Thursday, March 1, 2012

साहस -2


कोई तीस साल पहले बसंत के दिनों में जब अपूर्वा का जन्म हुआ तो घर में खिचड़ी बनी थी। कठोर सर्दी के दिन खत्म हो रहे थे और हवा में तैरता गुलाबीपन अपूर्वा की मां के गालों से झलक रहा था। जन्म देने के बाद पीले पड़े चेहरे के साथ जब अपूर्वा की मां ने उसे देखा तो अनजाने में ही अपूर्वा नाम निकल गया। बस जन्म के दो घंटे बाद ही नाम अपूर्वा पड़ गया जो सात साल बाद से ही अपूर्वा को सख्त नापसंद आने लगा। उसने कई बार अपनी मां से पूछा भी कि मेरा नाम इतना कठिन यों रखा कि लोग बुलाने में भी झिझकें? कोई आसान सा नाम नहीं मिल पा रहा था? अब उसकी पत्रकार मां को आसान नाम सूझा नहीं और न ही अपूर्वा के इस आसान से सवाल का कोई जवाब। तीस सालों से एक नाम ढो रही अपूर्वा की जिंदगी फिसलती चली गई। हां, दो बार संभालने की कोशिश तो की, पर संभली नहीं। एक बार बीस साल की उम्र में तो एक बार छब्बीस साल की उम्र में। लय क्या होती है, ये गाने गाकर भी अपूर्वा नहीं जान पाई। कभी कभी अपूर्वा को लगता है कि उसे शराब पीनी चाहिए, साथ में सिगरेट भी...
आज खाना क्या बनाना है? काम वाली बाई ने पूछा।
कुछ भी बना दो..अच्छा ऐसा करो कि आलू मटर की सब्जी और ज्यादा सा चावल ही बना दो। सजी में टमाटर जरूर डाल देना। थोडा सा खांसते हुए अपूर्वा ने काम वाली बाई को बताया। एक बार फिर से फेसबुक पर अपना स्टेटस चेक करने में लग गई। कोई कमेंट नहीं। शुक्र है। आज किसी ने उसे नहीं देखा। कितनी अजीब चीज होती है ये कि हम चाहते हैं कि सब हमें देखें लेकिन कोई हमें देख न ले। कहीं से छू न ले। उस दिन जब आकाश ने उसे छुआ था...
छह साल पहले दतर में काम करते हुए एक दिन आकाश ने अचानक उससे पूछ लिया कि उसका नाम अपूर्वा क्यो? बस, यहीं से अपूर्वा को लगने लगा कि शायद आकाश उसे इस सवाल का जवाब दे सके कि उसका नाम अपूर्वा क्यो है। वो न चाहते हुए उसके पास जाने लगी। उससे बातें करने लगी। बातें बढ़ीं तो घर तक पहुंच गईं। अपूर्वा के अकेले कमरे में एक आकाश सजने लगा। तारे टिमटिमाए तो पेट में बवाल मच गया। अपूर्वा ने ये बात आकाश को बताई। आकाश ने उसे दो हजार रुपये दिए और प्यार से उसके माथे पर आई लटें उलझाते हुए बताने लगा कि उसे चंडीगढ़ में बीस हजार ज्यादा तन्ख्वाह पर नौकरी मिल रही है। क्या करे? ये सही वक्त नहीं है। आखिरकार अपूर्वा डाक्टर के पास गई और दो दिन काम वाली बाई से खिचड़ी और सूप बनवाकर पिया। आकाश चला गया। तारे टिमटिमाना बंद हो गए। स्याह काली रातें अल्प्राजोलम के सहारे गुजरने लगीं। ये दवाइयां भी कितनी अजीब चीज होती हैं। हमें जरूरत पर मिल जाती हैं लेकिन खत्म कर देती हैं।
प्वाइंट फ़ाइव की तीन गोल अल्प्रॉक्स ली और सोचने लगी। आखिर मुझे क्यो आकाश से प्यार हुआ? नहीं नहीं....ये प्यार नहीं था। ये तो जरूरत थी, प्यार होने जैसी किसी अनुभूति की। उस वक्त मेरी देह जल रही थी। मुझे छुअन की असीम इच्छा थी। ये मायने नहीं रखता था कि कौन छू रहा है, पर ये भी देखना होता था कि कम से कम वो गोरा हो या फ़िर स्मार्ट हो, या फ़िर किसी अच्छे खान्दान का दिखता हो। तुम सोचना बंद यों नहीं कर देती हो... उस दिन आकाश ने कहा था। मुझे लगा कि वो सही कह रहा है। सारी समस्याएं यहीं से पैदा होती हैं। सोच से...विचारों से। अगर हम सोचना बंद कर दें तो एक झटके में सारी समस्याओं से बाहर आ जाएंगे। या यों सोचना कि समस्याएं खत्म हुई हैं या नहीं। समस्याओं को छोड़ना ज्यादा इपॉर्टेंट है या उन्हें सॉल्व करना?