Friday, December 23, 2011

साहस

फेसबुक पर स्टेटस अपडेट करते ही लगातार कमेंट आने शुरू हो गए थे। कोई कुछ कह रहा था तो कोई कुछ। इसी बीच किसी ने प्रोफाइल पर एक फोटो भी टैग कर दिया था। फोटो था कि किसी थाली में एक बच्ची रोटी से ढंककर रखी हुई थी। उधर वॉल पर लोग लगातार पोस्ट पर पोस्ट किए जा रहे थे मानो बरसात के बाद की हरी घास उगने से रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। कमेंट की कोपलें भले ही न फूट रही हों पर पोस्ट के पोस्ट हरे होकर लहलहा रहे थे। टि्‌वटर का भी काफी कुछ यही हाल था लेकिन इन सबके बीच चाय की खत्म हो गई पाी की चिंता सता रही थी। अब चाय की पाी खत्म होने की चिंता तो फेसबुक पर पोस्ट तो की नहीं जा सकती थी। कुछ चाय की तलब तो कुछ लिखने की मजबूरी और काफी कुछ अकेलेपन ने अपूर्वा को बाजार की तरफ धकेल ही दिया। कम से कम बाजार में भीडङ्ग तो मिलेगी। लोग दिखेंगे, लोगों के चेहरे दिखेंगे। जाड़ों में बोरोलीन की चिपचिपाहट से भरे चेहरों में कुछ तलाश शायद खत्म हो। या कुछ तलाशने की कोशिश ही की जाए। अब ये तलाश कोई दो सलाई लेकर स्वेटर बुनना तो है नहीं कि दो सलाइयां एक दूसरे से भिड़ाते रहे और दिन भर में एक आस्तीन तो बुनकर रख ही दी। गाना भी याद आ रहा था...मेरा कुछ सामान...तुहारे पास पड़ा है, मेरा सामान लौटा दो....खैर बाजार में भीड़ तो ज्यादा नहीं थी लेकिन रोशनी भरपूर थी। दुकानदार ने चाय की पाी का पैकेट देते वक्त हौले से हाथ सहला दिया। अपूर्वा कुछ नहीं बोली। भला लगा या बुरा, इसका भी チयाल नहीं आया। पैसे दिए तो पैसे लेते वक्त भी उंगलियां जानबूझकर सहला दीं। अपूर्वा को महसूस तो हुआ सहलाना पर भावना महसूस नहीं हुई। दरअसल अकेलेपन में अपूर्वा की छुअन कुछ मर सी चुकी थी। मकान मालकिन बुलाती रह जातीं, पर वो बगैर जवाब दिए ही सरपट सीढ़ी चढ़ती चली जाती।

चाय की पाी तो घर में आ चुकी थी पर चाय पीने की इच्छा सूख चुकी थी...बिलकुल उसी चाय की सूखी हुई पाी की तरह। हिप पर कुछ मांस ज्यादा हो रहा है, शीशा देखते समय अपूर्वा ने सोचा। लेकिन हो भी तो या? करना या है? किसे दिखाना है? फिर ये सोचना ही यों कि हिप पर कुछ मांस ज्यादा हो रहा है। शीशा देखा, मुंह धुला और लैपटॉप लेकर फिर से बिस्तर में घुस गई। ये जितने भी लड़के फेसबुक या टि्‌वटर पर हैं, सब साल भर के ही साथी होते हैं। साल भर बाद या तो लड़के मुझसे बोर हो जाते हैं या फिर मैं इन लड़कों से बोर हो जाती हूं। छुअन मर चुकी है तो या हुआ, अपना छुआ हुआ तो महसूस होता है। कंप्यूटर की घड़ी बता रही थी कि रात के पौने नौ हो चुके हैं। जैसे जैसे रात काली होती जाती है, छुअन की चाहत और उजली होकर भक से सामने आ जाती है। अब छोड़ो भी, जब तय कर लिया कि अकेले ही खड़े होना है तो अकेले ही खड़े होना है। इस बार फेसबुक नहीं खोलूंगी। अपूर्वा ने सोचा। जीमेल खोला तो फेसबुक पर आए ढेरों कमेंट मुंह बाए सामने रखे हुए थे। लेकिन एक भी वो कमेंट नहीं था, जिसकी अपूर्वा को तलाश थी। जो उसे कब्र से निकाल कर कब्रिस्तान की हरियाली दिखाए। कब्रिस्तान के पुराने दरチतों से फूटती ताजी कोपलों की लाली से जो रस टपकता है, उसका स्वाद दिलाए...कोई ऐसा कमेंट करने वाला मिला ही नहीं।
रात के साढ़े दस बज गए थे। अपनेपन के गहरे नशे में डूबी अपूर्वा को पता ही नहीं चल पा रहा था कि घड़ी आखिरकार इतनी तेजी से भाग कैसे रही है। ये अपनापन भी अजीब चीज है। हम जानते हैं कि हम हैं फिर भी हम मानने के लिए तैयार ही नहीं होते कि हम हैं। हम अपनी परिकल्पना बगैर किसी दूसरे के कर ही नहीं पाते। ठीक वैसे ही जैसे कि रेखागणित या बीज गणित। एक दूसरे के बराबर कैसे होगा। या एक दूसरे के बराबर किस सिद्धांत से होगा। स्टेटस तो अपूर्वा ने अपडेट नहीं किया, अलबाा उंगलियां फोड़ने में लग गई। एक उंगली फूटी तो दूसरी फोड़ी, दूसरी फोड़ी तो तीसरी फोड़ी....पर ये कैसे समझ में आएगा कि हम अकेले ही हैं। कैसे समझ में आएगा। भले ही सपने में देख ले कि रामलीला के सारे किरदार उसके साथ होली खेल रहे हैं। उसके सीने पर... उसके हिप्स पर रंग लगा रहे हैं...फिर भी वह छुअन महसूस ही नहीं कर पा रही है। या रामलीला के सारे किरदार झूठे हैं?
जारी....

Saturday, December 10, 2011

कहानी

घर से निकलते वक्त उसने सोचा नहीं कि जाना कहां है, बस एक झोंक में निकल गया। इतना जरूर सोचा कि बस जाना है, चले जाना है। कूकर की सीटी बज रही थी। शायद आलू उबालने को डाले होंगे। रोज रोज उबला हुआ आलू ही तो मिलता है। तंग आ गया है वो। पर किससे? उबले हुए आलू से या उबल रही जिंदगी से? या फिर जाना कहां है, इस सवाल से? इतने सारे सवाल, पर जवाब एक भी नहीं सूझ रहा था। शायद इसीलिए उसने यह सोचने की जहमत नहीं उठाई कि जाना कहां है।
चमन नाम है इसका। नाम पर मत जाइये, नाम में या रखा है? बाबा शेकेस्पियर भी कह गए थे। कहावत भी है आंख के अंधे नाम नयनसुख। बहरहाल चमन की जिंदगी में फूल कम और झड़ रहे पत्ते ज्यादा मिले। कभी किसी नाम से तो कभी किसी नाम से। अब इतने सारे नाम एक साथ तो याद नहीं रखे जा सकते। एक एक करके ही याद आते हैं। जिंदगी भी या चीज है... एक एक करके जीते हैं, एक साथ नहीं जी सकते, एक बार में नहीं जी सकते। टूटती जुड़ती बिखरती सिमटती जिंदगी।
बाइक में किक लगाई, एक्सीलेटर लेना शुरू किया। घूं घूं करके इंजन बार बार बंद हो रहा था। किसी तरह स्टार्ट की और निकल पड़ा। शहर, शहर की सड़कें और शहर की गलियां। एक भी तो उसे नहीं पहचानतीं। लोग भी उसे बगैर देखे निकल रहे हैं। लड़कियों को वो देख रहा है पर उसे लड़कियां नहीं देख रहीं। सपाट चेहरा, चेहरे पर कोई भाव नहीं। भाव होता तो शायद लोग देखते। पर अभी वह पागलपन तक नहीं पहुंचा। भाव तो पागलों के चेहरे पर आते हैं, कभी हंसने के तो कभी रोने के। कभी ठहाका लगाकर हंसने के तो कभी बुक्का फाड़कर रोने के। वह सोचने लगा कि यों न वह भी ऐसा ही करे। बेवजह हंसने लगे, बेवजह रोने लगे। या पागल भी चीजें बेवजह करते होंगे? उस दिन साइकैट्रिस्ट के साथ होने वाले बात उसे याद आने लगी। लोग पागल क्यों होते हैं? दरअसल कोई भी एक चीज जब असहनीय हो जाती है, तो सारी चीजें असहनीय होने लगती हैं। पर दिमाग में हिट लगातार उसी एक चीज का रहता है। मानसिक संतुलन खोने के लिए जरूरी नहीं है कि वही हिट हो, असहनीय चीजों के बंडल में से कोई भी एक हिट मानसिक असंतुलन बिगाड़ देती है। पागल जो हंसता है या रोता है, वह उन्हीं असहनीय चीजों पर हंसता या रोता है। उसे कभी लगता है कि उसका कुछ बिगड़ गया तो कभी लगता है कि सबकुछ बिगड़ गया। यानि कि पागल इमानदार होता है, भावनाओं के प्रति। काश वह भी पागल होता, कम से कम अपनी भावनाओं के प्रति तो ईमानदार होता।
गंज बाजार में तगड़ा जाम लगा था। दिमाग में भी लगा था। पीछे से रिशे वाले बढ़ो बढ़ो चिल्ला रहे थे तो आगे वाले हवा में बढ़ने का इशारा कर रहे थे। दुकानें थीं कि देखने को ही नहीं मिल रही थीं। कम से कम दुकानों पर सजे सामान को भावनाएं दी जा सकती हैं। योंकि पता होता है कि उनमें कोई भावनाएं नहीं होतीं। उनसे किसी तरह की भावनाओं की अपेक्षा भी नहीं होती। कितने ईमानदार होते हैं दुकानों पर सजे सामान। वह एक जैकेट देख रहा था। जैकेट का कॉलर छोटा था जो उसे पसंद तो था, पर मजबूरी थी कि छोटा कॉलर ठंड कैसे बचाएगा। जैकेट के ऊपर वाली जेब भी पसंद नहीं आ रही थी। सो चमन ने जैकेट देखनी बंद कर दी। वो बेल्ट देखने लगा। जबसे कासगंज से आया है, उसकी बेल्ट नहीं मिली। वजन गिर गया तो पैंट भी सरकने लगी। उसे बेल्ट चाहिए। लेकिन अगर पैंट थोड़ी बहुत सरक भी जाती है तो कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। ऐसी ही सरकती उठती जिंदगी भी तो चल ही रही है। और ये तो फैशन बन चुका है। सरकती पैंट पहनना और जब जिंदगी ज्यादा सरक जाए तो धीमे से उठा लेना।
बेल्ट की बेवजह तलाश में गंज बाजार से निकलकर लालकुर्ती पहुंचा। आह, यहां तो काफी सामान हैं। इतने सारे सामानों में एक बेल्ट कैसे तलाश की जाए। इसी भीड़ में तो वो भी खो गया है। खुद को तलाश कर रहा है एक बेवजह बेल्ट की तरह। वैसे बेल्ट तो काफी सारी थीं, पर उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो कौन सी ले। आखिरकार उसने जूते देखने शुरू कर दिए। उसे लग रहा था कि ये सारे जूते एक साथ उसे पड़ रहे हैं। दर्द हो रहा था पर कहां कहां, ये पता नहीं चल पा रहा था। जूते देखते हुए उसे लगा कि अब वो दर्द से उल्टी कर देगा। अचानक उसे डर लगने लगा। जूतों से, बेल्ट से और दुकानदारों से। तुरंत उसने बाइक को रेस दी और किसी सूनसान जगह की तलाश करने लगा। वैसे ये भी अच्छी तलाश है। जगहें सूनसान कभी हुई हैं क्या ? जब खुद के अंदर इतना शोरगुल हो तो कैसे कोई भी जगह सूनसान हो सकती है। आवाजों से उसे दिक्कत हो रही थी। अपनी भी आवाज उसे बहुत बुरी लगने लगी। सोचना भी बुरा लगने लगा, यहां तक कि ये भी सोचना कि वह सोच ही यों रहा है और सोच है ही क्यों ? विचार आते ही क्यों हैं...यही तो सबसे बड़े दुश्मन हैं मेरे। विचार अगर विध्वसं करते हैं तो क्यों न विचारों को छोड़कर शारीरिक विध्वंस किया जाए। पर विध्वंस हो भी किसका? खुद उसका? या किसी और का?
गाड़ी की स्पीड बीस पचीस से ज्यादा नहीं थी। वह करना भी नहीं चाह रहा था। वह परेशान सोच से था पर ये नहीं सोच पा रहा था कि गाड़ी की स्पीड तेज करने से सोच पर बे्रक लगती है। वह ब्रेक नहीं लगाना चाह रहा था। उसे रुकना अच्छा नहीं लग रहा था। चलते जाना, बस बेवजह चलते जाना ही उसकी समझ में आ रहा था। पर ये सोच नहीं थी। ये उसे अच्छा लगने लगा। बेवजह चलने पर सोच रुक रुक कर साथ दे रही थी। विचार खत्म हो रहे थे, पल भर को ही सही, पर खत्म तो हो रहे थे। गाड़ी कहां जा रही थी, इसे लेकर वह कुछ भी नहीं सोच रहा था। बेध्यानी में अचानक गाड़ी घर पहुंच गई। उबले आलू की सजी बन गई होगी...उसने सोचा।

Sunday, October 9, 2011

रंग धर्म

इसकी शुरुआत ही नहीं है। न ही इसका कोई अंत है। हालांकि इस कस्टमायिज किया जा सकता है सभ्यता या असभ्यता की शुरुआत से। रंग हमेशा से हैं और हमेशा रहेंगे। जब ब्रह्मांड में पानी नहीं था, हवा नहीं थी और जीवन नहीं था, तब रंग थे। अमीबा बना और उसके बाद क्रमिक विकास के सिलसिले में मछली और मनुष्य बना। लेकिन रंग बना नहीं। वह तो पहले से ही मौजूद था। रंगों का प्रयोग कहां नहीं होता। अभी जो आप पढ़ रहे हैं, रंग न होते तो या ये पढ़ पाते? रंग अनंत हैं, निराकार हैं। बड़ी अजीब बात है कि हमने इन अनंत रंगों को हरा, पीला, नीला, काला सफेद और पता नहीं या या नाम दे रखे हैं, और आकारों में ढालते रहते हैं।
अनंत को कैद करने की हमेशा से ही मानव इच्छा रही है। कुछ लोगों ने निराकार को निराकार रूप में ही आकार देने की कोशिश की तो कुछ लोगों ने इस निराकार को आकार दिया। जिन्होंने निराकार को निराकार रूप में स्वीकार किया, उन्हें रंगों से कुछ खास मतलब नहीं था। मतलब तो सिर्फ इतना ही था कि जो चीजें उन्हें दिखाई देने वाली हैं, उन्हें साफ दिखाई दें। जिस रंग में दिखाई दे रही हों, उस रंग का नाम उन्हें पता हो। जिन लोगों ने एक आकार बनाया, मूर्ति पूजा की, उन्हें रंगों से विशेष लगाव था। उन्हें पता था कि रंग किस कदर मनुष्य से न सिर्फ जुड़े हैं, बल्कि स्वयं मनुष्य भी एक रंग ही है। मानव सभ्यता ने इन रंगों को तहस नहस करके रख दिया। एक काला तो एक सफेद, एक लाल तो एक पीला, एक भूरा तो एक ... रंगों ने मानव जाति का विभाजन नहीं किया, रंगों से समूची मानव प्रजाति विभाजित कर दी गई।
विभाजन तो हुआ पर व्यवस्था नहीं बन पाई। व्यवस्था बनाने के लिए, जाहिर है कि हर किसी को एक पहचान की जरूरत हुई। अब तक जो रंग मनुष्य की पहचान बने थे, और जिनके आधार पर विभाजन किया गया था, वह गौड़ हो गए और किन्हीं दूसरे रंगों ने पहचान ले ली। यह रंग खतरनाक हो चुके थे। रंगों को धर्म से जोड़ा जा चुका था। ईसाई थे तो वह किन्हीं दूसरे रंगों का इस्तेमाल करते, बौद्ध दूसरे, मुसलमान किसी और रंग का तो हिंदू और पारसी किसी दूसरे रंग का। मानव रंग के विभाजन के साथ ही धर्म रंग और जाति रंग भी विभाजित होना शुरू हो गए। किसी ने सफेद अपनाया तो किसी ने हरा। किसी ने कत्थई अपनाया तो किसी ने केसरिया। रंगों के मानव स्वभाव से जुड़े होने की वजह से प्रेम और नफरत भी शुरू हो गई। अपने रंग से प्रेम और दूसरे रंग से नफरत। रंग की यह मानसिकता सिखाई गई और इसे रंग ने नहीं सिखाया। इसे मनुष्य ने ही अपने वंशजों को सिखाया। यह प्रकृति का सबसे बड़ा विध्वंस था। इसका खामियाजा मनुष्य को भुगतना ही था और मनुष्य भुगत रहा है। मनुष्य सोच रहा है कि वह रंगों का नाश कर रहा है सिर्फ इसलिए क्योंकि हरा उसका रंग नहीं है या कत्थई से उसे वो गर्माहट नहीं मिली है। या सच में ऐसा हो रहा है? या सच में रंग खत्म हो रहे हैं? रंग तो अपने धर्म पर कायम हैं और उन्होंने ब्रह्मांड की शुरुआत से अब तक खुद को नहीं बदला है। अगर कुछ बदला है और बदल रहा है तो वह मनुष्य ही है। रंगों की आपस में कोई लड़ाई नहीं है और न ही लड़ाई करना उनका धर्म है? तो फिर लड़ाई करना किसका धर्म है? कौन सा धर्म लड़ाई करना सिखाता है?

Wednesday, September 14, 2011

उंगली से उबकाई

मंहगी उबकाई से आगे..
मेरे कई सारे दोस्त ऐसे हैं जो शराब के बेहद शौकीन हैं। कई बार जब उन्हें शराब का नशा ज्यादा हो जाता है तो वह मुंह में उंगली डालते हैं और गले की नली के पास जीभ को कुरेदते हैं। इससे उन्हें उल्टियां होती है और पेट में जो एस्ट्रा शराब होती है, वो निकल जाती है। इससे वो कुछ हलका महसूस करते हैं लेकिन फिर से पीकर भारी हो जाते हैं। जो उस वक्त नहीं पीते, लेकिन ज्यादा पीते हैं, वह उंगली वाली प्रक्रिया सुबह करते हैं। रात की बची शराब सुबह पेट से निकालते हैं। सीधे मायनों में उंगली से उबकाई या उल्टी करने का यही मतलब निकाला जाता है। यह उबकाई या उल्टी करने की प्रत्यक्ष प्रक्रिया है। मैने अपने डॉटर दोस्तों से पूछा तो खुद उन्होंने बताया कि इसमें कोई खराबी नहीं है और यह खतरनाक भी नहीं है।
लेकिन
कुछ और है जो खतरनाक है और जो लोग उबकाई को लेकर डॉटरों के चक्कर लगाते हैं, उन्हें शायद याद भी होगा कि डॉटर या बताते हैं। देसी भाषा में कहें तो डॉटर की सलाह यही होती है कि उंगली करने या होने से बचें। यह अप्रत्यक्ष उंगली है। खतरनाक है और कभी कभी जानलेवा भी। इसी से पेट में एसिड बनता है और ज्यादा दिनों तक होती रहे तो अल्सर होता है, लीवर फेल होता है और गुर्दे सहित दिल भी खराब हो जाता है। दरअसल उदारीकरण की देन यह उंगली सिर्फ एंटीएसिड या बीमारी अगर खराब हो गई तो उसकी दवाइयों तक ही सीमित हो चुकी है। इस पर कभी न तो कभी कोई बहस हुई और अगर हुई भी तो सुनने में नहीं आई।
कहने
को तो उदारीकरण शब्द काफी उदार और मनभावन लगता है। सैकड़ों सालों से तरह तरह की समस्याओं से घिरे हम भारतीय हमेशा उदार शब्द को अच्छा मानते रहे हैं और इसकी प्रेरणा लेते और देते रहे हैं। ये शब्द कितना खतरनाक है इसका हमें अनुमान तक नहीं है। पिछली बार मैनें बताया था कि भारत में एंटीएसिड का कारोबार दवा के कुल कारोबार का बीस फीसदी यानि कि बारह हजार करोड़ रुपये सालाना का है। उदारीकरण के बाद न सिर्फ दवा व्यापार बढ़ा, बल्कि कई और चीजों में बढ़ोत्तरी हुई। मसलन विदेशी कंपनियां। यह विदेशी कंपनियां अपने साथ जो कार्य संस्कृति लाईं, वह विदेशी किसी भी मायने में नहीं थी। यह कार्य संस्कृति कुछ इस तरह की थी कि अगर किसी को दस हजार रुपये महीने दिए जा रहे हैं तो वह महीने में गिरी से गिरी हालत में दस लाख रुपये का काम जरूर करे। उसके काम से दस लाख या इसके आस पास का फायदा जरूर हो। बस यहीं से उदारीकरण की अति उदार उंगली शुरू हो गई। ये उंगली इतनी उदार थी कि हमें पता ही नहीं चला कि कब इसने चुपके से हमें कुरेदा और हम जबरदस्त एसिडिटी का शिकार हो गए। जो नाश्ता हम सुबह साढ़े सात बजे से आठ बजे तक कर लेते थे, वह दोपहर ११-१२ बजे तक हो गया। दोपहर का खाना शाम के चार बजे हो गया और रात का खाना देर रात बारह-एक बजे हो गया। मुझे याद है कि सन ९१ में जब मैं देहरादून में पढ़ता था, डिनर के लिए आए लोग बड़ी हद साढ़े नौ या दस बजे तक डिनर लेकर, डेजर्ट चखकर वापस हो लेते थे। अब देर रात लगभग एक बजे जब दफ्तर से लौटता हूं तो लोग अपने यार दोस्तों के यहां से डिनर करके लौट रहे होते हैं। उन्हें दस बजे के बाद ही छुट्‌टी मिलती है। लबोलुआब यह है कि उदारीकरण के बाद हमारे काम करने के घंटे भी हद से ज्यादा उदार हो गए। हम देर रात तक काम करने लगे। गजब का उदार है ये उदारीकरण।
व्यापार
में असल फायदा यही है कि लोग वस्तुओं को खरीदें और लगातार खरीदते रहें। ईमानदारी के व्यापार में ऐसा होना संभव नहीं है योंकि हर चीज आवश्यक जरूरतों से नहीं जुड़ी। ऐसे में व्यापार चलाने के लिए वस्तुओं की जरूरत पैदा करनी होती है। लाखों करोड़ के दवा के व्यापार का पिछले तकरीबन अस्सी सालों से यही फंडा बन गया है। दवा की जरूरत नहीं होती लेकिन जरूरत के मुताबिक परिस्थितियां बनाई जाती हैं। एंटीएसिड की जरूरत हमें नहीं थी। साधारण खड़िया के पाउडर यानि कि डाइजीन से हमारा काम चल जाता था। डाइजीन भी उसे ही दी जाती थी, जो बीमारी की वजह से अस्पताल में भर्ती हो। हम लोग तरह तरह के चूरन फांककर काम चला लेते थे। पूड़ी पराठां खाने पर एसिडिटी होने पर ठंडा दूध या गुनगुना पानी पी लेते थे। कम से कम हम दवा बाजार को सिर्फ एंटीऐसिड के लिए बारह हजार करोड़ रुपये सालाना तो नहीं ही देते थे। लेकिन कथित आयातित-जो कभी आयातित नहीं रहा, वर्क कल्चर के आने पर इसकी लगतार जरूरत बन गई। उदारीकरण ने हमारे पेट को इतना उदार बना दिया कि हम जेब से उदार हो गए। ये दीगर बात है कि इस उदारता के लिए हमें बाकायदा उधार भी दिया गया।

अगली किस्त में पढ़ेंगे कि उदारता से मिले उधार में हमारे पेट के या हमारे शरीर के साथ क्या उदारता दिखाई।

Sunday, September 4, 2011

चाहिए एक दीवार

बचपन में जब अम्मा डांटतीं या मारती थीं, तो हम किसी स्टोर में खुद को बंद कर लेते थे या फिर छत पर चले जाते थे। वहां जाकर घंटो उसी बात को सोच सोच कर रोते रहते थे कि अम्मा हमसे प्यार नहीं करती हैं तभी तो मारा। और या या कहकर मारा। अम्मा ने हमें ये नहीं सिखाया कि भगवान के सामने जाकर रोने से सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। हालांकि अम्मा को खुद जब रोना होता था तो वह भगवान के सामने जाकर रो लेती थीं। इसके लिए वह रोजाना स्पेशल टाइम निकालती थीं जिसे पूजा कहते थे। अम्मा कम से कम पौन घंटे तो पूजा करती ही थीं। इस बीच वो भगवान से जो भी बातें करती थीं, किसी को नहीं बताती थीं। जब वो पूजा कर रही होती थीं तो कोई उनके पास या उस कमरे में नहीं जाता था। दरअसल रोना नितांत व्यक्तिगत क्रिया है। मानव स्वभाव रहा है कि अगर वह रोए तो कोई सुने ना और किसी न किसी से जरूर रोए। भले ही वो भगवान हो, आसमान हो या फिर स्टोर के बंद कमरे की दीवारें हों। रोने के लिए आखिरकार सबसे मुफीद जगह कौन सी होती होगी?
मंदिर में भीड़ रहती है तो वहां लोग रोने की जगह गाने लगते हैं। इस तरह से गाना भी एक तरह का रोना ही माना जाएगा योंकि हम अपनी भड़ास गाने के रूप में निकालते हैं। मंदिर में सामूहिक रूप से गाई जाने वाली आरती हो या फिर मस्जिद में लगाई जाने वाली अजान, चाहे गुरुद्वारा ही यों न हो, आखिर ये सब सुर में यों नजर नहीं आते हैं। रोना बेसुरा होता है जबकि गाने में सुर का समावेश बहुत जरूरी होता है। भगवान की परिकल्पना हमने एक ऐसी वस्तु के रूप में की जो कभी जवाब नहीं देता है। और जो जवाब नहीं देता है, और जिसके सामने हम रो सकते हों, वह भले ही मूर्ति के रूप में हो, अदृश्य हो या किसी किताब की शल में, रहती एक दीवार ही है। एक शून्य दीवार जिसे हम अपना अंतरंग दोस्त मानते हैं और ये भी विश्र्वास रखते हैं कि ये दोस्त हमारे अतिव्यक्तिगत बातों को किसी से कहेगा नहीं। इसलिए हर तरह से, हर तरह की बातों से उसके सामने रो सकते हैं और यदि समूह में हों तो गा सकते हैं। अजीब बात है कि रोने के लिए हमने मंदिर-मस्जिद और पता नहीं या या बना दिए, लेकिन अभी तक एक ऐसा दोस्त नहीं बना पाए, जिससे हम रो सकें। वैसे यह मानव स्वभाव भी है कि वह अनजानी चीजों पर ज्यादा विश्र्वास करता है बनस्बित जानी हुई चीजों के। हमें दिक्कत होती है तो हम तर्क नहीं करते। हमें दुख होता है तो उसके कारणों की तलाश नहीं करते। सारी चीजों के लिए एक ऐसी चीज पर निर्भर हो जाते हैं जो प्रतिक्रिया ही नहीं कर सकती।
बहरहाल, आजकल रोने की, मतलब पूजा करने की नई शैली विकसित हो रही है। पिछले दो तीन सालों से देख रहा हूं कि सामूहिक पूजा को बढ़ावा दिया जा रहा है। हालांकि ये शैली जैनियों से ली गई है जहां पीढ़ा या मूढ़ा लगाकर एक लाइन से महिलाएं या पुरुष बैठते हैं और पूजा करते हैं। ये अलग बात है कि भगवान महावीर एकांत में ही ध्यान-जिसे अब पूजा कहते हैं, किया करते थे। यही शैली गणेश, विष्णु लक्ष्मी, राम और शिव जैसे भगवानों पर भी अपनाई जा रही है। एक पीढ़े पर उक्त भगवान की तस्वीर रखी और लाइन से बैठ गए। पूजा हो रही है, तिलक लगाया जा रहा है, पंडित बता रहा है कि अ धूप बाी जलाइए तो अब अक्षत छिड़किए। दीवार का स्वरूप बदल रहा है, स्टोर रूम में लाइन लग रही है, छत पर भीड़ इकठ्‌ठा हो रही है। मजे की बात तो यह कि बेसुरे मंत्रों के बीच पूरे मनोयोग से रोया जा रहा है। इससे आत्मिक शांति मिलती है। दरअसल जी भरके रो लेने के बाद शांति या हलका महसूस करना लाजमी है। लेकिन चूंकि दीवार चाहिए, इसलिए दीवार का कोई नाम भी होना चाहिए।

Wednesday, August 24, 2011

मंहगी उबकाई

कल रात मुझे दफ्तर से थोड़ा जल्दी छुट्टी मिल गई। दरअसल पिछले कुछ दिनों से दफ्तर का माहौल कुछ खराब है और कुछ लोग कुछ लोगों के निशाने पर हैं। निशाने पर आए कुछ लोगों में से मैं भी हूं। इसलिए मेरा न तो दफ्तर जाने का वक्त तय रहता है न ही आने का। कब कहां ड्यूटी लगा दी जाए, नहीं पता। बहरहाल, कल रात मुझे थोड़ी जल्दी छुट्टी मिल गई। मजे से घर आया और अपना सबसे पसंदीदा काम लेट नाइट मूवीज देखनी शुरू कर दीं। दिन में चैनल्स पर फिल्मों के बीच लंबा चौड़ा प्रचार रहता है और सिर्फ बिकाऊ फिल्में ही दिखाई जाती हैं। रात में कुछ ढंग की फिल्में आती हैं, खासकर रात दो बजे के बाद। सुबह पांच बजे तक मैं चैनल बदलता रहा। सुबह अचानक मलकिन ने नौ बजे ही उठाना शुरू कर दिया। बोलीं दफ्तर से फोन आ रहा है। मैनें वापस फोन किया तो तुरंत दफ्तर आने का आदेश मिला। नींद पूरी न होने की वजह से पित्त बनने लगा और एकाध एसिड भरी उल्टियां हुईं। मैनें सोचा कि रास्ते में कहीं से एंटीऐसिड ले लूंगा। घर से निकला और मेडिकल स्टोर पर पहुंचकर उससे ओमेप्राजोल का कैप्सूल ओसिड मांगा। मेडिकल स्टोर वाले ने १५ गोलियों का एक पत्ता दिया और ८५ रुपये मांगे। मेरी जेब में कुल सौ रुपये पड़े थे और दफ्तर भी जाना था। मैनें उससे सस्ता एंटीएसिड रेनिटीडीन यानि कि रेन्टेक लिया जिसकी पांच गोलियों के लिए मैनें पांच रुपये दिए।
लेकिन अभी तक मेरे सिर से ओसिड का वह ८५ रुपये का रेट उतर नहीं पाया है। जब मैनें एंटीएसिड के मार्केट के बारे में पता लगाना शुरू किया तो मेरे होश उडऩे लगे। भारत में एंटीएसिड का कारोबार साठ हजार करोड़ रुपये सालाना है। यह भारत में बिकने वाली सारी दवाइयों का बीस फीसदी है। गंभीर बात यह है कि इसे खाने की जरूरत हो या न हो, इसकी जरूरत बनाई जाती है और बना दी गई है। आज से पंद्रह साल पहले जब मुझे बुखार होता था तो डॉक्टर पैरासीटामॉल के साथ तीन दिन के लिए सिप्रोफ्लॉक्सासिन-सिप्लॉक्स लिखा करते थे। अगर पेट में कुछ गड़बड़ी हुई तो साथ में बी कॉम्प्लेक्स की छोटी-छोटी गोलियां लिखते थे जो दो रुपये की दस आती थी। एक गोली सुबह तो एक गोली शाम। बस काम खत्म। लेकिन अब बीकासूल तो लिखते ही हैं, साथ में ओसिड, पैन्टॉप, पैन्टॉप डीएसआर भी जरूर लिखते हैं। आखिर इस डेढ़ दशक में ऐसा क्या हो गया जो हमारे देश में बीमार पडऩे वाले लोगों के पेट के हालत का तख्तापलट हो गया?
बाजार में घूमते-घूमते मुझे इसका जवाब मिला। मेरठ, जहां मैं रहता हूं, वहां के काफी पुराने दवा व्यवसायी गोपाल अग्रवाल हैं। डॉ. लोहिया की क्लासेस अटैंड की हैं और पुराने समाजवादी हैं। उन्होंने बताया कि बी कॉम्प्लेक्स में डॉक्टरों को उतना कमीशन नहीं मिलता। बल्कि कुछ भी कमीशन नहीं मिलता। जबकि ओमेपराजोल सीरीज की दवाइयों के बेतहाशा कमीशन है। ओसिड का एक कैप्सूल बनाने में लागत और फायदा मिलाकर ४५ पैसे का खर्च आता है जो पैकिंग और मार्केटिंग लेकर ६० पैसे से ऊपर नहीं होता। लेकिन एक कैप्सूल कम से कम ६ रुपये का बिकता है। एक मरीज को कम से कम १५ कैप्सूल १५ दिनों तक खाने होते हैं। डॉक्टर का हिस्सा तीस फीसदी से शुरू होकर साठ फीसदी तक जा सकता है। जिस कंपनी की जैसी सेटिंग। यानि कि अगर आपको वायरल बुखार भी हुआ है तो बाकी की दवाइयों के साथ आपको एक एंटीएसिड खानी पड़ेगी। ओमेपराजोल की काफी महीन गोलियां आती हैं जिन्हें बाजार से खरीदकर कोई भी लाइसेंस प्राप्त फैक्ट्री बना सकती है और बेच सकती है।
ये बात कोई सन ६४ की है। उस समय इंजेक्शन स्ट्रेप्टोमाइसिन बहुत चलता था और सरकार इसे बनाती थी। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने ससंद में यह प्रश्र उठाया था कि यह इंजेक्शन फायदा सहित सरकार को तीन आने का पड़ता है तो इसे बारह आने में क्यों बेचा जाता है। इस पर कोई रेट कंट्रोल क्यों नहीं है। दवाइयों पर न तो तब कोई रेट कंट्रोल हो पाया और न ही अब कोई रेट कंट्रोल हो पाया है। वैसे एंटीएसिड जेन्टेक काफी सस्ता है। दवा बेचने वाले रज्जन ने मुझे बताया कि जेन्टेक इतना सस्ता है कि डॉक्टर इसे लिखते ही नहीं। ये तो अब निरमा वाशिंग पाउडर हो गया है और लोग इसे खुद खरीदकर खाते हैं। मैनें किसी से सुना था कि यही फार्मूला जय प्रकाश नारायण के लिए विदेश से मंगाया गया था। समाजवादी आरोप लगाते हैं कि इमरजेंसी में जब जय प्रकाश को जेल में बंद किया गया तो उन्हें खाने के लिए कुछ गड़बड़ चीजें दी गईं। इससे उनका पाचन तंत्र खराब हो गया और आंतों में घाव हो गया। उन्हें मुंबई के जसलोक अस्पताल ले जाया गया जहां उनके लिए जेन्टेक के इंजेक्शन को विदेश से मंगाया गया। उस वक्त जेन्टेक इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं था। उस वक्त तो खडिय़ा का पाउडर यानि कि डाइजीन ही उपलब्ध था। अभी जो नए जेन्टेक या ओसिड जैसे एंटी एसिड चल रहे हैं, वह आमाशय के अंदर बनने वाले एसिड को कंट्रोल करते हैं, उसके निकलने का रास्ता बंद कर देते हैं। ये एक तरह से यह चैनल ब्रोकर होते हैं। डाइजीन पेट में बने एसिड को सोख लेता है। उसका रास्ता बंद नहीं करता। इंटरनेट पर ही मैनें पढ़ा कि ओमेपराजोल जैसी दवाइयों का साइड इफ्ेक्ट सिर दर्द, डायरिया होता है। आखिर जब एसिड नहीं बनेगा तो खाना नहीं पचेगा। और जब खाना नहीं पचेगा तो सिर दर्द और डायरिया तो होगा ही। लेकिन इससे डॉक्टरों को क्या मतलब। बहरहाल पिछले पंद्रह सालों में देश के लोगों के पेट में जो बदलाव किया गया, वह ये कि उनके पेट का खाना पचना या तो कम हो गया, या फिर बंद हो गया। पिछले पंद्रह सालों से लोगों को बीमारियां दी जा रही हैं और वो भी दवा की शक्ल में जो रोज सुबह खाली पेट एक गोली लेनी ही होती है।

अगली किस्त में पढ़ेंगे कि एसिड क्यों और कैसे बना। एसिड खुद बना या बनाया गया।

Tuesday, August 23, 2011

ख़ज़ाना हमारा है ...

प्राचीन भारत से लेकर अब तक हमारी व्यवस्था कृषि व कुटीर उद्योग आधारित रही है। हमारे खेतों में उगने वाले खाद्यान्न और खुदरा व्यापार की चेन ने हमें विश्व में एक अलग तरह की अर्थव्यवस्था दी है। इसी अर्थव्यवस्था के चलते हमने विश्र्वव्यापी मंदी से मुकाबला किया और सफल भी रहे। इस अर्थव्यवस्था से देश की आधी आबादी जो गांवों में बसी है व बीस करोड़ की शहरी आबादी का गुजर बसर होता है। जिस बचत से मंदी से बचने के दावे किए जा रहे थे, वह इसी आबादी की डाकघरों व बैंकों के बचत खातों की धनराशि थी। इस बात पर हमने तो डंका पीटा कि बच गए लेकिन उसे संभालकर रखने की बात अब सिरे से ही गायब हो चुकी है। हालांकि विदेशियों की पूरी नजर इस बचत की धनराशि पर है। खतरनाक बात तो यह है कि अंग्रेजों के जमाने की तरह किसी एक ईस्ट इंडिया कंपनी की नजर इस खजाने पर नहीं है बल्कि अमेरिका सहित कई देशों की नजर में यह खजाना किसी कुबेर के खजाने से कम नहीं है। आखिर अस्सी करोड़ लोगों ने अगर सौ रुपया महीना भी बचाया होगा तो सोचा जा सकता है कि यह रकम महीने में या साल भर में कितनी होगी।
विदेशी पूंजीपति किसान व खुदरा व्यापारी का सैकड़ों साल पुराना रिश्ता तोड़ देना चाहते हैं। वह इस चेन को तोड़कर सीधे किसान या व्यापारिक भाषा में उपभोक्ता तक पहुंचना चाहते हैं। इस उपभोक्ता को वह सब कुछ बेचा जाएगा, जिसकी उसे जरूरत भी न हो। जब उपभोक्ता की सारी बचत समाप्त हो जाएगी तो उसे उधार भी दिया जाएगा। यह सब बचत के खजाने को लूटने के लिए किया जा रहा है और इसमें पूरी साजिश है। दरअसल सबसे ज्यादा विदेशी निवेश संयुक्त राज्य अमेरिका की तरफ से होने के करार हो रहे हैं। लेकिन इसी अमेरिका का विदेश व्यापार घाटा दुनिया में सबसे ज्यादा है। कहीं से कपड़ा तो कहीं से जूता, कहीं से चाय कॉफी तो कहीं से डॉटर इंजीनियर उनके लिए जा तो रहे हैं लेकिन उनके यहां पैदा नहीं हो रहे। निर्यात कम व आयात ज्यादा होने की वजह से अमेरिका पर दुनिया में सबसे ज्यादा कर्ज है, जिसे उतारने के लिए उसकी कंपनियों की नजर, जाहिर है हमारे इस खजाने पर है। यह तभी संभव है जब देशी व्यापारियों का अस्तित्व खत्म कर दिया जाए। और ऐसा हो भी रहा है, केंद्र सरकार एक के बाद एक बेतुके कानून बनाए जा रही है। केंद्र की कांग्रेस सरकार के इस बारे में अमेरिका से समझौते भी हो चुके हैं। अमेरिकी कंपनी वालमार्ट का ही उदाहरण लें। वालमार्ट जैसी कंपनी के भारत में खुदरा व्यापार की अनुमति देना न सिर्फ देश के स्थानीय बाजारों को खत्म करने की, बल्कि भारत की रीढ़ बनी बचत व्यवस्था को भी लूट की सरकारी छूट देने की अनुमति देना है।
विदेशी कंपनी को खुदरा व्यापार की अनुमति देने व स्थानीय बाजार को खत्म करने से महंगाई और बढ़ेगी। हमारा खजाना तो खाली होगा ही, हम अमेरिका की तरह कर्ज के तले दबे नजर आएंगे। और ऐसा शुरू भी हो गया है। केंद्र की कांग्रेस सरकार ने महंगाई से निपटने के लिए अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। न तो लोगों को दाल में कोई राहत मिली और न ही प्याज में। यह सब व्यापारियों व व्यापार के लिए बनाए गए बेतुके कानूनों का भी नतीजा हो सकता है। बढ़ते टैस ने ही नहीं, उस टैस को चुकाने तक की प्रक्रिया ने व्यापारी की कमर तोड़कर रख दी है। सवाल पैदा होता है कि हम दुनिया भर की विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए मुक्त व्यापार को बढ़ावा दे रहे हैं, सेज-स्पेशल इकोनॉमिक जोन बना रहे हैं, लेकिन हमारे अपने ही देश के व्यापारी एक राज्य से दूसरे राज्य तक मुक्त व्यापार नहीं कर सकते। टैस के अलावा रास्ते में होने वाली लूट खसोट अलग से जोड़ी जा सकती है। यहां तक कि अगर किसान अपनी खेती से मिला उत्पादन यदि मंडियों में लाता है तो सड़क पर आने से लेकर मंडी की पर्ची कटाने तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। सरकार की तरफ से संरक्षण प्राप्त सट्‌टा बाजार इस महंगाई में घी का काम कर रहा है। इसे रोकने के लिए कांग्रेस की केंद्र सरकार कुछ भी नहीं कर रही है। सरकार यदि कुछ कर रही है तो यह कि विदेशी कंपनी की मांग पर एक के बाद एक विधेयक पारित कर कानून में संशोधन किया जाता है। अगर देश के नागरिक साधारण सी भी कोई मांग कर दें तो सरकार को सांप सूंघ जाता है और बयानबाजियां शुरू हो जाती हैं।
उार प्रदेश में तो और भी बुरे हालात हैं। यहां पर न तो महंगाई कम करने की मांग की जा सकती है और न ही रोजगार देने की। भ्रष्टाचार के चलते कत्ल दर कत्ल होते चले जा रहे हैं। जिस तरह से विधायक स्वयं अपराध के दलदल में फंसे हैं और प्रदेश सरकार उन्हें निकालने के लिए अदालत में मुकदमा वापस लेने के आवेदन करती जा रही है, आने वाला समय या होगा, इसकी परिकल्पना करना कोई मुश्किल काम नहीं है। दरअसल विनिमय के सभी सिद्धांत बदल चुके हैं। अब विनिमय मात्र वस्तुओं के लेनदेन तक सीमित नहीं रह गया है। अधिकारों से लेकर कानून तक विनिमय ने हर वस्तु को बिकाऊ बना दिया है। ऐसे में अगर महंगाई बढ़ती है तो कोई अचरज की बात नहीं है बल्कि लाजमी है।

ग्रेट इंडियन कनवर्टर शो

तेजगढ़ी से जरा सा आगे बढ़ें तो एक पलिक स्कूल टाइप का स्कूल है। पलिक स्कूल टाइप का इसलिए, योंकि न तो व पूरी तरह से पलिक स्कूल की अवधारणा को पूरा करता है और न ही सामान्य स्कूल की सोच को। एक तरह से खिचड़ी हो चुका है। बहरहाल, शाम का समय था और मैं और मेरा बेटा जरा तफरीह को निकले। बेटा अभी डेढ़ साल का है। घूमते-घूमते दोनों उस स्कूल के सामने जाकर खड़े हुए। स्कूल में दो ढाई साल से लेकर दस साल के बच्चों को कराटे सिखाया जा रहा था। छोटे-छोटे बच्चों को हू हा करते देख बेटे को उनमें कुछ देखने लायक सा लगा और हम दोनों कराटे लास देखने लगे। तकरीबन बीस मिनट बाद कराटे लास खत्म हुई। खत्म होने से ठीक पांच मिनट पहले बुलेट पर एक स्टाइलिश युवक आया। कराटे पूरी तरह से सिस्टम पर आधारित है। आप शुरू करते हैं तो एक दूसरे को कमर के बल पर थोड़ा सा झुक कर प्रणाम करते हैं और जब खत्म करते हैं, तो भी यही करते हैं। तो जैसे ही कराटे लास खत्म हुई, गुरूजी वहां पहुंचे। कमर के बल पर वह थोड़े से झुके। लेकिन यहां भी वही चाऊमीन वाली हालत थी। बच्चे झुक भी रहे थे और गुरूजी को पैरीपौना भी करते जा रहे थे। गुरूजी झुक भी रहे थे और सभी पैरीपौना करने वाले बच्चों को खुश रहो, आबाद रहो- जो कि शायद वो मन में बोल रहे हों- का आर्शीवाद देते जा रहे थे। ये चीनी कराटे का शुद्ध भारतीय संस्करण था। इसमें कोई मिलावट नहीं थी योंकि हम हमेशा से बाहरी चीजों का इसी तरह से भारतीयकरण करते आए हैं।
जीरा चाऊमीन
याद कीजिए जब शुरू शुरू में हमारे यहां चाऊमीन आया था। मतलब चाऊमीन आ तो गया होगा सालों पहले, लेकिन लोकप्रिय होना शायद ढाई दशक पहले शुरू हुआ था। ठीक ठाक होटलों में यह मिलता था और इसमें तरह तरह की सजी और केंचुए जैसे तार को देखकर सुड़ुकने में जी खुश हो जाता था। तब इसमें चीन की महक डालने के लिए सोया सॉस और अजीमोमोटो पाउडर डाला जाता था। लेकिन अब जो चाऊमीन बिक रहा है, वह शुद्ध भारतीय संस्करण है। बगैर जीरे के कैसा चाऊमीन। बगैर गरम मसाले के कैसा चाऊमीन और बगैर कद्‌दू वाले लाल सॉस के कैसा चाऊमीन। अजीमोमोटो तो अब भी डाला जाता है।
बर्गर मसाला
बर्गर भी काफी कुछ यही हालत हो गई। मैडॉनल्ड वाले बेचारे या बर्गर बेचते होंगे जो हमारे यहां टिक्की वाले बनाकर बेचते हैं। उनकी तो पॉव रोटी भी कच्ची ही रहती है। सिर्फ आलू की टिकिया पकाई और क्रीम डालकर दे दी खाने को। भला इसमें कोई स्वाद है। स्वाद तो तब आता है जब बर्गर की पॉवरोटी बढ़िया से सेंकी जाए, उसमें आलू मटर की टिक्की डाली जाए, ऊपर से हरी चटनी फिर पनीर की एक स्लाइस भी हो। थोड़ी से कतरी हुई पाागोभी भी चलेगी, लेकिन उसके ऊपर इमली की लाल चटनी और गरम मसाला जरूर होना चाहिए। आखिर जीभ को करंट मिलना भी तो जरूरी है। बर्गर अब बर्गर नहीं रहा, बल्कि यह चाट पकौड़ी की प्राचीन श्रृंखला में शामिल हो चुका है। कभी कभी मुझे लगता है कि भारतीय कयुनिस्ट आंदोलन चाऊमीन और बर्गर नहीं बन पाया, वरना वह भी लोकप्रिय होता और आज किसी को बंदूक उठाने की जरूरत न पड़ती।
आलू गोभी
अभी कुछ दिन पहले एक ट्रैवेल एंड लिविंग चैनल देख रहा था। उसमें कुछ विदेशी लोग थे जो तरह तरह का खाना पका कर जज लोगों को खिला रहे थे और जज खाना खाकर बता रहे थे कि इसमें फलां सॉस कम है और इसमें पता नहीं कौन से समुद्र की पता नहीं कौन से मछली का टेस्ट आ रहा था। इन लोगों ने एक भारतीय परिवार को भी बुला लिया। मजे की बात देखिये कि भारतीय परिवार ने इन्हें जो खिलाया, जज लोगों का कहना था कि ऐसा टेस्ट उन्हें पहले कभी नहीं मिला। इन लोगों ने जज को आलू गोभी की सूखी सजी और रोटी खिलाई। एक जज ने कहा कि ये जबान पर करंट भी देता है और तरावट भी। ऐसी चीज उन्होंने पहले नहीं खाई। अब पता नहीं किसने इन लोगों को जज बना दिया कि इन्हें ये तो पता है कि पता नहीं कौन से समुद्र की पता नहीं कौन सी मछली कैसा स्वाद देती है लेकिन एक अरब बीस करोड़ लोगों की लोकप्रिय आलू गोभी की सजी का स्वाद इन्हें नहीं पता और वह इन्हें जबरदस्त करंट देती है।
करंट
कांग्रेस ने इस करंट को अच्छी तरह समझा। उसे पता है कि अमेरिका की नीतियां कब इस देश में लानी है, मैडॉनल्ड को कब इस देश में घुसने देना है। वह मैडॉनल्ड में बैठकर बढ़िया क्रीम वाला बर्गर भी खाते हैं और ठेले पर खड़े होकर पांच रुपये वाला बर्गर दूसरों को खिलाते हैं। आखिर बर्गर तो बर्गर ही है। और लोगों को जब तक करंट न लगे, कैसा बर्गर। बाकी इस करंट के झटके में चार काम और हो जाएं तो हर्ज या है। कभी कभी मुझे लगता है कि कांग्रेस और भाजपा में आपसी सुलह हो गई है जो अमेरिका ने कराई है। राजा का मामला कोर्ट में है, वालमार्ट को देश में जगह बनानी है। अब अगर लोग अन्ना के आंदोलन में खोये रहें और राजा का भला हो जाए, कलमाड़ी की सुलह हो जाए और वालमार्ट दुकान खोल ले तो मजे ही मजे। अखिर है तो आखिर वही पांच रुपये वाला बर्गर ही। भाजपा भी इसमें पूरा साथ दे रही है। बेरोजगार हैं तो हों, इन दोनों की बला से। बीस से चालीस करोड़ लोगों को दोनों वक्त खाना न मिले, बर्गर तो पांच रुपये में मिल रहा है। बढ़िया चटखारेदार बर्गर। जिसमें एक परत हरी चटनी की है, एक परत गरम मसाले की है और ऊपर से खट्‌टी इमली वाली मीठी चटनी।

Tuesday, August 9, 2011

आ रेला है अपुन

आ रेला है अपुन
बोले तो कान खोल खोल के सुन. . .