Monday, May 21, 2007

गीता,गाँधी और गोलवलकर-पार्ट वन

एक समय था जब भारत के स्वाधीनता संग्राम में गीता की एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। उस समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने गीता से शांति और अहिंसा का संदेश प्राप्त किया। इसे से उन्होने लोगों को साम्राज्य वाद के विरोध के पाठ पढाये। आदि शंकराचार्य ने गीता से आध्यात्मिक ज्ञान और ज्ञान और सन्यास का संदेश ग्रहण किया।चैतन्य महाप्रभु के लिए गीता का मतलब रह भक्ती यानी कि इश्वर के प्रति निष्काम समर्पण। वही रजनीश ने गीता से क्या सीखा ? मुक्त प्रेम और विहार। लेकिन लोकमान्य तिलक ने गीता मे कर्मयोग पाया न कि कर्मफल की इच्छा । उनके लिए गीता का मतलब था 'शठे शाठ्यं समचारेत' । जिसके विपरीत गाँधी जी का मतलब था सत्य और अहिंसा और वो सजा नही बल्कि आत्मचिंतन पर विश्वास रखते थे। अंग्रेजों में भी एक बड़ा वर्ग था जो गीता में निष्ठा रखता था। गीता मे जो कुछ भी लिखा हुआ है , उसका अर्थ उन अंग्रेजों ने निकाला कि भारतीय लोगों की आध्यात्मिक जरूरतें ज्यादा है। वो आध्यात्मिक ज्यादा हैं और भौतिक जरूरतों से बेपरवाह। इसी सोच के चलते उन्होने भारतीयों को राजनीती और सत्ता से बेदखल कर दिया कि जाओ , इश्वर से लौ लगाओ! यहाँ क्या रखा है !! सिर्फ मोह और माया ही तो ! और गोलवलकर ने गीता से क्या सीखा ? यही न कि मुसलमान इस देश के शत्रु हैं और उनका करीने से, बारी बारी से क़त्ल करना होगा। सर संघ दिरेबर कूप सी सुदर्शन इसी परम्परा के वाहक हैं। तो इतने सारे लोग और गीता सिर्फ एक। और उसपर उस एक किताब से इतना अंतर्विरोधी ज्ञान ? ऐसा कैसे हो गया कि एक किताब इतनी अंतर्विरोधी शिक्षाएं दे सकी ?
दरअसल इन सारे अन्तर्विरोधों की जड़ में खुद गीता ही है। इसका जो स्वरूप है वह सार संग्रह वादी होने की वजह से न सिर्फ इसे असंगत बना देता है बल्कि जितने भी अंतर्विरोध हैं , यही प्रदान करता है। एक उदाहरण और उसकी टूटन देखें -:
गीता में कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि हे अर्जुन! तुम कर्मफल की चिता किये बग़ैर कर्म करो। युद्ध करो। ये सामने जो लोग हैं , ये तुम्हारे संबंधी नही। इनके प्राण तो मैंने पहले ही हर लिए हैं। तुम्हे तो अब बस फोर्मैलिटी पूरी करनी है। इसलिये मोह माया त्याग कर इनका वध करो।
कृष्ण के इस वक्तव्य का पोस्ट मार्टम करने से पहले ये ध्यान दिलाना जरुरी होगा कि लगभग सारी किताबो मे जहाँ कृष्ण का जिक्र है उसका सार यही है कि कृष्ण नाम के दूधिये ने जिसने कि कथित गीता का उपदेश दिया था, खुद एक भोगी और अतिविलासी प्रवित्ती का पुरुष था जिसने अनगिनत लड़कियों के साथ यौन संबंध बनाए और यहीं तक बात ख़त्म नही हो जाती , उसके भक्तों मे बहुत सारे पुरुष शामिल थे। ऐसा मैं इसलिये कह रह हूँ कि उस समय क्या अभी भी यादव पिछङी जाति मे आते हैं और वर्ण व्यवस्था की सारी शर्तें उस समय के समाज में जरूर लागू होगी। अब जिनकी आंखो पर कथित हिंदू और हिंदुत्व की पट्टी चढ़ी हो, उन्हें ये और कुछ दिखायी देता है। उन्हें ये कुछ और क्यों दिखायी देता है , इसपर हम आगे चर्चा करेंगे।
जिस समय महाभारत के युद्ध होने की बात कही जाती है , उस समय अभी तक मिले प्रमाणों के अनुसार , भारतीय महाद्वीप कबीलाई समाजों मे बटा हुआ था। एक कबीला होता था जिसे राजा और पुरोहित मिलकर चलते थे। राजा को इश्वर का दर्ज़ा मिला हुआ था और उसके परिवार को इश्वर की संतान माना जाता था। अक्सर एक कबीले के बीच युद्ध तो होते थे लेकिन इश्वर की संतानों के बीच युद्ध की शरुआत इसी कृष्ण नाम के दूधिये ने की। सबसे पहले इसने अपने ही मामा कंस का वध किया और जब उसके बाद भी पेट नही भरा तो महाभारत करवा दी। ऊपर से अर्जुन को दिए गए संदेश ने रही सही कसर पूरी कर दीं। उसके बाद कृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करता है कि समस्त शत्रुओं के प्राण तो उसने पहले ही हर लिए हैं, वह तो निमित्त मात्र है। अब जब प्राण पहले ही हर लिए हैं तो फर्जी मरे हुए लोगों को क्या मरवाना और अर्जुन जैसे शूरवीर को बस यही काम रह गया है कि वो लाशो को अपने तीरों का निशाना बनाकर खुद को महान योद्धा साबित करे।
ऐसे ही बहुत सारे घपड ढोंगो से गीता भरी पडी है। लेकिन क्या इससे भी वह समस्या सुलझ जाती है कि किताब एक और उससे इतने सारे अंतर्विरोध। शायद नही। इसके लिए जरुरी है कि गीता की उत्पत्ति कैसे और क्यों हुई , खासकर किन परिस्थितयों मे हुई , यह जाना जाय क्योंकि इसमे कई सारे सवालों के उत्तर हैं। इसलिये आइये थोडा सा इतिहास में चलें।