Sunday, December 7, 2008

क्या हिंदू और क्या मुसलमान

hइंदु होने के फायदे- १०

अम्मा से दस रुपये लेकर मैंने पतारू का हाथ थामा और बढ़ लिया। अब हम लोगों की निगाह मे दो टारगेट थे। एक तो वो लड़की जो नदी मे नहा रही थी और दूसरी वो लड़की जो डम्पू के घर मे रहने आई थी। हमें पता था कि वो अपने पापा के साथ आई है और हम लोगों ने उसे बाग़ की दिवार फांदने से पहले देखा भी था। हमें नदी मे नहाने वाली लड़की नही दिखी। दरअसल सरयू पार करने के बाद परिक्रमा के दूसरे हिस्से मे रास्ता काफ़ी चौडा हो जाता है। इसलिए भीड़ भी तितर बितर हो जाती है। अब न तो हम लोग बदमाशी कर सकते थे और न ही कोई और। मजबूरन हमें सीधे सीधे चलना पड़ रहा था। खैर, लम्बी गहरी साँस लेकर मैंने पतारू और कल्लू ने एक साथ परिक्रमा पूरी कि। लेकिन अभी तो बधाइयों का सिलसिला चलना था। ये बधाइयाँ कुछ हैप्पी न्यू इयर के अंदाज़ मे दी जाती थी। जाल्पानाला से अमानीगंज तक हम लोग लड़कियों को बधाइयां देते हुए आए। घर पहुचे तो अम्मा और बाबू , जो हमसे पीछे पता नही कहाँ थे, पहले से ही पहुचे हुए थे। मम्मी परात मे नमक मिला गर्म पानी ले आई थी और बाबू और अम्मा उसमे अपना पैर सेंक रहे थे। मैंने बाबू को बताया कि मैंने पतारू और कल्लू ने कितना मजा लिया। फ़िर क्या था। अम्मा सुलग उठीं। उन्होंने पुछा, कल्लू काव करय गवा रहा तू लोगन की साथे ? ऊ तौ मुसलमान हुवे । मैं चुप। टुकुर टुकुर बाबू का मुह देख रहा था। शायद वो कोई जवाब देन। खैर बाबू खंखारे, और अम्मा से बोले, अब छोटे बच्चों मे क्या हिंदू और क्या मुसलमान। खाने खेलने की उम्र है इन लोगों की। और वैसे भी ये लोग हमेशा साथ मे ही रहते हैं। और तुम कल्लू को लेकर इसे बोल रही हो, तुम भी तो अली हुसैन की अम्मा के साथ सर से सर जोड़कर बतियाती रहती हो। तब नही याद आता कि क्या हिंदू और क्या मुसलमान?

Sunday, November 30, 2008

सवाल दस रुपये का

हिंदू होने के फायदे - ९

राम की पैडी पर जब हम लोग समोसे खा रहे थे, तब मुझे याद आया की अम्मा ने तो सिर्फ़ दस रुपये ही दिए हैं। वो सारे तो वही ख़त्म हो गए। अब क्या करें। बड़ी मुसीबत। आगे आने वाले रास्ते पर एक अजीब तरह का ताना बिकता था। बेचने वालों का कहना था कि उसे भगवान् राम ने अपने वनवास के टाइम पर खाया था, और अक्सर खाते रहते थे। बहरहाल मुझे वो खाना अच्छा लगता था। उसका अजीब सा कसैला और मीठा स्वाद मुझे अभी तक याद है। यही सोच ही रहा था कि पतारू के बड़े भाई प्रेम परकास नजर आए। प्रेम ने बताया कि अम्मा बाबू और चचेरे मामा की चोटी बेटी अभी अभी आगे गए हैं। बड़ी हद चोटी छावनी तक पहुचे होंगे फ़िर क्या था। मैंने और पतारू ने वही से दौड़ लगनी शुरू की। परिक्रमा मे दौड़ लगानी काफ़ी मुश्किल होती है। हजरून लोगों की एक ही तरफ़ चलती भीड़ मे हमें दौड़ना था। और इतनी तेज़ कि आने वाले दस पन्द्रह मिनट मे अम्मा को पकड़ लिया जाय नही तो वो मिलने वाली ही नही थीं। आख़िर दस रुपये का सवाल जो था। ये तो पहले से ही पता था कि अम्मा वो लाल वाला गन्ना तो खरीदेंगी ही। सो लाल वाले गन्ने की चिंता नही थी। मैंने और पतारू ने एक दूसरे का हाथ पकड़ा और दौड़ना शुरू कर दिया। आख़िर मे चोटी छावनी के पास जहा मन्दिर के लिए पत्थर काटे जा रहे थे, वहां पर हमें आमा और बाबू दिख गए। चैन मिला। लम्बी साँस ली और पहुचे अम्मा के पास। खैर अम्मा ने डपटा नही और चुपचाप दस रुपये दे दिए। मैं भी सोच रहा था कि अभी कितनी चिरोरी करनी पड़ेगी।

जारी ....

देर से आने वालों के लिए पूरी कहानी यहाँ पढ़ें .... हिंदू होने के फायदे

Saturday, November 29, 2008

रंग दे बसंती

मुंबई कांड से मुझे फ़िल्म रंग दे बसंती याद आ रही है। दिखने मे तो वो एकदम नौजवान ही तो थे। एक की तो फोटो, जो अखबार मे छापी है, उससे तो वो एकदम आमिर खान की तरह लग रहा है। बताते हैं की योजना किसी और की थी, और इसे कार्यान्वित दाउद किया था। दाउद पहले ही अलकायदा से मिल चुका है और उसके साथ काम भी कर चुका है। और समुद्र से मुंबई मे घुसने की इन लड़कों की जो स्टाइल थी, वो पूरी तरह से मुम्बैया दाउद स्टाइल ही थी। बड़े आराम से इनलोगों ने मोटर बोट पकड़ी, ज्यादा पैसे नही चाहिए थे क्योंकि सब कुछ का पहले से ही इंतजाम था। और होटल ताज मे , ऐसी स्थिति मे हथियार अन्दर पहुचाना कोई मुश्किल भी नही था। लेकिन फ़िर से इन लड़कों की रंग दे बसंती स्टाइल मे ये सब करना मुझे हजम नही हो रहा है। दरअसल कसूर इन लड़कों का नही है, कसूर तो उन लोगों का है जिन्होंने इन लड़कों को इस तरह से भड़काया की ये लोग अपनी मौत के लिए भी तैयार हो गए। इन्हे पता था की ये नही बचेंगे। लादेन ऐसे ही लड़कों को तैयार करता है। अगर ये लड़के पकिस्तान के भी थे, तो पढ़े लिखे सभ्य घर के लगने वाले .... अब तो ये बात पकिस्तान को भी समझ लेनी चाहिए की उसकी कौन सी नस्ल अब आतंकवाद का शिकार हो रही है। ये खतरे की घंटी है, सचमुच। मेरे तो रोंगटे ही खड़े हो जाते हैं ये सोच कर के दक्षिण एशिया के एक हिस्से मे कौन सी नस्ल बन्दूक की लडाई मे हिस्सा ले रही है। नोट करें, लादेन और उसके कई साथियों ने मिलकर इस्लामिक आतंकवाद के नाम पर ऐसे ही लड़कों की एक बड़ी फौज तैयार की है, और जो सबसे चिंता की बात है की उसमे पढ़े लिखे लोगों की संख्या काफ़ी ज्यादा है। ये मुगालते मे ना रहें के बन्दूक से निकला जहर हमारे देश मे नुक्सान नही करेगा , बिल्कुल करेगा और यहाँ भी नई उम्र के लड़के अपराध और बन्दूक की लडाई मे ही हिस्सा ले रहे हैं। यानि की नुक्सान होना शुरू हो गया है, मेरे ख्याल से मुंबई तो एक टेलर है, अभी तो इन लोगों से कायदे से जंग की शुरुआत की है। अमिताभ ने अच्छा किया जो तकिये के नीचे रिवाल्वेर रख कर सोये ।
जिसे हम आतंकवाद का नाम देते हैं, उसे ये लोग जंग का नाम देते हैं. चाहे इस्लामिक आतंकवाद हो या फ़िर हिंदू आतंकवाद.... नही, इसे हिंदू आतंकवाद न कह कर मेरे ख्याल से हिंदुत्व आतंकवाद कहना चाहिए। क्योंकि जो लोग जिन तरीकों से मुसलमान लड़कों को बरगलाते हैं, वैसे ही हिंदुत्व के आतंकवादी हिंदू होने के नाम पर फिदायीन दस्ते तैयार कर रहे हैं। कुल मिलकर जंग शुरू हो गई है, अमिताभी ने भी इशारा कर दिया है। अपनी सुरक्षा अपने हाथ। क्योंकि अब आप भी , भले ही उस दस्ते से सम्बन्ध नही रखते, तो भी , मारे जा सकते हैं। देखतें हैं की सी बार गाजिआबाद मे कितने नए हथियारों का रजिस्ट्रेशन होता है....

Thursday, October 23, 2008

एक मुलाकात वापस

गुफरान मेरे बचपन के दोस्त हैं लेकिन इनके लिखने की क्षमता का मुझे काफ़ी बाद मे पता लगा। ये तो खैर उनकी एक कविता है जो मुझे अपने पुराने दिनों मे वापस लेकर जाती है, लेकिन अपने ब्लॉग http://awadhvasi.blogspot.com/ पर गुफरान ने अपनी कलम के काफ़ी रंग बिखेरे हैं...

याद आता है वो फैजाबाद
वो चौक का शमां, वो परम् की चाट
वो पार्लर की आइसक्रीम उसमें थी कुछ बात
वो मधुर की मिठाई वो बंजारा का डोसा
वो जलेबी के साथ जाएके का समोसा
वो बाइक का सफर वो कम्पनी गार्डेन की हवा
वो गुलाबबाडी की रौनक वो बजाजा का शमां
वो जीआइसी में मैच हारने पर झगडा
वो न जाना क्लास मैं कभी और रहना पढाई से दूर
याद आता है वो फैजाबाद
वो जनवरी की कड़ाके की सर्दी ,वो बारिशों के महीने...

Friday, August 22, 2008

कैसा सच और कैसी जीत

एन डी टी वी के स्टिंग ऑपरेशन पर कोर्ट ने दो वकीलों पर जुरमाना लगाया, चार महीने तक उनकी प्रैक्टिस पर रोक लगा डी और चैनल ने इसे सच की जीत कहा, अपने रिपोर्टर की पीठ थपथपाई । वैसे रिपोर्टर के काम का असली फल होता भी यही है की उसके काम का कुछ तो नतीजा निकले। लेकिन इस पूरे मामले को सच की जीत कहना एक अदना से मामले को कुछ ज्यादा ही बढ़ा चढा का कहना लगता है। एसा लगने के अपने कारण है और इनकी अपनी एक कड़वी जमीनी हकीकत भी है। हमारे यहाँ , जहाँ तक मेरी समझ है, कोर्ट मे सिविल के मामले फौजदारी से कही ज्यादा होते हैं। हो सकता है कुछ एक ख़ास परिस्थितियों मे फौजदारी के मामले ज्यादा हो जाए, लेकिन ज्यादा होते सिविल के ही हैं। ये वही मामले होते हैं जिनमे या तो खेत की मेड काट ली जाती है, चकबंदी मे ग़लत नपाई हो जाती है, किसी के बाग़ के आम के पेड़ की कोई टहनी कोई काट ले जाता है तो कोई तालाब के किसी हिस्से पर जबरन कब्जा कर लेता है। या फ़िर इसी तरह के दर्जनों, सैकडों और हजारों मामले। छह महीने की फसल बोने के बाद किसान अपना खाली वक्त कचहरी मे गुजारना पसंद करता है जिसके लिए उसे एक मुकदमा चाहिए होता है। और मुकदमा लड़ने के लिए एक वकील। मुकदमा तो खेत का पानी कटा लेने से ही शुरू हो जाता हैलेकिन वकील अपनी सेटिंग की काबलियत से तय किया जाता है। कचहरी वकीलों की भेड़ मंडी होती है। मुकदमा करने वाले को इससे कोई मतलब नही होता है की वकील कितना पढ़ा लिखा है या फ़िर कितना जानकार है। उसे तो बस इस बात से मतलब है की वकील की कितने जजों से सेटिंग है , वह कितने जजों को पैसा पहुचता है और इसी दम पर वह कितने फैसले करवा ले जाता है । और सच मे, मैं माफ़ी के साथ नाम लेना चाहूँगा, मश हूर वकील चाहे वो प्रशांत जी हो या जेठमलानी जी, बगैर मिडिया और जज को बताये लोअर कोर्ट मे पहुच जाएँ , भले ही क़ानून के हिसाब से फैसला उनके पक्ष मे होता हो, लेकिन फ़ैसला करवा के दिखा देन तब तो मना जाएगा की सच की जीत हुई। लेकिन ऐसा होगा नही। क्यों ? क्योंकि वकील साहब ने जज को चढावा नही चढाया, मुंशी की मुठ्ठी मे दो चार बार बीस का नोट नही दिया। वी ओ आई के आर के सिंह ने अभी हाल मे ही एक इंटर व्यू मे कहा था की मिडिया ख़ुद की नही, ये जनता की है। जज भी ख़ुद के नही है हैं, ये जनता के हैं, जनता के लिए हैं, ऐसा मेरे मानना है। तो फ़िर अगर वकीलों पर स्टिंग हो सकता है तो इन जजों पर क्यों नही। शर्त लगा लीजिये, आधे से ज्यादा जज पैसे लेते हुए दिखाई देंगे। सच की जीत दिखाते हुए मिलेंगे।

Tuesday, June 17, 2008

कहीं मेरा नाम ...

क्या होते होंगे अनगढ़ कविता के मायने? क्या वो अपना संवाद नही कर पाती होगी? लेकिन क्या किसी कविता का संवाद करना इतना जरूरी है? आख़िर निकलती है वो ख़ुद से, किसी से संवाद करने की खातिर तो नही ही। बहरहाल, चुप से पड़े लोगों की खातिर ये कविता...

सिगरेट के धुंए से
फुसफुसाती हुई
शराब के एक घूँट से
चीरती हुई
हवा के झोंके मे से
धूल को काटती हुई
चिपचिपाते पसीने से
कभी कभी
निकलती है
एक कविता,
चित्र से, नाटक से, कविता से
निकलते अहसास
बिकते अहसास
और....
मजबूरियां,
क्या कहीं मेरा नाम तो नही लेतीं ?

Sunday, June 1, 2008

जूता

इंसान ने पहली बार कब जूता पहना होगा? जूता भी पहना होगा या वो सिर्फ़ चप्पल ही रही होगी। जाहिर सी बात है कि मोहल्ले के शिव परसाद जैसी हवाई चप्पल पहनते हैं , वैसी तो नही ही रही होगी। बहरहाल कब बनी होगी पहली चप्पल और किसने पहना होगा पहला जूता। बात अगर आदि काल से शुरू करते हैं । सबसे बड़े चप्पल घीसू तो नारद ही रहे होंगे। लेकिन एक बात समझ मे नही आती कि भगवानो मे चप्पल का कांसेप्ट कहाँ से आया। वो जमीन पर तो चलते नही थे, स्वर्ग मे रहते थे, कोई कमल पर बैठा हुआ तो कोई सांप पर पसरा हुआ। किसी को ज्यादा चढ़ गई तो बैल और भैंसे की सवारी करने लगा। फ़िर ये ससुरा चप्पल का कांसेप्ट आया कहा से । वैसे एक बार सपने मे किसी द्रविड़ नाम के भगवान् ने फूंक मारी थी के चप्पल तो पेड़ों की छाल रही होगी, लेकिन भइया, उसे पहनकर दौड़ते कैसे होंगे। मान लो दौड़ भी लेते होंगा, उसे निकालकर मारते कैसे होंगे। उस जमाने मे सैंडिल भी तो नही होते थे, तो क्या मान लिया जाय कि छेड़छाड़ की घटनाएं भी नही होती थी? लेकिन सवाल फ़िर से अपनी जगह पर कायम है, ससुरा जूता आया तो आया कहाँ से? अभी उस दिन नगर निगम मे घूम रहा था, दीवार पर जूते जैसे कुछ पुता देख तो दीवाल के बगल बैठने वाले से पूछा , कि भइया , ये कौन साहब है जिन्होंने जूते को इतनी शान से लगा रखा है, पता चला बड़े बवाली आदमी है, राष्ट्रिय जूता पार्टी बना ली है और अब आए दिन शहर मे जूता घुमाया करते हैं। बहरहाल सवाल उनसे भी मेरा यही था कि भइया, जूता आया कहाँ से ? जवाब उनके पास मिला, उन्होंने ने पूरा जूते का अर्थशास्त्र समझाया। दस रुपये किलो मे दो माला बन जाती है, जूता मिलता है कबाड़ी के यहाँ, दो माला मे तकरीबन दस एक हज़ार रुपये की कमाई हो जाती है, महीने मे दो चार किलो जूते आ ही जाते हैं। क्या जब जूते ने जन्म लिया होगा तो उसे अपने इस अर्थशास्त्र के बारे मे पता होगा ?

Tuesday, May 6, 2008

रास्ता और घर

ये पुरानी है, पिछले साल जुलाई मे लिखी थी , पेश ऐ खिदमत है ...

रास्ता सबका एक ही था
लेकिन थोड़ा सा आगे जाने पर
पता चला
कि हम सबके रास्ते अलग थे
कोई पहली श्रेणी का चलने वाला था
जो चलने मे यकीन रखता था
कोई दूसरी...
जो छोटे रस्ते की तलाश कर रहा था
और कोई उड़ना चाहता था
इसी आस मे
हम सब चल रहे थे

हमने देखा
कि भूख से अंतड़ियाँ
कैसे ऐंठ्ती हैं
और फिर शुरू हो जाती है
तलाश एक ऐसे रास्ते की
जो भूख को ख़त्म कर सके
जो रास्ते की गरमी को भगा सके
जो हमे हमारे घर तक पंहुचा सके

घर
कब और किसलिये छोड़ा
ये तो सब जानते हैं
लेकिन
चुपके से
घर कब वापस गए
कब उसमे नई दीवारे खडी की
कब रंग रोगन हुआ
कब घर मे पूड़ी तरकारी बनी
ये कोई नही जानता

अब तो काफी लोग घर पर हैं
हम चंद लोग
उसी रास्ते पर हैं
हमने कोई छोटा रास्ता नही चुना
हमे घर जाने की बहुत इच्छा थी
हम चांदनी रात मे पुआलों पर लोटना चाहते थे
हम आम के पेड पर चढ़कर
सखपुतिया खेलना चाहते थे
लेकिन
हमे इससे ज्यादा अच्छा खेल
उस रास्ते पर चलना लगा
हम घर नही गए।

अभी भी हम
वैसे ही चल रहे हैं
और ....
घर गए लोग हमारे पीछे से
घंटियाँ बजा रहे हैं
रिझा रहे हैं।

Friday, April 25, 2008

पान

कसम से, क्या चीज़ है पान। खुदा की बनाई सबसे बड़ी नेमत है पान। हरे हरे देसी पान का पत्ता, उसपर बढ़िया चूना कत्था और भीगी डली। भोला बत्तीस तो अब जल्दी मिलता नही, तुलसी या बाबा मिल जाता है। और हाँ, किमाम इलायची भी जरूर होना चाहिए। पंडित जी लपेट कर जैसे ही दें, तुरंत मुह मे जाकर सेटिंग करने लगता है। और ये कोई आज से नही। दरअसल ब्रम्हा पान खाते थे। गिलौरी मुह मे रखकर ही सरस्वती को पढाते थे। बिना पान के हमारे प्राइमरी के मास्टर तक नही पढाते। वो तो खैर ब्रम्हा थे। सुना है, नारद को पान की आदत ब्रम्हा से ही लगी। तभी तो एक बार नारद ने विष्णु वाजपेयी के घर जाकर उन्हें पान की महिमा बताई थी। उन्होंने बताया था, सारे देश को पान की आदत डलवा दो, राजकोषीय घाटा कम हो जाएगा। पान खाने के बाद तो सुरती भी बेकार हो जाती है। कचहरी मे वकील भी तो पान खाते हैं, बिजली ऑफिस मे बैठे एस डी ओ भी तो पान खाते हैं। जितने भी भगवान् हैं, सब पान खाते हैं , चाहे आर टी ओ भगवान् को देखिये या फिर चाहे एस डी एम् भगवान् को देखिये, सब पान खाते हैं। तो भइया, पान की महिमा अपरम्पार है। एक बार नारद ने पान खाकर मुरली मनोहर के गमले मे थूक दिया। फ़िर क्या था, वहा से पान की जो बेल निकली, आज तक मुरली वाले के होठो का कोना लाल किए रहती है। और मुरली वाले ने बंसी छोड़ कर पानदान अपना लिया, कांख मे दबाये रहते हैं हमेशा। और तो और, पूरा देश पान की जुगाली मे व्यस्त है, आलू के दाम बढे, सब चिल्लाए, टमाटर सूरज की तरह लाल हो गया, सब घर छोड़ कर बाहर आ गए, लेकिन पिछले एक साल मे पान की कीमतों मे तीन बार इजाफा हुआ, मजाल है की पान की गिलौरी ने किसी के मुह से आवाज निकलने दी हो। मुह की आवाज दबानी हो तो पान खिलाइये, मुह से सुंदर सुंदर राग निकालने हो तो पान खाइए। पान पान पान ..... बस पान।

Wednesday, April 2, 2008

सोचा न था ....

मेरठ मे एक गुमनाम सी शख्सियत हैं मिथलेश आत्रे। और आइन्दा के दिनों मे गुमनाम ही रहना चाहती हैं। ऐसा इसलिए नही कि उन्हें नाम से कोई परेशानी होती हो, दरअसल वो अभी तक नाम के फायदे नही जान पाई हैं। मिथलेश से मिलने के बाद, खासकर उनके कारनामो के बारे मे जानने के बाद मेरे मन मे जो पहला सवाल आया वो ये कि मेरठ मे आत्रे कहाँ से ? पूछताछ की तो पता चला कि मेरठ मे कुल मिलकर २२ परिवार आत्रे हैं। ये लोग तकरीबन डेढ़ सौ या दो सौ साल पहले महाराष्ट्र से यह पर आकर बसे थे। आजादी की लड़ाई मे इन सभी लोगों ने हिस्सा लिया, शहर के साथ कदम से कदम मिलकर चले और शहर की धड़कन यानि कि घंटाघर पर भी इनका ठिकाना रहा और अब भी है। ये जानकारी मुझे जागरण मे काम करने वाले एक सीनिअर रिपोर्टर ने दी जो ख़ुद आत्रे हैं। बहरहाल, लौट कर मिथलेश के ही पास आते हैं। मिथलेश कुल मिलाकर आठवीं पास हैं। बुजुर्ग महिला हैं इसलिए उनका आठवीं पास होना या पढ़ा लिखा न होना एक बराबर है। हो सकता है कि उन्होंने घर पर ही पढ़ लिया हो, लेकिन इस बारे मे मुझे रत्ती भर भी शक नही कि मिथलेश ने जो कुछ भी पढ़ा , वो अब सबके काम आ रहा है। मिथलेश शताब्दी नगर मे रहती हैं और मेरठ विकास प्राधिकरण द्वारा बनाये गए एक मकान मे स्कूल चलाती हैं। वो मकान भी ऐसा मकान है, जिसके बनने के बाद अब तक कोई कब्ज़ा लेने नही आया। उसमे न तो खिड़की है और न ही कोई दरवाजा। बिजली का तो सवाल ही नही पैदा होता। एक तरह से वो खँडहर है। इसी खँडहर मे मिथलेश ने झुग्गी के ३५ बच्चों को पढाया है। सभी ने पहली क्लास का इम्तेहान दिया और रिजल्ट सौ प्रतिशत रहा है। और ये सौ प्रतिशत रिजल्ट भी किस तरह से? ना तो इन बच्चो को बैठने के लिए टाट पट्टी मिली है , ना ही पढ़ना सीखने के लिए ब्लैक बोर्ड। जमीन पर बैठ कर इन बच्चों ने पढ़ाई की है और दिवार को ही ब्लैक बोर्ड बनाया है। कमाल है। ऐसे जज्बे वाली महिला को मैं सलाम करता हूँ।
मिथलेश का स्कूल यह पर देखें - फोटो बजार

Tuesday, March 11, 2008

ये कोई ज्यादा बड़ी कहानी नही है...

ये कोई ज्यादा बड़ी कहानी नही है। मेरठ का एक इलाका है फिरोजनगर। ज्यादा नही, पिछले दो तीन दशक से यह पीने का पानी गन्दा आ रहा है। यहा रहने वाले बच्चों मे से एक दो बच्चा हर दूसरे तीसरे महीने मर जाता है। कारण, डायरिया, उलटी, दस्त। इन्ही की कुछ फोटो हैं।

इसका नाम इयत्ता है। फिरोज नगर मे ही रहती है। हो सकता है कुछ दिन बाद ये भी मर जाय ।

ये मिस्बाह है। दो महीने पहले इसकी बहन डायरिया से मर गई। अब शायद इसकी बारी है। ये भी फिरोज नगर मे रहती है।
ये भूरा है. इसकी उम्र १६ साल है. पैदा होने के बाद से ही गन्दा पानी पीने की वजह से इसका विकास ही नही हो पाया.
और भी फोटो हैं, यहाँ क्लिक कीजिये- photobajaar

Sunday, March 9, 2008

बेल्कुल ठीयिक

बेल्कुल ठीयिक ... असल मे है तो वैसे ये बिल्कुल ठीक लेकिन मेरठ मे आजकल ये लफ्ज एक बड़े तबके की जुबान पर कुछ ऐसे ही आ रहा है। बिल्कुल ठीक को ये तबका बेल्कुल ठीयिक बोल रहा है। हो सकता है की टाइपिंग मे वो बात ना आ रही हो, लेकिन बिल्कुल ठीक को कुछ उसी तरह से बोला जा रहा है। दरअसल इसके पीछे की जो कहानी है, लगता है प्रकाश झा की कोई फ़िल्म चल रही है। मेरठ के एस एस पी हैं ज्योति नारायण। बिहार से हैं, और उनके बोलने की टोन भी बिहारी ही है। यहाँ की कमाऊ और नॉन कमाऊ, दोनों तरह के रिपोर्टरों से एक बात सुनने को मिलती है की एस एस पी साहब बड़े इमानदार हैं। हो सकता है की वो ऐसे ही हो, लेकिन मुझे नही लगता की वो ठीक वैसे ही होनेगे जैसा की पुलिस वाले या फ़िर रिपोर्टर्स कहते हैं। ऐसा होना सम्भव ही नही है। आप नही खायेंगे तो आप बाहर कर दिए जायेंगे। ऐसा ही सिस्टम है। बहरहाल ये जो बेल्कुल ठीयिक है, ये उनका तकिया कलाम है। हफ्ते मे दो तीन दिन मुझे भी क्राइम देखना होता है तो एस एस पी से बात करनी पड़ती है। मुझसे भी वो यही तकिया कलाम बोला करते हैं। अब इन कप्तान साहब के तकिया कलाम की ये हालत है की पुलिस डिपार्टमेंट के बाकी लोगों मे जो लग हैं, वेस्ट यू पी के हैं । भाषा उनकी उसी तरह है जैसी की वेस्ट यू पी की होती है। लेकिन सब के सब आजकल बिहारी मे बात कर रहे हैं। कल रात मैं अपने क्राइम रिपोर्टर के साथ आबू लेन जा रहा था। रस्ते मे एस एस पी के घर के सामने उन्ही के एक हवलदार मिल गए। कोई उभास जैसा नाम था उनका। लगे बिहारी मे बात करने। आमतौर से फिल्म मे बिहारी स्टाइल की बोली का मजाक उड़ाया जाता है। लेकिन यहाँ तो बात कुछ और ही थी। हवलदार साहब बिहारी टोन मे बात करके ख़ुद को एस एस पी टाइप का कोई जीव मान रहे थे। ये मजाक नही था। ये था एक मोडल और उसके पीछे का असर। बात फ़िर से वही से शुरू हुई के एस एस पी इमानदार हैं और कुछ एक पुलिस वालों के लिए रोल मोडल भी । लेकिन फ़िर भी मैं कहता हूँ की एस एस पी इमानदार नही है, बेईमान भी नही । बस यू ही काट रहा है अपनी जिंदगी को। शायद ऐसी हो किसी बात ने हमारे क्राइम रिपोर्टर सचिन त्यागी पर कोई असर किया होगा और वो बुरी तरह से उनका फैन बन गया । लेकिन बात तो फ़िर से वही अटक जाती है ... ठाकरे परिवार बिहार और बिहारियों के पीछे हाथ पैर धोकर और नहाकर पडा हुआ है। एक बार काफी हाउस पर भूपेन ने लिखा था ....
भले ही अघाये हुए आलोचक
इस भूमिका के लिए
कोई पुरस्कार दे दे
पर वो शर्म कहां जायेगी
जो अब चेहरे पर नहीं दिखती

Friday, March 7, 2008

बिहार को नरक मीडिया ने बनाया

आज सुबह अखबारों की सुर्खी बने बाल ठाकरे के एक बयान पर नजर गई। लिखा था कि सामना मे छपे उनके सम्पादकीय मे उन्होंने लिखा कि बिहार को नरक से बदतर बना दिया गया है। मैं बिहारी नही। यू पी का हूँ। कभी सोचा नही कि बिहारी क्या और यू पी क्या..या फ़िर कुछ और ही क्या और क्यों। लोग अच्छे मिले और मिलते गए। बहरहाल, मुझे लगता है की बिहार को नरक बाल ठाकरे या नितीश या फ़िर लालू ने उतना बुरा नही बनाया जितना की मीडिया ने। यू पी मे इस वक्त मैं मेरठ मे काम कर रहा हूँ। हर रोज़ यहाँ पर क्राइम की दो बड़ी खबरें होती हैं। अपहरण , लूट, हत्या, डकैती तो यहा के लिए सामान्य बात है। एन सी आर बी की रिपोर्ट मे मुम्बई मे भी क्राइम कुछ कम नही दिखाया जाता। और ये क्राइम ना तो मुम्बई मे रह रहे बिहारी करते हैं और ना ही मेरठ मे रह रहे बिहारी। ये बात अलग है की मीडिया बिहार मे जरा सा भी कुछ होता है तो उसे कुछ ज्यादा ही बड़ा बनाकर दिखाता है। एक तरह से ट्रेंड चल पड़ा है ये कहने का की अगर ये बिहार मे हुआ होगा तो वहा तो ये सब चलता ही रहता है। सड़कें जैसी बिहार मे हैं वैसी दिल्ली मे भी हैं, मुम्बई मे भी हैं, उसी तरह से टूटी फूटी। सरकारी अस्पतालों की बिहार मे जो हालत है, यू पी मे उससे भी बुरी ही है, मुम्बई के सरकारी अस्पतालों मे शायद डॉक्टर एक मरीज को ज्यादा टाइम दे पाते होंगे...मुझे तो नही लगता। हाँ, मुझे ये जरूर लगता है की मिडिया का काम छिछला होता जा रहा है। या फ़िर आत्मकेंद्रित। आत्म मुग्ध । ये जो कर रहे हैं, सनसनी फैला रहे हैं, आज से नही, पिछले दस सालों से, अब उसका खामियाजा आम आदमी को भुगतना पड़ रहा है। और ये आक्रोश दिख भी जाता है। निठारी काण्ड मे तो लोकल मिडिया का एक पत्रकार मेरे सामने ही पिटा। पहाड़गंज बोम्ब ब्लास्ट मे भी एक बड़े चैनल का पर्त्रकार मे सामने पिटा। और लोग पिटते ही रहते हैं। अभी मेरठ मे भी कुछ एक पत्रकारों की पिटाई हुई थी। कारण जो भी रहे हों। बहरहाल, इस समय जो बिहारियों पर राजनीती हो रही है, मुझे लगता है कि ये सब मीडिया की नासमझी का ही परिणाम है।