Tuesday, May 27, 2014

हम एक गडकरी टाइप का कूलर ले आए हैं

हमरे मामा कहा करते हैं कि‍ जब भी बजार में मजूर लाने जाओ, कभी मोटा मजूर न चुनना। बैइठ के ससुरे बीड़ी फूंकते रहते हैं और चार मंजि‍ल चढ़ने पर हांफा छूट जाता है। यह लि‍ए ठोंक बजा के देख लेना, हड्डी से टन की आवाज आए तो समझ लेना कि‍ आदमी काम का है। 

और अब हम ये दावा खुद अपने आप पर ठोंकना चाहते हैं, हलांकि‍ जबसे मकान शि‍फ्ट कि‍ए हैं, हथौड़ी का जनी कहां हेरा गई है और दरवाजे पर टांगने वाला परदा रोज हमारे खटि‍या खाली करने के बाद खंचही खटि‍या की टूटी ओरदावन ढंकने के काम आ रहा है। इतने में हम बस यही सोचके संतोख कि‍ए हुए हैं कि‍ चलो... दरवाजा न सही, ओरदावन तो ढंकने के काम आ रहा है। बहरहाल, हमारा दावा अभी भी हमारे ऊपर ठुंका हुआ है कि हम बहुत मेनहती पुरुस हैं। और हमारी बात मान लीजि‍ए कि‍ रोज झाड़ू लगाना, खाना पकाना अउर बरतन धोना को न कभी भारतीय समाज मि‍नहत माना है ना मानेगा, तो ऊ तो हम रोज करते हैं पर हमको गि‍नवाने की दरकार नहीं है। ऊ कौनो मि‍नहत है जी... सब कर लेते हैं। असली मि‍नहत वाला काम तो अभी आगे आने वाला है।

हां तो पावती मि‍ले कि‍ परसों ही हम एक गडकरी टाइप का कूलर ले आए हैं। जैसा उसका साइज वैसा ही उसका भ्रष्‍टाचार। मने पूरा कमरा कि‍तनो गरम हो, आग से भकाभक जल रहा हो, मजाल है कि‍ पांच मि‍नट बाद चादर न ओढ़ा दे। अइसा तो हरहरा के चलता है कि‍ आखि‍री टाइम कब हम महायानी मुद्रा में लेटे थे, कब फि‍री होकर सोए, यादे नै आ रहा है। हमको अगर रच्‍चौ बि‍स्‍सास होता कि‍ हमारा पराकि‍रति‍क स्‍वरूप ई हमसे सोख लेगा, फूंक मारके सबकुछ उड़ा देगा, तो हम इसको लाते... मने सपनो में लाने की न सोचते, भले हमरे सपने की बैसाखी बार बार टूट जाती और भले ही करीना उसे फेवीकोल लगाके जोड़ देती। जादा सोचे नहीं, इसलि‍ए कूलर ले आए। सोचते तो पंखा भी न लेकर आते।

सुबइहैं हमारी नई कामवाली पूरी दरभंगा मेल बनी हुई आई औ झाड़ू खोदके उठाई कि‍ जल्‍दी से कूलर का कुछ करि‍ए, उसमें पानी एकदम दि‍खा ही नहीं रहा है। औ टेंट भी ढीली करि‍ए, हमको दू सौ रुपि‍या चाहि‍ए और दूध का पइसा अलग से दीजि‍ए। हम उठे तो देखे कि‍ कूलर एकदमे सूखा पड़ा है औ फि‍रि‍ज में रखा दूध भी पता नहीं कैसे दही की शकल का हो गया है। दूध का दही कैसे बना, इस बारे में सेपरेटली बात करेंगे, लेकि‍न पहले जो बात बता रहे हैं, उसे सुनि‍ए, ज्‍यादा इधर उधर लबर सबर करेंगे तो मेन बात तो रहि‍ये जाएगी ना। सबकुछ देख दाख के हम वापि‍स बि‍स्‍तर पर आए और कूलर में जो रेगि‍स्‍तान बन गया था, सोचने लगे कि‍ उसको अपने आजकल के मन की तरह हरि‍यर बाग बगीचा में कइसे बदलें। कइसे हमको जो पि‍राकि‍रति‍क होने का मौका मि‍ला है, उसे मानव निर्मित सामान अप्‍लाई करके अपि‍राकि‍रति‍क कर दें। अब आखि‍र हमेसा हमेसा परकि‍रती का रक्षा करके मसीन थोड़े बचा पाएंगे। टेंट से हजारन रुपि‍या बहि‍रि‍याए थे, तब तो दि‍माग में कौनो बत्‍ती चि‍राग न जला न दि‍ल में कौनो कमल दल खि‍ल रहा था। तब तो बस दि‍माग में बस एक्‍कै चीज था कि कइसे इस अगलगी गरमी को दूर करें।

बहरहाल, हम उठे, बि‍गेर कुछ तय कि‍ए उठे, लेकि‍न फि‍र भी चूंकि‍ हमें उठना ही था, इसलि‍ए उठे। ऊ का है कि झाड़ू लगाने के बास्‍ते हमारी दरभंगा मेल हमको बार बार बोल रही थी, त उठना ही पड़ा। अब जब उठ ही गए, हलांकि‍ हमारा कौनो खास मन नहीं था उठने का तो हम कमरे से बाहर नि‍कल आए। कमरे से बाहर नि‍कले तो देखे कि हम तो आंगन में खड़े हैं। खैर, हमने अपने आंगन से पूरे 47 मि‍नट तक बात की और अपनी मकान मलकि‍न को बता दि‍या कि‍ देखि‍ए, ई बातचीत में से सिर्फ इतना ही लीक होना चाहि‍ए कि‍ हम बहुत नाराज हुए। का नाराज हुए, का बोले, का सुने, ई सब बात का डि‍टेलि‍न में कि‍सी का भी, हम रि‍पीटि‍या रहे हैं, कि‍सी का भी बताने का कौनो दरकार नहीं ना है। 47 मि‍नट बाद हमको याद आया कि‍ आंगन में तो एक ठो रबर वाला पाइप रखा है। हम पाइप तुरंत उठा लाए औ उसको नल से कनेक्‍ट कर दि‍ए। अब देखे कि‍ दूसरका छोर तो पाइक के दूसरके छोर पर जाके एकदमे सूखा पड़ा है। दुसरका छोर एकदम सुरच्‍छि‍त देखे तो उसे लेजाकर कूल में ठूंस दि‍ए। फि‍र हम वापस आए। वापस आने के बाद हम गोल गोल घुमाकर नल की टोंटी खोल दि‍ए और वापस अपने बि‍स्‍तरा पर जाकर ओलर गए। पांच मि‍नट बाद हम फि‍र से चादर ओढ़ लि‍ए औ कूलर को नि‍हारते रहे।

(लोड ना लो भाई। बात इतनी सी है कि‍ सुबह कूलर में पानी खत्‍म हो गया था, उठके पानी भरे थे.... बस) 

फासीवाद के लक्षण

ये लक्षण डा. लॉरेंस ब्रिट ने बताए हैं जो एक राजनीतिक विज्ञानी हैं जिन्होंने फासीवादी शासनों - जैसे हिटलर (जर्मनी), मुसोलिनी (इटली ) फ्रेंको (स्पेन), सुहार्तो (इंडोनेशिया), और पिनोचेट (चिली) - का अध्ययन किया और निम्नलिखित लक्षणों की निशानदेही की है:
1. शक्तिशाली और सतत राष्ट्रवाद — फासिस्ट शासन देश भक्ति के आदर्श वाक्यों, गीतों, नारों, प्रतीकों और अन्य सामग्री का निरंतर उपयोग करते हैं. हर जगह झंडे दिखाई देते हैं जैसे वस्त्रों पर झंडों के प्रतीक और सार्वजनिक स्थानों पर झंडों की भरमार. जबकि वास्‍तव में ये किसी भी देश के मुट्ठी भर लोगों की सत्‍ता के कट्टर समर्थक होते हैं। इनकी ''देशभक्ति'' का अर्थ मुट्ठीभर लोगों की समृद्धि, और बहुसंख्‍यक आबादी की बदहाली होती है।
2. मानव अधिकारों के मान्यता प्रति तिरस्कार — क्योंकि दुश्मनों से डर है इसलिए फासिस्ट शासनों द्वारा लोगो को उकसाया जाता है कि यह सब सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए वक्त की ज़रुरत है. शासकों के दृष्टिकोण से लोग घटनाक्रम को देखना शुरू कर देते हैं और यहाँ तक कि वे अत्याचार, हत्याओं, और आनन-फानन में सुनाई गयी कैदियों को लम्बी सजाओं का अनुमोदन करना भी शुरू कर देते हैं.
3. दुश्‍मनदुश्‍मनों/बलि के बकरों की तलाश: लोगों को आतंकवाद के नाम पर, उन्‍माद की हद तक कथित खतरे और दुश्‍मन - नस्‍लीय, जातीय, धार्मिक अल्‍पसंख्‍यक, उदारतावादी, कम्‍युनिस्‍ट - के के खात्‍मे की जरूरत के प्रति उकसाया और एकीकृत किया जाता है।
4. मिलिट्री का वर्चस्व — व्यापक आंतरिक समस्याएं मौजूद होते हुए भी सरकार सेना का विषम वित्त पोषण करती है. घरेलू एजेंडे की उपेक्षा की जाती है ताकि मिलट्री और सैनिकों का हौंसला बुलंद और ग्लैमरपूर्ण बना रहे.
5. उग्र लिंग-विभेदीकरण — फासीवाद में सरकारें लगभग पुरुष प्रभुत्व वाली होती हैं. फासीवादी शासनों के अधीन, पारंपरिक लिंग भूमिकाओं को और अधिक कठोर बना दिया जाता है. गर्भपात का सख्त विरोध होता है और कानून और राष्ट्रीय नीति होमोफोबिया और गे विरोधी होती है
6. नियंत्रित मास मीडिया – कुछेक मामलों में मीडिया को सीधे सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाता है, लेकिन अन्य मामलों में सरकारी नियमों, या प्रवक्ताओं और अधिकारियों द्वारा पैदा की गयी सहानुभूति द्वारा मीडिया को नियंत्रित किया जाता है. सामान्य युद्धकालीन सेंसरशिप विशेष रूप से होती है.
7. राष्ट्रीय सुरक्षा का जुनून – एक प्रेरक उपकरण के रूप में सरकार द्वारा इस डर का जनता के खिलाफ ही प्रयोग किया जाता है.
8. धर्म और सरकार का अपवित्र गठबंधन — फासीवाद के तहत सरकारें एक उपकरण के रूप में बहुसंख्‍यकों के धर्म को आम राय में हेरफेर करने के लिए प्रयोग करती हैं. सरकारी नेताओं द्वारा धार्मिक शब्दाडंबर और शब्दावली का प्रयोग सरेआम होता है जबकि धर्म के प्रमुख सिद्धांत सरकार और सरकारी कार्रवाईयों के विरुद्ध होते हैं।
9. कारपोरेट पावर संरक्षित होती है – फासीवादी राष्ट्र में औद्योगिक और व्यवसायिक शिष्टजन सरकारी नेताओं को शक्ति से नवाजते हैं जिससे अभिजात वर्ग और सरकार में एक पारस्परिक रूप से लाभप्रद रिश्ते की स्थापना होती है.
10. श्रम शक्ति को दबाया जाता है – श्रम-संगठनों का पूर्ण रूप से उन्मूलन कर दिया जाता है या कठोरता से दबा दिया जाता है क्योंकि फासिस्ट सरकार के लिए एक संगठित श्रम-शक्ति ही वास्तविक खतरा होती है.
11. बुद्धिजीवियों और कला प्रति तिरस्कार – फासीवाद उच्च शिक्षा और अकादमियों के प्रति दुश्मनी को बढ़ावा देता हैं. अकादमिया और प्रोफेसरों को सेंसर करना और यहाँ तक कि गिरफ्तार करना असामान्य नहीं होता. कला में स्वतन्त्र अभिव्यक्ति पर खुले आक्रमण किए जाते हैं और सरकार कला की फंडिंग करने से प्राय: इंकार कर देती है.
12. अपराध और सजा प्रति जुनून – फासीवाद का एक लक्षण यह भी है कि सरकारें कानून लागू करने के लिए पुलिस को लगभग असीमित अधिकार दे देती हैं। पुलिस ज्यादितियों के प्रति लोग प्राय: निरपेक्ष होते हैं यहाँ तक कि वे सिविल आज़ादी तक को देशभक्ति के नाम पर कुर्बान कर देते हैं. फासिस्ट राष्ट्रों में अक्सर असीमित शक्ति वाले विशेष पुलिस बल होते हैं.
13. उग्र भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार — फासिस्ट राष्ट्रों का राज्य संचालन मित्रों के समूह द्वारा किया जाता है जो अक्सर एक दूसरे को सरकारी ओहदों पर नियुक्त करते हैं और एक दूसरे को जवाबदेही से बचाने के लिए सरकारी शक्ति और प्राधिकार का प्रयोग किया जाता है. सरकारी नेताओं द्वारा राष्ट्रीय संसाधनों और खजाने को लूटना असामान्य बात नहीं होती.
14.चुनाव महज धोखाधड़ी होते हैं — कभी-कभी होने वाले चुनाव महज दिखावा होते हैं. विरोधियों के विरुद्ध लाँछनात्मक अभियान चलाए जाते है और कई बार हत्या तक कर दी जाती है , विधानपालिका के अधिकारक्षेत्र का प्रयोग वोटिंग संख्या या राजनीतिक जिला सीमाओं को नियंत्रण करने के लिए और मीडिया का दुरूपयोग करने के लिए किया जाता है

Friday, May 23, 2014

रबर का राष्‍ट्रीय हि‍तवाद बनाम एक चड्ढी की खरीद

ये कोई बहुत ज्‍यादा रात की बात हो तो बात और है पर ज्‍यादा रात की बात नहीं, बस यही कोई आठ बजने के आसपास की बात है तो वो और बात नहीं है जो बहुत ज्‍यादा रात होने पर होती। वैसे यहां अभी नया नया ही आया हूं तो ईमानदारी से ये भी नहीं बता सकता कि ज्‍यादा रात होने पे आखि‍र बात क्‍या होती। इसलि‍ए प्‍लीज लोड न लें और आगे आराम से अपने दि‍माग की दही कराएं। लोड ले भी लेंगे तो भी दही ही होनी है, दूध न बनने का।

अब क्‍या बताएं कि क्‍या क्‍या न हुआ आठ बजे रात। ज्‍यादा कुछ बता दें तो पता चले कि सरकार ही सरकने लगेगी और उसके बाद की जो ऊटपटांग हरकतें शुरू होंगी, वो बर्दाश्‍त करें या कम बता कर ही काम चला लें। नत्‍थू हलवाई नहीं है हमारे यहां कि शाम आठ बजे गरम गरम कचौरि‍यां नि‍कालेगा और हम भर दोना चापेंगे। नत्‍थू तो न सही कल्‍लू हलवाई भी नहीं। लोहा छीलती मशीनें और कटते गर्म लोहे से नि‍कलती भभक के बीच बच गई गली से गुजरते हुए इधर उधर देखने पर अगर कुछ नजर आया तो बस कटता लोहा ही मि‍ला। थोड़ा आगे बढ़े तो पता चला कि सिर्फ लोहा ही नहीं कटता हमारी गली में, रबर भी खूब कटता है। रबर की महक बहुत ही मीठी होती है। पांच मि‍नट तक सूंघने के बाद खटाक से नाक में जो कसैलापन भरती है कि नाक में उंगली करने का जो राष्‍ट्रीय या अंर्तराष्‍ट्रीय हि‍तवाद रहा होगा, अगरचे कभी रहा होगा, वो भी पनाह मांगेगा। न सिर्फ पनाह मांगेगा, बल्‍कि जब हेने ओने न जाने केने केने ये पाजी टोएगा तो भी चुप्‍प पटाए मुंह दबाए नाक भींचे भागने के अलावा कोई दूसरा चारा अगर बच जाए त समझि‍ये कौनो बात है।

वैसे हम कह रहे हैं कि इसे हमारी मजबूरी न समझी जाए, और अगर समझ भी ली जाए तो भी हमारे हि‍तवाद से ही जोड़ कर समझी जाए क्‍योंकि हम रबर की उस मीठी महक से भागे और ऐसा भागे कि अब सुबह ही उसका मुंह देखेंगे। वो तो गनीमत रही कि आगे थोड़ा हरा धनि‍या, लहसुन और प्‍याज वगैरह दि‍ख गए तब कहीं जाकर नाक में सांस आई। उससे पहले तो यही लग रहा था कि सांस की जगह नाक में कोई चप्‍पल ठूंस के बैठा है और कंधे पे हाथ रखके बजोरी कह रहा है कि सूंघो... सूंघो-सूंघो क्‍योंकि अब सूंघना ही तुम्‍हारी नि‍यति है। खैर, कंधे पे सवार उस जबर रबर को कि‍सी तरह से उतारने के बाद लहसुन की दुनि‍या में पहुंचे, जेब में हाथ डाला तो सांप सूंघ गया। पांच रुपय्या का लहसुन के लि‍ए पांच सौ का नोट बुश्‍शर्ट की अगलकी जेब में लहालोट हुआ जा रहा था। मजबूरी में आगे बढ़े कि कहीं तुड़ा लें लेकि‍न ईमानदारी से कह रहे हैं कि अगर पाने की लालसा न हो तो पांच सौ का नोट उसमें मौजूद गांधी से ज्‍यादा चि‍ढ़ाता लगता है। हमें ही नहीं, सबको लगता है चाहे मनोरमा मउसी से पूछ लो या फि‍र नैहर गई रामजीत राय की ब्‍याहता बेबी कुमारी राय से भी। पतित लोगों से भी पांच सौ रुपये के नोट के बारे में सलाह ली जा सकती है और अगर ज्‍यादा कुछ करना हो तो इतनी सारी सर्वे कंपनि‍यां हैं, उन्‍हें भी पांच सौ के नोट पर लगाया जा सकता है। हम बता रहे हैं कि इन सबका रि‍जल्‍ट वही होगा जो हमारे साथ रात में हुआ। रात क्‍या, मने शाम को हुआ।

आखि‍रकार उसपर हमारी नजर ठहर ही गई। वो मुझे देख रही थी और मैं उसे। ये एकदम उस वक्‍त की बात है जब मैं चौराहे पर बरतन मांजने वाला झाबा देख रहा था, तभी अचानक उसपर नजर गई। कैसी तो लाल पीली नीली थी। कभी इधर लहराए तो कभी उधर। मने रात की मंद बयार में उसके प्‍यार का खुमार इस तरह से मेरे सि‍र पर चढ़के बोलने लगा कि आखि‍रकार हम उस तक पहुंच गए। मगर उसका बाप जो था, वो दूसरों को बनि‍यान सरकाने में बि‍जी ठैरा। लेना हो त लीजि‍ए नहीं त हमको बेचने का इतना दरकार नहीं है। ''एक दाम लगाते हैं दूसरा बताने के लि‍ए भी जेब में नहीं रखते चाहें तो झारा ले लीजि‍ए ना हमारा।'' उधर बापजान बनि‍यान में बि‍जी ठैरे तो हमने लपक कर अपनी ललछौंआ का हाथ पकड़ा। मुलायमि‍यत महसूस की तो लगा कि यही तो है जि‍सका हम पि‍छले एक साल से एक लाल चड्ढी पहनके इंतजार कर रहे हैं। बापजान से पूछा तो बताए कि तीस की एक चड्ढी पड़ेगी। हम कहे कि दो दे दो। और हम दो चड्ढी लेकर बाजार से जब चले तो दि‍माग आसमान में इस कदर उड़ा कि लहसुन यादे ना रहा। चड्ढी का खुशी में रात 12 बजे जब दाल नि‍काले तो वहीं सि‍र पकड़ के बैठ गए कि हाए... लहसुन। काश तुम्‍हें ले लि‍ए होते...

(यार अब और नी हो रही। इत्‍ती देर से दि‍माग की दही कर रहा हूं। बात तो बस इतनी है कि लहसुन खरीदने गए थे तो दो चड्ढी लेकर आ गए।  )

Tuesday, May 20, 2014

एक चम्‍मच च्‍यवनप्राश

सुबह-सुबह कबूतर की गुटरगूं और तेज चलती हवा के साथ आई चमकीली चटीली धूप से जबरदस्‍ती आंख मूंदे रह पाना मुमकि‍न न लगा तो मैं बि‍स्‍तर पर उठकर बैठ गया। आंखें मलीं लेकि‍न उनमें आधी रात के बाद आई नींद का अधूरापन तारी था तो मैनें उठकर अपने बड़े वाले बक्‍से पर रखी रूमाल ले ली। आलमारी घर में एक भी नहीं है इसलि‍ए दान में मि‍ले बक्‍से को ही आलमारी बनाना पड़ रहा है। पता नहीं कैसा तो मेरा मकान मालि‍क है कि कमरे में पूरी चार दीवारें एक छत एक खि‍ड़की और यहां तक कि एक दरवाजा भी लगा दि‍या, लेकि‍न एक अदद आलमारी, जि‍सके बगैर कमरे में रहने वाला अधूरा रहता है, बनवाने की उसे बि‍लकुल भी नहीं सूझी। बक्‍से से रूमाल लेकर मैं फि‍र से बि‍स्‍तर पर आकर बैठ गया और मैनें उस रूमाल से अपनी आंखों से बार बार नि‍कलने वाले आंसू पोंछे। नहीं, मैं रो नहीं रहा था, नींद बजोरी मुझे रुला रही थी। मैनें एक बार रूमाल से अपने आंसू पोंछे तो कुछ देर बाद फि‍र से नि‍कलने लगे तो फि‍र से पोंछे। तीसरी बार आंसू थोड़ी देर में नि‍कले इसलि‍ए थोड़ी देर बाद पोंछे। इस झाड़ू पोंछे के चक्‍कर से नि‍कलने के बाद मैनें दूर रसोई की खि‍ड़की पर रखे च्‍वनप्राश के डि‍ब्‍बे को देखना शुरू कि‍या। थोड़ी देर बाद उसे फि‍र से देखा और उसके थोड़ी देर बाद फि‍र से देखा। इसके बाद मैं अपने बि‍स्‍तर से उठा और खड़ा हो गया और रूमाल वहीं पर छोड़ दी। इस बार मैनें कुछ तय कर लि‍या था। मैं आहि‍स्‍ते आहि‍स्‍ते चला और कमरे से बाहर नि‍कल गया। कमरे से बाहर नि‍कलने के बाद मैनें खुद को अपने आंगन में पाया। आंगन में भी मुझे चलना ही था क्‍योंकि कमरे से तो मैं कुछ तय करके चला था ना। इसके बाद मैं अपनी रसोई के दरवाजे से होता हुआ उसके अंदर पहुंचा और खि‍ड़की के सामने आकर एक बार फि‍र से च्‍यवनप्राश का डि‍ब्‍बा देखा। मैनें एक चम्‍मच लि‍या और डि‍ब्‍बे का ढक्‍कन खोला। मैनें चम्‍मच उसमें डाला और भर चम्‍मच च्‍यवनप्राश नि‍काला। इसके बाद मैनें एक चम्‍मच च्‍यवनप्राश खाया।

कुल मि‍लाकर मैनें आज सुबह उठकर एक चम्‍मच च्‍यवनप्राश खाया। बस बात इतनी सी ही है।

(हो गई ना दि‍माग की दही... कसम से मेरी भी होती है।)

गनीमत थी कि खटि‍या में पाया था

अबसे मैं बनि‍यान पहनूंगा तो उसके पहनने का तरीका लि‍खूंगा। ये भी लि‍खूंगा कि‍ बनि‍यान पहनने के बाद मैनें बुधवार को लाल रंग की चड्ढी पहनी थी जि‍समें नाड़े की जगह इलास्‍टि‍क लगी थी। ये भी कि‍ इलास्‍टि‍क थोड़ी टाइट थी इसलि‍ए कमर पर रेघारी पड़ गई थी। ये भी कि‍ सुबह कामवाली दाल भात पका के तो गई लेकि‍न दाल में इतना पानी भर गई कि दो बार पानी पसाना पड़ा। हालांकि‍ कोई सुंदर प्‍लेट कटोरी नहीं है मेरे पास, हॉस्‍टल की चुराई तीन थालि‍यां हैं जि‍नमें चार खाने हैं और खाना सज भी नहीं सकता, फि‍र भी मैं अपने बेढंगे ढंग के खाने को जि‍स पचास रुपये के दो सौ ग्राम वाले अचार के साथ खाउंगा तो उसकी फोटो पोस्‍ट करके दो की जगह तीन बार पानी पसाने की बात भले ही झुट्ठे लि‍खूंगा, पर लि‍खूंगा जरूर। चैनल पर रबीस बाबू अगर छींके भी तो उन्‍हें भी बकअप रबीस, का गजब कर गुजरे... भरे स्‍टूडि‍यों में छींक मारे... तुम सच में अलग हो रबीस, ये भी लि‍खूंगा। मैं लि‍खूंगा कि जब मैं घर लौटकर आया तो अरगनी पर टांगी दो तौलि‍या एक चड्डी में से चड्ढी उड़कर खटि‍या के पाए से उलझी पड़ी थी। वो तो गनीमत रही कि‍ खटि‍या में पाया था नहीं तो उड़कर का जनी कहां चली जाती। इकलौती नहीं है फि‍र भी जि‍तनी पुरानी चड्ढि‍यां हैं, सबको करीने से लगाकर फोटो लूंगा और मेरी बात का यकीन मानि‍ए, मैं बड़ा ही मार्मिक लि‍खूंगा कि यही तो वो सामान था... खैर। मैं लि‍खूंगा और अब से हर चीज लि‍खूंगा। आपके दि‍माग का दही होता रहे तो क्‍या, वैसे भी गर्मी का सीजन है, दही की लस्‍सी सबको चाहि‍ए होती है भई....

Thursday, May 8, 2014

अयोध्‍या में दंगा भड़काने की कोशि‍श की नरेंद्र मोदी ने

अयोध्‍या फैजाबाद में रैली करने के लि‍ए बहुत सारे मैदान हैं। बचपन से आज तक देखता आया हूं कि‍ राजनीति‍क रैलि‍यों के लि‍ए दो मैदान (लालकुर्ती कैंट और गुलाबबाड़ी) का मैदान लगभग सभी दलों को मुफीद लगता रहा है। दोनों ही मैदान खासे बड़े हैं और शहर के दो छोरों पर हैं। ऐसे में राजकीय इंटर कॉलेज के मैदान में, जि‍समें 6-7 हजार से ज्‍यादा की भीड़ कि‍सी भी तरह से नहीं आ सकती है, वहां राम की फोटो लगाकर हिंदू गर्जना करने के नि‍हि‍तार्थ क्‍या हैं, इसे थोड़ा समझने की जरूरत है। काबि‍लेगौर है कि‍ यह गर्जना ऐसे माहौल में की गई, जब शहर दंगे के दर्द से नि‍कलने की कोशि‍श में था और यह भी कि‍ शहर में यकीनन बेतरतीब तनाव, डर, घृणा, आक्रोश जैसी भावनाएं बेभाव में तैर रही थीं।

इससे पहले कि कि‍सी रि‍जल्‍ट पर पहुंचा जाए, एक बार राजकीय इंटर कॉलेज के आसपास की भौगोलि‍क स्‍थि‍ति‍ समझ लेनी चाहि‍ए। जीआईसी के मेन गेट के सामने ही एक मशहूर मस्‍जि‍द है जो अपनी तार्किक तकरीरों के लि‍ए मुस्‍लि‍मों में ही नहीं, हिुदओं में भी एक सदभाव की नजर से देखी जाती रही है। इस मस्‍जि‍द के बगल से ही मुस्‍लि‍म आबादी का मोहल्‍ला कसाबबाड़ा शुरू होता है जि‍सकी सीमा फतेहगंज चौराहे पर जाकर खत्‍म होती है। जीआईसी के मेन गेट की दाहि‍नी तरफ की आबादी में 70 फीसद से ज्‍यादा मुस्‍लि‍म परि‍वार हैं। जीआईसी के पि‍छले गेट की तरफ रेल की पटरी है जि‍सको पार करके वि‍श्‍व वि‍ख्‍यात बहू बेगम के मकबरे को जाने वाली रोड है जो कि‍ बमुश्‍कि‍ल डेढ़ सौ मीटर दूर जाकर मकबरा ति‍राहे पर मि‍लती है। वहां भी मुस्‍लि‍म मि‍श्रि‍त आबादी है। जीआईसी के बाईं तरफ प्रिंसि‍पल का मकान है जि‍सको पार करते ही फि‍र से मुस्‍लि‍म आबादी है। यहां पर याद दि‍ला दें कि‍ दो साल पहले फैजाबाद में वि‍जयादशमी के दि‍न दंगे की चिंगारी जीआईसी के मेन गेट से लेकर फतेहगंज चौराहे के बीच ही भड़की थी। फतेहगंज भाजपा को समर्थन देने वाले बनि‍या व कायस्‍थों का इलाका है जि‍समें गाहे बगाहे कुर्मी और पंडि‍त भी रहते देखे जा सकते हैं।

अब जो पहला सवाल जेहन में उठता है कि लालकुर्ती और गुलाबबाड़ी जैसी सेफ और जनता के लि‍ए सुवि‍धाजनक मैदानों को छोड़ एक मुस्‍लि‍म आबादी के बीच हिंदुत्‍व की हुंकार बाकायदा राम की तस्‍वीर के साथ क्‍यों भरी गई। आखि‍र वह कौन सा कारण रहा होगा जो दो साल से रि‍स रहे दंगे के घाव को बजाए भरने के, उसे और खोदने की कोशि‍श की गई। एकबारगी दि‍माग जवाब देता है कि सत्‍ता प्राप्‍ति‍। और शायद यही पहला जवाब भी होगा। लेकि‍न जि‍स तरह से जीआईसी मैदान में नरेंद्र मोदी ने जहर उगला है, कसाबबाड़ा के मुसलमान सत्‍ता प्राप्‍ति‍ के सवाल से जरा सा भी मुतमईन नहीं हैं। मेरे कई दोस्‍तों ने साफ कहा कि अगर मोदी सत्‍ता में आते हैं तो जाहि‍राना तौर पर उनकी आंख में मुस्‍लि‍मों के लि‍ए बाल जरूर रहेगा, जैसा कि मोदी की क्राइम केस हि‍स्‍ट्री हमें पहले भी बताती आई है।

मतदान वाले दि‍न शहर में कई लोगों से बातचीत करने के बाद जो नि‍ष्‍कर्ष नि‍कला, जि‍स तरह से नरेंद्र मोदी की जीआईसी मैदान में रैली आयोजि‍त की गई, उसका पूर्वानुमान लगाना कोई कठि‍न नहीं था। जीआईसी में हुई रैली के चलते जो मुस्‍लि‍म वोट पारंपरि‍क रूप से समाजवादी पार्टी में जाता था, वह भी पलटकर कांग्रेस के पास आ गया। और ये सिर्फ शहरी क्षेत्र में ही नहीं हुआ, लखनऊ रोड पर रुदौली तक और इलाहाबाद रोड पर तकरीबन बीकापुर तक मुस्‍लि‍म मतदाताओं की एकजुटता कांग्रेस के प्रति‍ दि‍खाई/सुनाई दी। यह वही इलाका है जो दो साल पहले भीषण दंगे की चपेट में आया था। ये वही दंगा था जि‍सकी चिंगारी जीआईसी मैदान से भड़की और आगजनी चौक में शुरू हुई। जीआईसी मैदान में सभा करने का साफ मतलब था कि हिंदू मतों का साफ वि‍भाजन। अब ये वि‍भाजन भले ही दंगे की शक्‍ल में होता तो इससे भी नरेंद्र मोदी को कोई खास मतलब नहीं था। हजारों करोड़ रुपये के खर्च में सौ पचास लोगों की जान भी चली जाए तो मुझे नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी को कोई खास फर्क पड़ने वाला है या था। फर्क पड़ता होता तो अब तक भगोड़ा ना साबि‍त हुए होते। इस बार के मतदान में कांग्रेस एक तरह से फैजाबाद में सांप्रदायि‍कता वि‍रोध और धर्मनि‍रपेक्ष राजनीति‍ का परचम वोट के लालच में ही सही, पर उठाती दि‍खी, जबकि‍ इसकी भी क्राइम केस हि‍स्‍ट्री दंगों की ही रही है।

बहरहाल, फैजाबाद में दो धर्मों के बीच की खाई को पाटने की बजाए नरेंद्र मोदी इसे और गहरा करने में थोड़ा बहुत कामयाब भी हुए, वो तो अयोध्‍या (अ+युद्ध+आ=जहां युद्ध न होता हो, वहां आइये) में अभी भी गंगा जमुनी तहजीब कायम रह पाई है जो कसाबबाड़ा से लेकर कुरैश नि‍स्‍वां स्‍कूल कंधारी बजार तक के मेरे बचपन के मुस्‍लि‍म दोस्‍तों ने पूरी शि‍द्दत से बरती। जि‍स दि‍न मोदी जीआईसी के मैदान में दंगा कराने आए थे, रात भर कई दोस्‍तों के फोन आते रहे जो लगातार समुदाय में डर की चर्चा करते रहे। उन्‍हें तो यहां तक चिंता थी कि क्‍या उन्‍हें अपने मत के प्रयोग का भी अधि‍कार मि‍लेगा या उन्‍हें अपने घरों में कैद रहना पड़ेगा। राम की तस्‍वीर के साथ मंदि‍र निर्माण और राम कसम और राम राज जैसे शब्‍दों या जुमलों से कौन सा मुस्‍लि‍म मुतमईन हुआ है और रह सकता है। और वो कैसा प्रधानमंत्री होगा जो एक मुस्‍लि‍म इलाके में जाकर उनकी मस्‍जि‍द पर एक मंदि‍र निर्माण की कसम खाता है। जीआईसी में हुई सभा में कोशि‍श तो ये थी कि‍ शक्‍ति‍ प्रदर्शन कर साफ तौर पर यह संदेश दि‍या जाए कि यदि‍ आप हमारे साथ नहीं हैं तो आपका हाल फि‍र से वही कि‍या जाएगा, जो दो साल पहले कि‍या गया था। दो साल पहले भाजपा और योगी आदि‍त्‍यनाथ के गुर्गों द्वारा भड़काए गए दंगे में कई मुस्‍लि‍म भाइयों की जान गई थी और दर्जनों मुस्‍लि‍म भाइयों को अपनी रोजी रोटी से हाथ धोना पड़ा था।

इस रैली का रि‍जल्‍ट देखें (मतदान के दि‍न की प्‍वाइंट्स से बातचीत पर आधारि‍त)
1- मुस्‍लि‍मों ने खुलकर सांप्रदायि‍कता के वि‍रोध में मतदान कि‍या।
2- हिंदुओं ने खुलकर सांप्रदायि‍कता के पक्ष में मतदान कि‍या।
3- गंगा जमुनी तहजीब को मानने वालों ने भी खुलकर सांप्रदायि‍कता के वि‍रोध में मतदान कि‍या।

अब एक बार फि‍र से फैजाबाद की फि‍जां में जहर घुल चुका है जो सिर्फ और सिर्फ जीआईसी के मैदान में हिंदुत्‍व की हुंकार भरने से हुआ। आने वाले दि‍न वाकई मुश्‍कि‍ल भरे हैं, फि‍र भी, मुझे अपने शहर की गंगा जमुनी तहजीब पर भरोसा तो है, पर इस भरोसे में मोदीवादी हिंदुत्‍व के वीर्यवान आताताई दीमक लगाने की पुरजोर कोशि‍श कर रहे हैं।

आज मोदी बनारस के बेनि‍याबाग में सभा न होने देने को लेकर सांप्रदायि‍कता का जो नंगा नाच बनारस में कर रहे हैं, गनीमत है कि वो लाख कोशि‍श करने के बाद भी फैजाबाद में न हो पाया। पर ये गनीमत कब तक रहेगी, कुछ नहीं कहा जा सकता। बनारस में तो दंगा कराने की पूरी कोशि‍शें चल रही हैं।