Wednesday, July 27, 2016

तख्‍तापलट के मंत्र..

दोस्‍तों का उल्‍टा-सीधा सुनकर कभी-कभी सचमुच दंग रह जाता हूं. जबकि अपनी सारी बकलोलियां चम्‍पा का फूल लगती हैं और उन्‍हें बकते हुए मैं कभी सन्‍न नहीं होता. नेट सर्फिंग करते हुए आज पत्रकार होने के ढेरों फ़ायदे हैं. अररिया के मुहाने पर बाइक में पचास रुपये का पेट्रोल डलवा कर तीन थानों की घुमाइये कीजिए, सात फोन लगाइये और बारह एसएमएस पाइये, आप दिन भर की अपनी होनहारी के लिए तैयार हैं. पहला काम कीजिए, नेट पर हिन्‍दू राष्‍ट्र का पलीता छोड़ दीजिए. कोई दोस्‍त घबराकर सवाल करे कि सुबह-सुबह ये क्‍या बोल रहे हो. तो डांटकर उसे चुप करा दीजिए कि हम तो शुभ-शुभ बोल रहे हैं, तुम कान में कैसा गंदा डाले बैठे हो कि अंतरात्‍मा की आवाज तुम तक नहीं पहुंचती. अररिया के हों तो पहुंचता भी बोलें, फर्क नहीं पड़ेगा. बस आवाज़ में डंके वाली चोट रहे और थानेदार वाली धौंस. चार मिनट मीं-सीं करेगा, उसके बाद दोस्‍त होगा तो क्‍या खाकर विरोध करेगा. या कुछ भी करेगा.

उसके बाद दूसरा पलीता छोड़ि‍ए. भारतीय फौज की दुनिया भर में इज्‍जत है. बोल दीजिए, बोलने में क्‍या जाता है. ईरोम शर्मिला सामने हिसाब लेने थोड़ी बैठी है. या कश्‍मीर के ढेला मारने वाले छटंकी बच्‍चे. रोज़ आंख फुड़वा रहे हैं मगर इनके होश नहीं आ रहा. चले आएं अररिया, एक दिन में इनका सारा होश दुरुस्‍त कर देंगे. थोड़ा हम करेंगे, थोड़ा हमारे दोस्‍त करेंगे. बचेगा उसको फरियाने के लिए कचहरी थाने पर शिवपाल जी हइये हैं.

आज तक जम्‍मू नहीं गया हूं मगर कश्‍मीर के बारे में अपने पास सब सॉल्‍यूशन है. सात लाख भारतीय सैनिकों ड्यूटी पर हैं, जिनकी दुनिया भर में इज्‍जत है, और जो लाठी बंदूक सब भांज रहे हैं, मगर जैसाकि राजनाथ जी बोले वादी में सिर्फ डेढ़ सौ टेररिस्‍ट्स हैं, मगर सात लाख से फरिया नहीं रहे, हमारी समझ में नहीं आ रहा गड़बड़ी कहां रह जा रही है, लोग भूखे और अस्‍पतालों में पड़े हाय-तौबा उठाये, मचाये पड़े हैं, वो सब तो ठीक है, इसी के काबिल हैं वो, मगर अशांति खत्‍म क्‍यों नहीं हो रही? पूरे कश्‍मीर को गुजरात लाकर जेलों में डाल दिया जाए तब चुपा नहीं जाएंगे ये पाजी? या लाकर अररिया में ही डाल दिया जाए, इन नकचढ़ों को संभालने के लिए एक अकेले शिवपाल जी काफी नहीं होंगे? या मैं खुदै जम्‍मू जाकर एक नज़र देख आऊं, मगर उसका बजट कौन हमारी ससुरारी से निकलेगा?

एक से एक बकलोली ठेलते रहते हैं दोस्‍त और सुनकर मैं दंग होता रहता हूं. उसी दंगे में फिर अगली रिपोर्ट फाइल करने लगता हूं. जंतर-मंतर में जाकर इसके और उसके पक्ष में फुदक लेना और बात है, मैं जहां खड़ा हूं और बिना पेट्रोल वाली मेरी बाइक जहां खड़ी है, उसमें बिना दंगाई हुए पत्रकार बने रहना हंसी-खेल नहीं. फिगर आफ स्‍पीच में कह सकते हैं अररिया में रहते हुए कश्‍मीर का जीवन जी लेना है. एंड इट इस नाट बकलोली.
लेखक-प्रमोद सिंह, ब्लॉग- अजदक 

Monday, July 25, 2016

दलि‍त उत्‍पीड़न: पूरे देश के मुंह पर कालि‍ख पोत रहे हैं संघी

अगर यह गृहयुद्ध है तो गृहयुद्ध ही सही। मामला अब संविधान, सरकार और व्यवस्था के पार चला गया है। दलित बस्तियों में होने वाला कांड अगर राजधानी की सड़कों पर दोहराया जा रहा है। तो नतीजा यही निकलता है। और यह खाकीधारियों की निगहबानी और संसद की नाक के नीचे हो। तो फिर कहने और समझने के लिए कुछ बचता नहीं। गुजरात के समधियाला गांव के दलित युवकों को पीटने के लिए 30 किमी दूर उना कस्बे में ले जाया जाता है। यह घटना बताती है कि भारतीय समाज के पहिए का चक्र अब उल्टा चल पड़ा है। वह पूंजीवाद और सामंतवाद से भी पीछे गुलामी और दासता के दौर में पहुंच गया है। मध्य प्रदेश में 50 दलित परिवारों के खुदकुशी की मांग व्यवस्था के मुंह पर कालिख है।

दरअसल देश के साझे दुश्मन अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के क्रम में समाज के भीतर की जातीय उत्पीड़न सरीखी गंदगियां भुला दी गई थीं। आजादी मिली तो वह भी समझौते से। ऊपर से नये शासकों ने इस बीमारी को दूर करने की जगह देश के सामंतों और राजे-रजवाड़ों से गलबहियां कर ली। नतीजतन पुरानी जातीय व्यवस्था जड़ जमाये रही। ऊपर भले सरकार रही लेकिन नीचे व्यवस्था जाति की ही चलती रही। लंगड़ा पूंजीवाद सामंती व्यवस्था की बैसाखी पर खड़ा होकर पूरे समाज को अपाहिज बना दिया । जातीय उत्पीड़न के इस जुआठे को उतार फेंकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई संगठित प्रयास नहीं हुआ। कुछ कोशिशें हुईं भी तो वो पुरानी ताकतों की साजिश का शिकार हो गईं।

दरअसल यह देश एक नवजागरण की मांग कर रहा है। पश्चिम बंगाल में इसकी शुरुआत जरूर हुई थी। लेकिन आगे चलकर यह गतिरोध का शिकार हो गया। पूरा उत्तर भारत धुर जातीय कबीलाई बाड़ेबंदी का शिकार है। अगर आजादी के 60 साल बाद एक दलित आईपीएस अफसर को अपने गांव की सामान्य बस्ती में मकान बनाने की इजाजत नहीं मिलती। और शहर में भी उसे दलित बस्ती में ही स्थान मिलता है। देश में एक

इतिहास में हमारे सामने अमेरिका और उसके राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का उदाहरण है। राष्ट्रपति रहते जब दास प्रथा को बनाए रखने या उसके खात्मे के सवाल पर काले और गोरों के बीच युद्ध छिड़ा तो लिंकन ने कालों का पक्ष लिया। आखिरकार युद्ध में गोरों की हार हुई। और समाज और देश में उत्पीड़नकारी दास प्रथा का खात्मा हुआ। भारतीय समाज में संख्या बल में कम होने के बावजूद सवर्ण सामंती और ब्राह्मणवादी शक्तियों का पलड़ा भारी है। ऐसे में जब भी कोई मौका आता है तो राजनीतिक ताकतें उनके साथ ही गोलबंद हो जाती हैं। ऐसे में संतुलन को अपने पक्ष में करने के लिए दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाओं समेत समाज के तमाम उत्पीड़ित तबकों को एकजुट होने की जरूरत है। भले ही अभी इसका कोई मंच न हो और न ही कोई सर्वमान्य चेहरा। लेकिन कोई भी आंदोलन अपना नेता खुद पैदा कर लेता है। और आंदोलन अगर सफल रहा तो देश को अपना लिंकन, मार्टिन लूथर किंग और एक नया अंबेडकर भी मिल जाएगा।

पशु की अहमियत अगर इंसानी जिंदगी से ज्यादा है। तो यह कुछ भी हो लेकिन कोई आधुनिक इंसानी समाज नहीं हो सकता है। जिसमें पूरी व्यवस्था एक नागरिक और उसके अधिकारों की गारंटी करती है। ऐसे में इंसानी मान-सम्मान, अधिकार और सुरक्षा के लिए अगर युद्ध भी हो तो उसे कबूल किया जाना चाहिए। क्योंकि समाज में न्याय और सत्य की स्थापना के लिए किया गया संघर्ष युद्ध नहीं बल्कि कर्तव्य होता है। पुरानी सड़ी गली और उत्पीड़नकारी व्यवस्था की कोख से नये समाज की पैदाइश के दर्द को समझा जा सकता है । लेकिन नया समाज और नए इंसान के बनने की अगर यह शर्त है । तो इसको पूरा किया जाना चाहिए । और चूंकि इसके सबसे ज्यादा शिकार दलित हैं लिहाजा इसकी अगुवाई की चुनौती भी उन्हें स्वीकार करनी चाहिए।

और आखिरी बात, पहले वो कम्युनिस्टों के लिए आए तो मैं नहीं खड़ा हुआ क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था। फिर मुसलमानों के लिए आए तो मैं नहीं खड़ा हुआ क्योंकि मुसलमान नहीं था। फिर दलितों के लिए आए तो भी नहीं खड़ा हुआ क्योंकि मैं दलित नहीं था। और आखिर में जब वो मेरे लिए आए तो मेरे साथ खड़ा होने वाला कोई नहीं बचा था। हालात इस हद तक पहुंचे उससे पहले ही खड़े हो जाने की जरूरत है।

- लेखक- महेंद्र मि‍श्र

Wednesday, July 20, 2016

पेलेट गन यानी युवकों को अंधा बनाने की मशीन

महेंद्र मिश्र
पेलेट गनों को अंधा बनाने वाली मशीन कहें तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। भीड़ को काबू करने के लिए बनाई गई
ये गनें कश्मीर में अब तक 150 से ज्यादा लोगों की आंखे ले चुकी हैं। इससे चोटिल हजारों लोग अस्पताल में भर्ती हैं। भारत में इनका इस्तेमाल पहली बार 2010 में हुआ था। वह भी घाटी में ही प्रदर्शनकारियों के खिलाफ। उस दौरान सुरक्षा बलों और स्थानीय प्रदर्शनकारियों के बीच की झड़पों में 120 लोगों की मौत हुई थी।
बेग आमिर के सिर में घुसी पेलेट गन की गोलियां
सवाल यह है कि आखिरकार जम्मू-कश्मीर के नागरिकों पर ही इन गनों का इस्तेमाल क्यों? सरकार ने सबको आतंकी मान लिया है या फिर उन्हें दुश्मन घोषित कर दिया गया है या घाटी से बिल्कुल उम्मीद छोड़ दी है? इससे भी ज्यादा दंगे और उत्पात तो हाल के दिनों में देश के दूसरे हिस्सों में हुए हैं। कश्मीर से चंद फासले पर स्थित हरियाणा में जाटों के उत्पात को अभी कोई भूला नहीं होगा। उपद्रवी भीड़ ने न केवल अराजकता फैलाई बल्कि सूबे की अरबों की संपत्ति खाक में मिला दी। कई महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार तक की खबरें आईं। रोकने के लिए सेना भी उतारी गई। लेकिन इन गनों का इस्तेमाल नहीं किया गया। प्रधानमंत्री मोदी के अपने गृहराज्य में पाटीदारों के आंदोलन ने हिंसा की सारी सीमाएं तोड़ दीं। लेकिन सरकार ने वहां भी इनका इस्तेमाल जरूरी नहीं समझा। यहां तक कि इस बीच यूपी सहित देश के कई इलाकों में सांप्रदायिक दंगे हुए, लेकिन पेलेट गनों का नाम तक नहीं सुना गया। ऐसे में सवाल यह है कि जब जम्मू-कश्मीर देश का अभिन्न हिस्सा है और वहां के नागरिक भी उतने ही अपने हैं तो फिर उनके साथ ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों?
अगर बनावट की बात करें तो पेलेट गनों की गोलियां लोहे की बनी होती हैं। इनका वजन और आकार अलग-अलग हो सकता है। धातु की बनी होने के बावजूद प्रभाव को कम करने के लिहाज से कई बार इन पर प्लास्टिक की 1 से 2 मिमी मोटी परत चढ़ा दी जाती है। मारक क्षमता के लिहाज से ये गोलियां बहुत घातक साबित होती हैं। इनसे इंसान की जान भी जाने की आशंका रहती है। बताया जाता है कि 2010 के प्रदर्शन के दौरान इन गोलियों से छह लोगों की मौत हो गई थी।
बुरहान वानी की मौत के विरोध में प्रदर्शनकारी भीड़ पर भी सीआरपीएफ इन्हीं गनों का इस्तेमाल कर रही है। उपयोग में लाई जा रही इन गोलियों में प्लास्टिक की परतें भी नहीं चढ़ी हैं। गोलियों को जवान 12 बोर की एक गन से छोड़ते हैं। एक कारतूस में 600 पेलेट होती हैं। फायरिंग के बाद ये फैल कर लक्ष्य की तरफ बढ़ती हैं। आमतौर पर माना जाता है कि केवल प्रदर्शनकारियों पर ही इनका इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन सच्चाई ये है कि घरों में बैठे लोग या किचेन में काम करने वाली महिलाएं भी इसका शिकार हो रही हैं।
नियम और शर्तों की जहां तक बात है तो पेलेट को चलाने के लिए लक्ष्य से कम से कम 500 फुट का फासला होना चाहिए। पेलेट गन को हमेशा कमर के नीचे लक्ष्य करके चलाना होता है। लेकिन इन शर्तों का खुला उल्लंघन हो रहा है। यही वजह है कि चार दिनों के भीतर कश्मीर के श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल में 92 लोगों की आंखों की सर्जरी की जा चुकी है। दूसरे अस्पतालों के आंकड़े तो अलग हैं। इसकी विभीषिका को देखते हुए दिल्ली स्थित एम्स के चिकित्सकों ने इन गोलियों के इस्तेमाल पर तत्काल रोक लगाने की सलाह दी है।
सरकार जिस तरह धड़ल्ले से इसका इस्तेमाल कर ही है उससे ऐसा लगता है कि वह इसे 2010 की कामयाबी से जोड़कर देख रही है। इसमें संदेह नहीं कि तब प्रदर्शनों पर रोक लगाने में सरकार सफल रही थी, लेकिन जिन क्षेत्रों में भी इन गनों का इस्तेमाल हुआ, वहां के लोगों के दिल फिर नहीं जीते जा सके। अगर हम कश्मीर में शांति की कीमत कश्मीरियों को खोने के रूप में नहीं चुकाना चाहते तो पेलेट गनों के इस्तेमाल पर तुरंत पुर्विचार करने में हमें हिचकना नहीं चाहिए। (यह लेख नवभारत टाइम्स के 20 जुलाई 2016 के संपादकीय पेज पर प्रकाशित है।)

Friday, July 15, 2016

पीएसयू में अपनों को टॉप पोस्ट दिलाने का शॉर्ट कट!

पब्लिक सेक्टर की शेड्यूल ‘ए’ महारत्ना कंपनी भेल (भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड) में डायरेक्टर (एचआर) के पद पर नियुक्ति के लिए 22 जुलाई 2014 को विज्ञापन दिया गया था। पब्लिक एन्टरप्राइजेज सिलेक्शन बोर्ड (पीएसईबी) की ओर से दिए गए इस विज्ञापन में पद का प्रोफाइल बताते हुए कहा गया था कि इस पद पर आसीन व्यक्ति बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स का सदस्य होगा और सीधे सीएमडी (चेयरमैन एंड मैनेजिंग डायरेक्टर) को रिपोर्ट करेगा। वह कंपनी में ह्यूमन रिसोर्सेज मैनेजमेंट का प्रभारी होगा और कंपनी की एचआर पॉलिसी बनाने तथा लागू करने के लिए पूरी तरह जिम्मेदार होगा। इस पद का वेतन 75000 से 100000 रुपए मासिक बताया गया। और इस पद के लिए आवेदक की योग्यता क्या रखी गई थी? ‘अच्छे अकादमिक रेकॉर्ड’ वाला ‘किसी मान्यता प्राप्त यूनिवर्सिटी’ से स्नातक व्यक्ति इसके लिए आवेदन कर सकता था। न्यूनतम उम्र 45 साल थी, लेकिन एचआर में काम का न्यूनतम अनुभव मात्र दो साल का मांगा गया था। बाकी पीजी, डिप्लोमा, एमबीए वगैरह को ‘ऐडेड अडवांटेज’ बताया गया था।

ऐसे ही शेड्यूल ‘ए’ की नवरत्ना कंपनी ईआईएल (इंजीनियर्स इंडिया लिमिटेड) में डायरेक्टर (एचआर) पद के लिए 22 जून 2015 को विज्ञापन दिया गया था। इसमें भी पात्रता अच्छे अकादमिक रेकॉर्ड के साथ ग्रेजुएशन और दो साल का एचआर/पर्सनेल अनुभव। बाकी चीजें ऐडेड अडवांटेज। एमएमटीसी (मेटल्स एंड मिनरल्स ट्रेडिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया) की ओर से तो इसी साल 1 अप्रैल को विज्ञापन दिया गया था, इसी पद के लिए और यही योग्यताएं मांगी गई थीं।

बात हैरान करने वाली इसलिए है क्योंकि देश की शीर्षस्थ पब्लिक सेक्टर कंपनियों को आज न केवल देश के अंदर खुद को लगातार साबित करते रहना होता है बल्कि देश के बाहर वर्ल्ड मार्केट में भी कंपीट करना पड़ता है। आज की तारीख में किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी में टॉप लेवल पर नियुक्ति में ऐसी न्यूनतम योग्यता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। छोटी-मोटी कंपनियों में भी एचआर मैनेजर तक की नियुक्ति में आवेदकों से एमबीए की अपेक्षा की जाती है। ऐसे में स्वाभाविक है कि देश की प्रमुख पब्लिक सेक्टर कंपनियों में इस तरह के मानदंड सवाल पैदा करें।
छोटी-मोटी कंपनियों में भी एचआर मैनेजर तक की नियुक्ति में आवेदकों से एमबीए होने की अपेक्षा की जाती है, मगर पब्लिक सेक्टर की बड़ी कंपनियों में डायरेक्टर बनने के लिए यह जरूरी नहीं
दिलचस्प बात यह है कि यह स्थिति अनजाने में नहीं बनी हुई है। भले ये बहसें सार्वजनिक मंचों पर तीखे रूप में नजर न आई हों, लेकिन संबंधित थिंक टैंकों की ओर से सरकार के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों का ध्यान लगातार इस बात की ओर खींचा जाता रहा है कि ऐसा करना प्रफेशनलिज्म के सभी सरोकारों को ताक पर रखने जैसा है। उदाहरण के तौर पर इसी क्षेत्र में काम करने वाले एक नॉन प्रॉफिट ऑर्गनाइजेशन एनआईपीएम (नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पर्सनेल मैनेजमेंट) ने 24 दिसंबर 2013 को सचिव, सार्वजनिक उद्यम विभाग (भारत सरकार) को भेजे एक पत्र में बड़े विस्तार से बताया है कि कैसे एचआर का काम विशिष्ट प्रकृति का है जो खास तरह की विशेषज्ञता की मांग करता है। इसी संगठन के और संबंधित अन्य संगठनों के भी ऐसे अनेकानेक पत्र हैं, जिनकी प्रतियां सभी प्रमुख लोगों तक पहुंचाई जाती रही हैं।

एनआईपीएम के राष्ट्रीय अध्यक्ष सोमेश दासगुप्ता के मुताबिक इन पदों पर नियुक्ति के लिए न्यूनतम योग्यता के रूप में पर्सनेल मैनेजमेंट, एचआर मैनेजमेंट या सोशल वर्क में मास्टर डिग्री और 15 साल का कोर एचआर एक्सपीरिएंस अनिवार्य होना चाहिए। एनआईपीएम के ही पूर्व अध्यक्ष आर पी सिंह कहते हैं कि ग्रेजुएशन को पात्रता बनाना इसलिए भी बेतुका है क्योंकि आज कोर एचआर में लंबा अनुभव रखने वाले मास्टर डिग्रीधारी ऑफिसरों की कोई कमी नहीं है।

फिर आखिर क्या कारण है कि नियुक्ति संबंधी मानदंडों में आवश्यक बदलाव नहीं किए जा रहे? भले ये एक्सपर्ट्स खुल कर न कहें लेकिन इसकी वजह इसके अलावा कुछ और नहीं हो सकती कि ऊपर बैठे लोग अपने ‘करीबियों’ को इन पदों पर बिठाने की गुंजाइश कम नहीं होने देना चाहते। इसका सबूत इस रूप में देखा जा सकता है कि एनटीपीसी, गेल, ईआईएल और भेल जैसी बड़ी कंपनियों में डायरेक्टर (एचआर) पद पर बैठे लोगों में शायद ही कोई ऐसा हो जिसे कोर-एचआर का आदमी कहा जा सके।

लेखक: प्रणव प्रियदर्शी नवभारत टाइम्स दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार हैं। 

Saturday, July 9, 2016

गुजरात फाइल्‍स: 'हिंदू-मुसलमान को लड़ाना ही नरेंद्र मोदी की असल पहचान'

‘आप जानती हैं ये हरेन पांड्या मामला एक ज्वालामुखी की तरह है। एक बार सच्चाई सामने आने का मतलब है कि मोदी जी को घर जाना पड़ेगा। वो जेल में होंगे’। इस आखिरी किश्त में पढ़िए हरेन पांड्या हत्याकांड का सच। इसके अलावा तब के गुजरात के डीजीपी के चक्रवर्ती और मुख्यमंत्री के चहते अफसर पीसी पांडे से राना अयूब की बातचीत के कुछ अंशः
गुजरात फाइल्‍स- चौथी कि‍स्‍त

इसे भी पढ़ें- गुजरात फाइल्स पार्ट-1,  गुजरात फाइल्स पार्ट-2,  गुजरात फाइल्स पार्ट-3



के चक्रवर्ती, पूर्व डीजीपी गुजरात
प्रश्नः क्या वो (सीएम मोदी) सत्ता का भूखा है?
उत्तरः हां
प्रश्नः तो क्या प्रत्येक चीज और हर व्यक्ति पर विवाद है वो दंगे हों या कि एनकाउंटर?
उत्तरः हां, हां। एक गृहमंत्री भी गिरफ्तार हुआ था।
प्रश्नः सभी अफसर उसे नापसंद करते थे?
उत्तरः हां, हां। प्रत्येक व्यक्ति उससे नफरत करता था। अमित शाह को बचाने के लिए पूरा संगठित प्रयास किया जा रहा था। इस काम में नरेंद्र मोदी के साथ तब के राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने 27 सितंबर 2013 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखा था-
“अपनी गिरती लोकप्रियता के चलते कांग्रेस की रणनीति बिल्कुल साफ है। कांग्रेस बीजेपी और नरेंद्र मोदी से राजनीतिक तौर पर नहीं लड़ सकती है। उसको हार सामने दिख रही है। खुफिया एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल के जरिये वो गलत तरीके से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी तब के गृहमंत्री अमित शाह और दूसरे बीजेपी नेताओं को गलत तरीके से फंसाने की कोशिश कर रही है।”


इसे भी पढ़ें- गुजरात फाइल्स पार्ट-1,  गुजरात फाइल्स पार्ट-2,  गुजरात फाइल्स पार्ट-3

पीसी पांडे, 2002 में पुलिस कमिश्नर, अहमदाबाद, मौजूदा समय में डीजीपी, गुजरात

प्रश्नः लेकिन देखिये, मोदी को मोदी दंगों ने बनाया। यह सही बात है ना?
उत्तरः हां, उसके पहले मोदी को कौन जानता था? मोदी कौन था? वो दिल्ली से आए। उसके पहले हिमाचल में थे। वो हरियाणा और हिमाचल जैसे मामूली प्रदेशों के प्रभारी थे।
 प्रश्नः यह उनके लिए ट्रंप कार्ड जैसा था। सही कहा ना?
उत्तरः बिल्कुल ठीक बात....अगर दंगे नहीं होते वो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं जाने जाते। उसने उन्हें मदद पहुंचाई। भले नकारात्मक ही सही। कम से कम उन्हें जाना जाने लगा।
 प्रश्नः तो आप इस शख्स को पसंद करते हैं?
उत्तरः मेरा मतलब है हां, इस बात को देखते हुए कि 2002 के दंगों के दौरान मैं उनके साथ था। इसलिए ये ओके है। 

वाई ए शेख, हरेन पांड्या हत्या मामले में मुख्य जांच अधिकारी

-आप जानती हैं ये हरेन पांड्या मामला एक ज्वालामुखी की तरह है। एक बार सच्चाई सामने आने का मतलब है कि मोदी जी को घर जाना पड़ेगा। वो जेल में होंगे।
प्रश्नः इसका मतलब है कि सीबीआई ने अपनी जांच नहीं की?
उत्तरः उसने केवल मामले को रफा-दफा किया। उसने गुजरात पुलिस अफसरों के पूरे सिद्धांत पर मुहर लगा दी।
-सीबीआई अफसर सुशील गुप्ता ने गुजरात पुलिस की नकली कहानी पर मुहर लगा दी। गुप्ता ने सीबीआई से इस्तीफा दे दिया। अब वो सुप्रीम कोर्ट में वकालत कर रहे हैं। वो रिलायंस के वेतनभोगी हैं। उनसे पूछिए उन्होंने क्यों सीबीआई से इस्तीफा दिया। वो सुप्रीम कोर्ट में बैठते हैं। उनसे मिलिए।

प्रश्नः क्या ये एक राजनीतिक हत्या है?
उत्तरः प्रत्येक व्यक्ति शामिल था। आडवानी के इशारे पर मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया गया था। क्योंकि वो नरेंद्र मोदी के संरक्षक थे। इसलिए उन्हें पाक-साफ साबित करने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया गया। मेरा मतलब है कि लोग स्थानीय पुलिस की कहानी पर विश्वास नहीं करेंगे। लेकिन सीबीआई की कहानी पर भरोसा कर लेंगे।
 प्रश्नः उसमें किसकी भूमिका थी? बारोट या वंजारा?
उत्तरः सभी तीनों की। बारोट कहीं और था और चुदसामा को डेपुटेशन पर ले आया गया था। उन्हें चुदसामा मिल गया था। इस एनकाउंटर में पोरबंदर कनेक्शन भी है। ये एक ब्लाइंड केस है।
प्रश्नः सीबीआई ने इसको क्यों हाथ में लिया?
उत्तरः सीबीआई ने इस केस में मोदी को बचाने का काम किया।
साभारः गुजरात फाइल्स, अनुवाद- महेंद्र मि‍श्र / 
इसे भी पढ़ें- गुजरात फाइल्स पार्ट-1,  गुजरात फाइल्स पार्ट-2,  गुजरात फाइल्स पार्ट-3

सत्ता के तलवे चाटने वाले पत्रकारिता की बात नहीं करते रोहित जी!

रोहित जी, रवीश को लिखे पत्र में आपने खुद को पत्रकार और साथ ही राष्ट्रवादी भी बताया है। यानी राष्ट्रवादी पत्रकार। यह पत्रकारिता की कौन विधा है आजतक मेरी समझ में नहीं आयी। लेकिन पत्रकारिता का सच यही है कि जिस सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी जी शहीद हुए थे। आज वही पत्रकारिता कैराना में कश्मीर ढूंढ रही है। और नहीं मिलने पर कश्मीर बना देने पर उतारू है। और आप इस पत्रकारिता के पक्ष में है। न केवल पक्ष में हैं बल्कि मजबूती से उसके साथ खड़े भी हैं। अब आप खुद ही फैसला कीजिए कि आप कैसी पत्रकारिता कर रहे हैं? ऊपर से राष्ट्रवादी भी बताते हैं। अगर अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगलना राष्ट्रवाद है, गरीब जनता के खिलाफ कारपोरेट लूट को बढ़ावा देना राष्ट्रवाद है, अमेरिका के तलवे चाटना राष्ट्रवाद है, सत्ता की सेवा ही अगर राष्ट्रवाद की कसौटी है तो ऐसे राष्ट्रवाद को लानत है। लेकिन सच्चाई यह है कि न तो आप पत्रकार हैं और न ही राष्ट्रवादी बल्कि आप भक्त हैं। जो काम कभी राजे-रजवाड़ों के दौर में चारण और भाट किया करते थे वही आप इस लोकतंत्र के दौर में कर रहे हैं। उनका काम घूम-घूम कर जनता के बीच सत्ता का गुणगान करना था। मौजूदा समय में वही काम आप स्टूडियो में बैठ कर रहे हैं।

इसे भी पढ़ें- गुजरात फाइल्स पार्ट-1,  गुजरात फाइल्स पार्ट-2,  गुजरात फाइल्स पार्ट-3 गुजरात फाइल्स पार्ट- 4

दरअसल पत्रकारिता को लेकर काफी भ्रम की स्थिति बनी हुई है। पत्रकारिता का मूल चरित्र सत्ता विरोधी होता है। यानी चीजों का आलोचनात्कम विश्लेषण। वह तटस्थ भी नहीं होती। व्यापक जनता का पक्ष उसका पक्ष होता है। और कई बार ऐसा भी हो सकता है कि सत्ता के खिलाफ विपक्ष के साथ वह सुर में सुर मिलाते दिखे। ऐसे में उसे विपक्ष का दलाल घोषित करना बेमानी होगा। क्योंकि उस समय दोनों जनता के सवालों पर सरकार की घेरेबंदी कर रहे होते हैं। इससे जनता का ही पक्ष मजबूत होता है। दरअसल पत्रकारिता तीन तरह की होती है। एक मिशनरी, दूसरी नौकरी और तीसरी कारपोरेट। पहला आदर्श की स्थिति है। दूसरी बीच की एक समझौते की। और तीसरी पत्रकारिता है ही नहीं। वह मूलतः दलाली है। चिट्ठी में आपने काफी चीजों को गड्ड-मड्ड कर दिया है। आप ने उन्हीं भक्तों का रास्ता अपनाया है। जो बीजेपी और मोदी के सिलसिले में जब भी कोई आलोचना होती है। तो यह कहते पाए जाते हैं कि तब आप कहां थे। जब ये ये हो रहा था। और फिर इतिहास के कूड़ेदान से तमाम खरपतवार लाकर सामने फेंक देते हैं। और पूरी बहस को ही एक नया मोड़ दे देते हैं। यहां भी आपने वही किया है। बजाय मुद्दे पर केंद्रित करने के कि एम जे अकबर जैसा एक संपादक-पत्रकार जो बीजेपी की नीतियों का धुर-विरोधी रहा है। वह एकाएक उसका प्रवक्ता और सरकार का हिस्सा कैसे बन गया? इसमें यह बहस होती कि क्या कोई अपने विचार से एक झटके में 180 डिग्री पल्टी खा सकता है? ऐसे में उसकी साख का क्या होगा? इससे पत्रकारिता और उसकी विश्वसनीयता को कितनी चोट पहुंचेगी? क्या सत्ता के आगे सारे समझौते जायज हैं? और ऐसे समझौते करने वालों को किस श्रेणी में रखा जाए? क्या सत्ता का अपना कोई सिद्धांत नहीं होता है? विचारधारा और सिंद्धांतविहीन राजनीति कहीं बाझ सत्ता और पत्रकारिता को तो जन्म नहीं दे रही है?

इसे भी पढ़ें- गुजरात फाइल्स पार्ट-1,  गुजरात फाइल्स पार्ट-2,  गुजरात फाइल्स पार्ट-3 गुजरात फाइल्स पार्ट- 4

इस मामले में एक पत्रकार का एक सत्ता में शामिल शख्स से सवाल बनता है। अकबर अब पत्रकार नहीं, मंत्री हैं। और सत्ता के साथ हैं। लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आया कि अकबर या सत्ता पक्ष से जवाब आने का इंतजार करने की बजाय आप क्यों बीच में कूद पड़े। क्या आपने सत्ता की ठेकेदारी ले रखी है। या मोदी भक्ति इतने हिलोरे मार रही है कि एक आलोचना भी सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। आपने जिन लोगों को खत न लिखने के बारे में रवीश से पूछा है। आइये अब उस पर बात कर लेते हैं। अमूमन तो अभी तक पत्रकारिता के पेश में यही बात थी कि पत्रकारों की जमात सत्ता पक्ष से ही सवाल पूछती रही है। और आपस में एक दूसरे पर टीका टिप्पणी नहीं करती थी। किसी का कुछ गलत दिखने पर भी लोग मौन साध लेते थे। लिहाजा किसी ने कभी भी किसी को खत नहीं लिखा। ऐसे में जो चीज हुई ही नहीं आप उसकी मांग कर रहे हैं। हां इस मामले में जब कुछ लोग पत्रकारिता की सीमा रेखा पार कर खुल कर सत्ता की दलाली और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबते नजर आये। और पानी सिर के ऊपर चढ़ गया। तथा पत्रकारों की दलाली खासो-आम के बीच चर्चा बन गई। तब जरूर उनके खिलाफ लोंगों ने नाम लेकर बोलना शुरू कर दिया।

इसे भी पढ़ें- गुजरात फाइल्स पार्ट-1,  गुजरात फाइल्स पार्ट-2,  गुजरात फाइल्स पार्ट-3 गुजरात फाइल्स पार्ट- 
 4

जैसा कि ऊपर मैंने कहा है कि आपने काफी चीजों को गड्ड-मड्ड कर दिया है। आपने जिन नामों को लिया है उनमें आशुतोष को छोड़कर सब पत्रकारिता की जमात के लोग हैं। बरखा और प्रणव राय को खत लिखने से पहले रवीश को इस्तीफे का खत लिखना पड़ेगा। वह सुधीर चौधरी जैसे एक बदनाम पत्रकार और कारपोरेट के दलाल को पत्र लिख सकते थे, जिसके खिलाफ बोलने से उनकी नौकरी के भी जाने का खतरा नहीं है। लेकिन उन्होंने उनको भी पत्र नहीं लिखा। हां इस मामले में रवीश कुमार व्यक्तिगत स्तर पर कहीं बरखा या फिर प्रणव राय को मदद पहुंचाते या फिर उसमें शामिल दिख रहे होते तब जरूर उन पर सवाल उठता। सुधीर चौधरी भी सुभाष चंद्रा के चैनल में एक कर्मचारी के तौर पर काम कर रहे होते तो किसी को क्या एतराज हो सकता था। लेकिन जब वह उनकी तरफ से उनके व्यवसाय और उससे संबंधित मामलों को निपटाने में जुट गए। तब उन पर अंगुली उठी।

इसे भी पढ़ें- गुजरात फाइल्स पार्ट-1,  गुजरात फाइल्स पार्ट-2,  गुजरात फाइल्स पार्ट-3 गुजरात फाइल्स पार्ट- 4

रही आशुतोष की बात। तो एक चीज आप को समझनी होगी। पत्रकारिता अकसर जनता के आंदोलनों के साथ रही है। कई बार ऐसा हुआ है कि पत्रकारों के किसी आंदोलन का समर्थन करते-करते कुछ लोग उसके हिस्से भी बन गए। आशुतोष पर सवाल तब उठता जब अन्ना आंदोलन को छोड़कर वो कांग्रेस के साथ खड़े हो जाते। जिसके खिलाफ पूरा आंदोलन था। अब एक पेशे के लोगों को दूसरे पेशे में जाने से तो नहीं रोका जा सकता है। हां सवाल उठना तब लाजमी है जब संबंधित शख्स सत्ता की लालच में अपने बिल्कुल विरोधी विचार के साथ खड़ा हो जाए। इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ एक्सप्रेस और जनसत्ता विपक्ष की आवाज बन गए थे। इस भूमिका के लिए उनकी तारीफ की जाती है। उन्हें विपक्ष का दलाल नहीं कहा जाता है। और यहां तक कि प्रभाष जोशी जी कांग्रेस के खिलाफ जो आमतौर पर सत्ता पक्ष रही, वीपी सिंह और चंद्रशेखर के ही साथ रहे। इसलिए समय, परिस्थिति और मौके का बड़ा महत्व होता है। सब को एक ही साथ एक तराजू पर तौलना कभी भी उचित नहीं होगा।

लेखक महेंद्र मि‍श्र राजनीति‍क कार्यकर्ता व वरि‍ष्‍ठ पत्रकार हैं।

Wednesday, July 6, 2016

जुमलों की सरकार का जंबो मंत्रि‍मंडल

केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार कुछ और नहीं बल्कि मोदी सरकार की नाकामी की खुली बयानी है। दो दर्जन से ज्यादा मंत्रियों के विभागों में फेरबदल इसी तरफ इशारा करता है। हालांकि बेहद चालाकी के साथ मोदी जी ने अपनी नाकामी का ठीकरा मंत्रियों के सिर पर फोड़ने की कोशिश की है। लेकिन सच यह है कि मोदी शासन में मंत्री महज रबर की मुहरें हैं। काम पीएमओ काम करता है। फिर जिसने काम किया ही नहीं उसकी क्या समीक्षा? कसौटी पर तो पीएमओ है।

चंद मंत्रालयों को छोड़कर बाकी सभी पर उंगली उठा दी गई है। सबसे बड़ा झटका तो सरकार के चाणक्य अरुण जेटली को लगा है। यह बात अब साफ हो गई है कि सरकार चलाने वाली मोदी-शाह-जेटली की तिकड़ी से जेटली बाहर हो गए हैं। शुरू में दिल्ली में पैर जमाने के लिए दोनों गुजराती नेताओं को उनकी जरूरत जरूर थी। लेकिन अब उन्हें किसी बैसाखी की दरकार नहीं है।

इस मामले में आधा काम सुब्रह्मण्यम स्वामी ने पहले ही कर दिया था। बाकी मंत्रिमंडल विस्तार में हो गया। पहले कंपनी मामले का मंत्रालय छिना था। अब सूचना और प्रसारण भी जाता रहा। और इस बात की पूरी आशंका है कि जयंत सिन्हा को हटाने और जेटली जी के कंधे पर दो राज्य मंत्रियों को लादने के फैसले पर शायद ही उनकी राय ली गई हो। स्मृति ईरानी, वीके सिंह और महेश चंद शर्मा का कद उनके अनावश्यक विवादों ने नाप दिया। यह बात साफ हो गई है कि विवाद भी अनुशासन मांगता है। और उसके लिए भी मोदी के इशारे की जरूरत होगी।

हालांकि आगामी यूपी और गुजारत के चुनावों के मद्देनजर सामाजिक समीकरण पर ज्यादा जोर दिया गया है। विस्तार के 19 मंत्रियों में 10 का पिछड़े और दलित समुदाय से होना और यूपी से तीन मंत्रियों को शपथ इसी का संकेत है। लेकिन यह भी सरकार में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के ही दायरे में है। इनकी हैसियत कैबिनेट में इनके परंपरागत मंत्रालयों महिला, अल्पसंख्यक और सामाजिक कल्याण से आगे नहीं बढ़ सकी है। उससे आगे बढ़े भी तो दूसरे कैबिनेट मंत्रियों के अटैची बनने तक। सामाजिक कल्याण मंत्रालय तो मानों डंपिंग ग्राउंड बन गया है। यहां तीन-तीन राज्य मंत्री एक साथ सधाए गए हैं।

हां, मोदी जी ने अपने मंत्रिमंडल को साफ-सुथरा बनाने का प्रयास जरूर किया है। निहाल चंद और राम शंकर कठेरिया का मंत्रिमंडल से हटाया जाना इसी कड़ी का हिस्सा है। अब यह तात्कालिक चुनावों के मद्देनजर किया गया है। या फिर मंत्रिमंडल का स्थाई भाव होगा। कह पाना मुश्किल है। लेकिन यह बात तब तक पूरी नहीं होती जब तक दंगों के आरोपी संजीव बालियान और दूसरे मंत्रिमंडल में बने रहते हैं। वैसे भी प्रदूषित स्रोत से साफ पानी की उम्मीद बेमानी है।

आखिर में जंबो मंत्रिमंडल का गठन कर मोदी जी ने ‘कम सरकार, ज्यादा शासन’ के अपने एक और नारे को जुमला साबित कर दिया है। वैसे भी किसी भ्रम में रहने की जरूरत नहीं है। क्योंकि सरकार के आधा से ज्यादा मंत्री दो सालों के भीतर अभी अपने विभागों के कामकाज को समझ पाए थे। अब वह किसी बड़े फैसले या फिर पूरे विश्वास के साथ मंत्रालय को चलाने में सक्षम हो रहे थे। लेकिन बीच में ही उन्हें किसी दूसरे विभाग की जिम्मेदारी देकर एक बार फिर इंटर्न की स्थिति में खड़ा कर दिया गया है। ऐसे में उनसे कोई बड़ी उम्मीद करना उनके साथ भी अन्याय होगा।

लेखक महेंद्र मि‍श्र राजनीति‍क कार्यकर्ता व वरि‍ष्‍ठ पत्रकार हैं।

गुजरात फाइल्स: 'मोदी ने ही की थी दंगाइयों की पूरी मदद'

अशोक नरायन गुजरात के गृह सचिव रहे हैं। 2002 के दंगों के दौरान सूबे के गृह सचिव वही थे। नरायन रिटायर होने के बाद अब गांधीनगर में रहते हैं। वह एक आध्यात्मिक व्यक्ति हैं। साहित्य और धर्मशास्त्र पर उनकी अच्छी पकड़ है। एक कवि होने के साथ ऊर्दू की शेरो-शायरी में भी रुचि रखते हैं। उन्होंने दो किताबें भी लिखी हैं। राना अयूब की अशोक नरायन से दिसंबर 2010 में मुलाकात हुई। इसके साथ ही उन्होंने गुजरात के पूर्व आईबी चीफ जीसी रैगर से भी मुलाकात की थी। पेश है दो विभागों के सबसे बड़े अफसरों से बातचीत के कुछ अंशः
गुजरात फाइल्स पार्ट-3
अशोक नरायन, पूर्व गृहसचिव, गुजरात
प्रश्नः मुख्यमंत्री को इतना हमले का निशाना क्यों बनाया गया? ऐसा इसलिए तो नहीं हुआ क्योंकि वो बीजेपी से जुड़े हुए थे?
उत्तरः नहीं, क्योंकि दंगों के दौरान उन्होंने वीएचपी (विश्व हिंदू परिषद) को सहयोग दिया था। उन्होंने ऐसा हिंदू वोट हासिल करने के लिए किया था। जैसा हुआ भी। जो वो चाहते थे वैसा उन्होंने किया और वही हुआ भी।
प्रश्नः क्या उनकी भूमिका पक्षपातपूर्ण नहीं थी? (गोधरा कांड के संदर्भ में)
उत्तरः वो गोधरा की घटना के लिए माफी मांग सकते थे। वो दंगों के लिए माफी मांग सकते थे।
प्रश्नः मुझे बताया गया कि मोदी ने एक पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाई थी उन्होंने उकसाने का काम किया था। जैसे कि गोधरा से लाशों को अहमदाबाद लाना। और इसी तरह के कुछ दूसरे फैसले।
उत्तरःमैंने एक बयान दिया था जिसमें मैंने कहा था कि वही एक शख्स हैं जिन्होंने गोधरा ट्रेन कांड की लाशों को अहमदाबाद लाने का फैसला लिया था।
प्रश्नः इसका मतलब है, फिर सरकार आप के खिलाफ हो गई होगी?
उत्तरः देखिए, शवों को अहमदाबाद लाना आग में घी का काम किया। लेकिन वही शख्स हैं जिन्होंने ये फैसला लिया।
प्रश्नः राहुल शर्मा का क्या मामला है?
उत्तरः वो विद्रोहियों में से एक हैं।
प्रश्नः क्या मतलब?
उत्तरः उन्होंने किसी की सहायता नहीं की। वो केवल दंगों को नियंत्रित करना चाहते थे।
प्रश्नः क्या उन्हें भी किनारे लगा दिया गया?
उत्तरः उनका तबादला कर दिया गया। तबादले के खिलाफ डीजीपी के विरोध, चक्रवर्ती के विरोध और इन दोनों की राय से मेरी सहमति के बावजूद ऐसा किया गया।
प्रश्नः सिर्फ इसलिए क्योंकि वो मुख्यमंत्री के खिलाफ गए थे?
उत्तरः निश्चित तौर पर।
 प्रश्नः एनकाउंटरों के बारे में आप का क्या कहना है?
उत्तरः एनकाउंटर धार्मिक आधार पर कम राजनीतिक ज्यादा होते हैं। अब सोहराबुद्दीन मामले को लीजिए। वो नेताओं के इशारे पर मारा गया था। उसके चलते अमित शाह जेल में हैं।
 

जी सी रैगर, पूर्व इंटेलिजेंस हेड, गुजरात
प्रश्नः यहां एनकाउंटरों का क्या मामला है? उस समय आप कहां थे?
उत्तरः मैं कई लोगों में से एक था। एक अपराधी (सोहराबुद्दीन) एक फर्जी एनकाउंटर में मार दिया गया। इसमें सबसे मूर्खतापूर्ण बात ये रही कि उन्होंने उसकी पत्नी को भी मार दिया।
 प्रश्नः इसमें कोई मंत्री भी शामिल था?
उत्तरः गृहमंत्री अमित शाह।
 प्रश्नः उनके मातहत काम करना बड़ा मुश्किल भरा रहा होगा?
उत्तरः हम उनसे सहमत नहीं थे। हम उनके आदेशों का पालन करने से इनकार कर देते थे। यही वजह है कि एनकाउंटर मामलों में गिरफ्तारी से हम बच गए।
रैगर मोदी के बारे में..
......यह शख्स (सीएम) बहुत चालाक है। वो हर चीज जानता है। लेकिन एक निश्चित दूरी बनाए रखता है। इसलिए वह इसमें (सोहराबुद्दीन मामले में) नहीं पकड़ा गया।

प्रश्नः मोदी जी से पहले एक मुख्यमंत्री थे केशुभाई पटेल। वो कैसे थे?
उत्तरः मोदी जी की तुलना में वो संत थे। मेरा मतलब है कि केशुभाई जानबूझ कर किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहेंगे। उसका जो भी धर्म हो। कोई मुस्लिम है इसलिए उसे परेशान किया जाएगा। ऐसा नहीं था।
प्रश्नः वास्तव में मैं पीसी पांडे से भी मिली।
उत्तरः ओह, वो पुलिस कमिश्नर थे।
 प्रश्नः अच्छा, तो आप दोनों दंगे के दौरान एक साथ काम कर रहे थे?
उत्तरः हां, हमें करना पड़ा। मैं आईबी चीफ था।
 प्रश्नः दूसरे जिन ज्यादातर अफसरों से मैं मिली उनका कहना था कि पांडे पर सीएम बहुत भरोसा करते हैं। और दंगों के दौरान अपने सारे काम उन्हीं के जरिये कराये थे?
उत्तरः अब, आपको दंगों के बारे में हर चीज पता ही है। (हंसते हुए)
साभारः गुजरात फाइल्स,  अनुवाद- महेंद्र मि‍श्र

सुकमा: जमली की पायल लाने गए माड़ा को CRPF ने तेल डालके फूंका

छत्तीसगढ़ प्रान्त के सुकमा जिले का कोंड्रे गाँव . पहाड़ी की तलहटी में बसा एक सुरम्य ग्राम .गाँव के किनारे नदी बहती थी . गाँव में माड़ा नामक एक नवयुवक रहता था . माड़ा हमेशा हंसता रहने वाला नौजवान था . माँ बाप की आँख का तारा , पूरे गाँव का दुलारा ..
माड़ा की आँख पड़ोस के गाँव की जमली से टकरा गई . दोनों उस बार मेले में रात भर नाचे . माड़ा के पिता जमली के पिता से मिलने गये और दोनों ने सगा बनने का फ़ैसला किया . आस पास के गाँव के सभी लड़के लड़कियाँ अपने ढोल लेकर आये खूब नाचे और माड़ा और जमली एक हो गये .
गर्मियां आयीं .जंगल विभाग ने तेंदू पत्ता खरीदने का फड़ खोला . गांव के सभी लोग तेंदू के पौधों से पत्ते तोड़ कर घर लाते उनकी गड्डियां बनाते .फिर उन्हें बेचने जाते . कई बार लोगों को सांप काट लेता था .
गर्मी में ज़मीन तेज गर्म हो जाती . पैर जलते थे . लेकिन पत्ते तोडना भी ज़रूरी है . शादी में कर्ज भी हो गया था .वह भी चुकाना था .पचास पत्ते की एक गड्डी का एक रुपया दस पैसा मिलता है .
कुछ दिनों के बाद खबर आयी कि तेंदू पत्ते की नीलामी में सरकार को जो फायदा हुआ है वह सरकार की तरफ से आदिवासियों को बोनस के रूप में मिलेगा . सभी को सुकमा शहर के फारेस्ट विभाग के आफिस से चेक मिलेगा .
माड़ा ने जमली से कहा मैं भी जाकर देखता हूं वन विभाग के आफिस में . अगर बोनस मिल गया तो इस बार तुझे पायल लाकर दूंगा . जमली ने जल्दी से माड़ा के लिये भात और सुखाये हुए कुक ( जंगली मशरूम ) की सब्जी बना दी . माड़ा को जाते हुए जमली दूर तक देखती रही .
माड़ा जब सुकमा शहर पहुंचा तब दिन के बारह बज चुके थे . माड़ा ने सोचा ज़ल्दी काम हो गया तो आज शाम ही गाँव पहुँच जाऊँगा . तीस किलोमीटर होता ही कितना है . जंगल जंगल पहुँच जाऊँगा रात होने से पहले . कुछ दिनों के बाद पैसा भी मिल जाएगा . जमली को लेकर शहर आऊँगा फिर उसे पायल दिलवाऊंगा . जमली जब पायल पहन कर उसकी तरफ प्यार से देखेगी तो ...
तभी एक कड़कदार आवाज़ ने उसका ध्यान खींचा ' ए इधर आ बे ' माड़ा ने देखा कुछ पायका (शहरी / पुलिस ) लोग उसे बुला रहे थे . ओह यह तो सीआरपीएफ का कैम्प है . माड़ा उन लोगों के पास चला गया . एक सिपाही ने पूछा क्या नाम है बे तेरा ? माड़ा ने अपना नाम बता दिया . दूसरे सिपाही ने पूछा गाँव कौन सा है बे तेरा ? माड़ा ने गाँव का नाम बताया 'जी कोंड्रे '. तीसरे सिपाही ने पूछा इधर क्या कर रहा है बे ? माड़ा ने कहा जी मैं फारेस्ट आफिस में एक काम से आया हूं.
सिपाही हंसने लगे . एक ने माड़ा की पीठ पर जोर से डंडा मारा और कड़क कर बोला साले सीधे से बता हमारा कैम्प उड़ाना चाहते हो ना तुम लोग .
माड़ा कुछ समझ नहीं पाया . चुप रहा . एक सिपाही बोला ऐसे नहीं कबूलेगा अंदर ले चलो साले को . ये साले गोंड लोग बड़े बदमाश होते हैं . मार पड़ेगी तो साला सब कबूल देगा .
माड़ा हाथ जोड़ने लगा . साहब मुझे जाने दो मैंने कुछ नहीं किया .
लेकिन सिपाहियों ने माड़ा को बुरी तरह मारना शुरू कर दिया . माड़ा ज़मीन पर गिर गया . दो सिपाहियों ने माड़ा की एक एक टांग पकड ली और मरे हुए सूअर की तरह घसीटते हुए अपने कैम्प के भीतर ले गये .
माड़ा की लूंगी खुल कर अलग पड़ी थी . सिपाहियों ने माड़ा की लूंगी से उसके हाथ पीछे बाँध दिये . दो दिन तक माड़ा इसी हाल में भूखा प्यासा पड़ा रहा . तीसरे दिन शाम को सभी सिपाही दारू के नशे में धुत्त थे . एक सिपाही ने कहा ऐसे नहीं कबूलेगा पेट्रोल लाओ .
चार सिपाही माड़ा के हाथ पैरों पर खड़े हो गये . एक सिपाही ने माड़ा के गुदा में पेट्रोल डाल दिया . माड़ा बुरी तरह तड़पने लगा . सिपाही हंस रहे थे . माड़ा तीर लगे किसी जंगली जानवर की चिल्ला रहा था . लेकिन कौन सुनता . ऐसी आवाजें तो इस कैम्प से रोज ही आती थीं .
एक सिपाही ने माड़ा की हालत देख कर कहा 'देखो अब असली मज़ा मैं दिखाता हूं ' . और सिपाही ने नग्न तड़प रहे माड़ा के लिंग पर पेट्रोल डाल दिया . माड़ा का शरीर दर्द के कारण ऐंठने लगा . तभी एक सिपाही ने मादा के लिंग पर माचिस की एक तीली जला कर फेंक दी . माड़ा का आधा शरीर जल रहा था .
सारे सिपाही चारों तरफ खड़े होकर काफी देर तक हंसते रहे . कुछ देर तड़पने के बाद माड़ा जोर से डकराया और फडफडा कर शांत हो गया .
सीआरपीएफ वाले माड़ा की लाश को पड़ोस में बने पुलिस थाने में ले गये माड़ा की लूंगी माड़ा की गर्दन से बाँध दी गई .लूंगी का दूसरा सिरा खिड़की से बाँध दिया गया .
इसके बाद स्थानीय पत्रकारों को बुलाया गया . पुलिस ने पत्रकारों से कहा कि हमने पूछताछ के लिये इस व्यक्ति को आज ही थाने बुलाया था . लेकिन इसने चादर से खुद को फांसी लगा ली .
कुछ मानवाधिकारवादी शोर शराबा करने लगे . दो दिन बाद मुख्यमंत्री रमन सिंह शहर में आने वाले थे . सुकमा को जिला बनाने का भव्य समारोह होना था .
पुलिस ने सबका मुंह बंद करने के लिये चार सिपाहियों को निलम्बित कर दिया . सिपाही अखबार वालों से बोले कि मारा तो सीआरपीएफ ने और बदनाम हुए हम . खैर कोई बात नहीं कुछ दिनों बाद तो हमें बहाल ही हो जाना है . कौन सा हमें फांसी हो जायेगी ?
पत्रकारों ने जिला बनने के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री रमन सिंह से इस मामले का ज़िक्र किया रमन सिंह दूसरी तरफ देखने लगे .
माड़ा की लाश जमली को वापिस दे दी गई . जमली ने तेंदू पत्ते बेच कर जो पैसे बचाए थे वो लाश गाड़ी को देने में खर्च हो गये .
जमली से मिलने मैंने एक महिला पत्रकार को उसके गाँव भेजा था .
कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस मामले में उसके बाद कुछ नहीं हुआ .

लेखक- हिमांशु कुमार मानवाधि‍कारों के लि‍ए छत्‍तीसगढ़ में लंबे अर्से से संघर्षरत हैं।

Tuesday, July 5, 2016

गुजरात फाइल्स: 'मोदी जी मूर्ख बनाते हैं और लोग बन जाते हैं'

जी एल सिंघल के बाद राना अयूब की मुलाकात गुजरात एटीएस के पूर्व डायरेक्टर जनरल राजन प्रियदर्शी से हुई। वो बेहद ईमानदार और अपने कर्तव्यों का पालन करने वाले नौकरशाह के तौर पर जाने जाते रहे हैं। दलित समुदाय से आने के चलते व्यवस्था में उन्हें अतिरिक्त परेशानियों का भी सामना करना पड़ा। लेकिन वो अपने पद की गरिमा को हमेशा बनाए रखे। शायद यही वजह है कि वह सरकार के किसी गलत काम का हिस्सा नहीं बने। नतीजतन किसी भी गलत मामले में कानून के शिकंजे में नहीं आए। पेश है इस श्रृंखला की दूसरी किस्तः
गुजरात फाइल्स- पार्ट- 2
राजन प्रियदर्शी, पूर्व डायरेक्टर जनरल, एटीएस गुजरात

प्रश्नः आपके मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात में बहुत लोकप्रिय हैं?
उत्तरः हां, वो सबको मूर्ख बना लेते हैं और लोग भी मूर्ख बन जाते हैं।
प्रश्नः यहां कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं न? शायद ही कोई अफसर ठीक हो?
उत्तरः बहुत कम ही ऐसे हैं। ये शख्स मुख्यमंत्री पूरे राज्य में मुसलमानों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार है।
 प्रश्नः जब से मैं यहां आई हूं प्रत्येक व्यक्ति सोहराबुद्दीन एनकाउंटर की बात कर रहा है?
उत्तरः पूरा देश उस एनकाउंटर की बात कर रहा है। मंत्री के इशारे पर सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति की हत्या की गई थी। मंत्री अमित शाह वह कभी भी मानवाधिकारों में विश्वास नहीं करता था। वह हम लोगों को बताया करता था कि ‘मैं मानवाधिकार आयोगों में विश्वास नहीं करता हूं’। अब देखिये, अदालत ने भी उसे जमानत दे दी।
 प्रश्नः तो आपने उनके (अमित शाह) मातहत कभी काम नहीं किया?
उत्तरः किया था। जब मैं एटीएस का चीफ था।..........एक दिन उसने मुझे अपने बंग्ले पर बुलाया। जब मैं पहुंचा तो उसने कहा ‘अच्छा, आपने एक बंदे को गिरफ्तार किया है ना, जो अभी आया है एटीएस में, उसको मार डालने का है।’
मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई। तब उसने कहा कि ‘ देखो मार डालो, ऐसे आदमी को जीने का कोई हक नहीं है’। उसके बाद मैं सीधे अपने दफ्तर आया और अपने मातहतों की बैठक बुलाई। मुझे इस बात का डर था कि अमित शाह उनमें से किसी को सीधे आदेश देकर उसे मरवा डालेगा। इसलिए मैंने उन्हें बताया कि मुझे गिरफ्तार शख्स को मारने का आदेश दिया गया है। लेकिन कोई उसे छूएगा भी नहीं। उससे केवल पूंछताछ करनी है। मुझसे कहा गया था। लेकिन मैं उस काम को नहीं कर रहा हूं। इसलिए आप लोग भी ऐसा नहीं करेंगे।
आपको पता है जब मैं राजकोट का आईजीपी था तब जूनागढ़ के पास सांप्रदायिक दंगे हुए। मैंने कुछ लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की। गृहमंत्री (तब गोर्धन झड़पिया थे) ने मुझे फोन किया और पूछा राजनजी आप कहां हैं? मैंने कहा सर मैं जूनागढ़ में हूं। उसके बाद उन्होंने कहा कि अच्छा तीन नाम लिखिए और इन तीनों को गिरफ्तार कर लीजिए। मैंने कहा कि ये तीनों मेरे साथ बैठे हुए हैं और तीनों मुसलमान हैं और इन्हीं की वजह से हालात सामान्य हुए हैं। यही लोग हैं जिन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को एक दूसरे के करीब लाने का काम किया है। और फिर दंगा खत्म हुआ है। उसके बाद उन्होंने कहा कि देखो सीएम साहिब का आदेश है। तब यही शख्स नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री था। मैंने कहा कि सर मैं ऐसा नहीं कर सकता। भले ही यह सीएम का आदेश ही क्यों न हो। क्योंकि ये तीनों निर्दोष हैं।

 प्रश्नः तो क्या यहां की पुलिस मुस्लिम विरोधी है?
उत्तरः नहीं, वास्तव में ये नेता हैं। ऐसे में अगर कोई अफसर उनकी बात नहीं सुनता है तो ये उसे किनारे लगा देते हैं।
 प्रश्नः वो व्यक्ति जिसको अमित शाह खत्म करने की बात कहे थे क्या वो मुस्लिम था?
उत्तरः नहीं, नहीं, वो उसको किसी व्यवसायिक लॉबी के दबाव में खत्म कराना चाहते थे।
 साभारः गुजरात फाइल्स, अनुवाद- महेंद्र मि‍श्र

Monday, July 4, 2016

गुजरात फाइल्‍स: अफसरों की जुबानी-मोदी अमि‍त शाह की काली कहानी

कुछ सालों पहले तक उत्तर प्रदेश पूरे देश का नेतृत्व किया करता था। लेकिन लगता है कि देश को सात-सात प्रधानमंत्री देने वाले इस सूबे की राजनीति अब बंजर हो गई है। इसकी जमीन अब नेता नहीं पिछलग्गू पैदा कर रही है। ऐसे में सूबे को नेता आयातित करने पड़ रहे हैं। इस कड़ी में प्रधानमंत्री मोदी से लेकर उनके शागिर्द अमित शाह और स्मृति ईरानी तक की लंबी फेहरिस्त है। स्तरीय नेतृत्व हो तो एकबारगी कोई बात नहीं है। लेकिन चीज आयातित हो और वह भी खोटा। तो सोचना जरूर पड़ता है। यहां तो तड़ीपार से लेकर दंगों के सरदार और फर्जी डिग्रीधारी सूबे को रौंद रहे हैं। इस नये नेतृत्व की हकीकत क्या है। इसकी कुछ बानगी पत्रकार राना अयूब की गुजरात दंगों और दूसरे गैर कानूनी कामों पर खोजी पुस्तक ‘गुजरात फाइल्स’ में मौजूद है। मोदी जी और अमित शाह से जुड़े इसके कुछ अशों को उसी रूप में देने की हम कोशिश कर रहे हैं। जिसमें गुजरात के आला अफसरों के इनके बारे में विचार हैं। ये आधा दर्जन से ज्यादा पोस्ट तक खिंच सकती है। इसको पढ़ने के बाद आपके लिए इस ‘आयातित नेतृत्व’ के बारे में किसी नतीजे पर पहुंचना आसान हो जाएगा।
जी एल सिंघल, पूर्व एटीएस चीफ, गुजरात
प्रश्नः ऐसी क्या चीज है जिसके चलते गुजरात पुलिस हमेशा चर्चे में रहती है? खासकर विवादों को लेकर?
उत्तरः यह एक हास्यास्पद स्थिति है। अगर कोई शख्स अपनी शिकायत लेकर हमारे पास आता है और हम उसे संतुष्ट कर देते हैं तो उससे सरकार नाराज हो जाती है। और अगर हम सरकार को खुश करते हैं तो शिकायतकर्ता नाराज हो जाता है। ऐसे में हम क्या करें? पुलिस के सिर पर हमेशा तलवार लटकी रहती है।
एनकाउंटर में शामिल ज्यादातर अफसर दलित और पिछड़ी जाति से थे। राजनीतिक व्यवस्था ने इनमें से ज्यादातर का पहले इस्तेमाल किया और फिर फेंक दिया।
प्रश्नः मेरा मतलब है कि आप सभी वंजारा, पांडियन, अमीन, परमार और ज्यादातर दूसरे अफसर निचली जाति से हैं। सभी ने सरकार के इशारे पर काम किया। जिसमें आप भी शामिल हैं। ऐसे में ये इस्तेमाल कर फेंक देने जैसा नहीं है?
उत्तरः ओह हां, हम सभी। सरकार ऐसा नहीं सोचती है। वो सोचते हैं कि हम उनके आदेशों का पालन करने के लिए बाध्य हैं। और बने ही हैं उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए। प्रत्येक सरकारी नौकर जो भी काम करता है वो सरकार के लिए करता है। और उसके बाद समाज और सरकार दोनों उसे भूल जाते हैं। वंजारा ने क्या नहीं किया। लेकिन अब कोई उसके साथ खड़ा नहीं है।
प्रश्नः लेकिन ये अमित शाह के साथ क्या चक्कर है। मैंने आपके अफसरों के बारे में भी सुना.........मेरा मतलब है कि वहां अफसर-राजनीतिक गठजोड़ जैसी कुछ बात है। खास कर एनकाउंटरों के मामले में। मुझे ऐसा बहुत सारे दूसरे मंत्रियों से मिलने के बाद महसूस हुआ।
उत्तरः देखिये, यहां तक कि मुख्यमंत्री भी। सभी मंत्रालय और जितने मंत्री हैं। सब रबर की मुहरें हैं। सभी निर्णय मुख्यमंत्री द्वारा लिए जाते हैं। जो भी फैसले मंत्री लेते हैं उसके लिए उन्हें मुख्यमंत्री से इजाजत लेनी पड़ती है। सीएम कभी सीधे सीन में नहीं आते हैं। वो नौकरशाहों को आदेश देते हैं।
प्रश्नः उस हिसाब से तो आपके मामले में अगर अमित शाह गिरफ्तार हुए तो सीएम को भी होना चाहिए था?
उत्तरः हां, ये मुख्यमंत्री मोदी जैसा कि अभी आप बोल रही थीं अवसरवादी है। अपना काम निकाल लिया।
प्रश्नः अपना गंदा काम
उत्तर- हां
प्रश्नः लेकिन सर आप लोगों ने जो किया वो सब सरकार और राजनीतिक ताकतों के इशारे पर किया। फिर वो क्यों जिम्मेदार नहीं हैं?
उत्तरः व्यवस्था के साथ रहना है तो लोगों को समझौता करना पड़ता है।
साभारः गुजरात फाइल्स। अनुवाद- महेंद्र मि‍श्र