Sunday, July 22, 2012

मुझे भाग जाना था उस दिन...


उस दिन
अगर मैं भाग जाता
तो शायद बच जाता
या फिर
अपने पीछे छूटे लालच को
अपने आगे खडे लालच से
टकराने देता
तो भी बच जाता।

भागने की कसक
बाकी है अभी भी
और शायद इसीलिए
भूत से भाग रहा हूं,
भविष्‍य से भाग रहा हूं
वर्तमान में हूं।

वर्तमान भी स्थिर नहीं
भागना जारी है
मुसलसल
हर किसी से
हर चीज से
क्‍योंकि भागते भागते
पता चला है कि
भगोडे ही सबसे तेज भागते हैं
सबसे आगे जाते हैं।

जबसे पता चला भगोडों के बारे में
भागने की अदम्‍य इच्‍छा के बावजूद
मेरे कदम उठने का नाम ही नहीं ले रहे
जैसे स्थिर है वर्तमान,
वैसे ही जड हो चुके हैं कदम।

अब मैं
पीछे देख सकता हूं
आगे भी देख सकता हूं
पर खुद को खो चुका हूं क्‍योंकि
खुद को देख ही नहीं पा रहा हूं मैं। 

Wednesday, July 18, 2012

काका ने कैंसर की पीड़ा साझा की थी मुमताज से



राजेश खन्ना के निधन की खबर मिलने पर उनके साथ दस सुपरहिट फिल्‍में देने वाली अदाकारा मुमताज खासी भावुक हो उठीं। मुमताज ने कहा है कि दूसरों के साथ बहुत ज्यादा नहीं घुलने-मिलने वाले काका उनके बेहद करीब थे। फिल्मी पर्दे की सबसे हिट जोड़ी के तौर पर दोनों ने आपकी कसम, रोटी, अपना देश, सच्चा झूठा समेत दस सुपरहिट फिल्में दीं। 
अपने परिवार के साथ लंदन में रह रही मुमताज ने बताया कि उन्हें इस बात का संतोष है कि वह पिछले महीने उनसे मिली थीं। उस दौरान दोनों ने कैंसर से अपनी-अपनी लड़ाई की बात की। हालांकि खन्ना के परिवार ने कभी उनकी बीमारी के बारे में कोई जानकारी नहीं दी।
स्तन कैंसर से अपनी लड़ाई जीतने वाली मुमताज ने कहा, "उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं बहुत मजबूत हूं और वह जानते थे कि कीमोथेरेपी के दौरान मैं किस पीड़ा से गुजरी थी। उनके लिए ऑर्डर किए गए  बहुत सारे व्यंजनों के बारे में मजाक करने पर उन्होंने कहा था कि उन्हें भूख महसूस नहीं होती। उस दिन सभी ने खाया, लेकिन काका ने नहीं।"
मुमताज ने बताया कि बीमारी की हालत में भी राजेश जिंदादिल थे। मजाक करना, ठहाके लगाकर हंसना उनकी आदत थी जो उस समय भी कायम थी। मुमताज कहती हैं कि उनके लिए यह गर्व की बात है कि जिन फिल्मों में उन्होंने साथ काम किया वे सभी सुपरहिट रहीं। राजेश के साथ मेरी कई यादें हैं। रोटी फिल्म की शूटिंग के दौरान बर्फ में मुझे उठाकर चलना उनके लिए कठिन काम था। उस एक सप्ताह के दौरान जब भी हम शूटिंग करते मैं उनसे   मजाक करती थी कि अब आपको 100 किलोग्राम का वजन उठाना होगा और वह कहते थे कि नहीं इतनी भी भारी नहीं हो। पर मुझे मालूम है मैं कभी भी दुबली नहीं थी। पिछले हफ्ते दारा सिंह की मौत पर शोक व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि इस दौरान बॉलीवुड के कई दिग्गजों ने दुनिया छोड़ दी। राजेश के करोड़ों चाहने वालों के लिए यह एक मुश्किल समय है। नियति पर किसी का कोई वश नहीं है। राजेश के जाने से मैं बेहद दुखी हूं.....देखी जमाने की यारी बिछड़े सभी बारी-बारी.....।

प्रेस ट्रस्‍ट आफ इंडिया से साभार....

Thursday, July 12, 2012

कविता में व्याधि या कविता की व्याधि


एक विषय. दो कवि. दो अलग अलग तरह की कविताएं. लेकिन संवेदना की जमीन पर दोनों कैसे एक ही जगह पहुंचती हैं जहां वे समान रूप से अमानवीय और स्त्रीविरोधी हैं, जबकि एक कविता एक महिला द्वारा लिखी गई है और दूसरी एक पुरुष द्वारा. अपनी अब तक चर्चित हो चुकी इस आलोचना में शालिनी माथुर एक तरह से दोनों कविताओं का और उनके रचनाकारों के अंतर्मन का, उनकी वास्तविक राजनीति का उत्खनन करती हैं और दिखाती हैं कि कैसे खुद के नारीवादी होने का दावा करने वाली कविता या कवि-रचनाकार भी भीतर से कितने स्त्रीविरोधी, पितृसत्तात्मक हैं. घोषित रूप से स्त्रियों के पक्ष में लिखी गई इन कविताओं की यह आलोचना इसे भी दिखाती है कि किस तरह ये दोनों रचनाकार पूंजीवादी बाजारपरस्ती के नमूने के बतौर सामने आते हैं, जो अपने बुनियादी चरित्र में ही स्त्रीविरोधी और पितृसत्तात्मक है. शालिनी ने यहां आलोचना के नए तौर तरीके और मानक गढ़ने की भी कोशिश की है और इस रचना ने इसे भी साबित किया है आलोचना पर अकादमियों और हिंदी विभागों का एकाधिकार नहीं है बल्कि बेहतर, जन पक्षधर और सार्थक रचना तथा आलोचना इनसे बाहर, रोज बरोज के संघर्षों के बीच से, जनता के बीच से निकलती है. यह आलेख कथादेश के जून (2012) अंक में प्रकाशित हुआ है और यहां थोड़े संपादन के साथ पोस्ट किया जा रहा है. 

साहित्य का कोई प्रयोजन तो होता ही होगा, लोकसंग्रह, आत्माभिव्यक्ति, संस्कृति को समृद्ध करना या फिर हिन्दी की फ़िल्म डर्टी पिक्चर  की भांति एन्टरटेन्मेन्ट, एन्टरटेन्मेन्ट एंड एन्टरटेन्मेन्ट। कविता करने वालों को कहानीकारों, नाटककारों, और निबन्धकारों की अपेक्षा अधिक स्वतंत्रता है। कविता भाव प्रधान हो सकती है, भावना प्रधान हो सकती है, अर्थवान भी और निरर्थक भी । कविता एब्सर्ड भी होती है पर कविता को कुछ न कुछ तो निरूपित करना होगा चाहे वह निरर्थकता या एब्सर्डिटी ही क्यों न हो। कविता ने शिल्प के अनुशासन से तो स्वयं को मुक्त कर लिया है- न छंद, न लय, न अलंकार, न छवियाँ, न बिम्ब। कविता अब गाई भी नहीं जाती, पढ़ ली जाती है। तो क्या पढ़ कर समझी भी न जाए? पाठक कविता से क्या अपेक्षा करे? खास कर जब कवि कवयित्री स्वयं को नारीवाद जैसे मानवीय विषय का प्रवक्ता बताते हुए अमानवीय रचनाएँ करें, निरन्तर करते रहें और  करते ही चले जाएँ। वे व्याधि पर कविता करें, इस चेतना के बग़ैर कि व्याधि से जूझ रहे मानव समाज को कैसा लगता होगा?

बीमारी एक खास किस्म का रूपक बनाती है- अंधता, हैज़ा, कुष्ठ, प्लेग, टी.बी., कैंसर और अब एड्स। अबे अंधा है क्या, कोढ़ की तरह सड़ना, प्लेग की तरह फैलना, टी.बी. या राजरोग से गलना, कैंसर की तरह जड़ जमाना यह सारे शब्द और मुहावरे मनुष्य की हृदयहीनता प्रदर्शित करते है। बातचीत और बतकहियों में रोग को मुहावरे की तरह इस्तेमाल करना एक प्रकार की क्रूरता है जिसे लोग बिना विचारे करते रहते हैं। सूसन सॉन्टैग जो स्वयं कैंसर से पीड़ित होकर इलाज से ठीक हुई थीं अपनी पुस्तक `इलनेस एज़ मेटाफ़ोर' में कहती है कि ऐसे प्रयोगों से रोग ही नहीं रोगी भी कलंकित होता है। वह निरूत्साहित हो जाता है, चुप्पी साध लेता है और शर्मिन्दा हो कर इलाज कराने से झिझकने लगता है। व्याधि को रूपक बनाते ही हम व्याधि को ख़तरनाक और असाध्य बना देते हैं। इससे रोगियों का एक अलग वर्ग तैयार हो जाता है- आइसोलेटेड - अलग-थलग अपने कर्मों का फल भोगते हुए, अपने अंत की प्रतीक्षा करते हुए।

सूसन सॉन्टैग  का लेख `इलनेस एज़ मेटाफ़ोर'  1978 में छपा और बहुत चर्चित हुआ। स्वयं कैंसर का इलाज करवाते समय उन्होंने पाया कि किस प्रकार बीमारी को रूपकों और मिथकों से जोड़ने से उत्पन्न मानसिक दबाव अनेक मरीजों की मौत का कारण बनता है। वे कहती हैं कैंसर केवल एक बीमारी है- (जस्ट अ डिज़ीज) अभिशाप नहीं, सज़ा नहीं, शर्मिन्दगी नहीं। इसका इलाज हो जाए तो यह ठीक हो जाता है।

साहित्य में क्या स्त्री दृष्टि और पुरुष दृष्टि अलग-अलग होती होगी ? यह प्रश्न अक्सर हमारे सामने आ खड़ा होता है। आज स्तन के कैंसर पर लिखी गई पवन करण की कविता ’स्तन’ और अनामिका की कविता ‘ब्रेस्ट कैंसर’ की समीक्षा करते समय उत्तर ढूंढ़ने का प्रयास कर लेते हैं। क्या अनामिका की दृष्टि पवन करण की दृष्टि से अलग है? क्या अनामिका की दृष्टि पवन करण की दृष्टि से इसलिए अलग होनी चाहिए, क्योंकि अनामिका स्त्री हैं ? क्या पुरुष के पास पुरुष दृष्टि और स्त्री के पास स्त्री दृष्टि होती है? या कवि चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष हो, दृष्टियाँ दो प्रकार की होती हैं मर्दवादी और नारीवादी, या फिर मानवीय और अमानवीय।
स्त्री का वक्षस्थल पुरुष कवियों का प्रिय विषय रहा है। उसका वर्णन सामान्यतः सौन्दर्य वर्णन के लिए  शृंगारिक भाव से किया जाता रहा है। स्त्री शरीर के उतार-चढ़ावों को निरूपित करने के लिए अनेक उपमाएँ दी जाती रहीं हैं। क्या किसी पुरुष ने अपने किसी अंग के बारे में इस प्रकार का वर्णन या निरूपण किया है? शायद नहीं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ही वर्ष पूर्व तक कविता लेखन पूरी तरह पुरुष वर्चस्व के अधीन था पर आज हमारे सामने जो कविताएँ हैं वे इसी सदी में लिखी गई हैं। ये कविताएँ उन समयों में लिखी गई हैं जिन समयों में जॉन स्टुअर्ट मिल और मैरी वोल्टसन क्राफ्ट स्वतंत्रता तथा स्त्री-पुरुष समकक्षता के सिद्धान्त प्रतिपादित कर चुके थे। ये कविताएँ घोषित रूप से स्वयं को स्त्री का पक्षधर कहने वाले नारीवादी कवियों की हैं। ये स़्त्री के ‘ब्रेस्ट कैंसर’ पर लिखी गई कविताएँ हैं।

इस विषय पर द ब्यूटी मिथ में नाओमी वुल्फ़ ने गम्भीर चर्चा की है। वे बताती हैं कि किस प्रकार पुरुष के शरीर के नग्न निरूपण को अश्लील समझा जाता है और उस पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है चाहे वह एड्स जैसी बीमारियों के विषय में जागरूकता हेतु ही क्यों न किया गया हो, और किस प्रकार स्त्री के वक्षस्थल का सार्वजनिक स्थल पर प्रदर्शन के लिए प्रयोग होता रहा है, कभी विज्ञापन के रूप में, कभी फिल्म के रूप में, कभी गीतों के रूप में । इस प्रकार पुरुष का शरीर बेहद सम्भ्रान्त तरीक़े से ढका रहता है जिससे वह शालीन बना रहता है,  और स्त्री का शरीर और उसकी चोली विज्ञापन और पर्दे पर थिरकती रहती है , जिससे उसका शरीर बाज़ारू बनता है। जो संस्कृतियाँ स्त्रियों को सामान्यतः नग्न निरूपित करती हैं और पुरुष को नहीं, वे लगातार धीरे-धीरे असमानता सिखाती हैं।

भारत में भी राई नर्तकियाँ, बेड़िनें और नौटंकी में नाचने वाली ग़रीब औरतें भी अपने चेहरे पर घूँघट ढककर और छाती खोलकर दो पैसों की ख़ातिर नाचती रही हैं और बेशऊर मर्द उन पर चवन्नियाँ लुटाते रहे हैं। नौटंकी देखने औरतें नहीं आतीं-नौटंकी  मर्दां का तमाशा है। इन बेचेहरा औरतों की कोई पहचान नहीं। वे औरत ज़ात हैं, उनका वक्षस्थल ही उनकी पहचान है। चवन्नी उसी पर न्योछावर की जाती है।
पवन करण ने भी इसी विषय पर कविता लिखी है, कविता का शीर्षक  है स्तन

"इच्छा होती तब वह धंसा लेता उनके बीच अपना सिर ... /और तब तक उन पर आंखें गड़ाये रखता,  जब तक वह उठ कर भाग नहीं जाती सामने से /...या लजा कर अपने हाथों से छुपा नहीं लेती उन्हें... अंतरंग क्षणों में उन दोनों को हाथों में थाम कर उससे कहता/ यह दोनों तुम्हारे पास अमानत है मेरी / मेरी खुशियॉ/ इन्हें संभाल कर रखना/ वह इन दोनों को कभी शहद के छत्ते/तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता/“ ... ” वह भी जब कभी खड़ी होकर आगे आईने के / इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती “....“मगर रोग ऐसा घुसा उसके भीतर/ कि उनमें से एक को ले कर  ही हटा देह से। कोई उपाय भी न था सिवा इसके/ उपचार ने उदास होते हुए समझाया/... अब वह इस बचे हुए एक के बारे में/ कुछ नहीं कहता उससे, / वह उसकी तरफ देखता है।/ और रह जाता है कसमसा कर। /.... मगर उसे हर समय महसूस होता है।/ उसकी देह पर घूमते उसके हाथ।/ क्या ढूंढ रहे है कि उस वक्त वे/ उसके मन से भी अधिक मायूस हैं।” ...."उस खो चुके एक के बारे में भले ही एक दूसरे से न कहते हों वह कुछ, मगर वह विवश जानती है/उसकी देह से उस एक के हट जाने से/ कितना कुछ हट गया उनके बीच से।"

कवि पवन करण उक्त गद्यात्मक पंक्तियों को स्तन शीर्षक वाली कविता के रूप में ’स्त्री मेरे भीतर’ नामक संग्रह में संग्रहीत करते हैं।

पवन करण की कविता में स्त्री शरीर पुरुष शरीर का खिलौना है, पुरुष के रमण के लिए, देखें वह स्त्री देह के लिए किस प्रकार के उपमान प्रयोग करते हैं-  "वह इन दोनों को कभी शहद के छत्ते/ तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता"। पवन करण की कविता स्त्री देह को गोश्त  के टुकड़े के रूप में निरूपित करती है जिसे पुरुष लालची निगाहों से देखता है "और तब तक उन पर आँखें गड़ाये रखता, जब तक वह उठ कर भाग नहीं जाती सामने से"।  पवन करण की कविता की स्त्री भी स्वयं को  गोश्त का टुकड़ा ही समझती है "वह भी जब कभी खड़ी होकर आगे आईने के /  इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती"।
पोर्नोग्राफर शरीर को मनविहीन, हृदयविहीन वस्तु के रूप में निरूपित करता है आत्मीयता (इंटिमेसी) और सम्बन्ध (कनेक्शन) रहित।
-सूसन ग्रिफिन

पवन करण की एक यही कविता नहीं अधिकांश कविताएँ पोर्नाग्राफी की श्रेणी में आती है क्योंकि उनमें शरीर (बाडी) को मन(माइंड) से अलग करके देखा गया है तथा स्त्री शरीर को पुरुष के अधिपत्य की भूमि माना गया है। पवन करण के पुरुष के हाथों में स्त्री शरीर ही नहीं उसके अलग-अलग अंग एक खिलौना हैं।

कविता में निरूपित पुरुष स्त्री को केवल देह के रूप में ही नहीं देह के केवल रमणीय अंगों के रूप में देख सका।  देह भी ऐसी जो कैंसर से ग्रस्त है, कैंसर  भी ऐसा जिससे शरीर का पूरा एक अंग काट कर निकालना पड़ा। दुःखद तो यह है कि कविता का समर्पण नाम लेकर किया गया, "संगीता रंजन के लिए जिसे छाती के कैंसर के कारण अपना एक स्तन गंवाना पड़ा।"  सभ्य समाज में एक आँखवाले, एक टाँगवाले, एक हाथवाले व्यक्ति की विकलांगता को द्योतित करने वाले शब्द कहना उचित नहीं समझा जाता, वहाँ स्त्री के एक ब्रेस्ट को कैंसर के कारण काट दिये जाने पर ऐसी कविता लिखी गई और नाम लेकर व्याधिग्रस्त स्त्री को समर्पित की गई ।
स्त्री पुरुष से हीनतर है, वह पुरुष के अधीन है, इस बात को पोर्नोग्राफ़र इतनी बार कहता है कि लोग इस बात पर यकीन करने लगते हैं।
-सूसन ग्रिफ़िन

पवन करण की स्त्री भी अपने शरीर को पुरुष की दृष्टि से देखती है। वह आब्जेक्टिफ़ाइड है (वस्तुकृत), कंट्रोल्ड (विवश) और ह्यूमिलिएटेड (अपमानित) कि उसे कैंसर से मरने से बचने के लिए स्तन गंवाना पड़ा। "उस खो चुके एक के बारे में भले ही/ एक दूसरे से न कहते हो वह कुछ/ मगर वह विवश जानती है/ उसकी देह से उस एक के हट जाने से/ कितना कुछ हट गया उनके बीच से "। स्त्री विवश है, पोर्नाग्राफी की क्लासिकल स्त्री छवि।

पवन करण के पुरुष को इस बात का संतोष नहीं कि सर्जरी से उसकी सहचरी को जीवन के कई नए वर्ष मिल गए। मगर उसे हर समय महसूस होता है। उसकी देह पर घूमते उसके हाथ/क्या ढूँढ़ रहे है कि उस वक्त वे/ उसके मन से भी अधिक मायूस हैं।” पवन करण को संदेह का लाभ दें तब भी पाएँगे कि कवि की सहानुभूति स्त्री के नहीं पुरुष के प्रति है जिसका खिलौना शल्य चिकित्सा से कट गया। पुरुष  के पास शरीर भी है और मन भी क्योंकि खिलौना टूट जाने से उसका मन मायूस है और हाथ भी। पवन करण कहते हैं कि शरीर के विरूपित हो जाने से स्त्री को हानि हो न हो पुरुष को होती है क्यों कि वह स्त्री शरीर से उस तरह से नहीं खेल सकता जिस तरह खेलना चाहता है और पुरुष यदि स्त्री में रुचि लेना बंद कर दे तो स्त्री का जीवन निरर्थक है क्यों कि स्त्री की प्रसन्नता इसी में है कि पुरुष का हाथ उसकी देह से खेले।
पोर्नोग्राफर स्त्री की हीनता ( इन्फीरियोरिटी ) में पूरा यकीन रखता है। वह इस बात में इतना गहरा विश्वास  रखता है कि वह इसे सिद्धान्त ( डॉक्ट्रिन ) के रूप में नहीं कहता। वह इसे एक सच्चे तथ्य (फैक्ट) के रूप में कहता है। वह यह नहीं कहता कि मुझे यह कहना है कि स्त्री हीन होती है। स्त्री कमतर है, सामान्यतः इस बात को वह इतनी  बार कहता जाता है- इशारों से, और वाक्यों से, कि इस प्रश्न पर बहस की कोई गुंजायश ही नहीं रह जाती।
-सूसन ग्रिफिन

उक्त परिभाषा पर पवन करण शत प्रतिशत सही उतरते हैं।

पवन करण अपवाद को नियम के रूप में स्थापित करते हैं। उनकी कविता दुःख क्षोभ या खेद से नहीं लिखी गई है, न ही ऐसा सोचने वाले पुरुष के प्रति हिकारत से। वह कविता यकीन के साथ लिखी गई है। पाठक देख सकते है कि पवन करण यह नहीं मानते कि स्त्री को इस रूप में देखना गलत है, उन्हें यकीन है कि स्त्री शरीर की यही उपयोगिता है। संभव है डेविल्ज़ एडवोकेट बन कर कोई कहे कि कुछ पुरुषों  की यही धारणा होती होगी,  परन्तु यूँ तो कुछ पुरुष  पेडोफ़ैलिक भी होते हैं। क्या हम उन मानसिक व्याधिग्रस्त पुरुषों को छोटे बच्चों का यौनिक और कामुकतापूर्ण नखशिख वर्णन करने की अनुमति देंगे और पुरस्कृत करेंगे?
पोर्नोग्राफर डिटर्मिनिस्टिक होते हैं, वे सोचते हैं, ठीक है, लोग ऐसे ही होते हैं, और हम उन्हें वह ही दे रहे हैं जो वे चाहते हैं पर यह सच नहीं है। सच यह है कि संस्कृति का निर्माण हम स्वयं करते है।
-सूसन ग्रिफ़िन

पवन करण के पात्र कीचड़ से सने हैं और यह कीचड़ भी उन्होंने खुद ही तैयार किया है। शल्य क्रिया के बाद एक स्तन वाली स्त्री पवन करण के पुरुष का प्रेम नहीं पा सकती। पवन करण की स्त्री पुरुष के हाथों विवश है और अपमानित, उस पुरूष  के हाथों, जो उसके शरीर का मालिक था। पोर्नोग्राफी का मकसद है- दूसरे के शरीर पर कब्ज़ा (मास्ट्री ऑफ़ दीज़ अदर्स) ।

पवन करण की इस कविता को वीभत्स कहना भी वीभत्स रस का अपमान करना है क्योंकि वीभत्स भी एक रस है जो सामान्यीकृत हो कर पाठकों तक पहुँचता है। पोर्नोग्राफी में नग्नता और पीड़ा पहुँचाना शामिल हो यह ज़रूरी नहीं। उनकी कविता हृदयहीन और अमानवीय है, जिसमें स्त्री  विवश, वस्तुकृत और अपमानित है। यह पोर्नोग्राफी की शास्त्रीय रचना है- हैवानियत से भरी। (मैं पाशविकता की जगह हैवानियत शब्द का प्रयोग कर रही हूँ, चूंकि पशु जगत में ऐसी नृशंसता अकल्पनीय है।)

इसी वर्ष 2012 में प्रतिष्ठित साहित्यकार और नारीवादी चिंतक एड्रियन रिच का निधन हो गया। 1880 में लिखे अपने लेख ’’ कम्पलसरी हेट्रोसेक्सुअलिटी एंड लेस्बियन एक्ज़िस्टेंस’’ में वे पितृसत्ता  को पुरुष द्वारा स्त्री के शरीर, पैसे और भावना पर आधिपत्य (मेल राइट ऑफ फ़िज़िकल, इकोनामिक एंड इमोशनल एक्सेस टु वुमन) स्थापित करने का एक हिंसक राजनीतिक उपकरण सिद्ध करती हैं । पवन करण कहते हैं  "उन दोनों को हाथों में थामकर उससे कहता / ये दोनों तुम्हारे पास अमानत है मेरी / मेरी खुशियाँ / इन्हें संभाल कर रखना।’’  स्त्री का वक्षस्थल स्त्री के अंग है या पुरुष की अमानत और आधिपत्य क्षेत्र?  एड्रियन रिच ने विस्तार से विचार किया है कि किस प्रकार मर्दवादी विवरणों और छवियों के कारण स्त्रियाँ स्वयं अपने ही शरीर को अपनी दृष्टि से देख पाने में असमर्थ रहती हैं।

उधर पत्रिका पाखी के फरवरी 2012 के स्त्री लेखन विशेषांक  में ‘‘हिन्दी की समकालीन कवयित्रियों  में  शीर्ष  पर विराजमान ’’ कवयित्री अनामिका की कविता प्रकाशित हुई है, ब्रेस्ट कैंसर। वे कहती हैं-

‘दुनिया की सारी स्मृतियों को / दूध पिलाया मैंने, / हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!, तब जाकर / मेरे इन उन्नत पहाड़ों की / गहरी गुफाओं में  / जाले लगे! कहते हैं महावैद्य / खा रहे हैं मुझको ये जाले / और मौत की चुहिया / मेरे पहाड़ों में / इस तरह छिप कर बैठी है कि यह निकलेगी तभी जब पहाड़ खोदेगा कोई! निकलेगी चुहिया तो देखूँगी मैं भी, सर्जरी की प्लेट में रखे खुदे-फुदे नन्हें पहाड़ों से हँस कर कहूँगी - हलो कहो कैसी रही ? अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी! दस बरस की उम्र से तुम मेरे पीछे पड़े थे, /  अंग संग मेरे लगे ऐसे, दूभर हुआ सड़क पर चलना ! बुलबुले अच्छा हुआ फूटे! कर दिया मैंने तुम्हें अपने सिस्टम से बाहर! / मेरे ब्लाउज़ में छिपे मेरी तकलीफों के हीरे, हलो / कहो कैसे हो?"

“जैसे निर्मूल आशंका  के सताए / एक कोख के जाए / तोड़ लेते हैं सम्बन्ध / और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है! / जाने दो जो होता है सो होता है, मेरे किए जो हो सकता था - मैंने किया, /  दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैने! / , हाँ,  बहा दीं दूध की नदियाँ! / तब जाकर / जाले लगे मेरे इन उन्नत  पहाड़ों की / गहरी गुफाओं में  ! / लगे तो लगे उससे क्या ! / दूधों नहाएँ और पूतों फलें मेरी स्मृतियाँ ”
 

कवयित्री ने यह कविता उत्तमपुरुष (फर्स्ट पर्सन) यानी "मैं’’ इस्तेमाल करते हुए लिखी है, यद्यपि कविता किसी अन्य स्त्री की व्याधि पर लिखी गई है और उन्हीं वनिता टोपो को निवेदित की  है।

ब्रेस्ट कैंसर शीर्षकवाली कविता में ब्रेस्ट के लिए "उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं’’ वाला उपमान कितना उपयुक्त है? पहाड़ों और गुफाओं का दूध से तो दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध है ही नहीं पर क्या व्याधिग्रस्त अंगों के लिए सौन्दर्य वर्णन के लिए प्रयोग किए जाने वाले उपमानों का प्रयोग उचित प्रतीत हो रहा है? उत्तम पुरुष में लिखी इस कविता में, मेरे उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं का प्रयोग स्त्री द्वारा स्वयं अपना नखशिख वर्णन करने के लिए किया गया है। हिन्दी की इस कविता में स्त्री स्वयं अपनी देह के सौन्दर्य का वर्णन करके अपनी देह को स्वयं ही अनावृत्त कर रही है। यहाँ प्रश्न अनावरण का नहीं निरूपण का है।

अश्लीलता निर्वस्त्रता में नहीं होती। सड़क पर पत्थर फोड़ती हुई स्त्री जब बच्चे को सार्वजनिक स्थान पर दूध पिलाती है, कभी-कभी मध्य तथा उच्च आय वर्ग की स्त्री भी बस या ट्रेन में ऐसा करती देखी जा सकती हैं, तब अश्लीलता का अहसास नहीं होता पर जब कोई स्त्री बेध्यानी का अभिनय करती हुई जान-बूझकर सबके सामने पल्ला सरकाती है, और ध्यान से चारों ओर देखती है कि सबने उसे ध्यान से देखा या नहीं तब वह अश्लील हरकत कर रही होती है। लम्पट पुरुष  इस हरकत पर मस्त हो सकते हैं पर ऐसा करते समय वह उन स्त्रियों को भी निर्वस्त्र कर रही होती है जो निर्वस्त्र नहीं होना चाहतीं। ठीक उसी तरह जिस तरह पोस्टर पर बनी नग्न और अपमानित स्त्री की छवि वहाँ से गुज़रने वाली हर स्त्री को नग्न अनुभव कराती है। इसमें पूरी स्त्री जाति के वे सदस्य भी नग्न हो जाते हैं जो नग्न नहीं होना चाहते ।

कवयित्री ‘‘संसार की स्मृतियों को दूध पिलाया’’, ‘‘बहा दीं दूध की नदियाँ’’, पदों का प्रयोग करती हैं। संसार की स्मृतियों का ब्रेस्ट कैंसर नामक व्याधि से क्या लेना देना? `इलनेस एज़ मेटाफ़ोर' नामक पुस्तक में इस विषय पर गहन चिन्तन है। चिकित्सक इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके हैं कि इस व्याधि का इंसान के व्यक्तित्व से कोई ताल्लुक नहीं है, न स्वभाव से न स्मृति से । यह व्याधि नवजात शिशुओं तक को हो जाती है। यदि स्मृतियों का कोई अर्थ लगाना भी चाहें तो कह सकते हैं कि स्मृतियों  को वक्षस्थल में सहेजा जा सकता है, पर तब वक्षस्थल का अर्थ मन होता है। यहाँ पर कवयित्री मन नहीं स्तन के बारे में बात कर रही हैं।

इसके बाद का पद है "तब जाकर’’। हम लोग हिन्दी भाषा  में कहते हैं, "हमने कटरा से तेरह किलोमीटर चढ़ाई की तब जाकर वैष्णों  देवी के दर्शन  हुए’’, "पार्वती ने पर्वत पर वर्षों तप किया तब जाकर शिव जैसा पति पाया’’, "सिद्धार्थ ने वर्षों तक साधना की तब जाकर ज्ञान प्राप्त हुआ और वे बुद्ध कहलाए ’’, या "मैं रिज़र्वेशन कराने के लिए `वृद्धों विकलांगों तथा महिलाओं ’ वाली टिकट खिड़की के सामने एक घंटा पंक्ति में खड़ी रही तब जाकर रेल का टिकट मिला’’। स्पष्ट है ' तब जाकर ’ पद का प्रयोग तब किया जाता है जब हम किसी वस्तु या अवस्था को प्राप्त करना चाहें और उसके लिए कठिन प्रयास करें `तब जाकर’ वह वस्तु या अवस्था प्राप्त हो। अनामिका अपनी कविता की प्रारम्भिक पंक्तियों में कहती हैं, "बहा दीं दूध की नदियाँ तब जाकर मेरे उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं में जाले लगे" और यही रूपक आरम्भ से अन्त तक चलता रहता है।

वे फैले हुए कैंसर के लिए जाले लगने का रूपक इस्तेमाल करती हैं। क्या वे जाले लगवाना चाहती थीं ? क्या वे जाले लगवाने के लिए प्रयासरत थीं ‘‘मेरे किए जो हो सकता था - मैंने किया,’’ ? दृष्टव्य  है वे किसी छोटी-मोटी बीमारी या दुःख-दर्द की बात नहीं कर रहीं, वे कैंसर की बात कर रहीं हैं, वैसा कैंसर जो इतना फैल चुका हो कि पूरा अंग काटकर शरीर से अलग करना पडे़। व्याधि यथार्थ होती है रूपक नहीं।

वे निर्मूल आशंका पद का प्रयोग करती हैं, जैसे दो भाई निर्मूल आशंका से पुराना सम्बन्ध तोड़ लेते है वैसे ही स्त्री ने अपने स्तनों से सम्बन्ध तोड़ लिया। कैंसर के पूरी तरह फैल जाने के बाद ही ऐसी सर्जरी होती है। डाक्टर किसी भी अंग का रिमूवल तभी करता है जब और कोई उपाय नहीं रहता। ऐसी सर्जरी निर्मूल आशंका से नहीं होती।

प्रसिद्ध कहानीकार मार्क ट्वेन का कथन है कि शब्द के सही प्रयोग (करेक्ट यूज़) और लगभग सही प्रयोग (आलमोस्ट करेक्ट यूज़) के बीच उतना ही बड़ा अन्तर है जितना आसमान में कड़कने वाली बिजली और जुगनू में। उन्नत पहाड़, नन्हें पहाड़, तकलीफों के हीरे, मौत की चुहिया, बुलबुले,शरीर के एक ही अंग के लिये इतने सारे परस्पर विरोधाभासी उपमान? “स्मृतियों को दूध पिलाया,’’ ‘‘तब जाकर जाले लगे’’, ‘‘लगे तो लगे’’ ‘‘दूधों नहाए पूतों फलें मेरी स्मृतियाँ’’ यह सब पदों और शब्दों का सही प्रयोग है या लगभग सही प्रयोग? ’’

कवयित्री को इस व्याधि के ख़तरे का पूरा ज्ञान है परन्तु कवयित्री को मुहावरे इस्तेमाल करने का इतना शौक है कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया की तर्ज़ पर वे कैंसर को मौत की चुहिया बताती हैं, जिसे महावैद्य ने बाहर निकाला। वे यह भूल जाती कि महावैद्य ने जिन्हें बाहर निकाला वह चुहिया नहीं थी पूरे पहाड़ ही थे जिनमें जाले लग गये थे। वे यह भी भूल गर्इं कि जिन्हें वे उन्नत पहाड़ बता रही थीं, उन्हें वे सर्जरी की प्लेट में रखे नन्हें पहाड़ कहने लगीं जबकि सामान्य व्यक्ति भी जानता है कि शरीर से बाहर निकाल दिए जाने पर शरीर के अंग कई गुना बड़े दिखाई देते हैं क्योंकि वातावरण के प्रभाव से वे फूल जाते हैं।

मेरा उद्देश्य चीरफाड़ पर लिखी गई कविता की चीरफाड़ करना नहीं है,  मेरा उद्देश्य इस ओर संकेत करना है कि अपने समय की सबसे ख़तरनाक बीमारी पर इतनी निर्दयता, क्रूरता और संवेदनहीनता से खिलवाड़ करती हुई कविता लिखते हुए एक कवयित्री को ज़रा भी संकोच का अनुभव नहीं हुआ ।

अंग्रेज़ी के प्रख्यात कवि कीट्स की टी.बी. के कारण हुई मौत इतनी रोमांटिक मानी गई, कि अनेक लोग जवानी में वैसी मौत पाने की चाहत करने लगे। पच्चीस वर्ष की आयु में वास्तविक जीवन में व्याधि और मौत दर्दनाक होती है। तब टी.बी. असाध्य रोग था। दर्द की असहनीयता के कारण कीट्स अफी़म खाते थे। मरने से कुछ पहले तो उन्होंने अफ़ीम की पूरी बोतल मंगा ली थी और उनके मित्र को भय लगने लगा था कि दर्द से छुटकारा पाने के लिए वे कहीं पूरी बोतल खा कर खुदखुशी न कर लें। कीट्स को अपने जीवन की क्षण भंगुरता का दुःख था, उन्हें अपनी बीमारी से तकलीफ़ थी। उन्होंने अपनी समाधि के पत्थर पर लिखे जाने वाले हर्फ़ खुद ही लिखे थे, "यहाँ सो रहा है वह व्यक्ति, जिसका नाम पानी पर लिखा था’’ (हियर लाइज़ ही हूज़ नेम वाज़ रिट इन वाटर्स)। आज उमड़ने और कल मिट जाने का उन्हें दुःख था। व्याधियाँ यथार्थ होती हैं रूपक नहीं। जवानी में बीमार होकर तपेदिक से मर जाना तमाशबीनों के लिए रूमानी हो सकता बीमार के लिए नहीं। मौत चुहिया नहीं होती ।

हम अनामिका की इस कविता का सहानुभूति पूर्ण पाठ करें और उन्हें इस बात का श्रेय देना भी चाहें तो नहीं दे सकते कि वे यह यह कह रही हैं कि हिंसक दृष्टिवाले पुरुषों से दस वर्ष की बच्ची भी त्रस्त है और स्त्री को अपने वक्षस्थल के कारण अपमानित और जोखिम ग्रस्त (वल्नरेबल) होना पड़ता है, इसलिए बेहतर है कि वह अंग हो ही न परन्तु वे यह नहीं कह रहीं। वे प्रारम्भ से अन्त तक वक्षस्थल का वर्णन सौन्दर्य बोधक उपमानों के साथ करती हैं और अन्त में उल्लास से भर उठती हैं‘‘बुलबुले अच्छा हुआ फूटे’’, कि अंग काट दिए गए तो अच्छा हुआ। शरीर के अंग का कटना दारूण दुःख होता है। क्या कोई भी स्त्री या पुरुष  अपने शरीर को कटवाना चाह सकता है, और कटवा डालना भी व्याधि से ग्रस्त होकर जिसे पाने के लिए स्त्री ने दूध की नदियाँ बहा दीं, और व्याधि भी ऐसी जो जाले की तरह फैल गई और अंग काटकर ही ठीक हो सकी क्योंकि यदि नहीं काटा जाता तो व्यक्ति की मृत्यु हो हो सकती थी। अन्तिम हृदयहीन पंक्तियाँ हैं  - "लगे तो लगे उससे क्या ! / दूधों नहाएँ और पूतों फलें मेरी स्मृतियाँ ”। मुहावरे इस्तेमाल करने को उतावली कवयित्री यह बताना भूल गईं कि ऐसी कौन सी स्मृतियाँ है जो मन का नहीं स्तन का दूध पीती हैं । अनामिका की कविता रोगी का मनोबल बढ़ाने का केवल नाटक करती है। दरअसल अनामिका भी स्त्री शरीर को पोर्नोग्राफ़र की दृष्टि से ही देखती हैं।
पोर्नोग्राफर शरीर और मन का द्वैत स्थापित करता है। पोर्नोग्राफ़र असामान्य होता है, वह स्त्री को अपने शरीर से नफ़रत करना सिखाता है।
-सूसन ग्रिफ़िन

क्या कोई भी सामान्य बुद्धि वाला स्त्री पुरुष  या बच्ची-बच्चा अपने शरीर को कटवा डालने पर खुश हो सकता है? अनामिका की कविता में स्त्री बहुत खुश है, वह सर्जरी की प्लेट में रखे अपने कटे हुए अंगों से हँसकर बातें कर रही है - हलो कहो कैसी रही? पवन करण का पुरुष  स्त्री को पोर्नोग्राफ़र की दृष्टि से निरूपित कर रहा है और अनामिका की स्त्री पोर्नोग्राफ़र की दृष्टि से निरूपित हो रही है।

सूसन ग्रिफिन का कहना है कि पोर्नोग्राफी सैडिज्म है। 

"एक औरत जब ऐसी सड़क या मुहल्ले में प्रवेश करती है जहाँ स्त्री शरीर की पोर्नोग्राफ़िक छवियाँ प्रर्दशित की गई हों, वह तुरन्त शर्मिन्दा हो जाती है। पोर्नोग्राफिक छवियों की वीथि में प्रवेश करते ही वह स्वयं ही उनमें से एक छवि हो जाती है कि वह उसका शरीर है जो सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए लगाया गया है। यदि वह स्वयं भी पोर्नोग्राफी में रूचि रखती है तो वह पोर्नोग्राफिक स्पेक्युलेशन का विषय बनती है। यदि वह दहशत में आ जाती है और ऐसी छवि के प्रति घृणा से विमुख हो जाती है, तो वह पोर्नोग्राफी की शिकार (विक्टिम) बन जाती है। इस प्रकार बिना अपमानित हुए वह पोर्नोग्राफी से बच नहीं सकती। इस तरह पोर्नोग्राफी सारी महिलाओं के प्रति सेडिज्म का उपकरण बनती है।’’

नाओमी वुल्फ़ भी पोर्नोग्राफी की पत्रिकाओं के सार्वजनिक पोस्टरों में पीटी जाती हुई, खून से सराबोर, हाथ-पाँव बंधी हुई स्त्री की छवियों का उदाहरण देती हैं। अनामिका की स्त्री पोर्नोग्राफी की विक्टिम है।

पवन करण और अनामिका ने व्याधि पर ही कविता नहीं लिखी हैं उन्होंने  स्तन की व्याधि पर कविता लिखी है। स्तन एग्ज़ॉटिक है। क्या वे किसी अन्य अंग के रिमूवल पर ऐसी कविता लिखते? क्या वे एम्प्यूटेशन से काटी गई टाँगों से पूछतीं कहो कैसी हो प्यारी बहनों, अच्छा हुआ कट गर्इं। क्या वे किसी बीमारी से निकाली गई आँखों की पुतलियों से पूछतीं, कैसी हो प्यारी कौड़ियों, अच्छा हुआ निकाल दी गर्इं, बहुत दुखती थीं, चश्मा पहनना पड़ता था। इन दोनों में से एक कवि की कविताएँ कदाचित् बी.ए. के पाठ्यक्रम में चलती हैं, और दूसरी कवयित्री शायद बी. ए. को पढ़ाती हैं।

एक विशेषता यह है कि पवन करण और अनामिका इन दोनों ने नाम लेकर उन स्त्रियों पर कविता लिखी है, जिनको ब्रेस्ट कैंसर हुआ। बिग बॉस नामक सबसे घटिया टी.वी. सीरियल में ब्रिटेन की जेड गुडी आई थीं, जिन्होंने  भारतीय प्रतिभागी शिल्पा शेट्टी को डॉग (कुत्ता) कह कर तमाशा खड़ा किया था। जेड गुडी की भी कैंसर से ही मृत्यु हुई थी। उन्होंने अपनी मौत को टी.वी. पर प्रर्दशित करने के अधिकार बेचे थे। इन दोनों कवियों ने भी शायद इन स्त्रियों से अधिकार खरीदे होंगे। बाजा़र में बेचने के लिए बीमारी और मौत भी बहुत बड़ा तमाशा है।

इन कवियों ने भले ही कैंसर पीड़ित स्त्रियों से अनुमति ले ली होगी पर हजारों लाखों लोग ऐसे हैं जो इस व्याधि से जूझ रहे हैं। व्याधि लाइलाज नहीं, पर इलाज कष्टसाध्य है। इसके कारण का पता नहीं है, इसलिए इसके साथ रहस्यमयता और दहशत जुड़ी हुई है। व्याधि पर ऐसी कविता पढ़ कर हजारों पीड़ितों का मन दहशत से भर जाता है।

सिल्विया प्लाथ नामक एक महान नारीवादी कवयित्री हुई हैं। उन्होंने एक कवि से विवाह किया। उनकी दो संताने हुई। सिल्विया प्लाथ की कविताओं को उनके जीवन काल में ही बड़ी सराहना मिली थी। बत्तीस साल की उम्र में अवसाद ग्रस्त होकर सिल्विया प्लाथ ने ओवन में अपना सिर डालकर आत्महत्या कर ली थी। जब उन पर फिल्म बनाने की पेशकश हुई, सिल्विया प्लाथ  की पुत्री इस पर बहुत व्यथित हुई और उन्होंने अपनी मृत माँ की अस्वाभाविक असामयिक मृत्यु पर फिल्म बनाने को मूँगफली चबाती हुई जनता को एक परिवार की त्रासदी पर गुदगुदाने  का गिरावट भरा प्रयास बताया। सिल्विया प्लाथ की मृत्यु के समय उनकी पुत्री फ्रीडा ह्यूज़ चार वर्ष की थी,बड़ी होकर वे कवयित्री बनीं। फ्रीडा ह्यूज़ की कविता है-

‘‘और अब,
वे एक फिल्म बनाना चाहते हैं,
जिस-तिस के लिए ,
जिसमें इतनी भी क्षमता नहीं,
कि स्वयं कल्पना कर सकें उस शरीर की
जिसका सिर तंदूर में पड़ा हो,
वह शरीर जो अपने बच्चों को अनाथ छोड़ कर जा रहा हो।
वे सोचते हैं, मैं उन्हें अपने माँ के शब्द दे दूँ,
जिन्हें वे अपने बनाए हुए हैवान पुतले के मुँह में ठूँस सकें-
उनकी सिल्विया- आत्मघाती कठपुतली।’’


सिल्विया प्लाथ की बेटी की कविता उन “मानवभक्षी लोगों पर प्रहार करती है जिन्हें जानने की उत्सुकता और लालसा है कि ओवन में पड़े सिरवाला" मानव कैसा लगता है- वे आत्महत्या को चित्रित करने को लालायित हैं। खतरनाक बीमारी को रूपक के रूप में प्रयोग करते हुए अंग-भंग के मरीज़ पर कविता लिखना और नाम लेकर समर्पित करना वैसा ही है।

यह आलेख नग्नता के खिलाफ नहीं है। यह आलेख स्त्री शरीर के पोर्नाग्राफिक निरूपण के खिलाफ है और व्याधि के हृदयहीन क्रूर निरूपण के खिलाफ भी। ऐसी कविताएँ पोर्नोग्राफी के उपभोक्ताओं के लिए लिखी जाती है। ऐसी कविताओं से पोर्नोग्राफी के नए-नए उपभोक्ता भी बनते हैं। यह एक फायदेमंद व्यवसाय है।

पवन करण की कविताओं से मेरा परिचय भले ही पहली बार पिछले ही वर्ष हुआ जब मैंने उनकी पुस्तक ‘‘स्त्री मेरे भीतर’’ पढ़ी, परन्तु पुस्तक में उल्लेख है कि उन्हें अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं। ‘‘स्त्री मेरे भीतर" में संग्रहीत पवन करण की एक यही कविता नहीं, अनेक अन्य कविताएँ भी पोर्नोग्राफी की शास्त्रीय रचनाएँ  है जिनमें स्त्री विवश, वस्तूकृत और अपमानित है।

यह समय कुछ ज़रूरी सवाल उठाने का है। स्त्री के शरीर के पोर्नोग्राफिक निरूपण और व्याधि पर अनुत्तरदायित्वपूर्ण अमानवीय और क्रूर कविता के विषय में औचित्य का प्रश्न उठाना मैं ज़रूरी समझती हूँ । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या केवल कवियों के पास ही है? पाठकों के पास भी तो कोई अधिकार होंगे? मैं पाठकों के अधिकार का प्रयोग करते हुए यह प्रश्न उठा रही हूँ।

शेयर मार्केट में एक फिनॉमिना होता है, इसमें कुछ दलाल मिलकर एक समूह बना लेते हैं जिसको कार्टेल कहते हैं। वे लोग मिलकर किसी भी बेहद घटिया कम्पनी के शेयर खरीदते जाते हैं जिससे उसका मूल्य अस्वाभाविक रूप से बढ़ जाता है। इससे घटिया कम्पनी को लाभ होता है। वे ही लोग मिलकर कम्पनियों के शेयरों के दाम अस्वाभाविक रूप से घटाते-बढ़ाते रहते हैं। कार्टेल बनाना हमारे देश में आर्थिक अपराध माना जाता है। आपको याद होगा कि केतन पारेख आदि दलाल एक बार इसी अपराध में जेल भी गए थे। कार्टेल को इस सब से भले ही लाभ होता हो पर इससे देश की अर्थव्यवस्था  नष्ट हो जाती है।

हिन्दी के कवियों के कार्टेल ने पवन करण पर दाँव खेला है। कार्टेल के लाभ- हानि के बारे में नहीं कह सकती, पर इससे साहित्य की हानि तो हुई ही है। साहित्य में इस अपराध की कोई सज़ा नहीं। यह एक खुला खेल है। इस बाजा़र में स्त्री शरीर सबसे ज्यादा बिकाऊ चीज़ है। पर क्या व्याधियाँ भी इसमें बेची जाएँगीं ? मेरे प्रश्न स्त्री शरीर के बारे में ही नहीं व्याधि के बारे में भी हैं। ये व्याधि पर लिखी कविताएँ हैं या ये व्याधि ग्रस्त कविताएँ हैं, उन कवियों द्वारा लिखी हुई हृदयहीन कविताएँ जिन्हें कविताएँ लिखते चले जाने की व्याधि है ?

हिन्दी साहित्य में स्त्री की इस दशा का ज़िम्मेदार कौन है?
इस  प्रश्न के उत्तर में हमारे कवियों का कार्टेल मौन है।
(कवि धूमिल की कविता पर आधारित)


व्याधियाँ यथार्थ होती हैं रूपक नहीं। बीमारी की गम्भीरता, बीमारी के साथ जुड़ी तकलीफ़, असहनीय दर्द, दुर्बलता, जीर्ण होते हुए शरीर, बिस्तर पर पड़े रहने की मजबूरी, अंगों के कट जाने, शरीर के विरूपित हो जाने और अपने परिवारजनों और हमदर्दो की आँखों से बरसती सहानुभूति और उनके चेहरों पर लिखे ख़ौफ से आँकी जाती है। बीमारी को इतनी बेदर्दी बेरहमी और गै़रजिम्मेदारी से निरूपित करने वाले हिन्दी के शीर्षस्थ माने जाने वाले ये कवि कवयित्री नृशंसता की हद तक संवेदनहीन हैं।

अंग्रेज़ी में वश्यावृत्ति करवाने को फ़्लेश ट्रेड कहते हैं जिसमें स्त्री एक व्यक्ति न हो कर गोश्त होती है केवल गोश्त। पवन करण और अनामिका दोनों स्त्री शरीर के लिए ऐसे उपमानों और रूपक का प्रयोग करते है कि वे स्त्री को व्यक्ति की जगह फ़्लेश बना देते है। अनामिका की कविता शरीर के प्रति अनसेल्फ़कांशस बनानेवाली कविता नहीं है यह शरीर के प्रति अतिरिक्त सजगता मिटानेवाली कविता भी नहीं है। अनामिका की कविता की स्त्री भी स्वयं को  गोश्त का टुकड़ा ही समझती है अन्तर यह है कि पवन करण की कविता की ‘‘वह विवश जानती है / उसकी देह से उस एक के हट जाने से / कितना कुछ हट गया उनके बीच से।’’ और अनामिका की कविता की स्त्री ‘‘सर्जरी की प्लेट में रखे खुदे फुदे नन्हें पहाड़ों से हँस कर कहती है...अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी! ’’ गोश्त का टुकड़ा हट जाने से वह उल्लास से भर जाती है। उल्लास का अन्दाज़ आप इसी बात से लगा सकते हैं कि अनेक कहावतों और मुहावरों से युक्त इस कविता में बारह विस्मयादिबोधक चिह्न हैं।

आज से सौ वर्ष पहले जन्मे लेखक मंटो ने एक कहानी लिखी थी ‘ठंडा गोश्त’। चर्चित होने की लालसा से प्रेरित हो कर पोर्नोग्राफिक माइंड से लिखनेवाले अनेक अन्य रचनाकार अपने घटियापन को न्यायसंगत ठहराने के लिए आजकल यह कहते पाए जाते हैं कि अश्लीलता का आरोप तो मंटो पर भी लगाया गया था। ऐसे लोगों को यह अहसास ही नहीं, कि मंटो की उस मार्मिक कहानी का ध्वन्यार्थ था कि मानव शरीर को गोश्त समझकर व्यवहार करनेवाला व्यक्ति निर्वीर्य हो जाता है। उस कहानी में यह ध्वनि इतनी प्रखर थी कि पाठक उस ध्वनि को आज भी नहीं भूले। (स्तन तथा ब्रेस्ट कैंसर इन दोनों गृहणीय कविताओं के साथ मंटो की उस हृदय स्पर्शी रचना का उल्लेख मात्र करने का भी मुझे खेद है।) मैं यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि यह टिप्पणी स्तन और ब्रेस्ट कैंसर इन दो कविताओं पर है, इन कवियों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर नहीं।

बचपन में अध्यापिकाएँ हमसे कहती थीं- गाय पर निबन्ध लिखो। बच्चे लिखते थे- गाय के दो सींग होते हैं, चार टाँगें होती है, एक पूँछ होती है, चार थन होते हैं। गाय हमें दूध देती है। गाय हमारी माता है। कुछ बडे़ हो गए तो हमने एक चुटकुला सुना। अध्यापिका ने बच्चों से गाय पर निबन्ध लिखने को कहा। सब बच्चे लिखने लगे। दो बच्चे कक्षा से बाहर चले गए। थोड़ी देर में वे कक्षा में लौटे। उनके साथ एक गाय थी । वे गाय के शरीर के ऊपर कलम और स्याही से निबन्ध लिखकर गाय को कक्षा में हाँक लाये थे। अध्यापक के पूछने पर उन्होंने ढिठाई से कहा आप ही ने तो कहा था कि गाय पर निबन्ध लिखो। चुटकुला सुनकर हम हँस पड़ते थे।

आज कहा जा रहा है, स्त्री को चर्चा से केन्द्र में लाओ। स्त्री पर कुछ लिखो। स्त्री के शरीर पर लिखी कविताएँ हैं  -  "स्त्री के दो स्तन होते हैं /  वे पर्वत के समान होते हैं / वे दशहरी आम के समान होते हैं/ उनमें से दूध की नदियाँ बहती हैं / उनसे पुरुष  खेल सकता है / यदि उनमें से एक कट जाए तो पुरुष  के हाथ मायूस हो जाते हैं /  यदि दोनों ही कट जाएँ तो स्त्री उल्लास से भर जाती है / " आदि।

पवन करण और अनामिका ने व्याधि से ग्रस्त , दर्द से दुखते हुए, मृत्यु के भय से आक्रान्त, शल्य चिकित्सा के कारण विरूपीकृत स्त्री के शरीर पर नश्तर से कविताएँ उकेर दीं और स्त्री के रक्त स्नात अनावृत शरीर को हम सब के बीच ला खड़ा किया मगर इस बार इन दोनों कवियों के इस क्रूर, हिंसक, बर्बर और निहायत ग़लीज़ मजाक़ पर हँस पाना भी हमारे लिए मुमकिन नहीं।

जेल में सितारों के बिना एक दुनिया

सीमा आजाद: साथी तुम संघर्ष करो। 

सबसे पहला धन्‍यवाद हाशिया वाले रेयाज भाई का कि उन्‍होंने न जाने कैसे सीमा जी का यह आलेख जुगाड किया। दूसरा अनुरोध अंधी-गूंगी-बहरी हो चुकी सरकार से कि एक बार फिर से सीमा आजाद के बारे में विचार करे। सीमा हमारे समय की महत्‍वपूर्ण मील का पत्‍थर हैं और इस विश्‍वास के साथ उनका यह आलेख यहां प्रस्‍तुत कि एक पत्‍थर तो तबियत से उछाला हमने... 

याद करें बचपन की. वे कौन सी यादें हैं जो हमें अभी भी रोमांचित करती हैं- गर्मी की उमस भरी रात में छत पर लेटना और अपनी ज़मीनी दुनिया भूल कर चांद-सितारों की दुनिया की सैर करना. सच, ये तारों भरा आकाश हम सब को आश्‍चर्य से भर देता था. जब गर्मी के बाद बरसात के आगमन की पूर्व सूचना देने वाले बादल के टुकड़े इस काले-काले आसमान में चक्‍कर लगाते हों तो यह और भी रहस्‍यमय हो जाता था. इन बादलों में हम न जाने कितनी आकृतियां देखा करते थे. आसमान में कभी-कभी इंद्रधनुष दिख जाता था तो हमारे लिए बहुत बड़ा कौतूहल हो जाता.


पर क्या आप कल्‍पना कर सकते हैं कि एक ऐसी दुनिया है जहां के बच्‍चे रात के आसमान व चांद-तारों की चमक से अनजान हैं. इंद्रधनुष ही नहीं चांद का दर्शन भी उनके लिए एक आश्‍चर्यजनक घटना है. जी हां, ऐसी भी एक दुनिया है. यह दुनिया है जेल की. यहां बच्‍चे शाम ढलते अपनी माताओं के साथ बैरक के अंदर बंद कर दिए जाते हैं. फिर सुबह सूरज निकलने के बाद ही इन्‍हें बैरक से बाहर निकाला जाता है. मेरा ध्‍यान इस बात की ओर तब गया जब एक दिन सुबह बैरक खुलने पर जेल में ही पैदा हुई ढाई साल की 'खुशी' बहुत तेज़ी से दौड़ते हुए मेरे पास आई. उसके छोटे से चेहरे की आंखें आश्‍चर्य से फैली हुई थीं. होंठ गोल हो गए थे और उसके नन्‍हे हाथ जिस ओर इशारा कर रहे थे वहां पश्चिम के आसमान में गोल सा चांद डूब रहा था. उसने तो न कभी सूरज देखा था न चांद. इसलिए उसके लिए ये बेहद आश्‍चर्यजनक चीज़ थी. मैंने उसे बताया कि वह चंदा मामा हैं. फिर वह हमेशा आकाश की ओर हाथ उठा कर पूछती है 'छीमा मामा'? सामान्‍य तौर पर जो बात वह रोज़ के अनुभव से जान सकती थी वह मेरे लिए समझाना असंभव था.



ये जेल के बच्‍चे हैं. इनकी माताएं किसी न किसी आरोप में जेल काट रही हैं. इनकी दुनिया इतनी सिमटी है जिसकी कल्‍पना बाहर की दुनिया के लोग तो नहीं ही कर सकते. जेल के अधिकारी भी नहीं करते. इसी कारण उन्‍हें इसका अहसास नहीं होता कि वे इन बच्‍चों का कितना महत्‍वपूर्ण समय छीन रहे हैं. थोड़ा बहुत समझने वाला कोई भी व्‍यक्ति यह समझ सकता है कि बच्‍चों को स्‍वस्‍थ तरीके से विकसित होने के लिए उसका उसके आसपास की दुनिया से संपर्क कितना ज़रूरी है. यह संपर्क उस बच्‍चे के स्‍कूल जाने से भी कई गुना ज्‍यादा ज़रूरी है. बाहरी दुनिया से संपर्क कितना ज़रूरी है. क्‍योंकि यही अनुभव संसार, उससे उपजी कल्‍पनाएं किसी बच्‍चे के दिमाग के विकास के लिए बेहद ज़रूरी है. पर जेल में बच्‍चों से इस अनुभव संसार को छीन कर उनके साथ जुर्म किया जा रहा है. मैं आपको कुछ उदाहरण देती हूं जिससे आपको भी इसका अहसास होगा.



जेल में रहने वाला किशन जो 6 साल का होने पर मां के साथ जेल आया था, वह चिन्‍टू (जो जन्म से ही जेल में है) से बता रहा था कि माता-पिता भगवान से बड़े होते हैं. चिन्‍टू ने पूछा कि माता-पिता क्‍या होते हैं? किशन ने बताया- 'मम्‍मी और पापा'. चिन्‍टू ने थोड़ा शर्माते हुए पूछा- 'पापा क्‍या होते हैं?' किशन ने उसे डांटते हुए कहा- 'धत् साले, पापा नहीं जानते?' चिन्‍टू चुप हो गया. यह सुन कर उसके बड़े भाई पिन्‍टू (उम्र 8 वर्ष) ने कहा, 'हमें पता है कि पापा क्‍या होता है. जो लोग मर्दाने में रहते हैं यानी मर्द लोग. न सीमा दीदी?' आप कल्‍पना कर सकते हैं कि मुझे यह समझाने में कितनी मुश्किल आई होगी कि पापा क्‍या होते हैं.



जेल में रहने के कारण ये बच्‍चे बिल्‍ली-चूहा के अलावा किसी जानवर के बारे में नहीं जानते. कभी-कभी ये बच्‍चे अदालत जाने के लिए या मुलाकात के लिए जाने के लिए बाहर निकलते हैं तो रास्‍ते में दिखने वाले कुत्‍ता, गाय, भैंस, घोड़ा हर जानवर को आश्‍चर्य से देखते हैं और सबको बिल्‍ली ही बताते हैं.



हम बचपन से अपनी मां को खाना बनाते हुए देखते आए हैं. उन्‍हें सब्‍ज़ी काटते देखना बहुत सामान्‍य सी बात है. बल्कि जब हम थोड़ा बड़े हुए तो मां की तरह खाना बनाने का खेल भी खेला करते थे. पर महिला जेल में चूंकि खाना पुरुष बैरक से बन कर आता है इसलिए बच्‍चे इस स्‍वाभाविक घरेलू काम के बारे में कुछ भी नहीं जानते. थोड़ा बड़े बच्‍चे यहां गिरफ्तारी, अदालत और रिहाई का खेल खेलते हैं. जो बच्‍चा जज बनता है वह सभी को रिहाई दे देता है. इस खेल में सिपाही या पुलिस का चित्रण बहुत खराब होता है और कोई बच्‍चा सिपाही नहीं बनना चाहता.



इससे भी ज्‍यादा बुरा यह है कि ये बच्‍चे सब्जि़यों को नहीं पहचान सकते. जेल में सब्‍ज़ी में आलू की सब्‍ज़ी, मूली का साग, चौलाई और शलजम की सब्‍ज़ी ही बन कर आती है. इसलिए ये बच्‍चे इनके अलावा किसी दूसरी सब्‍ज़ी का स्‍वाद नहीं जानते. न ही किसी साबुत सब्‍ज़ी को पहचानते हैं. इन बच्‍चों ने चूंकि काम के नाम पर अपनी माताओं को केवल झाड़ू लगाते ही देखा है, इसलिए ये बच्‍चे नीम की टहनी बटोर कर उसका झाड़ू बना कर झाड़ू लगाने का खेल खेलते हैं.



नैनी सेंट्रल जेल में दो तरह के बच्‍चे हैं. एक वे जो जन्‍म से ही अंदर हैं या जब से उन्‍होंने होश संभाला है वे अंदर हैं. दूसरी तरह के बच्‍चे वो हैं जो बाहर की दुनिया से वाकिफ़ हैं. इन दोनों तरह के बच्‍चों के बीच होने वाली बातचीत कभी-कभी बहुत रोचक होती है. जैसे पिन्‍टू एक दिन अपने छोटे भाई को छोले-भटूरे के बारे में बता रहा था. उसने उसे लखनऊ की आदर्श जेल में कभी खाया था. वास्‍तव में, चिन्‍टू-पिन्‍टू की मां पहले लखनऊ की आदर्श जेल में थीं. यहां बच्‍चों को पढ़ने के लिए बाहर स्‍कूल भेजा जाता था. पिन्‍टू भी स्‍कूल जाता था इसलिए उसका अनुभव संसार थोड़ा ज्‍यादा बड़ा है. पिन्‍टू, चिन्‍टू को बता रहा था कि भटूरा बड़ा गोल और मुलायम होता है जो खाने में बहुत अच्‍छा होता है. उसने बताया कि उसने वहां पराठा भी खाया है. चिन्‍टू उसकी ओर ऐसे देख रहा था जैसे उसका भाई कितनी बड़ी बात बता रहा हो.



अभी एक महीना हुआ जब चिन्‍टू-पिन्‍टू के बाबा उन दोनों को अपने साथ लिवा ले गए. मैं कई दिन तक मानसिक रूप से उनके साथ खास तौर पर चिन्‍टू के साथ रही. क्‍योंकि जन्‍म के बाद सात साल का होने के बाद उसने बाहर की दुनिया में कदम रखा था. उसे तो अदालत के बहाने भी बाहर आने-जाने का मौका नहीं मिलता था. मैं कल्‍पना करती रही कि कैसे चिन्‍टू पहली बार अपने बाबा की उंगली पकड़े ट्रेन में बैठा होगा. पहली बार उसने सड़क पर भागती-दौड़ती मोटरगाड़ी देखी होगी. खेत-खलिहान देखा होगा. घर पर हर तरह के व्‍यंजन आश्‍चर्य के साथ खा रहा होगा और रात में छत पर लेट कर तारों भरा आसमान देख रहा होगा. जन्‍म के पूरे सात साल बाद!



नैनी सेंट्रल जेल में ऐसे बच्‍चों की कुल संख्‍या 15 से 25 के बीच है. यह संख्‍या घटती-बढ़ती रहती है. इन बच्‍चों से इनका बचपन, इनका अनुभव संसार छीन लिया गया है क्‍योंकि इनकी मां ने कोई जुर्म किया है या झूठे आरोप में फंसी हैं. सरकार भले ही सबको अनिवार्य शिक्षा का दावा करती हो पर इन बच्‍चों के लिए कोई शिक्षा व्‍यवस्‍था नहीं है. तिहाड़ जेल के बारे में मैंने पढ़ा है कि वहां बच्‍चों के क्रेच हैं. लखनऊ की आदर्श जेल के बारे में मैंने पिन्‍टू से सुना कि वहां बच्‍चे स्‍कूल जाते हैं. पर नैनी सेंट्रल जेल के बारे में ऐसी कोई व्‍यवस्‍था नहीं है. इन बच्‍चों की दुनिया इतनी छोटी है कि ये जिस तरफ भी देखते हैं एक ऊंची सी दीवार सामने दिखती है. ऊपर जो छोटा सा आसमान है उसे भी बड़े-बड़े पेड़ों ने ढंक लिया है. ऐसा लगता है कि जैसे ये बच्‍चे भी हमारे साथ एक बड़े से कुएं में कैद हैं. रात में ये कुआं और भी संकरा हो जाता है. बच्‍चों की कल्‍पना को उड़ान देने वाले, उनमें रंग भरने वाले उद्दीपक इस दुनिया से नदारद हैं. फिर ये बच्‍चे ही हैं जो हर हाल में खेलते हैं, खिलखिलाते हैं और हमें भी हंसने के लिए मजबूर करते हैं.

Saturday, July 7, 2012

असुरक्षात्मक मौन का दौर


एक लंबी ख़ामोशी । घनघोर चुप। सन्नाटे की इस लकीर को थोड़ी बहुत तोड़ती-छेड़ती कुछ एक घटनात्मक ख़बरें । नक्सलियों  ने पुलिसवालों को मार दिया या पुलिस वालों ने  नक्सलियों  को मार दिया। प्रणब, पानी, नदी बरसात तक सिमटी, मैली कुचली भारतीय पत्रकारिता। सुबह सोकर उठने से लेकर प्लान बनाने की सोच तक सिमटी पत्रकारिता। शाम को सीट पर पहुंचकर विज्ञप्तियां निपटाने की पत्रकारिता। कुछ लोग कहते हैं कि यह पत्रकारिता का संक्रमण काल है। मुझे तो इस बाबूगिरी में किसी ओर से ऐसी छटपटाहट नजर नहीं आ रही है। संक्रमण काल की छटपटाहट, कुछ कर गुजर जाने की चाहत अगर थोड़ी बहुत कहीं नजर आती भी है तो इंटरनेट पर। असहमतियों का स्वागत है।

भारत में, जितना मैनें देखा है, किसी भी माध्यम को आसानी से हजम नहीं किया जाता। और अगर हजम हो भी गया तो कहा जाता है कि अरे, ये तो पहले से ही हमारे पेट में था। हमने तो बस इसे देखा नहीं था। लोकपाल की मांग तो चल रही है, पर क्या  हम ईमानदारी से सूचना का अधिकार अधिनियम हजम कर पाए हैं? हालांकि जब हजम कर लेंगे तो कई लोग शर्तिया यही कहेंगे कि हमें तो पता था कि ऐसा होकर रहेगा। लेकिन अब से हजम करने के वक्फे में कितने लोग तबाह हुए, बरबाद हुए, जेल गए, परिवार छूटा, दोस्त बिछड़े, क्या ये भी आसानी से हजम हो जाएगा?

काफी कुछ यही हालत इस समय हमारे देश में इंटरनेट की है। हिंदी ब्लागिंग के शुरुआती दौर से मैं इसके साथ रहा हूं। सिंगल ब्लॉग से मल्टीपल यूजर्स ब्लाग  और फिर उसी ब्लाग से एक छोटी मोटी न्यूज, आर्टिकल, व्यूज वेबसाइट्‌स बनती देखी हैं। कुछ साथी ऐसे भी रहे जिन्होंने  ब्लागिंग  जारी रखते हुए लीक से हटकर चलना पसंद नहीं किया और वह दुनियावी रूप से आज सुखी हैं। पर जिन्होंने विश्र्व के साथ कंधे से कंधा मिलाया, इमानदार न्यूज़ और वियुज  छापेवह मानसिक रूप से सुखी तो हैं, पर दुनियावी रूप से दुखी हैं।

खबरों के जिस ब्लास्ट को हम ईवनिंगर समझकर ज्यादा महत्व नहीं देते थे, इन वेबसाइट्‌स ने देश विदेश में उनका महत्व बढ़ाया और हम कहने पर मजबूर हुए कि हां...खबर तो है। इन्होंने न सिर्फ बड़ी खबरें ब्रेक कीं, पत्रकारिता के मानदंडों पर तकरीबन खरा उतरते हुए सच की सड़क बनाई। पर इस सड़क को बनाने में कई खेत रहे और आज भी लगातार परेशान किए जा रहे हैं। इनकी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इनके सबसे बड़े दुश्मन हम पत्रकार ही हैं। दरअसल हम अब पत्रकार कम, बाबू ज्यादा बन गए हैं। हममें गहरी असुरक्षा घर कर गई है। नौकरी न रही तो जाएंगे कहां?

ये दौर इसी असुरक्षात्मक मौन का है। वो दौर तो गया जब झोला लटका के, चप्पल चटका के दो की तीन चाय में देश के प्रधानमंत्री के तीन अलग अलग घोटालों को छापने की बात होती थी। अब तो हमारा तीसरी प्याली के दोस्त को प्रधानमंत्री का चपरासी किसी झूठे मुकदमे में फंसाकर बंद करा दे, हममें से किसी के मुंह से बोल नहीं निकलने वाले। आखिरकार प्रधानमंत्री का चपरासी जो है। बाबू जो हैं...डरेंगे तो चपरासी से ही। वो दौर कहां रहा जब पत्रकार खबर के लिए संपादक या मालिक से भिड़ जाते थे। वो तो अब यादों में ही हैं। वैसे कई लोगों को कहते सुना है कि याद वही आता है, जो भूल जाता है।