पेलेट गन यानी युवकों को अंधा बनाने की मशीन
महेंद्र मिश्र
पेलेट गनों को अंधा बनाने वाली मशीन कहें तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। भीड़ को काबू करने के लिए बनाई गई
ये गनें कश्मीर में अब तक 150 से ज्यादा लोगों की आंखे ले चुकी हैं। इससे चोटिल हजारों लोग अस्पताल में भर्ती हैं। भारत में इनका इस्तेमाल पहली बार 2010 में हुआ था। वह भी घाटी में ही प्रदर्शनकारियों के खिलाफ। उस दौरान सुरक्षा बलों और स्थानीय प्रदर्शनकारियों के बीच की झड़पों में 120 लोगों की मौत हुई थी।
सवाल यह है कि आखिरकार जम्मू-कश्मीर के नागरिकों पर ही इन गनों का इस्तेमाल क्यों? सरकार ने सबको आतंकी मान लिया है या फिर उन्हें दुश्मन घोषित कर दिया गया है या घाटी से बिल्कुल उम्मीद छोड़ दी है? इससे भी ज्यादा दंगे और उत्पात तो हाल के दिनों में देश के दूसरे हिस्सों में हुए हैं। कश्मीर से चंद फासले पर स्थित हरियाणा में जाटों के उत्पात को अभी कोई भूला नहीं होगा। उपद्रवी भीड़ ने न केवल अराजकता फैलाई बल्कि सूबे की अरबों की संपत्ति खाक में मिला दी। कई महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार तक की खबरें आईं। रोकने के लिए सेना भी उतारी गई। लेकिन इन गनों का इस्तेमाल नहीं किया गया। प्रधानमंत्री मोदी के अपने गृहराज्य में पाटीदारों के आंदोलन ने हिंसा की सारी सीमाएं तोड़ दीं। लेकिन सरकार ने वहां भी इनका इस्तेमाल जरूरी नहीं समझा। यहां तक कि इस बीच यूपी सहित देश के कई इलाकों में सांप्रदायिक दंगे हुए, लेकिन पेलेट गनों का नाम तक नहीं सुना गया। ऐसे में सवाल यह है कि जब जम्मू-कश्मीर देश का अभिन्न हिस्सा है और वहां के नागरिक भी उतने ही अपने हैं तो फिर उनके साथ ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों?
अगर बनावट की बात करें तो पेलेट गनों की गोलियां लोहे की बनी होती हैं। इनका वजन और आकार अलग-अलग हो सकता है। धातु की बनी होने के बावजूद प्रभाव को कम करने के लिहाज से कई बार इन पर प्लास्टिक की 1 से 2 मिमी मोटी परत चढ़ा दी जाती है। मारक क्षमता के लिहाज से ये गोलियां बहुत घातक साबित होती हैं। इनसे इंसान की जान भी जाने की आशंका रहती है। बताया जाता है कि 2010 के प्रदर्शन के दौरान इन गोलियों से छह लोगों की मौत हो गई थी।
बुरहान वानी की मौत के विरोध में प्रदर्शनकारी भीड़ पर भी सीआरपीएफ इन्हीं गनों का इस्तेमाल कर रही है। उपयोग में लाई जा रही इन गोलियों में प्लास्टिक की परतें भी नहीं चढ़ी हैं। गोलियों को जवान 12 बोर की एक गन से छोड़ते हैं। एक कारतूस में 600 पेलेट होती हैं। फायरिंग के बाद ये फैल कर लक्ष्य की तरफ बढ़ती हैं। आमतौर पर माना जाता है कि केवल प्रदर्शनकारियों पर ही इनका इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन सच्चाई ये है कि घरों में बैठे लोग या किचेन में काम करने वाली महिलाएं भी इसका शिकार हो रही हैं।
नियम और शर्तों की जहां तक बात है तो पेलेट को चलाने के लिए लक्ष्य से कम से कम 500 फुट का फासला होना चाहिए। पेलेट गन को हमेशा कमर के नीचे लक्ष्य करके चलाना होता है। लेकिन इन शर्तों का खुला उल्लंघन हो रहा है। यही वजह है कि चार दिनों के भीतर कश्मीर के श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल में 92 लोगों की आंखों की सर्जरी की जा चुकी है। दूसरे अस्पतालों के आंकड़े तो अलग हैं। इसकी विभीषिका को देखते हुए दिल्ली स्थित एम्स के चिकित्सकों ने इन गोलियों के इस्तेमाल पर तत्काल रोक लगाने की सलाह दी है।
सरकार जिस तरह धड़ल्ले से इसका इस्तेमाल कर ही है उससे ऐसा लगता है कि वह इसे 2010 की कामयाबी से जोड़कर देख रही है। इसमें संदेह नहीं कि तब प्रदर्शनों पर रोक लगाने में सरकार सफल रही थी, लेकिन जिन क्षेत्रों में भी इन गनों का इस्तेमाल हुआ, वहां के लोगों के दिल फिर नहीं जीते जा सके। अगर हम कश्मीर में शांति की कीमत कश्मीरियों को खोने के रूप में नहीं चुकाना चाहते तो पेलेट गनों के इस्तेमाल पर तुरंत पुर्विचार करने में हमें हिचकना नहीं चाहिए। (यह लेख नवभारत टाइम्स के 20 जुलाई 2016 के संपादकीय पेज पर प्रकाशित है।)
पेलेट गनों को अंधा बनाने वाली मशीन कहें तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। भीड़ को काबू करने के लिए बनाई गई
ये गनें कश्मीर में अब तक 150 से ज्यादा लोगों की आंखे ले चुकी हैं। इससे चोटिल हजारों लोग अस्पताल में भर्ती हैं। भारत में इनका इस्तेमाल पहली बार 2010 में हुआ था। वह भी घाटी में ही प्रदर्शनकारियों के खिलाफ। उस दौरान सुरक्षा बलों और स्थानीय प्रदर्शनकारियों के बीच की झड़पों में 120 लोगों की मौत हुई थी।
बेग आमिर के सिर में घुसी पेलेट गन की गोलियां |
अगर बनावट की बात करें तो पेलेट गनों की गोलियां लोहे की बनी होती हैं। इनका वजन और आकार अलग-अलग हो सकता है। धातु की बनी होने के बावजूद प्रभाव को कम करने के लिहाज से कई बार इन पर प्लास्टिक की 1 से 2 मिमी मोटी परत चढ़ा दी जाती है। मारक क्षमता के लिहाज से ये गोलियां बहुत घातक साबित होती हैं। इनसे इंसान की जान भी जाने की आशंका रहती है। बताया जाता है कि 2010 के प्रदर्शन के दौरान इन गोलियों से छह लोगों की मौत हो गई थी।
बुरहान वानी की मौत के विरोध में प्रदर्शनकारी भीड़ पर भी सीआरपीएफ इन्हीं गनों का इस्तेमाल कर रही है। उपयोग में लाई जा रही इन गोलियों में प्लास्टिक की परतें भी नहीं चढ़ी हैं। गोलियों को जवान 12 बोर की एक गन से छोड़ते हैं। एक कारतूस में 600 पेलेट होती हैं। फायरिंग के बाद ये फैल कर लक्ष्य की तरफ बढ़ती हैं। आमतौर पर माना जाता है कि केवल प्रदर्शनकारियों पर ही इनका इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन सच्चाई ये है कि घरों में बैठे लोग या किचेन में काम करने वाली महिलाएं भी इसका शिकार हो रही हैं।
नियम और शर्तों की जहां तक बात है तो पेलेट को चलाने के लिए लक्ष्य से कम से कम 500 फुट का फासला होना चाहिए। पेलेट गन को हमेशा कमर के नीचे लक्ष्य करके चलाना होता है। लेकिन इन शर्तों का खुला उल्लंघन हो रहा है। यही वजह है कि चार दिनों के भीतर कश्मीर के श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल में 92 लोगों की आंखों की सर्जरी की जा चुकी है। दूसरे अस्पतालों के आंकड़े तो अलग हैं। इसकी विभीषिका को देखते हुए दिल्ली स्थित एम्स के चिकित्सकों ने इन गोलियों के इस्तेमाल पर तत्काल रोक लगाने की सलाह दी है।
सरकार जिस तरह धड़ल्ले से इसका इस्तेमाल कर ही है उससे ऐसा लगता है कि वह इसे 2010 की कामयाबी से जोड़कर देख रही है। इसमें संदेह नहीं कि तब प्रदर्शनों पर रोक लगाने में सरकार सफल रही थी, लेकिन जिन क्षेत्रों में भी इन गनों का इस्तेमाल हुआ, वहां के लोगों के दिल फिर नहीं जीते जा सके। अगर हम कश्मीर में शांति की कीमत कश्मीरियों को खोने के रूप में नहीं चुकाना चाहते तो पेलेट गनों के इस्तेमाल पर तुरंत पुर्विचार करने में हमें हिचकना नहीं चाहिए। (यह लेख नवभारत टाइम्स के 20 जुलाई 2016 के संपादकीय पेज पर प्रकाशित है।)
1 comment:
Nice to read ,,,,,,,, great.........
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