Saturday, May 19, 2007

हरी पाठक और सेल टैक्स वाला शुक्ला

हरी को देखते ही उसे और गुस्सा आ गया। लेकिन दुकान पर उस समय कुछ सेल टैक्स वाले बैठे थे इसलिये वह कुछ बोल नही सकता था। उसने गल्ला अपने भाई गोबिन्द को पकडाया और हरी के पीछे पीछे जनरेटर वाले कमरे मे आ गया जहाँ हरी पानी पीने के लिए एक ग्लास को चमकाने मे लगा था। फुन्फ्कारते हुए मालिक बोला,'कहॉ मर गया था? दुकान क्या तेरा बाप खोलता ? साले ! तेरी अय्याशियाँ दिन ब दिन बढती ही जा रही हैं। आज तेरा जुगाड़ करता हूँ।' हरी को ऐसा लगा जैसे उसके सर में से कही से खट की आवाज़ आयी हो। मलिक जाने लगा तभी हरी के मुँह से आवाज़ निकली। "रुको !! " मालिक ठिठक गया। अचम्भे भरी नज़रों से उसने हरी की तरफ देखा। उसे हरी की आंखें बड़ी अजीब लगीं। हरी आगे बढ़ा और मलिक के हाथ से चाबी का गुच्चा ले लिया। मलिक को तो जैसे करंट मार गया था। चाबी लेकर हरी सेल टैक्स वाले शुक्ला जी के पास गया। वहाँ से उसने मलिक की तरफ निगाह दौड़ाई। मालिक अभी तक हक्बकाया हुआ टुकुर टुकुर उसे ही देख रह था। हरी ने शुक्ला के कंधे पर हाथ रखा। शुक्ल ने हरी की तरफ देखा, फिर उसकी आंखो की तरफ। हरी बोला,'मेरे साथ आओ'। शुक्ल किसी मशीन की तरह उठ खड़ा हुआ। हरी उसे दुकान के बांये कोने मे लेकर गया। वहाँ से तहखाने मे जाने के लिए गुप्त दरवाज़ा था। हरी ने उस गुच्चे मे से तहखाने की चाबी निकाली और तहखाना खोल दिया। मालिक, जो जनरेटर के कमरे वाले दरवाज़े से ये सब कुछ देख रह था , तहखाना खुलते देख उसकी हवा निकल गयी। धम्म से उसी दरवाज़े की चौखट पर बैठ गया और दोनो हाथो से अपना सर थाम लिया।सब कुछ गया !! इस हरी के बच्चे ने तो हमे कहीँ का नही छोड़ा !!

अब हरी और उसके मालिक के बीच लंबी बहस होनी थी, लेकिन पहले देखते हैं कि शुक्ला को वहाँ kyaa मिला और उसने क्या किया?
लकडी की सीढ़ियों से होते हुए जब शुक्ला तहखाने में पंहुचा तो उसकी आंखें हैरत से गोल, चौकोर और ना जाने क्या क्या होने लगी। उसे लगा कि वह अलीबाबा है और चालीस चोरों के अड्डे पर पंहुच गया है। एक तरफ की आलमारी पर चिप्पी लगी थी-२३ कैरेट तो दूसरी तरफ गिन्नी। कहीँ २४ कैरेट तो कहीँ शानील के टुकडों पर रखे बेशकीमती हीरे। एक तरफ की दीवार पर तो कुन्टलों चांदी की सिल्लियाँ पडी थी। अरबों की दौलत थी वो। काली दौलत। जिसकी चमक से शुक्ला की आंखें चौंधिया रही थी। शुक्ला तुरंत बाहर निकल कर आया। मालिक ने उससे बात करने की कोशिश तो की लेकिन उसने अपना मुह दूसरी तरफ फेर लिया। अपने साथ आये लोगों मे से उसने त्रिवेदी और दुबे जी को बुलाया। कान में कुछ खुसुर फुसुर की और दोनो जाकर तहखाने के दरवाज़े पर बैठ गए। मालिक बेचारा दीन हीन बना उसके सामने हाथ जोडे खड़ा था।