Sunday, May 27, 2007

हरी पाठक और राम का दहेज़

हरी पाठक के कारनामे -६
शुक्ला के दोनो कान भी लाल हो गए। " साला !! दो कौड़ी का पत्रकार मेरी बराबरी करता है ! " अचानक शुक्ला बिना कुछ कहे ही वहाँ से हट गया। थोडा सा किनारे आया और उस चैनल के मालिक को फोन करने लगा जिसमे कि चौधरी काम करता था। " साले की तो आज ऎसी की तैसी कर दूंगा।" फोन मिला और दूसरी तरफ से चैनल का मालिक श्यामलाल सीतावंशी बोला "जय हो ! जय जय हो शुक्ला जी महाराज की !" शुक्ला ने बेचैनी से फोन एक कान से दूसरे कान की तरफ ट्रांसफर किया, बोला " क्या सीतावंशी जी ! आपके राम तो बड़ा दहेज़ माँग रहे हैं। इतने मे तो न जाने कितने रामो की शादी हो जायेगी।" अब श्यामपाल हडबडाया, बोला, " मालिक ! आख़िर मामला क्या है? " शुक्ला ने मन ही मन उसे पचासों गालियाँ दीं , लेकिन फिर संभलकर बोला, " चौधरी आया हुआ है। किलष्ट किशोर सर्राफ़ के यहाँ हमारी बात चल रही है। साला न तो हमे खाने देगा और न ही खुद खायेगा।" अब दूसरी तरफ से सधी हुई आवाज़ में पूछा गया, " कितने की डिमांड है ?" शुक्ला बोला, " आधे की" श्यामपाल ने कहा ,"चलो , पांच परसेंट कम करके बात खतम करो।" अब तो शुक्ला और खौरा गया लेकिन खुद को संभालकर बोला,"ठीक है, देखता हूँ।" लेकिन यादव को हिस्सा देने का उसका कोई इरादा नही था।
अब आते हैं हरी पाठक पर। जब हरी शुक्ला के लिए तहखाने का दरवाज़ा खोलकर वापस जनरेटर रूम की तरफ आ रहा था तो दरवाज़े की चौखट पर मालिक खड़ा उसे अंगारे बरसाती नज़रों से घूर रहा था। अगर आंखो से क़त्ल करना मुमकिन होता तो हरी न जाने कब का मर गया होता। लेकिन इसी बात का दुकान के मालिक को शायद हमेशा अफ़सोस रहेगा कि आंखो से क़त्ल नही हो सकता। हरी अन्दर आया तो पीछे पीछे मालिक भी अन्दर आ गया, बोला, " हरी! तू गया !!अब तुझे कोई नही बचा सकता।" हरी ने निगाह ऊपर उठाई और सीधे मालिक की आंखो में गाड़ दीं । मालिक फिर सकपकाया। क्या था हरी की आँखों मे आख़िर !! तब तक उसने देखा कि शुक्ला तहखाने से बाहर निकल आया है और त्रिवेदी और दुबे से कुछ बातें कर रहा है। वह उसी ओर लपका। अब हरी भी दरवाज़े की चौखट पर आकर खड़ा हो गया और जो कुछ भी हो रहा था , देखने लगा। जब उसने देखा कि कुछ ले दे कर बात यही पर खतम हो जाने वाली है तो उसे अच्छा नही लगा। वह सोचने लगा। अचानक फिर से उसके दिमाग मे कही खट सा हुआ और हरी पिछले दरवाज़े से बाहर की तरफ बढ़ा। ज्ञानू पी सी ओ वाले के यहाँ पंहुचकर उसने अपनी जेब से एक फटी मटमैली पॉकेट डायरी निकाली , उसमे कुछ देखा । अब उसकी उँगलियाँ तेज़ी से टेलीफोन कि बटनों से खेलने लगी।
इधर शुक्ला चैनल के मालिक से बात करके वापस लौटा और दुकान के किनारों पर पडे सोफों मे से एक पर पसर गया। वही से उसने एक ऊँगली के इशारे से चौधरी को बुलाया। चौधरी पास आया तो सोफे पर हाथ थपथपाकर बैठने का इशारा किया। जब चौधरी बैठ गया तो शुक्ला ने पूछा , " सुर्ती है ?" चौधरी ने कहा , " हाँ बिल्कुल है।" शुक्ला बोला, " जरा बनाओ तो।" चौधरी ने पिछली जेब से पांच सौ पचपन की पंढरपुरी पुडिया निकाली और हाथ में लेकर रगड़ने लगा।

Wednesday, May 23, 2007

पेठिया में पारो

संदीप कुमार

(संदीप पिछले कुछ दिनों से पेठिया-गाथा कहे-सुनाए जा रहे हैं। इस बार फिर से अपनी किशोरावस्था में जाकर पेठिया के रुमानी पहलू को याद कर रहे हैं।)

ये तो अब तक आप लोग जान ही गए होंगे कि मेरे घर के आगे पेठिया (साप्ताहिक बाजार) लगता है। पेठिया के कारण मुझे एक नई पहचान भी मिली हुई है। जब भी मेरे हमनामों के बीच मेरी चर्चा होती है तो लोग डिफरेंस करने के लिए कहते हैं कि पेठिया वाला संदीप...एक तरह से नेठा नाम हो गया है मेरा ये। (जिसे आप लोग निक नेम कहते हैं, उसे हमारे इलाके में नेठा नाम कहा जाता है) पर पेठिया का पड़ोसी होने की मेरी क्वालिटी से कई लोग रश्क भी करते हैं। रश्क करने वालों में अधिकतर रसिक मिजाज किसिम के लोग होते हैं। ये लोग सोचते हैं कि पेठिया का बगलगीर होने का इसे ये फायदा होता होगा कि वो गुरुवार के दिन (इसी दिन पेठिया लगता है हमारे यहां) छत से, खिड़की से और घर के बाहर निकलकर आराम से बेरोक-टोक आने-जाने वाली लड़कियों को निहार सकता है। ऐसे लोग तो यहां तक सोचते कि काश, हमारे घर के बगल में भी पेठिया लगता तो हमारी भी रज-गज (चलती) रहती।

दरअसल ये रसिक मिजाजी लोग बहुत बड़े अंख-सेंकवन थे। हफ्ते में पेठिया का इंतजार ही इसीलिए करते थे ताकि छौंडियन (सभ्य समाज में जिसे अब माल कहा जाने लगा है!) को देखने का मौका मिल जाए। सात-सात कोस के तकरीबन पचासों गांव के लोग पेठिया में जुटते हैं। कोई कुछ खरीदने तो कुछ लोग बेचने। पर बहुत लोग जिनमें अधिकतर लौंडे-लपाड़े होते हैं वो बस यूं ही घूमने-फिरने और मोल-भाव करने पहुंचते। (दिल्ली में ही आकर सुना कि इसे विंडो शॉपिंग कहते हैं) ये शोहदे किस्म के लोग ग्रुप में होते और मेरे घर के बरामदे में आ धमकते। अखबार उठाते और उसके हर पन्ने को अलग-अलग निकाल कर चार-पांच दोस्त बांटकर पढ़ने का नाटक करते। दरअसल हाथ में अखबार होता था और निगाहें सामने से पेठिया जाने वाली लड़की पर होता। जैसे ही इन लौंडों को कोई लड़की जंच जाती, ये लुंडी-सुतरी करने निकल पड़ते। (मतलब लाइन मारने निकल पड़ते) अखबार को जैसे-तैसे वहीं फेंक ये लोग लड़की के पीछे लपक पड़ते।

जहां-जहां जिस-जिस दुकान में लड़की जाती पीछे-पीछे ये भी हो लेते। हालांकि छेड़हर टाइप के लोग (जिसे सिविल सोसायटी में फ्लर्टबाज कहते हैं) पेठिया में सब्जी या सामान वगैरह बेचने आने वाली लड़कियों-औरतों पर भी निगाहें फेरते। जिन दुकानों में औरतों के लिए स्टेशनरी और श्रृंगार वगैरह की चीजें बेची जातीं, उसके आसपास ऐसे शोहदे खूब मंडराते। पेठिया के इन अस्थाई दुकानों की खास बात ये थी कि ये एक रस्सी में महिलाओं के अंदरुनी कपड़ों को लटकाकर रखते। (विंडो-डिस्पले की जगह इसे रोप-डिस्पले कह लीजिए) रंग-बिरंगे बालिश्त भर के इन कपड़ों को देखकर शोहदे खूब चुटकी लेते। पर खरीदने वाली औरतें आसपास लौंडों को देखकर इन चीजों को उलट-पुलटकर देखने या मोल-भाव करने से सकुचातीं। कई बार दुकानदार इन लौंडों को दबी जुबान से झिड़की भी देता लेकिन इनकी ग्रुपबाजी को देखकर वो सहम भी जाता।

हालांकि कोई भी लड़की अकेले पेठिया नहीं आती थी, उसके साथ मां नहीं भी हो तो चाची-भौजी टाइप की कोई-न-कोई औरत होती ही थी और नहीं तो कम-से-कम छोटा भाई या बहन तो जरूर ही होता। सो लौंडे एक सम्मानजनक दूरी बनाकर चलते थे। (इसे किप डिस्टेंस कहा जाता था और यह टर्म लोगों की जुबान पर इसलिए चढ़ा हुआ था क्योंकि पेठिया जीटी रोड के किनारे लगता था और वहां से गुजरने वाली ट्रकों-लौरियों के पीछे कीप डिस्टेंस लिखा होता था) पेठिया में ऐसे लौंडों के कई ग्रुप दिख जाते। कई बार दो-तीन ग्रुप तो आपस में ही टकरा जाते। विकट स्थिति तब होती जब एक ग्रुप को यह पता चलता कि दूसरे गांव के लौंडे उनके इलाके की लड़की के पीछे पड़े हुए हैं। हैंडल विद केयर को ये लोग फॉलो करते थे। दूसरे गांव की लड़कियों पर नजर रखते थे तो अपने इलाके वाली लड़कियों पर कोई निगाहें न डाले, इसका भी ध्यान रखते। कई दफे इसी चक्कर में बीच पेठिया मार-धाड़ भी हो जाया करती थी।

सबसे बड़ी बात ये कि पेठिया आई कोई लड़की अगर एक बार भी पीछे मुड़कर इन लोगों को देख लेती थी तो ये समझते बैतरणी पार हो गए। हालांकि बाद में आपस में ये इसलिए भी बहस किया करते थे कि उसने मुझे देखा। (मतलब लाइन दी) बस यूं ही हवा में कई लड़के देवदास बने फिरते। ये बिना जाने कि वो उसकी पारो है या नहीं। पेठिया में आने वाले वीकली देवदासों की तादाद कुछ कम नहीं थी। मुझे नहीं मालूम कि वीकली देवदासों की तरह वीकली पारो भी होती हैं या नहीं जो इसीलिए पेठिया आती हों कि उन्हें भी आंखें सेंकने का मौका मिल जाए।

Monday, May 21, 2007

हिंदुत्व का यह चेहरा

हिंदू धर्म में भी कभी कभी कट्टरता को बढावा देने वाली घटनाएं घटती हैं,जैसी कि महज दो दिन पहले केरल के एक मंदिर मे देखी गयी। केंद्रीय मंत्री व्यालार रवि अपने बेटे और नवजात पोते के साथ मंदिर मे दर्शन के लिए गए थे। उनके लौटने के बाद मंदिर प्रबंधन ने परिसर को धोकर पवित्र किया। इस वरिष्ठ राजनेता के साथ ऐसा सुलूक पहली बार नही हुआ है। कुछ वर्ष पहले गुरुवायुर मंदि मे अपने बेटे की शादी का समारोह आयोजित करने के बाद भी प्रबंधन ने मंदिर को शुद्ध किया था। लेकिन तब व्यालार रवि की इसाई पत्नी साथ थी, हालांकि तब भी उस कृत्य का समर्थन नही किया जा सकता था। पर इस बार तो उनकी पत्नी साथ नही थी। मंदिर प्रबंधन के इस व्यवहार ने इस परिवार को ही नही, उदार सोच रखने वाले दूसरे लोगो को भी क्षुब्ध किया है। जो हिंदू धर्म अन्य मतावलंबियों के प्रति उदारता के लिए प्रसिद्ध रह है , उस धर्म मे आख़िर ये क्या हो रहा है ? पुरी के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर के प्रबंधन ने महात्मा गांधी को दलितों के साथ और विनोबा भावे को मुस्लिमों के साथ प्रवेश करने से रोका था । और तो और , प्रबंधन ने एक समय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को मंदिर मे प्रवेश नही करने दिया क्योंकि उन्होने पारसी से शादी की थी। लेकिन आज के दौर मे कुछ दशक पहले जैसी कट्टरता को आख़िर क्या कहेंगे ? आख़िर इसी दौर मे कुछ मंदिरों के दरवाज़े निचली जातियों के लिए खुले भी हैं। इसके पक्ष मे कई जगह सामाजिक आन्दोलन हुए हैं। लेकिन इसका दूसरा उदास करने वाला पक्ष यह है कि गुरुवायुर मंदिर के दरवाज़े येसुदास जैसे भक्त गायकों के लिए आज भी बंद हैं। व्यालार रवि को इसाई से शादी करने का दंश बार बार मंदिर मे झेलना पड़ता है। धार्मिक कट्टरता मे पंजाब इसी तरह गर्क हो जता है कि म्यान से तलवारें निकल जाती हैं।

अमर उजाला से साभार

गीता,गाँधी और गोलवलकर-पार्ट वन

एक समय था जब भारत के स्वाधीनता संग्राम में गीता की एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। उस समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने गीता से शांति और अहिंसा का संदेश प्राप्त किया। इसे से उन्होने लोगों को साम्राज्य वाद के विरोध के पाठ पढाये। आदि शंकराचार्य ने गीता से आध्यात्मिक ज्ञान और ज्ञान और सन्यास का संदेश ग्रहण किया।चैतन्य महाप्रभु के लिए गीता का मतलब रह भक्ती यानी कि इश्वर के प्रति निष्काम समर्पण। वही रजनीश ने गीता से क्या सीखा ? मुक्त प्रेम और विहार। लेकिन लोकमान्य तिलक ने गीता मे कर्मयोग पाया न कि कर्मफल की इच्छा । उनके लिए गीता का मतलब था 'शठे शाठ्यं समचारेत' । जिसके विपरीत गाँधी जी का मतलब था सत्य और अहिंसा और वो सजा नही बल्कि आत्मचिंतन पर विश्वास रखते थे। अंग्रेजों में भी एक बड़ा वर्ग था जो गीता में निष्ठा रखता था। गीता मे जो कुछ भी लिखा हुआ है , उसका अर्थ उन अंग्रेजों ने निकाला कि भारतीय लोगों की आध्यात्मिक जरूरतें ज्यादा है। वो आध्यात्मिक ज्यादा हैं और भौतिक जरूरतों से बेपरवाह। इसी सोच के चलते उन्होने भारतीयों को राजनीती और सत्ता से बेदखल कर दिया कि जाओ , इश्वर से लौ लगाओ! यहाँ क्या रखा है !! सिर्फ मोह और माया ही तो ! और गोलवलकर ने गीता से क्या सीखा ? यही न कि मुसलमान इस देश के शत्रु हैं और उनका करीने से, बारी बारी से क़त्ल करना होगा। सर संघ दिरेबर कूप सी सुदर्शन इसी परम्परा के वाहक हैं। तो इतने सारे लोग और गीता सिर्फ एक। और उसपर उस एक किताब से इतना अंतर्विरोधी ज्ञान ? ऐसा कैसे हो गया कि एक किताब इतनी अंतर्विरोधी शिक्षाएं दे सकी ?
दरअसल इन सारे अन्तर्विरोधों की जड़ में खुद गीता ही है। इसका जो स्वरूप है वह सार संग्रह वादी होने की वजह से न सिर्फ इसे असंगत बना देता है बल्कि जितने भी अंतर्विरोध हैं , यही प्रदान करता है। एक उदाहरण और उसकी टूटन देखें -:
गीता में कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि हे अर्जुन! तुम कर्मफल की चिता किये बग़ैर कर्म करो। युद्ध करो। ये सामने जो लोग हैं , ये तुम्हारे संबंधी नही। इनके प्राण तो मैंने पहले ही हर लिए हैं। तुम्हे तो अब बस फोर्मैलिटी पूरी करनी है। इसलिये मोह माया त्याग कर इनका वध करो।
कृष्ण के इस वक्तव्य का पोस्ट मार्टम करने से पहले ये ध्यान दिलाना जरुरी होगा कि लगभग सारी किताबो मे जहाँ कृष्ण का जिक्र है उसका सार यही है कि कृष्ण नाम के दूधिये ने जिसने कि कथित गीता का उपदेश दिया था, खुद एक भोगी और अतिविलासी प्रवित्ती का पुरुष था जिसने अनगिनत लड़कियों के साथ यौन संबंध बनाए और यहीं तक बात ख़त्म नही हो जाती , उसके भक्तों मे बहुत सारे पुरुष शामिल थे। ऐसा मैं इसलिये कह रह हूँ कि उस समय क्या अभी भी यादव पिछङी जाति मे आते हैं और वर्ण व्यवस्था की सारी शर्तें उस समय के समाज में जरूर लागू होगी। अब जिनकी आंखो पर कथित हिंदू और हिंदुत्व की पट्टी चढ़ी हो, उन्हें ये और कुछ दिखायी देता है। उन्हें ये कुछ और क्यों दिखायी देता है , इसपर हम आगे चर्चा करेंगे।
जिस समय महाभारत के युद्ध होने की बात कही जाती है , उस समय अभी तक मिले प्रमाणों के अनुसार , भारतीय महाद्वीप कबीलाई समाजों मे बटा हुआ था। एक कबीला होता था जिसे राजा और पुरोहित मिलकर चलते थे। राजा को इश्वर का दर्ज़ा मिला हुआ था और उसके परिवार को इश्वर की संतान माना जाता था। अक्सर एक कबीले के बीच युद्ध तो होते थे लेकिन इश्वर की संतानों के बीच युद्ध की शरुआत इसी कृष्ण नाम के दूधिये ने की। सबसे पहले इसने अपने ही मामा कंस का वध किया और जब उसके बाद भी पेट नही भरा तो महाभारत करवा दी। ऊपर से अर्जुन को दिए गए संदेश ने रही सही कसर पूरी कर दीं। उसके बाद कृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करता है कि समस्त शत्रुओं के प्राण तो उसने पहले ही हर लिए हैं, वह तो निमित्त मात्र है। अब जब प्राण पहले ही हर लिए हैं तो फर्जी मरे हुए लोगों को क्या मरवाना और अर्जुन जैसे शूरवीर को बस यही काम रह गया है कि वो लाशो को अपने तीरों का निशाना बनाकर खुद को महान योद्धा साबित करे।
ऐसे ही बहुत सारे घपड ढोंगो से गीता भरी पडी है। लेकिन क्या इससे भी वह समस्या सुलझ जाती है कि किताब एक और उससे इतने सारे अंतर्विरोध। शायद नही। इसके लिए जरुरी है कि गीता की उत्पत्ति कैसे और क्यों हुई , खासकर किन परिस्थितयों मे हुई , यह जाना जाय क्योंकि इसमे कई सारे सवालों के उत्तर हैं। इसलिये आइये थोडा सा इतिहास में चलें।

Sunday, May 20, 2007

हरी पाठक और चैनल के रिपोर्टर का आना

शुक्ला ने उसे ऊपर से नीचे तक चार बार देखा। मलिक की हालत और खराब। शुक्ला बोला , ' पचास ' । मालिक ने कहा , ' क्या !! ' अब तो शुक्ला ने मालिक तो डपट लिया। झिड़क कर फुन्फ्कारते हुए बोला, साले !! पचास का मतलब नही समझता ? ' इतना माल दबाकर रखा है , अगर हम ले जाएँ तो कितना बनेगा ? ' मालिक कुछ नही बोला। शुक्ला फिर बोला, 'पचास करोड़ से एक पाई भी कम नही और वो भी अभी , इसी जगह। नगद। ' मालिक ने नम ही मन हिसाब लगाया तो उसे पचास करोड़ मे सस्ता माल छूटता नजर आया। मालिक ने हाँ बोलने के लिए जैसे ही मुँह खोला तभी सामने दरवाज़े पर एक चैनल की ओ बी वैन रुकी। दरअसल शुक्ला के साथ आये यादव जी ने शुक्ला को अकेले डीलिंग करते देख अपने जातभाई खबेश चौधरी को फोन कर दिया था। वह एक चैनल मे रिपोर्टर था। चौधरी वैन से बाहर निकला। दुकान को ऊपर से नीचे तक देखा और ऐसे सांस भरी जैसे अभी अभी नहा के आया हो और दुकान के अन्दर घुस गया। उसे देखते ही यादव जी लपक कर आये और उसे एक कोने मे ले गए। दोनो दो मिनट तक पता नही क्या काना फूसी करते रहे। अब चौधरी अपनी छोटी छोटी आंखें नचाते हुए उस तरफ बढ़ा जिस तरफ कि शुक्ला और मालिक खडे थे। जैसे ही चौधरी शुक्ला के पास पंहुचा , उसने लपक कर शुक्ला के पैर छुए। शास्टांग किया। शुक्ला ने किसी तरह खुद को संभाला और उसे खीसें निपोरते हुए उसे आशीर्वाद दिया। अब चौधरी की बारी थी। बोला क्या पंडित जी ? सब अकेले अकेले ? अरे हम भी तो आप ही के भक्त हैं। शुक्ला बोला क्या अकेले अकेले , इनका फार्म ३१ रह गया था , वही पूरा करवाने आये हैं। चौधरी ने एक उडती सी निगाह त्रिवेदी और दुबे पर डाली जो तहखाने के दरवाज़े पर हकबकाये से कभी शुक्ला को देखते तो कभी चौधरी को। मालिक उनकी निगाहों के मरकज़ से दूर हो गया था। अब चौधरी बोला , अपने मालिक को एक्स्क्लुसिव के लिए बोल के आया हूँ और आपके साब का नंबर , ये देखिए री डायलिंग पर लगा हुआ है। शुक्ला ने मालिक की तरफ देखा। अब त्रिवेदी और दुबे भी मालिक कि ही तरफ देखने लगे। मालिक का सर हिला और हाँ मे ही हिला। यानी कि अभी तक उसका हिसाब सही चल रहा था। अब शुक्ला चौधरी से मुखातिब हुआ , पूछा,'कितना?' ही ही करते हुए चौधरी बड़ी ही मुलायमियत से बोला , बस आपका आधा। शुक्ला का चेहरा लाल हो गया। "!! साले !! मेरी बराबरी करता है !! "

Saturday, May 19, 2007

हरी पाठक और सेल टैक्स वाला शुक्ला

हरी को देखते ही उसे और गुस्सा आ गया। लेकिन दुकान पर उस समय कुछ सेल टैक्स वाले बैठे थे इसलिये वह कुछ बोल नही सकता था। उसने गल्ला अपने भाई गोबिन्द को पकडाया और हरी के पीछे पीछे जनरेटर वाले कमरे मे आ गया जहाँ हरी पानी पीने के लिए एक ग्लास को चमकाने मे लगा था। फुन्फ्कारते हुए मालिक बोला,'कहॉ मर गया था? दुकान क्या तेरा बाप खोलता ? साले ! तेरी अय्याशियाँ दिन ब दिन बढती ही जा रही हैं। आज तेरा जुगाड़ करता हूँ।' हरी को ऐसा लगा जैसे उसके सर में से कही से खट की आवाज़ आयी हो। मलिक जाने लगा तभी हरी के मुँह से आवाज़ निकली। "रुको !! " मालिक ठिठक गया। अचम्भे भरी नज़रों से उसने हरी की तरफ देखा। उसे हरी की आंखें बड़ी अजीब लगीं। हरी आगे बढ़ा और मलिक के हाथ से चाबी का गुच्चा ले लिया। मलिक को तो जैसे करंट मार गया था। चाबी लेकर हरी सेल टैक्स वाले शुक्ला जी के पास गया। वहाँ से उसने मलिक की तरफ निगाह दौड़ाई। मालिक अभी तक हक्बकाया हुआ टुकुर टुकुर उसे ही देख रह था। हरी ने शुक्ला के कंधे पर हाथ रखा। शुक्ल ने हरी की तरफ देखा, फिर उसकी आंखो की तरफ। हरी बोला,'मेरे साथ आओ'। शुक्ल किसी मशीन की तरह उठ खड़ा हुआ। हरी उसे दुकान के बांये कोने मे लेकर गया। वहाँ से तहखाने मे जाने के लिए गुप्त दरवाज़ा था। हरी ने उस गुच्चे मे से तहखाने की चाबी निकाली और तहखाना खोल दिया। मालिक, जो जनरेटर के कमरे वाले दरवाज़े से ये सब कुछ देख रह था , तहखाना खुलते देख उसकी हवा निकल गयी। धम्म से उसी दरवाज़े की चौखट पर बैठ गया और दोनो हाथो से अपना सर थाम लिया।सब कुछ गया !! इस हरी के बच्चे ने तो हमे कहीँ का नही छोड़ा !!

अब हरी और उसके मालिक के बीच लंबी बहस होनी थी, लेकिन पहले देखते हैं कि शुक्ला को वहाँ kyaa मिला और उसने क्या किया?
लकडी की सीढ़ियों से होते हुए जब शुक्ला तहखाने में पंहुचा तो उसकी आंखें हैरत से गोल, चौकोर और ना जाने क्या क्या होने लगी। उसे लगा कि वह अलीबाबा है और चालीस चोरों के अड्डे पर पंहुच गया है। एक तरफ की आलमारी पर चिप्पी लगी थी-२३ कैरेट तो दूसरी तरफ गिन्नी। कहीँ २४ कैरेट तो कहीँ शानील के टुकडों पर रखे बेशकीमती हीरे। एक तरफ की दीवार पर तो कुन्टलों चांदी की सिल्लियाँ पडी थी। अरबों की दौलत थी वो। काली दौलत। जिसकी चमक से शुक्ला की आंखें चौंधिया रही थी। शुक्ला तुरंत बाहर निकल कर आया। मालिक ने उससे बात करने की कोशिश तो की लेकिन उसने अपना मुह दूसरी तरफ फेर लिया। अपने साथ आये लोगों मे से उसने त्रिवेदी और दुबे जी को बुलाया। कान में कुछ खुसुर फुसुर की और दोनो जाकर तहखाने के दरवाज़े पर बैठ गए। मालिक बेचारा दीन हीन बना उसके सामने हाथ जोडे खड़ा था।

Friday, May 18, 2007

मसौधा पंहुचे हरी पाठक

हरी का सर रह रहकर घूम रहा था। उसके साथ जो हुआ, बार बार उसके दिमाग में चक्कर काट रहा था। जब उसे लगा कि अब आगे चलना मुश्किल है तो वह रेल के फाटक के सामने वाले तालाब के किनारे जाकर बैठ गया। सोचने लगा। थोडा सोचता और एक कंकड़ उठाता और तालाब के हरे पानी में फेंक देता। टपाक की आवाज़ आती और हरी फिर से सोचता। तभी उसे शक्तिमान याद आया। उसके साथ भी तो ऎसी ही अजीब अजीब चीज़े होती रहती थीं। हरी ने फिर से एक कंकड़ तालाब मे थोडा नचाकर फेंका। कंकड़ ने पानी पर दो तीन टापले खाए और डूब गया। हरी के दिमाग का बल्ब जल गया। अब उसे काफी कुछ समझ मे आने लगा था। उसे लगने लगा कि वह ही शक्तिमान है। वह उठ खड़ा हुआ। अपनी जगह पर खडे होकर उसने चारों तरफ घूम कर सात आठ चक्कर लगाए। और जब हरी पाठक रुका तो.... ! जब रुका तब भी वह उसी पाजामे और शर्ट में था और सामने खादी साईकिल उसे चिढ़ाती सी लगी। अन्मनेपन से उसने साईकिल से मुह फेर लिया और फिर से तालाब की तरफ देखने लगा। सोचा कि अगर भगवान् शंकर जी ने उसे आर्शीवाद दिया हैचाम्त्कारों का , तब तो वह पानी पर भी चल सकता है। यह सोच कर हरी ने तालाब की तरफ कदम बढाया और पूरे आत्मविश्वास से तालाब के पानी पर अपना पहला पैर रखा। भच्च की आवाज़ आयी और उसका पैर चप्पल सहित तालाब की मिटटी में धंस गया। पैर बाहर खींचा तो चप्पल उसी मिटटी मे धंसा का धंसा रह गया। बुदबुदाते हुए हरी ने हाथ डालकर मिटटी से चप्पल निकाली और पैर और चप्पल दोनो धुले। अब हरी को यकीन हो गया था उसमे कोई चमत्कारिक शक्ति नही है। सुबह के दस बज चुके थे और दस बजे वाली ट्रेन आने वाली थी इसलिये फाटक बंद हो गया था। हरी ने गहरी सांस ली और स्टेशन की तरफ बढ़ा।
जब हरी स्टेशन पंहुचा तो ट्रेन आकर खडी हो गयी थी। उसने साईकिल उलटी की और पैडल के सहारे उसे डब्बे की खिड़की से फंसाकर लटका दी। अन्दर जाकर उसे अपने अन्गौछे से बाँध दिया। अब साईकिल सुरक्षित थी। हरी आकर ट्रेन के दरवाज़े की सीढ़ियों पर बैठ गया। वहाँ से साईकिल भी दिखाई देती थी और साईकिल के पहिये की तरह गोल गोल घूमते खेत , पेड और सबकुछ भी। गोल घूमते खेतों को देखकर हरी उसी मे गुम हो गया। ध्यान तब टूटा जब मसोधा , जहाँ कि उसे उतरना था, आ गया। हरी उतरा और साईकिल लेकर आराम से पैडल मारते हुए दुकान पंहुचा। मालिक आ गया था और चुंकि उसने ही दुकान खोली थी इसलिये बुरी तरह से भन्नाया हुआ था।

Tuesday, May 15, 2007

संघ, सुदर्शन और साम्प्रदायिकता

अगर सब कुछ काला हो जाय तो ? काला आसमान , काली जमीन , काले काले आदमी , काली काली औरतें। बस सब कुछ काला हो जाय तो दुनिया कैसी होगी ? चलिये काला न सही किसी और रंग का हो जाय तो ? बस सब कुछ एक ही रंग का हो जाय। भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहाँ सारे रंग पाए जाते हैं। हरा , नीला, सफ़ेद, काला, केसरिया और बहुत सारे रंग। सबसे ज्यादा मत यहाँ पर हैं और मतांतर भी। यही तो भारत की खासियत है जो इसे दुनिया के कई देशो से अलग करती है और कई देशों को अपनी तरफ खींचती भी है। लेकिन अंधराष्ट्रवाद के नशे में डूबे कुछ लोगों को ये सारे रंग पसंद नही हैं। न सिर्फ नापसंद हैं बल्कि वो इन सारे रंगो को मिटा देने के लिए कृत संकल्प हैं। अभी दिल्ली मे हुए एक कार्यक्रम में सर संघ डिरेबर कूप सी सुदर्शन ने इन सारे रंगो को ख़त्म करने की बात कही । उन्होने कहा कि सिंधु के किनारे रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं।
दरअसल इस मामले में संघ की नियति एकदम साफ है। जो कि हिंदू ही होना चाहिऐ , की तर्ज़ पर आगे बढती है। ये अंग्रेजों द्वारा दिए गए इतिहास तो तोड़ मरोड़कर अपने पक्ष में कर लेने की निहायत ही भद्दी कोशिश है। दरअसल अभी तक सारे इतिहासकार ब्रिटिश इतिहासकार जे सी मिल के ही इतिहास को मानते चले आये हैं और किसी ने उसे दोबारा चेक करने की कोशिश ही नही की। मिल ने भारतीय इतिहास को तीन भागों मे बाँटा था। पहला हिंदू सभ्यता , दूसरा - मुस्लिम सभ्यता और तीसरा खुद उनका यह्नी कि ब्रिटिश सभ्यता। इस बारे में रोमिला थापर , जो खुद इतिहासकार हैं , कहती हैं कि "कितनी दिलचस्प बात है , इसाई सभ्यता नाम नही रखा। "
ऐसा मान लिया जाता है कि १००० ईसा पूर्व से १२०० ईसा पूर्व तक का जो काल है वह हिंदू काल है। यह काल विभाजन राज्वंशो के आधार पर किया गया। लेकिन उसी काल में मौर्य , भारत यवान , शक , कुषाण वगैरह भी तो थे जो कि हिंदू नही थे । बाद में बौध्द राजा हुए लेकिन वह हिंदू धर्म के विरोधी राजा नही थे। लेकिन उन्होने ने अपनी पहचान बौध ही रखी थी । (बौध धर्म का उदय ही वर्ण व्यवस्था के विरोध के फलस्वरूप हुआ और जब वर्ण व्यवस्था के अनुयायी लोगो ने राज्वंशो से बौध राजाओं को हटा दिया तो वो कहने लगे कि बौध भी हिंदू धर्म का एक अंग है जबकि ऐसा बिल्कुल नही है। बाबा साहब अम्बेडकर ने भी इसका प्रयोग हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था से छुटकारा पाने के लिए किया था न कि एक हिंदू धर्म से निकलकर दूसरे हिंदू धर्म मे घुस जाने के लिए। ) तो क्या इस काल को बौध काल के नाम से नही पुकारा जाना चाहिऐ? रोमिला कहती है , " कम से कम ५०० ईसा पूर्व से ३०० इसवी तक के काल को बौध काल ही कहा जाना चाहिऐ क्योंकि इसके अनुकूल ही इस भू भाग में बौधों की विशाल जनसँख्या मौजूद थी। "
जारी...

शूद्रों के बुद्ध और ब्राह्मणों के राक्षस

संघ,सुदर्शन और साम्प्रदायिकता -२
एक सवाल है कि हिंदू शब्द को क्या समझा जाय ? आख़िर हिंदू क्या है और कैसे बन गया ? हिंदू शब्द के बारे मे कुछ कहने से पहले या स्पष्ट कर देना जरूरी है कि यह शब्द इस्लाम के भारत मे आने से पहले के किसी ग्रंथ या शास्त्र में नही मिलता। दरअसल यह शब्द अरबी लोगों ने भारत के लोगों को पुकारने के लिए प्रयोग किया क्योंकि भारत का यह इलाका हिंद भी कहलाता था। यानी कि हिंदू और हिंदुत्व की जो भी अवधारणा है, वह पूरी की पूरी विदेशी लोगों द्वारा बनाईं और दीं गई है। और इसी विदेशी अवधारणा का सहारा संघ ने लिया और इसे कहा कि सभी तो हिंदू हैं। वह भी जिनके वंशज बाहर से आये हैं।
आर्य भी तो बाहर से आये थे !!
हिंदू और आर्य , ये दो शब्द संघ की शाखाओं मे धड़ल्ले से प्रयोग किये जाते हैं। अब दूसरे शब् , जिसे आर्य कहते हैं और जिसे कथित हिंदुत्व के कथित ठेकेदार कहते हैं हम आर्य हैं और इस देश के मूल निवासी हैं। आर्यों का मूल निवास स्थान कभी भी भारत नही रहा। वो बाहर से आये। लोकमान्य तिलक ने अपनी किताब आर्कटिक होम ऑफ़ दी वेदाज में बताया है कि आर्यों का मूल निवास स्थान आर्कटिक था। हालांकि काफी सारे लोग इससे सहमत नही हैं तो भी इस बात से तो सहमत हैं ही कि आर्यों का मूल निवास स्थान भारत नही था। यहाँ तक कि हड़प्पा और सिंधु सभ्यता की खोज करने वाले राखालदास बनर्जी और माधोस्वरूप वत्स जैसे लोगों ने भी आर्यों की संस्कृति को हड़प्पा और सिंधु से अलग बताया है। यानी कि आर्य सिंधु सभ्यता के नही थे। अब न तो हिंदू रहे सिंधु के और ना ही आर्य रहे आर्यव्रत के। पता नही सुदर्शन का क्या होगा ?

अब थोडा सा अबाउट टर्न लेते हैं और आते हैं बुद्ध की तरफ। बुध्धम शरणं गच्छामी। हमारे कई सारे मित्रों ने विरोध किया कि बुद्ध को मत बांटो। और भी कई बातें कही थी लेकिन उनका जिक्र यहाँ बेमानी है। उन सबके जवाब मैं देने की कोशिश कर रहा हूँ।
तो प्रिय मित्रों। बौद्ध तो कभी हिंदू थे ही नही। और यहाँ एक बात और साफ हो जानी चाहिऐ कि बौद्धों से पहले कोई हिंदू शब्द या हिंदू धर्म था। इसके बारे मे मैंने पहले ही साफ कर दिया है। बौद्ध धर्म हिंदू धर्म के अन्तर्गत नही आता , इस बात को समझने से पहले हमे वर्ण व्यवस्था का वह समाज जो बुद्ध के पहले था, उसे समझना जरूरी है। बुद्ध के आने से पहले पूरा समाज चार वर्णों मे बटा हुआ था और दुर्भाग्य से आज भी बटा ही हुआ है, कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नही आ गया है। पहला ब्रह्मण , दूसरा क्षत्रिय तीसरा वैश्य और चौथा शूद्र। इन सारे वर्णों के कार्य विभाजन को तो आप अभी भी समझते ही होंगे। इनमे से दो वर्ण , यानी कि वैश्य और शूद्रों कि स्थिति का अध्ययन करने पर पता चलता है कि शूद्रों और वैश्यों की स्थिति बहुत खराब थी लेकिन उनमे से भी शूद्रों की स्थिति बहुत ही ज्यादा खराब थी। इनकी जनसँख्या सबसे ज्यादा थी फिर भी समाज की सबसे ज्यादा प्रताड़ना इन्होने ही झेली। शाशक वर्ग जो कि क्षत्रिय और ब्राह्मण थे , उनके लिए ये जानवर ही थे। इस वर्ण विभाजित समाज में बुद्ध ने एक नया धर्म दिया जिसका मुख्य आधार ही समानता थी। यह उस वर्ण विभाजित समाज के मुखियाओं के विरुद्ध एक विद्रोह था। ये उस समय की क्रान्ति थी। जिसने पूरा समाज ही उलट डाला। ये वही धार्मिक क्रान्ति थी जिसकी बात बाबा साहेब अम्बेडकर करते हैं। और जिसकी आवश्यकता क्रान्ति के पूर्व की धार्मिक क्रान्ति के रुप मे बताते हैं। उस समय की क्रान्ति के लिए माहौल तैयार किया वर्ण व्यवस्था ने , जिससे कि लोग बुरी तरह से उब चुके थे। एक बात और साफ हो जाय कि शूद्र हिंदू नही थे बल्कि उनका तो कोई धर्म ही नही था। वो तो जानवर माने जाते थे।

जारी है ....

जिन्हे सुदर्शन छाती फुलाके हिंदू कहते हैं

संघ,सुदर्शन और साम्प्रदायिकता- आख़िरी
उच्च वर्ण के लोगों द्वारा बनाए गए ऐसे ही जानवरों की समानता के लिए ही बुद्ध ने अपनी पदयात्रा शुरू की थी। उद्देश्य था एक समतामूलक समाज की स्थापना। और फिर एक समय तो ऐसा आया जब भारत के अधिकांश भूभागों पर बौद्ध राजाओं का शासन था। जिसे जे.सी.मिल ने हिंदू काल कहा है उसमे से ज्यादातर बौध्ध्काल ही है और मिल ने जानबूझकर इसे हिंदुकाल कहा जिससे भारत मे यह स्थापित हो सके कि यहाँ पहले तो हिंदू थे और बाद में उन्हें भगाकर मुस्लिम शासक बन गए। जिनके अत्याचारों से अगर किसी ने मुक्ति दिलाई तो वह अंग्रेज थे। यह जान लें कि उस समय तक इस महाद्वीप का मुख्य व्यापार स्थल (हालांकि उस समय तक व्यापार व्यवस्था इतनी टाईट नही हो पायी थी) कुरुक्षेत्र और उसके आस पास का इलाका था। तो यह अभूतपूर्व खोज थी लोहे के भंडारों का उड़ीसा और बिहार के क्षेत्रों मे पाया जाना। ये उस समय की सबसे बड़ी खोज थी जिसने इस महाद्वीप की धुरी ही बदल कर रख दीं। अब तक की सारी सांस्कृतिक, राजनितिक गतिविधियों के केंद्र बदलने लगे और खिसक कर उसी तरफ चले गए जिस तरफ लोहा पाया गया। यही वह वक्त था जब भारत में हर चीज़ की व्यवस्थित प्रगति शुरू हुई। व्यापार, शिक्षा, दर्शन,गणित , विज्ञानं,भाषा और साहित्य जैसे क्षेत्रों के व्यवस्थित विकास का यही युग . इस बात पर एक बार फिर से याद कीजिये कि बौद्ध धर्म को अपनाया किसने था? वही जो शूद्र थे, वो नही जो ब्राह्मण थे। वो नही जिन्हे सुदर्शन छाती फुलाकर कहते हैं कि हिंदू हैं। बहरहाल , शूद्रों ने बौद्ध धर्म ग्रहन करने के बाद काफी प्रगति की. उनकी इस अप्रत्याशित प्रगति से कथित हिंदू खेमे मे बौखलाहट आनी स्वाभाविक थी और वह शुरू भी हो गयी। मनु स्मृति जैसे अमानवीय किताबों और महाभारत जैसे विभ्रमी ग्रंथों मे कुछ लचीलापन लाने की बात सोची जाने लगी जिससे कि लोग हिंदू धर्म के प्रति आकर्षित होन और शासक वर्ग की तरफ होने वाला उच्च कुलीन पलायन रूक सके। यही वह समय था जब गीता जैसे अंतर्विरोधी ग्रंथ की परिकल्पना की गयी।

Sunday, May 6, 2007

कौसर की अजन्मी बेटी के नाम

अंशु मालवीय
मैं नही जानता कि अंशु कौन हैं , पता लगाने की सोची लेकिन मेरे फोन मे बैलेंस ही नही था . लेकिन इसे पढने के बाद...मुझे "हिंदू" शब्द गाली लगने लगा है, आख़िर किस तरह मैं इसे अपने से नोच कर फेंकू...किस तरह से.... और "हिंदू" गाली लगने लगा ही नही है , महसूस हो रह है कि मैं खुद एक गाली ही हूँ....


सब कुछ ठीक था अम्मा
तेरे खाए अचार की तरह
तेरी चखी हुई मिटटी
अक्सर पन्हुचते थे मेरे पास..... ।
सूरज तेरी कोख से छ्न कर
मुझतक आता था।

मैं बहुत खुश थी अम्मा !
मुझे लेनी थी जल्दी ही
अपने हिस्से की सांस
मुझे लगनी थी
अपने हिस्से की भूख
मुझे देखनी थी
अपने हिस्से की धूप।

मैं बहुत खुश थी अम्मा !
अब्बू की हथेली की छाया
तेरी पेट पर देखी थी मैंने
मुझे उनका चेहरा देखना था
मुझे अपने हिस्से के अब्बू देखने थे
मुझे अपने हिस्से की दुनिया देखनी थी।
मैं बहुत खुश थी अम्मा !

एक दिन मैं घबरायी.... बिछ्ली
जैसे मछली--
तेरी कोख के पानी मे
पानी मे किस चीज़ की छाया थी अनजानी ....
मुझे लगा
तू चल नही घिसट रही है
मुझे चोट लग रही थी अम्मा !
फिर जाने क्या हुआ
मैं तेरी कोख के
गुनगुने मुलायम अँधेरे से निकल कर
चटक धूप
फिर.....
चटक आंगन में पहुंच गयी।

वो बहुत बड़ा आपरेशन था अम्मा!

अपनी उन आंखो से
जो कभी नही खुली
मैंने देखा
बडे बडे डॉक्टर तुझ पर झुके हुए थे
उनके हाथ मे तीन मुँह वाले
बडे बडे नश्तर थे अम्मा....
वे मुझे देख चीखे अम्मा !
चीखे किसलिये अम्मा--
क्या खुश हुए थे मुझे देखकर!

बाहर निकलते ही
आग के खिलौने दिए उन्होने अम्मा...
फिर तो मैं खेल मे ऐसा बिसरी
कि तुझे देखा ही नही--
तूने अन्तिम हिचकी से सोहर गाई होगी अम्मा !

मैं कभी नही जन्मी अम्मा
और इसी तरह कभी नही मरी
अस्पताल मे रंगीन पानी मे रखे हुए
अजन्मे बच्चों की तरह
मैं अमर हो गाई अम्मा!
लेकिन यहाँ रंगीन पानी नही
चुभती हुई आग है!
मुझे कब तक जलना होगा ..... अम्मा !

( कौसर बानो की बस्ती पर २८ फ़रवरी २००२ को हमला हुआ था। वह गर्भवती थी। हत्यारों ने उसका पेट चीरकर गर्भस्थ शिशु को आग के हवाले कर दिया था। इस कविता मे उस शिशु को लडकी माना गया है , कुछ अन्य संकेतों के लिए )

Thursday, May 3, 2007

पेठिया का पावर

संदीप कुमार
पेठिया ऎसी चीज़ ही है कि जल्दी भूलती ही नही। और ये ना भूलना शायद हमारे अन्दर बची हुई इमानदारी को भी काफी सच्चाई से बाहर निकालता है , एक नयी दुनिया बनाता है , जिसके आस पास पेठिया है , उसमे टहलने वाले लोग हैं, चंद सामान रख कर कुछ बेचने वाले दूकानदार हैं और इन सब के बीच विचरते संदीप हैं । देखते हैं इस बार संदीप पर पेठिया ने कौन सा रंग चढाया है।

मैंने तो आप सबों को बताया ही था कि पेठिया का पड़ोसी हूं मैं। मेरे घर के सामने ही पेठिया (पेठिया माने साप्ताहिक हाट...बार-बार हिन्ट नहीं दूंगा... इसे रट लीजिए, बूझे) लगता-सजता है। हफ्ता में एक दिन ही सही लेकिन उस दिन (यानी गुरूवार को) अपने भाव कम नहीं होते। उस दिन पूरे पावर में रहता था मैं। ये उन दिनों की बात है जब मैं स्कूल में था। पिछले दशक से जबसे पढ़ने-लिखने (!) के बहाने घर से बाहर रहा और आज जब अपनी (कु)काबिलियत की वजह से टीवी के पर्दे के पीछे से मीडियाकारिता (पत्रकारिता नहीं जनाब) कर रहा हूं तो वो दिन बहुत याद आते हैं। दिहाड़ी के चक्कर में नोएडा-इंदिरापुरम अप-डाउन करते-करते चिर कुंवारा होते हुए भी यूं तो अपना कस्बा बगोदर और घर-परिवार बहुत याद तो नहीं आता पर जैसे ही गुरूवार का दिन आता है मुझे किसी की याद आए न आए, पेठिया की याद जरूर सताने लगती है।
अरे, वो भी क्या दिन थे जनाब। अपनी तो रज-गज (पूरी चलती) ही थी मानो। पेठिया में किरासन तेल (आपलोग इसे शायद घासलेट कहते हैं न...जब पहली बार मैंने किरासन तेल के लिए ये नाम सुना था, तो काफी हंसा था, आखिर तेल भी क्या घास पर लेट सकता है..) बिकता था। हफ्ते में एक दिन के लिए। किरासन की बड़ी किल्लत थी। राशन-कार्ड पर जो तीन-चार लीटर तेल महीने में मिलता था, उससे तीस दिन ढिबरी जलना मुश्किल था। सो बिना राशन-कार्ड पर मिलने वाले किरासन लेने के लिए पचीसियों गांव के लोग पेठिया के दिन कई कोस दूर से उमड़े चले आते थे। लाइन लगती थी लंबी-सी। लोग तो बुधवार की रात से ही मोबिल का पांच लीटर वाला डब्बा या कनस्तर लाइन में लगा देते थे। रात में लोग मेरे ही बरामदे में सोते और तीन-चार बजे सुबह पेठियाटांड़ में जम जाते। इतनी जुगत करने पर गुरूवार (पेठिया के दिन) की सुबह लोग किरासन तेल का ड्रम खत्म होने से पहले एक-दो लीटर पा पाते थे। लेकिन मुझे किरासन के लिए इस तरह की कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती थी। तेल बेचने वाला डीलर मेरे दरवाजे पर ही मोटरसाइकिल लगाता था और इसकी एवज में बिना किसी मेहनत के मुझे चार लीटर किरासन मिल जाता था। हालांकि कीमत मैं चुकाता था पर किरासन मिल जाना ही अपने-आप में बहुत बड़ी बात थी नहीं तो पॉकेट में गड्डियां रहते हुए भी किरासन तेल नहीं मिल पाता था, जनाब।
साथ ही जो लोग दूर गांवों से पेठिया आते थे उनमें से अधिकतर लोग मेरे दरवाजे पर ही साइकिल लगाते। और ये मेरी मर्जी होती कि किसकी साइकिल यहां लगे और किसकी नहीं। और जो साइकिल भाया उसे चलाने का पूरा सुख भी उठाता। सीधी हैंडिल वाली रेंजर साइकिल अपने मोहल्ले में सबसे पहले मैंने ही चलाई थी। ये साइकिल एक गांव का लड़का लेकर आया था जिसकी हाल ही में शादी हुई थी और स्कूल जाने के लिए उस दूल्हे राजा को ससुराल वालों ने ये साइकिल और एक चमचमाती टाइटन घड़ी, संतोष कंपनी का रेडियो दिया था। बंदा हाईस्कूल में मुझसे सीनियर था पर पेठिया के बगल वाला होने के कारण मेरे हर नखरे सहता था। पेठिया के दिन उसे अपनी साइकिल मेरे दरवाजे पर लगाना जो होता था।
इसी तरह कई लोगों को झोला की भी जरूरत होती तो मेरे पास ही आते। एक बार उस मास्टर साहब को कटहल बहुत भा गया जो बच्चों को मारने-पीटने को लेकर बेहद बदनाम थे। कभी-कभी मुझे भी कनेठिया देते थे। पर मास्टर साहब कटहल लेकर कैसे जाएं, झोला तो था नहीं। उन्हें मेरी याद आई और मां की नजरों से बचाकर उन्हें झोला दे भी दिया। हालांकि आज तक वो झोला उस मास्टर साहब ने नहीं लौटाया पर क्या मजाल कि उस दिन के बाद कभी स्कूल में मुझे नजर उठाकर भी देखें। ऐसे मेरी मां को हमेशा मुझपर ही शक होता रहा कि मैंने उनका वो कढ़ाई किया हुआ झोला कहीं इधर-उधर कर दिया जो उन्होंने अपनी शादी के पहले ढिबरी की रोशनी में आंखें फोड़-फोड़कर बनाया था और उसपर लिखा था स्वागतम। (सच इसलिए बोल दिया क्यूंकि...मेरी मां इस कन्फेशन को नहीं पढ़ पाएगी...)
पेठिया के बगल वाला होने पर एक अदना-सा बच्चा भी पावरफुल हो जाता है। मुझे नहीं पता कि बगोदर में आजकल मेरी वो जगह किसने हासिल की है। शायद पड़ोसी का कोई बच्चा आजकल पूरे पावर में हो। मेरे जमाने में तो साइकिल ही हाथ लग पाता था। हो सकता है उसे बाइक उड़ाने का मौका मिल जाता हो।
इसे भी अब को-इंसीडेंट ही कहें कि मेरे कस्बे बगोदर में भी गुरूवार को ही पेठिया लगता है तो आज जिस इंदिरापुरम में मेरी भाड़े की रिहाइश है, वहां भी गुरूवार को ही पेठिया (अब यहां के लोग तो इसे बाजार ही कहते हैं, कहते रहे, मुझे क्या, मैं तो पेठिया ही कहूंगा) लगता है। पर यहां इंदिरापुरम में वो पावर कहां जो बगोदर में था, बॉस।