Saturday, March 31, 2018

आओ ऐसे आओ जैसे आए ही न थे

1
उस दुनिया में- 

जाओ ऐसे जाओ
जैसे जाता है जीवन
आओ ऐसे आओ
जैसे आती है हर सांस
जाओ ऐसे जाओ
जैसे जाता है हर सुख
आओ ऐसे आओ
जैसे आती है बरसात
जाओ ऐसे जाओ
जैसे जाती है हर रात
आओ ऐसे आओ
जैसे आता है हर दिन

2
इस दुनिया में- 

जाओ ऐसे जाओ
जैसे जाती है बिजली
आओ ऐसे आओ
जैसे आती है बिजली
जाओ ऐसे जाओ
जैसे जाता है पानी
आओ ऐसे आओ
जैसे आता है पानी
जाओ ऐसे जाओ
जैसे लगता है कर्फ्यू
आओ ऐसे आओ
जैसे लगता है कर्फ्यू

3
जाने किस दुनिया में-

जाओ ऐसे जाओ
फिर वापस ना आओ
आओ ऐसे आओ
आते ही फिर से जाओ
जाओ ऐसे जाओ
जैसे जाना होता है
आओ ऐसे आओ
जैसे जाना होता है
जाओ ऐसे जाओ
जैसे आए ही न थे
आओ ऐसे आओ
जैसे आए ही न थे।

कार्ड बांस बल्ली- सब डाली का है।

Sunday, March 25, 2018

हमारी जानकारी अमरीकियों को बेच रहे पीएम नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही भले प्रधानमंत्री न हों, मगर व्यापारी बड़े भले हैं। उज्जवल धवल दाढ़ी के पीछे जतन से छुपाकर रखे चेहरे में दुनिया भर की भलाई समाई हुई है। यह उनकी भलाई ही तो है कि वह अपनी वेबसाइट के जरिए हम भारतीयों का डाटा लेते हैं और दुनिया में सबसे भले कहे जाने वाले अमरीकियों को बेच देते हैं। आप पूछ सकते हैं कि बेचना तो व्यापारी का मूल कर्म है, इसमें भला क्या खास बात? जवाब है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भलाई करने की पुरानी गुजराती आदत। साहेब हमारा डाटा अमरीकियों को बेचते भी हैं और बदले में उन्हें पैसा भी देते हैं।

चार दिन पहले की बात है। फ्रांस के अपने दोस्त एलियट एल्डरसन ने बताया कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो काम कर दिखाया है, पिछले सत्तर सालों में कोई प्रधानमंत्री नहीं कर पाया। बल्कि पिछले सत्तर सालों में वह काम दुनिया का कोई प्रधानमंत्री नहीं कर पाया, जो काम अकेले इस महामानव ने कर दिखाया है। सत्तर सालों में पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने अपनी वेबसाइट- narendramodi.in और नमो एप्प बनाया। आप पूछ सकते हैं कि इसमें ऐसा कौन सा महान काम कर दिया? वेबसाइट या एप्प बना लेना कौन सा महान काम है? जवाब है कि वेबसाइट और एप्प बना लेना महान काम नहीं, लेकिन इसके जरिए हम भारत के नागरिकों की वह सारी जानकारी अमेरिका के in.wzrkt.com को धन देकर बेचना महान काम है। महान लोग हैं, महान-महान करते हैं।

अब आप ये भी पूछ सकते हैं कि ऐसे कैसे दे दी हमारी जानकारी? वैसे इस सवाल के जवाब में मैं भी सवाल पूछ सकता हूं कि ऐसे कैसे दे दिया वोट? मगर मैं उस भक्त संप्रदाय से नहीं हूं जिसके भगवाधारी आईटी सेल में उगते हैं, इसलिए नहीं पूछूंगा। बस हिंदी में बताउंगा कि कैसे दे दी जानकारी। ये कोई बड़ी लंबी चौड़ी बात नहीं, बस इतनी ही है कि जब आप narendramodi.in पर अपने कंप्यूटर या मोबाइल से या नमो एप्प पर अपने कंप्यूटर या मोबाइल से जाते हैं तो यह आपसे कुछ डाटा मांगता है। फ्रांसीसी सुरक्षा शोधकर्ता एलियट एल्डरसन बताते हैं कि यह डाटा भरकर सबमिट करते ही यह सीधे अमेरिका स्थित in.wzrkt.com के सरवर में पहुंच जाता है।

एक चीज और। 23 मार्च 2018 तक narendramodi.in की प्राइवेसी पॉलिसी में साफ लिखा था कि Your personal information and contact details shall remain confidential and shall not be used for any purpose other than our communication with you. The information shall not be provided to third parties in any manner whatsoever without your consent. If you have any questions or suggestions regarding our privacy policy, please contact us at admin@narendramodi.in
यानी- हमारी व्यक्तिगत सूचना और कॉन्टैक्ट डीटेल्स गोपनीय रखी जाएंगी और सिवाय हमसे बातचीत के किसी और चीज के लिए प्रयोग नहीं की जाएंगी। बगैर हमारी इजाजत यह सूचना किसी तीसरे को किसी भी सूरत में नहीं दी जाएगी। प्राइवेसी पॉलिसी को लेकर अगर हमारे पास कोई सवाल या सुझाव है तो साइट एडमिन से संपर्क करें।

अब जब लेन-देन, वायदा-व्यापार का मामला खुल गया है तो narendramodi.in पर पूरी बेशर्मी से लिख दिया गया है कि हमारा जो कुछ भी लिया है, उसे तीसरे को देंगे ही देंगे। इसलिए देंगे क्योंकि तीसरा वह डाटा लेकर हमें हमेशा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात बताता रहेगा। (यार कभी धन की भी बता दिया करो!)  यूटर्न लेने की आदी सरकार ने हमारे डाटा की गोपनीयता को जुमलेबाजी में उड़ा दिया है और उड़ाकर सीधे अमेरिका पहुंचा दिया है।

एक चीज और। in.wzrkt.com पर जाएंगे तो कुछ भी नहीं मिलने वाला। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही तरह वह अमेरिकी वहां से झोला उठाकर चल दिए हैं। फकीर हैं या नहीं, यह फकीर से ही पूछें। बहरहाल, राजनीति की दुनिया की तरह तकनीक की दुनिया से इतनी आसानी से कोई झोला उठाकर जा नहीं पाता। सुराग छोड़ ही जाता है। एल्डरसन भाई ने शर्लक होम्स की तरह उस सुराग का पीछा किया और खोजते-खोजते जा पहुंचे in.wzrkt.com की जड़ में। पता चला कि यह क्लेवर टैप नाम की अमेरकी कंपनी है, जो नेक्स्ट जेनरेशन एप्प
प्लेटफॉर्म तैयार करती है। बाजारू लोगों को यह डाटा बेचकर डेवलपर देकर वह कराती है, जो ब्रिटेन वाली कंपनी ट्रंप ताऊ को कराती थी। इस कंपनी के कर्ता-धर्ता सुनील थॉमस हैं। सुनील पहले नेटवर्क 18 में थे। वही, जो अंबानी का अखबार है, जिसमें अंबानी जी जो चाहते हैं, वही चलता है।

जय हो!!



चलते-चलते ये वीडियो भी देख ही लीजिए। बहुत समझ में तो नहीं आएगा, लेकिन इतना जरूर दिख जाएगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह लेन-देन कैसे कर रहे हैं-  

इस ट्रिक से टेस्ट करिए फेसबुक की ईमानदारी

फेसबुक कितना ईमानदार है, यह हम खुद टेस्ट कर सकते हैं और इसके लिए किसी का इंजीनियर होना जरूरी नहीं। फेसबुक की ईमानदारी चेक करने के लिए प्रोग्रामिंग लैंग्वेज जानने या कोडिंग की भी जरूरत नहीं।
इंटरनेट की दुनिया ट्रिक्स पर चलती है और ट्रिक्स के आविष्कारक डेवलपर्स नहीं, बल्कि हम आप जैसे आम लोग ही होते हैं, जो इंजीनियरिंग तो नहीं जानते, पर अपना काम निकालना जानते हैं।

बड़ी देखने को क्लिक करें
फेसबुक की ईमानदारी चेक करने के लिए दिन में दो बार मार्क जकरबर्ग की या फेसबुक की फोटो के साथ हैशटैग- #banfacebook और #deletefacebook डालिए। महज चौबीस घंटे के अंदर आप पाएंगे कि फेसबुक ने आपकी रीच कम कर दी है या लिमिटेड कर दी है। यानी आपको फेसबुक पर पहले से कम लोग देख पा रहे हैं या सीमित संख्या में ही वही लोग आपको देख पा रहे हैं, जो रोजमर्रा के स्टेटस अपडेट्स में आपसे जुड़े रहते हैं। यही चीज आप फेसबुक के दूसरे प्रोडक्ट इंस्टाग्राम पर भी चेक कर सकते हैं। इंस्टाग्राम पर तो मैंने आज ही चेक किया है। और शुक्र है कि मैं अकेला नहीं हूं। अब तक सात लाख से भी अधिक लोग इंस्टाग्राम पर फेसबुक का विरोध कर चुके हैं और यह संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। इसके चलते वह सभी एकाउंट अंडरप्ले कर दिए गए हैं, जिन्होंने फेसबुक का उसके किसी भी प्रोडक्ट पर विरोध किया है। 

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि फेसबुक ने अपने खिलाफ प्रयोग होने वाले लगभग हर भाषा के शब्दों पर प्रोग्रामिंग की हुई है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप फेसबुक का विरोध मैथिली में करते हैं या जुलू में। फेसबुक के स्पाइडर्स उस विरोध को शुरू होते ही पकड़ लेते हैं। अगर वह विरोध आगे बढ़ता है तो वह उसे दबाने में जुट जाते हैं। कैसे दबाते हैं, यह पहले ही बता चुका हूं। अब टाइम है टेस्ट करने का। चाहें तो चेक करें, न चाहें तो वैसे ही उसी भाड़ में बैठकर फुंकते रहें, जिसमें फुंकते रहने को फेसबुक ने सारे यूजर्स को मजबूर कर दिया है। 


कॉरपोरेट से लेकर आतंकवादियों को डाटा बेच चुका है फेसबुक

फेसबुक पर डाटा ब्रीच का इतिहास क्या है? 
18 अक्टूबर 2010 में वॉल स्ट्रीट जरनल ने खुलासा किया था कि फेसबुक पर लाखों लोगों की प्राइवेसी के साथ सौदा हुआ है। अपने अध्ययन में अखबार ने पाया कि फेसबुक पर चलने वाले दस सबसे पापुलर एप्स और गेम्स, जिसमें फार्मविले, माफिया वार्स और टेक्सास होल्डे'म शामिल थे, इन सबने मिलकर उन सभी की आइडेंटिटी चुराकर कॉरपोरेट को बेची है, जो इन्हें यूज करते हैं या कभी इन एप्स या गेम्स को यूज किया है। फेसबुक की पॉलिसी में दिया है कि कोई भी उसके यूजर की सूचना किसी को भी नहीं बेच सकता। फिर भी सूचनाएं लगातार चोरी हो रही थीं (ऐसा फेसबुक का मानना है)। असल में सूचनाएं चोरी नहीं हो रही थीं, बल्कि पर्दे की पीछे समझौता करके बाकायदा बेची जा रही थीं (ऐसा दुनिया के अधिकतर डेवलपर्स का और मेरा भी मानना है)। जिस अल्गोरिदम का प्रयोग फेसबुक करता है, उसी का प्रयोग करके कई डेवलपर्स ने रेडिट डॉट कॉम पर पर्दे के पीछे की सारी बात डाली हुई है।  जो समझना चाहें, रेडिट पर जाकर समझ सकते हैं। वह सब कोड्स में हैं।

इसी तरह से सन 2012 में फेसबुक के मुताबिक उसे बग लग गए। मतलब कीड़े लग गए। फेसबुक के ही मुताबिक उसे इसका पता सन 2013 में जाकर लगा और 24 घंटे में उसके इंजीनियर्स ने कीड़े का इलाज भी बांध दिया। लेकिन तब तक फेसबुक पर उस वक्त तक मौजूद 1.1 बिलियन यूजर्स का कॉन्टैक्ट डाटा उड़ चुका था, या यूं कहें कि खुले बाजार में बाकायदा रेहड़ी लगाकर बेचा जा रहा था। फेसबुक खुद खुले बाजार का खिलाड़ी है और उसी बाजार में घूमता रहता है। अपनी वेबसाइट फेसबुक ने पीएचपी पर बनाई है, जो कि एक ओपन सोर्स प्रोग्रामिंग भाषा है और दुनिया भर के सभी डेवलपर्स अपने-अपने हिसाब से इसे डेवलप करते रहते हैं। दुनिया का एक भी डेवलपर गंगा में गले तक खड़ा होकर भी यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि इस बदमाशी में फेसबुक ने हिस्सा नहीं लिया।

हमारी प्राइवेसी में सेंध लगाने की तीसरी घटना अगस्त 2015 की गर्मियों में तब पता चली, जब हम लोगों के लाखों फोन नंबर खुले बाजार में बिकने लगे। यह वही वक्त है, जिसके आसपास फेसबुक ने सभी यूजर्स से उनका फोन नंबर जबरदस्ती भरवाया था। कुछ यूजर्स ने फोन नंबर तो दिया, मगर उसे अपनी प्रोफाइल में शो नहीं किया तो कुछ ने शो किया। इन सभी के फोन नंबर फेसबुक ने माफी मांग-मांगकर खुले बाजार में बिकवाया। लोगों के डाटा के साथ फेसबुक ने जो चौथी बदमाशी की, उसमें नंबर्स तो कम हैं, लेकिन वह सबसे ज्यादा खतरनाक थी।

जून 2016 में पता चला कि जकरबर्ग ने तकरीबन एक हजार ऐसे लोगों के पर्सनल डाटा बाजार में उठाकर फेंक दिए, जो आतंकवाद के खिलाफ किसी न किसी रूप में काम करते थे। फेसबुक की पांचवीं बदमाशी, जो अमेरिका के चुनाव में हुई, और मार्च 2018 में सामने आई, हम सब देख ही रहे हैं। वैसे फेसबुक और इसी तरह की दूसरी कंपनिया डाटा ब्रीच को थोड़ा सा फैशनेबल शब्द में बोलती आई हैं- माने- डाटा हारवेस्टिंग। फिर भी मैं इसे डाटा ब्रीच ही कहता रहूंगा क्योंकि जो डाटा आप किसी की सहमति से हासिल नहीं करते, या उसे धोखे में रखकर लेते हैं, या जिसका डाटा ले रहे हैं, उसे ही पता नहीं तो वह डाटा ब्रीच ही कहलाएगा।

कानूनी पंडित यह कह सकते हैं कि फेसबुक ने डाटा की नोंच-घसीट के लिए अपनी पॉलिसी में पहले ही लिख रखा है, लेकिन यह भी एक मजबूत तथ्य है कि फेसबुक की पॉलिसी से आम यूजर को कोई मतलब नहीं और न ही वह उसे पढ़ता है। इसलिए, ऑनलाइन कंपनियां, चाहे वह फेसबुक हो या दैनिक जागरण, अपनी कुकीज और प्राइवेसी पॉलिसी के जरिए जो कुछ भी बताती हैं या मनवाती हैं, वह असल में महज एक धोखा है और ऐसा धोखा है जो कि धोखा खाने वाले को जल्द पता ही नहीं चलता।

अगली किस्त में पढ़ें दुनिया में डाटा ब्रीच का इतिहास और कहां कैसे होता है हमारे डाटा का उपयोग

पिछली किस्त यहां पढ़ें- जितना सोच सकते हैं, उससे अरबों गुना बड़ा है डाटा ब्रीच

Friday, March 23, 2018

जितना सोच सकते हैं, उससे अरबों गुना बड़ा है डाटा ब्रीच

डाटा क्या है और कहां से आ रहा है? 
इंटरनेट के आने के बाद से इंटरनेट पर दुनिया भर ने जो कुछ भी किया है और जो कुछ नहीं किया है, वह सब डाटा है। आज दुनिया भर की 7 अरब 63 करोड़ के आसपास की आबादी में  4 अरब 15 करोड़ से कुछ ज्यादा इंटरनेट यूजर्स हैं। जरूरी नहीं कि सभी वेबसाइट ही खोलते हों। इंटरनेट यूज करने के भी अलग-अलग तरीके होते हैं, जैसे- चैट, वीडियो चैट या ऑडियो कॉल वगैरह। सरसरी तौर पर हम मान सकते हैं कि डाटा प्रोडक्शन यही कर रहे हैं। लेकिन अगर इंटरनेट से जुड़ी मशीनों की संख्या देखी जाए, तो मामला थोड़ा अलग दिखता है। हर मशीन का आईपी एड्रेस होता है। दुनिया में दो तरह के आई पी एड्रेस होते हैं- IPv4 & IPv6। पहले वाले में सात साल पहले तक 4,294,967,296 आईपी एड्रेस रजिस्टर हो चुके थे और दूसरे वाले में- 340,282,366,920,938,463,463,374,607,431,768,211,456 । इन एड्रेस पर जिस किसी भी तरह की हरकत हुई है- वह डाटा है और यह उन्हीं मशीनों से आया है और आता जा रहा है।

फेसबुक डाटा ब्रीच क्या है? 
फेसबुक जैसी साइट्स भी इन्हीं आईपी एड्रेस से मिलने वाली हर तरह की जानकारी खुद रखती हैं। फेसबुक के टर्म एंड कंडीशंस में लिखा है कि हम उसकी साइट पर जो कुछ भी कर रहे हैं, उसका अधिकारी फेसबुक है- भले ही वह किसी भी आईपी एड्रेस से हो। पहला डाटा ब्रीच यहीं पर है। इंटरनेट पर प्राइवेसी की वकालत करने वालों का मानना है कि जो चीजें व्यक्तिगत हैं, उनका डाटा कलेक्शन न किया जाए। खुद फेसबुक भी न करे। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता। इसलिए फेसबुक हमारे डाटा से अपनी खेती करता रहा है और करता रहेगा। फेसबुक से जुड़ा डाटा कोई भी कलेक्ट कर सकता है। इसके लिए फेसबुक ने एपीआई- एप्लीकेशन प्रोग्राम इंटरफेस दिया हुआ है। इसकी पहचान बड़ी आसान है। किसी भी वेबसाइट या एप्प पर फेसबुक का जो नीला निशान दिखता है- ये वही है। दुनिया में हर तरह की कंपनियां और राजनीतिक पार्टियां इस तरह का डाटा ब्रीच करती रही हैं और कर रही हैं। हाल ही में ब्रिटेन की कंपनी कैंब्रिज एनालिटिका ने भी इसी तरह का एक मास ब्रीच करके लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और संस्थाओं को गहरी चोट पहुंचाई है, इसलिए यह डाटा ब्रीच चर्चा में आया है, लेकिन यह लगातार होने वाली प्रक्रिया है।

डाटा को थोड़ा और समझाइए। इसके स्वरूप के बारे में बताइए। 
सरसरी तौर पर देखें तो टेक्स्ट, ऑडियो, वीडियो और फोटो के सभी तरह के सभी तरह के स्वरूप डाटा हैं। सोशल मीडिया ने इनमें इमोशन यानी भावनाएं जोड़ी हैं। इमोजी का प्रयोग इंटरनेट पर लंबे समय से होता आ रहा है। यह इमोजी हमारी भावनाएं हैं। सोशल मीडिया से जुड़ी हर कंपनी हमसे हमारी भावनाएं किसी न किसी माध्यम से लेती आ रही है। जैसे फेसबुक कई तरह से हमारी भावनाएं रिकॉर्ड करता है, भले हम बोलें या न बोलें। हमारी रिकॉर्डिंग का आलम यह है कि हम भले ही किसी की पोस्ट लाइक न करें, अगर वहां रुकते हैं और अगर वहां नहीं रुकते हैं- यह भी रिकॉर्ड होता है और इसी आधार पर फेसबुक हमें भविष्य में पोस्ट दिखाता है। यही चीजें सोशल मीडिया से जुड़ी दूसरी सुविधाओं- ट्विटर, गूगल प्लस, यूट्यूब, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप्प आदि सभी पर रिकॉर्ड होती रहती हैं, जिनसे यह कंपनियां अपने भविष्य की योजनाएं तो बनाती ही हैं, इनका लगभग सारा धंधा इसी डाटा पर टिका होता है।

यानी डाटा ब्रीच बहुत ही बड़ा है? 
हां। लगभग सभी कंपनियां डाटा ब्रीच करती हैं। सोशल मीडिया सर्विस देने वाली कंपनियां तो डाटा ब्रीच करती ही हैं, ऑनलाइन बाजार चलाने वाली कंपनियां, गूगल, दुनिया की सारी मीडिया कंपनियां यह डाटा ब्रीच करती हैं। हमारी भावनाएं उनके लिए महज एक डाटा है जिसका हिसाब लगाकर यह हमसे खेलती हैं। भले वह सोशल मीडिया पर हमारी राय प्रभावित करके हमारी दुनिया को डिस्टर्ब करने का काम हो या फिर घड़ी बेचने का या फिर खबरें बेचने का। सब का सब पूरी तरह से हमारी उन्हीं हरकतों पर निर्भर है, जो हम इंटरनेट पर करते हैं।  अभी हाल ही में ट्विटर ऑडिट रिपोर्ट की ओर से जो आंकड़े जारी किए गए थे, वह भी एक तरह का डाटा ब्रीच ही था। इससे पहले लिंक्डइन वेबसाइट के जरिए भारत के विभिन्न बैंकों के डेबिट कार्ड हैक हो चुके हैं- यह भी डाटा ब्रीच का ही एक उदाहरण है। लेकिन डाटा ब्रीच लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। अचानक सामने आने वाले कुछ लाख या कुछ करोड़ नंबर इसका एक छोटा सा उदाहरण हैं। अगर दुनिया भर के डाटा ब्रीच को एक साथ गिना जाए तो दुनिया में जितने आईपी एड्रेस हैं, यानी जितनी मशीनें हैं, वह इंटरनेट से कनेक्ट होते ही डाटा ब्रीच का शिकार होने लगती हैं।

अभी यह जारी है। अगले एपीसोड में फेसबुक डाटा ब्रीच का इतिहास, दुनिया में डाटा ब्रीच का संक्षिप्त इतिहास और कहां कैसे यूज होता है हमारा डाटा। 



Thursday, March 22, 2018

चाय की तलब हो तो पत्ती फांकिये: मार्क जकरबर्ग

डेटा ब्रीच से बचने का फेसबुक ने जो उपाय निकाला है, वह है कि हम अपनी सेटिंग्स में जाकर थर्ड पार्टी साइट डिसेबल कर दें। 
इसका मतलब है कि हम फेसबुक से बाहर की चीजों न देखें, न पढ़ें न किसी से बताएं या किसी को दिखाएं। अगर किसी एप पर हमें कोई खबर पसंद आ रही है और हम चाहते हैं कि दूसरे भी पढ़ें तो फेसबुक नहीं चाहता। इसलिए भी क्योंकि वह यह भी नहीं चाहता कि हम उसके अलावा बाकी की दुनिया से किसी तरह का कोई संवाद रखें। ऐसा तब भी किया गया था, जब फेक न्यूज का मामला प्रकाश में आया था। फेक न्यूज या अवांछित गतिविधि का एकमात्र मान्य इलाज फिल्टर होता है। हर बड़ी वेबसाइट के पास यह फिल्टर टीम होती है जो डाटा इंजीनियर्स के साथ मिलकर काम करती है। फिल्टर यानी छन्नी में अक्सर गड़बड़ चीजें पकड़ में आ जाती हैं। मगर फेसबुक छन्नी नहीं, सीधे ताला लगाने की बात कर रहा है। यानी हर तरह की थर्ड पार्टी से किनारा। बाकी लोग अब बिजनेस कैसे करेंगे, इसका कोई जवाब फेसबुक के पास नहीं है। अभी जवाब सोचा नहीं गया है, लेकिन महान लोगों की बड़ी बाते हैं, जिनके हो जाने के बाद जवाब तो बना ही लिए जाते हैं।

लेकिन मार्क भैया, एक बात तो बताओ, जब यह थर्ड पार्टी वेबसाइट्स या एप्प हमारी प्रोफाइल एक्सेस कर रहे थे, तब तुम क्या कर रहे थे? तुम्हें याद हो या न याद हो, पर मैं याद दिला दूं कि तब तुम चीन में चड्ढी पहनकर दौड़ रहे थे, मगर चीन तब भी तुम्हारी इसी बेईमानी पर नजर रखते हुए तुम्हें सिर्फ दौड़ा ही रहा था। भूल गए चीन ने कैसे भगाया? तो जब ये थर्ड पार्टी टूल्स हमारी प्रोफाइल्स एक्सेस कर रहे थे, हमारे पर तो इसकी नोटिफिकेशन आती थी, ऐसा कैसा तुम्हारा सिस्टम है कि तुम्हारे पास इसकी नोटिफकेशन ही नहीं आती थी? भावना एंड किंबा प्रकाशन कानपुर क्या अब सोचेंगी कि वह हमेशा नंबर वन दोस्त कैसे बनी रहती थीं? क्योंकि हमारे चैटबॉक्स के अंदर से लेकर बाहर तक, सबकुछ एनालाइज हो रहा था। अब जकरबर्ग कह रहे हैं कि पता ही नहीं चला। मतलब यार दुनिया में बस एक तुम्हीं समझदार हो?

एकबारगी फेसबुक यह तर्क दे सकता है कि जो कुछ भी हो, सिर्फ उसी की वेबसाइट पर हो, या यूजर जो कुछ भी करे, उसी की वेबसाइट पर करे। वेबसाइट के बाहर की चीजें फेसबुक में न आने पाएं, भले ही फेसबुक की चीजें उससे बाहर चली जाएं, जाती ही हैं। हालांकि, 70 फीसद चीजें जो फेसबुक से बाहर जाती हैं, वह फेसबुक के ही दूसरे प्रोडक्ट्स- इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप्प पर जाती हैं। गूगल और ट्विटर फेसबुक को सपोर्ट नहीं करते इसलिए उसकी चीजें आमतौर पर वह अपने हैंडल पर नहीं दिखाने देते। लेकिन भैया, हम बाहर से चाय की पत्ती लेकर आते हैं और जब चाय बनाते हैं तो उसमें अदरक इलायची दूध चीनी मिलाते हैं, जिन्हें चाय बनाने वाली कंपनी नहीं बनाती। मगर मार्क खुद को अधिक महीन दिमाग का समझते हैं सो इस मुसीबत से निपटने का उन्होंने जो तोड़ निकाला है- वह ये कि चाय की तलब हो तो सिर्फ पत्ती फांकिये। और ऐसा सिर्फ फेसबुक ही नहीं, दुनिया भर की वह सभी वेबसाइट्स करती हैं जिसमें लाला जी का पैसा लगा हुआ है। इसीलिए इंटरनेट में तीसरी-चौथी दुनिया तो बनी ही, भाई लोग तो मारियाना ट्रेंच तक का गोता लगा आए हैं।

एकबारगी यह बात मान भी ली जाए, और फेसबुक का कनेक्शन इससे बाहर की दुनिया से तोड़ भी दिया जाए, यानी थर्ड पार्टी ऑथेंटिकेशन डिसेबल कर भी दिया जाए, किसी के पास इसका कोई जवाब है कि फिर फेसबुक खुद हमारा डाटा नहीं चुराएगा? अरे भैया, फिर भी फेसबुक हमारा डाटा खूब चुराएगा। क्योंकि हमारे डाटा की चोरी करके वह अपने विज्ञापनदाताओं को वह डाटा बेचता है। जैसे मैं कई फेसबुक पेज चलाता हूं और फेसबुक का रेग्युलर विज्ञापनदाता हूं। इस ऐवज में फेसबुक मुझे लोगों की उम्र, लिंग, पसंद-नापसंद, जियोग्राफी, टाइम, एवरेज टाइम सहित इतने डाटा बेचता है, आम यूजर उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। मसलन, मुझे पता है कि पिछले 28 दिनों में मैं अमेरिका में कितने घंटे देखा गया हूं, किस-किस ने देखा है और जिसने भी देखा है, उसकी रुचियां-अरुचियां क्या हैं। एक चीज और है, जो मुझे नहीं पता पर फेसबुक को पता है। पर आने वाले दिनों में मुझे भी पता होगी क्योंकि पूंजीवाद बेचने की कोई चीज जेब में बचाकर कभी नहीं रखता। उसे तो बस मौका चाहिए जो अभी आया नहीं है। पर आएगा जरूर।

फेसबुक प्रोफाइल पर हम जो अपनी तस्वीर या सेल्फी अपलोड करते हैं, या फिर जो अपने बारे में डीटेल्स डालते हैं, मेरी नजर में वह बेहद छोटी डाटा चोरी है। सौ में से आधा फीसद या उससे भी कम। दुनिया की सबसे बड़ी डाटा चोरी हमारे इमोशंस हैं। फेसबुक हर पोस्ट पर छह तरह का इमोशन देता है, क्रमश: न्यूट्रल लाइक, रेड हार्ट इमोशन, हाहा इमोशन, वाऊ इमोशन, सैड इमोशन और क्रोध इमोशन। इन इमोशंस की डाटा माइनिंग से निकलने वाले सबसे प्रचलित प्रोडक्ट्स हैं- एआई प्रोडक्ट्स- यानी आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस प्रोडक्ट्स। हम क्या देखते हैं, क्या देखना चाहते हैं, क्या नहीं देखना चाहते, क्या हमेशा ही देखते रहना चाहते हैं, हमें कब गुस्सा आता है और किसपर प्यार आता है, सबकुछ फेसबुक की मशीन में रिकॉर्ड होता रहता है। इससे आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस डेवलप की जाती है और इसी बेस पर मशीनों को थोड़ा और इंसानों जैसा बनाने की ओर विज्ञान के कदम बढ़ते हैं। यहां तक तो बात मेरी समझ में आती है और न-न करते हुए भी मुझे पूरी दुनिया को लैब बनाकर रख देने के इस अमानवीय प्रयोग से सहमत होना ही पड़ता है।

लेकिन अगर यही प्रयोग इंसानों को थोड़ा और बेईमान, थोड़ा और धोखेबाज या थोड़ा और लालची बनाकर उस सिस्टम में सेंध लगाने के लिए किया जाए, जिसे हम इंसानों ने सैकड़ों सालों में बनाया और पाया है और जिसे लगातार बनाने और पाने के लिए हम सभी लड़ रहे हैं तो? फेसबुक के दिए हुए छह तरह के इमोशन हमसे निकलकर किसी न किसी तरह के कंटेंट (टेक्स्ट, ऑडियो, वीडियो, फोटो) से जाकर चिपकते हैं। इंटरनेट पर मौजूद हर तरह के कंटेंट की हर तरह से डाटा माइनिंग हो सकती है। यहां तक कि इसकी भी कि आपने साल में कितने दिन मोदी जी से प्यार किया और कितने दिन भाभी जी से, इसकी भी। मैं अगर आपके घर आकर भाभी जी को बताऊं कि भैया तो आपसे ज्यादा प्यार मोदीजी से करते हैं, सोचिए फिर क्या होगा? पिछले दिनों इसी मुद्दे पर देश में कई तलाक भी हो चुके हैं। बहरहाल, कंटेंट पर इमोशंस के डेटा फ्लो के अध्ययन से हम भविष्य को बदल सकते हैं और बदल भी रहे हैं। लेकिन मैनमेड सिस्टम को बदलने का कोई तो रीजन होगा? कोई तो कारण होगा कि दुनिया ने अपने उगने के बाद से जो कुछ पाया है, उसे सांख्यिकी क्यों बदल दे?

अगले में गूगल बाबा की कारस्तानी। फेसबुक तो बच्चा है जी। 

Wednesday, March 21, 2018

वह ऑर्गेज्म के वक्त बीवी का मुंह दबा देता है

कांग्रेस और बीजेपी दो अलग-अलग पार्टियां हैं, मगर विचारधारा दोनों की एक ही है- दक्षिणपंथ। दक्षिणपंथ-पूंजीवाद का ऐसा अतिव्यक्त उदाहरण दुनिया के दूसरे देशों में कम ही देखने को मिलता है, शायद न के बराबर ही। याद नहीं आता कि दुनिया के किसी और देश में दक्षिणपंथ ही पक्ष में हो और वही विपक्ष में भी हो।

होना तो यह चाहिए कि हम चीजें और साफ करने की ओर बढ़ते, जैसे कि दुनिया के दूसरे देश बढ़ रहे हैं। जर्मनी को देखिए, वहां से साफ सिस्टम कहीं और दिखेगा? माना कि पूरा साफ नहीं है पर जितना है, उतना क्या कहीं और है? मगर बात जब अपने यहां की आती है तो हमारी राजनीति की समूची आस्था गंदगी और धुंधलेपन में घुस जाती है। क्यों? क्योंकि हमारा मध्यवर्ग पड़ोसी की अरगनी पर लटकी ब्रा और कूड़े में पड़ा कांडोम ही देखता है और यही देखते रहना चाहता है।

ये ऐसा मध्यवर्ग है जो दूध फटने पर लाल झंडा उठाता है और बिवाई फटने पर फेसबुक में घुस जाता है। जो रेल से लेकर बैंक तक में कॉमरेड लाल सलाम तो कहता है, मगर घर में टीका लगाकर कहता है- शादी के लिए तो गोरी गौर ब्राह्मण लड़की ही चाहिए- उम्र 25 से कम, सरकारी सेवारत। बाकी जो चाहिए होता है- कान में फुसफुसाकर निकल जाता है। मुझे चौबीसों घंटे यह फुसफुस सुनाई देती है। पूरा देश फुसफुसा रहा है, लोकतंत्र भी। सरकार फुसफुसा रही है, विपक्ष का फुसफुसाना किसी से छुपा है? अंबानी का फुसफुसाना किस-किस ने नहीं सुना- नाम पता बताओ, मेरे पास कान का एक अच्छा डॉक्टर है।

देश एक फुसफुस है जो कानोंकान निकल जाना चाहता है। किसी और का हो या न हो, मेरा तो है ही। इतने साल हो गए पैदा हुए, इस देश को बोलते नहीं सुना। कैसे बोलेगा? दक्षिणपंथ बोलने देगा? बीजेपी या कांग्रेस? सपा या बसपा? टीडीपी या तृणमूल? फुसफुस एक थैली है, जिसके ये सब चट्टे बट्टे हैं। बल्कि चट्टे-बट्टे भी नहीं, ये जोंक हैं। इस जोंक का पेट अंबानी या अडानी नहीं है, इसका पेट हमारे देश का मध्यवर्ग है। जो वही है, जो सबकुछ चूस लेना चाहता है और जानबूझकर डकार नहीं लेता है। इसलिए कि पड़ोसी को न पता चल जाए कि उसका पेट भरा है।

केरल के एनकेपी मुथुकोया की एक पेंटिंग
हेडफोन लगाकर पॉर्न फिल्म की आह-आहा सुनता है और ऑर्गेज्म के वक्त बीवी का मुंह दबा देता है। गली में घूमती मुर्गी को देखकर मुंह बनाता है और केएफसी के हॉट विंग्स के साथ एलिफैंट स्ट्रॉन्ग गटक जाता है। जो चाहता है कि दुनिया में पढ़े तो बस वही पढ़े, काम मिले तो बस उसी को मिले, ईनाम मिले तो बस उसी को मिले, इंतजाम मिले तो बस उसी को मिले- और किसी को भी न मिले। कतई नहीं। किसी और को मिलने लगता है तो वह फेसबुक पर सुसाइड नोट डालकर रस्सी में गला फंसाने लगता है- और उसे लगता है कि ये रस्सी सीधे किसी बड़ी रस्सी के पेट से निकली है और सिर्फ उसके लिए ही निकली है और इसलिए, वह रस्सी हमेशा टूट जाती है। वह जानता है कि वह नहीं मरेगा।

जानता हूं कि वह नहीं मरेगा। जबसे हुआ हूं, उसे गले में रस्सी लटकाए ही देख रहा हूं। हम सबने अपने-अपने गले में रस्सी लटका रखी है और बड़े आराम से हैं। पत्रकार साहब लिख रहे हैं, डॉक्टर साहब ऑपरेशन कर रहे हैं, वकील साहब जिरह कर रहे हैं, प्रफेसर साहब कामायनी पढ़ा रहे हैं, इंजीनियर साहब स्टार्टअप बढ़ा रहे हैं, कवि कविता सुना रहा है, कहानीकार -कहानी। सब बड़े आराम में हैं। बीजेपी और कांग्रेस वाले भी बड़े आराम में हैं। वह भी इसी रस्सी को देखते हैं। जो इस रस्सी के पार निकल गया, उसे नहीं देखते। देखेंगे भी कैसे? वह तो पार निकल गया।

यह रस्सी नहीं टूटेगी। इस रस्सी को वही तोड़ सकते हैं, जिन्होंने भीषण भूख चखी है। जिनकी आंतें उनका पेट खुरचती हैं। आंख से निकले बूंद भर पानी से गलकर बह जाने वाली रस्सी वह कैसे तोड़ेंगे जिनकी सूखी आंख में 'मैं ही हूं' की लालच भरी है।

यहां से मध्यवर्ग के लिए मेरी शराफत की सीमा समाप्त होती है।
फायदा नहीं इससे शराफत बरतने का।
और मैं नुकसान का व्यापारी हूं।  

Thursday, March 15, 2018

सृष्टि से बाहर कुछ नहीं, स्रष्टा कैसे होगा?

क्या स्टीफन हॉकिंग (जन्म 8 जनवरी 1942, मृत्यु 14 मार्च 2018) हमारे दौर के आइंस्टाइन थे? नहीं। अच्छा होगा कि उनके फर्क को हम उनके व्यक्तित्वों से ज्यादा उनके दौरों के बीच सीमित करके देखें। आइंस्टाइन का दौर प्रयोगों के दौरान हुए ब्रेकथ्रू को समझने के क्रम में सृष्टि को देखने का नया नजरिया विकसित करने का था, जबकि स्टीफन हॉकिंग का दौर प्रयोगों के ठहराव से उपजे भौतिकी के सबसे बड़े और लंबे कन्फ्यूजन का था। वह स्थिति पिछले कुछ वर्षों में बदलनी शुरू हो गई है।

खासकर यूरोपीय संघ के साझा प्रयासों से अभी सूक्ष्म और विराट, दोनों स्तरों के निश्चयात्मक प्रेक्षण आने शुरू हो गए हैं। जिन वैज्ञानिकों के पास इन प्रेक्षणों की व्याख्या करते हुए सृष्टि के ज्यादा गहरे नियम खोजने का दम होगा, उन्हें अगले दौर के आइंस्टाइन जैसा दर्जा हासिल होगा। लेकिन स्टीफन हॉकिंग का अपना अलग क्लास है और सैद्धांतिक भौतिकशास्त्रियों में ज्यादातर अल्बर्ट आइंस्टाइन बनने का सपना देखेंगे तो कुछेक स्टीफन हॉकिंग भी जरूर बनना चाहेंगे।


एक धारणा स्टीफन हॉकिंग को वैज्ञानिक के बजाय विज्ञान प्रचारक के रूप में देखने की भी है, जो बिल्कुल गलत है। 1966 में गणितज्ञ रॉजर पेनरोज के साथ मिलकर ब्लैक होलों पर अपने गणितीय काम की शुरुआत करने से लेकर 1990 दशक के मध्य तक स्टीफन हॉकिंग गणित और मूलभूत भौतिकी की संधि पर गंभीरतम काम में जुटे रहे। इसके बीच में उनकी ऑल-टाइम बेस्टसेलर ‘द ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ भी आई, जिसकी कुछ धारणाओं पर वे हाल तक आगे-पीछे होते रहे। लेकिन उन्हें ब्लैक होलों को लेकर खोजे गए उनके चार नियमों के लिए जाना जाएगा, जिनके बाद में कुछ सीमावर्ती अपवाद भी उन्होंने खोजे।

उनके काम के साथ एक बहुत अच्छी और एक बहुत बुरी बात जुड़ी है। अच्छी बात यह कि ब्लैक होल ऐसी चीज है, जहां भौतिकी के दोनों मूलभूत सिद्धांत थिअरी ऑफ रिलेटिविटी (सापेक्षिकता सिद्धांत) और क्वांटम मेकेनिक्स एक ही दायरे में काम करते हैं। बाकी दुनिया के लिए पहले का रिश्ता विराट से और दूसरे का सूक्ष्म से है। बुरी बात यह कि ब्लैक होलों का सीधा प्रेक्षण लगभग असंभव है, लिहाजा उनसे जुड़े किसी सिद्धांत को सही या गलत साबित करने का कोई तरीका नहीं है। लेकिन सूक्ष्म और विराट, दोनों ही स्तरों के प्रेक्षणों की रफ्तार इक्कीसवीं सदी में इतनी तेज हो गई है कि अटकलबाजी अब ज्यादा देर टिकती नहीं।

स्टीफन हॉकिंग का दावा था कि हिग्स बोसॉन (गॉड पार्टिकल) कभी खोजा नहीं जा सकेगा। पीटर हिग्स ने कण भौतिकी के अपने मॉडल के साथ यह प्रस्थापना 1964 में दी थी, जब अपनी असाध्य बीमारी की शिनाख्त के बाद स्टीफन हॉकिंग एक गंभीर अध्येता के रूप में फंडामेंटल फिजिक्स के दायरे में घुसे ही थे। हिग्स ने 1990 के दशक में किए गए हॉकिंग के इस दावे के खिलाफ अपनी तीखी प्रतिक्रिया में कहा था कि इस वैज्ञानिक को इसके काम की तुलना में बहुत ज्यादा तवज्जो मिलती है।

बाद में लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर के एक प्रयोग में हिग्स बोसॉन को खोज लिया गया तो हॉकिंग की काफी किरकिरी हुई। हालांकि हॉकिंग ने इस खोज के लिए हिग्स को बधाई दी और कहा कि उन्हें तत्काल नोबेल प्राइज दिया जाना चाहिए, जो अगले साल 2013 में उन्हें मिल भी गया।


आइंस्टाइन के साथ हॉकिंग की तुलना पर वापस लौटें तो हॉकिंग आजीवन आइंस्टाइन के फील्ड इक्वेशंस को ही नई-नई शर्तों के साथ हल करते रहे, जो कि ज्यादातर भौतिकशास्त्रियों का स्थायी काम है। उनकी मान्यताओं के बीच टकराव सृष्टि के प्रारंभ बिंदु को लेकर निकाले गए निष्कर्षों को लेकर था।

आइंस्टाइन की समझ में इस मुकाम पर किसी स्रष्टा की गुंजाइश बनी रहती थी, जबकि हॉकिंग के यहां वह सिरे से खारिज हो जाती थी। हॉकिंग ने साबित किया कि जिस सिंगुलरिटी से सृष्टि का प्रारंभ होता है, उसके गणित में कोई बाहरी बिंदु होता ही नहीं। ऐसे में स्रष्टा के होने की न कोई जगह बचती है, न जरूरत।

इसके अलावा अपनी किताबों में हॉकिंग ने आइंस्टाइन की सामाजिक-राजनीतिक धारणाओं की तीखी आलोचना भी की है, जिसका बतौर वैज्ञानिक उतना ज्यादा मायने नहीं है। आइंस्टाइन जब विज्ञान से दर्शन के दायरे में निकलते थे तो वहां उनकी मुलाकात घोर धार्मिक लोगों से भी होती थी। हॉकिंग के लिए दर्शन विज्ञान के भीतर ही था और बाहर निकल कर अवैज्ञानिक सोच के साथ बिरादराना कायम करने की इच्छा उनमें कभी नहीं देखी गई।

By- Chandrabhushan

Wednesday, March 14, 2018

आदमी अगर पाजामा है तो औरत पेटीकोट

आदमी अगर पाजामा है तो औरत पेटीकोट। और यह बात मैं आदमी और औरत, दोनों को हाजिर नाजिर मानकर कह रहा हूं। यह मजाक नहीं है, बल्कि उतना ही बड़ा सत्य है, जितना बड़ा पाजामा होता है, या फिर पेटीकोट। जिस तरह से पुरुष कभी भी पैंट से बाहर आकर पाजामा बन जाता है, उसी तरह से औरत भी पेटीकोट बन जाती है। बाहर आने की बात इसलिए गोल कर रहा हूं कि किसी के मन में शील-अश्लील लड्डू न फूटने लगें। आदमी को पाजामा कहने की हिम्मत हर किसी में होती है और जिसमें नहीं होती, उसमें आदमी पाजामा पहनकर पैदा कर देता है। औरत को पेटीकोट कहने की हिम्मत किसी में नहीं होती, मगर जिस तरह से महात्मा गांधी ने चौरीचौरा के बाद असहयोग आंदोलन स्थगित करने की हिम्मत दिखाई थी, उसी तरह से मैं भी आज औरत को पेटीकोट कहने की हिम्मत दिखा रहा हूं। पेटीकोट नहीं दिखा रहा हूं, वो मेरे पास नहीं है। पाजामा है, और हिम्मत भी। जिस किसी ने देखना या देखनी हो, आए और छूकर देख ले।
रात रिक्शा किनारे-किनारे चला जा रहा था कि एक औरत पीछे से हॉर्न बजाने लगी। यह भी नहीं कि एक-दो बार बजाकर चुप हो जाए और कम से कम रिक्शे के किनारे होने तक वेट कर ले। औरत थी कि लगातार हॉर्न बजाती ही जा रही थी। मैंने रिक्शेवाले को डांटकर तुरंत रिक्शा किनारे कराया तो उसी तरह से हॉर्न बजाते हुए औरत आगे निकली। आगे स्पीडब्रेकर था। मैंने रिक्शेवाले से कहा- देखना, अभी ये स्पीडब्रेकर देखकर भी हॉर्न बजाएगी। और सचमुच उसने स्पीडब्रेकर देखकर हॉर्न बजा ही दिया। रिक्शेवाला खिलखिलाने लगा। मैंने कहा- बेटे, अभी कोई आदमी इस तरह से करता तो तुम उसे क्या कहते? वह बोला- पागल कहता। मैंने पूछा- पाजामा न कहते? खी-खी करते हुए वह बोला- पाजामा तो जरूर कहता और दो चार होते तो नाड़ा भी खींच देते। मैंने कहा- बेटे, इस औरत को रोककर पेटीकोट कहकर दिखाओ। हीही करते वह बोला- कहने का तो बहुत जोर से मन हो रहा है, मगर कह दिया तो मेरा पाजामा फाड़ दिया जाएगा।
आगे पहुंचा तो पीछे से चार चार आदमी हॉर्न बजाने लगे। बजाते हुए वह कार की सीट पर से ही उछल-उछलकर देख रहे थे कि आगे जाने का रास्ता आगे है या पीछे तो नहीं छोड़ आए? मुझे चार-चार पाजामे दिखे। मैंने फिर रिक्शेवाले को चढ़ाया- अबे, पेटीकोट नहीं बोला था, अब पाजामा तो बोल दे। रिक्शावाला जोश में आ गया। चारों जब ओवरटेक करके निकलने को हुए तो उसमें से वह दो से बोलने को पा गया- अबे आदमी हो या पाजामा? उधर जिसने पाजामा सुना, वह मुंह से नाड़ा निकालता हुआ भागा। भागा इसलिए क्योंकि भागने के अलावा और कोई चारा न था। रात मैं इस बात का प्रत्यक्ष गवाह बना कि पुरुष जब पाजामा पहनकर भागते हैं तो उनमें मुंह में नाड़ा होता है, जो बाहर निकलता रहता है। वैसे बाज दफे मैंने यह नाड़ा पेटीकोट से भी निकलता देखा है।
आदमी का पाजामा मैचिंग हो या न हो, औरत का पेटीकोट जरूर मैचिंग होता है। आदमी जब पाजामा बनता है तो वह मिसमैचिंग नाड़े दिखाता है। किसी की सिलाई में गहरी मैल जमी होती है तो फुंदे साफ होते हैं, तो किसी के फुंदे दातून की तरह कूंचे होते हैं और सिलाई उधड़ी होती है। औरत जब पेटीकोट बनती है तो कसम से बता रहा हूं, न मैं पेटीकोट देखता हूं और न ही उसका नाड़ा। मानता हूं कि मैं बहुत कुछ देखता हूं, लेकिन मैं यह कभी नहीं मानूंगा कि मैंने पेटीकोट देखा है। गीता पर हाथ रखवाएंगे, तो भी नहीं मानूंगा। हां, आकांक्षा या श्वेता पर हाथ रखवाएंगे तो मान जाउंगा। लेकिन तब भी इतना ही मानूंगा कि कोट देखा है- पेटी और नाड़ा नहीं देखा। पूरी बात मनवाने के लिए सविता को सामने लाना पड़ेगा और मेरे कान में फुसफुसाना पड़ेगा कि- अबे भाभी हैं भाभी!
खैर, यह तो मजाक की बात हुई। असल बात तो यह है कि हम आदमी को तो पाजामा कह देते हैं, औरत को पेटीकोट क्यों नहीं कहते? इसका जवाब भी मुझे एक रिक्शेवाले ने दिया। उसने मुझे बताया कि आदमी को कितनी भी गाली दो, उसके पाजामे का नाड़ा भी खोल दो, वह रहेगा पाजामा ही। मगर औरत को कितना भी पेटीकोट बोलो, नाड़ा खोलो या न खोलो, या नाड़े की ओर देखो ही मत, फिर भी वह रहेगी औरत ही। कह सकते हैं कि पुरुष हमेशा पाजामा बना रहता है, मगर स्त्री कभी-कभार ही पेटीकोट बनती है। फिर भी बनती तो है। और चूंकि वह बनती है, इसलिए दुनिया में एक अज्ञात जगह पर बैठकर मैं लिखता हूं कि आदमी अगर पाजामा है तो औरत पेटीकोट। 

हमें ब्रह्मांड का पेटेंट कराके रॉयल्टी वसूलनी चाहिए: हॉकिंग

स्टीफन हॉकिंग मुझे पिछली दो सदियों के महानायक लगते रहे हैं और मैं उन्हें देवतुल्य मानता हूं. उनके न रहने का दुखद समाचार आ रहा है. यह बहुत बड़ा नुकसान है. उन्हें याद करते हुए 2014 की उनकी एक वार्ता के अंश - अशोक पांडे
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"इस ब्रह्माण्ड से अधिक बड़ा या पुराना कुछ नहीं है. मैं जिन प्रश्नों की बाबत बात करना चाहूंगा वे हैं: पहला, हम कहां से आये? ब्रह्माण्ड अस्तित्व में कैसे आया? क्या हम इस ब्रह्माण्ड में अकेले हैं? क्या कहीं और भी ‘एलियन’ जीवन है? मानव जाति का भविष्य क्या है?

1920 के दशक तक हर कोई सोचता था कि ब्रह्माण्ड मूलतः स्थिर और समय के सापेक्ष अपरिवर्तनशील है. फिर यह खोज हुई कि ब्रह्माण्ड फैल रहा था. सुदूर तारामंडल हमसे और दूर जा रहे थे. इसका अर्थ यह हुआ कि पहले वे एक दूसरे के नज़दीक रहे होंगे. यदि हम पीछे इसके विस्तार में जाएं तो पाएंगे कि आज से करीब 15 बिलियन वर्ष पहले हम सब एक दूसरे के ऊपर रहे होंगे. यही ‘बिग बैंग’ था, ब्रह्माण्ड की शुरुआत.

लेकिन क्या बिग बैंग से पहले भी कुछ था? अगर नहीं था तो ब्रह्माण्ड की रचना किसने की? बिग बैंग के बाद ब्रह्माण्ड उस तरह अस्तित्व में क्यों आया जैसा वह है? हम सोचा करते थे कि ब्रह्माण्ड के सिद्धांत को दो भागों में बांटा जा सकता है. पहला यह कि कुछ नियम थे जैसे मैक्सवेल की समीकरण वगैरह और यह देखते हुए कि एक दिए गए समय में समूचे स्पेस में उसकी जो अवस्था थी उसमें सामान्य सापेक्षता ने ब्रह्माण्ड के विकास को निर्धारित किया. और दूसरा यह कि ब्रह्माण्ड की प्रारंभिक अवस्था का कोई प्रश्न ही नहीं था.

पहले हिस्से में हमने अच्छी तरक्की की है, और अब हमें केवल सबसे चरम परिस्थितियों के अलावा अन्य सभी परिस्थितियों में विकास के नियमों का ज्ञान है. लेकिन अभी हाल के समय तक हमें ब्रह्माण्ड के लिए प्रारम्भिक परिस्थितियों की बाबत बहुत कम ज्ञान था. यह और बात है कि विकास के नियमों में इस तरह का वर्गीकरण और प्रारम्भिक परिस्थितियां अलग और विशिष्ट होने के साथ ही समय और स्पेस पर निर्भर होती हैं. चरम परिस्थितियों में, सामान्य सापेक्षता और क्वांटम थ्योरी समय को स्पेस में एक अलग आयाम की तरह व्यवहार करने देती हैं. इस से समय और स्पेस के बीच का अंतर मिट जाता है, और इसका यह अर्थ हुआ कि विकास के नियम प्रारम्भिक परिस्थितियों को भी निर्धारित कर सकते हैं. ब्रह्माण्ड अपने आप को शून्य में से स्वतःस्फूर्त तरीके से रच सकता है.

इसके अलावा, हम एक प्रायिकता की गणना कर सकते हैं कि ब्रह्माण्ड अलग-अलग परिस्थितियों में अस्तित्व में आया था. ये भविष्यवाणियां कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड के WMAP उपग्रह के पर्यवेक्षणों, जो कि बहुत शुरुआत के ब्रह्माण्ड की एक छाप है, से बहुत ज्यादा मेल खाती हैं. हम समझते हैं कि हमने सृष्टि के रहस्य की गुत्थी को सुलझा लिया है. संभवतः हमने ब्रह्माण्ड का पेटेंट करवाकर हर किसी से उसके अस्तित्व के एवज़ में रॉयल्टी वसूलनी चाहिए.

अब मैं दूसरे बड़े सवाल से मुख़ातिब होता हूं – क्या हम अकेले हैं या ब्रह्माण्ड में और भी कहीं जीवन है? हम विश्वास करते हैं कि धरती पर जीवन स्वतःस्फूर्त ढंग से उपजा, सो यह संभव होना चाहिए कि जीवन दूसरे उपयुक्त ग्रहों पर भी अस्तित्व में आ सके जिनकी संख्या पूरी आकाशगंगा में काफी अधिक है .

लेकिन हम नहीं जानते कि जीवन सबसे पहले कैसे अस्तित्व में आया. हमारे पास इसके पर्यवेक्षणीय प्रमाणों के तौर पर दो टुकड़े उपलब्ध हैं. पहला तो 3.5 बिलियन वर्ष पुराने एक शैवाल के फॉसिल हैं. धरती 4.6 बिलियन वर्ष पहले बनी थी और शुरू के पहले आधे बिलियन सालों तक संभवतः बहुत अधिक गर्म थी. सो धरती पर जीवन अपने संभव हो सकने के आधे बिलियन वर्षों बाद अस्तित्व में आया जो कि धरती जैसे किसी गृह के दस बिलियन वर्षों के जीवनकाल के सापेक्ष बहुत छोटा कालखंड है. इससे यह संकेत मिलता है कि जीवन के अस्तित्व में आने की प्रायिकता काफी अधिक है. अगर यह बहुत कम होती तो आप उम्मीद कर सकते थे कि ऐसा होने में उपलब्ध पूरे दस बिलियन वर्ष लग सकते थे.

दूसरी तरफ, ऐसा लगता है कि अब तक हमारे गृह पर अजनबी ग्रहों के लोगों का आगमन नहीं हुआ. मैं UFO’s की रपटों को नकार रहा हूं. वे सनकियों या अजीबोगरीब लोगों तक ही क्यों पहुंचते हैं? अगर ऐसा कोई सरकारी षडयंत्र है जो इन रपटों को दबाता है और अजनबी ग्रहवासियों द्वारा लाये गए वैज्ञानिक ज्ञान को अपने तक सीमित रखना चाहता है, तो ऐसा लगता है कि यह नीति अब तक तो पूरी तरह से असफल रही है. और इसके अलावा SETI प्रोजेक्ट के विषद शोध के बावजूद हमने किसी भी तरह के एलियन टीवी क्विज़ शोज़ के बारे में नहीं सुना है. इससे संभवतः संकेत मिलता है कि हमसे कुछ सौ प्रकाशवर्ष की परिधि में हमारे विकास की अवस्था में कहीं कोई एलियन सभ्यता नहीं है. इसके लिए सबसे मुफ़ीद उपाय यह होगा कि एलियनों द्वारा अपहृत कर लिए जाने की अवस्था के लिए बीमा पालिसी जारी की जाएं.

अब मैं सबसे आख़िरी बड़े प्रश्न पर आ पहुंचा हूं; मानव सभ्यता का भविष्य. अगर हम पूरी आकाशगंगा में अकेले बुद्धिमान लोग हैं, तो हमें सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारा अस्तित्व बना रहे और चलता रहे. लेकिन हम लोग अपने इतिहास के एक लगातार अधिक खतरनाक होते हुए दौर में प्रवेश कर रहे हैं. हमारी आबादी और हमारी धरती के सीमित संसाधनों का दोहन बहुत अधिक तेज़ी से बढ़ रहे हैं, साथ ही हमारी तकनीकी क्षमता भी बढ़ रही है कि हम पर्यावरण को अच्छे या बुरे दोनों के लिए बदल सकें. लेकिन हमारा आनुवांशिक कोड अब भी उन स्वार्थी और आक्रामक भावनाओं को लिए चल रहा है जो बीते हुए समय में अस्तित्व बचाए रखने के लिए लाभदायक होती थीं. अगले सौ सालों में विनाश से बच पाना मुश्किल होने जा रहा है, अगले हज़ार या दस लाख साल की बात तो छोड़ ही दीजिये.

हमारे अस्तित्व के दीर्घतर होने का इकलौता अवसर इस बात में निहित है कि हम अपनी पृथ्वी ग्रह पर ही न बने रहें, बल्कि हमें अन्तरिक्ष में फैलना चाहिए. इन बड़े सवालों के उत्तर दिखलाते हैं कि पिछले सौ सालों में हमने उल्लेखनीय तरक्की की है. लेकिन यदि हम अगले सौ वर्षों से आगे भी बने, बचे रहना चाहते हैं तो हमारा भविष्य अन्तरिक्ष में है. इसीलिये मैं हमेशा ऐसी अन्तरिक्ष यात्राओं का पक्षधर रहा हूं जिसमें मनुष्य भी जाएं.

अपनी पूरी ज़िन्दगी मैंने ब्रह्माण्ड को समझने और इन सवालों के उत्तर खोजने की कोशिश की है. मैं भाग्यशाली रहा हूं कि मेरी विकलांगता गंभीर अड़चन नहीं बनी. वास्तव में इसके कारण मुझे उससे अधिक समय मिल सका जितना अधिकतर लोग ज्ञान की खोज में लगाते हैं. सबसे आधारभूत लक्ष्य है ब्रह्माण्ड के लिए एक सम्पूर्ण सिद्धांत, और हम अच्छी तरक्की कर रहे हैं.

मैं समझता हूं कि यह बहुत संभव है कि कुछ सौ प्रकाशवर्षों के दायरे में हम इकलौती सभ्यता हों; ऐसा न होता तो हमने रेडियो तरंगें सुनी होतीं. इसका विकल्प यह है कि सभ्यताएं बहुत लम्बे समय तक नहीं बनी रह पातीं, वे खुद अपना विनाश कर लेती हैं."

Tuesday, March 13, 2018

इस मर्द को दर्द कहां होता है जी?

वैसे तो मर्द बनता है लेकिन बात बॉलीवुड की हो तो यहां मर्द बनती है। खैर, बात तबकी है, जब मर्द बननी थी। मर्द बनाने वाले अपने मर्द के लिए औरत की तलाश में थे। पूछते-घूमते कैफी की लड़की के पास पहुंचे और उसी से पूछा कि क्या तुम हमारे मर्द की औरत बनोगी? बताने वालों ने बेचारों को ये तो बताया था कि लड़की कैफी की है, पर शायद ये नहीं बताया था कि बेटे- कैफी क्या हैं?
मर्द बनाने वालों ने जब कैफी की लड़की से पूछा कि 'बताओ भई, हमारे मर्द की औरत बनने का क्या लोगी' तो लड़की बोली- 'एक चवन्नी भी न लूंगी।' मर्द बनाने वाले चौंके। मन में भी लड्डू फूटे। फूटते लड्डुओं को चुपके से गटकते हुए बोले- 'ऐसा भी कहीं होता है?' लड़की बोली- 'जैसा मर्द आप बना रहे हो, वैसा मर्द भी कहीं होता है?' मर्द बना ही देने के पीछे पड़े लोगों ने बोला- 'फिर भी, कुछ तो लीजिए ना।'
लड़की बोली- 'देखिए, पैसे तो हमें एक भी न चाहिए। बस जिसे मर्द बनाया है, उसे औरत बना दीजिए। ...और मुझे मर्द।' मर्द बनाने वाले मरा मुंह लेकर वापस हो गए। उन्होंने लड़की को मर्द बनाने से अच्छा मर्द जैसी दिखती लड़की को मर्द में औरत बना दिया।
ये बात मुझे कैसे याद आई? ऐसे कि जब किसान मुंबई में थे तो पूरी मुंबई उनकी सेवा में लगी थी। हर कोई अपने-अपने स्तर से जो कर पा रहा था, कर रहा था। मगर अपना ये बॉलीवुडिया मर्द नामर्दों की तरह घर में छुपा बैठा था। ऐसा नहीं कि किसी ने इसके घर के बाहर आवाज नहीं लगाई। खूब लगाई। पर इस मर्द को दर्द कहां होता है जी?

कोई पता लगाके बताए कि क्या इसके हाथ पर अभी भी 'मेरा बाप चोर है' गुदा है और सीने पर अभी भी 'मर्द' खुदा है? अल्लारखा तो उड़ गया, मैंने उड़ते देखा।

Monday, March 12, 2018

कोई पत्रकार मि‍ले तो उसे खाना ही खि‍ला दीजि‍ए...

मेरे एक मि‍त्र सहारनपुर में पत्रकार हुए। सहारनपुर के नहीं थे, मगर नौकरी खींच ले गई। तनख्‍वाह तय हुई साढ़े पांच हजार रुपए महीना, साढ़े तीन सौ रुपए मोबाइल और साढ़े छह सौ रुपए पेट्रोल। मित्र महोदय खुश, कि चलो फ्रीलांसिंग से तो पांच हजार का भी जुगाड़ नहीं हो पाता था, यहां कम से कम साढ़े छह मिलेंगे।
दि‍ल्‍ली से घर बार बीवी लेकर सहारनपुर पहुंचे और ढाई हजार रुपए में एक कमरा कि‍राए पर लि‍या। आठ दस साल पहले की बात है, सस्‍ते का जमाना था। साथ में एक साथी पत्रकार काम करते थे, जि‍नका सहारनपुर में ही गांव था। वो गांव से आने वाली आलू प्‍याज में एक हि‍स्‍सा इन्‍हें भी देते, सो बेसि‍क सब्‍जी का भी खर्च कम हो गया। फि‍र भी बचते बचते महीने की बीस तारीख तक वो पैसे खत्‍म हो जाते, जो लाला हर महीने सात दि‍न देर से देता।
इसी बीच बीवी ने एक दि‍न खुशखबरी दी तो पत्रकार महोदय ने मंदि‍र में जुगाड़ लगाकर प्रसाद में चढ़े दो तीन कि‍लो लड्डू हथि‍याए और दफ्तर में सबका मुंह मीठा कराया। साथि‍यों ने जै-जै की, पत्रकार महोदय फूले। मैंने भी देखा, बाइचांस वहीं थी। सबकुछ ठीक चल रहा था कि पांचवे हफ्ते डॉक्‍टर ने कहा कि कुछ भी ठीक नहीं। बीवी को भर्ती कराया, बच्‍चा गंवाया। डॉक्‍टरनी ने तो फीस नहीं ली, मगर साढ़े नौ हजार की दवाइयां लि‍ख दीं।
साथी पत्रकारों  ने मदद की, फि‍र भी साढ़े चार हजार रुपए की कमी थी। पत्रकार महोदय को वही अधि‍कारी याद आए, जि‍न्‍हें उनके बड़े भाई ने सहारनपुर में उनका लोकल गार्जियन बनाया था। ये पहुंचे उनके पास, लेकि‍न मुश्‍किल ये कि बतौर पत्रकार तो उन्‍होंने उस अधि‍कारी की भी बेजा हरकतें अखबार-ए-आम की हुई थीं। अब बोलें तो बोलें कैसे। बड़ी मुश्‍किल से अटक-अटक कर मुसीबत के बारे में बताया। अंत में मदद की दरख्‍वास्‍त की- यह कहकर कि सात तारीख को पूरी रकम चुका देंगे। अधि‍कारी महोदय ने कहा- सोचेंगे।
पत्रकार महोदय के मुताबि‍क उन्‍हें अंदाजा हो गया था, सो अधि‍कारी के यहां से बाइक लेकर नि‍कले और पहुंचे सीधे मि‍स्‍त्री की दूकान पर। बाइक बेच दी और उसकी जगह ली एक और भी सस्‍ती और तीसरे दि‍न खराब रहने वाली बाइक। बचे हुए पैसों से दवा खरीदी और घर पहुंचे।
कुछ समय पहले उनसे बात हो रही थी। बता रहे थे कि लाला ने मजीठि‍या न देने के लि‍ए चार बार साइन कराए हैं। फि‍र उसी अधि‍कारी की याद दि‍लाई। बोले कि दि‍ल्‍ली रोड पर वसूली करते वि‍जलेंस वालों ने पकड़ा। कहने लगे- आप तो वापस चली गई थीं, मगर इस अधि‍कारी ने संपादक के पास लि‍खकर शि‍कायत की थी और मेरी रि‍कॉर्डिंग भी कर ली थी। लेकि‍न रिकॉर्डिंग में भी मैंने कोई गलत बात नहीं की थी, इसलि‍ए संपादक जी ने छोड़ दि‍या। दफ्तर आकर भी उन्‍होंने बहुत हंगामा कि‍या तो संपादक जी ने उनसे कहा कि आप मुकदमा दर्ज कराइए। वो तो पुलि‍स में नहीं गए, मगर अब पुलि‍स उन्‍हें जरूर ले गई।
अब उन्‍हें महीने में साढ़े बारह हजार रुपए तनख्‍वाह, पांच सौ मोबाइल और हजार पेट्रोल के मि‍लने लगे हैं। आलू प्‍याज वैसे ही साथी पत्रकार के गांव से बि‍ला नागा आ जाती है, जैसे आठ दस साल पहले आती थी। पैसे पहले बीस बाइस को खत्‍म होते थे, अब तो 18 तक का भी इंतजार नहीं करते और अगर सात को संडे पड़ गया तो नौ तक ही मि‍लते हैं। हर महीने आधी तनख्‍वाह एडवांस में कटती है। मैंने उनको कई बार कहा कि वि‍चार से जीवन नहीं चलेगा, कुछ कमाई करि‍ए। रि‍पोर्टर हैं तो अधि‍कारि‍यों से या कि‍सी से भी कुछ कमाने की सेटिंग करि‍ए। बोले, एक जगह मैगजीन डि‍जाइन करने का काम मि‍ला है, महीने में दो बार करना है, ढाई दे देंगे। कुल मि‍लाकर वो वैसे कमाने के लि‍ए नहीं मान रहे हैं, जैसे कि मैं कह रही हूं।
बात सहारनपुर के पत्रकार की ही नहीं है, कहानी अकेले एक अखबार की भी नहीं। पहले संपादक भी सबकी सोचते थे, अब तो संपादक वह जीव है जो सबसे ज्‍यादा सैलरी इसलि‍ए लेता है कि पत्रकारों को सबसे कम सैलरी दी जा सके। तुर्रा ये कि पत्रकारि‍ता का त भी न पहचानने वाले जब तब उन्‍हें भ्रष्‍ट कहते रहते हैं। जानते हैं, पत्रकार दुनि‍या का अकेला ऐसा जीव होता है जो दुनि‍याभर के लि‍ए आवाज उठाता है, पर खुद के लि‍ए ऐसे खामोश हो जाता है, जैसे कि‍सी ने जबरदस्‍ती उसके मुंह में कपड़ा ठूंसकर बांध दि‍या हो। याद करि‍ए आखि‍री बार शहर में कब पत्रकारों को अपने लि‍ए आवाज उठाते देखा।
पत्रकार अगर भ्रष्‍ट हैं तो मैं कहती हूं कि‍ उन्‍हें और भी भ्रष्‍ट होना चाहि‍ए। तब तक पूरी तरह से भ्रष्‍ट होना चाहि‍ए, जब तक कि उनका और उनके परि‍वार का पेट तीन वक्‍त न भरे। धर्म भी यही कहता है। जि‍न हालातों में इस वक्‍त देश भर के भाषाई पत्रकार हैं, अगर वह भ्रष्‍ट नहीं हैं तो वह अधर्मी हैं। उन्‍हें अपनेे ही बच्‍चों की भूख भरी आह लगेगी।
जि‍स कि‍सी को इस भ्रष्‍टाचार से दि‍क्‍कत है, तो पहले वह पत्रकारों की मदद करना शुरू करें, तभी उनकी भी दि‍क्‍कत खत्‍म होगी, पत्रकारों की भी। कुछ नहीं कर सकते तो कोई पत्रकार मि‍ले तो उसे खाना ही खि‍ला दीजि‍ए। जबरदस्‍ती। पत्रकारि‍ता हमेशा समाज के भरोसे ही आगे बढ़ती आई है, न कि सत्‍ता के। सत्‍ता के भरोसे होती तो सत्‍ता उसे कब की मिटा चुकी होती। चीन में देखि‍ए, मि‍टा ही चुकी है। दि‍ल्‍ली, लखनऊ, पटना, कलकत्‍ता का चश्‍मा उतारकर जरा उन शहरों के पत्रकारों की भी खबर लीजि‍ए, जहां से खबरें आती हैं। जोगेंद्र सिंह और राम चंदेर प्रजापति याद हैं या भूल गए?

लेखिका- रोहिणी गुप्ते

Saturday, March 10, 2018

हिंदी पत्रकारिता के पितामह का गांव

बाबूराव विष्णुराव पराड़कर: तस्वीर- शीतल वर्मा
काशी का पराड़कर भवन पत्रकारिता और सामाजिक गतिविधियों का केंद्र है, किंतु पराड़ गांव में कुछ बुजुर्गों की यादों के सिवा कुछ नहीं जिसे पराड़कर से जोड़ा जा सके।आजादी के संघर्ष में अपनी लेखनी से अभूतपूर्व योगदान करने वाले गैर हिंदीभाषी बाबूराव विष्णु पराड़कर का हिंदी पत्रकारिता में ऊंचा स्थान रहा है। नई पीढ़ी के पत्रकारों-संपादकों को उनके कृतित्व से प्रेरणा मिले इस उद्देश्य से उनके पैतृक गांव ‘पराड़’ (महाराष्ट्र) में स्मारक की रूपरेखा मूर्तरूप ले रही है। महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में सिंधुदुर्ग जिले के मालवण -कनकवली इलाके का यह गांव आज भी हिंदी पत्रकारिता और स्वाधीनता संग्राम में पराड़कर जी के योगदान पर गर्व करता है, पर सरकार और पत्रकारिता जगत की उपेक्षा के कारण यह अज्ञात-अनाम सा है। गांव के बुजुर्ग ‘पुलिस पाटिल’ सुभाष सोमा पराड़कर बताते हैं कि 17-18 साल पहले बंबई (अब मुंबई) से किसी मराठी समाचारपत्र के संपादक आए थे और गांव में पराड़कर स्मारक के बारे में लोगों से बातचीत कर चले गए। तब जिन उम्रदराज गांववालों से उनकी बातें हुई थीं और जिन्हें बाबूराव और उनके पिता विष्णुराव पराड़कर के बारे में आधिकारिक जानकारी थी, वे अब नहीं हैं। पराड़कर परिवार के वरिष्ठ सदस्य बताते हैं कि उनका वंश कुलकर्णी था, परंतु पराड़ गांव का होने के कारण उन्होंने नाम के आगे पराड़कर टाइटल लगाया।

संपादक पराड़कर की स्मृति उनके कार्यक्षेत्र काशी में जीवित रखने के उद्देश्य से वहां स्थापित पराड़कर भवन की संकल्पना 1940 में काशी पत्रकार संघ की स्थापना के समय की गई थी। संघ के पहले अध्यक्ष थे ‘आज’ और ‘संसार’ के यशस्वी संपादक तथा राजनीतिज्ञ पंडित कमलापति त्रिपाठी। आगे चलकर पराड़कर भवन नगर के बीच बना, जो आज पत्रकारिता और सामाजिक गतिविधियों का जीवंत केंद्र है, किंतु पराड़ गांव में उनकी स्मृति में कुछ बुजुर्ग लोगों की यादों के सिवा कुछ भी नहीं है।

मैं काशी पत्रकार संघ का अध्यक्ष 1982 से 1984 तक था। उसी दौरान पराड़कर जी के गांव जाने और वहां स्थायी पराड़कर स्मृति की स्थापना का संकल्प मन में आया था। जलगांव के उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव में पुणे निवासी मराठी के वरिष्ठ पत्रकार एसके कुलकर्णी से मुलाकात के बाद इसके मूर्त रूप लेने की प्रक्रिया शुरू हुई। कोल्हापुर में प्रतिष्ठित पत्र ‘पुढारी’ के संपादक प्रताप सिंह जाधव ने भी आत्मीय भेंट में स्मारक के लिए पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया।

मगर पराड़ गांव जाने का योग बना पिछले साल। कुलकर्णी के साथ जब हम पराड़ पहुंचे तो वहां सरपंच श्वेता फोंडेकर, जिला परिषद सदस्य वसंत सातविलकर और अधिकारियों ने स्वागत कर गांव की स्थिति बताई। वे हमें अंदर गांव में उस स्थान पर ले गए जहां कभी बाबूराव विष्णु पराड़कर के नाम से पाठशाला चलती थी। अब वहां झाड़-झंखाड़ भर हैं। गांव के लोग बड़ी तादाद में आ गए और सभी ने स्मारक की योजना का भरपूर स्वागत करते हुए ग्राम पंचायत की पर्याप्त भूमि और अन्य सहयोग प्रदान करने का संकल्प व्यक्त किया।

मुंबई के साथियों ने इस संकल्प को मजबूती दी। मुंबई प्रेस क्लब के मंत्री धर्मेंद्र जोरे तथा कोषाध्यक्ष ओम प्रकाश तिवारी से विस्तृत चर्चा हुई। तिवारी ने इस परियोजना को अपना और प्रेस क्लब का ‘ड्रीम प्रॉजेक्ट’ बताते हुए पर्याप्त संसाधन जुटाने का आश्वासन दिया। पराड़कर स्मारक की यह परियोजना मूर्त रूप ले और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस के विशेष मार्गदर्शन में पराड़कर स्मारक का संकल्प पूर्ण हो, इसके लिए माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय, भोपाल का भी महत्वपूर्ण सहयोग रहा है।

मुख्यमंत्री फड़नवीस ने मेरे साथ गए काशी तथा मुंबई के पत्रकारों को यह ठोस आश्वासन दिया कि पूरी परियोजना का प्रारूप मिलते ही काम शुरू हो जाएगा। मुख्यमंत्री का यह मंतव्य था कि मराठी के प्रथम पत्रकार ‘दर्पण’ के संपादक बाला साहेब जांभेकर के औरस क्षेत्र (सिंधुदुर्ग जिला मुख्यालय) में निर्माणाधीन स्मारक की ही भांति पराड़कर जी का कीर्तिस्मारक भी शीघ्र बन जाएगा। स्मारक की योजना मूर्तरूप ले ले तो यह स्थान भारतीय पत्रकारिता का एक प्रमुख तीर्थ होगा।
लेखक- राममोहन पाठक

Thursday, March 8, 2018

मैं महुआ बीनता हूं, आपको भी महुआ मिले

यह मेरी सफलता नहीं है। यह बिक चुकी भारतीय पत्रकारिता की असफलता है। लोगों को ताकत चाहिए। ताकत इन्फॉरमेशन से मिलती है, जो इंडियन मेनस्ट्रीम जर्नलिज्म नहीं दे पा रहा है। इंटरनेट ने ताकत चाहने वालों के सामने खुला खेत खोल दिया है। लोग ताकत ले रहे हैं, खेत जोत रहे हैं। लोग एक लाख घंटे से ज्यादा की ताकत पी चुके, वह भी तीन महीने में। तीन महीने पहले मैं मेनस्ट्रीम मीडिया से बुरी तरह से ऊब गया। टीवी तो वैसे भी नहीं देखता, लेकिन अखबार और इंटरनेट पर दिखते यलो जर्नलिज्म से मन खट्टा हो गया। तय किया कि सबकुछ असांजे की ही तर्ज पर करूंगा। खुद से वादा किया कि जो जैसा है, वैसा ही सामने रखना है, बगैर किसी ड्रामा के। किसी ने पूछा कि तुम बोलते हो या मशीन? उसके सवाल में मुझे मेरा जवाब मिल गया। असांजे गुरु, क्या सिखा दिया बे तुमने? जीवन में कभी वीडियो नहीं बनाई थी। प्रिंट का हूं, कैसे बनाता और क्यों ही बनाता? फिर दस दिन तक वीडियो बनाने वालों का पीछा करता रहा कि कुछ सिखा दें, मगर मुझे सिखाना उन्हें अपनी नौकरी का संकट लगा। फिर दुनिया के पास गया। बोला कि सिखाओ, और दुनिया ने वीडियो बनाना सिखा दिया। दुनिया है ना, सब सिखा देती है। मुझे पता है कि मैं वाहियात वीडियो बनाता हूं। उसमें कला कहीं नहीं होती। कला करनी भी नहीं है मैंने। सूचनाओं में कला होनी भी नहीं चाहिए, उनके अर्थ बदल जाते हैं। सूचनाएं कला करने में स्वयं सक्षम हैं, बशर्ते कोई दे तो सही। कोई बताए तो सही। अगर कहूं कि मैं सूचनाएं देता हूं तो यह पूरी तरह से गलत और झूठ होगा। मैं सिर्फ मैनेजर हूं, कलेक्टर हूं इन्फॉरमेशन का। सूचनाएं हमारे सामने ही होती हैं, बस हम फर्क नहीं कर पाते। सामने की सारी सूचनाएं इसी दुनिया से इकट्ठा करता हूं और इसी को दे देता हूं। जो है, वह सबका है, सबके लिए है। मैं महुआ बीनता हूं। नाक में महुआ बसा है। आपको भी महुआ मिले, मिलता रहे, इसी खुशबू के साथ-

सवा लाख से एक लड़ाऊँ 
चिड़ियों सों मैं बाज तड़ऊँ 

तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ

MORE POWER TO YOU..
MORE RISING TO YOU..

Friday, March 2, 2018

गदर: एक गुलाल कथा (2024)

कनपुरिया गदर: विजय त्रिपाठी
जान पहचान वाले आज अगर पहचान में आ जाएं तो समझिए पहचान पक्की थी, वरना कहीं कोई पेंच ढीला था जो कसे जाने के इंतजार में है। बनाई होगी किसी ने गदर एक प्रेम कथा, मगर आज के दिन तो गदर को अगर किसी ने एक गुलाल कथा के अलावा कुछ बनाया तो हुरियारों- जुट पड़ो! ऐसे जुट पड़ो कि अच्छा भला अपनी बीवी का पति पड़ोसी का देवर बना नजर आए! ऐसे जुट पड़ो कि सात दिन से छज्जे पर छिपकर बैठा चांद अपने गड्ढों में गिरे गुलाल से पूरे साल लाल-लाल दिखे।

इतना रंगो, इतना रंगो कि इतने-जितने की हर हद से बाहर फूट पड़ो। और फूटना तो उस गुब्बारे कि तरह बेपरवाह होकर ही फूटना। निशाना लगे- न लगे, फूटकर फैल जाना ही उसकी नियति है। और निशाना न लगने के बाद सिर फुड़वाना फेंकने वाले की नियति है। यही वक्त है नियति से साक्षात्कार का। यही सबसे सही वक्त है फैलने का। और यही सही वक्त है फूलने का भी। दो गोली भांग और लो। चिलम के चार सुट्टे और मारो। फैल फूलकर अगर कोई सीधे घर की राह पकड़े तो उसके कुर्ते का क्या करना है, ये भी बताना पड़ेगा? पूरे शहर में बिजली वालों ने तार टांग रखे हैं, आज के कुर्ते उनपर न सूखे तो भला कब सूखेंगे? 

हिंदी के प्रफेसरों से आज बदला न लिया तो फिर कब बदला लोगे? साल भर से जितनी भी अंग्रेजी मन में फूली हुई है, एक साथ उनपर फोड़ो। फोड़ने से पहले इसका प्लान रेखागणित में ही बनाना, हिंदी वाले उसे शकुंतला की कमर समझेंगे। हिंदी वाले कमर में उलझे रहेंगे तो बांए हाथ से उन्हें उड़ता कौव्वा दिखाकर उनकी दाहिनी कखरी में दबी कामायनी छीन लो और उसमें कीट्स दबा दो। एक कीट्स से काम नहीं चलेगा। दो चार लेकर जाओ और हिंदी वालों के जहां-जहां दबा सकते हो, लगा सकते हो- लगा दो।

समाजशास्त्र वाले प्रफेसरों, आज बताना कि कहां गया समाज और कहां गया शास्त्र? बाहर आओ, तुम्हें उड़ता कौव्वा दिखाना है। पॉलिटिकल साइंस वाले के पास आज आधार आईडी लेकर जाने की कोई जरूरत नहीं। आज वह तुम्हें तुम्हारे आधार कार्ड वाली फोटो देखे बगैर ही पहचान लेगा। फिर भी वह आईडी मांगेगा। डरना मत। यह उसकी राजनीति का छुद्र छेद है हुरियारों। आज बंद होना मांगता है। राजनीति के सारे छुद्र-अछुद्र छेदों में आज गदर काटकर गुलाल भर दो, विज्ञान के भी। और हां, दांत दिखाना मगर किटकिटाना नहीं। कुछ करने से पहले इनकी आवाज में रंग भरना न भूलना। बड़े घाघ होते हैं। आवाज सुनकर ही जान जाएंगे कि पिछली कॉपी का हिसाब भर रहे हो।