Saturday, May 21, 2016

पोस्‍टमार्टम ऑफ फ्री सेक्‍स: कल से अब तक -1

इंटरनेट की इस ऐज में मैक्‍सि‍मम लोग फ्री सेक्‍स का मतलब नहीं समझते। असल में गूगल समझाता ही नहीं। गूगल फ्री सेक्‍स कीवर्ड पर 64 करोड़ से भी ज्‍यादा रि‍जल्‍ट शो करता है, आप खोजते थक जाएंगे, सुवि‍धा हुई तो कि‍सी और को भी थका देंगे, सुवि‍धा न हुई तो राह चलती गाय की पीठ या कुत्‍ते का कान सहलाकर अपने तईं कुछ भी कर लेंगे, लेकि‍न आपको इस शब्‍द का अर्थ या परि‍भाषा कम से कम उस दरवाजे से घुसने पर नहीं मि‍लने की, जि‍ससे पूरी दुनि‍या घुसी चली जा रही है- यानि कि गूगल।

गूगल जि‍तने भी रि‍जल्‍ट शो करता है, 90 पर्सेंट से भी ज्‍यादा वो पॉर्न साइट्स के हैं जहां फ्री सेक्‍स का मतलब फ्री स्‍टाइल में सेक्‍स करना होता है। जैसे फ्री स्‍टाइल कुश्‍ती लड़ने वाला पहलवान पैसे कमाता है, वैसे उसमें फ्री सेक्‍स करने वाले पैसे कमाते हैं... गंवाता कौन है, क्‍या गंवा रहा है, कैसे गंवा रहा है... ये सब वो अतिवर्जित सवाल हैं जि‍नके बारे में बात करने पर संस्‍कृति के संघी ठेकेदार लंगोट कसके फ्री सेक्‍स करने के लि‍ए तैयार हैं.. मने फ्री स्‍टाइल रेप। लड़की हुई तो उससे ऐसे कर देंगे, लड़का हुआ तो ऐसे वैसे और पता नहीं कैसे कैसे कर देंगे। सेक्‍स को और सेक्‍स में पुरुष की (जमीनी और हवाई दोनों) हालत को लेकर मेरे मन में बहुत से सामाजि‍क दुख भरे हैं, अच्‍छा नहीं होगा कि वो नि‍कलकर बहें।

खैर गूगल भी क्‍या करे। वो वही दि‍खाएगा जो लोग देखना चाहते हैं, सबसे ज्‍यादा देखते हैं। लोग (मैं भी तू भी) सबसे ज्‍यादा पॉर्न देखते हैं तो गूगल भी वही दि‍खा रहा है। गूगल को क्‍या उसकी जेनरि‍क परि‍भाषा नहीं दि‍खानी चाहि‍ए या गूगल ऐसा क्‍यों नहीं कर रहा, ये ऑनलाइन आंदोलन की वि‍षयवस्‍तु है क्‍योंकि गूगल सेक्‍स से जुड़े गंभीर कीवर्ड्स पर भी रि‍जल्‍ट पॉर्न का ही देता है। ऐसा नहीं होना चाहि‍ए क्‍योंकि सही जानकारी पहुंचाना ही गूगल की गुडवि‍ल है। वैसे इसमें गूगल से ज्‍यादा हम लोगों का ही दोष है कि हमने सेक्‍स को कभी गंभीरली नहीं लि‍या। मने लि‍या तो बहुत ही गंभीरली... लेकि‍न लि‍खकर लोगों को बताने का काम न के बराबर कि‍या है।

हिंदी ब्‍लॉगिंग की दुनि‍या में इसमें सबसे सीरि‍यस काम रामा ने काम कला नाम के ब्‍लॉग में कि‍या है। वैसे सबसे ज्‍यादा काम अंर्तवासना डॉट कॉम वाले कर सकते थे। इस साइट में हर घंटे चाची मामी ताई बहन कामवाली दूधवाली पड़ोसन मकान मालकि‍न के साथ सेक्‍स करने की फैंटेसी करने वाली कहानि‍यां पब्‍लि‍श होती हैं और जमके गूगल सर्च में आती हैं। इन कहानि‍यों को लि‍खने का काम हमारे आइटी उद्योग के वीरों ने अपनी उस मजबूत वस्‍तु पर ले रखा है जो घंटा कहीं से मजबूत नहीं है। खैर कहानि‍यां मजबूती का एक सपना होती हैं और सपना देखना कोई गुनाह नहीं है।

फ्री सेक्‍स का पीएम जारी है...

Saturday, May 14, 2016

ललेखक दर्शन-1


कोई भी लेखक हो सकता है। लेखक होने के लि‍ए बस ल पर ए की मात्रा लगाकर ख़ाक में से बड़े आ का डंडा नि‍काल देना होता है, उसके बाद तो कोई भी लेखक हो सकता है। बल्‍कि वो सभी लोग लेखक हैं जो ल का प्रयोग करना जानते हैं। ल ही है जो लेखक पैदा करता है, खड़ा करता है, चलाता है और ल ही है जो लेखक को छाप देता है। ल की खोज भी करने की जरूरत नहीं बल्‍कि अगर इसके नज़रि‍ए से देखा जाए तो ऐसे ऐसे ढंके छुपे लेखक भी सामने आ जाएंगे जि‍नके बारे में कोई सपने में भी नहीं सोच सकता।

इस तरह से ल खाने वाला, ल देने वाला, ल लेने वाला, ल सोचने वाला, ल पहनने वाला, ल बनाने वाला... सभी लेखक हैं और सभी ल वालों का मूलभूत अधि‍कार है कि वो लेखक ही बने रहें। जो लोग भी लेखक का वि‍रोध करते हैं, असल में उनका वि‍रोध ल से ही रहता है, ख़ाक को तो वो अपने ख्‍़यालों से खासा दूर रखते हैं। लेखक का वि‍रोध ल के खि‍लाफ हो रही साज़ि‍श है। इस साजि‍श को सभी लेखक ल पर रखते हैं।

ये ल का ही कमाल है कि तमाम आलोचनाएं भी लेखक को क्‍या मजाल ल बराबर भी हि‍ला पाई हों। ल से लेखक लि‍ख रहा है, ल से लेखक दि‍ख रहा है और वो ल ही है जि‍ससे लेखक बि‍क भी रहा है। लेखक नहीं होता था तो भी ल होता था, लेखक नहीं भी होगा तो ल होता रहेगा। जो आलोचक ल को नहीं समझ पाए, वही लेखक की आलोचना कर सकते हैं।

जब जब मैं ल पर नज़र डालता हूं, मुझे अपना पूरा शहर लेखक दि‍खने लगता है। मैं चाहता था कि मैं लि‍खूं कि पूरा शहर लेखक लि‍खने लगता है लेकि‍न शहर के डर से मैं दि‍खने की ही बात कर रहा हूं। वैसे भी वो लेखक क्‍या लेखक जो दि‍खे ही न। ठठरइया से लेकर सआदतगंज तक मुझे लेखकों की भीड़ दि‍खाई देती है। और तो और, कचेहरी में जज भी मुझे जि‍स नज़र से देखता है, मुझे उसके लेखक होने में यकीन बढ़ता जाता है।

कभी सोचा है कि दि‍ल्‍ली में जि‍तने लेखक दि‍खते हैं, उतने नोएडा, गाजि‍याबाद या फ़ैज़ाबाद में भी क्‍यों नहीं दि‍खते? दरअसल दि‍ल्‍ली के पास अपने नाम में ही दो-दो ल हैं। हर वो शहर जो अपने नाम में ल लि‍ए होगा, लेखकों से भरपूर होगा, ऐसा मेरा दावा है। ल कि‍तना क्रांति‍कारी है, इसका अंदाजा लगाना कि‍सके लि‍ए मुश्‍कि‍ल है?
(जारी)

Tuesday, May 3, 2016

घन गरजत नहीं घेरत बाटे

जि‍या जबर सन्‍यासी भइया
होइके आवा कासी भइया
घन गरजत नहीं घेरत बाटे
बरसत बाटे उदासी भइया।


राम दुआरे सब औघारे
परबत के हे बासी भइया
चार बूंद तनि एहर पठावा
नगरी पूर बा प्‍यासी भइया।


काम काज सब सून पड़ा बा
धूपौ सत्‍यानासी भइया
कवि‍कुल प्रेमी पांड़े काढ़ैं
अंखि‍यन लोर चुआसी भइया।