रंग धर्म
इसकी शुरुआत ही नहीं है। न ही इसका कोई अंत है। हालांकि इस कस्टमायिज किया जा सकता है सभ्यता या असभ्यता की शुरुआत से। रंग हमेशा से हैं और हमेशा रहेंगे। जब ब्रह्मांड में पानी नहीं था, हवा नहीं थी और जीवन नहीं था, तब रंग थे। अमीबा बना और उसके बाद क्रमिक विकास के सिलसिले में मछली और मनुष्य बना। लेकिन रंग बना नहीं। वह तो पहले से ही मौजूद था। रंगों का प्रयोग कहां नहीं होता। अभी जो आप पढ़ रहे हैं, रंग न होते तो या ये पढ़ पाते? रंग अनंत हैं, निराकार हैं। बड़ी अजीब बात है कि हमने इन अनंत रंगों को हरा, पीला, नीला, काला सफेद और पता नहीं या या नाम दे रखे हैं, और आकारों में ढालते रहते हैं।
अनंत को कैद करने की हमेशा से ही मानव इच्छा रही है। कुछ लोगों ने निराकार को निराकार रूप में ही आकार देने की कोशिश की तो कुछ लोगों ने इस निराकार को आकार दिया। जिन्होंने निराकार को निराकार रूप में स्वीकार किया, उन्हें रंगों से कुछ खास मतलब नहीं था। मतलब तो सिर्फ इतना ही था कि जो चीजें उन्हें दिखाई देने वाली हैं, उन्हें साफ दिखाई दें। जिस रंग में दिखाई दे रही हों, उस रंग का नाम उन्हें पता हो। जिन लोगों ने एक आकार बनाया, मूर्ति पूजा की, उन्हें रंगों से विशेष लगाव था। उन्हें पता था कि रंग किस कदर मनुष्य से न सिर्फ जुड़े हैं, बल्कि स्वयं मनुष्य भी एक रंग ही है। मानव सभ्यता ने इन रंगों को तहस नहस करके रख दिया। एक काला तो एक सफेद, एक लाल तो एक पीला, एक भूरा तो एक ... रंगों ने मानव जाति का विभाजन नहीं किया, रंगों से समूची मानव प्रजाति विभाजित कर दी गई।
विभाजन तो हुआ पर व्यवस्था नहीं बन पाई। व्यवस्था बनाने के लिए, जाहिर है कि हर किसी को एक पहचान की जरूरत हुई। अब तक जो रंग मनुष्य की पहचान बने थे, और जिनके आधार पर विभाजन किया गया था, वह गौड़ हो गए और किन्हीं दूसरे रंगों ने पहचान ले ली। यह रंग खतरनाक हो चुके थे। रंगों को धर्म से जोड़ा जा चुका था। ईसाई थे तो वह किन्हीं दूसरे रंगों का इस्तेमाल करते, बौद्ध दूसरे, मुसलमान किसी और रंग का तो हिंदू और पारसी किसी दूसरे रंग का। मानव रंग के विभाजन के साथ ही धर्म रंग और जाति रंग भी विभाजित होना शुरू हो गए। किसी ने सफेद अपनाया तो किसी ने हरा। किसी ने कत्थई अपनाया तो किसी ने केसरिया। रंगों के मानव स्वभाव से जुड़े होने की वजह से प्रेम और नफरत भी शुरू हो गई। अपने रंग से प्रेम और दूसरे रंग से नफरत। रंग की यह मानसिकता सिखाई गई और इसे रंग ने नहीं सिखाया। इसे मनुष्य ने ही अपने वंशजों को सिखाया। यह प्रकृति का सबसे बड़ा विध्वंस था। इसका खामियाजा मनुष्य को भुगतना ही था और मनुष्य भुगत रहा है। मनुष्य सोच रहा है कि वह रंगों का नाश कर रहा है सिर्फ इसलिए क्योंकि हरा उसका रंग नहीं है या कत्थई से उसे वो गर्माहट नहीं मिली है। या सच में ऐसा हो रहा है? या सच में रंग खत्म हो रहे हैं? रंग तो अपने धर्म पर कायम हैं और उन्होंने ब्रह्मांड की शुरुआत से अब तक खुद को नहीं बदला है। अगर कुछ बदला है और बदल रहा है तो वह मनुष्य ही है। रंगों की आपस में कोई लड़ाई नहीं है और न ही लड़ाई करना उनका धर्म है? तो फिर लड़ाई करना किसका धर्म है? कौन सा धर्म लड़ाई करना सिखाता है?
1 comment:
आसार अच्छे नहीं लगते बरखुरदार। दर्शन की जिन गुफाओं में घूम रहे हो वहां नीत्शे से मुलाकात होगी और उसके आगे अस्तित्ववादियों की लंबी फौज खडी होगी। जरूरी यह है कि आठवें दशक की बाजीगर से बाहर निकलकर कैसे 21वीं सदी का अंत देखा जाए?
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