Monday, July 10, 2017

पढ़िए नूर ज़हीर की कहानी बालूचरी

अकरम अली को अपनी आँखों यक़ीन नहीं हो रहा था। उस जैसे ग़रीब तांती के दस्तरखान पर इतने पकवान! इतनी भेंट तो कभी किसी ने नहीं दी; शायद आजतक कोई गाहक, इतना अमीर नहीं आया जितना यह सामने बैठा खरीदार , जो एक हाथ से दाढ़ी सहला रहा था और दूसरे से तस्बीह फेर रहा था। इसे कैसे पता चला? किसने इसे खबर दी होगी ? सवाल दिल में आते ही अकरम अली ने ग़ुस्से से अपने बड़े बेटे शरीफुद्दीन की तरफ देखा जो बाप से आँखे चुराकर उस अरब शेख की चापलूसी में लगा हुआ था. वैसे सुलगते लोबान की खुशबू और नई बालूचरी साड़ी की खबर फैलते देर नहीं लगती. बशीरहाट में सभी जानते थे अकरम ने एक नई बालूचरी साड़ी तैयार की है, लेकिन इसकी खबर कलकत्ता और इस शेख तक पहुंचाने की क्या ज़रूरत थी?
अपनी ही लाइ हुई, आगे बढ़ी मिठाई की प्लेट को इशारे से इंकार करते हुए शेख ने मामूली मलमल में लिपटी हुई बालूचरी की तरफ हाथ बढ़ाया। अकरम अली ने ढंकी हुई साड़ी पर हाथ रखा। उसका सारा जिस्म जैसे झनझना उठा। कितनी आस से उसने इस साड़ी को करघे पर चढ़ाया था । सबसे नज़र बचाकर, अपनी बीवी के ज़ेवर बेचकर मुर्शिदाबाद गया था, रेशम के कोये खरीदने। उसने सोचा था खदीजा को तो मरे चार साल होने को आये, अब उसके ज़ेवर रखने से क्या फ़ायदा ? एक एक रेशम के कोये को उसने अपने सामने बंटवाया था और तार बनवाये थे. जब रेशम के धागे बन गए तब रंगाई में कितनी एहतियात बरती थी उसने। तभी तो ऊपर का मलमल हटाकर, पहली तह खुलते ही जैसे ही पल्लू सामने आया आसपास खड़े लोगो की सांस थम गई और शेख के मुंह से यक ब यक निकला "सुभांनल्लाह।"
अकरम अली के तीनो बेटों की बांछे खिल गई --शेख़ फंस गया!
कांपते हाथों से अकरम अली ने साड़ी की एक एक परत खोलनी शुरू की। हर तह के साथ यादों का एक काफिला जुड़ा हुआ था -- नीले रंग पर उसने कितनी बहस की थी ---आकाश नील, समुन्दर नील, शंख नील या फिरोज़ी नील ! तंग आकर ग़ुलाम नबी रंगरेज़ ने कहा था---अरे बाबा मोर के पंखों में इतने नील होते हैं क्या?
अकरम अली हंस पड़ा था "अरे इतने नील नहीं होते तो मोर नाचता क्यों है ? क्या मोर बादल देखकर नाचता है? बेवकूफ, वो अपने रंग दिखाने लिए इतराता है!"
"तो नाचता मोर बनाना ज़रूरी है क्या?" ग़ुलाम नबी ने आगे हुज्जत की।
"वाह ! जो नाचे न वह मोर काहे का, वह तो कौआ हुआ। "
बालूचरी बनाना कोई ख़ाला जी का घर नहीं है इसीलिए बस दस या बारह साड़ियां ही बनाता है अकरम अली साल भर में। ज़्यादातर साड़ियां दुर्गा पूजा के लिए खरीदी जाती हैं। आस पास की सार्वजनिक पूजा कमिटियों से लेकर कलकत्ता तक की पूजा कमिटियों में होड़ लगी रहती है ; अकरम अली की बनाई बालूचरी हाथ लग जाए और पूजा में स्थापित होने वाली दुर्गा ठाकुर के रूप को चार चाँद लग जायें। पूजा पंडाल में आने वाले लोग भी झट पहचान जाते और एक दुसरे से कहते ---'अकरम अली तांती की साड़ी है ना ?' अकरम का सीना गर्व से फूल जाता I लेकिन फिर भी कहीं ना कहीं दिल में एक काँटा सा चुभता रहता। उसने तो साड़ी माँ को बेचीं है। भेंट तो उस भक्त ने की जिसने उसके दाम चुकाए। फिर वह दिल को समझाता और वादा करता, एक साड़ी वह ऐसी बनाएगा जो अपने आप में एक मिसाल होगी; बेषकीमती! नायाब! कारीगरी और कला की ऐसी मिसाल जो खुद अकरम अली के हुनर को पार कर जाएगी, वह हाथ की नफासत उसमे दिखेगी जो कला का दर्जा पायेगी। वह साड़ी जो वह देवी को बेचेगा नहीं; देवी को भेंट करेगा !
ढब की आवाज़ से अकरम अली का ध्यान टूटा. सामने एक हज़ार के नोटों का बण्डल पड़ा था। जल्दी जल्दी तीन और बण्डल तख़्त पर गिरे. एक लाख से ज़्यादा साडी का दाम नहीं था। यह तो चार लाख थे। उसके दिल में एक टीस सी उठी। यही रुपये पांच साल पहले मिल गए होते तो खदीजा बच जाती। न उसकी जान बचा पाया न ही उसकी ख्वाहिश पूरी कर पाया। बेचारी दिल में बालूचरी पहनने की आस लिए इस दुनिया से चली गई। शेख ने एक और गद्दी उसकी तरफ बढ़ाई। उसके पास खड़ा उसका सेक्रेटरी बोला "यह तुम्हारी बख्शीश है, तुम्हारे हुनर और मेहनत की दाद दे रहे हैं शेख !"

"लेकिन मोहतरम, आपके देश में तो औरतें साड़ी पहनती नहीं। आप इसका क्या करेंगे ?"
शेख सवाल समझ कर मुस्कुराया "अगले महीने मेरी शादी है; हम लोगों में लड़की के लिए लड़के वालों की तरफ से अबाया भेजा जाता है। इस साड़ी को काटकर अबाया बनेगा; पल्लू से नक़ाब और ऊपर वाला हिस्सा। बहुत खूबसूरत लगेगा इसका अबाया; शायद हमारी बीवी इसे पहली रात को ही पेहेनना चाहे। "

"आप मेरी साड़ी पर कैची चलवाएंगे?"
"काटे बग़ैर तो बुर्का नहीं बन सकता।" शेख अपनी होने वाली बीवी के लिए बहुत से कीमती तोहफे खरीद रहा था। बंगाल की नायाब सोने की नक्काशी के ज़ेवर खरीदने कलकत्ता आया था। वहीं उसे इस साडी की खबर मिली थी और इसी की लालच में इतनी दूर बशीरहाट आया था। सौदा हो गया था अब बेकार बातों में वक़्त गवाना उसे खल रहा था.
अकरम अली खड़ा हो गया। सबको नज़र भरकर देखा और बोला "बुर्का तो तन ढंकने के लिए होता है। "
"सभी कपडा तन ढंकने के लिए होता है." शेख ने दुभाषिये के ज़रिये जवाब दिया।
"सभी का तो मैं नहीं जानता, साड़ी तन ढंकने के लिए नहीं होती."
"तो फिर किसलिए होती है ?" शेख ने तंज़ से सवाल किया।
"सदियों पहले इंसान जानवर की खाल और पेड़ की छाल से भी तन ढँक लेता था. इतना बेहतरीन सूत और रेशम, ऐसे ऐसे रंग, इतनी कारीगरी, ऐसे नमूने ईजाद करने की क्या ज़रूरत थी? नहीं शेख़ साड़ी तन ढंकने के लिए नहीं, जिस्म का हुस्न उभारने के लिए होती है। साड़ी पल्लू को आँचल करके सिर ढंकते हैं ताकि वह बार बार फिसले और काले बालों की घटा लहरा ये और उसमे खिंची हुई सीधी मांग जैसे बिजली का कौंधा ! पल्लू कंधे पर यूँ डाला जाता है ताकि बार बार ढलक जाये और सामने वाले की नज़रे गले से गुज़रती, छाती के उभार से होती, कमर के ख़म पर रूकती, नितम्बो की गोलाइयों पर से फिसलती धड़ाम से ज़मीन पर आ गिरे।”

कुछ समझकर कुछ न समझकर शेख हंसा "तुम तो तांती काम और शायर ज़्यादा मालूम होते हो। इसीलिए औरतों के पहनने की चीज़ बनाते हो , आशिकमिजाज जो ठहरे। "
"जी हाँ सुनते हैं पहले यूनान और रोम के मर्द भी साड़ी जैसा लिबास पहनते थे; लेकिन मर्दों का सीधा सपाट, लठ जैसा शरीर साडी की ताब क्या लाता ? मर्दों से साडी कबकी छूट गई, औरतें आजतक पेहेन रही हैं। "
"खैर वह सब मैं नहीं जानता , हाँ तुम्हारी साड़ी बेजोड़ है। मेरी बीवी इसका अबाया पहनकर बहुत खुश होगी। "
"मैं अपनी साड़ी आपको नहीं बेचूंगा! "
अकरम के छोटे से घर का आँगन खचाखच भरा हुआ था। बशीरहाट में कभी मर्सिडीज़ बेन्ज़ देखी नहीं गई थी। अंदर हो रही बातचीत को सब दम साधे सुन रहे थे। जैसे ही अकरम अली ने साड़ी न बेचने का ऐलान किया बाहर जमा भीड़ जैसे अचानक फट पड़ी; जितने मुह उतनी बात। एक पल को तो शेख़ भी हक्का बक्का रह गया फिर संभलते हुए बोला "क्या कीमत हमने काम लगाई है?"
अकरम कुछ पल चुप रहा फिर साड़ी पर हाथ फेर और उसे बहुत संभाल कर मलमल में लपेटते हुए बोला "यह साड़ी मेरी रूह है शेख साहब और रूह को काट फाड़ कर, टुकड़े टुकड़े नहीं किया जाता, सुइयाँ चुभाकर छलनी नहीं करते आत्मा को मोहतरम!"
"क्या कह रहे हो अब्बा ?" अकरम का दूसरा बेटा करीमुद्दीन बोला। "इतना पैसा तो हमने कभी देखा भी नहीं है!"

"चुप रह कूढ़ कहीं के. कितना तुझे अपना हुनर सिखाने की कोशिश की पर रहा तू जानवर का जानवर ही। तांत और रेशम आंकना तो दूर की बात तुझसे तो करघे पर बैठा भी नहीं जाता। आधे घंटे में ही कहता है 'हाय हाय मेरी कमर दुःख रही है ‘ अरे कमर तोड़े और आँखे फोड़े बिना कहीं बालूचरी बनती है ? "
"लेकिन बनाई तो बेचने के लिए है न?" शेख के सेक्रेटरी ने पूछा।
"आजतक जितनी साड़ियां बनाई सब बेचीं; यह नहीं बेचूंगा। यह साड़ी मैंने माँ दुर्गा के लिए बनाई है।”
"यह कौन हैं ?" शेख ने शायद माँ दुर्गा को कोई दूसरा, ज़्यादा मालदार गाहक समझा।
"अब्बा, देवी को पहनाई गई साड़ी भी तो बर्बाद ही होती है न। ठाकुर के साथ ही विसर्जन हो जाता है साड़ी का। "
ज़ोर की तड़ाक की आवाज़ आई और शमसुद्दीन गिरते गिरते बचा "खबरदार जो काफिरों जैसी बाते मुंह से निकाली। बेटी को सजा संवार कर ही तो ससुराल भेझा जाता है। मेरी बनाई हुई साड़ी पहनकर, दस दिन से बिझुड़े शिव को दुर्गा रिझाती है। तभी तो तप भांग होता है महातपस्वी का, सब मेरी बनाई हुई साड़ी के कारण ही तो। "
"इतनी साड़ियां एक साथ पहनती है देवी दुर्गा?' शरीफउद्दीन ने गाल सहलाते हुए पूछा।
"कितनी पहनती है, कैसे पहनती है, क्यों पहनती है यह तो देवी ही जाने। मैं बस इतना जानता हूँ की मेरी बनाई साड़ी बहुत पसंद करती है माँ, इसीलिए तो हर साल से बेहतर साड़ी बन जाती है, देवी माँ की दया से। "
शेख उठ खड़ा हुआ. ग़ुस्से से उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। "तुम मुसलमान होकर भी देवी देवता को मानते हो-----ताज्जुब है!"
अकरम अली के चेहरे पर न घुसा था, न नफरत , न नाराज़गी न हिकारत. एक मासूम सी ख़ुशी उसके चेहरे पर खेल रही थी, जैसी कोई बच्चा, अपने घर के रोशनदान में दिए चिड़िया के अण्डों में से बच्चे निकलते, बड़े होते और अंत में पहली उड़ान भरते देख रहा हो। मलमल में लिपटी बालूचरी साड़ी को अपने सीने से लगाते हुए वो पूरे ऐतमाद से बोला "आप इंसान होकर भी कला और फ़न का मर्म नहीं समझते ---ताज्जुब है!"
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यह कहानी मूलरूप से पत्रिका कथादेश में प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत कॉपी फेसबुक से ली गई है। नूर जहीर ख्यातिलब्ध साहित्यकार व रंगकर्मी हैं।