Wednesday, September 19, 2018

कुछ भी नहीं कर पाया मैं

कुछ भी नहीं कर पाया मैं
दिन गुजरते रहे
कुछ करने के ख्यालों की तरह
रातें कटती रहीं
कुछ करने के सपनों की तरह
हर सुबह मैंने यही पाया
कि कुछ भी नहीं कर पाया मैं।

न ठीक से प्रेम कर पाया
और न ही ठीक से नफरत
न ठीक से नौकरी की
और न ही ठीक से पैसे कमाए
न ठीक से कभी घर चला पाया
न ही ठीक से कभी गाड़ी चलाई
जब जब चोट लगी, यही याद आया
कुछ भी नहीं कर पाया मैं।

ऐसी कोई रात नहीं गुजरी
कि मैं ठीक से सोया
ऐसा कोई दिन नहीं गुजरा
कि मैं पूरा पूरा जागा
जागती आंखों से देखता रहा सपना
और बंद आंखों में भरता रहा रेत
न ठीक से घर का हो पाया
और न ठीक से बाहर का ही
जब भी कुछ करने का ख्याल आया
कुछ भी नहीं कर पाया मैं।

जैसी चलती है ये दुनिया
जैसी चलती है ये हवा
जैसे फूटती है धूप
जैसे घेरते हैं बादल
कितना तो चाहा
मैं भी चलूं, फूटूं और घेरूं
लेकिन ठीक से नहीं चाह पाया
जब भी बैठना चाहा
बेचैन होकर चलने लगा
जब भी चलना चाहा
हारकर बैठ गया।

दिन गुजरते रहे
रात कटती रही
शाम होती रही
सूरज चांद सब उगे
फूल खिलते रहे
और सबने अपना काम ठीक से किया
मगर मैं रहा कि
कुछ भी ठीक से नहीं किया
न ठीक से सांस ली
न ठीक से एक खबर लिखी
न ठीक से एक फोटो खींची
न ठीक से कोई कहानी बनाई
और तो और
ठीक से कुछ नहीं कर पाया
ये भी ठीक से नहीं बता पाया मैं।