Monday, February 19, 2018

ये सारे रंग तुम्हारे हैं

दिखाते कुछ हो, सुनाते कुछ हो?
कहते कुछ हो, बताते कुछ हो?
पता है रंग नजदीक है?
रंग आ रहे हैं।
तुम्हारा सुनाना लाल है। चटक लाल।
बुरांश देखा है ना?
खिला और खिलकर आग लगाता बुरांश।
जानते हो कि पहाड़ों में दो चीजें दूर से दिखती हैं?
श्मशान और बुरांश।
दोनों जंगल में लगी आग होती हैं।
एक गर्म तो एक ठंडी।
तुम सुनाते हो तो हिमशैल टकराते हैं। सबकुछ टूटने लगता है। बिखरने लगता है।
तुम्हारी आंख में जो आवाज है, वह सबकुछ पिघला देती है।
सब बिखरकर बूंद बूंद टपकने लगता है। सारी रात टपकता रहता है। दिन भर बहता रहता है।
और कितना हरा है तुम्हारा बताना!
बताते हो या समेटते हो?
उसी बाग में लेकर जाते, जिसका सपना रोपा था।
दूर तक हरा देखते रहने का सपना।
सपने बड़े हो रहे हैं। सपने हरे हो रहे हैं।
बताते हो या खुद में भरते हो?
इतना भरोगे, सब हरा करोगे तो कहीं...
कहीं सपनों में अमलतास न भर जाए।
और फिर सबकुछ बताकर उसमें बुरांश का गुच्छा क्यूं टांकते हो?
बंद करो अपना सुनाना बताना। कहना दिखाना सी दो।
बाग कटते जा रहे हैं। बुरांश का जूस निकाला जाएगा।
न लाल बचा है, न हरा बच पा रहा है।
पीला धूप खा गई।
मगर रंग तो नजदीक हैं।
रंग तो आ रहे हैं।
दिखाना, सुनाना, कहना, बताना तो खर्च हो गया।
फिर? 
मेरी सुनो।
मेरे पास कुछ रंग बचे हैं।
सूख गए हैं।
छू दो, गीले हो जाएंगे।
लगा लो, तुम्हारे हो जाएंगे।
ये सारे रंग तुम्हारे हैं।
तुम्हारे ही तो हैं।
कुंभ, प्रयाग।

















मिलेगा तो देखेंगे- 21 

No comments: