Wednesday, June 13, 2007

अपनी बात

राहुल
पहले तो मैं सोचा था कि हरी पाठक से उलझा रहू या फिर अयोध्या मे घूमू टहलूं । दोस्तो के साथ मिलकर एक ऐसा बजार बनाऊ ,जहाँ हर कोई आ जा सके। चकाचक चांदनी चौक की तरह। तीखी चाट , ठंडे गुपचुप ! सबकुछ
लज्जत दार ! कुल मिलाकर मैं इसमे इतना ज्यादा रम गया था खुद की ही तरह ब्लोग के होने और न होने पर भी सोचने लगा था। लेकिन प्रतिरोध नाम के नए ब्लोग पर बेंगानी बंधुओ की टिपण्णी पढ़कर मैं इतना ज्यादा आवेशित हो गया कि उस आवेश में मैंने कुछ अपशब्द इस्तेमाल कर दिए। जाहिर है वो सब कुछ भावावेश मे ही था। बजार पर अवैध अतिक्रमण की वह विवादित पोस्ट , जिसकी भाषा से हिंदी चिठ्ठा जगत के कई चिट्ठाकार काफी दुःखी हो गए हैं और मेरे विचार से ऐसी भाषा से उनका दुःखी होना स्वाभाविक भी है । ऐसे भाषा से कोई भी दुःखी हो जाएगा। लेकिन मेरी उस पोस्ट से मेरा किसी को व्यक्तिगत रुप से हर्ट करने का ना तो कोई कारण है और ना ही मेरी कोई मंशा। इस लिए मुझे इसका हार्दिक खेद है और मैं उन शब्दों को वापस ले रहा हूँ। मेरा विनम्र निवेदन है कि मेरी उस पोस्ट मे कही बातों को प्रतीकात्मक रुप से देखा जाय ना कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए जान कर .............. पूरा आलेख पढने के लिए कृपया बजार पर अवैध अतिक्रमण पर ही जाएँ। यहाँ चटका लगाएँ ..

4 comments:

Neelima said...

भई मैं इस सारे मामले को ज्यादा घ्यान से नहीं देख पा रही हूं पर इतना जरूर कहना चाहूंगी कि जब हम खुद पर कम विश्वास रखते हैं तभी असमाजीकृत भाषा का इस्तेमाल करते हैं औए इसी विशवास की कमी के कारण हम फिर माफी उअर सफाई पेश करते फिरते हैं . वैसे आप अकेले नहीं हैं इस केटेगिरी में ;)

Neelima said...

भई मैं इस सारे मामले को ज्यादा घ्यान से नहीं देख पा रही हूं पर इतना जरूर कहना चाहूंगी कि जब हम खुद पर कम विश्वास रखते हैं तभी असमाजीकृत भाषा का इस्तेमाल करते हैं और् इसी विशवास की कमी के कारण हम फिर माफी सफाई पेश करते फिरते हैं . वैसे आप अकेले नहीं हैं इस केटेगिरी में ;)

Neelima said...

भई मैं इस सारे मामले को ज्यादा घ्यान से नहीं देख पा रही हूं पर इतना जरूर कहना चाहूंगी कि जब हम खुद पर कम विश्वास रखते हैं तभी असमाजीकृत भाषा का इस्तेमाल करते हैं और् इसी विशवास की कमी के कारण हम फिर माफी सफाई पेश करते फिरते हैं . वैसे आप अकेले नहीं हैं इस केटेगिरी में ;)

Divine India said...

निलिमा ने शायद सही कहा है…
भाषा में रोश हो सकता है पर भाषा का प्रयोग सार्थक नहीं होगा तो वह क्षदम भाषा ही मात्र बन कर रह जाएगी…।