Sunday, November 27, 2016

सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है

पहली बार किसी ने दस रूपए के नोट पर लिखा होगा, सोनम गुप्ता बेवफा है, तब क्या घटित हुआ होगा? क्या नियति से आशिक, मिजाज से आविष्कारक कोई लड़का ठुकराया गया होगा, उसने डंक से तिलमिलाते हुए सोनम को बदनाम करने की गरज से उसे सरेबाजार ला दिया होगा. या वह सिर्फ फरियाद करना चाहता था, किसी और से कर लेना लेकिन इस सोनम से दिल न लगाना.

क्या पता सोनम को कुछ खबर ही न हो, वह सड़क की पटरी पर मुंह फाड़ कर गोलगप्पे खा रही हो, जिंदगी में तीसरी बार लिपिस्टिक लगाकर होठों को किसी गाने में सुने होंठों जैसा महसूस रही हो, अपनी भाभी के सैंडिलों में खुद को आजमा रही हो और तभी वह लड़के को ऐसी स्वप्न सुंदरी लगी हो जिसे कभी पाया नहीं जा सकता. लड़के ने चाहा हो कि उसे अभी के अभी दिल टूटने का दर्द हो, वह एक क्षण में वो जी ले जिसे जीने में प्रेमियों को पूरी जिंदगी लगती है, उसने किसी को तड़प कर बेवफा कहना चाहा हो और नतीजे में ऐसा हो गया हो. यह भी तो हो सकता है कि किसी चिबिल्ली लड़की ने ही अपनी सहेली सोनम से कट्टी करने के बाद उसे नोट पर उतार कर राहत पाई हो.

जो भी हुआ हो लेकिन वह वैसा ही आविष्कारक था या थी जैसा समुद्र से आती हवा को अपने सीने पर आंख बंद करके महसूस करने वाला वो मछुआरा या मुसाफिर रहा होगा जिसे पहली बार नाव में पाल लगाने का इल्हाम हुआ होगा. या वह आदमी जिसने इस खतरनाक और असुरक्षित दुनिया में बिल्कुल पहली बार अभय मुद्रा में कहा होगा, ईश्वर सर्वशक्तिमान है. उसने नोट के हजारों आंखों से होते हुए अनजान ठिकानों पर जाने में छिपी परिस्थितिजन्य ताकत को शायद महसूस किया होगा, वो भी ऐसे वक्त में जब हर नोट को बड़े गौर से देखा जा रहा है, उसके बारे में आपका नजरिया आपको देशभक्त, कालाधनप्रेमी या स्यूडोसेकुलर कुछ भी बना सकता है.
नोटबंदी के चौकन्ने समय में सोनम गुप्ता सारी दुनिया में पहुंच गई, उसके साथ वही हुआ जो सूक्तियों के साथ हुआ करता है. वे पढ़ने-सुनने वाले की स्मृति, पूर्वाग्रहों, वंचनाओं और कुंठाओं के साथ घुलमिल कर बिल्कुल अलग कल्पनातीत अर्थ पा जाती हैं. यह रहस्यमय प्रक्रिया है जिसके अंत में किसी स्कूल या रेलवे स्टेशन की दीवार पर लिखा “अच्छे नागरिक बनिए” जातिवाद के जहर के असर में झूमते समाज में जरा सा स्वाराघात बदल जाने से प्रेरित करने के बजाय कहीं और निशाना लगाने लगता है. सबसे लद्धड़ प्रतिक्रियाएं सरसों के तेल के झार की तासीर वाली नारीवादियों की तरफ से आईं जिन्होंने कहा, सोनू सिंह या संदीप रस्तोगी क्यों नहीं? उन्हें सोनम गुप्ता नाम की लड़कियों की हिफाजत की चिंता सताने लगी जिन्हें सिर्फ इसी एक कारण से छेड़ा जाने वाला था और यह भी कि हमेशा औरत ही बेवफा क्यों कही जाए. हमेशा घायल होने को आतुर इस ब्रांड के नारीवाद को अंजाम चाहे जो हो, “सपोज दैट” में भी मर्द से बराबरी चाहिए. जूते के हिसाब से पैर काटने की जिद के कारण वे अपनी सोनम को जरा भी नहीं पहचान पाईं.

इन दिनों देश में पाले बहुत साफ खिंच चुके हैं और एक बड़े गृहयुद्ध से पहले की छोटी झड़पों से आवेशित गर्जना और हुंकारें सुनाई दे रही हैं. एक तरफ आरएसएस की उग्र मुसलमान विरोधी विचारधारा और प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिपूजा की केमिस्ट्री से पैदा हुए भक्त हैं जो बैंकों के सामने लगी बदहवास कतारों में से छिटक कर गिरने वालों की बेजान देह समेत हर चीज को देशभक्ति और देशद्रोह के पलड़ों में तौल रहे हैं. दूसरी तरफ मामूली लोग हैं जिनके पास कुछ ऐसा भुरभुरा और मार्मिक है जिसे बचाने के लिए वे उलझना कल पर टाल देते हैं. भक्त सरकार के कामकाज को आंकने, फैसला लेने का अधिकार छीनकर अपना चश्मा पहना देना चाहते हैं जो इनकार करे गद्दार हो जाता है. हर नुक्कड़ पर दिखाई दे रहा है, अक्सर दोनों पक्षों के बीच एक तनावग्रस्त, असहनीय चुप्पी छा जाती है. तभी सोनम गुप्ता प्रकट होती है जो लगभग मर चुकी बातचीत को एक साझा हंसी से जिला देती है. सोनम गुप्ता उस युद्ध को टाल रही है. उसकी वेवफाई से अनायास भड़कने वाली जो हंसी है उसमें कोई रजामंदी और खुशी तो कतई नहीं है. सब अपने अपने कारणों से हंसते हैं.

लेखक अनि‍ल कुमार यादव वरि‍ष्‍ठ पत्रकार हैं। 

Monday, November 21, 2016

लोग मर रहे थे, पीएम भाषण कर रहे थे

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है- 

यदि तुम्हारे घर के/ 
एक कमरे में आग लगी हो/ 
तो क्या तुम/ 
दूसरे कमरे में सो सकते हो? 
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रहीं हों/ 
तो क्या तुम/ 
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?

कल आगरा में रैली करके प्रधानमंत्री ने इसका जवाब दे दिया। उन्होंने देश को बता दिया कि ऐसे मौके पर सोना और प्रार्थना ही नहीं बल्कि अट्टहास किया जा सकता है। वैसे कहने को तो हमारे प्रधानमंत्री को कार के नीचे पिल्ले के आने से भी दर्द होता है, लेकिन जब गाड़ी के नीचे 130 लोग आ जाते हैं तो साहेब की संवेदना घास चरने चली जाती है। देश का शीर्ष नेतृत्व अगर इतना संवेदनहीन है तो इसके लिए उसको नहीं बल्कि हमें अपने बारे में सोचना चाहिए। आख़िरकार हम ऐसे नेतृत्व को कैसे चुन सकते हैं?

दरअसल मोदी जी इन्हीं तरह की स्थितियों के लिए देश को तैयार कर रहे हैं। उन्हें पता है कि जिस तरह की नीतियों को वो आगे बढ़ा रहे हैं उसके नतीजे बेहद खतरनाक होने जा रहे हैं। इसके चलते  देश और समाज में अराजकता फ़ैल सकती है। लिहाजा उसकी तैयारी बहुत जरूरी हो जाती है। आगरा रैली उसका पूर्वाभ्यास है। इस रैली के जरिये पीएम ने न केवल अपनी संवेदनहीनता दिखाई है बल्कि आगरा समेत देश की जनता को भी संवेदनहीन होने के लिए मजबूर किया है। आगरा के लोग अगर कुछ सौ किमी की दूरी पर स्थित कानपुर के लोगों के दर्द को नहीं महसूस कर सकेंगे, तो कल को आप के दर्द को कौन महसूस करेगा? इस हादसे में तो वैसे भी कितने लोग आगरा के आसपास के ही होंगे, लेकिन यह प्रधानमंत्री का दुस्साहस ही कहा जाएगा कि जब आगरा के आसपास के घरों में मौत का मातम पसरा है तो वो मंच से राजनीतिक भाषण दे रहे थे।

ऊपर से घाव पर नमक छिड़कने का काम रेल मंत्री प्रभु ने किया। वैसे तो वो मदद करने गए थे, लेकिन 500 और 1000 के पुराने नोटों के जरिये आफत दे आये। कोई उनसे पूछे कि यह नोट जब अवैध हो गई है तो सरकार कैसे उसको किसी नागरिक को दे सकती है और उनके चलने का हाल तो पूरा देश देख रहा है। ऐसे में घायलों को जहां तत्काल जरूरत है उनके साथ रेल मंत्री का यह रवैया किसी क्रूर मजाक से कम नहीं है। दरअसल सरकार भी जनता को कीड़े मकोड़ों की तरह ही देखती है और जानती है कि उसे किसी भी तरीके से हांका जा सकता है। हमारी सहने की क्षमता का तो अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।

इस मामले से एक दूसरा सवाल भी खड़ा हो जाता है। आखिर जिस जनता के नाम पर ये पूरा निजाम खड़ा हुआ है, उसमें उसकी कितनी कीमत है? कहने को तो हमारे देश में हाथी मार्का लोकतंत्र है, लेकिन उसमें जनता की हैसियत चींटी के बराबर भी नहीं है। यही हाल किसी कुदरती आपदा में सैकड़ों-हजारों लोगों के मरने के बाद भी होता है। शोक में अवकाश और झंडा झुकाने की बात तो दूर संसद में दो मिनट का मौन भी नहीं रखा जाता है। वहीं अगर कोई नेता मर जाए तो सात-सात दिन का शोक और उतने ही दिन झंडा झुका दिया जाता है। फिर तो सरकार को जरूर इस बात को बताना चाहिए कि आखिर कितनी लाशें गिनने के बाद वो शोक मनाएगी? अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो दो सेकेंड के लिये ही सही हमें जरूर अपने और अपनी हैसियत के बारे में विचार करना चाहिए।
लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। 

Tuesday, November 15, 2016

बड़े नेताओं का भला क्या बिगाड़ लेगी मोदी की नोटबंदी?

बीजेपी अध्यक्ष श्री अमित शाह ने हाल में यूपी के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं का नाम लेकर कहा है कि बड़े नोटों की बंदी से मुलायम सिंह और मायावती की हालत खराब हो गई है। यूपी में चुनावी माहौल चल रहा है। ऐसे में नेता विरोधी पार्टियों के विरुद्ध और एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करेंगे ही। लेकिन स्वयं प्रधानमंत्री अपनी सरकार की जिस पहल को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए इतनी महत्वपूर्ण बता रहे हैं कि इसके पक्ष में खड़े होने के लिए उन्हें रोते हुए जनता से 50 दिन तक सारी तकलीफें बर्दाश्त कर लेने की अपील करनी पड़ रही है, उसका इस्तेमाल उन्हीं की पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा संकीर्ण राजनीतिक लड़ाइयों के लिए करना थोड़ा अटपटा लग रहा है।

चलिए, नोटबंदी को लेकर मुलायम सिंह और मायावती के अतिशय कष्ट को देखते हुए मैं उनको एक तरफ कर देता हूं, और थोड़ी देर के लिए उनकी जगह खुद को रख देता हूं। मैं एक मान्यताप्राप्त पार्टी का मुखिया हूं और मेरे पास 200 करोड़ रुपये 1000 और 500 रुपये के नोटों की शक्ल में मौजूद हैं। ये रुपये मैं दस-दस करोड़ करके विभिन्न बैंकों में जमा कराने ले जाता हूं। वहां बैंककर्मी मुझसे साफ कहते हैं कि इस रकम में से ढाई लाख रुपया तो वे साफ जमा कर लेंगे, लेकिन बाकी की रकम आपकी तभी जमा हो पाएगी, जब आप इसका स्रोत बताएंगे। अन्यथा इस रकम पर आपको 30 प्रतिशत टैक्स देना होगा और टैक्सेबल रकम पर 200 प्रतिशत की पेनाल्टी अलग से देनी पड़ेगी।

अब, उनके इस सवाल के सामने मैं क्या करूंगा? क्या चीख-चिल्लाकर अपनी बेचैनी जताऊंगा, वहीं बैंक में खड़ा होकर भरी भीड़ में सिर पीट-पीट कर रोऊंगा? बिल्कुल नहीं। अगर मैं एक सीजन्ड राजनेता हूं तो तार्किक रुख अपनाते हुए अपने पक्ष में मौजूद कानूनी व्यवस्था का उपयोग करूंगा। व्यवस्था यह कि राजनीतिक दलों के लिए 20 हजार रुपये से कम मात्रा में दिए गए चंदों की रसीद दिखाना, दूसरे शब्दों में कहें तो इस तरह हुई समूची आय का स्रोत बताना जरूरी नहीं है।

लंबे अर्से से सूचना आयोग राजनीतिक दलों से अपनी आय को आरटीआई के तहत लाने की अपील कर रहा है, लेकिन बीजेपी और कांग्रेस समेत देश की कोई भी पार्टी इसके लिए तैयार नहीं है। और तो और, कोई भी दल अपना ऑडिट तक सार्वजनिक नहीं करता। राष्ट्रीय पार्टियां अपनी जितनी आय को टैक्सेबल बताती हैं, उतने से तो वे एक मंझोले स्तर के राज्य का भी चुनाव नहीं लड़ सकतीं। मेरी बात को लेकर जिस भी मित्र के मन में संदेह हो, वह किसी भी पार्टी के भीतरी स्रोतों से यह पता लगाकर बताए कि वित्त वर्ष 2015-16 में उसने कितना टैक्स चुकाया था। मुझे बीजेपी के बारे में पता है कि उसने पिछले साल अपनी सालाना राष्ट्रीय आय साढ़े चार सौ करोड़ के आसपास दिखाई थी। इतने पैसों में वह सिर्फ यूपी का चुनाव लड़कर दिखा दे!

बहरहाल, मैं शुरू में ही स्वयं को एक राजनीतिक दल के मुखिया के रूप में प्रस्तुत कर चुका हूं, लिहाजा मैं, या मेरी तरफ से मेरा सीए बैंक के प्रतिनिधि से कह सकता है- चलिए, आज नहीं तो कुछ दिन बाद पक्का कहेगा- कि पांच सौ और एक हजार के नोटों की शक्ल में मेरे पास मौजूद यह दो सौ करोड़ रुपया मेरी पार्टी की जायज स्रोतों से अर्जित की गई संपत्ति है, जिसे इसके गरीब समर्थकों ने रुपया-दो रुपया चंदा देकर जमा किया है। कुछ लोगों को शायद याद हो कि आय से अधिक संपत्ति के मामले में यूपी के उपरोक्त दोनों नेताओं द्वारा यह दलील अदालत में पहले ही दी जा चुकी है और अदालत दोनों को सारे आरोपों से बाइज्जत बरी भी कर चुकी है।
इस लिए राजनेताओं के पास मौजूद काले धन को लेकर आप न तो अपनी रातें बर्बाद करें, न ही उनकी बर्बादी को लेकर चुनावी मंचों से सार्वजनिक जश्न मनाएं। इत्मीनान रखें महोदय, आपकी नोटबंदी से न तो तिजोरियों में तहें लगाकर रखे गए उनके पैसों का कुछ बिगड़ने वाला है, न ही आपके। हां, व्यक्तिगत रूप से जिन उम्मीदवारों ने चुनाव में करोड़ों अलग से खर्च करने का मन बना रखा था, उन्हें अब यह काम विकेंद्रित रूप से करना होगा। खासकर यूपी को लेकर तो पक्की सूचना है कि वे यह काम शुरू भी कर चुके हैं।

कुछ लोगों का कहना है कि अन्य क्षेत्रों में- मसलन भ्रष्ट अफसरों और व्यापारियों के पास- मौजूद नकदी काला पैसा भी बड़ी पार्टियों के शीर्ष राजनेताओं के पास पहुंचने लगा है, जो अपना (या अपनी पार्टी का) कमीशन काट कर देर-सबेर इसे बैंकों में जमा करने का इंतजाम कर देंगे। तो, जैसा मैं कह चुका हूं कि मैं एक मान्यताप्राप्त राजनीतिक दल का प्रमुख नेता हूं, और आज की रात चैन से सोने के लिए नींद की दवा खाने की फिलहाल मुझे कोई जरूरत नहीं महसूस हो रही है।

लेखक चंद्रभूषण एनबीटी एडिट पेज के संपादक हैं। 

Friday, November 11, 2016

अमेरिकी जनता की बौद्धिक समझ का आइना हैं डॉनल्ड ट्रंप

कई सभ्यताओं के पतन की कहानियां इतिहास में दर्ज हैं, लेकिन एक बड़े साम्राज्य को हम अपनी आंखों के सामने ढहते देख रहे हैं। हालांकि यह अभी आखिरी वाक्य नहीं है। अमेरिकी जनता ने एक ऐसा राष्ट्रपति चुना है जो अपने पूरे चरित्र में लंपट है। जिसकी महिलाओं के साथ छेड़खानी की कहानियां हैं, पोर्न स्टार्स से रिश्ते हैं। जो धुर मुस्लिम विरोधी होने के साथ अप्रवासियों के खिलाफ है। काले जिसको फूटी आंख नहीं सुहाते, अफ्रीकी-अमेरिकी उसे एक पल के लिए भी बर्दाश्त नहीं। वो देश में फिर से गोरों की सत्ता का ख्वाहिशमंद है। सरकारी प्रशासन के संचालन का जिसे एक दिन का अनुभव नहीं है। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र की यह नई असलियत है, जो खुद में बहुत भयावह है। 250 साल के पूंजीवादी लोकतंत्र का अगर यही जमा हासिल है, तो इस पर फिर से विचार की जरूरत है। यह शायद पहला अमेरिकी चुनाव हो जिसमें नतीजों की घोषणा के बाद ही लाखों लोग सड़कों पर उतर आए हों। सब एक सुर में बोल रहे हों कि ट्रंप उनके राष्ट्रपति नहीं हैं। यह अभूतपूर्व स्थिति है।

ट्रंप के चयन के जरिये अमेरिकी समाज की वास्तविक तस्वीर भी सामने आ गई है। कहा जाता है कि नेतृत्व कुछ और नहीं बल्कि जनता की सोच, समझ और उसके बौद्धिक स्तर का आईना होता है। यह एक दूसरे तरीके से अमेरिकी पूंजीवादी समाज के पतन की कहानी भी बता रहा है। यह बताता है कि अमेरिकी समाज का बड़ा हिस्सा पतित हो गया है। उसके जीवन में विचारों, मूल्यों और सिद्धांतों के लिए अब कोई जगह नहीं बची है। मुनाफे के बाजार में पला बढ़ा उपभोक्ता अब सामान का हिस्सा बन चुका है। उसमें किसी मानवीय सोच और संवेदना के लिए जगह तलाशना बेमानी है।

दरअसल अमेरिकी अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है, ट्रंप उसी की पैदाइश हैं। जब तक पूरी दुनिया में अमेरिकी लूट का कारोबार चलता रहा, पूंजी का निर्बाध प्रवाह उसके मक्का की ओर बना रहा, इस लूट में जनता की हिस्सेदारी चलती रही, तब तक कोई समस्या नहीं दिखी। लेकिन जैसे ही इसमें अड़चन आयी, प्रक्रिया बाधित होती दिखी, समस्याओं का अंबार आ गया। अमेरिका 2008 की मंदी से अभी तक नहीं उबर सका है। ऊपर से चीन की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़त और बाजारों पर कब्जे ने उसके सामने नई परेशानी खड़ी कर दी है। मध्यपूर्व में दखल और युद्धों में उसकी शिरकत ने फायदा कम नुकसान ज्यादा पहुंचाया। पूंजी के मद में भले ही कुछ फायदा हुआ हो लेकिन इसने जन हानि और आतंकवाद के तौर पर नई समस्याएं दे दी।

घरों में आर्थिक संकट होता है तो पारिवारिक झगड़े बढ़ जाते हैं। यही अमेरिका में हुआ। संसाधन सीमित होते जा रहे हैं। और उसमें हिस्सेदारी के लिए होड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में एक पक्ष को असली दावेदार करार देकर दूसरे पक्ष के एक हिस्से को अवैध ठहराने और दूसरे को बाहर निकालने और तीसरे को शंट करने की राजनीति शुरू हो गई। ट्रंप ने इसी राजनीति को सुर दिया। जब उन्होंने स्थानीय गोरों का संसाधनों पर पहला हक बताया। इस कड़ी में उन्होंने मुसलमानों से लेकर अप्रवासियों और अफ्रीकी-अमेरिकियों को बाहरी करार देने के साथ ही उन्हें सारी समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। पूरी दुनिया का ठेका नहीं लेने का उनका  बयान इसी का विस्तार है। फिर इसको बढ़ाते हुए उन्होंने एक प्रक्रिया में दुनिया के पैमाने पर अपने फौजी अड्डों वाले देशों से उसकी कीमत वसूलने का ऐलान किया। उनके इस पूरे आक्रामक प्रचार में समस्या को हल करने का एक रास्ता दिखा। यह अपने तरीके से एक दृष्टि का भी निर्माण करता था। यह बेवजह नहीं है कि ट्रंप के वोटरों में गोरे अमेरिकी, कम शिक्षित, वर्किंग क्लास, सब अर्बन क्षेत्रों के लोगों के साथ पुरुषों समेत धनाड्य विरोधी जेहनियत वाले तबकों का बहुमत है।

दूसरी तरफ हिलेरी क्लिंटन के साथ महिलाएं, उच्चशिक्षित अभिजात तबका तथा भारतीय और अफ्रीकी-अमेरिकियों समेत उच्चवर्गों का बड़ा हिस्सा था। लेकिन उनके पास समस्याओं को हल करने का कोई विजन नहीं था। डेमोक्रैटिक पार्टी के लगातार सत्ता में बने रहने और ओबामा के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा न कर पाने का ठीकरा भी क्लिंटन के सिर फूटा है। ऊपर से आईएसआईएस को फंडिंग से लेकर उसे खड़ा करने में क्लिंटन की हिस्सेदारी का खुलासा ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। इस मामले में रूसी राष्ट्रपति पुतिन की भूमिका बेहद संदिग्ध मानी जा रही है। कहा जा रहा है कि पुतिन अमेरिका में ट्रंप को देखना चाहते थे। और इस लिहाज से उन्हें हर संभव सहायता दे रहे थे। रूसी हैकरों के जरिये विकीलीक्स के माध्यम से क्लिंटन के ईमेल का खुलासा इसी का हिस्सा था। रूसी विदेश उपमंत्री ने भी ट्रंप की टीम से संपर्क में रहने की बात मानी है। दरअसल पुतिन को लग रहा है कि ट्रंप के आने पर सीरिया में उनका मिशन आसान हो जाएगा। चाहकर भी ट्रंप आईएसआईएस के साथ नहीं जा पाएंगे। क्योंकि उन्होंने अपना पूरा चुनाव ही उसी के खिलाफ लड़ा है। नाटो मंच के खिलाफ ट्रंप पहले ही बोल चुके हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका का दखल कुछ कमजोर होने की आशंका है। और रूस से बाहर पांव पसारने के लिए बेताब पुतिन के लिए इससे बेहतर मौका दूसरा नहीं हो सकता है।

बहरहाल आने वाले तीन-चार साल पूरी दुनिया के लिए बेहद उथल-पुथल और अनिश्चितता भरे होने वाले हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति किस करवट बैठेगी कुछ कह पाना मुश्किल है। कुछ ऐसी चीजें हो सकती हैं जिनके बारे में किसी ने कभी सोचा भी नहीं हो। अनायास नहीं अमेरिकी न्यूक्लियर बमों की कमान संभालने वाले एक पूर्व कर्मचारी ने ट्रंप की दिमागी अनिश्चितता को देखकर उन्हें वोट न देने की अपील की थी। फिलहाल अब जब उन्हें चुन लिया गया है। और उनका ह्वाइट हाउस पहुंचना तय है। ऐसे में वह खतरा दुनिया के बिल्कुल सामने है। यह ट्रंप के राष्ट्रपति की कुर्सी पर रहने तक बना रहेगा। इस कड़ी मंा देखना होगा कि अमेरिका खुद को कितना बचा पाएगा और कितनी अपनी समस्याएं हल कर पाएगा। या फिर वैश्विक साम्राज्यवाद के सूरज के अब ढलने के दिन आ गए हैं?

लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। 

Thursday, November 10, 2016

नतमस्‍तक मोदक की नाजायज औलादें- 47

प्रश्‍न- दो हजार का छुट्टा है?
उत्‍तर- तुम्‍हरे पास दो हजार कहां से आया बे?
प्रश्‍न- अभी एटीएम से नि‍काले!
उत्‍तर- तुम्‍हरे पास एटीएम कहां से आया बे?
प्रश्‍न- दफ्तर से मि‍ला है!!
उत्‍तर- दफ्तर वाले तुमको घूस देते हैं?
प्रश्‍न- नहीं, तनख्‍वाह देते हैं!
उत्‍तर- चल भो** के!! तनख्‍वाह वालों के पास दो हजार नहीं रहता!!
प्रश्‍न- अब नहीं रहेगा, छुट्टा दे दीजि‍ए.
उत्‍तर- झां** ले लो हमारी!!
प्रश्‍न- वो आप रखि‍ए, छुट्टा दीजि‍ए, कि‍सी को देना है..
उत्‍तर- उसे भी वही दे देना!!
प्रश्‍न- आपकी झां*** से मुझे दवा नहीं मि‍लेगी!!
उत्‍तर- बेटा हमारा एक एक बाल दो हजार का नोट है!!
प्रश्‍न- आपने कैंप नहीं लगाया?
उत्‍तर- कि‍स चीज का बे?
प्रश्‍न- छुट्टा बांटने का?
उत्‍तर- वामपंथी समझे हो का?
प्रश्‍न- छुट्टा तो वो भी नहीं बांट रहे!
उत्‍तर- चीन से लात खाए होंगे साले!
प्रश्‍न- धुंआ हुआ तो आपने मास्‍क बांटने के कैंप लगाए!
उत्‍तर- अबे नोट धुंआ नहीं होता है बे!!
प्रश्‍न- धुंआ तो कर दि‍या ना??
उत्‍तर- क्‍या धुंआ कर दि‍या?
प्रश्‍न- पांच सौ और हजार के नोट?
उत्‍तर- वो तो काला धन था अकल के ढक्‍कन!!
प्रश्‍न- सारा काला धन था?
उत्‍तर- तो?
प्रश्‍न- सारा काला धन रुपयों में था?
उत्‍तर- ई लाल चश्‍मा उतारो!
प्रश्‍न- बताइए ना?
उत्‍तर- ना, पहि‍ले तुम ई लाल चश्‍मा उतारो!!
प्रश्‍न- मेरे चश्‍मे में कोई रंग नहीं है!
उत्‍तर- तभी तुमको काला धन नहीं दि‍खता!
प्रश्‍न- मतलब सारा काला धन रुपये में था?
उत्‍तर- नहीं गां*** साले, मेरी झां*** में था!!
प्रश्‍न- अब क्‍या होगा?
उत्‍तर- सफाई
प्रश्‍न- सफाई के बाद क्‍या होगा?
उत्‍तर- नए नोट आएंगे!
प्रश्‍न- नए नोट काले नहीं होंगे?
उत्‍तर- दि‍खाओ ससुर नया नोट
प्रश्‍न- नए नोट में गलती भी है
उत्‍तर- गलती तो तुम हो भो** के
प्रश्‍न- नए नोट में एक गलती रह गई
उत्‍तर- भगवान तुमको एकदम सही से बना के भेजे हैं?
प्रश्‍न- अब जैसा भी बनाके भेजे हैं
उत्‍तर- तुममें कोई गलती नहीं?
प्रश्‍न- मुझमें हैं, लेकि‍न मैं सही कर लेता हूं.
उत्‍तर- तो 2000 वाले में भी हो जाएगी!
प्रश्‍न- लेकि‍न नोट में कैसे?
उत्‍तर- उसकी लीला...
प्रश्‍न- उसकी कि‍सकी?
उत्‍तर- भो*** के, कि‍सका राज है बे?
प्रश्‍न- फुटकर तो दे दीजि‍ए!
उत्‍तर- रोज सुबे श्रीराममंदि‍र आरती सुना करो
प्रश्‍न- धुंए की दवा लेनी है, गला चोक है..
उत्‍तर- चोक है तो हरामी आरती सुनो!!
प्रश्‍न- मुझे बोलना पड़ता है, पूछने के लि‍ए..
उत्‍तर- तुमको बोलने को कौन बोला?
प्रश्‍न- पूछने के लि‍ए बोलना पड़ता है..
उत्‍तर- तुमको पूछने के लि‍ए कौन पूछा?
प्रश्‍न- हमारा काम है..
उत्‍तर- हम बताएं हमारा क्‍या काम है?
प्रश्‍न- फुटकर तो दे दीजि‍ए!!
उत्‍तर- हमसे भी जान लो हमारा काम!!
प्रश्‍न- बाद में, अभी दवा लेनी है..
उत्‍तर- 1950 देंगे.
प्रश्‍न- क्‍यों?
उत्‍तर- 50 रुपया नोट बदलवाई!
प्रश्‍न- ये धंधा कब शुरू कि‍ए?
उत्‍तर- हमारे यहां ऊपर से नीचे तक ध्‍यान रखा जाता है.
प्रश्‍न- 50 रुपए हर पांच सौ पर नीचे वाले को?
उत्‍तर- सरकार है हमारी, कमीशन है.
प्रश्‍न- तो ये योजना थी?
उत्‍तर- पोंटी हर क्‍वार्टर पर कमाए, हम एक ठो नोट पे भी ना कमाएं??
प्रश्‍न- नहीं, बि‍लकुल कमाइए, आपका राज है।

Tuesday, November 8, 2016

BAN ON MEDIA: बिलकुल लोमड़ी की तरह काम कर रही मोदी सरकार

हर सरकार की अपनी एक भाषा होती है। कोई बल की भाषा में विश्वास करती है तो कोई बुद्धि की। और कोई सरकार अपनी अलग ही भाषा विकसित कर लेती है। मौजूदा मोदी सरकार बल की भाषा ही जानती है और उसी में विश्वास करती है और उसी भाषा में बात करती है। देश के गृहमंत्री ने कल ही इसकी ताजा नजीर पेश की है। जब कैराना में उन्होंने 'किसने अपनी मां का दूध पिया है' जैसी भाषा का इस्तेमाल किया। इसके पहले प्रधानमंत्री 56 इंच सीने की बात कर ही चुके हैं। इस तरह के डायलाग हम अभी तक धर्मेंद्र की फिल्मों में ही सुना करते थे। अब राजनीति में बीजेपी नेताओं के मुंह से सुन रहे हैं।

सरकार का शीर्ष नेतृत्व अगर इस तरह की भाषा में बात करेगा, तो नीचे कार्यकर्ताओं और भक्तों की भाषा का स्तर क्या होगा? इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। यह मूलतः ताकत की भाषा है और स्टेट की ताकत मिलने के बाद यह और भी ज्यादा अहंकारी और बलशाली हो जाती है। लेकिन इस भाषा की एक खासियत है। अपने से बड़ी ताकत के सामने यह तुरंत नतमस्तक हो जाती है। एनडीटीवी मसले पर भी यही हुआ। सरकार को अपनी ताकत से बड़ी ताकत सामने उभरती दिखी। उसे लग गया कि अब उसकी छीछालेदर होनी तय है। क्योंकि पूरी प्रेस बिरादरी एकजुट है और सुप्रीम कोर्ट से कोई बड़ा कोड़ा पड़ सकता है। प्रेस क्लब में पत्रकारों की कल हुई बैठक ने तस्वीर साफ कर दी थी। चंद चमचों और भक्त पत्रकारों को छोड़कर पत्रकारों के बड़े हिस्से ने इसमें शिरकत की। खुदा न खास्ता सुप्रीम कोर्ट अगर आगे के लिए कोई दिशा निर्देश जारी कर देता तो सरकार के भविष्य के मंसूबों पर पानी फिर जाता। इसलिए उसने तत्काल अपने कदम पीछे खींच लिए और चैनेल पर एकदिनी पाबंदी के फैसले को स्थगित कर दिया।

लेकिन इससे सवाल खत्म नहीं होते, बल्कि चिंता और गहरी हो जाती है। अगर सरकार इस नतीजे पर पहुंची थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पहुंचा है और उसके लिए सजा मिलनी चाहिए, तो वह इस मुद्दे पर कैसे पीछे हट सकती है? उसे अपने फैसले पर अडिग रहना चाहिए था। अगर ऐसा नहीं हुआ तो कहने का मतलब है कि राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा उसके लिए महज एक ढोंग है। क्या राष्ट्रीय सुरक्षा ऐसी चीज है जिससे समझौता किया जा सकता है? या फिर यह सरकार के हाथ का खिलौना है जिससे कभी भी खेला जा सकता है और एनडीटीवी पर पाबंदी भी उसी खेल का हिस्सा है।

अगर सचमुच में मोदी सरकार यह मानती है कि राष्ट्रीय सुरक्षा दांव पर लगी थी तो फिर वह कैसे उससे समझौता कर सकती है? लेकिन अगर बात-बात सुरक्षा के नाम पर उसका इस्तेमाल हो रहा हो, फिर तो जरूर दाल में कुछ काला है। वैसे भी जिस पार्टी का एक पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष 1 लाख रुपये में बिका हो, जिस पार्टी का मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष कानूनन तड़ीपार हो, जिस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर नरसंहार के दाग हों, कम से कम उसे राष्ट्रवाद की परिभाषा तय करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। जो खुद को बार-बार एक खास तबके और खास हिस्से की सरकार के तौर पेश करने से परहेज नहीं करता हो, उससे किसी निरपेक्षता की आशा भी नहीं की जा सकती है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह का कल का कैराना का बयान इसकी ताजी नजीर है।

लेकिन खतरा अभी टला नहीं है। कहा जा सकता है कि पहले दौर की जोर-आजमाइश में सरकार को मात खानी पड़ी है, लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि सरकार ने पहलवानी छोड़ दी है, या फिर उसकी भाषा बदल गई है। यह सरकार बिल्कुल लोमड़ी की तरह काम करती है। उसका एजेंडा साफ है। उसे विरोध की कोई आवाज बर्दाश्त नहीं। आज नहीं तो कल वह उसको बंद करने की कोशिश करेगी। मीडिया के एक बड़े हिस्से को उसने अपने काबू में कर लिया है। बाकियों को अलग-अलग तरीके से अपने कब्जे में लेने की कोशिश कर रही है। यहां तक कि एनडीटीवी भी समझौते की राह पर बढ़ गया था। पी चिदंबरम के इंटरव्यू का प्रसारण नहीं करना उसी का हिस्सा था। पिछले दिनों तमाम खबरों की प्रस्तुति में भी इसकी झलक मिल रही थी।

दरअसल एनडीटीवी का मैनेजमेंट कई मामलों में फंसा है जिनको सरकार हथियार बनाकर उसकी घेरेबंदी कर रही है। आज नहीं तो कल शायद वह एनडीटीवी के खिलाफ अपने मंसूबों में सफल हो जाएगी। इसलिए प्रेस और पत्रकार बिरादरी को भविष्य में इस तरह के किसी भी खतरे के लिए तैयार रहना चाहिए। ऐसे में किसी एनडीटीवी और संस्थान की जगह पत्रकारों को खुद अपनी ताकत पर भरोसा करना होगा। क्योंकि प्रेस की आजादी किसी संस्थान का मोहजात नहीं। यह जितना पत्रकारों से जुड़ी है उससे ज्यादा जनता से। यह हमारे और जनता के लिए खुली हवा में सांस लेने जैसा है। इसके खत्म होने का मतलब है लोकतंत्र का खात्मा।


लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। 

Sunday, November 6, 2016

ये दिल्ली और मेरा धुंआकाल है

दोपहर दो बजे की धुंआ दिल्ली
दिल्ली में बहुत धुंआ भर गया है। जिस तरफ देखता हूं, धुंआ ही धुंआ दिखता है। मेरे अंदर भी बहुत धुंआ भर गया है। जिस तरह से दिल्ली में बताते हैं कि कहीं बाहर से आकर धुंआ भरा है, पता नहीं कैसे उसी तरह से मेरे में भी धुंआ कहीं बाहर से ही आकर भरा है। आग मेरे अंदर नहीं है। थी, लेकिन बुझा ली। अब तो दूसरे आग लगाते हैं। एक बार से जिसे चैन नहीं मिलता, वो दो बार और ट्राई करके देखता है कि देखूं तो सही, सही से भरा है ना! आग लगती रहती है, दिल्ली में धुंआ भरता रहता है, बस वो होती कहीं और है।

धुंए से दिल्ली रो रही है, दिल्ली के लोग रो रहे हैं। लोग परेशान हैं और इसी आलम में वो सड़क पर उतरकर धुंए का विरोध कर रहे हैं। मैं भी रो रहा हूं, परेशान हूं, लेकिन अपनी इस परेशानी को लेकर मैं कहां कौन सी सड़क पर उतर जाऊं, धुंए में दिखाई नहीं देता। लेकिन मुझे लग रहा है कि मेरी सड़कों पर आने के दिन आ रहे हैं। इस बार उनके कदम थोड़े तेज भी हैं। जब से धुंआ भरा है, सांस रुकी फंसी सी ही जा रही है। आने में कौन सी सांस आ रही है, पूरी दिल्ली जानती है, मैं कहीं अलग से सांस नहीं लेता! मैं जो जानता हूं, वो ये कि मेरे अंदर भरा धुंआ बहुत जल्द मुझे सड़क पर ला पटकेगा। धुंआ नहीं पटकेगा तो मैं खुद को ही सड़क पर पटक दूंगा।

ये दिल्ली का धुंआकाल है, लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा ये मेरा काल है, धुंआ तो ऑलरेडी होइए रखा है। लोग कहते हैं कि एनडीटीवी पर बैन लगा है तो वो इतना चिल्ला रहा है! मैं खुद पर लगे बैन को कहां बांचूं? मैंने तो माइम की भी कभी प्रैक्टिस नहीं की, अलबत्ता लोग जो जो कर देते हैं, उससे मेरी घर बैठे और अक्सर लेटे लेटे ही प्रैक्टिस होती रहती है। माइम तो चुप है, लेकिन मैं दुखी हूं। मुझे दुख में चिल्लाना है। कहां किसके सामने चिल्लाऊं मीलॉर्ड? ओह!! सॉरी! मीलॉर्ड!! आप हैं! मैंने देखा नहीं था! सॉरी वंस अगेन! एक्चुअली बड़ा धुंआ धुंआ हो रखा है ना! देख ही रहे हैं हर तरफ! सर, आशा ताई का वो वाला गाना सुना क्या? 'चैन से हमको कभी आपने जीने ना दिया..' यूट्यूब पे है सर, अकेले आशा ताई के ही दो दो वर्जन है सर।

फिर भी मैं नाउम्मीद नहीं हूं। धुंआ ही है, छंट जाएगा। क्या हुआ कि अभी दिल्ली की स्ट्रीट लाइट्स दिन में सूरज को दिया दिखा रही है, वो दिन जरूर आएगा जब सूरज मुझे दिया दिखाएगा। सबको दिखाएगा वो दिया। सबको देगा उजाला। सांस बची रहेगी तो मैं भी देखूंगा सूरज। मेरी आंखों में सूरज के सपने हैं, लेकिन धुंआ भी बहुत भर गया है। न सपने ठीक से दिख रहे हैं और न ही सूरज, फिर भी चलते गुजरते मैं अपनी पीठ आप ठोंक कहता हूं कि दिखेगा, दिखेगा एक दिन!!

दिल्ली को धुंए से आजादी चाहिए। सरकार वेंटीलेटर लगा देगी! मुझे जिस धुंए से आजादी चाहिए, मैं कहां की सरकार से मांग करूं कि उसके लिए भी एक वेंटीलेटर बनवा दे। ज्यादा नहीं तो बस मेरे सपनों में आने वाली सड़क ही धुलवा दे। रात मैंने एक भी सपना नहीं देखा। तय करके सोया था कि आज सपना नहीं देखूंगा। अगर भूले से दिख गया तो जाग जाउंगा। दो बार सपने ने दिखने की कोशिश की, लेकिन मैं जाग उठा। सपनों से मेरी गुजारिश है कि वो इन दिनों मुझसे थोड़ा दूरी बनाए रखें। यहां हकीकत की ही दुनिया में इतना धुंआ है कि वहां का धुंधलापन और बर्दाश्त नहीं होता।

सपनों, मुझसे दूर रहो। धुंए, तुम भी दूर रहो। चिपकने वालों, तुम नजर न आना। मेरे मन की चिड़िया के घोंसले पर उस खोंसला ने जानबूझकर अवैध कब्जा कर लिया है। घोंसले के असली कागजात चिड़िया के पास हैं। चिड़िया फुर्र हो गई है। इसीलिए कहता हूं, बाकी लोग भी फुर्र हो लो। आसमान तुम सबके इंतजार में है। मेरे भी इंतजार में है। मैं अभी नीचे ही हूं। यहां धुंआ बहुत है। मैं रास्ता खोज रहा हूं, मिलते ही आता हूं। कमबख्त धुंआ छंटे तो मुक्ति मिले।

अरे, अभी तो फैजाबाद भी जाना है। 

ये दिल्ली और मेरा धुंआकाल है

दोपहर दो बजे की धुंआ दिल्ली
दिल्ली में बहुत धुंआ भर गया है। जिस तरफ देखता हूं, धुंआ ही धुंआ दिखता है। मेरे अंदर भी बहुत धुंआ भर गया है। जिस तरह से दिल्ली में बताते हैं कि कहीं बाहर से आकर धुंआ भरा है, पता नहीं कैसे उसी तरह से मेरे में भी धुंआ कहीं बाहर से ही आकर भरा है। आग मेरे अंदर नहीं है। थी, लेकिन बुझा ली। अब तो दूसरे आग लगाते हैं। एक बार से जिसे चैन नहीं मिलता, वो दो बार और ट्राई करके देखता है कि देखूं तो सही, सही से भरा है ना! आग लगती रहती है, दिल्ली में धुंआ भरता रहता है, बस वो होती कहीं और है।

धुंए से दिल्ली रो रही है, दिल्ली के लोग रो रहे हैं। लोग परेशान हैं, लेकिन सड़कों पर भी नहीं उतर सकते। मैं भी रो रहा हूं, परेशान हूं, लेकिन अपनी इस परेशानी को लेकर मैं कहां कौन सी सड़क पर उतर जाऊं, धुंए में दिखाई नहीं देता। लेकिन मुझे लग रहा है कि मेरी सड़कों पर आने के दिन आ रहे हैं। इस बार उनके कदम थोड़े तेज भी हैं। जब से धुंआ भरा है, सांस रुकी फंसी सी ही जा रही है। आने में कौन सी सांस आ रही है, पूरी दिल्ली जानती है, मैं कहीं अलग से सांस नहीं लेता!

ये दिल्ली का धुंआकाल है, लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा ये मेरा काल है, धुंआ तो ऑलरेडी होइए रखा है। लोग कहते हैं कि एनडीटीवी पर बैन लगा है तो वो इतना चिल्ला रहा है! मैं खुद पर लगे बैन को कहां बांचूं? मैंने तो माइम की भी कभी प्रैक्टिस नहीं की, अलबत्ता लोग जो जो कर देते हैं, उससे मेरी घर बैठे और अक्सर लेटे लेटे ही प्रैक्टिस होती रहती है। माइम तो चुप है, लेकिन मैं दुखी हूं। मुझे दुख में चिल्लाना है। कहां किसके सामने चिल्लाऊं मीलॉर्ड? ओह!! सॉरी! मीलॉर्ड!! आप हैं! मैंने देखा नहीं था! सॉरी वंस अगेन! एक्चुअली बड़ा धुंआ धुंआ हो रखा है ना! देख ही रहे हैं हर तरफ! सर, आशा ताई का वो वाला गाना सुना क्या? 'चैन से हमको कभी आपने जीने ना दिया..' यूट्यूब पे है सर, अकेले आशा ताई के ही दो दो वर्जन है सर।

फिर भी मैं नाउम्मीद नहीं हूं। धुंआ ही है, छंट जाएगा। क्या हुआ कि अभी दिल्ली की स्ट्रीट लाइट्स दिन में सूरज को दिया दिखा रही है, वो दिन जरूर आएगा जब सूरज मुझे दिया दिखाएगा। सबको दिखाएगा वो दिया। सबको देगा उजाला। सांस बची रहेगी तो मैं भी देखूंगा सूरज। मेरी आंखों में सूरज के सपने हैं, लेकिन धुंआ भी बहुत भर गया है। न सपने ठीक से दिख रहे हैं और न ही सूरज, फिर भी चलते गुजरते मैं अपनी पीठ आप ठोंक कहता हूं कि दिखेगा, दिखेगा एक दिन!!

दिल्ली को धुंए से आजादी चाहिए। सरकार वेंटीलेटर लगा देगी! मुझे जिस धुंए से आजादी चाहिए, मैं कहां की सरकार से मांग करूं कि उसके लिए भी एक वेंटीलेटर बनवा दे। ज्यादा नहीं तो बस मेरे सपनों में आने वाली सड़क ही धुलवा दे। रात मैंने एक भी सपना नहीं देखा। तय करके सोया था कि आज सपना नहीं देखूंगा। अगर भूले से दिख गया तो जाग जाउंगा। दो बार सपने ने दिखने की कोशिश की, लेकिन मैं जाग उठा। सपनों से मेरी गुजारिश है कि वो इन दिनों मुझसे थोड़ा दूरी बनाए रखें। यहां हकीकत की ही दुनिया में इतना धुंआ है कि वहां का धुंधलापन और बर्दाश्त नहीं होता।

सपनों, मुझसे दूर रहो। धुंए, तुम भी दूर रहो। चिपकने वालों, तुम नजर न आना। मेरे मन की चिड़िया के घोंसले पर उस खोंसला ने जानबूझकर अवैध कब्जा कर लिया है। घोंसले के असली कागजात चिड़िया के पास हैं। चिड़िया फुर्र हो गई है। इसीलिए कहता हूं, बाकी लोग भी फुर्र हो लो। आसमान तुम सबके इंतजार में है। मेरे भी इंतजार में है। मैं अभी नीचे ही हूं। यहां धुंआ बहुत है। मैं रास्ता खोज रहा हूं, मिलते ही आता हूं। कमबख्त धुंआ छंटे तो मुक्ति मिले।

अरे, अभी तो फैजाबाद भी जाना है। 

Saturday, November 5, 2016

बैन क्यूं? जनता को मार के छील दीजिए मोदी महोदय

एनडीटीवी पर पाबंदी किसी एक चैनल का मसला नहीं है। यह पूरे प्रेस और उसकी स्वतंत्रता से जुड़ा है। यह बोलने की आजादी पर हमला है। यह कुछ और नहीं बल्कि जनता के दमन और उत्पीड़न की तैयारी है, क्योंकि सरकार के आखिरी निशाने पर वही है। दरअसल मोदी सरकार सारे मोर्चों पर नाकाम हो गई है। उसका सिराजा बिखर रहा है। अच्छे दिन का गुब्बारा फूट चुका है और वादे जुमले साबित हो चुके हैं। अब बचे-खुचे इकबाल के भी जाने का खतरा पैदा हो गया है। हालात बद से बदतर हैं। जनता में रोष है। ऐसे में सरकार को पता है कि उसके अलग-अलग हिस्से सड़क पर उतरेंगे और सरकार को उनसे निपटने के लिए बल की जरूरत पड़ेगी।

सरकार के इस रास्ते में तीन चीजें आड़े आएंगी। अदालत, प्रेस और विपक्ष। इसलिए बारी-बारी से इनको ठिकाने लगाने की तैयारी शुरू हो गई है। न्यायपालिका और मोदी सरकार के बीच की लड़ाई किसी से छुपी नहीं है। न्यायिक आयोग कानून के जरिये अदालतों को अपने चंगुल में लेने में नाकाम सरकार अब दूसरे रास्ते अपना रही है। कई जगहों और कई मंचों पर मुख्य न्यायाधीश इसको जाहिर भी कर चुके हैं। इसका असर भी दिखना शुरू हो गया है। अदालतें देखने के बाद भी अब चीजों की अनदेखी कर रही हैं।

प्रेस का बड़ा हिस्सा कारपोरेट मालिकाने की गिरफ्त के चलते पहले से ही समर्पण कर चुका है। सरकार का सुर ही उसका सुर बन गया है। तमाम दबावों के बाद कुछ ने झुकना मंजूर नहीं किया। उन्होंने अपनी रीढ़ सीधी रखी। लिहाजा सरकार अब ऐसे घरानों के ‘इलाज’ में जुट गई है। एनडीटीवी पर पाबंदी उसी का हिस्सा है। प्रेस और कुछ नहीं बल्कि जनता की आवाज होता है। वह जनता और सरकार के बीच माध्यम है। अब इसी पुल को ही तोड़ने की कोशिश हो रही है। यह मार्ग अब एकतरफा हो जाएगा जिसमें सरकार का पक्ष तो होगा, लेकिन जनता का पक्ष और उसके सवाल गायब हो जाएंगे। इसलिए यह कार्रवाई प्राथमिक और आखिरी तौर पर जनता के खिलाफ है।

रामकिशन मसले पर दिल्ली में विपक्षी नेताओं के साथ सलूक ने बहुत कुछ बता दिया है। लोकतंत्र में विपक्ष अगर सरकार नहीं तो उसकी हैसियत उससे कम भी नहीं होती है। संसद से लेकर सड़क तक वह जनता की आवाज होता है। वह सरकार के जनविरोधी और गलत कामों का तुर्की ब तुर्की जवाब देता है। अनायास नहीं संसदीय लोकतंत्र में शैडो कैबिनेट की अवधारणा है। जनता पार्टी के शासन के दौरान बिहार के बेलछी में हुए दलित हत्याकांड का इंदिरा गांधी ने दौरा किया था। मोरारजी सरकार उन्हें वहां जाने से तो नहीं रोक पायी थी? यहां राजधानी के भीतर अगर विपक्षी नेताओं को पीड़ित के परिजनों से नहीं मिलने दिया जा रहा है तो यह बहुत कुछ कहता है। विपक्ष को अपने बराबर न सही, लेकिन दौ कौड़ी का भी न समझना लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। क्योंकि किसी अदालत और प्रेस के मुकाबले विपक्ष जनता के सबसे करीब होता है और उसकी आवाज को बंद करने की कोशिश का मतलब है जनता की पहल पर पाबंदी। अनायास नहीं सरकार ने इन तीनों स्तंभों के चोटी के लोगों के गिरेबान पर हाथ डाला है। उसे पता है कि एकबारगी इन्हें काबू में कर लेने का मतलब है पूरा मैदान साफ।

इस तरह से बारी-बारी से जनता की रक्षा करने वाले हथियारों को छीनकर उसे निहत्था किया जा रहा है। आखिर में वह फिल्म किस्सा कुर्सी का में जनता बनी शबाना आजमी की तरह अकेली तो रह जाएगी, लेकिन आत्महत्या नहीं कर पाएगी। इस बार जनता से जो भी सड़क पर उतरेगा मारा जाएगा। कारपोरेट विरोध मौत का पैगाम होगा। सरकार के विरोध का मतलब सीने पर गोली। यह बात अलग है कि वह कहीं किसान होगा तो कहीं दलित, तो कहीं मुसलमान। कहीं बेरोजगार और किसी जगह नक्सली होगा। यह सब कुछ राष्ट्रवाद और देश की रक्षा के नाम पर किया जाएगा। एक ऐसा राष्ट्रवाद जिसमें जनता नहीं होगी, उसके हित नहीं होंगे। जनता की बलि देश की सुरक्षा के नाम पर ली जाएगी। इसकी शुरुआत हो चुकी है। झारखंड में 8 किसानों की पुलिस की गोली से मौत इसी का हिस्सा है। उड़ीसा में नक्सली के नाम पर 24 आदिवासियों की हत्या इसका ट्रेलर।

इस कड़ी में सरकार का सबसे ज्यादा जोर सुरक्षा बलों और उसके जवानों पर है। क्योंकि यही वह हिस्सा है जिसके कंधे पर बैठकर मोदी भविष्य की सत्ता की सवारी करेंगे। इस लिहाज से उसका भरोसा और विश्वास हासिल करना पहली जरूरत बन जाती है। और फिर जवान अपने किसान बाप की छाती गोलियों से छलनी करेगा। राष्ट्र और उसके सुरक्षा के नाम पर छेड़ा गया यह गृहयुद्ध देश को तबाही के रास्ते पर ले जाएगा।

लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।