधकार को बल्ब की रोशनी नहीं भर सकती है।

आजकल असामाजिक तत्व भी काफी सभ्य हो गए हैं। जिसको पीटना होता है उसका नाम चिल्लाकर नहीं लेते हैं। यहां तो दो देशों के बीच का मसला है। वह भी विदेश नीति जैसा संवेदनशील क्षेत्र। जिसमें सारे फैसले कूटनीतिक तरीके से लिए जाते हैं। दाहिना हाथ क्या कर रहा है वह बांये को भी पता नहीं होता। सारे काम संकेतों में होते हैं। उस मसले को पीएम साहब लाल किले की प्राचीर से हल करना चाहते हैं। वह भी ऐलानिया तरीके से। गिलगिट और पीओके एकबारगी तो समझा जा सकता है। हालांकि उनको लेकर भी तमाम तरह के सवाल हैं। मसलन क्या मोदी साहब ने अटल के समय के संघर्षविराम के समझौते को खारिज कर दिया है? या फिर नियंत्रण रेखा को अमान्य करार दे दिया है? शिमला समझौते को कूड़ेदान में फेंक दिया है? या यूएन समझौते को ठेंगा दिखा दिए? चलिए मैं इन सब पर कुछ नहीं पूछता। लेकिन बलूचिस्तान का आपने किस बिना पर जिक्र किया? 1 अरब 30 करोड़ के देश को आपने एक मिनट में बौना कर दिया। ऐसा करके देश को आपने पाकिस्तान से भी नीचे गिरा दिया। पाकिस्तान तो हमारे कश्मीर के मसले पर जब बोलता है तो हम उसे अंदरूनी मामलों में दखल करार देते हैं। लेकिन आपने तो सचमुच में उसके अंदरूनी मामलों में दखल दिया है। क्या इसके बाद अब पाकिस्तान को घेरने का कोई नैतिक आधार बचेगा?

प्रधानमंत्री का लाल किला का पूरा भाषण बता रहा था कि वह हताशा में हैं। दो सालों के बाद अब भक्त भी सवाल खड़े करने लगे हैं। हवाई गुब्बारे की भी सीमा होती है। जुमलों की भी मियाद होती है। ऐसे में अब किसी बड़े राग की जरूरत थी। गुजरात के विकास का गुब्बारा फूटने के बाद कुछ बचा नहीं था। गाय और गोबर ने ऊपर से मिट्टी पलीद कर दी। मजबूरी बश एक बयान क्या दिया अपने ही मधुमक्खी की तरफ घेर लिए। ऐसे में मोदी साहब को एक अदद गोधरा चाहिए। बलूचिस्तान के तौर पर उन्होंने कल उसका बीज बो दिया। अब धीरे-धीरे युद्ध का फल तैयार होगा। दरअसल इसकी जितनी मोदी जी को जरूरत है उतनी ही नवाज शरीफ साहब को भी। पाक के अंदरूनी आतंकवाद ने नवाज का गला पकड़ लिया है। ऐसे में अब शराफत से काम नहीं चलता दिख रहा है। लिहाजा सभी घरेलू समस्याओं से जनता का ध्यान बंटाने के लिए उन्हें भी एक युद्ध की दरकार है। यही चीज दोनों बिरयानी भाइयों को एक कर देती है। अनायास नहीं मोदी से पहले ही पाकिस्तान में युद्ध का राग शुरू हो गया है। लेकिन इससे मिलेगा क्या? सब लोग जानते हैं युद्ध इतना आसान नहीं है। और अगर होगा भी तो उससे परमाणु युद्ध का खतरा है। लिहाजा चाहकर भी एक सीमा से ज्यादा आप पड़ोसी को नहीं दबा सकते। इस कड़ी में अगर पाकिस्तान को कमजोर भी किए तो एक बार फिर वहां सेना या फिर मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतें मजबूत हो जाएंगी। जिसका पूरा खामियाजा भारत को भुगतना पड़ेगा। पड़ोस अगर अशांत रहेगा तो आप भी चैन की नींद नहीं ले पाएंगे। यह बात किसी भी युद्धोन्मादी को समझना चाहिए। हां अगर युद्ध ही मकसद है। और जनता से कुछ लेना-देना नहीं। मोदी जी को किसी भी कीमत पर एक गोधरा चाहिए। तब बात अलग है।

कश्मीर जल रहा है। लेकिन पूरे डेढ़ घंटे के भाषण में कश्मीर शब्द तीन बार आया भी तो वह पीओके के संदर्भ में। क्या कश्मीर की समस्या अब नहीं रही? या फिर इसको हल करने की जरूरत नहीं रही? इसको भुलाने के लिए अब बलूचिस्तान का बुलबुला खड़ा किया जा रहा है। दरअसल मोदी साहब को अब सारी समस्याओं का एक ही इलाज दिख रहा है। वह है युद्ध। क्योंकि वो अब हर तरफ से घिर चुके हैं। गुजरात के दलित हों या कि महंगाई, कश्मीर हो या कि विकास। सभी मोर्चों पर सरकार हांफ रही है। विपक्ष से ज्यादा अपनों ने अब उनका जीना दूभर कर दिया है। हताशा में अब पीएम को ‘पोलिटिकल मैनेजमेंट’ का एक ही रास्ता सूझ रहा है। लेकिन युद्ध किसी चीज का समाधान नहीं होता है। वह कम करने की जगह समस्याएं बढ़ाता है।

कोई भी मुल्क अपने पड़ोसियों को दुश्मन बनाकर महाशक्ति नहीं बन सकता है। अमेरिका और इंग्लैंड इसके उदाहरण हैं। आप पाकिस्तान से, चीन से, नेपाल से सबसे लड़कर महाशक्ति बन जाएंगे। यह संभव नहीं है। कल को बांग्लादेश और श्रीलंका को भी नाराज करने की तैयारी चल रही है। वहीं बगल में आपका पड़ोसी चीन है। पाकिस्तान मजबूती से उसके साथ है। नेपाल उसके और करीब गया है। बांग्लादेश से लेकर श्रीलंका और मालद्वीव तक में वह पैठ बनाने की कोशिश में है। आप एक से युद्ध करेंगे तो दूसरे पड़ोसी भयभीत होंगे या आपसे प्यार करेंगे? चीन के साथ उनके जाने की जो प्रक्रिया है वह और तेज हो जाएगी। प्रधानमंत्री जी जनता भी अब मूर्ख नहीं रही। वह सब देख रही है। युद्ध तो कारगिल का भी हुआ। क्या उसके बाद अटल जी की सरकार बन पायी? इसलिए इस उन्माद से बचिए। और देश को खांई में मत ढकेलिए। एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी आपको मिली है। उसको समझिए।

बहरहाल कल प्रधानमंत्री जितनी जनता को सामने संबोधित कर रहे थे उससे ज्यादा भीड़ उनके घर में उनके खिलाफ जुटी हुई थी । जिस गुजरात ने प्रधानमंत्री को चोटी पर पहुंचाया था। वही अब उनके विरोध का माडल बन गया है। यह सिलसिला जारी रहा तो बीजेपी के पराभव और नई शक्तियों के उभार की गति एक एकसमान होगी।

Friday, August 19, 2016

मोदीजी के हाथ में क्‍या है? जेब में क्‍या है?

रक्षाबंधन के दि‍न कामवाली के नाम पत्र (मोदीजी के नाम नहीं) 

खाना बनाने का ढाई हजार ले रही हो तो दि‍ल लगाने का कि‍तना मांगोगी? भूल जा रही हो कि‍ मैं कहां कहां के दलि‍द्रों की जमीन पर खड़ा हूं? हम कि‍स्‍मतवाले लोग थोड़े हैं या आईफोन वाले थोड़ी हैं? आइफोन के बारे में हम बाते करते हैं और मोटो जी से काम चलाते हैं। घर में राहुल सांकृत्‍यायन की कि‍ताब होती है लेकि‍न तकि‍ए के नीचे होती है। पता नहीं राहुल सांकृत्‍यायन ने दि‍ल लगाने का कि‍तना पैसा लि‍या होगा? कितनी बार लिया होगा? तिब्बत की कठोर पहाड़ियों पर उन्हें कौन पैसा देता होगा?  क्या दलि‍तों के पास भी आइफोन होते हैं? कन्‍हैया कुमार के पास कौन सा फोन है? क्‍या अब समय नहीं आ गया है कि‍ दलि‍तों और कन्‍हैया कुमार के पास जो फोन हैं उसकी वास्‍तवि‍कता समाज के सामने रखी जाए? ऊना से लेकर अहमदाबाद तक जो सि‍पाही जोशीले नारे लगाते हुए दौड़ रहे थे, उनकी छाति‍यों में कि‍स फोन का जोर था? लौटानी जो लोग उनपे पत्‍थर फेंक रहे थे, क्‍या वो जोर एप्‍पल ने दि‍या या सैमसंग ने? नोकि‍या तो नहीं न दि‍या होगा, वो तो आउटडेटेड ठहरा। या सारा जोर एप्‍पल से नहीं, मि‍ल्‍क पीकर आया था? आपने मि‍ल्‍क देखी है? आइफोन पे देखी है? क्‍या भारतीय वामपंथ को एक सि‍रे से दूसरे सि‍रे तक आइफोन के सवाल पर साफ साफ स्‍टैंड लेने का वक्‍त नहीं आ गया है? वाजि‍ब सवालों पर तो जल्दी स्टैंड नहीं लेते या बेचारगी की हालत है। राखी में जो सारी बहनें उमड़ उमड़ के इमोजी भेज भेज के फेसबुक को गंधाई हुई हैं, आज वक्‍त आ गया है कि‍ इस जोर वाले फोन की सच्‍चाई को सामने रखें। वो हरामी (प्रेम से कह रहा हूं, ये गाली नहीं, मौहब्‍बत है) कौन सा प्‍लेटफॉर्म है जो सबसे ज्‍यादा हवा फैला रहा है? क्‍या वह ढाई हजार रुपल्ली हैं, क्‍या वह फि‍फ्टी-फि‍फ्टी से आ रहा है या वो मेरे मन के बुढ़ापे की पैंसठ वाली संख्‍या को पार कर चुका है? पंद्रह लाख जैसी बातें तो मैं सपने में भी नहीं सोचता। हम कहां खड़े हैं? हरी सर आप बताइये, आप कि‍नके साथ खड़े हो? मेरे साथ खड़े होते तो कम से कम अपने पैसों के लि‍ए आपके कान में फुसफुसा तो सकता था, दूसरे के लि‍ए चि‍कोटी भी काट सकता था। मोदीजी के हाथ में क्‍या है? जेब में क्‍या है? बंडी वाली जेब में क्‍या छुपा रखा है? मोदीजी आप जवाब न दें, मेरे कान में तो फुसफुसा सकते हैं? एसएमएस करने में तो घंटा आपका कुछ जाता नहीं है। आइए हम साथ साथ कश्‍मीर की अवाम को बताएं कि‍ हमारे दि‍लों में जो जोर है वो कि‍स प्‍लेटफार्म पर भरा जा रहा है। पाकि‍स्‍तान न सही, कश्‍मीर को तो आज शांति‍ की जरूरत है या नहीं? फेसबुक तो बंद कराते ही रहते हैं, कभी फायरिंग भी तो बंद कराइये। दि‍ल से दो चार बिंदी बढ़ा के ही बोलि‍ए, प्लीज बोलिए। रक्षा के बंधन का दि‍न है आज। माना कि‍ आपने अपनी पत्‍नी को अपना नहीं बनाया, अपनी बहनों को तो अपना बनाओगे? अच्‍छे और बुरे दोनों सेंस में। बुरा वाला तो रोज बनाते ही रहते हो, अच्‍छा वाला आज तो बनाओ। ये प्‍लेटफार्म का सवाल एक दि‍न क्‍या, आज ही मेरी जान लेके रहेगा। मोदी तुम कहां हो? मुझे पता है कहीं नहीं हो। बहनों तुम कहां हो? तुम भी नहीं हो। ये देश कहीं है? मेरा आइफोन कहीं है? ये दि‍न आज कहीं भी है या सीधी हवा है?