Saturday, June 16, 2007

कुछ देर आज़ादी

श्रुति मिश्र
अभी परसों ही इलाहाबाद से आई हूँ। मेरे भांजे का जन्मदिन था वहाँ। चिलचिलाती गरमी मे हम (यानी मैं और मेरे ये) किसी तरह इलाहाबाद पंहुचे तो सारे भाई बहनों को देख जीं जुडा गया। इनकी नौकरी के कारण समय की कमी थी , सो बहनों से बतियाने का कोई भी मौका मैं छोड़ना नही चाहती थी। यहाँ तक कि अगर एक गुसलखाने मे होती तो दूसरी उससे गुसलखाने के दरवाज़े पर खडी होकर बतियाये जा रही थी। शाम को जन्मदिन मनाया जाने वाला था। भइया बाहर खडे होकर भुन भुना रहे थे कि ये लोग तो बहुत टाइम् वेस्ट करती हैं। पता नही का इत्ती देर से गिटिर पिटिर किये जा रही हैं।
अब ये क्या बात हुई ? इत्ते दिन बाद मिले हैं तो क्या बतियायें भी ना ? एक तो वैसे ही टाइम् कम और उसपे भी कईयों लोगों की चुगली तो छूटी ही जा रही थी। जल्दी जल्दी मे कब शाम हो गयी , पता ही नही चला। नहाने धोने के बाद अब बारी थी सबके तैयार होने की। सो हम तीनो बहने एक कमरे मे आकर तैयार होने लगे। पहले तो दौर चला "तुम क्या पहनोगी " का और सबमें अपनी अपनी साड़ियों गहनों को दिखने की होड़ लग गई ।
"हाय दीदी ! तुम्हारा बुन्दा तो बड़ा सुन्दर है। " "अरे तेरी साडी का पल्लू तो बड़ा अच्छा है रे ! कहॉ से ली ? "
मेरी मितु दी की नज़र बड़ी खराब है। वो कैसे ? बचपन से आज तक मुझे किसी ने सुन्दर नही कहा सिंवाय उनके। इसीलिये उनकी नज़र मे नुक्स है।
खैर, देखने दिखाने के बारी आई उनको पहनने की । पहन वहन के तैयार हुए तो मुझसे बेध्यानी मे बिंदी गिर गई या मैंने लगाई नही , बड़ी दीदी ने टोक दिया, "तू तो बिना बिंदी बड़ी अच्छी दिखती है। " मैं बोली, " इनका (मेरे ये) भी यही ख़याल है। ये कम्युनिस्ट हैं , कहते हैं कि जो मरजी वो पहनो , इनके लिए तो इंदी -बिंदी , अंगल मंगल सूत्र का कुछ मतलब ही नही। " दीदी की आंखें कटोरा। बोलीं , "सच्ची !! ये कम्युनिस्ट ऐसे होते हैं ? वैसे तो हमे भी ये बिंदी टिकुली लगना बड़ा खराब लगता है, लेकिन इन्हें पसंद है तो पहनते हैं। अच्छा चल एक काम करते हैं, आज कम्युनिस्ट ही क्यों ना बन जाया जाय। कुछ देर तो आज़ादी मिलेगी। " यह कहकर दीदी ने अपनी बिंदी भी उतार दी। लेकिन जब उनकी सास ने टोका कि का रे , बिंदी काहे नाही पहनी है , तो दीदी चुपचाप अन्दर गयी और बिंदी पहन ली।

Thursday, June 14, 2007

नारद , मोदी जहर और तानाशाही

प्रदीप सिंह
भाषा के पहरेदार एवम नैतिकता के दरोगा जिस (शब्द) को लेकर भाषा के संयम की दुहाई दे रहे हैं वे शायद यह भूल रहे हैं कि सिर्फ संयमित भाषा का प्रयोग ही सब कुछ नही है , संयमित भाषा के साथ साथ संयमित विचार एवम राजनैतिक दर्शन भी होना चाहिऐ। राहुल के द्वारा प्रयोग किये गए शब्दों की भर्त्सना करने के पहले शब्दों की पवित्रता की दुहाई देने वाले यह क्यो भूल जाते हैं कि इसका संदर्भ क्या था ? असगर वजाहत की कहानी "शाह आलम का कैम्प" किसी साहित्यकार के मन की कल्पना या चंचल मन की उड़ान भर नही है। यह गुजरात मे हुए नरसंहार के बाद अपने ही देश मे शरणार्थी शिविर मे रह रहे मुस्लिमों की करुण दास्तान है , जो शत प्रतिशत तथ्यों पर आधारित है । उस नरसंहार के बाद गुजरात का मुसलमान अपने घरों को छोड़कर शरणार्थी शिविर मे रहने को विवश कर दिया गया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी उस राहत ? शिविर मे जाने की हिम्मत नही जुटा पाये। और वह प्रधानमंत्री जो शायद सारे देशवासियों का प्रधानमंत्री अपने को नही समझता था , इस नरसंहार के आरोपी मुख्यमंत्री को राजधर्म का पालन करने की नसीहत देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लिया। गुजरात मे राज्य प्रायोजित नरसंहार हिंदुस्तान के दामन का वह बदनुमा दाग है जिसे भुलाना या मिटाना आने वाली पीढ़ियों के साथ अन्याय है । वैसे गुजरात की मोदी सरकार ने वली दक्कनी (उर्दू के प्रसिद्ध शायर ) की मजार से लेकर आम मुसलमानो की झोपड़ी तक मिटने मे कोई कोर कसर बाक़ी नही रखा। अब आप लोग साहित्य की तमाम विधाओं जिसमे उस प्रायोजित नरसंहार का उल्लेख है , उसको भी मिटाना चाहते हैं। असगर वजाहत के तथ्यपरक लेखन पर वैचारिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर सतही टिप्पणी करते हैं , यह आपकी साहित्य के प्रति समझ ,अनुराग और आपके वैचारिक स्तर को बखूबी दर्शाता है ? और हर क्षण मर्यादा और संयम की बात करते हैं। भाषा का संयम कोई अमूर्त धारणा नही है , यह सामाजिक और आर्थिक अंतर्संबंधों से ही तय होती है। भाषा का संयम ही सब कुछ नही है , संयम और पवित्रता तो हर क्षेत्र मे जरूरी होता है। वैसे आप लोग जिस विचार एवं राजनैतिक दर्शन को मानने वाले लगते हैं , उसमे किसी को भी देशद्रोही , म्लेच्छ , संस्कारहीन और संयमहीन कह देना छोटी बात है आपका यह विचार भाषा, जीवन और राजनीति पर भी लागू होती है। गुजरात जो आपके सांस्कृतिक और राजनैतिक आन्दोलन की प्रयोगशाला है , उसमे न सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह है बल्कि मोदी के कुकर्मों का विरोध करने वाले के लिए भी क्या कोई जगह बची है ? भले ही वह हिंदुत्व ब्रिगेड का संभावनाशील कार्यकर्त्ता हो । नारद पर इससे पहले भी (संयमित) भाषा मे एक धर्म और विचार को मानने वालों के खिलाफ जो कुछ लिखा गया , क्या उसकी अनदेखी नही की गई ? यह कहॉ का संयम है ? भावावेश मे कहे गए कुछ शब्दों पर (जिसका तार्किक आधार एवं कारण मौजूद था ) आसमान सर पर उठा लेने वाले उस समय कहॉ थे ? क्या संयमित भाषा मे किसी को आतंकवादी , देशद्रोही या तरह तरह की उपमाओं से नवाजा जाना गाली नही है ? तो फिर क्यों नही ऐसे शब्द के साथ साथ ऐसे विचार प्रस्तुत करने वालों के खिलाफ कार्रवाही की गई ? क्या इसमे भेद भाव का आभास नही होता है ? क्या किसी को ऎसी सरकार के खिलाफ लिखने या बोलने का अधिकार नही है जो अपने ही जनता के ख़ून मे नहाई हो ? क्या इक्कीसवीं सदी मे इस बात पर बहस नही होनी चाहिऐ कि कोई जाति या धर्म आतंकवादी ना होता है और ना ही पैदा करता है। आतंकवादी हमारी सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था पैदा करती है , पालती पोसती है और अपने हित मे उसका उपयोग करती है। यह अलग बात है कि जिन कभी बोतल से निकल भागता है तब उसे पकड़ने के लिए बेगुनाहों का ख़ून करना और उसका राजनैतिक दर्शन तैयार करना मोदी (मानसिकता )जैसे लोगों का नारा हो जाता है । असगर वजाहत की कहानी को ब्लोग पर प्रकाशित करने का मकसद सिर्फ उसी राजनैतिक दर्शन पर बहस कराने का था जिस दर्शन के कारण गुजरात की हज़ारों जिदगियों को कहानी बनना पड़ा। क्या उस कहानी पर ऎसी संवेदनहीन टिप्पणी और उसके बाद मर्यादा और संयम पर बहस नारद की प्रबुद्ध सलाहकार समिति को शोभा देती है ? क्या इन सब चीजों पर सार्थक बहस की जरूरत नही है ? लेकिन आप लोग हर बहस को विवाद मे बदल देने के आदी हो गए हैं। आप तो सत्ता की अमानवीयता का प्रतिरोध करने वाली हर ताकत के खिलाफ जुगलबंदी करते नज़र आ रहे हैं। कही कही आप भी हर समस्या का हल गुजराती मॉडल पर करना चाहते हैं आपके निर्णय से यह लग रह है कि आप ऎसी बहसों को विवाद मे बदल देने के लिए ही बैठे हैं। किसी भी अपराधी को उसके अवैधानिक कार्यों या अपराध पूर्ण कृत्यों के लिए अभियुक्त को सजा देने से पहले बचाव का पूरा मौका दिया जाता है। यदि हम यह भी मान लें कि संदर्भ चाहे जो रहा हो , टिप्पणी चाहे जो रही हो , उसपर टिप्पणी की भाषा गलत थी जो नारद के मर्यादा के अनुकूल नही थी तो क्या आपने बजार को नारद से हटाने के पहले राहुल को अपने बचाव पक्ष को प्रस्तुत करने का मौका दिया ? यदि नही तो यह सीधे सीधे आपकी तानाशाही की मोदी मानसिकता को दर्शाती है और आप किसी व्यक्ति या ब्लॉग के बारे मे कोई भी धारणा बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। रही बात नारद की तो यह तो आपके सलाहकार समिति की मरजी पर निर्भर है। किसी भी तथ्यपरक लेखन , तार्किक बहस या जनपक्षीय लेखन पर ऎसी टिप्पणी करके उसके उपयोगिता को कम नही किया जा सकता। भावनात्मक उत्तेजना मे कहे गए कुछ शब्दों पर इतना बवाल और धमाल पहली बार देखा गया है। कुछ शब्दों से इतना ऐतराज़ और परहेज करने वालों से हमारा विनम्र निवेदन है कि समाज मे नफरत फ़ैलाने वाले और दंगो की आग मे झोंकने वालो से भी इतनी ही नफरत करें।

Wednesday, June 13, 2007

अपनी बात

राहुल
पहले तो मैं सोचा था कि हरी पाठक से उलझा रहू या फिर अयोध्या मे घूमू टहलूं । दोस्तो के साथ मिलकर एक ऐसा बजार बनाऊ ,जहाँ हर कोई आ जा सके। चकाचक चांदनी चौक की तरह। तीखी चाट , ठंडे गुपचुप ! सबकुछ
लज्जत दार ! कुल मिलाकर मैं इसमे इतना ज्यादा रम गया था खुद की ही तरह ब्लोग के होने और न होने पर भी सोचने लगा था। लेकिन प्रतिरोध नाम के नए ब्लोग पर बेंगानी बंधुओ की टिपण्णी पढ़कर मैं इतना ज्यादा आवेशित हो गया कि उस आवेश में मैंने कुछ अपशब्द इस्तेमाल कर दिए। जाहिर है वो सब कुछ भावावेश मे ही था। बजार पर अवैध अतिक्रमण की वह विवादित पोस्ट , जिसकी भाषा से हिंदी चिठ्ठा जगत के कई चिट्ठाकार काफी दुःखी हो गए हैं और मेरे विचार से ऐसी भाषा से उनका दुःखी होना स्वाभाविक भी है । ऐसे भाषा से कोई भी दुःखी हो जाएगा। लेकिन मेरी उस पोस्ट से मेरा किसी को व्यक्तिगत रुप से हर्ट करने का ना तो कोई कारण है और ना ही मेरी कोई मंशा। इस लिए मुझे इसका हार्दिक खेद है और मैं उन शब्दों को वापस ले रहा हूँ। मेरा विनम्र निवेदन है कि मेरी उस पोस्ट मे कही बातों को प्रतीकात्मक रुप से देखा जाय ना कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए जान कर .............. पूरा आलेख पढने के लिए कृपया बजार पर अवैध अतिक्रमण पर ही जाएँ। यहाँ चटका लगाएँ ..

Tuesday, June 5, 2007

महानगर का चूल्हा

संदीप कुमार


जिस गांव की मिट्टी ने

पाला-पोसा

पढ़ाया-लिखाया

वहां के लिए नाकाबिल निकला

इस अनजान महानगर ने

दो टके की नौकरी क्या दी

सारा दिन खून जलाना पड़ता है

तब जाकर चूल्हा जल पाता है

दो जून की रोटी

नसीब हो पाती है।

Monday, June 4, 2007

ब्लॉग - ज्ञान की दुनिया का एक टापू ?

प्रदीप सिंह
प्रदीप जी अक्सर ब्लोग वगैरह पढ़ते रहते हैं , कभी कभी टिपिया भी देते हैंनारद पर भी जाते रहतेहैंकुल मिलाकर ब्लोग्लैंड पर इनकी उपस्थिति दर्ज़ होती रहती हैअभी यु ही बैठ बैठे मैंने इनसे पूछा कि ब्लोग्गिंग की दुनिया आपको कैसी लगती है? उन्होने जो जवाब दिया , वह दे रहा हूँ

एक पक्षी होता है , उसकी आदत होती है कि जब वो सोता है तो उस समय अपनी दोनो टाँगे ऊपर करके ही सोता हैउसे हमेशा ये डर लगा रहता है कि अभी आसमान गिर पड़ेगा तो वह अपनी टांगो से उसे थाम लेगाऔर उसके सोते समय आयी उस विपदा से अपने को बचा लेगाऔर वो सृष्टि का एकमात्र जीवित पक्षी होगाइस बात को आप भी बखूबी जानते हैं कि आसमान तो नही गिरेगा , फिर भी उसकी सूझ बूझ की दाद देनी पडेगीविचारों एवम सामाजिक दायित्व के क्षेत्र में यही भ्रम हमारे ब्लोग के क्रांतिकारी साथी भी पाल लिए हैंऐसे लोगों का ये मानना है , तकनिकी विकास के इस आधुनिक रुप से वो वैचारिक क्रान्ति और सामाजिक बदलाव ला देंगेजिस काम को ग्रास रूट लेवल पर काम करते हुए सैकड़ों लोग नही कर पाए , वे ब्लोग के माध्यम से यह बदलाव ला देंगेवह चीज़ जिसकी पंहुच सिर्फ मेट्रो पोलिटन शहरों के कुछ अत्याधुनिक पत्रकारों तक हैक्या आपने ये सोच कि ब्लोग की पहुच कितने और किन लोगो तक है ? वैसे तो किसी भी क्षेत्र या माध्यम मे काम करते हुए इमानदारी और समाज के प्रति अपने कर्तव्य को नही भूलना चाहिऐ , इस आधार पर ब्लोग की दुनिया मे भी इमानदारी और सामाजिक सरोकारों से जुडे हुए मुद्दे उठाने वाले तारीफ के काबिल हैं किन्तु इसी को सामाजिक बदलाव का सबसे शसक्त माध्यम मानने वालों से मैं घोर असहमति दर्ज़ करता हूँसाहित्य , कला , विज्ञानं एवम तकनीक की समस्त विधाये और अविष्कार मानव जीवन के बेहतरी के लिए हैसबका अन्तिम उद्देश्य मानव जीवन को कल्याणकारी बनाना है। "कला कला के लिए" या "साहित्य स्वान्तः सुखाय के लिए " की बहस सैकडो वर्ष पुरानी हो गयीलंबे वाद विवाद प्रतिवाद एवम संवाद के बाद जो निष्कर्ष निकला , वह यही है सामाजिक हित ही सर्वोपरि हैएक लेख लिखने के बाद अपने दोस्तो से कमेन्ट भेजने का आग्रह , कमेन्ट पाने के चक्कर मे ढ़ेर सारे छोटे छोटे कमेन्ट दूसरे ब्लोगों पर करना जिनकी कोई सार्थकता नही है ,कहॉ की इमानदारी है ? यह लेखक और पाठक दोनो की बेईमानी हैसार्थक बहस या सार्थक लेखन के लिए कमेन्ट को प्रायोजित नही करना पड़तायानी कि लाल गुदङी मे नही छिपताहाँथ पाँव बहार निकल ही आते हैंसार्थक बहस, जायज माँग और उत्कृष्ट लेखन लाख दबाने के बावजूद ऊपर ही जाता हैलेखन में प्रगतिशील , धर्म निरपेक्ष और आधुनिक सोच से लैस लोग क्या जीवन में भी उतने ही प्रतिबद्ध हैं ? मुझे शक हैइस शक का आधार हो सकता है पूरी तरह सत्य हो लेकिन कुछ पहलू तो एकदम साफ हैंकुछ लोग अपने को वामपंथी और दक्षिण पंथी बुद्धिजीवी स्थापित करने का माध्यम ब्लोग को बना लिया हैअच्छा तो ये होता कि ब्लोग के माध्यम से समाज और देश में फैली हुई तमाम बुराइयों अथवा ऐसे लोगों की आवाज़ को जो मुख्य धारा की मीडिया में जगह नही पाती , उसपर बहस किया जाता और सिर्फ बहस ही नही , सार्थक पहल और हल की तरफ बढ़ा जाताधर्म निरपेक्षता , हिंदुत्व , समाजवाद , हिंदू मुस्लिम विरोध , अल्पसंख्यक वाद , बहुसंख्यक वाद पर मुख्य धारा की मिडिया और राजनितिक पार्टियों के स्थाई जुमले हैंजिसे शायद ही कोई राजनितिक पार्टी हल करना चाहती हैब्लोग का उपयोग करने वाले निश्चित ही शिक्षित ,सम्पन्न और समझदार हैंक्या वे इसके आगे की नही सोच सकते ? कुछ नया करने का