जुमलों की सरकार का जंबो मंत्रिमंडल
केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार कुछ और नहीं बल्कि मोदी सरकार की नाकामी की खुली बयानी है। दो दर्जन से ज्यादा मंत्रियों के विभागों में फेरबदल इसी तरफ इशारा करता है। हालांकि बेहद चालाकी के साथ मोदी जी ने अपनी नाकामी का ठीकरा मंत्रियों के सिर पर फोड़ने की कोशिश की है। लेकिन सच यह है कि मोदी शासन में मंत्री महज रबर की मुहरें हैं। काम पीएमओ काम करता है। फिर जिसने काम किया ही नहीं उसकी क्या समीक्षा? कसौटी पर तो पीएमओ है।
चंद मंत्रालयों को छोड़कर बाकी सभी पर उंगली उठा दी गई है। सबसे बड़ा झटका तो सरकार के चाणक्य अरुण जेटली को लगा है। यह बात अब साफ हो गई है कि सरकार चलाने वाली मोदी-शाह-जेटली की तिकड़ी से जेटली बाहर हो गए हैं। शुरू में दिल्ली में पैर जमाने के लिए दोनों गुजराती नेताओं को उनकी जरूरत जरूर थी। लेकिन अब उन्हें किसी बैसाखी की दरकार नहीं है।
इस मामले में आधा काम सुब्रह्मण्यम स्वामी ने पहले ही कर दिया था। बाकी मंत्रिमंडल विस्तार में हो गया। पहले कंपनी मामले का मंत्रालय छिना था। अब सूचना और प्रसारण भी जाता रहा। और इस बात की पूरी आशंका है कि जयंत सिन्हा को हटाने और जेटली जी के कंधे पर दो राज्य मंत्रियों को लादने के फैसले पर शायद ही उनकी राय ली गई हो। स्मृति ईरानी, वीके सिंह और महेश चंद शर्मा का कद उनके अनावश्यक विवादों ने नाप दिया। यह बात साफ हो गई है कि विवाद भी अनुशासन मांगता है। और उसके लिए भी मोदी के इशारे की जरूरत होगी।
हालांकि आगामी यूपी और गुजारत के चुनावों के मद्देनजर सामाजिक समीकरण पर ज्यादा जोर दिया गया है। विस्तार के 19 मंत्रियों में 10 का पिछड़े और दलित समुदाय से होना और यूपी से तीन मंत्रियों को शपथ इसी का संकेत है। लेकिन यह भी सरकार में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के ही दायरे में है। इनकी हैसियत कैबिनेट में इनके परंपरागत मंत्रालयों महिला, अल्पसंख्यक और सामाजिक कल्याण से आगे नहीं बढ़ सकी है। उससे आगे बढ़े भी तो दूसरे कैबिनेट मंत्रियों के अटैची बनने तक। सामाजिक कल्याण मंत्रालय तो मानों डंपिंग ग्राउंड बन गया है। यहां तीन-तीन राज्य मंत्री एक साथ सधाए गए हैं।
हां, मोदी जी ने अपने मंत्रिमंडल को साफ-सुथरा बनाने का प्रयास जरूर किया है। निहाल चंद और राम शंकर कठेरिया का मंत्रिमंडल से हटाया जाना इसी कड़ी का हिस्सा है। अब यह तात्कालिक चुनावों के मद्देनजर किया गया है। या फिर मंत्रिमंडल का स्थाई भाव होगा। कह पाना मुश्किल है। लेकिन यह बात तब तक पूरी नहीं होती जब तक दंगों के आरोपी संजीव बालियान और दूसरे मंत्रिमंडल में बने रहते हैं। वैसे भी प्रदूषित स्रोत से साफ पानी की उम्मीद बेमानी है।
आखिर में जंबो मंत्रिमंडल का गठन कर मोदी जी ने ‘कम सरकार, ज्यादा शासन’ के अपने एक और नारे को जुमला साबित कर दिया है। वैसे भी किसी भ्रम में रहने की जरूरत नहीं है। क्योंकि सरकार के आधा से ज्यादा मंत्री दो सालों के भीतर अभी अपने विभागों के कामकाज को समझ पाए थे। अब वह किसी बड़े फैसले या फिर पूरे विश्वास के साथ मंत्रालय को चलाने में सक्षम हो रहे थे। लेकिन बीच में ही उन्हें किसी दूसरे विभाग की जिम्मेदारी देकर एक बार फिर इंटर्न की स्थिति में खड़ा कर दिया गया है। ऐसे में उनसे कोई बड़ी उम्मीद करना उनके साथ भी अन्याय होगा।
लेखक महेंद्र मिश्र राजनीतिक कार्यकर्ता व वरिष्ठ पत्रकार हैं।
चंद मंत्रालयों को छोड़कर बाकी सभी पर उंगली उठा दी गई है। सबसे बड़ा झटका तो सरकार के चाणक्य अरुण जेटली को लगा है। यह बात अब साफ हो गई है कि सरकार चलाने वाली मोदी-शाह-जेटली की तिकड़ी से जेटली बाहर हो गए हैं। शुरू में दिल्ली में पैर जमाने के लिए दोनों गुजराती नेताओं को उनकी जरूरत जरूर थी। लेकिन अब उन्हें किसी बैसाखी की दरकार नहीं है।
इस मामले में आधा काम सुब्रह्मण्यम स्वामी ने पहले ही कर दिया था। बाकी मंत्रिमंडल विस्तार में हो गया। पहले कंपनी मामले का मंत्रालय छिना था। अब सूचना और प्रसारण भी जाता रहा। और इस बात की पूरी आशंका है कि जयंत सिन्हा को हटाने और जेटली जी के कंधे पर दो राज्य मंत्रियों को लादने के फैसले पर शायद ही उनकी राय ली गई हो। स्मृति ईरानी, वीके सिंह और महेश चंद शर्मा का कद उनके अनावश्यक विवादों ने नाप दिया। यह बात साफ हो गई है कि विवाद भी अनुशासन मांगता है। और उसके लिए भी मोदी के इशारे की जरूरत होगी।
हालांकि आगामी यूपी और गुजारत के चुनावों के मद्देनजर सामाजिक समीकरण पर ज्यादा जोर दिया गया है। विस्तार के 19 मंत्रियों में 10 का पिछड़े और दलित समुदाय से होना और यूपी से तीन मंत्रियों को शपथ इसी का संकेत है। लेकिन यह भी सरकार में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के ही दायरे में है। इनकी हैसियत कैबिनेट में इनके परंपरागत मंत्रालयों महिला, अल्पसंख्यक और सामाजिक कल्याण से आगे नहीं बढ़ सकी है। उससे आगे बढ़े भी तो दूसरे कैबिनेट मंत्रियों के अटैची बनने तक। सामाजिक कल्याण मंत्रालय तो मानों डंपिंग ग्राउंड बन गया है। यहां तीन-तीन राज्य मंत्री एक साथ सधाए गए हैं।
हां, मोदी जी ने अपने मंत्रिमंडल को साफ-सुथरा बनाने का प्रयास जरूर किया है। निहाल चंद और राम शंकर कठेरिया का मंत्रिमंडल से हटाया जाना इसी कड़ी का हिस्सा है। अब यह तात्कालिक चुनावों के मद्देनजर किया गया है। या फिर मंत्रिमंडल का स्थाई भाव होगा। कह पाना मुश्किल है। लेकिन यह बात तब तक पूरी नहीं होती जब तक दंगों के आरोपी संजीव बालियान और दूसरे मंत्रिमंडल में बने रहते हैं। वैसे भी प्रदूषित स्रोत से साफ पानी की उम्मीद बेमानी है।
आखिर में जंबो मंत्रिमंडल का गठन कर मोदी जी ने ‘कम सरकार, ज्यादा शासन’ के अपने एक और नारे को जुमला साबित कर दिया है। वैसे भी किसी भ्रम में रहने की जरूरत नहीं है। क्योंकि सरकार के आधा से ज्यादा मंत्री दो सालों के भीतर अभी अपने विभागों के कामकाज को समझ पाए थे। अब वह किसी बड़े फैसले या फिर पूरे विश्वास के साथ मंत्रालय को चलाने में सक्षम हो रहे थे। लेकिन बीच में ही उन्हें किसी दूसरे विभाग की जिम्मेदारी देकर एक बार फिर इंटर्न की स्थिति में खड़ा कर दिया गया है। ऐसे में उनसे कोई बड़ी उम्मीद करना उनके साथ भी अन्याय होगा।
लेखक महेंद्र मिश्र राजनीतिक कार्यकर्ता व वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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