Sunday, January 29, 2023

दस देवता और मटन पुराण AS05

 आठ बजे अन्नप्राशन की पूजा शुरू होनी थी, मगर बिद्यापुर से आते-आते खुद पंडित दिजेन भट्ट लेट हो गए। बालीकोरिया से बिद्यापुर तीन चार किलोमीटर का ही फासला है, मगर दिजेन बाबू को अपने जुगाड़ी के साथ बालिकोरिया पहुंचने में ही साढ़े आठ या शायद नौ से ऊपर हो गए। वो आए, फिर केले का तना छीलकर उसे परत दर परत काटकर कामचलाऊ बरतन टाइप के बनाए गए। प्रसाद तैयार किया गया। 

यहां पूजा कोई सी भी हो, प्रसाद में रात के भिगोए चने, मूंग ही मिलते हैं, गन्ने का मौसम हुआ तो कटा हुआ गन्ना भी। इधर दिजेन बाबू चौकी पूरने में लगे थे। जैसे अपनी ओर सत्यनारायण की पूजा में चार कोनों पर केले का छोटा पौधा गाड़कर बीच में एक चौकी बनाई जाती है, इधर भी यही किया गया। मगर अपने यहां भगवान की फोटो या मूर्ति रखी जाती है, असम में इस चौकी पर भगवदगीता रखी जाती है। भगवतगीता असमिया में थी। डॉ सदानंद और उनका परिवार स्वयं को संकरदेव का वंशज कहता है। 

सिद्धार्थ
देवताओं के सामने बैठे US में रहने वाले सिद्धार्थ

सिद्धार्थ ने बताया कि उनके परिवार में मूर्तिपूजा हमेशा से चली आ रही है। बल्कि लोकल दुर्गापूजा में दुर्गा की प्रतिमा इन्हीं के परिवार से जाती है। संकरदेव कायस्थ थे, इसलिए यह लोग भी कायस्थ हैं। संकरदेव की सबसे बड़ी जगह नगांव है, जो अपर असम और लोअर असम के ऐन बीच में है। वहीं मेरी साली यानी मेरी ससुराल पक्ष के लोग नामधारी हैं। 

तकरीबन दो दशक पहले तक नामधारियों में मूर्ति पूजा बिलकुल नहीं होती थी। बल्कि संकरदेव और उनके बाद माधवदेव ने यह पंथ ही इसलिए शुरू किया कि इस तरह की चीजों से हिंदू धर्म को निजात मिले और इसे वे लोग भी मान पाएं, जो हिंदू नहीं थे। अभी भी अधिकतर नामघरों में आपको कोई मूर्ति देखने को नहीं मिलेगी। बस गीता, एक जलता दिया और अपनी ओर बजने वाले नगाड़े का एक सेट।  हां, शंकर भगवान की फोटो जरूर अधिकतर नामघरों में देखने को मिलती है। 

थाईलैंड या म्यांमार की ओर से असम में जो लोग शिफ्ट हुए, वे हिंदू नहीं थे, मगर अब लगभग वे सभी खुद को हिंदू ही कहते हैं। संकरदेव और उनके शिष्य रहे माधवदेव के समय और दोनों के काफी बाद तक यह लोग नामधारी हुए, नाम ग्रहण किया, मगर पिछले डेढ़-दो दशकों में बहुत सारे नामधारियों ने मूर्ति भी ग्रहण कर ली है। 

दिजेन बाबू के जुगाड़ी ने केले के तने काटकर उन्हें परत दर परत अलग किया और उनके कुल आठ सेट बनाए। यहां पुजारी के हेल्पर को जुगाड़ी कहते हैं। इन आठ सेटों से मैंने अंदाजा लगाया कि यहां आठ देवता या तो बैठेंगे या फिर आठ देवताओं को भोग लगेगा। मगर दिशाएं तो दस हैं, तो देवता भी दस होने चाहिए थे! मैंने जुगाड़ी बाबू से अपनी जिज्ञासा बताई। वह बोले, आपने सही पकड़ा है। देवता दस ही हैं, मगर एक परत पर एक साथ हमने तीन देवता बैठाए हैं, और बाकी सब पर एक-एक विराजमान हैं। 

पूजा और प्रसाद की इतनी मालूमात मेरे लिए काफी थी, इससे ज्यादा मुझे अगवान-भगवान में कोई रुचि भी नहीं। बल्कि उससे अधिक रुचिकर मुझे हर हाल में भोजन ही लगता है। दुनिया में ऐसे बहुतेरे हैं जो पकाने से लेकर खाने तक अपना गम गलत करने में लगे रहते हैं। अब मैं घर की बाड़ी की ओर बढ़ा। बाड़ी यानी घर का पीछे का हिस्सा। यहीं तालाब किनारे गूले खुदे थे, कड़ाह खदबदा रहे थे। 

खाना पकाने वाले थे बापधन बाबू, जो कॉलेज रोड पर अब अपनी दुकान चलाते हैं। बापधन बाबू ने पहले नलबाड़ी कॉलेज की कैंटीन से अपना काम शुरू किया था। इनके हाथ का खाना कॉलेज के शिक्षकों को अच्छा लगा तो अब लगभग सभी शिक्षक अपने यहां होने वाले समारोहों में खाना इन्हीं से तैयार कराते हैं। जैसा कि पहले बताया, बापधन बाबू चावल, पुलाव, असमी मटन, मछली, मुरी घंटों (मछली का सिर तोड़कर उसमें 2-3 तरह की दाल डालकर), पनीर वेज, मिक्स वेज, बैंगन भाजा, पपीते का हलवा, चिली चिकन, सिवईं बनाने में लगे थे। आमतौर पर बैंगन भाजा गोल होता है, एक टिक्की की तरह। मगर यहां पतले-पतले बैंगनों को बीस से कई हिस्सों में काट लिया गया था, ऐसे कि जैसे कोई फूल। फिर उसे बेसन में डुबोकर तला जा रहा था। 

चूंकि मटन मुझे पसंद है, इसलिए मैंने बापधन बाबू से पूछा कि असमी मटन कैसे बना रहे हैं? मुझे उनके गूले के आसपास रेडीमेड मसाले दिख रहे थे। रेडीमेड मसाले तो अब मेरी ओर यानी अवध में भी खूब शुरू हो चुके हैं, वरना टीन ऐज तक मैं ऐसे भी ब्रह्मभोजों की व्यवस्था में शामिल रहा हूं, जिनमें पूरी तरह से घर में बने मसाले ही यूज किए जाते हैं। अब अगर किसी को पूरी और कद्दू की सब्जी बनानी हो, तो वैसे भी मसालों की बहुत जरूरत नहीं पड़ती। 

अवध का आदमी ब्रह्मभोजों में यही जीमता रहा है, मगर इन दिनों वह भी रेडीमेड मसाला होने की कगार पर है। बापधन बाबू ने बताया कि हमारे यहां मटन में पपीता जरूर पड़ता है। एक तो यह मटन जल्दी गलाता है, दूसरे पचाने में भी मदद करता है। हम असमी लोग खाने पर जितना ध्यान देते हैं, उतना ही ध्यान पचाने पर देते हैं। केला और पपीता हमारी राष्ट्रीय दवाई है। मैं बोला, आप तो यह कम से एक पूरा बकरा पका रहे हैं, मगर किलो भर के हिसाब से मुझे बताइए, कैसे कौन सी चीज? 

वह बोले, तेल डाला, आधी चम्मच चीनी डाली, फिर प्याज डालकर लाल होने तक भूनी। फिर अदरक-लहसुन डाला और इसे इसकी महक खत्म होने तक भूना। अब नमक-हल्दी मिलाकर मटन डाला और जब तक इसका पानी सूख न जाए, भूनते रहना है। मसाले हम लोग बहुत कम यूज करते हैं। एक किलो मटन है तो बस आधा चम्मच जीरा और इतना ही धनिया पाउडर। एक चम्मच मीट मसाला, रंग के हिसाब से कश्मीरी मिर्च। यह सब एक कटोरी में पानी मिक्स करके एक गिलास अतिरिक्त पानी के साथ डाला। इसे तब तक भूनेंगे, जब तक कि मीट का रंग सही न लगने लगे। जब रंग सही लगे तो एक गिलास पानी और डालना है। 

मैंने कहा, यह तो आपका अभी का तरीका हुआ और फिर मैंने उनको अपने गांव का पारंपरिक तरीका बयान किया। अब बापधन बाबू ने जाकर असल राज खोला। बोले, सबसे पहले तो आप यह जान लीजिए कि हम तीखा और खट्टा कैसे यूज करते हैं। तीखे में अगर काली मिर्च पड़ेगी तो हरी मिर्च नहीं पड़ेगी। हरी पड़ेगी तो भूत झोलकिया नहीं पड़ेगी। भूत झोलकिया संसार की सबसे तीखी मिर्चों में से एक है। मैंने पूछा, भूत झोलकिया किस हिसाब से आप लोग डालते हैं? उन्होंने बताया, अगर बहुत तीखा खाने वाले हैं तो किलो भर में पूरी एक मिर्च भी डाल देते हैं। 

बता दूं कि पूरी एक मिर्च डेढ़ इंच से ऊपर की नहीं होती और अपनी ढेंपी पर पौन इंच का व्यास लिए होती है। अगर कम तीखा खाने वालों की दावत है तो इस मिर्च का पांचवां हिस्सा डालते हैं। आज की दावत में बापधन बाबू ने काली मिर्च का इस्तेमाल किया था। वैसे काली मिर्च हर मौके पर एक सेफ साइड मानी जाती है। ज्यादा हो भी जाए, तो भी जीभ या तलुओं को उतनी नहीं लगती, जितनी कि हरी या भूत झोलकिया। 

वहीं खट्टे में अगर आम डाला तो इमली, अमरख या फिर आंवला नहीं पड़ेगा। आज के खट्टे में उन्होंने अमरख का इस्तेमाल किया था। अमरख से असमिया लोग बहुत पहले से पीलिया जैसी बीमारी भगाते रहे हैं। बहरहाल, पारंपरिक असमी मटन में नमक हल्दी मिले मटन का पानी सुखाने के बाद पपीता डालना है। पांच दस मिनट बाद काली मिर्च डाली और ऐसे कौरा कि मटन के हर ओर काली मिर्च लग जाए। एक गिलास पानी डाला। असमी मटन में पानी बहुत कम डालते हैं। मटन को इतना गलाते हैं कि वह खुद ही अपनी ग्रेवी तैयार कर ले। 

असमिया मटन पुराण से निपटने के बाद मैं घर के सामने पूजा स्थल पर पहुंचा। पूजा शुरू हो चुकी थी और सिद्धार्थ अपनी चौकी पर बैठ चुका था। पता चला कि अभी यह पूजा कम से कम दो-तीन बजे तक चलेगी। भास्कर को अपने भांजे को पहला अन्न चखाना था, सो वह भी उपवास पर था। उपवास के चलते वह मेरा तांबूल चबाने में साथ भी नहीं दे पा रहा था, और मैं लगातार बोर ही हो रहा था। वह तो शुक्र रहा कि डॉ सदानंद लगातार मुझे अपने दोस्तों से मिलवाते रहे, वरना इस तरह से तो मेरा वहां वक्त काटना मुश्किल था। 

मैं अपने घर में होने वाली पूजाओं से भी दूर रहता हूं, और इसी तरह से बोर होता रहता हूं। एक बजे के लगभग खाना शुरू हो गया। पहली पांत में लगभग पचास-साठ लोगों ने खाया। भूख तो मुझे भी लगी थी लेकिन घर का आदमी होने के चलते पहली पांत में खा लेना बेजा बात समझी जाती। मगर दूसरी पांत तक न मुझसे इंतजार हुआ और न मेरी सास से बर्दाश्त हुआ। हम दोनों दूसरी पांत में बैठ गए। बापधन बाबू ने वाकई खाना बेहद लज्जतदार बनाया था। यह पहली बार था कि घर हो या होटल, मैंने बहुत खाया। पपीते का हलवा तो जबरदस्त था और बैंगन भाजा के तो कहने ही क्या। मेरी सास ने सबसे ज्यादा तारीफ असमिया स्टाइल वाले मटन की बांधी। 

खाने के बाद हमने तांबूल खाया। यह तांबूल सिद्धार्थ की बाड़ी का था और मुंह में रखते ही ऐसे घुल रहा था कि बनारसी पान क्या घुलेगा। आमतौर पर पेड़ से तांबूल तोड़ने के बाद इसे महीने दो महीने जमीन में गाड़कर सड़ाया जाता है, फिर इसे छीलकर इसमें से सुपारी निकाली जाती है। मगर यह ताजा टूटा तांबूल था। पेड़ से ताजे टूटे तांबूल का स्वाद और मजा दो महीने तक सड़े तांबूल और सूखी सुपारी से कहीं ज्यादा अच्छा होता है। मैंने एक के बाद एक कई तांबूल दबा लिए। असम पहुंचने के कई दिनों बाद भरपेट खाना खाया था तो नींद भी लगी थी। एक कमरे में जाकर मैं सो गया। शाम को हम सब वापस गुवाहाटी निकल लिए। सब इतने थके थे कि रास्ते में कहीं रुके भी नहीं। 


नलबाड़ी किस्सा समाप्त, अब मेघालय, फिर काजीरंगा शुरू होगा।

अहोमों की शादी, नामधारियों का उत्सव AS04

 
जैसे अपने यहां, मने ईस्ट यूपी में ब्रह्मभोज की शुरुआत गूला खोदने से होती है, ऐन वैसे ही यहां भी खाना बनाने वास्ते आग दहकाने के लिए गूले खोदे गए, फिर आग जलाने से पहले इनकी पूजा हुई। अग्नि पूजा कहीं न कहीं हम सारे भारतीयों को एक सी तपिश देती है। यूपी में आमतौर पर मेरी ओर, यानी फैजाबाद-सुल्तानपुर की ओर दो गूले खोदे जाते हैं, या फिर महज एक। पूरी-सब्जी एक साथ बनेगी, या फिर एक ही चूल्हे यानी गूले पर एक के बाद एक बनेगी। दावतों के चूल्हे को गूला शायद इसलिए कहते हैं क्योंकि यह जमीन में अंदर गोल आकार में खोदा जाता है। वैसे भी गूला शब्द गोला के ज्यादा पास है। 

यहां भी इन्हें गूला ही कहते हैं। मगर यहां एक साथ तीन गूले खोदे गए। एक पर लगातार पानी गरम होता रहा, और बाकी दोनों पर पकवान पकते रहे। जैसे अब अपनी ओर गूलों के साथ-साथ एकाध गैस के चूल्हे भी रहने लगे हैं, यहां भी एक चूल्हा गैस का था। मने चार चूल्हे जले, जिनमें चावल, पुलाव, असमी मटन, मछली, मुरीघंटो (मछली का सिर तोड़कर उसमें 2-3 तरह की दाल डालकर), पनीर वेज, मिक्सवेज, बैंगन भाजा, पपीते का हलवा, चिली चिकन, सिवईं बनी। इन सबको जीमने के बाद आखीर में भुनी हुई सौंफ के साथ घर के पेड़ों से तोड़े तांबूल और घर में ही उगाए गए पान के पत्ते। 

अपनी ओर जिस तरह से गांव भर की महिलाएं पूरी बेलने और मर्द पिसान मर्दने आते हैं, मैं देखना चाहता था कि गांव के बाकी लोग इस भोज में क्या प्रबंध करते हैं। बदकिस्मती से गांव से आया पहला प्रबंधक वही दिखा, जिसके बारे में रात ही ताकीद कर दी गई थी कि इससे दूर रहो। यानी नबाज्योति। मुझे याद आया, मेरी ओर भी वही लोग सबसे कुशलता से ऐसी दावतों का प्रबंधन संभालते हैं, जिनके बारे में दावत देने वाले बहुत अच्छी राय नहीं रखते। फिर मामला अगर पटीदारों का हो, तो और भी चुभता हुआ होता है। 

मगर मुझे यह बात बेहद अच्छी लगती है। यह हमारे समाज के उन लोगों का अहिंसक प्रदर्शन है, जो कहीं न कहीं यह चाहते और मानते हैं कि सब एक ही घर या कबीले के हैं और भले उन्होंने कुछ अच्छा न किया हो, मगर आज तो अच्छा करके दिखा रहे हैं। जैसे ही मैं गूलों की ओर से मुख्य पूजास्थल पर आया, नबाज्योति बाबू मुझे ही ताड़ते मिले। वह तो अच्छा हुआ कि मुझे तुरंत मेरी साली के ससुर (मेरी साली ने ताकीद की है कि मैं उन्हें अपने रिश्ते का ससुर लिखने की जगह उसी का ससुर लिखूं) यानी डॉ सदानंद का साथ मिल गया, वरना फिर से मुझे कल रात वाली बातें सुनने को मिलतीं- दूर रहो उससे। 

डॉक्टर साहब के पास पहुंचा तो उन्होंने मुझे शहर के लोगों से मिलवाना शुरू किया। बहुत लोग थे, बीस से अधिक। मुझे सबके नाम तो नहीं याद, मगर सिद्धार्थ के मामा प्रभाष दत्ता और बुआ इला दत्ता जरूर याद हैं। जैसे ही बुआजी ने यह सुना कि मैं जबसे असम आया हूं, तांबूल पर तांबूल चबाए जा रहा हूं, झट उन्होंने दावत दे डाली कि हमारे पेड़ों के तांबूल खाकर देखो, ऐसे तांबूल पूरे असम में कहीं नहीं मिलेंगे। बुआजी, मेरी शिकायत नोट करिए, बल्कि उसी पोटली में बांधिए, जिसमें कि मुझे शक है कि जरूर आपके घर का तांबूल बंधा था... 

बुआ से मिल ही रहा था कि डॉ सदानंद मुझे गेट की ओर खींच ले गए। वहां उनके चार दोस्त आए थे। उन्होंने उन सबसे मेरा परिचय कराया कि मैं उनकी बहू की बड़ी वाली बहन से ब्याहा हूं और इससे भी बड़ा मेरा परिचय यह है कि मैं अयोध्या से आया हूं, और मेरा घर अयोध्या में बन रहे नए राम जन्म भूमि मंदिर के पांच किलोमीटर की रेंज में है। 

आपस में परिचय चल ही रहा था कि मेरे सलिया ससुर बोले, मोदीजी ने तो मंदिर बनवा दिया! मैं भी तपाक से बोला, मोदी जी ने नहीं बनवाया। यह तो आपके असमिया भाई गोगोई ने बनवाया। उसी ने तो सुप्रीम फैसला दिया था। वह फैसला न देता तो क्या मोदी और क्या कोई दूसरी पार्टी मंदिर न बनवा पाती। इसी बीच उनके एक दोस्त ने कहा, मगर गोगोई साहब भी तो कई दिक्कतों में फंसे थे? 

मैंने कहा, हां, फंसे तो थे, मगर यह सब राजकाज का मामला है। आपने चाणक्यनीति पढ़ी है? उसमें यह सारे टंट-घंट दिए हुए हैं। वैसे एक तरह से डॉ साहब का कहना सही है ही कि मोदी जी ने मंदिर बनवा दिया। मगर कायदे कानून के हिसाब से मेरा बयान यही होगा कि गोगोई जी ने मंदिर बनवा दिया। मेरा यह कहना था कि मेरे सलिया ससुर के चार के चारों दोस्तों ने, जो मेरे से उम्र में और नहीं तो कम से कम बीस साल बड़े होंगे, मेरी पीठ ठोंकी, और बोले, यह सही कह रहा है। 

इसके बाद तो हाजरीन, मैं कहूं तो क्या ही कहूं। मेरे सलिया ससुर यानी डॉ सदानंद ने वहां आए ढेरों मेहमानों को खोज-खोज कर मुझसे मिलवाया। मैं थोड़ा इंट्रोवर्ड हूं तो कुछेक मौकों पर छुप भी जाता कि अभी डॉक्टर साहब फिर किसी से मुलाकात कराने लगेंगे। कुछ ही देर में तीन तल्ले मकान के हरेक कमरे में यह खबर पहुंच गई कि डॉक्टर साहब को मैं बहुत पसंद आया हूं और वो ब्रह्मभोज में आने वाले लगभग सभी लोगों से मुझे ही मिलवा रहे हैं। 

चूंकि मैं भी वहीं किसी तल्ले में था तो अलट-पलटकर यह खबर मेरे भी कानों में गूंजी। रश्क हुआ। कम से कम एक अनजान असमिया तो मुरीद हुआ! भले गोगोई साहब के नाम पर हुआ, मगर हुआ तो सही। जो लोग मुझे ठीक से जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि जुडिशरी की हिस्ट्री में मैंने बहुत कायदे से गोगोई साहब की क्लास लगाई है। मेरी चलती तो मैं उनको जेल कराकर ही मानता। मगर यह बात मैं वहां छुपा गया। कहीं कहीं खुद को ठीक से जानने न देना भी बहुत जरूरी होता है। रिश्तों में तो यह बात और भी कड़ाई से लागू होती है, खासकर इन दिनों के दिनों में। 

इस ओर पंडित जी अपना आसन लगा चुके थे। हमें बताया गया था कि सात-आठ बजे से पूजा शुरू हो जाएगी, मगर अब तो दस बजे को थे। मैं पूजा की जगह पर पहुंचा। मेरे सलिया ससुर नामधारी हैं, खुद मेरी भी ससुराल नामधारी है। बोरगोहनों की पारंपरिक शादी नामघर में ही होती है। बेहद सादा शादी समारोह। जिस तरह से अपने यहां हवन होने के पहले से लेकर हवन होने के बाद तक वर-वधु को धुंआ होना पड़ता है, ऐसा कोई चक्कर नामघरों में नहीं है। बोरगोहेन अहोम हैं और इनकी शादी को चक-लॉन्ग कहा जाता है। 

इसमें 101 दिए जलाए जाएंगे। फिर पुरखों को याद किया जाएगा, जिसके बाद पुरानी वाली थाई में दूल्हा-दुल्हन कुछ मंत्र बोलेंगे। अगर किसी की औकात सौ दियों की ना हो, तो वह एक दिया जलाकर भी इन मंत्रों के साथ वह शादी कर सकता है, जिसके बारे में मुझे नहीं पता कि कानूनी मान्यता है या नहीं, मगर पारंपरिक और सामाजिक मान्यता पूरी है। बहरहाल, इतने से ही इनकी शादी पूरी हो जाती है, जिसके बाद दूल्हा-दुल्हन सहित मेहमान रोभा में जाते हैं। रोभा इनकी शादी में सजे पंडाल को कहते हैं। गुवाहाटी के जिस पहले होटल में मैंने असमिया थाली खाई थी, उसका नाम भी राभा ही था। मगर राभा यहां की कम्युनिटी है और रोभा मतलब पंडाल।

भास्कर ने भी इन्हीं दियों और मंत्रों के साथ शादी की थी और उसकी जिद यह थी कि यह शादी बिहू के दिन ही हो। बिहू के दिन में असल में असमिये पूरी तरह से पगला जाते हैं। असल में इस पागलपन की जड़ प्रेम और परंपरा का मिलाजुला वह वृक्ष है, जिसके वाकई पूरे राज्य को एक कर रखा है। जैसे अपनी ओर किसी और जाति या फिर गोत्र में शादी करने पर कत्ल हो जाते हैं, यहां ऐसा बिलकुल नहीं होता। 

यहां तो बिहू होता है और आप जिस किसी से भी प्रेम करते हैं, बिहू के वक्त उससे कैसे भी करके शादी कर सकते हैं। पूरे समाज में इतनी हिम्मत नहीं कि इस वक्त हुई शादी पर एक भी सवाल उठा सके। मसलन, बोरगोहनों में आपस में शादी नहीं होती, मगर जाखलोबंधा में मेरी फुफेरी सास ने यह परंपरा तोड़ी और किसी ने भी इसका विरोध नहीं किया। सब खुशी-खुशी दोनों शादी में शामिल हुए। 

अहोम राजाओं ने चाहे जो किया हो, या चाहे जो ना किया हो, असम को बिहू जैसे प्रेम करने के मौके देकर इसे वाकई दुनिया से एकदम अलहदा और अनोखा राज्य तो बना ही दिया है। अपने यूपी या बिहार में प्रेम करने के क्या ऐसा कोई भी उत्सव हैं? उत्तराखंड में? हरियाणाा में? दिल्ली में? राजस्थान में? कहीं हो ऐसा उत्सव तो कोई बताए? 

... जारी


Thursday, January 12, 2023

असम डायरी : यह रायबरुआ कौन जाति होते हैं? AS03

 


बालीकोरिया पहुंचते-पहुंचते शाम होने लगी थी। महीना दिसंबर-जनवरी का हो तो असम में तीन-साढ़े तीन बजे तक शाम होने लगती है और पांच-साढ़े पांच बजे तक रात हो जाती है। यहां मेरे सास मेरी मोहतरमा के साथ पहले ही दिल्ली से पहुंची हुई थीं। इन दिनों वर्क फ्रॉम होम ही चल रहा है, सो मुझे दफ्तर के जरूरी काम निपटाने थे। जो कमरा मुझे एलॉट हुआ था, वहां मैं अपना लैपटॉप लेकर बैठ गया। काम निपटाने के बाद वापस घर के मेन हॉल में पहुंचा तो डॉ सदानंद रायबरुआ आ चुके थे, कुछ देर में डॉ निबिर रायबरुआ भी आ पहुंचे। वह अपने साथ पढ़ने वाले किसी दोस्त के ढाबे से चिकन भुनवाकर लाए थे, और आते ही नए साल की पार्टी में कुछ लज्जत भरने के काम में लग गए। रात हमें छत पर आग जलानी थी और डॉ निबिर के पकाए चिकन के स्वाद के साथ सबने नए साल का खैरमकदम करना था। आग जलाने का जिम्मा मुझे सौंपा गया, यह कहकर कि एक तो यूपी वाला, ऊपर से ब्राह्मण- इससे जल्दी और इससे अच्छी आग भला कौन लगाएगा? मोहतरमा ने भी गवाही दी कि घर पर रखी कोयले की अंगीठी को यह यूपी वाला पांच-दस मिनट में दहका देता है। 

अभी तैयारी हो ही रही थी कि मेरी तलब ने मुझे कुछ परेशान सा किया। मैं घर से बाहर निकल आया और अंधेरे में पैदल ही धुंआ उड़ाते हुए नामघर की ओर बढ़ा। रास्ते में गांव के ही एक साहब नबाज्योति टकरा गए। अपनी ओर के राहुल या विजय की तरह असम में भी आपको दो नाम खूब मिलेंगे- नबाज्योति और ध्रुबाज्योति। पहले असमी में कुछ पूछा, मैं बोला मुझे असमी नहीं आती, हिंदी आती है। फिर उन्होंने पूछा कि किसके घर? मैंने बताया। वह बोले, फिर तो आप हमारे भी मान्य हुए। अब आपको हमारे घर चलना पड़ेगा। मेरी तलब शांत नहीं हुई थी, मैं बड़ी अनिच्छा से उनके साथ चला। नामघर के पहले ही उनका घर था। गेट के अंदर घुसते ही बड़ा सा खाली दलान, जिसमें चूल्हा जलाकर उनकी पत्नी मुर्गी पका रही थीं। दुआ-सलाम हुई, परिचय हुआ। पता चला कि नबाज्योति अच्छे तैराक हैं और इन दिनों गुवाहाटी में कहीं तैराकी कोच हैं। उनकी पत्नी भी एनसीसी में रही हैं और बच्चा बारहवीं गुवाहाटी से कर रहा है। उनकी पत्नी ने तुरंत कढ़ाई से मुर्गी निकालकर मुझे पेश करनी चाही, पर मैंने बहाना बना दिया कि मैं नॉनवेज नहीं हूं। इस पर नबाज्योति घर के अंदर गए और स्पंज का रसगुल्ला दो बिस्कुट के साथ ले आए। 

मैं उनके घर था तो, मगर मेरी सहाफी नाक को चूल्हे पर पकती मुर्गी के अलावा भी कुछ गंध आ रही थी। उधर नबाज्योति कह रहे थे कि सिद्धार्थ को समझाते क्यों नहीं? यहां इतनी खेती-बाड़ी है, पिता का इतना बड़ा नाम है, अमेरिका में क्या रखा है? रसगुल्ले के बाद किसी तरह से बिस्कुट पानी से निगले और यह कहते हुए मैं वहां से उठ खड़ा हुआ कि आपका कहना बिलकुल वाजिब है, मैं आपकी बात आगे तक पहुंचा दूंगा। वह मेरे पीछे-पीछे मुझे छोड़ने घर तक आए। घर के बाहर जैसे ही उन्होंने डॉ सदानंद को देखा, तुरंत छुप गए। यानी मेरी सहाफी वाली नाक सही थी। अपनी नाक पर अपनी सहाफत लेकर मैं आगे बढ़ा। डॉ सदानंद नबाज्योति की परछाईं भी पहचानते थे। इससे पहले कि वो कुछ बोलें, मैंने बोल दिया- आपके गांव में कोई नबाज्योति हैं, वो मुझे अपने घर लेकर गए थे। डॉ सदानंद तुरंत बोले, उसके घर नहीं जाना चाहिए था। वह अच्छा आदमी नहीं है। एकाध बार जेल के चक्करों में भी पड़ चुका है। मैंने कहा, इसका कुछ-कुछ अंदाजा तो मुझे हो चला था, बस मेरे अंदाजे पर आपकी मुहर लगनी बाकी थी।


वहां से मैं सीधे छत पर पहुंचा। डॉक्टर साहब की इकलौती बेटी, जो खुद भी डेंटिस्ट हैं- डॉ दीक्षिता रायबरुआ, उन्होंने तसले में आग लगा दी थी। आग भड़की नहीं थी, सो मैंने पहुंचते ही भड़का दी। साथ ही आग के आसपास बैठे लोगों को यह खबर भी दी कि नबाज्योति के घर से होकर आ रहा हूं। सबका वही कहना था, जो कुछ देर पहले डॉ सदानंद ने कहा था। इतने में देखता हूं कि नबाज्योति का फोन मेरे मोबाइल पर आने लगा था। डॉ दीक्षिता रायबरुआ ने पूछा, फोन नंबर भी दे आए? मैं बोला, अब कोई नंबर मांगता है तो सहाफी होने के नाते मुझे कभी भी हिचकिचाहट नहीं होती, सबको दे देता हूं। वह बोलीं, अब ये आपको परेशान करेगा। मैं बोला, वो मैं देख लूंगा, पहले आप मेरी सबसे बड़ी जिज्ञासा शांत करिए। मैंने यहां देखा कि मारवाड़ियों के घर अपने चैनल डोर की वजह से पहचान लिए जाते हैं। मगर आपके यहां बिहारी भी रहते हैं, बंगाली भी। सिर्फ बाहर से ही पहचानने हों तो उनके घर कैसे पहचाने जाएं? 

उन्होंने बताया कि बिहारियों के घर हम ऐसे पहचानते हैं कि उनके छोटे से घर में बड़ी भीड़ रहती है। एक छोटे से घर में दस से पंद्रह लोग पाए जाते हैं। और बंगालियों के घर उनकी औरतों की आवाज से पहचानते हैं। अगर घर के अंदर से किसी औरत के चिल्लाकर बात करने की आवाज आ रही है तो हम समझ जाते हैं कि बंगाली है। मगर यह मेरे सवाल का जवाब नहीं था। मैंने फिर से सवाल को चैनल डोर पर केंद्रित किया। इस बार उनका कहना था कि बिहारी और बंगाली के घर के बाहर ऐसा कोई साइन नहीं मिलेगा, जो उन्हें मारवाड़ियों की तरह अलग करता हुआ दिखाएगा। उनके घर की बनावट भी यहीं के बाकी घरों की तरह होती है। फिर उन्होंने मुझसे सवाल पूछा, पूछा क्या, सवाल दागा- आपके यूपी में तो जात-पात बहुत चलता है? मैंने कहा, खूब, बल्कि जरूरत से ज्यादा। बल्कि खुद मेरे घर में खूब जात-पात और छूत-छिरकन है। उन्होंने बताया कि पढ़ने के लिए जब वह लखनऊ गई थीं तो पहले तो किराए पर कमरा ना मिले। बड़ी मुसीबत से एक कमरा मिला तो यूपी वालों को रायबरुआ न समझ में आए। 


और फिर एक दिन मकान मालकिन ने पूछ ही लिया- ये रायबरुआ क्या चीज होते हैं? डॉक्टर साहिबा ने बताया- कायस्थ होते हैं। और जब उन्होंने यह किस्सा कॉलेज में अपने सीनियर से बयान किया तो सीनियर का कहना था, उसे बता देती कि तुम ब्राह्मण हो तो जब तक तुम रहती, तुमसे ज्यादा सवाल या किचकिच करने की जगह बड़े ठीक से रहती। मैं खिसियानी हंसी हंसा। यूपी की जो छूत-छिरकन और जात-पात की आदत है, उसकी वजह से इकलौता मैं ही नहीं हूं जो बाहर के प्रदेशों या देशों में बेइज्जत होता हूं, मेरी तरह और भी बहुतेरे हैं। मगर इससे यूपी को क्या, यूपी वालों को क्या? यूपी की छूत-छिरकन की इन कहानियों के साथ नया साल आया, हमने एक दूसरे को मुबारकबाद दी और अपने-अपने बिस्तरों के हवाले हुए। कल सुबह घर पर देवता बैठाए जाएंगे, कुछ लोग व्रत रहेंगे और सैकड़ों लोग जीमेंगे। कल हमारे यहां नलबाड़ी में ब्रह्मभोज है। 

....जारी

Wednesday, January 11, 2023

असम डायरी : अहोमों से मारवाड़ियों तक AS02


कटे पहाड़ों से उपजी शर्म और जाम से जूझते हुए हम आगे बढ़े। आगे हमें ब्रह्मपुत्र पार करना था। पहले इसे पार करने के लिए लोहे का पुल था, मगर अब नया पुल बन गया है। बनावट में यह काफी-कुछ अयोध्या में सरयू पार करने के लिए बने पुल सा है, यानी कोई खास डिजायनिंग नहीं- बस एक साधारण सा पुल। नाम है सराईघाट पुल। सराईघाट वही जगह है जहां अहोम राजाओं और मुगलों की जंग हुई थी। मेरा साला बोरगोहेन है। अहोम राजाओं के दरबार में बोरगोहेन लोग राजा के सेकंड सबसे सीनियर काउंसलर हुआ करते थे। नंबर एक पर बरगोहांई थे। यहां पर असम पर बेहद प्रसिद्ध ट्रैवेलॉग- यह भी कोई देस है महाराज लिखने वाले अनिल कुमार यादव मुतमईन नहीं हैं। उनका मानना है कि बोरगोहेन और बरगोहांईं लोग एक ही हैं। बरगोहांईं अपने यहां के गुसाईं हैं। इसके लिए उन्होंने साहित्य अकादमी से सम्मानित असम के प्रसिद्ध साहित्यकार होमेन बरगोहांईं का नाम बताया।


वहीं मेरे साले के मुताबिक असम में बोरगोहनों की चार उपजातियां हैं- गोहेन, बोरपात्रागोहन, बोरगोहेन, बरगोहांईं। अंग्रेजी में इनकी स्पेलिंग ये होगी-  Gohain, Borpatragohain, Borgohain, Buragohain. असम या फिर नॉर्थ ईस्ट की सातों परियों की बात हो तो यह हमेशा याद रखना चाहिए बोर यानी बड़ा। वैसे एक मायने में यह ठीक वैसे ही है जैसे कि मिश्रा, शर्मा, तिवारी, पाण्डेय, त्रिवेदी, या फिर गुंसाईं। सब ब्राह्मण हैं, मगर सोसाइटी में काम सभी का एक सा नहीं है। इसी तरह सारे गोहाईं अहोम राजाओं के काउसंलर नहीं थे। सराईघाट पार करते हुए साले ने बताया कि सन 1671 में जब मुगलों ने यहां हमला किया तो लचित ने यहां आसपास के गावों से मिट्टी भरवा दी और किनारों को कम से कम सौ डेढ़ सौ फीट ऊंचा कर दिया। गुवाहाटी के आसपास की मिट्टी दरबर है। जैसे ईंट भट्टे से निकली राबिश। ताजी खुद मिट्टी तो रंग में भी सूखी राबिश जैसी दिखती है, यानी रेड और फेडेड रेड का मेल।


इस पहाड़ पर चढ़ना आसान नहीं होता। इसका अंदाजा मुझे यूं लगा कि पहली बार ब्रह्मपुत्र मैंने ऐसी ही उठान से देखा। कहीं मिट्टी में पैर धंस रहे थे तो कहीं सम थे। मैदानी होने के नाते मुझे इसका बिल्कुल भी अंदाजा नहीं लग पा रहा था कि कहां पैर रखने चाहिए और कहां कमर झुकानी चाहिए। मुगल सेना ने जब इन पर चढ़ने की कोशिश की तो अहोम सेना ने इन्हें ऊपर से ही काट डाला। वे अपनी मिट्टी का धंसान जानते थे, सो उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी। धंसान से याद आया, जिस सड़क पर हम चल रहे थे, वह भी लेवल में नहीं थी। यहां की मिट्टी कहीं से भी धंस सकती है और इसीलिए गुवाहाटी में मेट्रो नहीं चल सकती। मेट्रो के लिए हुई सॉइल टेस्टिंग में गुवाहाटी फेल हो चुका है। बहरहाल, पूरी गुवाहाटी में आपको दीवारों पर इसी युद्ध के सरकारी विज्ञापन कलात्मक ढंग में देखने को मिलेंगे। ब्रह्मपुत्र के किनारों और ब्रह्मपुत्र के बीचोबीच होने वाले युद्ध। पता चला कि दीवारों पर ऐसी जंग खासकर तबसे उकेरी जा रही है, जबसे यहां बीजेपी की सरकार आई है। जंग का बखान इंसानी आदतों की उतनी ही बुरी चीजों में है, जितनी की खुद जंग है। फिर भी हमें लड़ने में ही सबसे ज्यादा रस मिलता है तो हम क्या करें?


हम तकरीबन साढ़े ग्यारह पर पांजाबाड़ी गुवाहाटी से निकले थे, मगर ब्रह्मपुत्र पार करते-करते दो बजने को हो रहे थे। अभी तो हम नलबाड़ी के रास्ते में आधे भी नहीं आ पाए थे। अब तलाश शुरू हुई ढाबे की। हम बाजोइ नाम के ढाबे पर रुके। यहां असमिया थाली 80 रुपये की थी और यह पहली असमिया थाली थी, जो मुझे अब तक दूसरी जगहों पर खाए गए खाने में सबसे अच्छी लगी। असमी थाली में आपको पांच तरह की सब्जी, सलाद, चटनी, दो तरह की दाल बैंगन भाजे और पापड़ के साथ मिलती है। दाल एक अरहर की और एक यहां की लोकल उड़द की। यहां की काली उड़द हम लोगों की तरफ होने वाली उड़द से साइज में लगभग आधी होती है। सब्जी आमतौर पर एक आलू भुजिया, एक साग- अक्सर लाही का, कहीं कहीं नींबू की सब्जी, बीन्स, चना वगैरह होती है, जिसे मछली चाहिए, उसका भी इंतजाम इन्हीं पैसों में हो जाता है।

अस्सी रुपये में आप जितना खा सकते हों, यहां उतना खिलाया जाता है। यहां क्या, मेन गुवाहाटी में भी जितने होटलों में आप थाली ऑर्डर करेंगे, वे सब आपके पेट भरने तक आपको थाली की हर चीज परोसेंगे, कोई एक्स्ट्रा चार्ज नहीं। इससे पहले मैं 6 माइल गुवाहाटी पर राजबोंग्शी और राभा में भी खाया था, मगर बाजोइ वाली थाली ज्यादा सही लगी। एक खास बात और, यहां के होटलों-ढाबों में अधिकतर वेटर महिलाएं हैं। ढाबों की बात करें तो कई जगहों पर गल्ले से लेकर चूल्हे तक पर भी महिलाएं ही मिलती हैं। सुंदर, स्मार्ट और हर चीज एक प्रेमिल मुस्कान के साथ परोसने वाली। एकाध बार तो मुझे ऐसा भी फील हुआ कि जैसे कोई महिला वेटर बिहू मोड में परोस रही है।


वैसे इन दिनों समूचा असम बिहू मोड में है, घर-घर में बिहू की तैयारियां जोरों पर हैं। जिस दिन अपनी ओर खिचड़ी का नहान होता है, उस दिन इस ओर बिहू शुरू होता है। बिहू अहोम राजाओं ने शुरू कराया था और मुख्य बिहू सिवसागर के रंगमहल में आज भी मनाया जाता है। रंगमहल असम राज्य के प्रतीकों में है और लकड़ी के गैंडे-बारहसिंगे की तरह यहां इसके भी छोटे-बड़े हर साइज में मॉडल बिकते मिलेंगे। सिवसागर में ही मेरी नानी सास मेरे इंतजार में है, जिसने मेरे ब्याह में असम में सबसे पवित्र माने जाने वाले कांसे और पीतल के बर्तन भेजे थे। वैसे कांसे और पीतल के बिना क्या अपने यूपी में भी शादी पूरी हो सकती है? आई थिंक- नो। कांसे के ये बरतन अब तो बांग्लादेशी भी बनाने लगे हैं, वरना मुगलों से हुई लड़ाई के बाद जो मुसलमान सैनिक यहां घायल होकर जिंदा बचे रहे गए, उन्होंने यह काम संभाला, और उनके बाद उनकी पीढ़ियों ने।

खाना खाने के बाद हमारा अगला पड़ाव था परिणिता की दुकान। इन्होंने नलबाड़ी गुवाहाटी के रास्ते में पूरी-सब्जी से अपनी दुकान शुरू की थी, जो चल निकली तो अब इनकी यहां पर तीन-तीन बड़ी दुकानें हो चुकी हैं, जो हमेशा भीड़ से भरी रहती हैं। यहां हमें मिठाई वगैरह खरीदनी थी। असम में रिवाज है कि आप किसी के घर जा रहे हों तो अपने नाश्ते का सामान खुद बंधवाकर ले जाइए, जो वहां चाय के साथ खुद भी खाइए, अपने मेजबान को भी खिलाइए। हमने यहां से दो तीन तरह की बरफी पैक कराई। नलबाड़ी में हमें बालीकोरिया जाना था। पहले यह नलबाड़ी का एक गांव था, मगर अब शहर डिवेलप होते हुए यहां तक पहुंचने को बेताब है तो कह सकते हैं कि यह एक अधगंवई इलाका है। मने गांव भी और शहर भी। मकान गांव जैसे कच्चे-पक्के भी मिलेंगे और शहर जैसे तीन तल्ला भी।


यहां नोट करने लायक एक खास बात दिखी। नलबाड़ी में मारवाड़ी खूब हैं। जिस तरह से इनके जगह जगह पर मकान दिखते हैं, लगता है कि गुवाहाटी में इतने नहीं होंगे। सबके घरों के बाहर लोहे के स्लाइडिंग चैनल बने हुए हैं, और घर की हर खुली जगह, चाहे वो खिड़की हो, रौशनदान हो या बालकनी हो, लोहे की मजबूत ग्रिल से लैस होगी। मगर अब यही कल्चर धीमे-धीमे गुवाहाटी में नए बनने वाले लगभग सारे असमी घरों में लागू होने लगा है। वे भी मकानों में ग्रिल लगवाने लगे हैं। मैंने पूछा तो पता चला कि उल्फा के जमाने में इन पर वसूली के लिए खूब अटैक हुए। असम में बड़ा पैसा मारवाड़ियों के पास था। असम की आबादी के दस से पंद्रह फीसदी मारवाड़ी असम के कुल व्यापार का अस्सी से पचासी फीसदी कंट्रोल करते हैं। बिजनेसमैन हैं, करंसी नोट बहुतायत में इन्हीं के पास हैं तो जाहिर है कि कभी इनसे वसूली होती तो कभी इन लोगों ने खुद अपनी ताकत जताने के लिए उल्फा और आसु जैसी चीजों में पैसा लगाया। बहरहाल, यहां बस इसी पहचान के सहारे कोई भी मारवाड़ियों के घर पहचान सकता है। लोहे के गेट असमियों के घर के बाहर भी लगे हैं, मगर वो ठीक वैसे ही हैं, जैसे यूपी या उत्तराखंड में दिखते हैं। सरकाने वाला फोल्डिंग टाइप का चैनल गेट सिर्फ मारवाड़ियों के घर के बाहर दिखता है।

नलबाड़ी के प्रसिद्ध आई सर्जन डॉ. सदानंद रायबरुआ का परिवार हमारा मेजबान था। मेरी साली इन्हीं के सबसे बड़े लड़के से ब्याही है। लड़का-लड़की दोनों यूएस में रहते हैं, और इन्हीं के आठ महीने के सुपुत्र के अन्नप्राशन समारोह में हम पहुंचे थे। पहले डॉक्टर साहब का मकान एकदम असमिया स्टाइल में था। बस बांस और मिट्टी से बनी कच्ची दीवारों की जगह दीवारें पक्की थीं, मगर डिजाइन वही था जो पूरे असम के मकानों का डिजाइन है- टिन की छत। पीछे लंबी चौड़ी बाड़ी, यानी बागीचा और मछली के लिए तालाब। मगर कुछ साल पहले इसी घर के आगे तीन तल्ले का काफी बड़ा मकान बना लिया है और पुराना पीछे वाला मकान किराए पर चढ़ा दिया है।


डॉक्टर साहब अपनी स्टूडेंट और उसके कुछ बाद की लाइफ तक किसी न किसी रूप से आरएसएस से जुड़े रहे हैं। अभी भी वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कट्टर वाले समर्थक हैं और आयुष्मान भारत योजना के तहत कैटरैक्ट ऑपरेशन करने में नलबाड़ी में अव्वल जगह बना रहे हैं। वाइफ, यानी कि किसी न किसी रिश्ते में मेरी सास मंजुला दत्ता रायबरुआ हैं जो नलबाड़ी कॉलेज में जूलॉजी की प्रफेसर तो रही ही हैं, वहां की एक्टिंग प्रिंसिपल के पद से अब रिटायर हो चुकी हैं। साइज में लगभग मेरी मम्मी की तरह, रंग और आदतों में भी। जैसे मेरी मम्मी घर में किसी को यूं ही बैठा या राह से गुजरता देखती हैं तो कुछ न कुछ खाने के लिए पूछती रहती हैं, और मैं उनसे परेशान होता रहता हूं, इन्होंने भी मेरा वही हाल किया।

मैंने अपनी साली के पति यानी इनके लड़के सिद्धार्थ से पूछा कि क्या नौकरी के दिनों में भी ये ऐसी ही थीं तो वह बोला- हां। सिद्धार्थ प्रोजेक्ट मैनेजर है, अमेरिका में पोस्टेड है। पता चला कि सिद्धार्थ अकेला नहीं है, नलबाड़ी के बहुतेरे लोग अमेरिका में काम कर रहे हैं। इसकी वजह पूछने पर पता चला कि नलबाड़ी असम के दो तीन सबसे स्मार्ट जिलों में से एक है, यहां के बहुत सारे लोग अमेरिका और यूरोप में फैले हुए हैं। असम.ओआरजी के मुताबिक अमेरिका में दो चार हजार असमी लोग काम कर रहे हैं। और ये आज से नहीं, 1960 के भी पहले से वहां पर हैं और वहां पर इनका असोम संघ, असम सोसायटी ऑफ अमेरिका, असम एसोसिएशन ऑफ नॉर्थ अमेरिका, असम साहित्य सभा नॉर्थ अमेरिका भी है।
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Tuesday, January 10, 2023

असम डायरी : धरती को शर्मिंदा करती गुवाहाटी AS01

गुवाहाटी बसिष्ठ आश्रम के पास बीजेपी मुख्यालय
हम सब आज गुवाहाटी से नलबाड़ी जा रहे हैं। हम सब यानी मैं, मेरा साला, मेरी साले की वाइफ जो उसके तांबूल खाने पर उसे नाराज होकर कूट रही है, और इन दोनों का बेहद प्यारा सा बच्चा। यह बच्चा बोरगोहनों और बड़फुकनों की सम्मिलित संतान है, जिसने मेरी नाक में दम कर रखा है। नलबाड़ी मेरी साली की ससुराल है। उनके सुपुत्र महोदय अब 8 महीने के हो चुके हैं और कल सुबह उनका अन्नप्राशन समारोह है। गुवाहाटी से नलबाड़ी तकरीबन 50-60 किलोमीटर है, जैसे फैजाबाद से सुल्तानपुर, हरिद्वार से देहरादून, मेरठ से दिल्ली या बरेली से बदायूं। मगर फैजाबाद से सुल्तानपुर वाले या पिछले कुछ सालों से मेरठ से दिल्ली वाले रास्ते में जाम नहीं मिलता, यहां जाम खूब मिलता है। इसके चलते यह रास्ता ढाई से तीन घंटे और कभी-कभी चार घंटे तक का हो जाता है। यह जाम लगता इसलिए है क्योंकि गुवाहाटी में चार पहिया वाली गाड़ियां जरूरत से ज्यादा हो चुकी हैं, जिनपर शायद अभी यहां की सरकार कोई खास गंभीर नहीं है। यह मेरा नहीं, बल्कि इस शहर के तकरीबन हर कारवाले का कहना है। किसी भी शहर में अगर इतनी ज्यादा गाड़ियां हों तो मेरा मानना है कि ऑड-ईवन वाला प्रयोग सड़कों और लोगों को राहत देने के लिए इतना भी बुरा नहीं। 

फिर गुवाहाटी से नलबाड़ी जाने वाला रास्ता चौड़ा किया जा रहा है तो इन दिनों जगह-जगह से खुदा पड़ा है, डायवर्जन अलग से बोनस में मिलता है। सड़क बनाने का यही सीजन होता है, यानी सर्दियों का। इसके बाद तो गर्मियां अपने साथ बाबा ब्रह्मपुत्र का वो पानी लेकर आती हैं, जो असम, यानी ऐसी जगह जो कहीं से भी सम नहीं है, उसे हर जगह भरकर सम कर देता है। ऐसे में सड़क तो दूर, लोगों के घरों में दो जून का भात ही बन जाए तो बड़ी बात है। असम में दो जून की रोटी नहीं, दो जून का भात चलता है। काजीरंगा में जब मैं बड़े शौक से धान की साढ़े तीन सौ किस्में रेकॉर्ड कर रहा था तो उन्हें दिखाने वाले ने कौतूहल से पूछा- आप तो रोटी वाले हैं ना? मैंने कहा, भैया, मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश का हूं और विशुद्ध भात वाला हूं। हमारे यहां जितने लोकगीत धान रोपने पर हैं, गेहूं पर उसके आधे तो दूर, चौथाई भी नहीं हैं। रोटी हमारे यहां बनती है, लोग खाते हैं, मगर ज्यादा शौक से भात ही खाते हैं। और एक बात, यूपी तो दूर, उत्तराखंड वालों का भी जीवनमंत्र भट-भात ही है। बेचारे का मुंह खुला का खुला रह गया था, मैं बोला कि बंद कर लो, मक्खी घुस जाएगी। मेरे इतना कहते ही वह ठठाकर हंस पड़ा, और फिर मुझे उसने इतने शौक से अपने सारे के सारे धान दिखाए कि उसका एक अलग अध्याय न लिखा तो बड़ी बेइमानी होगी। 

बहरहाल, वापस चलते हैं नलबाड़ी की ओर। बल्कि नलबाड़ी पहुंचने से पहले क्यों न रास्ते का पूरा जायजा लेते चलें। गुवाहाटी से जरा सा बाहर निकलते ही आपको बीजेपी का एक फाइव स्टार दफ्तर दिखेगा। पिछले साल अक्टूबर में भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने इसका फीता काटा था। यह समूचे नॉर्थ ईस्ट में बीजेपी का सबसे बड़ा दफ्तर और शायद यहां पार्टी की सबसे बड़ी प्रॉपर्टी भी है। इसके पास है बसिष्ठ मंदिर और एक साउथ इंडियन मंदिर। बसिष्ठ मंदिर अंदर है और साउथ इंडियन मंदिर सड़क किनारे ही है। असमिया में ब या श खूब होता है, मगर अक्सर वहां नहीं होता, जहां हम मानते हैं कि हिंदी में होना इसकी जरूरत है। इसीलिए हमारे यहां के वशिष्ट यहां आकर बसिष्ट हो जाते हैं, या फिर शंकर संकर में बदल जाते हैं, शिव सिव में। सिवसागर यहां का एक जिला है, जहां मेरी ननिहाल वाली ससुराल है। मैंने सुना है कि ननिया सास मुझे बड़े दिल से देखना चाहती हैं और यह मेरा वहां फिर से जाने का बहुत बड़ा बहाना भी है। खैर, गुवाहाटी से बढ़े तो नगांव, जाखलोबंधा, काजीरंगा, जोरहाट और फिर सिवसागर। कोई चाहे तो इसे शिवसागर कह सकता है, असमी लोग बुरा नहीं मानेंगे, मगर उनको कहना होगा तो वे सिवसागर ही कहेंगे। 

रैडिसन ब्लू प्रवेश द्वार
इससे थोड़ा आगे बढ़ने से पहले मैं नगांव की जियोग्राफी बता दूं। नगांव से ही अपर असम शुरू होता है, और अपर असम के लोगों को पहचानने का तरीका यह है कि वे लंबे-चौड़े होंगे। डिब्रूगढ़ अपर असम में है और वहां के नहरकटिया में जन्मीं मेरी बुआ वाली सास कम से कम छह फीट की तो हैं ही, चौड़ाई में तो मैं उनका तिहाई भी निकलूं तो गनीमत है। खुद मेरी मोहतरमा मुझसे शायद एकाध सेंटीमीटर आगे ही निकलती होंगी। अब इससे आगे चलें तो आपको दिखेगा होटल रैडिसन ब्लू। यह वही होटल है, जिसमें अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन चुके शिंदे अपने साथी विद्रोही शिवसैनिकों/विधायकों को लेकर इसलिए रुके थे कि पीछे बचे शिवसैनिकों में इतना दम नहीं कि वो असम पर हमला बोल सकें। जब मुगलों में दम नहीं था तो आज के शिवसैनिकों की क्या बिसात! और वो भी बचे हुए! खैर, यह तो मजाक की बात हुई। मेरे साले ने बताया कि जब ये लोग यहां पर रुके थे और डीलिंग-फीलिंग चल रही थी, तो वह भी यहीं पास वाले एक फ्लैट में रुका था, क्योंकि उसका एक दोस्त बीमार था। कई हलचलें उसने अपनी आंखों से नोट की थीं तब।

कुछ और आगे बढ़े तो लाइम और स्टोन फैक्ट्रियां शुरू हुईं। मैं इन फैक्ट्रियों को बहुत अच्छे से पहचानता हूं। नब्बे के दशक की शुरुआत में देहरादून में जब अपनी मामी वाली लेडीज साइकिल से मैं रायपुर पोस्ट ऑफिस की रोड से निकलकर दुल्हनी नदी पार करते हुए डालनवाला की हफ्तिया हाट जाता था तो ये रास्ते में चूने सा सफेद धुंआ निकालती दिखती थीं। मुझे समझ में आ गया कि यहां जो भी टीले जैसे पहाड़ हैं, उनका हाल उत्तराखंड के लुटेरों की बदलौत लुट चुकी धरती की इस शान से कुछ अलग नहीं मिलने वाला। और वाकई कुछ आगे बढ़ने पर मुझे इन पहाड़ियों का वह हाल दिखा, जिसके बारे में मैं नहीं कहूंगा कि इसमें असम के शासन-प्रशासन का दोष है या लुटेरों का दोष है। या फिर उनको इस करतूत पर शर्म आनी चाहिए। मैं बस इतना कहता हूं कि हे पृथ्वी, हे प्रकृति, मैं समूची इंसानी कौम की इस करतूत के लिए भरे दिल से शर्मिंदा हूं। 

गुवाहाटी में काटे जाते पहाड़

जब मैं महोबा होते हुए कानपुर से खजुराहो अपनी बुलेट से जा रहा था, मुझे एक आधा कटा एकदम खून सा लाल पहाड़ दिखा। मैं वहीं उसी वक्त गाड़ी खड़ी करके अपने घुटनों पर बैठ गया था, इस पछतावे से कि इंसानों ने यह क्या कर दिया। एकदम वही फीलिंग मुझे इन रास्तों पर एक दो नहीं बल्कि आधा दर्जन या फिर इससे ज्यादा कट चुके खत्म होने की कगार पर पहुंचे पहाड़ों को देखकर आई। जिस किसी ने भी यह किया है, मैं उसी महोबा वाले भरे दिल से उसे बद्दुआ देता हूं कि ब्रह्मपुत्र का पानी न तो कभी उसके घर से निकले, ना खेतों से। मैं जो कुछ कह रहा हूं, पूरे सबूत के साथ कह रहा हूं और मेरे पास इन सबकी विडियो साक्ष्य के रूप में मौजूद है। और साक्ष्य वगैरह तो दूर की बात, इस सड़क से औसतन हर रोज गुजरने वाली हजारों गाड़ियों में बैठे हजारों हजार लोग यह सीन देखते हैं। मेरा सवाल है कि उनकी हिम्मत कैसे हो जाती है यह सीन देखने की। यार, मौसम तो असम का भी बदल रहा है, बूरापहार में चाय की पत्तियां जरूरत से ज्यादा हरी होने लगी हैं। ऐनीवे, महोबा के सबूतों को दोबारा देखने की हिम्मत मेरी आज तक नहीं हो पाई है, असम में कटे-फटे पहाड़ों के इस विडियो को भी मैं दोबारा देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं। एक बार फिर से साफ कर दूं कि इसकी शर्म सिर्फ और सिर्फ मुझे है, असमियों को हो या ना हो, भारतीयों को हो ना हो, इसका उससे कोई मतलब नहीं है। 

....जारी