Sunday, March 18, 2007

नंदीग्राम नही , हमे तो पैसे से मतलब है ..

मैं ख़ुद ..


हमे नही पता कि नंदीग्राम मे कितने लोग मारे गये . फ़िलहाल जो भी मारे गये , कम से कम वो वापस लौट कर नही आने वाले . हमे ये भी बहस नही करनी कि सरकार ने क्या किया या फिर लाल क्रांति का सपना लेकर सत्ता सुख भोगने वालों ने वहाँ क्या किया . हमे ये भी बहस नही करनी कि क्या यही लाल की लाली है जो अब पूरी तरह से काली है . लेकिन हौले हौले जो हम पता लगा रहे हैं और जो भी माध्यम हमारे सामने हैं उन माध्यमों पर हम कैसे भरोसा करें ? अगर देश कि सरकारी मीडिया कि सुने तो वो कहती है कि सिर्फ़ 6 लोग मारे गये . अब आते हैं निजी मीडिया पर . एन डी टी वी कहता है कि 14 मारे गये और दैनिक जागरण कहता है कि 12 मारे गये , बी बी सी कहता है कि 7 मारे गये वहीं अमर उजाला कहता है कि 11 मारे गये . टाइम्स कहता है कि 11 मारे गये वही हिंदुस्तान टाइम्स कहता है कि 11 मारे गये . सबके पास मरने वालो कि अलग अलग संख्या और सूची है . सब बेच रहे हैं मरने वालों को क्योंकि ... क्योंकि क्या ? अरे भाई लाल निढाल हो रहा है इसलिए . और ये कथित लाल अब पूरी तरह से केसरिया से मिल ही नही गया है बल्कि उसके रंग मे रंग गया है . लेकिन मुझे इससे क्या ? लाल जाए तो जाए चूल्हे भाड़ मे . अपन तो बस ऐसे ही मरने वालों कि संख्या देखते रहेंगे और ब्लॉग पर पोस्टिंग करते रहेंगे . हमारे आदमी मरते हैं तो अपनी बला से . हमे इससे क्या लेना देना ? हमारी तो न्यूज़ बन रही है ना और जितना हमे कहा जाता है , हम उतना ही तो बताएँगे . सभी सेटिंग है ना ..

Saturday, March 10, 2007

नाटक चालू आहे ...

प्रदीप सिंह
पेशे से पत्रकार और दिमाग़ से चिंतक (हमेशा पता नही कहाँ खोए रहते हैं ) , काफ़ी दिनो तक इलाहाबाद के चौराहों की महफ़िल की जान रहे , और अब नोयडा की कथित " लल्ला चुंगी " यानी सहारा के सामने वाली चाय पान की दुकान पे सजने वाली महफ़िल मे एक किनारे अक्सर दिखाई दे जाते हैं . चुनावी बुख़ार इन्हे चढ़ रहा है और ऐसे मे इन पर काबू करना मेरे लिए नामुमकिन है . कल तो देर रात तक इसी बुख़ार मे तपते रहे , काफ़ी दवा दारू के बाद ही आज ये बजार मे आए हैं .

पाँच वर्ष में एक बार फिर से लोकतंत्र के कराहने की आवाज़ आने लगी है . कराह को सुनकर अहसास हो रहा है कि उत्तर प्रदेश मे लोकतंत्र अभी मरा नही है . फ़िलहाल जनता के नुमाइन्दे कराहते लोकतंत्र को ज़मीन मे दफ़न कर देने का कोई अवसर छोड़ना अपनी तौहीन समझते हैं . राजनीति मे नैतिकता और मर्यादा की बात बाबा आदम के ज़माने की मानी जाने लगी है . लोकतंत्र का अपहरण कर चुकी बदरंग राजनीतिक पार्टियाँ नये रंग रोगन में उत्तर प्रदेश के रंगमंच पर लोकतंत्र का नाटक खेलने को आतुर हैं . जनता को नये नये सब्ज़बाग दिखाए जा रहे हैं . कृषि क्रांति के लिए मशहूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश को हरित प्रदेश बनाने के नाम पर एक लोक विहीन दल तलवारें भांज रहा है . समाजवाद के असली वारिस और लोहिया के शिष्य ,कार्पोरेट समाजवाद की चमकीली सड़क पर तेज़ रफ़्तार पकड़ चुके हैं . रामराज़ लाने वाले अपनी पूरी आसूरी शक्ति एवम सेना के साथ मैदान में आ डटे हैं . रामराज़ का रिहर्सल मऊ और गोरखपुर में संजीदगी के साथ कर चुके हैं .असली नाटक अभी बाक़ी है .गोधरा का अभिनय आज तक दर्शकों को याद है . गाँधी के नाम का जाप करने वाले अब गाँधिगिरी पर उतर आए हैं . फिर भी ज़मीन पैरों के नीचे से खिसकती नज़र आ रही है . बहुजन समाज की जीवित देवी मनुवादियों से गलबहियाँ डाल सत्ता के मंदिर में स्थापित होने का स्वप्न देख रही हैं . जनमोर्चा का जन काफ़ी उत्साहित है . फ़िलहाल अभी तंत्र के सामने विवश है . बड़ी वामपंथी पार्टियां कुछ सीटों से ही साम्यवाद तक का सफ़र पूरा करना चाह रही हैं . फ़िलहाल पाँच वर्षों मे एक बार फिर से जनता को जनार्दन बनाने की तैयारी हो चुकी है . राजनेताओं के लिए वोट भले ही शून्य से शिखर तक पहुचाने का साधन हो , जनता के लिए यह हथियार नही बल्कि पाँच बार मे एक बार छला जाने वाला अवसर मात्र है . आम चुनाव के बाद जनता वही की वहीं पड़ी रहेगी .
हम ऐसा तो नही चाहते , फ़िलहाल इस दुखांत नाटक का सच यही है .
नाटक का शेष इंटरवल के बाद

Friday, March 9, 2007

मैं अब विदा लेता हूँ ..

पाश
इस कविता को पढ्ते वक़्त मैं ख़ुद इसमे इतना डूब जाता हूँ की सिवाय इसके कि " मैं अब विदा लेता हूँ " मेरे पास और कुछ रहता ही नहीं .. पाश एकदम से इतने अंदर चले जाते हैं कि उन्हे ख़ुद से नोचकर निकाला ही नही जा सकता और अगर कोशिश भी की जय तो भी ये मुमकिन नही हो पता है .. उन्हे ख़ुद से विदा देना सच मे मुश्कुल ही नही नामुमकिन भी है . बजार मे उनका रंग ख़ूब जमता है ..


अब विदा लेता हूँ
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूँ
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
उस कविता में
महकते हुए धनिए का ज़िक्र होना था
ईख की सरसराहट का ज़िक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का ज़िक्र होना था
और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सब कुछ का ज़िक्र होना था

उस कविता में मेरे हाथों की सख़्ती को मुस्कुराना था
मेरी जाँघों की मछलियों को तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और ज़िन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक़्शे से निपटना
और यदि मैं लिख भी लेता
शगुनों से भरी वह कविता
तो वह वैसे ही दम तोड़ देती

तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाख़ून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के ख़िलाफ़ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है

युद्ध में
हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह
और इस स्थिति में
मेरी तरफ चुम्बन के लिए बढ़े होंठों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना
या तेरी कमर के लहरने की
समुद्र की साँस लेने से तुलना करना
बड़ा मज़ाक-सा लगता था
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुम्हें
मेरे आँगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख़्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ
और अब मैं विदा लेता हूँ
मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गाँव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
हाँ, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है
मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूँ
उन सभी हसीन चीज़ों का
जो हमारे मिलन पर तम्बू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जो हमारे मिलने से हसीन हो गई
मैं शुक्रिया करता हूँ
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इन्तज़ार में
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का
जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था
टींडों से उतरी कपास का
जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई
गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी
जवान हुए गेहूँ की बालियों का
जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही
मैं शुक्रगुजार हूँ, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग-केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूँ, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूँ
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा
मेरे पास आभार है
मैं शुक्रिया करना चाहता हूँ
प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि ज़ुल्म को झेलते हुए ख़ुद को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से
किसी गुफ़ा में पड़े रहकर
ज़ख़्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे
प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गूँज जाना -
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा
जिन्हें ज़िन्दगी ने बनिया बना दिया
जिस्म का रिश्ता समझ सकना,
ख़ुशी और नफ़रत में कभी भी लकीर न खींचना,
ज़िन्दगी के फैले हुए आकार पर फ़िदा होना,
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना,
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूँ
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हें कभी आएगा नही
जिन्हें ज़िन्दगी ने हिसाबी बना दिया
ख़ुशी और नफ़रत में कभी लीक ना खींचना
ज़िन्दगी के फैले हुए आकार पर फ़िदा होना
सहम को चीर कर मिलना और विदा होना
बहुत बहादुरी का काम होता है मेरी दोस्त
मैं अब विदा होता हूँ
तू भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया
कि मेरी नज़रों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक़्शों की धार बाँधने में
कि मेरे चुम्बनों ने
कितना ख़ूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा कि मेरे आलिंगनों ने
तेरा मोम जैसा बदन कैसे साँचे में ढाला
तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त
सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी
कि मैं गले तक ज़िन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे भी हिस्से का जी लेना
मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना ।

Thursday, March 8, 2007

ये बज़ार है

वैसे तो हम सब इस बज़ार के अंग हैं और रहते भी इसी के इर्द गिर्द हैं इसी मे रोज़ हम कुछ ख़रीदते हैं और बेचते हैं लोगो को देखते हैं और उनसे मिलते भी हैं हँसी तहाके लगते हैं और कभी कभी इसी बाज़ार मे गला फाड़कर रोते हैं ये बाज़ार है यहाँ सभी रंग हैं एक दूसरे से मिलते हुए रंग, सबमे सिमते हुए रंग, बे-रंगो से रंग और रंगो जैसे रंग, ये बज़ार है.....स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग बाज़ार में,रंगो के बाज़ार में,और हाँ..बे-रंगों के भी बज़ार मे....

जनता बेवकूफ नहीं है।

रमन कौल
रमन भाई ने बहुत अच्छी बात कही अपने कॉमेंट में . तुरंत मन हुआ कि इसे तो ज़रूर पब्लीश करना चाहिए जिस से ये बात वो सभी लोग पढ़ सकें जो गलियों के ही अनुयायी हैं ...
जनता बेवकूफ नहीं है। न यह मुसोलिनी की इटली है, न हिटलर की जर्मनी। जनता नहीं चाहेगी तो आर.एस.एस. वहीं रह जाएगी जहाँ है, और चाहेगी तो फिर आप कुछ नहीं कर सकते। यदि आप वास्तव में आर.एस.एस. पर रोक लगाना चाहते हैं, तो अपनी छद्म धर्मनिरपेक्षता पर रोक लगाएँ। इस जैसे बेबुनियाद इलज़ामों वाली पोस्टें और इस जैसी सोच ही लोगों को भाजपा की ओर खींचती है। अब आप के किस किस वाक्य को असत्य साबित किया जाए, यदि आप कुछ पूर्वनिर्धारित धारणाओं को ठान कर चले हैं। आप को आर.एस.एस. के हिन्दूवाद से डर लगता है, तो औरों को अन्य पार्टियों के हिन्दूविरोध से। सही विकल्प होगा तो कौन नहीं चाहेगा। यदि आप को यह पार्टियाँ ग़लत लगती हैं, तो एक दूध से धुली पार्टी या संगठन का नाम बताएँ। सिमी?


Divyabh Aryan
divine india said..
भाई साहब इसप्रकार की टिप्पणियों का कोई फायदा नहीं है…और लोगों को कहने का मौका देते है… समेकित संस्कृति में आप रहते है तो सभी को देखना पढ़ेगा… कोई धर्म पर राजनीति कर रहा है तो कोई जाति पर्…जबकि दोनों पहलु गलत है…। मुद्दा क्या लोगों के पास…???

Tuesday, March 6, 2007

गालियों के लिए साधुवाद

गालियों के लिए साधुवाद , ख़ासकर उन्हे जिन्हे शाखाओं मे संस्कार और सभ्यता का पाठ पढ़ाया जाता है , अब जब बहस चल ही चुकी है तो क्यों ना सब कुछ साफ़ साफ़ कर लिया जाए . सबूत भी हैं और भूक्त भोगी भी . लेकिन वे सब अभी निरर्थक हैं , बात तो विचारधारा की हो रही है और कम से कम अक्ल्मण्दो से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि हम एक स्वस्थ बहस करें . इसी क्रम मे अरविंद भाई ने अपने कुछ विचार बजार मे "बेचे" हैं , है कोई ख़रीददार ?

सवाल हिंदू मुस्लिम का नही है सवाल है उस वैचारिक बवाल का जिस ओर संघ परिवार देश को ले जाना चाहता है इसी नक्शे क़दम पर चल कर दुनिया के कितने राष्ट्र धूल धूसरित हुए उसका इतिहास हमारे सामने है . राष्ट्रों के उत्थान पतन को सिर्फ़ एक राजनीतिक परीघटना कहकर बाक़ी चीज़ों को हम नकार नही सकते . जिस राष्ट्र के निर्माण मे ही उसके विनाश के बीज मिले हो , उसके नष्ट होने का सिर्फ़ इंतज़ार किया जा सकता है - इनकार नही . राष्ट्रवाद का दंभ भरने वाली आर एस एस क्या स्वयम सेवक संघ के उन मानकों से अलग है जिसका निर्माण मुसोंलिनि ने किया था ? या संघ अपने आकाओं के उन बयानो को ख़ारिज करेगा जिसमे उन्होने ने कहा था कि अँग्रेज़ नही बल्कि मुसलमान राष्ट्र के वास्तविक दुश्मन हैं . आज़ादी के बाद से इनके राजनीतिक संगठन जनसंघ से लेकर भाजपा तक का सफ़र अपनी इसी विचारधारा पर आधारित रहा . इस राजनीतिक दल ने केवल जनता की भावनाओं का मसाज कर सत्ता सुख पाने की कोशिश की . जब गाँधी और लोहिया दोनो का क्रेज़ था तो गाँधीवादी समाजवाद के नाम ओए वोट माँगा . भाजपा दो सीटों से आगे नही बढ़ पाई .
इसके बाद 80 के दशक से राष्ट्रवाद और उग्र राष्ट्रवाद का इनका सफ़र ख़त्म होता है . सत्ता पाने की दूर दूर तक कोई आस नही दिखती . और 90 के दशक मे राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद को सीढ़ी बना ये सत्ता तक का सफ़र तय करते हैं . फासीवाद कि मुख्य विचारधारा है कि अगर बहुसंख्यक को अपने साथ करना है तो अल्पसंख्यक पर आक्रमण कर दो . रामजन्मभूमि - बाबरी मस्जिद विवाद मे भी संघ परिवार ने इन्ही बिंदुओ का इस्तेमाल कर भाजपा को सत्ता मे पहुचाया . 5 साल सत्ता सुख के साथ कई प्रांतों मे अपनी सरकार चला रही इस ईश्वारवादी ताक़त के पास देश की आम जनता के लिया कुछ भी नही है . 21वीं सदी मे फासीवाद के सबसे ज़्यादा प्रयोग हिंदुस्तान मे हुए हैं और इसे संघ परिवार ने ही किए हैं , आख़िर इससे इनका पुराना रिश्ता जो रहा है .उपर किए इशारे अतीत से वर्तमान के सफ़र मे इनके चरित्र को समझने के लिए काफ़ी हैं .
जिग्यासू पाठक एक एक मुद्दे पर विस्तार से चर्चा के लिए आमंत्रित हैं .

Monday, March 5, 2007

पुलिस ,पंडे और पॉकेट मार...2

के पी सिंह
सोचता है रामभरोसे सऱ्यू तट पर अपनी झोपड़ी मे बैठा हुआ - इसी झोपड़ी मे आकर मौक़ा ताड़ते , गुर्रते या गुनगुनाते थे - 'राम लला हम आए हैं ' और उपर से कोई वायु यान गुज़रता तो हसरत से उसे निहारने लगते थे . बाद मे राम लला की 'कृपा' से वे विमान पर चढ़े और गगन बिहारी हो गाये तो उन्हे इतनी फ़ुरसत ही नही रही कि जानें कि सऱ्यू माता की कृपा से राम भरोसे की झोपड़ी अभी तो बची हुई है , मगर बाढ़ का पानी चढ़ते चले आने से उसकी नींद उड़ी हुई है .
पानी और बढ़ा तो यह झोपड़ी तो डूब ही जाएगी . गगन बिहारी जी से मादा क्यों नही माँग लेते ? तुम्हारी तो जान - पहचान भी है . उन दिनों तो हुक्का पानी भी था . पूछा तो आँखे दबदबा आईं उसकी . बोला - अंधे के आगे क्या रोना भैया ! आजकल तो उन्हे सब बँटाधार ही दिखता है . इधर इतना सैलाब है और उधर उनकी आँखो का पानी ही मर गया है . अब तो जानें सऱ्यू मैया या जाने रामचंद्र जी . उन्ही का भरोसा है .
मन हुआ कहूँ, तभी तो तुम्हारा नाम रामभरोसे है . मगर नहीं कहा . इसीलिए कि राम की नगरी में राम के भरोसे एहने वाला रामभरोसे अकेला नही है . और भी कई लोग हैं जो तख़्त बिछाए और झंडा लगाए पसेरियँ लूढ़काते रहते हैं कि राम के जन आएँ और उनकी झोली भर जाएँ . पंडे कहलाते हैं बेचारे और इस अर्थ मे भले हैं कि गाँठ पर ही नज़र रखते हैं , ख़ून नही खौलाते . रामभरोसे की झोपड़ी मे से ही देखा - एक पंडे का तख़्त बहता हुआ चला आ रहा है . बाढ़ के चलते ? नहीं , मैं ग़लती पर था . पीछे-पीछे बचाने की कोशिश मे पंडा जी और उभे रोकते सिपाही जी भी थे . राम भरोसे ने कहा - बोलीएगा कुछ मत . बस,देखते रहिए . ये दोनो घाट घाट का पानी पी चुके हैं और रोज़ ही कितनो को पिलाते रहते हैं . मैने बात मान ली .
जारी ....

तालिबान और आर एस एस मे समानता

पहली :- तालिबान और आर एस एस ड्रेस कोड को मानते हैं .

दूसरी :- दोनो फासीवादी हैं .

तीसरी :- दोनो ही एक ख़ास समुदाय का क़त्ल करते हैं .

चौथी :- दोनो औरतों पर विशेष वक्र दृष्टि रखते हैं .

पाँचवी :- दोनो ही ख़ुद को धर्म का ठेकेदार मानते हैं .