Wednesday, February 28, 2018

اصلی جادو

کچھ سال پہلے ایودھیا مے ایک شاید کبھی نہ بننے والی فلم کے لئے آڈیشن لے رہا تھا .کلا کی گرمی مے ابلتے لوگو کی کتار
لگی تھی ، پر ہم ٹھنڈے ہوتے جا رہے تھے.بات یہ تھی کی گانے والے سارے کے سارے لوگ کسی نہ کسی کی نکل کر رہے تھے.اپنی نکلی آواز سے وہ ایک مشهور صوفی سنگر کے اسپس پہچنے کی ناکام کوشش کر رہے تھے.یہ نقل ہمارے خواب پر تیزاب ڈال رہی تھی.ہمنے تین چار روز تک آڈیشن لیا .مگر مجال کی ایک بھی سچچی آواز ہم تک پہچی ہو.اس آڈیشن مے کم سے کم دو درجن لوگوں نے گیا مگر ایک بھی آواز ہمرے کانو تک نہ پہچی .

تنگ آکر ہمنے کیمرے کے لینس پر دھککن لگا دیا.ہمی کوئی امید نہیں تھی کی نکل کا جو دھککن گویا بننے کے نے خواہشمندو نے اپنی آواز پر لگا رکھا ہے.اسمے ہمی کوئی مدد مل پیگی.پھر کی دنو تک ان گویوں کا فون آتا رہا.می سمجھتا رہا کی نکل سے کچھ نہیں ہونے والا.ابھی ابھی کچھ دن پہلے فیض احمد فیض کی گزل "دونو جہاں تیری موحبّت مے ہار کے"کے لئے پھر آواز دھندھنی شرو کی.اسمے دو رہے نہیں کی فیض کو چاہنے والے جتنے اپنے معلق مے ہیں اتنے دوسروں ملقوں مے نہیں.لیکن بات جب آواز کی ای تو می اپنے ملک سے ہار گیا.کوئی مہدی حسن بنتا ہے تو کوئی گلام الی .ایک عہدہ کو چھوڈ دن تو اس معاملے مے بھی یہاں کے ناکلچیوں نے ناک کٹوا رکھی ہے -

ہارکر می سیدھا پاکستان پہچا جہاں ایک بینڈ اندھیرے کمرے مے فیض کو اسی حد تک گنتی ہی آواز ملی.جسکے اسپس کوئی موہبّت گلزار ہوتی دیکھتی.آواز شاید سندھ کی تھی اور لہجہ حمد کا تھا.اس آواز کی موحبّت مے می کچھ یوں مبتلا ہوا کی اب تک اسے خود سے چپکے ہوئے ہوں.نہ صرف خود سے بلکی اپنے یہاں کی گلاب باڈی سے بھی اسے چپکا دیا ہے.بگیر کی ساز کے آتی اس آواز کے اپر مہینے ایودھیا فیزآباد کی تصویریں چسپ کے اور وایا انٹرنیٹ اسے واپس پاکستان پہنچا دیا.ایبتآباد کی لبنا اور کراچی کی نور بیگم ان باکس مے اتر این .انکا چپکایا سرقه لال رنگ کا دل میرے ان باکس مے ہمیشہ محفظ رہیگا .فیصلباد مے ان مولوی سحاب کی دوا بھی جو ہماری گلاب باڈی دیکھ برباس نکل پڑی ہوگی "الله تال آپکو ہر نظربد سے محفظ رکھے "یہ اصل آواز کا جادو تھا جو نکل کرنے والے ناکالچی نہیں سمجھیںگے .

Translation- Hafeez Kidwai
Published in Navbharat Times- India

Thursday, February 22, 2018

जो है, वह था हो गया है

समझता हूं कि सब समझते हो नीला बाबू। देखता हूं कि सब देखते हो नीला बाबू। पाता हूं कि सबकुछ तो पा जाते हो नीला बाबू। फिर क्या है जो रुके हो? यूं ठिठकना ठीक नहीं नीला बाबू। रेल जा रही है। जाओ, बैठ जाओ। चलने की स्थिर हिलन में शायद चल सको। कुछ कदम। शायद तय कर सको वह फासले, जो बाकी रह गए हैं। जो हैं, जो नहीं हैं। फासले हैं नीला बाबू?

रंगरेज के रंग उबल रहे हैं। सुबह पत्थर के कोयले भरे थे। आंच तेज है और पत्थर लाल। लाल तो रंगरेज का चेहरा भी है, आंख भी। आग आंखों में है, आंच भी। उबलते रंगों की भाप महज कपड़ा नहीं रंगती नीला बाबू, मन भी रंगती है। मन के कपड़े पहनते हो? मन में कैसे दिखते हो नीला बाबू? मन का रंग कैसा है? रंग है। रंग है ना नीला बाबू?

जानता हूं बुंदे नहीं दोगे। सुख सिर्फ गांव के चौधरी का है। ताला भी चौधरी का है। चाबी भी उसी की है। तुम क्या हो नीला बाबू? ताला? चाबी? बुंदे? सुख? या महज एक गांठ?

ये अधूरा ही रहेगा नीला बाबू। ये गांठ नहीं खुलेगी। ये सुख नहीं मिलेगा। ये कपड़ा नहीं रंगेगा। ये रेल रुक गई है। फासले बढ़ गए हैं। गांठ कड़ी हो गई है। जो है, वह था हो गया है। जो था, वह कभी था ही नहीं। जाने दो नीला बाबू। तुमसे न हो पाएगा। तुमसे ये गांठ न खुलेगी नीला बाबू। बड़ी जुगत लगानी होती है खोलने के लिए।
चाचाजी की दोस्तियां















मिलेगा तो देखेंगे: 24

Wednesday, February 21, 2018

सुख है!

जाते-जाते जाता है दुख। आते-आते आता है सुख। तुम्हारा आना, सुख का आना है। तुम्हारा जाना, सुख का जाना है। जाते-जाते जो जाता है, वह तुम्हारे जाने जितनी जल्दी नहीं जाता। सुख की बात समझते हो ना नीला बाबू? सुखी कैसे दिखते हो नीला बाबू? हमको भी सिखाओ सुखी दिखना। हमने भी सीखना है सुख! क्या कहा? दूर से सिखाओगे? कितनी दूर से?

हिंदी में कोई सुख नहीं है नीला बाबू। बिंदी में भी कोई सुख नहीं है। तुम्हें मिला? तो फिर धोती में बुंदे बांधकर क्यों घूम रहे हो? पीठ पर चिपकाकर क्यों घूम रहे हो? ऐसे क्यों दिखाते हो जैसे धोती में सुख बांधकर घूम रहे हो? क्यों कहते हो कि सुख पीठ पर चिपकता है? अच्छा बताओ, धोती में बंधा सुख कब निकालते हो? और पीठ से? जब नहीं निकालते हो तो क्या निकलता रहता है नीला बाबू? जो है? है क्या? क्या है नीला बाबू? सुख है? कहां है? धोती में बंधा है? पीठ पर चिपका है? सुख पर गांठ क्यों लगा रखी है नीला बाबू? गांठ कब खोलोगे सुख की? या यूं ही बोलोगे- सुख है!

हंसते हो? हंसो। हंसने में सुख है। हंसने में सुख है? वाकई है? हंसना सुखी होना है? नहीं नीला बाबू, नहीं। हंसना सुखी होना नहीं। दुख एक चुटकुला है नीला बाबू, कब समझोगे? हंसी है। किससे लिपटी है हंसी? मेरी तरह छत देखकर हंसते हो? दीवार देखकर? जमीन देखकर? सड़क, गली या बिजली का खंबा देखकर? नहीं नीला बाबू, दिमाग नहीं चला है मेरा। दुख चल रहा है। दुख में हंसता हूं नीला बाबू। दुख पर हंसता हूं। हंसता तो हूं ना नीला बाबू? नहीं?

गांठ में सुख बांधकर मुझे भी चलना है नीला बाबू। पुरानी ख्वाहिश है। जब चाहा, गांठ खोली और कतरा भर सुख सूंघ लिया। सूंघने से सुख तो मिल जाएगा ना नीला बाबू? नहीं? क्यों नहीं? नाक में बसाना है सुख। आंखों में लगाना है सुख। तुम कहोगे तो सिर पर भी पहन लूंगा, गांठ तो खोलो नीला बाबू! या अपने पास ही बांधे रहोगे सुख के बुंदे? मुझे भी तो पहनाओ थोड़ा सा सुख। धान का पुआल दुआरे पड़ा है। बटकर नई रस्सी बनाई है। ढीला होगा तो कसकर बांध लूंगा। दो तो सही! सुख की गांठ खोलो तो सही नीला बाबू!

(परसाई हंसते थे। हंसते थे?)

मिलेगा तो देखेंगे- 23

शब्द शब्द सांस कहो!

दूर कहो
पास कहो
रंग कहो
रास कहो।

गंध कहो
बास कहो
शब्द शब्द
सांस कहो।

नूर कहो
आस कहो
भरी भरी
टास कहो।

सूर कहो
दास कहो
तृप्ति कहो
प्यास कहो।

गीत कोई
आज कहो
मीत मेरे
साथ कहो।

Tuesday, February 20, 2018

समेट लो अपना अपना आलता


याद में कौंधते बियाबानों को भूल जाएं। सांस में आता महुआ बिसरा दें। कान की लौ चुंभलाती गर्म हवाओं को फूंक मारकर उड़ा दें, तो भी बड़ी देर तक सुख का धुंआ धीमे-धीमे निकलता रहता है, बहता रहता है। एक फिल्म है जो चलती रहती है। संगीत है जो बजता रहता है। कागज है, जो उड़ता रहता है। हवा है, जो बहती रहती है। और पैर हैं जो ठहरते रहते हैं। सुख की चौखट किस चौखट है, किस देहरी है, किस दुआरे है, किस किनारे है? है भी या कौंधते बियाबानों में किसी पीपल के पीछे छुपी है जिन्हें पत्तियों के पीछे से चटकती धूप में मैं नहीं देख पाता? दिखता नहीं है, दिखते की उम्मीद भी नहीं। फिर भी कैसी है ये मेड़, जिसपर गिरते-रपटते चला जा रहा हूं? कहां हैं मेरे धान के खेत?
उस दिन तिवारी जी चुनौटी में रखे दो बुंदे दिखा रहे थे। काली माई के थान पर बैठकर पूरे गांव को सुना रहे थे कि दुनिया में अगर कहीं सुख है तो चुनौटी में है और चुनौटी में रखे दो बुंदों में है। मन तो हुआ कि वहीं दोनों बुंदे छीनकर उसकी सुर्ती बना दें, मगर तेवराइन का ख्याल आ गया जो आते जाते गर्म नजरें फेंका करती हैं। ऐसे ही आता है सुख जो नजरों से सहलाकर फिर अपनी चौखट के उस पार जाकर मुंह पर पल्लू लपेट लेता है। दिखता है, छुप जाता है। छुपकर और भी छुप जाता है।
याद से थोड़ा सा काजल निकालूं? एक टिकुली? आलता? पिछली बार आलता लगाया था। आईसीयू की उजली चादरें गुलाबी हो गई थीं। भागी-भागी नर्स आई और बोली- पैरों से तो रंग निकल रहे हैं। ऑक्सीजन मास्क निकालकर बोला- सुख निकल रहा है सखी। देखकर बताओ- पूरा तो निकल गया ना? बोलती है- थोड़ा बाकी है। नाखून बड़े हो गए हैं।
चैत आने वाला है। कहां है तुम्हारी चुनरी? तेवराइन, तुम भी अपनी धोती लाओ। अभी मेरे पैरों में थोड़ा सा सुख लगा हुआ है। पैतानों पर मसलते-मसलते किनारे तो कोरे हो गए, पोरों में अभी भी रंग बचे हैं। लो, रंग लो अपनी चुनरी। भिगो लो अपनी धोती। इससे पहले कि नदी पार करते-करते सब धुल जाए, समेट लो अपना अपना आलता।

मिलेगा तो देखेंगे- 22

Monday, February 19, 2018

ये सारे रंग तुम्हारे हैं

दिखाते कुछ हो, सुनाते कुछ हो?
कहते कुछ हो, बताते कुछ हो?
पता है रंग नजदीक है?
रंग आ रहे हैं।
तुम्हारा सुनाना लाल है। चटक लाल।
बुरांश देखा है ना?
खिला और खिलकर आग लगाता बुरांश।
जानते हो कि पहाड़ों में दो चीजें दूर से दिखती हैं?
श्मशान और बुरांश।
दोनों जंगल में लगी आग होती हैं।
एक गर्म तो एक ठंडी।
तुम सुनाते हो तो हिमशैल टकराते हैं। सबकुछ टूटने लगता है। बिखरने लगता है।
तुम्हारी आंख में जो आवाज है, वह सबकुछ पिघला देती है।
सब बिखरकर बूंद बूंद टपकने लगता है। सारी रात टपकता रहता है। दिन भर बहता रहता है।
और कितना हरा है तुम्हारा बताना!
बताते हो या समेटते हो?
उसी बाग में लेकर जाते, जिसका सपना रोपा था।
दूर तक हरा देखते रहने का सपना।
सपने बड़े हो रहे हैं। सपने हरे हो रहे हैं।
बताते हो या खुद में भरते हो?
इतना भरोगे, सब हरा करोगे तो कहीं...
कहीं सपनों में अमलतास न भर जाए।
और फिर सबकुछ बताकर उसमें बुरांश का गुच्छा क्यूं टांकते हो?
बंद करो अपना सुनाना बताना। कहना दिखाना सी दो।
बाग कटते जा रहे हैं। बुरांश का जूस निकाला जाएगा।
न लाल बचा है, न हरा बच पा रहा है।
पीला धूप खा गई।
मगर रंग तो नजदीक हैं।
रंग तो आ रहे हैं।
दिखाना, सुनाना, कहना, बताना तो खर्च हो गया।
फिर? 
मेरी सुनो।
मेरे पास कुछ रंग बचे हैं।
सूख गए हैं।
छू दो, गीले हो जाएंगे।
लगा लो, तुम्हारे हो जाएंगे।
ये सारे रंग तुम्हारे हैं।
तुम्हारे ही तो हैं।
कुंभ, प्रयाग।

















मिलेगा तो देखेंगे- 21 

Wednesday, February 14, 2018

नतमस्तक मोदक की नाजायज औलादें- 50

प्रश्न: भगत सिंह को कब फांसी हुई?
उत्तर: आजीके दिन हुई रई।
प्रश्न: आजीका कौन सा दिन?
उत्तर: टुडे हुई रही।
प्रश्न: आज के दिन भगत सिंह को फांसी हुई थी?
उत्तर: नहीं तो कब हुई रही?
प्रश्न: 23 मार्च को हुई थी?
उत्तर: तो?
प्रश्न: तो आज के दिन नहीं हुई थी।
उत्तर: तो?
प्रश्न: तो भगत सिंह का शहादत दिवस क्यों मना रहे हैं? 
उत्तर: हमारी मर्जी। महीना भर पहिले मनाएंगे।
प्रश्न: शहादत दिवस बदल देंगे?
उत्तर: अभी देखो क्या क्या बदल देंगे।
प्रश्न: क्या क्या बदल देंगे?
उत्तर: बंदर बदल देंगे।
प्रश्न: अब ये बंदर कहां से आ गया
उत्तर: बंदर है
प्रश्न: कहां है?
उत्तर: शुरू से है।
प्रश्न: शुरू में कहां से है?
उत्तर: हनुमानगढ़ी की सीढ़ी से।
प्रश्न: ओह
उत्तर: दुबारा बोलियो ओह।
प्रश्न: क्यों?
उत्तर: आह बनाके तुमरी गां में डालनी है।
प्रश्न: फालतू बात मत करिए
उत्तर: तुम फालतू बात मत करो
प्रश्न: आपने ही शहादत को बंदर में बदला
उत्तर: बोल तो रहे हैं
प्रश्न: क्या?
उत्तर: सब बदल देंगे।
प्रश्न: कैसे?
उत्तर: डंडा देखे हो?
प्रश्न: हां
उत्तर: खाए हो?
प्रश्न: दो चार बार
उत्तर: बड़े कमीने हो साले
प्रश्न: क्यों?
उत्तर: अब भी नहीं सुधरे।
प्रश्न: आपने डंडा खाया है?
उत्तर: किसकी मां ने दूध पिलाया है?
प्रश्न: खाया है या नहीं?
उत्तर: पिलाया है या नहीं?
प्रश्न: शहादत मतलब डंडा मारना है?
उत्तर: बदला ले रहे हैं।
प्रश्न: भगत सिंह की शहादत का?
उत्तर: हां।
प्रश्न: भगत सिंह क्यों मरे?
उत्तर: सही बात बोल दें कओ तो।
प्रश्न: हां, सही बात ही बोलिए
उत्तर: नाड़े के ढीले थे।
प्रश्न:  मतलब?
उत्तर: किसी पे लट्टू हो गए थे।
प्रश्न: फिर?
उत्तर: उसी में मारे गए।
प्रश्न: तो शहादत?
उत्तर: वो सब कुछ नहीं
प्रश्न: शहादत कुछ नहीं?
उत्तर: हरामी नक्सलियों की साजिश है
प्रश्न: इसीलिए एक महीना पहले मना रहे हैं?
उत्तर: जवानों को नाड़ा बांधना पड़ेगा।
प्रश्न: नहीं तो?
उत्तर: नाड़ा खोल देंगे।
प्रश्न: आप नाड़ा खोलने निकले हैं?
उत्तर: आज सब खोल देंगे।

नाजायज औेलादें: 14 फरवरी 18 
आज से भगत सिंह एक महीना पहले मारे जाएंगे।