Saturday, April 28, 2007

हरी पाठक के कारनामे-२

दुकान खोलने और बंद करने ,दुकान का पैसा बैंक पहुचाने के अलावा हरी का दुकान मे कोई और काम नही था। बाकी बचे समय मे वंही अपनी कुर्सी पर बैठकर औंघाते रहते। लेकिन हरी दुःखी थे। उन्हें सपने नही आते थे। गाँव के बनिया के घर वाली टी वी में हरी को इतवार को शक्तिमान देखने मे बड़ा मजा आता। वो शक्तिमान बनने का सपना देखना चाहते और इस लालच में दुकान के ऊपर जाकर सोते कि कोई डिस्टर्ब ना करे। लेकिन फिर भी सपने थे कि आते ही नही थे।
अब हम चलते हैं वहाँ , जहाँ से हरी पाठक में चमत्कारी शक्ति का संचार शुरू हुआ और उसके बाद से हरी ने चमत्कार दिखने शुरू कर दिए। उन चमत्कारों से दुकान का मलिक , मलिक के नौकर , दुकान के पडोसी, कनक चित्र मंदिर का गेटकीपर और यहाँ तक कि हरी पाठक की बीवी भी चमत्कृत हुई, और उसके बाद तो हरी पाठक एक से बढकर एक चमत्कार करने लगे। पूरी तरह से चमत्कार पुरुष बन गए।
हरी पाठक के घर से रेलवे लाईन के रास्ते में एक बहुत बड़ा सा पाकड़ का पेड था। वैसे पेड तो बहुत थे लेकिन ये कुछ खास था। एक तो ये बहुत बड़ा था दूसरे इस पर काफी सारे चमगादड़ लटके रहते थे। दिन मे भी भुतहा लगता था। चमगाद्ड़ों की साइज़ भी काफी बड़ी थी। पेड को घेरकर एक चबूतरा बना दिया गया था और जब रेल की लाईन बिछाई जा रही थी तो किसी ने वहाँ से तीन चार गोल मटोल पत्थर उस पेड के नीचे लाकर रख दिए थे। तब से वहाँ चमगादड़ वाले शंकर बाबा प्रगट हो गए थे और पूरा गाँव चमगादड़ वाले शंकर बाबा की थान पर पूजा करता , जल चढ़ाता और कराही देता। गाँव की कुंवारी लडकियां और लड़के अक्सर उसके आस पास मंडराते नज़र आते क्योंकि उस पेड की एक तरफ काफी सारी बांस और सरपत की झाडियाँ थी और अक्सर वहाँ से कभी कुत्ते की तो कभी कोयल की अजीब अजीब सी आवाजें आती। और चमगादड़ वाले शंकर बाबा का प्रताप कुछ ऐसा था कि इन आवाजों के आने के के तुरंत बाद वो लडकियां पता नही कहॉ अंतर्धान हो जाती। बहरहाल हमारी कहानी के नायक हरी पाठक भी उस थान पर जरूर शीश नवाते। ये उनका रोज़ का नियम था। उस दिन भी वह शीश नवाने के लिए अपनी साइकिल से उतरे थे। पोटली से अगरबत्ती निकली और थान पर जलते दिए से सुलगाई । शंकर बाबा को प्रणाम करने के लिए उनके आगे अपना सर झुकाया। लेकिन अचानक एक तेज़ हवा चली और पेड के चमगादड़ कें कें करते हुए उड़ने लगे। सर अभी थान पे झुका ही था कि एक चमगादड़ ऊपर से सीधे उनके सर पर गिरा। ऊपर से लगा धक्का तो सर जाकर थान की फर्श पे टकराया। हरी पाठक को ऐसा लगा जैसे खुद भगवान् भोले नाथ उनके सामने खडे हैं और सारे चमगादड़ उनके चारों तरफ उड़ रहे हैं... बस उड़ते ही जा रहे हैं। होश खोने से पहले उन्होने देखा कि शंकर बाबा ने एक चमगादड़ के कान मे कुछ कहकर उनकी तरफ इशारा किया। इसके बाद हरी पाठक अचेत हो गए। बमुश्किल दो मिनट मे ही उनकी बेहोशी टूट गयी। आंख खुली तो देखा , शीला , रूपा और अजयी उनके अगल बगल खडे होकर घबराए हुए उन्हें देख रहे थे। चमगादड़ उनके सर से टकराने के बाद जहाँ गिरा था , वहाँ एक बड़ा सा गढ्ढा हो गया था। हरी पाठक का सर थान के जिस हिस्से से टकराया था , वह पूरी तरह से टूट गया था लेकिन अचरज तो ये था कि हरी पाठक को खरोंच तक नही आयी थी। उनके अट्ठारह साल सात महीने से अकडे हुए कंधे और सर भी सीधे हो गए थे। एक तेज़ सा उनके चहरे पर आ गया था।
(जारी....)
अगले अंक मे पढे- हरी पाठक का पहला चमत्कार

Friday, April 27, 2007

पेठिया की पैठ

संदीप कुमार
संदीप वही हैं जिन्होंने पहली बार ‘महानगर की दीवार’ नाम की कविता-टाइप एक चीज के साथ ‘बाजार’ में दस्तक दिया था। गांव से महानगर आने की कसक को कविता के रूप में संदीप ने तब उड़ेला था। पर अब बाजार के बहाने अपने कस्बे के पेठिया को याद कर फिर से तरोताजा हो रहे हैं संदीप।
पने झारखंड के गिरिडीह जिले में साप्ताहिक बाजार को पेठिया कहते हैं। और हटिया भी कहते हैं। (ऐसे राजधानी रांची के करीब हटिया नाम से एक जगह भी है पर इसके नामकरण के पीछे क्या वजह है, मुझे नहीं पता।) मजे की बात ये कि बगोदर कस्बे के मेरे घर के सामने ही पेठिया लगता है। मोटा-मोटी थूकन दूरी पर है मेरे घर से पेठियाटांड़। (थूकन दूरी माने नहीं बूझे...यानि थूक दो तो थक्का वहां तक पहुंच जाए वाली दूरी।) पेठिया लगता है गुरूवार को। हालांकि आज तक मैं ये नहीं समझ पाया कि गुरूवार को इतने नामों से क्यों पुकारा जाता है। वीरवार, जुमेरात, बृहश्पतिवार....। बृहशपतिवार को थोड़ा छोटा करने के चक्कर में हमारे यहां लोग इसे बीफे भी कह जाते हैं। पर हमारे इलाके में इस दिन को एक और नाम दे दिया गया है। और मेरा दावा है कि यह नाम बगोदर से बाहर वालों को शायद ही पता हो। और उस दिन का नाम है पेठिया। यानि हफ्ते के दिन होते हैं...सोमवार (सोमार), मंगलवार (मंगर), बुधवार (बुध), पेठिया, शुक्रवार (शुकर), शनिवार (शनिचर), रविवार (एतवार)। हमारे इलाके कभी आओ तो आपको जानकर हैरत होगी कि अधिकतर लोग बुधवार के बाद वाले और शुक्रवार के पहले वाले दिन को न तो गुरूवार कहते हैं, न वीरवार (ये नाम तो खुद मैं दिल्ली में ही जाना) और न ही बृहश्पतिवार...सीधे पेठिया कहते हैं। कौन दिन है भइया- के जवाब में आपको पेठिया का नाम सुनने को मिलेगा। पेठिया का मतलब गुरूवार और गुरूवार का मतलब पेठिया है हमारे बगोदर के लिए। पेठिया कुछ इस कदर इस कस्बे के लोगों के दिल-दिमाग में बस गया है कि वो इससे हटकर सोच ही नहीं सकते। इसी का असर है कि यहां के लोग गुरूवार नाम के दिन को ही भूला-बिसरा दिए हैं। हालत ये है कि आसपास के इलाकों में भी जिस दिन पेठिया लगता है उस दिन को वहां के लोग भी पेठिया के दिन से ही जानते हैं। जैसे बगल के सरिया कस्बे में लोग पेठिया के दिन का मतलब बुधवार से समझते हैं क्योंकि वहां बुधवार को साप्ताहिक हाट लगता है। और सबसे मजे की बात देखिए कि इन साप्ताहिक हाटों में जो लोग सामान बेचने का काम करते हैं उनके लिए हफ्ते के दिन तो कुछ और ही तरीके का होता है। जैसे साप्ताहिक हाट में दुकान सजाने वाले अगर दो दुकानदार आपस में मिलेंगे तो कहेंगे आज सरिया है...कल बगोदर। यानि आज बुधवार है...कल गुरूवार। बुधवार माने सरिया और गुरूवार मतलब बगोदर। कुछ इस कदर है पेठिया का पराक्रम कि हम देहात वाले तो दिन और कमोबेश दुनिया भी भूल-भाल गए हैं। (...क्योंकि पेठिया ही हमारी दुनिया होती है...इसी दिन हफ्ते भर की तरकारी-खरीददारी सब जो हो जाती है...)

हरी पाठक के कारनामे

एक शहर। जैसे कि पुराने शहर होते हैं , काफी कुछ वैसा ही ... एक शहर । भीड़ भरी सड़कें , सड़कों पे रिक्शे ,ठेले , साईकिल ,पैदल और कभी कभी मोटर साईकिल और स्कूटर भी। एक आम सा शहर जो कि आने वाले दिनों मे अंगूर बनने वाला है , उसे भी नही पता। अब आम से अंगूर !! ये क्या तुक हुआ ? हाँ , ये तुक तो हुआ और इसलिये हुआ क्योकि हमारी कहानी के नायक हरी पाठक यहीं पर पाये जाये है। कारनामे इनके अभी तक तो हुए नही हैं लेकिन जल्दी ही शुरू होने वाले हैं। बस... अब रहा नही जा रहा है इनके कारनामों की वजह से। जल्दी से शुरू करते हैं ।

शहर के बीच में चौक और चौक में क्लिष्ट किशोर सर्राफ़ की दुकान पर तैनात हरी पाठक। उम्र लगभग बयालीस साल , रंग गेन्हुआ टर्नड भूरा , क़द काठी सामान्य से कुछ कम। हाथ में लगभग सत्तर अस्सी चाबियों वाला गुच्छा। पैरों मे चप्पल और बदन पर कमीज और पैजामा। इतना सब अपने ऊपर लादकर हरी पाठक रोज़ सवेरे उन्नीस किलोमीटर दूर से सवेरे आठ बजे तक दुकान पंहुच जाते। साथ में रहती उनकी साईकिल । कैसे पन्हुचते ? घर से चलते रस्ते पर आते। बीच मे अक्सर ट्रेन दिख ही जति थी सवेरे वाली। बस हरी पाठक अपनी साईकिल उसी पर लाद लेते और टिकट चेक न हो इसलिये शहर से एक स्टेशन पहले उतार लेते। वहाँ से आते मलिक के घर चाबी लेने। चाबी लेकर दुकान आते , शटर उठाते और उसके बाद पूरी दुकान के ताले खोलते , दरवाजे खोलते। ये काम वह पिछले अट्ठारह साल सात महीने से करते चले आ रहे थे। हालांकि दुकान पर काम करते हुए उन्हें पूरे बाईस साल हो गए थे और इन बारह सालों में उनकी जिंदगी मे सिर्फ एक चमत्कार हुआ था और वह भी अट्ठारह साल सात महीने पहले। पहले वह दुकान पर पानी पिलाते थे लेकिन अट्ठारह साल सात महीने पहले धनतेरस वाले दिन मलिक ने उनकी तरक्की कर उन्हें पानी पिलाने की ड्यूटी से हटाकर दुकान खोलने की ड्यूटी पर लगा दिया । गाँव देस में बड़ा हल्ला मचा कि भईया अब दुकान के मलिक हो गए हैं... आख़िर चाबी तो उन्ही के पास रहती है। और हरी पाठक खुद को दुकान का मलिक समझने भी लगे। तब से कंधे और सर मिलाकर ऐसे अकडे कि अभी तक देखते इधर हैं और बात उधर करते हैं। बस ...कुछ इसी तरह उनकी जिंदगी कटती जा रही थी। सुबह दुकान खोलना और रात को बंद करना। अरे हाँ !! एक काम और था जो वह बडे मनोयोग से करते थे। दुकान के मुंशी जब पैसा जमा करवाने के लिए बैंक जाते तो रुपयों से भरा बैग हरी भईया ही सँभालते। ओफ्फो... हरी भईया उस समय तो ख़ुशी से फूल कर कुप्पा हो जाते । दिन भर दुकान की चाबी उनके हाथ में और दुकान का पैसा भी उन्ही के कर कमलों से बैंक में जमा होता । रात में बीवी से बताते कि आज दुकान की चार लाख की आमदनी हुई और कल साढ़े तीन लाख की हुई थी। बीवी को कोई अचरज नही होता क्योंकि पिछले अट्ठारह साल सात महीने से वह यही बात सुनती चली आ रही थी। और अब तो उसे कोफ़्त भी होने लगी थी। बिटिया जवान हो गयी थी इसलिये गाँव के कई लड़के उससे काफी इज़्ज़त से पेश आने लगे थे। अक्सर वो घर पर भी आ जाते पूछने कि चाची , कुछ चाहिऐ तो नही ?



(जारी....)

Tuesday, April 24, 2007

कौन चिरनिद्रा में लीन है ?

सब कुछ साझा-२
के पी सिंह

शायद आप जानकर हैरत में पड़ जाये कि अयोध्या में ऐसे झगडे हैं भी नही और कई जगहों पर हिंदुओं व मुसलमानो की श्रद्धा के केंद्र्स्थल इस तरह पास पास स्थित हैं जैसे देश की गंगा-जमुनी संस्कृति वहीँ आकर साकार हो गयी हो। मुस्लिम स्थलों की दृष्टि से भी अयोध्या की अहमियत कुछ कम नही बल्कि बढ़ी चढ़ी ही है। इतनी कि लोग इसे आलोचना किये जाने का खतरा उठाकर भी इसे "पैगम्बरों की नगरी" या "मक्का ख़ुर्द" की संज्ञा दिया करते हैं। उनका कहना है कि जैसे मक्का में जंग हराम है विअसे ही अयोध्या में भी युद्ध नही होते। यह जरूर है कि इधर कई लोग ऐसे कथनो को लेकर भी बतंगड़ पर उतरने लगे हैं। मगर आम तौर पर अयोध्या के लोग उन्हें कान नही देते।
इस्लाम के पवित्रतम स्थलों मे से एक "शीश पैगम्बर" तो, जहाँ तमाम श्रद्धालु, धर्म का भेद किये बिना, अपनी तरह तरह की विकृतियाँ दूर होने की कामना लिए चले आते हैं, उस प्रख्यात मणि पर्वत के एकदम निकट है,जहाँ से अयोध्या का प्रख्यात सावन झूलनोत्सव शुरू होता है। महाराजा कॉलेज के निकट स्थित बेगम बल्लाश की मस्जिद तो ऎसी है कि देखने वालो को छह दिसंबर,१९९२ को ढहा दीं गयी बाबरी मस्जिद का भ्रम होने लगे।
इसके अतिरिक्त कोतवाली के ठीक बगल ही वह नौगजी कब्र है जो अपने आकर को लेकर आकर्षण का केंद्र बनी रहती है। लोग इसे देखते हैं तो दांतो तले ऊँगली दबा लेते हैं। कौन चिरनिद्रा में लीं है इस इतनी बड़ी कब्र में ? इस्लाम के कई अनुयायी इसे पैगम्बर नूह की कब्र बताते हैं जबकि कई अन्य का कहना है कि इसमे पैगम्बर नूह की रहस्यमय किश्ती के टुकड़े दफ़न किये गए हैं।
(जारी....)

इसे अन्यथा न लें

हिंदू होने के फायदे -८

थोड़ी ही देर मे उस लडकी को पता चल गया कि कई सारी आंखें उसके बदन का पोस्ट मार्टम करने में जुटी हुई हैं। सो उसने पानी से अठखेलियाँ करने की इच्छा तुरंत पानी के हवाले की और निकलकर घाट पर आ गयी। वहाँ नयी मुसीबत उसका इंतज़ार कर रही थी।
"कपडे कहॉ बदले जाएँ?"
हालांकि सरयू घाट पर महिलाओं के कपडे बदलने के लिए एक सरकारी "कपड़ा बदलन केंद्र "बना तो हुआ है लेकिन उसकी हालत भी सरकारी ही थी और अभी भी है। ऊपर से इतनी भीड़... उसने देखा कि उसकी माँ ने ऊपर से सूखा पेटीकोट डाला और नीचे से गीला वाला निकाल दिया। उसे ये जुगाड़ मेंट समझ मे आ गया। सो उसने भी अपनी माँ की ही तरह कपडे बदलने की कोशिश करनी शुरू कर दीं। लेकिन आंखें थीं कि उसका पीछा ही नही छोड़ रही थी । तब तक हम लोग भी पानी से बहार निकाल आये थे और कपडे वगैरह बदल कर घाट की सीढ़ियों पर बैठकर धुप खा रहे थे और उस उम्र की भाषा में कहें तो आंखें सेंक रहे थे। और इस काम मे हमारे साथ कुछ पुलिस वाले कुछ नए बने जवान बाबा लोग और वहाँ पर रेह्डी लगाने वाले दूकानदार भी थे जिनकी निगाहों का मरकज़ वही लडकी थी। हवा काफी तेज़ चल रही थी सो हमे पता था कि कुछ ना कुछ तो होगा ही। (नोट:- ये सारी चीज़े अयोध्या ही नही बल्कि उन सारे घाटों पर काफी आम होती हैं जहाँ ऐसे मेले लगते हैं , इसलिये कृपया इसे अन्यथा ना लें ) इतनी देर मे एक तेज़ हवा का झोंका आया और बस्स... सब एक दूसरे का मुह देखकर मुस्की मारने लगे। इसके बाद हमे भी वहाँ बैठना फ़ालतू लगने लगा और बाकी बचा हुआ रास्ता पार करने के लिए हम लोग आगे बढ़े। राम की पैढी के बाहर समोसे की दुकान पर हमने समोसे खाए पानी पिया।
(जारी.....)

महानगर की दीवार

संदीप कुमार

हजारीबाग से बी ए करने के बाद अपने कस्बे बगोदर (झारखण्ड) से नीम हकीम पत्रकारिता शुरू कर दी। लेकिन नुस्खे झोला छाप नही थे। फिर सोचा कि कहीँ से इसकी डिग्री ले ली जाय नही तो क्या पता कब कहॉ कोई छापा मार दे और लाइसेंस कैंसिल हो जाये। सो आ गए दिल्ली। और सीधे आई आई एम् सी । उसके बाद ठिकाना बना अपना मुम्बई जहाँ स्टार न्यूज़ में कुछ दिन कलम घिसाई की। इन दिनों नोयडा के स्टार न्यूज़ के दफ्तर मे पाए जाते हैं और बकौल संदीप " उसी से खिचड़ी-चोखा का जुगाड़ हो रहा है" । बजार के लिए इन्होने अपनी एक कविता भेजी है , जो किसी भी नॉर्मल आदमी की एब्नोर्मल बनाने की प्रक्रिया को काफी आसानी से व्यक्त करती है।



गाँव से जब आया था
"सॉरी थैंक्स" के आगे

कुछ नही जानता था

मेरी एक दोस्त कहती थी

तेरे पास तमीज नही

बात करने की

सलीका नही

उठने बैठने का

असर उसकी सोहबत की

या फिर हवा इस महानगर की

मालूम नही

पर अब गाहे बगाहे

मुँह से निकलता है-

शिट या फक

मेरी दोस्त हंसती है

उसके गाल में गढ्ढे पड़ते हैं

और कहती है

गंवार ! कुछ सीख रहा है

आज आलम यह है कि

जब अकेले में भी छिंकता हूँ

तो "सॉरी" कहता हूँ

क्योंकी सुना है कि

महानगरों की दीवारो की भी

आंखें होती हैं

वो पहचान लेती हैं

कि ये गाँव का गंवार है ।

Saturday, April 21, 2007

जाओ !! तैर के आओ ।

खैर , किसी तरह रास्ता कटा और हम लोग नयाघाट पंहुचे। क्या हुजूम था वहाँ लोगों का। जबर्दस्त !! जिधर देखो सर ही सर। हमने तय किया कि पहले नदी में नहा लिया जाय। क्योंकि नदी और उसका पानी देख मुझे बिल्कुल भी रहा नही जा रहा था। हमने अपने कपडे उतारे और नदी की तरफ बढ़े। पहले पतारू घुसा। घुसते ही उसके मुँह से माँ की एक भद्दी सी गाली निकली और उसने अपना हाथ नदी के अन्दर कही डाला । जब हाथ बहार निकला तो उसके हाथ मे गणेश की एक मूर्ती थी जिसकी सूंड की जगह लोहे की पतली सी एक सींक दिखाई दे रही थी। हम समझ गए । दरअसल वह सींक पतारू के पैरों मे घुस गयी थी। और वह चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था , ' साले!! माँ..... । यही जगह मिलती है इनको मूर्तियों को फेंकने के लिए। ' गरियाते हुए वह बहार निकला और अपना पैर पकड़कर बैठ गया। उसके पैर से ख़ून निकल रहा था। बोला , अब मैं आगे कैसे चलूँगा? मैं बोला तू यहीं बैठ और आसपास का नज़ारा ले। थोड़ी देर मे दर्द ठीक हो जाएगा। तुझे नदी मे बचा कर पैर रखने थे। सीधे तैरना शुरू कर देना था। वो बोला ठीक है , तुम लोग जाओ , तैर कर आओ। मैं यही बैठकर सबके कपडे देख रहा हूँ। सो मैंने और कल्लू ने उसे कपड़ों के पास छोड़कर नदी में एक लंबी छलांग लगाईं और तैरते हुए तकरीबन तीन चार सौ मीटर आगे निकल गए। वहाँ से देखते हैं तो पतारू जी महाराज ध्यानमग्न हुए नदी मे खडे हैं और सिर्फ उनका सर ही दिखाई दे रहा था। हमने समझ लिया कि माजरा क्या है। तेजी से तैरते हुए हम वापस आये और तीनो सर जोडे वही देखने लगे जो थोड़ी देर पहले पतारू देख रहा था। ये एक गोरी चिट्टी लडकी थी जिसने कपडे तो पहने हुए थे लेकिन अन्दर के कपडे नही पहने हुए थे। हम उसे डुबकी लगाते देख रहे थे। तभी मुझे लगा कि कोई देख तो नही रहा है हमे ॥ सो अपना सर नचाया और चारों तरफ देखा। कोई नही देख रहा था। सब उसी को देख रहे थे और कईयों के तो मुँह भी खुल गए थे।

घोर कलजुग आय गवा है

हिंदू होने के फ़ायदे -६

"राम राम !! घोर कलजुग आय गवा है।" साथ में चल रही भीड़ मे से कहीँ से आवाज़ आयी। वैसे हम लोग उस भीड़ से छुटकारा पा सकते थे लेकिन उसका सिर्फ एक ही रास्ता था। वह ये कि भीड़ से किनारे की तरफ जाएँ और किनारे किनारे ही उस संकरी गली को पार करें। लेकिन मुसीबत तो ये थी कि किनारों पर सुबह सवेरे काफी सारे मानवीय केक पूरी दुर्गन्ध के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। और हमे भी उन्हें कटने से ज्यादा ठीक काम भीड़ मे ही चलते रहना लग रह था। सो चलते रहे , खिसकते रहे..... एक घंटे तक खिसकने के बाद जाकर कहीँ खुली हवा में सांस लेने को मिली। ये एक मोड़ था और भीड़ मुड़ रही थी। फासले बढते जा रहे थे। उसके बाद एक चढान था और भीड़ चढ़ रही थी। आगे ढलान था और थोड़ी देर ढुलकने के बाद सरयू का पहला घाट आने वाला था। हम सबकी आंखें चमकने लगी। पतारू बोला , 'अबे ! पिछली बार वाला किस्सा भूल गया ? ' मैंने कहा, ' कौन सा वाला ' वह बोला , ' अबे साले वही !! पिछली बार एक लडकी सिर्फ बनियान पहन कर नहा रही थी। और.... बड़ा मजा आया था।' इतना सुनना था कि कल्लू ही ही करके हंसने लगा। मैं भी ही ही करने लगा। फिर पतारू बोला, ' इस बार भी ऐसा ही माल दिख जाये तो भैयिया अपना तो जनम सफल हो जाये।' मैंने कहा, ' हाँ साले !! जनम सफल हो या ना हो , लेकिन तेरा यहाँ आना जरूर सफल हो जाएगा।' खैर, हम लोग पहले घाट पर रुके। इस सीढ़ी से उस सीढ़ी तक चक्कर काटते रहे। लेकिन ज्यादा कुछ दिखा नही वहाँ। एक तो उस घाट पर पानी कम था दुसरे उसमे काई और गंदगी ज्यादा थी। इसीलिये वहाँ ज्यादा रौनक नही थी। सो हमने समय खराब न करने का बुद्धिमानी भरा निर्णय लिया और आगे चले। अभी इस घाट से नयाघाट तक का रास्ता काटना था और मेन घाट वही था जहाँ सबसे ज्यादा रौनक रहती थी। लेकिन इस घाट से नयाघाट तक का जो रास्ता था , वह मुझे बहुत खराब लगता था। किनारों पर तरह तरह के मेक अप किये हुए भिखारी पडे रहते थे। उनका मेकप बड़ा जानदार रहता था। रहता था क्या, अब भी रहता है। किसी ने अपने पैर कुछ इस तरह सडाये होते हैं जैसे कि अभी मवाद टपक पडेगी। उनके पैरों की पली मवाद और उनके पीछे पड़ा पाखाना , यह सब मिलकर कुछ ऐसा दृश्य बनाते कि पूछो मत। मेरा तो मन खराब हो रहा था लेकिन पतारू उन्हें बडे मजे से देख रहा था।
(जारी ....)

Wednesday, April 18, 2007

'काम' पर क्रोध !! आख़िर क्यों?

श्रुति मिश्र



श्रुति ने अभी लिखना शुरू किया है। ज्यादा घुमाव फिराव में न जाकर एकदम सीधा सोचती हैं और काफी सोच ले जाती हैं । जिन्दगी और उसे जीने के इनके अपने अंदाज हैं और खुद के अन्दाजों के इतर नए अन्दाजों मे भी इनकी काफी दिलचस्पी रहती है। नया सा तो हो जाये लेकिन ऐसा भी नही कि वो पुराने को खतम कर दे। कुछ ऐसा ही इनके दिमाग मे चलता रहता है। बजार के लिए इन्होने पहला विषय यौन शिक्षा चुना। स्वागत !! पहली बार बजार मे श्रुति का।



आज सेक्स शिक्षा के नाम पर जो झूठा बवाल मचाया जा रहा है यह कहीँ से भी उचित नही। मेरे विचार से सेक्स शिक्षा एक माध्यम है आज के बच्चों को सही दिशा दिखाने का। आख़िर कौन उन्हें इस सब के बारे में बतायेगा। घर का माहौल अभी उतना आधुनिक नही हुआ है कि माता पिता अपने बच्चों को इसके बारे मे बताये। आपस में भाई बहनो के बीच इस बात की चर्चा करने मे झिझक होती है तो आखिरकार कौन आगे आयेगा ? और ये सबसे बड़ी सच्चाई भी है कि बच्चे इस बारे में सबसे ज्यादा जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। ऎसी स्थिति में बजार मे मिलने वाली सस्ती पत्रिकाएं उनकी मदद करती हैं। लेकिन शिक्षा देने में नही बल्कि उन्हें गुमराह करने में। क्योंकि इनमे सिर्फ उत्तेजना का तो जिक्र होता है लेकिन उसके परिणामों का नही। और फिर जो रास्ता खुलता है , वह गलत राह और मंजिल की तरफ ही लेकर जाता है। ज़्यादातर तो अपने ही दोस्तो से कई सारी गलत बातें सीखकर उस राह की तरफ अग्रसर होते हैं। इन सारी चीजों से समाज मे विकृति पैदा होती है। लोगों के अन्दर एक जूनून सवार हो जाता है और यही वह प्रस्थान बिन्दु होता है जहाँ पर समाज के बनाए गए सारे नियम टूट जाते हैं और संबंध किरिचों मे टूटते रहते हैं।


वहीँ दूसरी तरफ अगर वैज्ञानिक तरीके से स्कूलों में इसकी शिक्षा दी जाये तो कम से कम यह स्थिति नही आएगी। यौन अपराध भी कम होंगे। बच्चों को समझाना होगा कि सुख का सही तरीका क्या है। विभत्सता से चीज़ें सिर्फ विकृत होती हैं। आज के दौर में सेक्स शिक्षा अनिवार्य हो गयी है। जहाँ लोगों के द्वारा लगातार अनियंत्रित व्यवहार किये जा रहे हैं और जिसका भुगतान न जाने कितनी मासूम बच्चियों को अपनी जान देकर करना पड़ रहा है। कम उम्र बच्चो से ही उनकी इस जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश शुरू कर दीं जे तो कम से कम उनका व्यवहार तो नियंत्रित रहेगा ही। और इसी तरह से इनमे अपने साथी के प्रति प्रतिबद्धता की भावना भी जागृत होगी। अगर समाज को विकृत होने से बचाना है और एक अच्छी और संतुलित फसल तैयार करनी है तो सेक्स की शिक्षा बहुत जरूरी है। सेक्स की चर्चा करने मे लोग शर्म महसूस करते हैं लेकिन जब गलतियाँ करते हैं और अपने अनियंत्रित व्यवहार के कारण समाज मे असंतुलन पैदा करते हैं तो क्या यह ज्यादा शर्म की बात नही ?

सब कुछ साझा

के पी सिंह

योध्या का एक अर्थ "जिसे युद्घ में ना जीता जा सके" भी बताया जता है। इस धर्म नगरी का अब तक का इतिहास इस अर्थ को सही सिद्ध करता आया है। युद्घ तो युद्घ , अयोध्या के प्रेम में भी वह विजयनी ताकत है कि इससे खिंचा जो भी यहाँ आया, इसके पाश में बंधा और यही का होकर रह गया। छूटने की याद तक नही आयी उसे।
जानते हैं क्यों ? दरअसल अयोध्या के स्वाभाव में ना तो ऐसा ठहराव है कि सदियों पर सदियाँ बीतती जाएँ और वह वक्त के साथ कदम से कदम मिलाने के बजाय उसके किसी एक सिरे को पकड़कर बैठी रहे और न ऎसी कर्कशता कि लोग पास आते भी डरें। इसके निकट धर्म जड़ता का नही अँधेरे से प्रकाश की ओर चलने और सत्य के लिए कोई भी मार्ग बंद न करने का पर्याय रहा है। मतों और मतान्तरों के लिए यहाँ जितनी गुन्जायिश है, शायद ही कहीँ और हो। आज भी, अयोध्या को सीमाओं मे क़ैद करने की कुछ लोगों की अह्निर्ष कोशिशों के बावजूद इसकी यह तस्वीर न तो बदली है न धुंधली पडी है,न ही इसके प्रति प्रेम के सोते सूखे हैं।
यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में जब राम जन्म भूमि - बाबरी मस्जिद विवाद को तूल देकर न सिर्फ अयोध्या बल्कि समूचे देश के सुख और सौमनस्य को चोट पंहुचाकर तमाम तरह के उधेलन पैदा किये जा रहे थे, अयोध्या-फैजाबाद के लोग एक मुस्लिम शायर की जुबानी उसकी यह पंक्तियाँ सुन और गुन रहे थे,"तुम कहो,कहते अगर रामजन्मभूमि है। भाई ये पाक जमीं हमने भी तो चूमी है। " क्या अर्थ हुआ इसका? यही न,कि क्या हुआ जो हमारी पूजा पध्यतियाँ अलग अलग हैं,कोई मंदिर में जाता है और कोई मस्जिद में, इस भूमि की पवित्रता को लेकर हमारी एक ही राय है। दोनो के लिए यह इबादत की ही जगह है। फिर इबादत को लेकर झगडे क्यों ?
(जारी...)

Sunday, April 15, 2007

ये तालिबानी नही तो और क्या हैं?

कहते हैं प्रेम का मतलब सिर्फ प्रेम ही होता है और कुछ नही । लेकिन भोपाल मे ससुरे संघियों -बजरंगियों ने इसका मतलब धर्म से जोड़ दिया है। भोपालय में नही बल्कि सभी जगह इनका असंवैधानिक हस्तक्षेप जारी रहता है। अब तो आगे से चढ्ढी पहनने के लिए भी इनसे पूछना होगा कि वी आई पी वाली पहने या पटरे वाली । प्रेम पे फतवे जारी कर रहे हैं। और अगर अभी इनसे कहो कि भैये , तनिक ये बताओ कि जब नोयडा के बाझेडा ख़ुर्द में किसानो के ऊपर गोली लाठी बरसाई जा रही थी तब ये कहा थे ? विदर्भ मे किसान मरते हैं तो ससुरे ऐसे ग़ायब होते हैं जैसे गधे के सर से सींग। लेकिन जैसे ही वैलेन ताईन बाबा का दिन आता है, इनकी सींग पता नही कहॉ से निकल आती है, और वो भी पूरे जोश के साथ।या फिर यु पी मे चुनाव आता है तो इन्हें मेरी अयोध्या, जो इनकी तो कभी भी नही रही , वहाँ आकर उत्पात मचाने लगते हैं।बंदरों से भी गए गुजरे हैं । ना तो खुद चैन से जियेंगे और ना ही किसी और को सुकून लेने देंगे। कहते हैं कि हम देश चलाएँगे। कौन सा देश चलाएँगे ये ? एक ऐसा देश जहाँ लोग अपनी मरजी से प्रेम ना कर सकें ? एक ऐसा देश जहाँ लोग अपनी मरजी से शादी ना कर सके ? इनको तो उसी त्रिशूल से (जो ये लोग बाटते हैं ) कोंच कोंच कर इनके भाई तालिबानियों के आश्रम मे भेज दें तब मजा आये। जाएँ वही, पहने बुरका और पहनाये बुरका।

जय श्री राम

पुलिस ,पंडे और पॉकेट मार .. 3

के पी सिंह

बात कुलमिलाकर यह थी कि दूसरे पंडों से ज्यादा 'सुविधाजनक' जगह पर तख़्त रखने के लिए पंडा जी सिपाही को हफ्ता दिया करते थे। मगर इस बार दरोगा जी खुद आकर वसूली कर गए थे। यह हकतलफी सिपाही जी से बर्दाश्त नही हुई। उन्होने पूछा - दरोगा कौन होता है? घाट पर डयूटी मैं करता हूँ कि वह ? उसे क्यों हफ्ता दिया? और दिया तो अब मुझे भी दे, नही तो ले भुगत। और सिपाही जी ने तख़्त सरयू में बहा दिया। उनका कहना था कि उससे श्रद्धालुओं को बहुत असुविधा हो रही थी।

मुझसे दखल दिए बिना रहा नही जा रहा था पर रामभरोसे ने मेरे मुँह पर उंगली रख दी। कहा- अभी नही। अभी अनुभव पूरा नही हुआ। पुलिस पण्डे की दुकडी को पॉकेट मार के साथ मिलकर तिकड़ी की गति को प्राप्त हो जाने दीजिए। वह देखिए, उचक्का उस तीर्थयात्री की गठरी ले भगा और सिपाही जी बेफिक्री से अपने जूतों के फीते ठीक कर रहे हैं। मैंने पूछा - वी उसे पकड़ने के लिए दौडाते क्यों नही? रामभरोसे का जवाब था-अपने अपने विश्वास की बात है। उन्हें मालूम है कि उचक्का इमानदार है और उनका हिस्सा उन्हें पंहुचा जाएगा। हिस्सा जो उनका हक है। मैंने चुप्पी साध ली। और क्या करता? चुप्पी के ही बीच रामभरोसे ने बाहर की ओर इशारा किया । सिपाही जी नोट गिन रहे थे। अपने साथी को आते देखकर बोले-जय श्री राम। उसने पूछा हो गया काम? और दोनो ही ही करके हंसने लगे।

दुसरी ओर तीर्थयात्री गठरी के लिए परेशान था।

अचानक रामभरोसे ने पूछा- इन लोगों के आगे हम लोगों का कोई हक नही बचा है क्या? मैंने कहा - बचा है। इस तीर्थयात्री की तरह लुटने और पिटने का। रामभरोसे का अगला सवाल था- अखिर हमारा कुसूर क्या है? मैंने बताया- यही कि कोई कुसूर नही कर सकते।

कर सकते हैं भैया, कर सकते हैं। रामभरोसे को जाने क्या हुआ कि वह चिल्लाता हुआ उठा और बाहर घूम रहे एक बहरुपिये जैसे व्यक्ति को दबोच लिया। बोला- रोज देखता हूँ तेरी कारस्तानी। मगर आह तो तुझे बताना ही पड़ेगा कि तेरा साथी इसकी गठरी कहॉ ले गया! नही बतायेगा तो तुझे लिए दिए सरयू मे कूद पदुन्गा मैं अभी।

रामभरोसे को जान पर खेलते देख बहरूपिया बकरी बंकर मिमियाने लगा था। कई और बहरूपिये भी भेष बदलने लगे थे। पाठकगण , इस कथा में कल्पना का भरपूर इस्तेमाल हुआ है। मगर इसके पात्रों व सूत्रों को कल्पित समझने की गलती न ही करें तो अच्छा।

आगे है... "अयोध्या-सब कुछ साझा "

मुठ्ठी भर रेत

मुठ्ठी भर रेत
मुठ्ठी मे उठाई
देखा
तो रेत नज़र भी आई
मिलाया उसमे थोड़ा सीमेंट
और
एक नींव बनाई
फिर पता चला
कि अभी तो और है ज़रूरत
कई सारी मुठ्ठीयों की
और फिर से
मुठ्ठी भर रेत
मुठ्ठी मे उठाई

लड़की हूँ ना

रंजना भाटिया

रंजना कहती है कि लोग बस प्यार भरी कविताएँ ही पढ़ना चाहते हैं , उन्हे ये कविताएँ अच्छी ही नही लगती इस लिए वो ऐसे कविताएँ अपने ब्लॉग मे डालती ही नही , बहर हाल ये कविता उसने मुझे कल भेजी , शायद इसलिए क्योंकि मैने कहा था कि किसी मुद्दे पे लिखो , लेकिन मुझे भी लगता है कि लोगों के पास मुद्दे के नाम पर बस धर्म वग़ैरह ही रह गया है , बाक़ी तो जैसे भुला दिए गये हैं , लेकिन ये भी एक मुद्दा है , जिसे भुलाया नही जा सकता , और ये हमारी सबसे बड़ी बदक़िस्मती है कि इसे मिटाया भी नही जा रहा है , आज रंजना बजार मे खड़ी हैं और चिल्ला के कह रही हैं कि हे महा मर्दों , बेटी हुई तो क्या हुआ ?
गर्भ गुहा के भीतर एक ज़िंदगी मुस्कुराई,
नन्हे नन्हे हाथ पवन पसारे..........
और नन्हे होठों से फिर मुस्कुराई,
सोचने लगी की मैं बाहर कब आउंगी,
जिसके अंदर मैं रहती हूँ
उसको कब" माँ कह कर बूलाउंगी,
कुछ बड़ी होकर
उसके सुख -दुख की साथी बन जाउंगी..
कभी "पिता" के कंधो पर झूमूंगी
कभी "दादा" की बाहों में झूल जाउंगी
अपनी नन्ही नन्ही बातो से सबका मन बहलाउंगी.......
नानी मुझसे कहानी कहेगी, दादी लोरी सुनाएगी,
बुआ, मौसी तो मुझपे जैसे बलहारी जाएँगी......
बेटी हूँ तो क्या हुआ काम वो कर जाउंगी,
पर ये क्या सुन कर मेरा नन्हा हृदय कपकपाया,
मा का हृदय कठोर हुआ कैसे,
एक पिता ये फ़ैसला कैसे कर पाया,
"लड़की "हूँ ना इस लिए जन्म लेने से पहले ही
नन्हा फूल मुरझाया

मेरा बज़ार


बचपन मे याद आता है कि बजार का हमारे अंदर एक ज़बरदस्त क्रेज़ था . वहा काफ़ी सारी चीज़ें मिलती थी , रंगीन और चटपटी भी , क़रारी क़रारी और मख़्कन सी मुलायम भी . कही पे बाँस क़ी बीन और वो भी गुब्बारे वाली तो कही पे दफ़्ती का लाल वाला चश्मा जिस पर शीशे कि जगह लाल पन्नी लगी रहती है मूंगफली , टिक्कियाँ , फुलकियाँ , पकोडी और सबसे बच कर सर्र्र से निकलती साइकिल . लेकिन ये समय सर्र्र से ऐसे निकला क़ी बहुतो को बचने का मौक़ा ही नही मिला.अब हाल ये है कि सारा ज़हाँ तो बजार है और अंकल सैम कि माने तो पूरी दुनिया ही एक गाँव है ज़हाँ सब कुछ तो मिलता है , डेमोक्रेसी भी मिलती है और लाल झंडा भी फहराया जाता है यहाँ पर , हिंदुस्तानी फ़िल्मों मे जितने भी सीन होते हैं , यहा बड़े आराम से देखने को मिल जाते हैं बस फ़र्क यही होता है कि वहाँ कोई अमिताभ बच्चन होता है और यहाँ कोई अवधेश बैरागी . लेकिन ग़ज़ब के हैं हम लोग , हममें से अकसर उन्हे पहचान तक नही पाते हैं और अगर भूले भटके पहचान भी गये तो उन्हे जानबूझकर अनदेखा कर देता हैं इस टाइम भी बॉलीवुड मे काम हो रहा होगा . वहा का बाज़ार चल रहा होगा , लेकिन गाँव कि बजार तो अब भी 7-8 बजे तक बंद हो जाती है . ये डूसरी बात है कि वहा अभी भी बजार के बनीए के यहाँ, जो मोटा सा होगा और जिसका लड़का अभी भी स्कूल के बहाने दोस्तो के साथ विदीओ हाल मे बैठ कर सिनेमा देखता होगा, टी वी देखा जा रहा होगा और वो भी डिश पर . अपनी बजरिया बदली और बहुत बदली , लोगो कि आदते भी बदली , काफ़ी लोग ऐसे हैं जो पहले वी सी आर मँगा कर टी वी से फ़िल्मो का लुत्फ़ उठाते थे और अब केबल पर पूरा मज़ा लेते हैं . मोबाइल पर बतीयाते हैं और मामा की माने तो भाई साहेब तो मुह पे उ काजनी काव फ़ेस वाश लग़ावत रहे .----------------------------------------------------------------------------
इस फ़ोटो के साथ एक लिंक है हिंदी मे टाइप करने का..रोमन मे ही हिंदी टाइप किया जा सकता है फ़र्क यही है की ये एक वेबसाइट है

पुलिस ,पंडे और पॉकेट मार .. १

के पी सिंह
अगर मौसम की आँधी आये तो अंदेशा है कि के पी भाई उड़ जाएँगे , वो क्या है कि शरीर से हल्के बहुत हैं , हमने भी एक बार झेली थी आँधी के पी भाई के साथ और तब से पक्का यक़ीन हो गया कि ये धुरंधर जितने आराम से उड़ सकते हैं उतने ही आराम से किसी को अपनी कलम से उड़ा सकते हैं ... इनकी कलम से एक बार बड़ी भयंकर आँधी चली थी जो राजा अयोध्या तक को उड़ा ले गयी थी और तब से आज का दिन है , के पी भाई भी वही हैं लेकिन राजा अयोध्या का वो जमूरा उस आँधी मे ऐसा उड़ा ..ऐसा उड़ा कि क्या दिल्ली और क्या लखनऊ और क्या अयोध्या कहीं भी टिक ही नही पा रहा है , बहर हाल बजार के लिए इन्होने इस बार बस थोड़ी सी हवा भर चलाई है .. लेकिन आशा है कि आँधी इस बजार मे भी आएगी ..

' हद है कि आज हद से गुज़रने लगे हैं लोग ' सुनते थे म्रिदुल जी और मरहूँ शायर शमीम अहमद ' शमीम ' कह उठते थे कि कुछ भी हो जाए , ' ये अयोध्या है , यहाँ युध्द नहीं हो सकता . ' ठीक समझे आप, बात उन दिनों की है जब कई लोगों ने ख़ून खौलाने का धंधा शुरू कर रखा था और नारा लगाते थे - अब भी जिसका ख़ून ना खौला , ख़ून नहीं वो पानी है . शिकायत थी उन्हे शमीम जैसों से कि वे आड़े आ जाते हैं . एक तो वैसे ही लोगों की नसों मे ज़्यादा ख़ून नहीं बचा है , उपर से आँच भी नहीं लगने देते उसे . इसके बावजूद दावा था कि ग़लत सिध्द कर देंगे उन्हे , ईंट से ईंट बजकर और अयोध्या मे युध्द करा कर ही रहेंगे . कई और लोग भी थे जिन्हे लगता था कि बस अब रड़ भेरी बज ही उठेगी .

मगर उसे नहीं बजना था और नहीं बज़ी . राम की नगरी ने अपना धैर्य नहीं खोया और शैतान की नगरी बनने से साफ़ मना कर दिया . इस बीच तमाम शस्त्र सज्जित सेनाएँ आती और सर पटक कर लौट जाती रहीं . ख़ून खौलाने वालों को भी बदल जाना पड़ा आख़िरकार . धंधा मंदा हो चला था , क्या करते ? फिर भी आदत जो पड़ी होती है , वह दूर कहाँ होती है जल्दी ? ख़ून खौलाते खौलाते कितनी जवानियाँ बेकार कर दीं उन्होने और अब जब ख़ुद उनका ही ख़ून पानी हो गया है तो भी ख़ून की लत हैं कि जाती ही नहीं . स्वाद मुँह से लगा हुआ है ईसका . इसीलिए तो रामभरोसे कहता है - पहले खौलाते थे और आजकल जलते हैं . ख़ून ही नहीं , जान भी . मगर उन्हे इससेक़या ? जो भी जलना हो जले ..
जारी ....

कौन बनाता है आतंकवादी ?

शाहनवाज़ आलम
इलाहाबाद का बघाड़ा और यूनिवर्सिटी का अखाड़ा ,अपने शाहनवाज़ भाई ने दोनो जगह पर ठोकी ताल और कई जगह कामयाबी के झंडे भी गाड़े ,पटरी पर आई ज़िंदगी को पटरी से उतारने का जोश अक्सर मिस काल करने पर मजबूर करता है , बोलने और बोलते रहने का काफ़ी ज़्यादा शौक़ लेकिन सुखद ये है कि अच्छा ही बोलते हैं और जब बोलते हैं तो अच्छे अच्छो की धोती ढीली कर देते हैं .. बजार के लिए उन्होने पहला विषय आतंकवाद चुना ,आइए देखते हैं की इनकी बंदूको से कौन सा रंग निकल रहा है ...
न्यायालय द्वारा किसी जघन्य अपराधी को सज़ा सुनाए जाने के बाद उसकी कही गयी बातों को अमूमन नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है . आमतौर पर एसे मे अपराधी भी ख़ुद को बेक़सूर ही कहता है लेकिन 1993 के मुंब्ई बम धमाकों के एक प्रमुख आरोपी अब्दुल ग़नी तुर्क ने अपना जुर्म और सज़ा दोनो क़बूल करते हुए विशेष टाडा न्यायालय के सामने जो बाते कही उसे लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता मे आस्था रखने वाला कोई भी आदमी नज़रअंदाज़ नही कर सकता . तुर्क , जिसके द्वारा रखे गाये बमों से उन धमाको मे मारे गाये कुल 273 लोगों मे से 113 लोग हताहत हुए थे , ने सज़ा सुनने के बाद कहा कि वो क़ानून व्यवस्था मे आस्था रखने वाला व्यक्ति था और गुज़र बसर के लिए टैक्सी चलाता था . लेकिन 1992 के बाबरी ध्वंस और उसके बाद हुए दंगो मे मारे गाये उसके समुदाय के लोगो तथा सांप्रदायिक पुलिस द्वारा क़ी गयी ज़्यादतियों के कारण वह बहुत हताश और क्रोधित था . उसने अपना जुर्म स्वीकार करते हुए कहा क़ी अगर क़ानून उसे सज़ा देता है तो श्री कृष्ण आयोग द्वारा दंगो मे दोषी पाए गाये लोगों को भी सज़ा मिलनी चाहिए . तुर्क क़ी इन बातों को नज़रअंदाज़ करना इसलिए ख़तरनाक है क्योकि ये हमारे पूरे तंत्र और उसकी खोखली धर्मनिरपेक्षता पर सवालिया निशान खड़ा करती है तो वही इसकी पृष्टभूमि मे एक बिना किसी अपराधिक रिकॉर्ड वाले साधारण नागरिक के एक ख़तरनाक आतंकवादी बनने क़ी पूरी प्रक्रिया को भी दर्शाति है . जिसके केंद्र मे अपने देश मे किसी इस्लामी सत्ता क़ी स्थापना या शरिया क़ानून लागू करवाने जैसी जेहादी मंशा नई बल्कि न्याय न मिल पाने के कारण उपजी मायूसी है. बहरहाल , बात करते हैं उस श्री कृष्ण आयोग की जिसे दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 के मुंब्ई दंगो तथा बम विस्फोटों की जाँच के लिए नियुक्त किया गया था . जिससे इन हादसों मे मारे गये लोगों के परिजन ने न्याय मिलने की उम्मीद की थी और जिसके पूरे न होने के कारण तुर्क जैसे कई और आतंकवाद के रास्ते पर भटकने के लिए मजबूर हुए. 6 दिसंबर,1992 को बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद मुंब्ई में भड़के सांप्रदायिक दंगो में, जिनमे सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 900 लोग मारे गये थे, जिनमे 575 मुस्लिम ,275 हिंदू और 45 अग्यात धर्म (ये वो लोग थे जिनकी लाशों के कमर के निचले हिस्से ग़ायब थे या सड़ चुके थे जिसके कारण हमारी धर्मनिरपेक्ष पुलिस उनके धर्मों का पता नही लगा पाई) व 5 अन्य धर्मों के लोग थे . इसकी जाँच के लिए तत्कालीन नरसिंहा राव सरकार ने 25 जनवरी 1993 को एक आयोग नियुक्त किया, जिसके कार्य क्षेत्र मे मुंब्ई बम धमाकों को भी बाद मे जोड़ दिया गया . आयोग ने 16 फ़रवरी 1998 को महाराष्ट्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी . श्री कृष्ण आयोग की ये रिपोर्ट आज तक दंगो पर नियुक्त किए गये तमाम आयोगों की अपेक्षा ज़्यादा गंभीर और तटस्थ थी , विश्लेसन मे भी और सुझावों मे भी . उसकी गंभीरता का अंदाज़ सिर्फ़ इससे लग जाता है की विभिन्न राजनैतिक व धार्मिक संगठनों की बातें तो सुनी ही गयीं , मुंब्ई के टाटा इण्स्टिट्युट ओफ़ सोशल साइंसेज़ के विशेषग्यों की एक समिति भी दंगो के पीछे के सामाजिक व आर्थिक कारणो की जाँच के लिए नियुक्त की . तो वंही पुलिस व्यवस्था का, जिसका सांप्रदायिक रुझान इन दंगो मे खुलकर दिखा पर अध्ययन करने की ज़िम्मेदारी सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महासंचालक के.एफ़.रुसतमज़ी व महाराष्ट्र के पूर्व पुलिस महानिदेशक डी.रामचनद्रन को सौंपी . ज़ाहिर था कि ऐसी गंभीर जाँच से मुख्यधारा कि तमाम पार्टियों का चरित्र खुलकर जनता के सामने आ जाता . इसलिए इस आयोग के गठन के समय से ही इसे कई तरह से बाधित करने कि कोशिश सरकारें करने लगी नरसिंहा राव कि कांग्रेस सरकार,जिस पर न्यायमूर्ति श्री कृष्ण आयोग ने रिपोर्ट मे कई जगह तल्ख़ टिप्पड़ी की है , ने 23 जनवरी 1996 को इस जाँच मे अधिक समय लग जाने का बहाना बनाकर आयोग को समेट दिया . सरकार कि ओर से यह तर्क दिया गया कि आयोग की रिपोर्ट के कारण दंगो के पुराने ज़ख़्म हरे हो जाएँगे . आम जनता मे इस मुद्दे पर तीखी प्रतिक्रिया हुई . कई संगठन इस निर्णय के विरुढ़ अदालत मे भी गाये . अंत मे जन दबाव के कारण इन दंगो मे प्रमुख भूमिका निभाने वाली भाजपा की 13 दिनो वाली सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को 28 मई 1996 को आयोग कि पुनर्स्थापना करनी पड़ी . लेकिन जैसे जैसे आयोग अपने निष्कर्षों कि ओर बड़ रहा था , वैसे वैसे इसे लेकर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों मे खलबली मचने लगी . हद तो तब हो गयी , जब बिना रिपोर्ट पढ़े ही शिवसेना - भाजपा गठबंधन सरकार ने इसे हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक घोषित करते हुए मानने से इनकार कर दिया . विपक्षी कॉंग्रेस भी रस्म अदायगी मे थोड़ा ही हो हल्ला मचाकर शांत हो गयी . आख़िर क्या था इस रिपोर्ट मे कि पक्ष-विपक्ष ने अपने तमाम दलगत विभेदों को मिटाकार इस रिपोर्ट को दबा जाने कि साझा कोशिशें की और अंततः इसमे वे सफल भी हुए . 700 पृष्ठों तथा दो हिस्सों मे विभाजित श्री कृष्ण आयोग कि रिपोर्ट ने 1992-93 के दंगो के लिए मुख्य रूप से शिवसेना-भाजपा को ज़िम्मेदार माना है . रिपोर्ट के पहले खंड के पृष्ठ 21 पर ठाकरे का उल्लेख किया है कि "8 जनवरी,1993 से शिवसेना और शिव सैनिकों ने मुसलमानों के जान माल पर संगठित हमले किए . एक शक्तिशाली सेनापति की तरह इन हमलों का नेतृत्व शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने किया. उनके मार्गदर्शन मे शाखा प्रमुखों से लेकर शिवसेना नेताओं तक , सभी ने दंगो मे भाग लिया." इसी तरह इस दंगो के समय शासन कर रही सुधाकर राव नाइक की कॉंग्रेस सरकार की दंगो को रोकने मे अक्षमता तथा पार्टी के अंदर इस मुद्दे पर नेताओं द्वारा एक दूसरे से पुराना हिसाब चुकाने की अवसरवादिता को भी रिपोर्ट ने बेनक़ाब किया है . श्री कृष्ण आयोग कि रिपोर्ट के दूसरे खंड के पेज 161 पर सुधाकर राव नाइक का बयान दर्ज है तो पेज 164 व 167 पर शरद पवार की गवाही है . ये दोनो बयान काफ़ी मुखर हैं . नाइक ने अपनी गवाही मे, शरद पवार जो उस समय केंद्र मे रक्षा मंत्री थे , पर दंगो को नियंत्रित करने मे सहयोग नही करने का आरोप लगाया है तो वंही शरद पवार ने अपने बयान मे नाइक के आरोपों का खंडन का उनके उपर ही अक्षमता का आरोप लगाया है . इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि कॉंग्रेसियों ने अपनी दलगत प्रतिस्पर्धा के लिए इस महत्वपूर्ण जाँच आयोग का उपयोग किस तरह किया . आयोग के समक्ष " दंगों को नियंत्रित करने के लिए सेना क्यू नही बुलाई गयी ? " के जवाब मे सुधाकर राव द्वारा दिया गया बयान हमारे तंत्र के संचालन कि ज़िम्मेदारी संभालने वाले लोगो कि योग्यता व क्षमता का भंडाफोड़ करता है न्यायमूर्ति ने पेज 164 पर दर्ज किया है कि " सेना की टुकड़ी को आदेश कौन देगा , इस बारे मे मुख्यमंत्री अनभिग्य थे ." दंगो के समय सुधाकर राव नाइक से वरिष्ठ नागरिकों के एक शिष्ट मंडल ने मुलाक़ात की और पुलिस पर मुसलमानों के विरुढ़ पक्षपातपूर्ण रवैये की शिकायत की तथा शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को गिरफ़्तार करने की माँग की . लेकिन सरकार ने न तो पुलिस को फटकारा और ना ही ठाकरे या शिवसैनिकों पर कोई कार्यवाही करने का निर्णय लिया . जिसका कारण उन्होने आयोग के समक्ष " राजनीतिक" बताया . इन दंगों मे पुलिस की संदिग्ध भूमिका की जाँच पर आयोग ने अपनी रिपोर्ट का बड़ा हिस्सा ख़र्च किया और पाया की पुलिस की सांप्रदायिक मनोवृत्ति के कारण ही दंगो को नियंत्रित नही किया जा सका . तत्कालीन अपर पुलिस आयुक्त वी एन देशमुख की इस बात को आयोग ने स्वीकार किया है की " मुसलमानों के विरुद्द पुलिस वालों के मान मे एक गाँठ थी जो उनके व्यवहार मे दिखी " (पेज 12) पुलिस ने इन दंगो में कैसी भूमिका निभाई इसकी कुछ बानगी रिपोर्ट मे देखी जा सकती है " 9 जन वरी को माहिम मे रात 9 बजे शिवसेना नगर सेवक मिलिंद वैद्य के नेतृत्व मे हिंदुओं ने मुस्लिम बस्ती पर हमला किया . पुलिस हवलदार संजय गावदे भी हाथ मे तलवार लेकर इस हमले मे शामिल हो गाये " (पेज 14) तुर्क द्वारा न्यायलय में कही गयी बातों पर तो आयोग जैसे मुहर लगाता है . दंगो और बम विस्फोटों के परस्पर संबंधों को स्वीकार करते हुए आयोग कहता है की " बाबरी मस्जिद के ढहने और दिसंबर 1992 , जन वरी 1993 मे हुए दंगो का कारण मुंबई मे सांप्रदायिक फूट पड़ गयी , जिसके कारण मुसलमानों के मान मे असुरक्षा और क्रोध की भावना उपजी . राज्य सरकार और पुलिस उनकी निगाह मे दोषी थी . इन दोनो ने उनके हितों की रक्षा करने के बदले सांप्रदायिक दंगों का नेतृत्व करने वाले लोगों से हाथ मिलाया , ऐसा मुस्लिमों को पक्का विश्वास था . इन मुस्लिमों का उपयोग राष्ट्र विरोधी शक्तियों द्वारा किया गया . पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आई एस आई की मदद से उन लोगों ने क्रोधित मुस्लिमों को भड़का कर प्रतिशोध के लिए प्रेरित किया . दुबई के कुख्यात तस्कर दाउद इब्राहिम की मदद से एक बड़ा षडयंत्र रचा गया , जिसके अनुसार हिंदू बाहुल्य क्षेत्रों मे बम विस्फोट किए गये . जिनके लिए दंगों मे सताए गये मुस्लिम युवकों का इस्तेमाल किया गया . (प्रथम खंड , पेज 43 ) श्री कृष्ण आयोग के इन तथ्यों के आलोक मे देखा जाए तो स्पष्ट है की कुछ लोगों को कठोर से कठोर सज़ा देने पर भी आतंकवाद की समस्या हल नही होनी है . उल्टे अपने समुदाय मे तुर्क जैसे लोगों की छवि एक " शहीद " की ही बनेगी , जिसने न्याय न मिलने के कारण आतंक का रास्ता अपनाया . दरअसल हमारे देश के "मुस्लिम आतंकवाद" का किसी वैश्विक जेहादी मिशन से उतना संबंध नही है जितना कि हमारी अंदरूनी राजनीति से . जिसके केंद्र मे अपने ही देश मे न्याय न मिलने के कारण उपजी उपेक्षा बोध और आक्रोश है . लेकिन "सांप्रदायिक इंजीनियरिंग " पर ही पल बढ़ रही राजनीतिक पार्टियाँ इन उपेक्षितों के न्याय के दायरे मे लाकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगी , इसकी उम्मीद भी किसे है ?

अब मैं मरती हूँ ...--2

पहले से आगे ..
मुझे ठीक ठीक याद नहीं की कब हममें दोस्तों जैसी बातें होने लगीं . जहाँ तक मैं समझता हूँ की पूरे दफ़्तर मे लोग वहाँ के अपराध संवाददाता से काफ़ी डरते थे और सिर्फ़ मैं और प्रियंका , दो ही ऐसे शख्स थे जिनकी झड़प उसके साथ होती थी और कोई भी उन्नीस रहने के लिए तय्यार नही होता था . शायद यह भी एक कारण रहा हो . मैं अख़बार की सामाजिक-राजनीतिक मेग़ज़ीन का काम करता था और लोग इसे मेरा सौभाग्य कहेंगे लेकिन मैं इसे अपना दुर्भाग्य मानता हूँ की उसमे छपने वाले लेखों को पसंद किया जाता था . मार्केटिंग मे तो ज़रूर ही. मुझे याद आता हैं , हम लोग उस समय 'आत्महत्या' पर काम कर रहे थे और हमारी बहस से रोज़ का अख़बार विचलित ना हो इसलिए बॉस ने हमे अपना केबिन दे दिया थ . वही केबिन , जिससे मार्केटिंग विभाग सटा हुआ था और बीच मे सिर्फ़ एक लकड़ी की दीवार भर थी. उस केबिन मे आत्महत्या पर रोज़ घंटों गरमागरम बहसें होती थी . एक दिन मैं और मेरे बाक़ी साथी तीनो बैठकर अपने विषयों पर क्या लिखा जाए , इसपर बहस कर रहे थे कि केबिन का दरवाज़ा खुला और इस लड़की ने अंदर क़दम रखा . कहने लगी कि उसे हम लोगो का काम अच्छा लगता है और उसका भी मन करता है कि वो भी कुछ लिखे . हम लोगो ने सोचा कि चलो अच्छा हुआ , काम कुछ हल्का हुआ . मुझे ठीक ठीक याद है कि मैने उसे 'किशोरों में बड़ती आत्महत्या' पर लिखने के लिए दिया था . तब उसने पूछा भी था की आत्महत्या करने का कोई आसान तरीक़ा बताओ . मैने कहा की थोड़ी देर मे सोच के बताउंगा . थोड़ी देर बाद जब मैं कुछ चुगने की फ़िराक मे पूड़ी वाली दुकान पर गया तो मुझे उस दुकान पर एक लंबी सी चमकती हुई लाल मिर्च दिखी , मैने कुछ सोचा और उस पुड़ी वाले से वो लाल मिर्च माँग ली . मैं वापस केबिन मे आया और एक काग़ज़ पर लिखा ' आत्महत्या करने का आसान उपाय' और लाल मिर्च उस काग़ज़ मे लपेटी और प्रियंका की टेबल पर ले जाकर रख दी . उसकी एक और साथिन उसके साथ बैठी थी . मुझे याद है की इस बात पर हम इतना हँसे थे इतना हँसे थे की हमारी आँखों मे पानी आ गया था.

अब मैं मरती हूँ ...

हमारे दफ़्तरों मे क्या क्या होता रहता है क्या क्या नही होता है ... हम सब इसकी कल्पना तो कर सकते हैं , इसके परिणामो के बारे मे बहस तो कर सकते हैं लेकिन शायद आज तक किसी ने इसके लिए कुछ किया होगा , मुझे इसकी आशा नही .. बाज़ार मे हमारे दफ़्तर भी आते हैं , वो भी कुछ बेचते हैं , कुछ ख़रीदते हैं , लेकिन आख़िर इन दफ़्तरों का असली रंग क्या है .. कुछ कुछ इस स्टोरी से साफ़ हो जाता है ..
प्रियंका (काल्पनिक नाम) ... मेरे दफ़्तर मे काम करने वाली एक लड़की . मैं अपना दफ़्तर छोड़ चुका हू लेकिन जो बात मुझे बार बार कॉन्फ़्यूज कर रही है कि मैं इसका परिचय किस काल मे दूं . दफ़्तर छोड़ चुका हूँ इसलिए सोचता हू की इसका परिचय भूत काल मे देना चाहिए . प्रियंका अभी ज़िंदा है , इसलिए सोचता हूँ कि वर्तमान काल मे इस से सबका परिचय होना चाहिये और अभी भी इसकी ज़िंदगी का कोई भरोसा नही इसलिए सोचता हू कि ये ताना बाना भविष्य मे ही बूना जाना चाहिये. बहर हाल चीज़ें अपने इतिहास पर ही टिकी होती हैं इसलिए बात उनके इतिहास से ही शुरू कि जाएँ तो अच्छा रहता है और उन्हे क्रम से समझने मे भी आसानी होती है . मैं नोयडा पिछले साल आया और नौकरी भी पिछले साल ही शुरू की . पहली नौकरी थी और कुछ कर गुज़रने की जोश भी . सो मैं जी जान से काम मे लग गया . मैं दफ़्तर के संपादन विभाग मे था और अक्सर मुझे काम के सिलसिले मे बॉस के केबिन तक जाना पड़ता था . बॉस के केबिन तक पहूचने के लिए मुझे रिसेपस्न और मार्केटिंग विभाग पार करके जाना होता था जो की छोटे और कबूतर के डर्बे की तरह बीच मे बने हुए थे . रास्ते से गुज़रते वक़्त गाहे - बगाहे सब पर नज़र पड़ ही जाती थी जिनमे प्रियंका भी शामिल थी .लेकिन तब उस से मेरी कोई बात-चीत नही होती थी. कारण यही था की मैं नया था और अभी दफ़्तर के लोगों से उतना घुल-मिल नही पाया था. एक दिन बॉस का हुक़म हुआ कि मैं प्रियंका को साथ लूँ और ग्रेटर नोयडा के एक अस्पताल का मुयायना कर आइए . उस अस्पताल पैर मुझे एक इँपेक्ट फ़ीचर करना था . हम दोनो ड्राइवर के साथ कार से तक़रीबन 20-25 किलोमीटर का फ़ासला तय करके उस अस्पताल तक पहुचे . रास्ते मे हुमरे बीच कोई बात-चीत नही हुई . इसका कारण शायद यह था कि मैं काफ़ी झिझक रहा था और वैसे भी वो वहा मार्केटिंग के काम से जा रही थी तो उससे मेरा उतना मतलब भी नही था . रास्ते भर मैं और ड्राइवर आपस मे बतीयाते रहे और ये लड़की कार कि पिछली सीट पैर खोए खोए अंदाज़ मे बैठी रही . बहर हाल हमारी बातचीत आधा काम निपटाने के बाद तब शुरू हुई जब हम दोनो डॉक्टर के केबिन के बाहर बैठे थे . लेकिन तब भी सिर्फ़ इतना ही कि इससे पहले कहा काम करते थे और क्या काम करते थे ?

अब मैं मरती हूँ ...4

उसके चहरे की उन्मुक्त हँसी अभी भी दिखाई दे जाती थी लेकिन पता नही मुझे ऐसा क्यूं लगता था कि ये हँसी सिर्फ़ उसके चेहरे क़ी ही है . उसकी आँखें धसति ही जा रही थी . चेहरे का नूर दिनो -दिन ख़तम होता जा रहा थ . एक दिन उसका एक्सीडेंट हुआ तो उसने मुझसे रिक़्वेस्ट क़ी कि मैं दफ़्तर में किसी को बताए बिना ये बहाना बना कर दू कि मैं उसे आटो मे बिठाने जा रहा हू जबकि मुझे उसे उसके बॉयफ़्रेंड के पास ले जाना था जो कि उसका इंतेज़ार रोड पे कर रहा था . ख़ैर मैं उसे उसके बॉयफ़्रेंड के पास छोड़ आया . उस दिन मैने उसके बॉयफ़्रेंड को देखा . अच्छा ख़ासा स्मार्ट लड़का था . मैने सोचा कि आख़िर क्या वजह है कि उस उमर के लड़के जो सपना देखते हैं उसके विपरीत उसने इस प्रियंका जैसी लड़की को , जो ऐसे लड़को के मानदंड पर कतई ख़री नही उतरती है , वह इस से प्रेम करने लगा . एह एक काफ़ी सोचने वाली बात थी ... ख़ैर इतना सब होने के बाद नोयडा मे बहुचर्चित निठरि मे मार्मिक हत्या कांड हो गया. अब काफ़ी दिनों तक मेरी बातचीत उससे नही हो पाई . आख़िरी बार मेरी उससे क़ायदे से एक ही बार बातचीत हो पाई . वह फिर से मुझसे आत्महत्या के बारे मे पूछ रही थी . बातों ही बातों मे उसने नटवर सिंह कि पुत्रवधू कि बात छेड़ी . वो शराब पीकर और उसके बाद नींद कि गोली ख़ाके मर गयी थी . इस घटना के बाद वो मुझसे अक्सर शराब की माँग करने लगी . लेकिन मैं हमेशा उससे बहाने बना देता था . अभी कुछ दिन पहले ही जब हम लोग एक समाचार टी वी मे एक्ज़ाम देने जा रहे थे , वो मेरे घर आई . उसने फिर से शराब की माँग शुरू कर दी . यहाँ तक की रसोई मे रखी ख़ाली शिषियों मे भी काफ़ी खोजबीन की लेकिन उसे मायूस लौटना पड़ा. हम लोग काफ़ी जल्दी मे थे इसलिए कोई ख़ास बात नही हो पाई . मैने उसे सोमवार को निकलने वाली मेगज़ींन का सारा समान दिया और उसे कहा की इसे गुप्ता को दे देना . लेकिन पता नही क्यों मुझे लग रहा था की कहीं कुछ गड़बड़ ज़रूर है . रास्ते मे भी उसने काई बार मुझे फ़ोन करके कहा की कब आ रहा हो वापस ? मैं उस समाचार चैनल मे अपना फ़ॉर्म जमा करके तक़रीबन 4 घंटे बाद वापस लौटा . वह अपने विभाग से मेरे पास आई ,मेरे सामने बैठ गयी . उसके बाद वो फिर से मुझसे शराब की माँग करने लगी . मैने जानने के लिए काफ़ी ज़ोर दिया तो उसने मुझे बताया की आत्महत्या करने के लिए उसे शराब चाहिए थी . लेकिन उसकी किसी भी बात पर मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था . ख़ैर मैने उसे किसी तरह चलता किया और अपना शक मैने सामने बैठे समाचार संपादक पर ज़ाहिर किया . मैने उससे कहा की ये बात बॉस को बताई जाए . लेकिन उस टाइम यही सोचा गया की थोडि देर और इंतेज़ार करके देखते हैं और इसे वाच करते हैं . वक़्त गुज़रा और मैने अपना काम निपटाया और अख़बार का पेज बनवाना शुरू कर दिया. उस दिन मेरे घर पर पार्टी थी इसलिए मुझे घर जाने की जल्दी भी थी . जल्दी जल्दी पेज बनवाने के बाद जब मैं निकलने लगा तो वह फिर से मेरे पास आई और शराब की ज़िद करने लगी . जब तक मैं उससे कोई और बात करता , मार्केटिंग की हेड ने मुझे बुला लिया और पूछने लगी की प्रॉपर्टी वाले पेज का क्या हुआ ? मैने उसे बताया की बन जाएगा और मैं आज अपनी नौकरी छोड़ रहा हू . मैने उसे ये भी बताया कि प्रियंका को आज अपने घर ले जाओ क्योकि मुझे लग रहा है की आज वो कुछ उल्टा सीधा करेगी लेकिन वो बोली की उससे कोई मतलब नही है , वो सिर्फ़ दफ़्तर मे ही उसे जानती है . इतना सुनने के बाद मुझे विश्वास हो गया की ये लड़की आज कुछ ना कुछ ज़रूर करेगी . मैने बाद मे उसे फ़ोन किया की कही वो कुछ ऐसा वैसा ना कर ले . उसने कभी हाँ तो कभी ना वाले जवाब दिए . रात मे उसने मुझे फिर से फ़ोन किया.

मै अब मरती हू ...३

पहले से आगे ..
ये वो दिन था जब दफ़्तर मे मुझे लेकर काफ़ी सारी भावनाएँ उत्पन्न हुईं . संपादकीय मे मुझे जलन से देखा गया तो मार्केटिंग मे ठीक ठाक़ सा लड़का . इसके बाद तो मेरी पूरे दफ़्तर से ही अच्छी दोस्ती हो गयी . हम लोग अक्सर आपस मे हँसी मज़ाक करते , आख़िर हमेशा काम तो नही ही हो सकता है ना . इसी मज़ाक मे अक्सर वह मुझसे पूछ लेती कि आत्महत्या करने का कोई आसान तरीक़ा मेरे दिमाग़ मे आया कि नही ? और मैं भी इसे मज़ाक समझ कर अक्सर हँस के टाल देता था . एक दिन हम यूँ ही बैठे थे और बस यूँ ही दुनिया जहान क़ी और एक दूसरे के बॉयफ़्रेंड और गर्लफ़्रेंड क़ी बातें कर रहे थे . प्रियंका ने मुझे बताया कि उसकी शादी हो चुकी है . मैं जानता था कि वो शादीशुदा नही है और उसका बॉयफ़्रेंड अक्सर उसे दफ़्तर से थोड़ी दूर पर छोड़ कर चला जाता था . दफ़्तर मे अक्सर लोग मज़ाक भी किया करते थे कि उसने तो करवा चौथ का व्रत भी रखा और चंद्र देव को जल भी चड़ाया . ख़ैर उसने कहा कि एक दिन वो उसको मुझसे मिलवाएगी . उसने मुझसे भी पूछा तो मैने भी उसे अपने बारे मे बताया . दरअसल अब तक हम दोनो अच्छे दोस्त बन चुके थे और जैसे ही टाइम मिलता दोनो काफ़ी सारी बातें एक दूसरे से शेयर करते . लेकिन एक चीज़ जो मुझे अक्सर ख़टकने लगी थी वो ये कि हमारी बात चाहे ज़हाँ से शुरू हो , ख़त्म पता नही कैसे आत्महत्या पर ही होती थी . ख़ैर उस टाइम हमारी बस इतनी ही बात हुई और हम काम मे लग गये . इस बीच मुझे पता चला कि उसे लेकर बॉस किसी होटल मे गये और वही सब किया जो आमतौर पर ऐसे दफ़्तरों मे बॉस लोग करना अपना हक़ समझते हैं बाद एक और ख़बर मिली कि ये सब उसके लिए अपनी नौकरी का ही एक हिस्सा बन गया . वह कमज़ोर होती जा रही थी , उसे अक्सर चक्कर भी आने लगे थे कमज़ोरी की वजह से . इसका ज़िक्र वो अक्सर मुझसे करती थी . लेकिन मैं हँस के टाल देता था . उसका काम भी ठीक से नही चल पा रहा था और इसलिए उसे बॉस की डाँट अक्सर ही सुनने के लिए मिल जाती थी .

मैं अब मरती हूँ ...आखिरी किश्त

चौथे से आगे ...
यह आधी रात का वक़्त रहा होगा और वह इतनी रात को मुझे कभी भी फ़ोन नही करती थी . मैने ये सारी बातें उसी समय बॉस को फ़ोन करके बताईं और यह भी बताया कि वह काफ़ी बहकी बहकी बातें कर रही है . बॉस ने उससे बात की , फिर मुझे वापस फ़ोन किया और कहा कि तुम व्हस्की पीकर बैठे हो तभी तुम्हे ये सारी बातें सूझ रही हैं . ख़ैर दूसरे दिन प्रियंका ने मुझे सवेरे फ़ोन करके बताया कि वह ठीक है . हालाँकि उसने रात मे भी बॉस के फ़ोन के बाद मुझे फ़ोन करके कहा भी था कि मैं ये सारी बातें बॉस को क्यो बताईं . लेकिन मैं अपनी ज़िम्मेदारी से नही बच सकता था . इतना सब हो जाने बाद मैं काफ़ी परेशान हो गया . उस दिन मेरा एक न्यूज़ चेनल मे मेरा इंटरव्यू भी था , सो मैं सबके साथ वहा चला गया . वहाँ हम लोग एक पार्क मे बैठ कर अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे कि तभी उसका फ़ोन आया . उसने मुझे बताया कि वह लक्ष्मी नगर मे है और शराब ख़रीदने जा रही है . मैं समझ गया कि अब ये लड़की कुछ कर के रहेगी . मैने उसे फ़ोन पर बहुत समझाया . इसी बीच उसने बॉस से अपने संबंध होने कि बात क़बूल की . तब तक हमारी बस इतनी ही बात हो पाई . लौटते हुए हम सारे ही लोग इतना ज़्यादा थक गाये थे कि सभी ने अपने अपने फ़ोन साईलेंट मोड़ पर डाले और खाना खाकर सो गये . दूसरे दिन जब मैं सवेरे सोकर उठा तो देखा कि तड़के 4 बजे उसकी 4 मिस काल पड़ी हुई थी . मैने सोचा कि अभी तो वो सो रही होगी इसलिए मैने तुरंत उसे फ़ोन नही किया . तक़रीबन 9 बजे के आसपास मैने उसे फ़ोन किया लेकिन मुझे कोई जवाब नही मिल पा रहा था . मेरा मन किसी अनहोनी की आशंका से कांप उठा . मैने कई बार उसका फ़ोन ट्राई किया लेकिन कोई रिसपोंस नही मिल रहा थ . काफ़ी डरते हुए मैने पता लगाने की कोशिश की तो ये पता चला कि वह हॉस्पिटल मे है . मैं समझ गया , वो जो कह रही थी , उसने कर दिखाया . फिर दूसरे दिन उसका फ़ोन हॉस्पिटल से आया और उसने मुझे बताया कि उसने तक़रीबन 35-40 नींद की गोलियाँ खा लीं थी. उसी के साथ मुझे पता चला कि उसने कई लोगों से उधार भी लिया था . एक बार उसने मुझे बताया भी था कि उसके उपर काफ़ी उधारी भी हो गयी थी . अब उसे इतने ज़्यादा पैसों की ज़रूरत क्यों पड़ती थी यह तो वही जाने लेकिन जो बात मैं जानता हूँ , उसका ख़ुद का ख़र्च 4-5 हज़ार से ज़्यादा नही था . ज़ाहिर है यह पैसे वह किसी को देती थी . शायद उसका बॉयफ़्रेंड .....
गिद्ध उसके शरीर को ही नही बल्कि उसके मन को भी लगातार नोच रहे थे .. और ये ज़िल्लत वह बर्दाश्त नही कर पाई , मुझे भी उसके बच जाने का दुख हुआ ..काश वो मर ही गयी होती .. हालाँकि अब भी उसके फ़ोन आते हैं और मैं हर बार उससे वादा लेता हूँ कि अब वो दफ़्तर कभी नही जाएगी .. कम से कम बॉस से तो कभी नही मिलेगी ...
एक बार उसने मुझे बड़ी ही मासूमियत से पूछा कि क्यो ना वो बॉस से मिले तो मैने कहा कि तू ख़ूब जानती है कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हू...तब उसने हामी भरी कि
...हाँ ...मैं जानती हूँ कि तू क्यों ऐसा कह रहा है ...
और अंत में ...
आजकल वह कुछ ख़ुश दिखाई देती है ..कहती है कि उसने ग़लत किया .. उसके घर वाले उसे बहुत प्यार करते हैं ..लेकिन मैं जानता हूँ और हर बार उससे बात करने वक़्त महसूस करता हूँ .. कि वो ...वो अब नही रही ..
समाप्त

हिंदू होने के फायदे


मिलेट्री वाले मैदान मे पतंगो की बाजी हो रही थी । जबरदस्त । एक से एक पतंगबाज पता नही कहॉ कहॉ से आये हुए थे। इसी बीच मांझा लूटने वालों मे भी जबरदस्त बाजी हो रही थी कि कौन ज्यादा से ज्यादा लूट ले जाये। मैं, पतारू,कल्लू, घम्मड़,तबरेज़ ,अगम और पिंटू अपनी तेज़ नजर से मंझे का उतार चढ़ाव देख रहे थे। कल्लू और पतारू ने अब तक सबसे ज्यादा मंझा लूट लिया था। कल्लू मैदान से एकदम सटी हुई झोपडियों में रहता था जिसे हम लोग तकिया कहते थे क्योंकि सारे मुसलमान वही रहते थे । कल्लू अक्सर मंझा लूटता रहता था। पतारू भी उसी के साथ रहता था। इसलिये उसके पास भी ज्यादा मंझा था। पतारू और कल्लू स्कूल नही जाते थे । पतारू का तो स्कूल मे नाम लिखा था लेकिन कल्लू का नही। घम्मड़ और तबरेज़ का नाम भी स्कूल मे नही लिखा था। ये भी एक कारण था उनके ज्यादा मंझे लूटने का। मैं बड़ा निराश। मेरे पास बस ३ तिकल्ला मंझा और २ तिकल्ले सद्दी ही हो पायी थी। मैंने पतारू से कहा कि कुछ मुझे भी दे दे लेकिन उसने मना कर दिया। कल्लू से कहा तो उसने काफी ना नुकुर करते हुए आख़िर मुझे १ बड़ा तिकल्ला लाल वाला मंझा दे दिया। मैं बड़ा खुश। सीना फुलाते घर पंहुचा। घर पर अली हुसैन की अम्मा और मेरी अम्मा सर जोडे बैठी हुई थी। अली हुसैन भी उसी झोपड़ी मे रहता था जिसमे कल्लू रहता था। दरअसल अली हुसैन कल्लू का चाचा था। उन्हें फुसफुसाते देख मैंने बाबू से पूछा कि क्या बात है ? उन्होने ने बताया कि अली के अब्बा और अम्मी हज जाने वाले हैं। पूरा मुहल्ला पैसा देगा । चन्दा इकट्ठा होगा तब ये लोग जायेंगे । मैंने पूछा क्यों ? क्या इनके पास पैसा नही है ? तो बाबु ने बताया कि ये लोग बहुत गरीब हैं। अली अभी कुछ खास काम करता नही और अली के बडे भाई ने अभी अभी तो दर्जी का काम शुरू किया है। मैंने कहा, अच्छा , तभी कल्लू , तबरेज़ और घम्मड़ स्कूल नही जाते । मैंने देखा, अम्मा ने अली की अम्मा को पचास रुपये दिए। मैंने फिर बाबु से पूछा कि हज का किराया कितना होगा ? बाबू ने बताया, यही कोई १५- २० हज़ार रुपये। मैंने उनसे पूछा कि फिर ये लोग कैसे जायेंगे? बाबू ने कहा कि होगा कोई जुगाड़ । और जब उसके घर से बुलावा आता है तो आदमी किसी ना किसी तरह से जुगाड़ कर ही लेता है । मुझे नही समझ मे आया। मैंने फिर पूछा , कैसे? बाबू ने बताया , इन्हें मुसलमान होने के नाते हज जाने कि और भगवान कि पूजा करने मे छूट मिल जाती है । वहीँ से कोई जुगाड़ करेंगी अली हुसैन की अम्मा। मैंने कहा कि हम लोग तो हिंदु हैं । हमे कोई ऎसी छूट क्यों नही मिलती ? बाबु ने बताया कि मिलती है , लेकिन वो अलग तरीके से मिलती है । तभी तो देखो , अयोध्या मे इतने लोग मजे लूट रहे हैं । इनमे सरकारी भी होती है और ग़ैर सरकारी भी । सरकारी ऐसे , कि हर साल हमारे देश से जितने भी लोग हज जाते हैं , उससे कहीँ ज्यादा खर्च हमारी सरकार का होता है हमारे मंदिरों कि सुरक्षा मे। जैसे अगर कुम्भ हो तो उसमे बहुत साड़ी गाडियां चलायी जाती हैं जिसमे शायद ही कोई टिकट लेकर चलता हो , या फिर जैसे अपनी अयोध्या में राम नवमी का मेला लगता है , उसमे सुरक्षा के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च कर दिए जाते हैं । और जन्म भूमि को ही देख लो। सरकार के पास बजट नही है लेकिन महीने का पता नही कितना करोड़ रुपये सिर्फ उन जवानों को तनख्वाह देने मे ही खर्च हो जाता है जो उसके आस पास मटर गश्ती करते रहते हैं ।
जारी है .....

नमस्ते सदा वत्सले

हिंदू होने के फ़ायदे - २

थोड़ी देर बाद अली हुसैन की अम्मा चली गयीं। बाहर निकल कर देखा तो वो अनिल की अम्मा के चबूतरे पर बैठी हुई थीं। वहां गया तो उनकी पंचायत चल रही थी। अब सोचता हूँ तो हंसी आती है कि दुनिया का सबसे बड़ा झूठ यही हो सकता है कि दो औरतें एक कमरे में चुप बैठी थीं। मैं वहाँ पंहुचा और एक सोहर (जो हमारे यहाँ बच्चा होने पर गाया जता है ) गाने लगा। " नीम्बू ना खायू , इमलिया ना खायू , कवन फल खाए रहू भौजी , ललन बड़ा सुन्दर हो "। इतना सुनना था कि पीछे से मेरी अम्मा , सामने से अनिल और अली हुसैन की अम्मा ने मुझे मारने के लिए दौडा लिया। मैं थोड़ी दूर भागा फिर पीछे मुड़कर देखा तो तीनों हँस रही थीं। अनिल की अम्मा मेरी अम्मा से कह रही थी कि तोहार लड़का तो बहुत पाजी है।

थोड़ी देर बाद घर वापस आया। खाना खाया और बाबू के पेट पर तबला बजाने लगा । तब तक संजू और अप्पू क्रिकेट खेलने के लिए बुलाने आ गए। क्रिकेट हम लोग शाखा वाले मैदान में खेलते थे। कल्लू कभी कभी वहाँ हम लोगों के साथ शाम को क्रिकेट खेलने आ जता था । लेकिन जैसे ही वह टंडन जी को या खाकी हाफ पैंट पहने कुछ लोगों को देखता, तुरंत वहाँ से सरक लेता था। हालांकि तबरेज़ और घम्मड़ को मैंने कई बार उसी मैदान मे कबड्डी और फुटबाल खेलते देखता था लेकिन तब मेरी हिम्मत नही होती थी। मेरा स्कूल बारह बजे के आस पास छूटता था और तब काफी तेज़ धूप रहती थी। शाखा वाले मैदान मे तब कोई भी नही रहता था और तकिया के सारे बच्चे आकर या तो वहाँ पतंग उड़ाते या कबड्डी खेलते या फिर फुटबाल खेलते। लेकिन शाखा के बगल मे रहने वाले टंडन जी अगर उन्हें वहाँ खेलते देखते तो अपना वही डंडा जिसे लेकर वह रोज़ सवेरे टहलने जाते और लौटकर अपनी बगल मे दबाकर शाखा लगाते और नमस्ते सदा वत्सले गाते , उसे लेकर इन सारे बच्चों को दौडा लेते। इन सबको भागते देख मैं भी डर के मारे भागता । हालांकि मैं मैदान के बगल से गुजरने वाली सड़क पर चल रहा होता लेकिन भीड़ को भागते देख मैं भी उसके साथ हो लेता और हम लोग हो हो करते अपनी गली मे पहुचते । शाम को जब मैं बाबू को बताता कि टंडन जी ने दौड़ाया था तो बाबू हँसते। बोलते , तुम क्यों डरते हो ? तुम्हे वो कुछ नही बोलेंगे। वो तो सिर्फ तकिया वाले मुसलमानो के बच्चों को भगाने के लिए डांटते होंगे। मैं कहता , लेकिन वो तो मेरे दोस्त हैं। तो बाबू कहते , ऐसा तुम समझते हो ना। लेकिन टंडन जी ऐसा नही सोचते।
( जारी ....)

वो तो मुसलमान है !

हिंदू होने के फायदे - ३



बहरहाल जब मैं, संजू, अप्पू,और कल्लू शाखा वाले मैदान में पहुचे तो वहाँ पर तबरेज़ और गुड्डू पहले से ही मौजूद थे। थोड़ी देर में अगम और पतारू भी गए। अब हम लोगों की गहन मंत्रणा शुरू हो गयी। अगले दिन अयोध्या में पंचकोसी परिक्रमा थी। इस परिक्रमा का हम लड़कों मे काफी क्रेज था। हम लोग इसमे आगे चलती लड़कियों को ठुद्दे मारते चलते। परिक्रमा का नाम सुनकर घम्मड़ पहले ही अलग हो गया। कहने लगा कि तुम लोग सरयू मे जरूर नहाओगे और अगर किसी को पता चल गया कि मैं कौन हूँ , तो बड़ा बवाल हो जाएगा। लेकिन कल्लू और तबरेज़ से गहरी यारी थी सो हम लोगों ने उन्हें साथ मे चलने के लिए राजी कर लिया । ड्म्पू के घर में तब एक किरायेदार रहते थे और उनकी छोटी वाली लडकी मुझे अच्छी लगती। मैं अक्सर अगम की दुकान पर बैठकर उसे देखा करता। वह भी परिक्रमा करने जा रही थी और इसकी सूचना मुझे अपने गुप्त स्रोतों से पहले ही मिल चुकी थी । बहरहाल शाम को इस निर्णय पर सभा विसर्जित हुई कि पतारू और मैं सवेरे चार बजे तक उठकर पांच बजे तक सबको इकट्ठा करेंगे और कल्लू तबरेज़ और संजू को जगाते हुए अगम की दुकान के सामने सवेरे पांच बजे तक पहुंच जाएगा।


रात मे खाना खाने के बाद मैं अगम की दुकान के सामने आकर खड़ा था। थोड़ी देर मे पतारू और कल्लू वहाँ पंहुचे। अब वहाँ पर हम चार यार थे और ड्म्पू के घर वाली लडकी के कारण मैं ज्यादा लोगों को अपने साथ नही ले जाना चाहता था। मैंने ये समस्या पतारू के सामने रख्खी तो उसने बाक़ी दो को राजी कर लिया। अब तय हुआ कि कल हम चार लोग ही परिक्रमा करने जायेंगे । यानी कि मैं , पतारू , कल्लू और अगम। सवेरे मैं तब सोकर उठा जब कल्लू और पतारू धीमे धीमे मेरे गेट पर मुझे आवाज़ दे रहे थे। बिस्तर से निकल कर पिछले कमरे मे गया तो देखा बाबू और अम्मा दोनो ही परिक्रमा जाने के लिए तैयार हो गए थे। उन्होने मुझसे अपने साथ चलने के लिए पूछा तो मैंने कहा कि मैं कल्लू और पतारू के साथ जाऊंगा। अचानक अम्मा भड़क गयीं। कहने लगीं कि कल्लू परिक्रमा करने क्यों जा रहा है ? वो तो मुसलमान है । तब बाबू ने उन्हें चुप कराया। बोले इनको यह परिक्रमा करना अच्छा लगता है और कल्लू वैसे भी हमेशा साथ मे ही रहता है। अगर ये अपने दोस्तो के साथ जाना चाहता है तो जाने क्यों नही देती ? और फिर मुझे दस रुपये दिए और बोले कि जाओ। मौज करो।
(जारी ....)

ज्यादा शरारतें मत करना ...

हिंदू होने के फ़ायदे-4

बाहर निकला तो तीनो खडे हुए थे। सबकी जेबों का हिसाब किया गया तो कुल मिलाकर ३२ रुपये बने। आठ रुपये हमने आने जाने के लिए रख लिए क्योंकि जालापानाला , जहाँ से परिक्रमा शुरू होती थी, वहाँ तक टेंपो से जाना पड़ता था। तब तक हल्का हल्का उजाला फैलने लगा था। हम लोग पैदल चलते हुए नियावां चौराहे तक पंहुचे,टेंपो पकडा और जालापानाला की तरफ बढ़े। लेकिन उसके एक किलोमीटर पहले बेनीगंज मे ही हमे उतरना पड़ा। वहाँ काफी सारी पुलिस थी । उन लोगों ने आगे का रास्ता बंद किया हुआ था और अगर कोई गलती से भी गाड़ी लेकर उस चौराहे को पार करने की कोशिश भी करता, तो सबसे पहले उसका स्वागत माँ-बहन की गालियों से होता और फिर लगे हाथ वो पुलिस वाले उस बेचारे पर हाथ भी साफ कर लेते। हमारा टेंपो वाला भी पिटा जबकि वह बेनीगंज के मोड़ वाली मस्जिद पर ही हमें उतार रहा था। इतनी ढ़ेर सारी पुलिस देखकर हम चारों डर गए। मस्जिद के पीछे वाली गली पकड़ी और गली गली होते हुए बेनीगंज के आगे वाली मस्जिद पर जाकर निकले। वहाँ से पांच मिनट के अन्दर हम लोग जालापानाला के चौराहे पर खडे थे।
इसी चौराहे से परिक्रमा शुरू होती थी और तकरीबन उन्नीस किलोमीटर चलने के बाद इसी पर खतम भी। चौराहे के एक तरफ जालपा देवी का मंदिर था और दूसरी तरफ मस्जिद और एक कब्रिस्तान। इस कब्रिस्तान में बारावाफात में बहुत बड़ा मेला लगता। ठीक वैसा ही जैसा परिक्रमा वाले दिन लगता था। खैर... हम सबका ध्यान अलग अलग जगहों पर लगा हुआ था। मैं डम्पू के घर वाली लडकी को खोजने की कोशिश कर रहा था , पतारू देख रहा था कि कब्रिस्तान के बगल वाले बाग़ मे शलीफे बहुत लगे हुए थे। कल्लू को चप्पलों की चिन्ता थी क्योंकि परिक्रमा तो नंगे पैर करनी थी और अगम अपने लिए कोई लडकी तलाश रह था जिसके पीछे चलते हुए वह उसके पैरों में ठुद्दे मारते हुआ चल सके। खैर... चप्पलों की समस्या का हल कल्लू ने खोज निकाला। मस्जिद में उसका कोई जानने वाला था। सो हमने अपने चप्पल मस्जिद मे सुरक्षित रखवा दिए। वहाँ के इमाम ने हमें ठीक से परिक्रमा करने की हिदायत दीं और कहा कि ज्यादा शरारतें मत करना। उस दिन वो परिक्रमा जाने वालों की सेवा के लिए लगाए गए पंडाल में खडे थे।
( जारी ... )

श्री राम चंद्र कृपालु भज मन...

हिंदू होने के फ़ायदे - ५


वहाँ से निकले तो हम चारों सीधे बाग़ की तरफ लपके। बाग़ के चारों तरफ उँची दीवार बनी हुई थी। सो कल्लू ने पहले पतारू को अपने कंधे पे रखकर दीवार कुदाई फिर मुझे। अगम और कल्लू बाहर ही खडे रहे क्योंकि हमें शलीफे तोड़कर बहार फेंकने थे और बहार सारे शलीफे वो दोनो इकट्ठा कर रहे थे। हमने ख़ूब शलीफे तोड़े। बाहर से जब कल्लू ने आवाज़ लगाईं कि झोला और जेब दोनो भर गए हैं , तब जाकर हम लोग बाहर निकले। अरे हाँ ... जब हम लोग दीवार फांद रहे थे तो मुझे वही डम्पू के घर वाली लडकी दिखी। मुझमे जोश आ गया। दोनो लोगों ने जल्दी से दीवार फांदी और इस पार आये। देखा तो सिर्फ कल्लू था और अगम ग़ायब हो चुका था। कल्लू से पूछा कि कहॉ गया? उसने बताया , उसे कोई दिख गयी थी , उसी के पीछे गया है। बोल रहा था कि पहले वाले घाट पे मिलगा। तब तक डम्पू के घर वाली लडकी परिक्रमा मे शामिल हो चुकी थी । हम तीनो भी पीछे पीछे लपके। पतारू कह रहा था कि तू उसे नही पटा पायेगा और कल्लू का विचार था कि पटा लेगा। यही सारी बातें करते हुए हम लोग आगे बढ रहे थे।


तकरीबन तीन - चार किलोमीटर का रास्ता तय करने के बाद रास्ता काफी संकरा हो जता था और भीड़ एक दम से इकट्ठी होकर एक दूसरे से सट जाती थी। सबको बहुत ही धीमे धीमे चलना पड़ता था उस टाइम। हम तीनो भी एक दूसरे का हाथ पकड़कर भीड़ के साथ चल रहे थे। लेकिन इस तंग भीड़ में हमे काफी कुछ दिखाई दे रहा था। अचानक एक चीज़ पे मेरा ध्यान गया और मैंने कल्लू और पतारू का ध्यान उसी ओर आकर्षित किया। ये कोई गाँव की औरत थी जो हमारी तरह उस भीड़ में फंसी हुई थी। एक अधेड़ उम्र का बाबा जिसने केसरिया रंग का लबादा पहना हुआ था और माथे पे ढ़ेर सारा चंदन लगा हुआ था, कभी उस औरत के पुठ्ठों पर हाथ फेरता तो कभी उसके सीने को अपनी कोहनी से टटोलता। मजे की बात तो ये कि उसका चेहरा एकदम सामान्य था और वो कुछ भजन वगैरह गा रहा था। उसके भजन मे हमे सिर्फ राम ही सुनाई दे रहा था लेकिन रामायण पूरी दिखाई दे रही थी। अचानक उस बाबा ने उस औरत के पुठ्ठों पर कुछ किया तो वह औरत बड़ी जोर से चिहुंकी। बाबा के मुँह से और जोर से राम राम निकला और इस बार तो हमे उनका भजन भी सुनाई पड़ा। वह गा रहा था , " श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भव भय दारुड़्म।" जैसे कि अभी रामचंद्र जी महाराज आएंगे और उस औरत का भय और दारुण हर लेंगे। हम लोगों को हंसी छूट गयी तो बाबा थोडा शरमाये, जोर से खंखारे और आगे बढ लिए। तभी हमे अगम दिखा। वो भी वही सब करने की कोशिश कर रहा था जो अभी अभी बाबा जी महाराज करके आगे निकल लिए थे पतली गली से। लेकिन बेचारे के साथ बड़ी टरेजिडी थी। उसका हाथ तो पुठ्ठे तक जा रहा था लेकिन उसे छूने की उसकी हिम्मत ही नही पड़ रही थी। हम लोगों ने उसे आवाज़ लगाईं लेकिन वह हमारे पास ही नही आया।
(जारी...)

Thursday, April 5, 2007

मुलायम मेरी ब्लोग्शाला हैं

मुलायम , मुलायम , मुलायम . आजकल काफ़ी सारे ब्लॉग मुलायममय नज़र आ रहे हैं . क्या बात है ?? कही मुलायम मेरी ब्लोग्गिंग की गारंटी तो नही ? या फिर मुलायम मेरी ब्लोगशाला हैं ? मुझे तो लगता है कि मुलायम ने ब्लॉगर्स को भी अपने चुनावी प्रचार के रंग मे रंग लिया है ..कहीं कुछ पैसों वैसों का चक्कर तो नही ? अरे भैया !! मुलायम मुलायम्म करने से भी सारी चीज़े मुलायम ही हो जाती हैं , फिर चाहे आप पक्ष मे करिये या विपक्ष में . सो अपन ने तो तय कर लिया है कि भले ही अपन कोई भी पोस्टिंग ना करें , लेकिन मुलायम के बारे मे नही लिखेंगे . कम से कम मुलायम मेरी ब्लोगशाला तो नही . इसके साथ ही मुझे लगता है कि अमर सिंह ने अभिव्यक्ति के इस माध्यम पर भी जनसत्ता की तरह क़ब्ज़ा कर लिया है . सब कुछ मुलायम मय हो गया है . सब मुलायम राग गा रहे हैं .. अम्ब्रीश भाई , कहॉ हैं आप ??