Wednesday, August 24, 2011

मंहगी उबकाई

कल रात मुझे दफ्तर से थोड़ा जल्दी छुट्टी मिल गई। दरअसल पिछले कुछ दिनों से दफ्तर का माहौल कुछ खराब है और कुछ लोग कुछ लोगों के निशाने पर हैं। निशाने पर आए कुछ लोगों में से मैं भी हूं। इसलिए मेरा न तो दफ्तर जाने का वक्त तय रहता है न ही आने का। कब कहां ड्यूटी लगा दी जाए, नहीं पता। बहरहाल, कल रात मुझे थोड़ी जल्दी छुट्टी मिल गई। मजे से घर आया और अपना सबसे पसंदीदा काम लेट नाइट मूवीज देखनी शुरू कर दीं। दिन में चैनल्स पर फिल्मों के बीच लंबा चौड़ा प्रचार रहता है और सिर्फ बिकाऊ फिल्में ही दिखाई जाती हैं। रात में कुछ ढंग की फिल्में आती हैं, खासकर रात दो बजे के बाद। सुबह पांच बजे तक मैं चैनल बदलता रहा। सुबह अचानक मलकिन ने नौ बजे ही उठाना शुरू कर दिया। बोलीं दफ्तर से फोन आ रहा है। मैनें वापस फोन किया तो तुरंत दफ्तर आने का आदेश मिला। नींद पूरी न होने की वजह से पित्त बनने लगा और एकाध एसिड भरी उल्टियां हुईं। मैनें सोचा कि रास्ते में कहीं से एंटीऐसिड ले लूंगा। घर से निकला और मेडिकल स्टोर पर पहुंचकर उससे ओमेप्राजोल का कैप्सूल ओसिड मांगा। मेडिकल स्टोर वाले ने १५ गोलियों का एक पत्ता दिया और ८५ रुपये मांगे। मेरी जेब में कुल सौ रुपये पड़े थे और दफ्तर भी जाना था। मैनें उससे सस्ता एंटीएसिड रेनिटीडीन यानि कि रेन्टेक लिया जिसकी पांच गोलियों के लिए मैनें पांच रुपये दिए।
लेकिन अभी तक मेरे सिर से ओसिड का वह ८५ रुपये का रेट उतर नहीं पाया है। जब मैनें एंटीएसिड के मार्केट के बारे में पता लगाना शुरू किया तो मेरे होश उडऩे लगे। भारत में एंटीएसिड का कारोबार साठ हजार करोड़ रुपये सालाना है। यह भारत में बिकने वाली सारी दवाइयों का बीस फीसदी है। गंभीर बात यह है कि इसे खाने की जरूरत हो या न हो, इसकी जरूरत बनाई जाती है और बना दी गई है। आज से पंद्रह साल पहले जब मुझे बुखार होता था तो डॉक्टर पैरासीटामॉल के साथ तीन दिन के लिए सिप्रोफ्लॉक्सासिन-सिप्लॉक्स लिखा करते थे। अगर पेट में कुछ गड़बड़ी हुई तो साथ में बी कॉम्प्लेक्स की छोटी-छोटी गोलियां लिखते थे जो दो रुपये की दस आती थी। एक गोली सुबह तो एक गोली शाम। बस काम खत्म। लेकिन अब बीकासूल तो लिखते ही हैं, साथ में ओसिड, पैन्टॉप, पैन्टॉप डीएसआर भी जरूर लिखते हैं। आखिर इस डेढ़ दशक में ऐसा क्या हो गया जो हमारे देश में बीमार पडऩे वाले लोगों के पेट के हालत का तख्तापलट हो गया?
बाजार में घूमते-घूमते मुझे इसका जवाब मिला। मेरठ, जहां मैं रहता हूं, वहां के काफी पुराने दवा व्यवसायी गोपाल अग्रवाल हैं। डॉ. लोहिया की क्लासेस अटैंड की हैं और पुराने समाजवादी हैं। उन्होंने बताया कि बी कॉम्प्लेक्स में डॉक्टरों को उतना कमीशन नहीं मिलता। बल्कि कुछ भी कमीशन नहीं मिलता। जबकि ओमेपराजोल सीरीज की दवाइयों के बेतहाशा कमीशन है। ओसिड का एक कैप्सूल बनाने में लागत और फायदा मिलाकर ४५ पैसे का खर्च आता है जो पैकिंग और मार्केटिंग लेकर ६० पैसे से ऊपर नहीं होता। लेकिन एक कैप्सूल कम से कम ६ रुपये का बिकता है। एक मरीज को कम से कम १५ कैप्सूल १५ दिनों तक खाने होते हैं। डॉक्टर का हिस्सा तीस फीसदी से शुरू होकर साठ फीसदी तक जा सकता है। जिस कंपनी की जैसी सेटिंग। यानि कि अगर आपको वायरल बुखार भी हुआ है तो बाकी की दवाइयों के साथ आपको एक एंटीएसिड खानी पड़ेगी। ओमेपराजोल की काफी महीन गोलियां आती हैं जिन्हें बाजार से खरीदकर कोई भी लाइसेंस प्राप्त फैक्ट्री बना सकती है और बेच सकती है।
ये बात कोई सन ६४ की है। उस समय इंजेक्शन स्ट्रेप्टोमाइसिन बहुत चलता था और सरकार इसे बनाती थी। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने ससंद में यह प्रश्र उठाया था कि यह इंजेक्शन फायदा सहित सरकार को तीन आने का पड़ता है तो इसे बारह आने में क्यों बेचा जाता है। इस पर कोई रेट कंट्रोल क्यों नहीं है। दवाइयों पर न तो तब कोई रेट कंट्रोल हो पाया और न ही अब कोई रेट कंट्रोल हो पाया है। वैसे एंटीएसिड जेन्टेक काफी सस्ता है। दवा बेचने वाले रज्जन ने मुझे बताया कि जेन्टेक इतना सस्ता है कि डॉक्टर इसे लिखते ही नहीं। ये तो अब निरमा वाशिंग पाउडर हो गया है और लोग इसे खुद खरीदकर खाते हैं। मैनें किसी से सुना था कि यही फार्मूला जय प्रकाश नारायण के लिए विदेश से मंगाया गया था। समाजवादी आरोप लगाते हैं कि इमरजेंसी में जब जय प्रकाश को जेल में बंद किया गया तो उन्हें खाने के लिए कुछ गड़बड़ चीजें दी गईं। इससे उनका पाचन तंत्र खराब हो गया और आंतों में घाव हो गया। उन्हें मुंबई के जसलोक अस्पताल ले जाया गया जहां उनके लिए जेन्टेक के इंजेक्शन को विदेश से मंगाया गया। उस वक्त जेन्टेक इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं था। उस वक्त तो खडिय़ा का पाउडर यानि कि डाइजीन ही उपलब्ध था। अभी जो नए जेन्टेक या ओसिड जैसे एंटी एसिड चल रहे हैं, वह आमाशय के अंदर बनने वाले एसिड को कंट्रोल करते हैं, उसके निकलने का रास्ता बंद कर देते हैं। ये एक तरह से यह चैनल ब्रोकर होते हैं। डाइजीन पेट में बने एसिड को सोख लेता है। उसका रास्ता बंद नहीं करता। इंटरनेट पर ही मैनें पढ़ा कि ओमेपराजोल जैसी दवाइयों का साइड इफ्ेक्ट सिर दर्द, डायरिया होता है। आखिर जब एसिड नहीं बनेगा तो खाना नहीं पचेगा। और जब खाना नहीं पचेगा तो सिर दर्द और डायरिया तो होगा ही। लेकिन इससे डॉक्टरों को क्या मतलब। बहरहाल पिछले पंद्रह सालों में देश के लोगों के पेट में जो बदलाव किया गया, वह ये कि उनके पेट का खाना पचना या तो कम हो गया, या फिर बंद हो गया। पिछले पंद्रह सालों से लोगों को बीमारियां दी जा रही हैं और वो भी दवा की शक्ल में जो रोज सुबह खाली पेट एक गोली लेनी ही होती है।

अगली किस्त में पढ़ेंगे कि एसिड क्यों और कैसे बना। एसिड खुद बना या बनाया गया।

Tuesday, August 23, 2011

ख़ज़ाना हमारा है ...

प्राचीन भारत से लेकर अब तक हमारी व्यवस्था कृषि व कुटीर उद्योग आधारित रही है। हमारे खेतों में उगने वाले खाद्यान्न और खुदरा व्यापार की चेन ने हमें विश्व में एक अलग तरह की अर्थव्यवस्था दी है। इसी अर्थव्यवस्था के चलते हमने विश्र्वव्यापी मंदी से मुकाबला किया और सफल भी रहे। इस अर्थव्यवस्था से देश की आधी आबादी जो गांवों में बसी है व बीस करोड़ की शहरी आबादी का गुजर बसर होता है। जिस बचत से मंदी से बचने के दावे किए जा रहे थे, वह इसी आबादी की डाकघरों व बैंकों के बचत खातों की धनराशि थी। इस बात पर हमने तो डंका पीटा कि बच गए लेकिन उसे संभालकर रखने की बात अब सिरे से ही गायब हो चुकी है। हालांकि विदेशियों की पूरी नजर इस बचत की धनराशि पर है। खतरनाक बात तो यह है कि अंग्रेजों के जमाने की तरह किसी एक ईस्ट इंडिया कंपनी की नजर इस खजाने पर नहीं है बल्कि अमेरिका सहित कई देशों की नजर में यह खजाना किसी कुबेर के खजाने से कम नहीं है। आखिर अस्सी करोड़ लोगों ने अगर सौ रुपया महीना भी बचाया होगा तो सोचा जा सकता है कि यह रकम महीने में या साल भर में कितनी होगी।
विदेशी पूंजीपति किसान व खुदरा व्यापारी का सैकड़ों साल पुराना रिश्ता तोड़ देना चाहते हैं। वह इस चेन को तोड़कर सीधे किसान या व्यापारिक भाषा में उपभोक्ता तक पहुंचना चाहते हैं। इस उपभोक्ता को वह सब कुछ बेचा जाएगा, जिसकी उसे जरूरत भी न हो। जब उपभोक्ता की सारी बचत समाप्त हो जाएगी तो उसे उधार भी दिया जाएगा। यह सब बचत के खजाने को लूटने के लिए किया जा रहा है और इसमें पूरी साजिश है। दरअसल सबसे ज्यादा विदेशी निवेश संयुक्त राज्य अमेरिका की तरफ से होने के करार हो रहे हैं। लेकिन इसी अमेरिका का विदेश व्यापार घाटा दुनिया में सबसे ज्यादा है। कहीं से कपड़ा तो कहीं से जूता, कहीं से चाय कॉफी तो कहीं से डॉटर इंजीनियर उनके लिए जा तो रहे हैं लेकिन उनके यहां पैदा नहीं हो रहे। निर्यात कम व आयात ज्यादा होने की वजह से अमेरिका पर दुनिया में सबसे ज्यादा कर्ज है, जिसे उतारने के लिए उसकी कंपनियों की नजर, जाहिर है हमारे इस खजाने पर है। यह तभी संभव है जब देशी व्यापारियों का अस्तित्व खत्म कर दिया जाए। और ऐसा हो भी रहा है, केंद्र सरकार एक के बाद एक बेतुके कानून बनाए जा रही है। केंद्र की कांग्रेस सरकार के इस बारे में अमेरिका से समझौते भी हो चुके हैं। अमेरिकी कंपनी वालमार्ट का ही उदाहरण लें। वालमार्ट जैसी कंपनी के भारत में खुदरा व्यापार की अनुमति देना न सिर्फ देश के स्थानीय बाजारों को खत्म करने की, बल्कि भारत की रीढ़ बनी बचत व्यवस्था को भी लूट की सरकारी छूट देने की अनुमति देना है।
विदेशी कंपनी को खुदरा व्यापार की अनुमति देने व स्थानीय बाजार को खत्म करने से महंगाई और बढ़ेगी। हमारा खजाना तो खाली होगा ही, हम अमेरिका की तरह कर्ज के तले दबे नजर आएंगे। और ऐसा शुरू भी हो गया है। केंद्र की कांग्रेस सरकार ने महंगाई से निपटने के लिए अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। न तो लोगों को दाल में कोई राहत मिली और न ही प्याज में। यह सब व्यापारियों व व्यापार के लिए बनाए गए बेतुके कानूनों का भी नतीजा हो सकता है। बढ़ते टैस ने ही नहीं, उस टैस को चुकाने तक की प्रक्रिया ने व्यापारी की कमर तोड़कर रख दी है। सवाल पैदा होता है कि हम दुनिया भर की विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए मुक्त व्यापार को बढ़ावा दे रहे हैं, सेज-स्पेशल इकोनॉमिक जोन बना रहे हैं, लेकिन हमारे अपने ही देश के व्यापारी एक राज्य से दूसरे राज्य तक मुक्त व्यापार नहीं कर सकते। टैस के अलावा रास्ते में होने वाली लूट खसोट अलग से जोड़ी जा सकती है। यहां तक कि अगर किसान अपनी खेती से मिला उत्पादन यदि मंडियों में लाता है तो सड़क पर आने से लेकर मंडी की पर्ची कटाने तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। सरकार की तरफ से संरक्षण प्राप्त सट्‌टा बाजार इस महंगाई में घी का काम कर रहा है। इसे रोकने के लिए कांग्रेस की केंद्र सरकार कुछ भी नहीं कर रही है। सरकार यदि कुछ कर रही है तो यह कि विदेशी कंपनी की मांग पर एक के बाद एक विधेयक पारित कर कानून में संशोधन किया जाता है। अगर देश के नागरिक साधारण सी भी कोई मांग कर दें तो सरकार को सांप सूंघ जाता है और बयानबाजियां शुरू हो जाती हैं।
उार प्रदेश में तो और भी बुरे हालात हैं। यहां पर न तो महंगाई कम करने की मांग की जा सकती है और न ही रोजगार देने की। भ्रष्टाचार के चलते कत्ल दर कत्ल होते चले जा रहे हैं। जिस तरह से विधायक स्वयं अपराध के दलदल में फंसे हैं और प्रदेश सरकार उन्हें निकालने के लिए अदालत में मुकदमा वापस लेने के आवेदन करती जा रही है, आने वाला समय या होगा, इसकी परिकल्पना करना कोई मुश्किल काम नहीं है। दरअसल विनिमय के सभी सिद्धांत बदल चुके हैं। अब विनिमय मात्र वस्तुओं के लेनदेन तक सीमित नहीं रह गया है। अधिकारों से लेकर कानून तक विनिमय ने हर वस्तु को बिकाऊ बना दिया है। ऐसे में अगर महंगाई बढ़ती है तो कोई अचरज की बात नहीं है बल्कि लाजमी है।

ग्रेट इंडियन कनवर्टर शो

तेजगढ़ी से जरा सा आगे बढ़ें तो एक पलिक स्कूल टाइप का स्कूल है। पलिक स्कूल टाइप का इसलिए, योंकि न तो व पूरी तरह से पलिक स्कूल की अवधारणा को पूरा करता है और न ही सामान्य स्कूल की सोच को। एक तरह से खिचड़ी हो चुका है। बहरहाल, शाम का समय था और मैं और मेरा बेटा जरा तफरीह को निकले। बेटा अभी डेढ़ साल का है। घूमते-घूमते दोनों उस स्कूल के सामने जाकर खड़े हुए। स्कूल में दो ढाई साल से लेकर दस साल के बच्चों को कराटे सिखाया जा रहा था। छोटे-छोटे बच्चों को हू हा करते देख बेटे को उनमें कुछ देखने लायक सा लगा और हम दोनों कराटे लास देखने लगे। तकरीबन बीस मिनट बाद कराटे लास खत्म हुई। खत्म होने से ठीक पांच मिनट पहले बुलेट पर एक स्टाइलिश युवक आया। कराटे पूरी तरह से सिस्टम पर आधारित है। आप शुरू करते हैं तो एक दूसरे को कमर के बल पर थोड़ा सा झुक कर प्रणाम करते हैं और जब खत्म करते हैं, तो भी यही करते हैं। तो जैसे ही कराटे लास खत्म हुई, गुरूजी वहां पहुंचे। कमर के बल पर वह थोड़े से झुके। लेकिन यहां भी वही चाऊमीन वाली हालत थी। बच्चे झुक भी रहे थे और गुरूजी को पैरीपौना भी करते जा रहे थे। गुरूजी झुक भी रहे थे और सभी पैरीपौना करने वाले बच्चों को खुश रहो, आबाद रहो- जो कि शायद वो मन में बोल रहे हों- का आर्शीवाद देते जा रहे थे। ये चीनी कराटे का शुद्ध भारतीय संस्करण था। इसमें कोई मिलावट नहीं थी योंकि हम हमेशा से बाहरी चीजों का इसी तरह से भारतीयकरण करते आए हैं।
जीरा चाऊमीन
याद कीजिए जब शुरू शुरू में हमारे यहां चाऊमीन आया था। मतलब चाऊमीन आ तो गया होगा सालों पहले, लेकिन लोकप्रिय होना शायद ढाई दशक पहले शुरू हुआ था। ठीक ठाक होटलों में यह मिलता था और इसमें तरह तरह की सजी और केंचुए जैसे तार को देखकर सुड़ुकने में जी खुश हो जाता था। तब इसमें चीन की महक डालने के लिए सोया सॉस और अजीमोमोटो पाउडर डाला जाता था। लेकिन अब जो चाऊमीन बिक रहा है, वह शुद्ध भारतीय संस्करण है। बगैर जीरे के कैसा चाऊमीन। बगैर गरम मसाले के कैसा चाऊमीन और बगैर कद्‌दू वाले लाल सॉस के कैसा चाऊमीन। अजीमोमोटो तो अब भी डाला जाता है।
बर्गर मसाला
बर्गर भी काफी कुछ यही हालत हो गई। मैडॉनल्ड वाले बेचारे या बर्गर बेचते होंगे जो हमारे यहां टिक्की वाले बनाकर बेचते हैं। उनकी तो पॉव रोटी भी कच्ची ही रहती है। सिर्फ आलू की टिकिया पकाई और क्रीम डालकर दे दी खाने को। भला इसमें कोई स्वाद है। स्वाद तो तब आता है जब बर्गर की पॉवरोटी बढ़िया से सेंकी जाए, उसमें आलू मटर की टिक्की डाली जाए, ऊपर से हरी चटनी फिर पनीर की एक स्लाइस भी हो। थोड़ी से कतरी हुई पाागोभी भी चलेगी, लेकिन उसके ऊपर इमली की लाल चटनी और गरम मसाला जरूर होना चाहिए। आखिर जीभ को करंट मिलना भी तो जरूरी है। बर्गर अब बर्गर नहीं रहा, बल्कि यह चाट पकौड़ी की प्राचीन श्रृंखला में शामिल हो चुका है। कभी कभी मुझे लगता है कि भारतीय कयुनिस्ट आंदोलन चाऊमीन और बर्गर नहीं बन पाया, वरना वह भी लोकप्रिय होता और आज किसी को बंदूक उठाने की जरूरत न पड़ती।
आलू गोभी
अभी कुछ दिन पहले एक ट्रैवेल एंड लिविंग चैनल देख रहा था। उसमें कुछ विदेशी लोग थे जो तरह तरह का खाना पका कर जज लोगों को खिला रहे थे और जज खाना खाकर बता रहे थे कि इसमें फलां सॉस कम है और इसमें पता नहीं कौन से समुद्र की पता नहीं कौन से मछली का टेस्ट आ रहा था। इन लोगों ने एक भारतीय परिवार को भी बुला लिया। मजे की बात देखिये कि भारतीय परिवार ने इन्हें जो खिलाया, जज लोगों का कहना था कि ऐसा टेस्ट उन्हें पहले कभी नहीं मिला। इन लोगों ने जज को आलू गोभी की सूखी सजी और रोटी खिलाई। एक जज ने कहा कि ये जबान पर करंट भी देता है और तरावट भी। ऐसी चीज उन्होंने पहले नहीं खाई। अब पता नहीं किसने इन लोगों को जज बना दिया कि इन्हें ये तो पता है कि पता नहीं कौन से समुद्र की पता नहीं कौन सी मछली कैसा स्वाद देती है लेकिन एक अरब बीस करोड़ लोगों की लोकप्रिय आलू गोभी की सजी का स्वाद इन्हें नहीं पता और वह इन्हें जबरदस्त करंट देती है।
करंट
कांग्रेस ने इस करंट को अच्छी तरह समझा। उसे पता है कि अमेरिका की नीतियां कब इस देश में लानी है, मैडॉनल्ड को कब इस देश में घुसने देना है। वह मैडॉनल्ड में बैठकर बढ़िया क्रीम वाला बर्गर भी खाते हैं और ठेले पर खड़े होकर पांच रुपये वाला बर्गर दूसरों को खिलाते हैं। आखिर बर्गर तो बर्गर ही है। और लोगों को जब तक करंट न लगे, कैसा बर्गर। बाकी इस करंट के झटके में चार काम और हो जाएं तो हर्ज या है। कभी कभी मुझे लगता है कि कांग्रेस और भाजपा में आपसी सुलह हो गई है जो अमेरिका ने कराई है। राजा का मामला कोर्ट में है, वालमार्ट को देश में जगह बनानी है। अब अगर लोग अन्ना के आंदोलन में खोये रहें और राजा का भला हो जाए, कलमाड़ी की सुलह हो जाए और वालमार्ट दुकान खोल ले तो मजे ही मजे। अखिर है तो आखिर वही पांच रुपये वाला बर्गर ही। भाजपा भी इसमें पूरा साथ दे रही है। बेरोजगार हैं तो हों, इन दोनों की बला से। बीस से चालीस करोड़ लोगों को दोनों वक्त खाना न मिले, बर्गर तो पांच रुपये में मिल रहा है। बढ़िया चटखारेदार बर्गर। जिसमें एक परत हरी चटनी की है, एक परत गरम मसाले की है और ऊपर से खट्‌टी इमली वाली मीठी चटनी।

Tuesday, August 9, 2011

आ रेला है अपुन

आ रेला है अपुन
बोले तो कान खोल खोल के सुन. . .