Sunday, April 15, 2007

ज्यादा शरारतें मत करना ...

हिंदू होने के फ़ायदे-4

बाहर निकला तो तीनो खडे हुए थे। सबकी जेबों का हिसाब किया गया तो कुल मिलाकर ३२ रुपये बने। आठ रुपये हमने आने जाने के लिए रख लिए क्योंकि जालापानाला , जहाँ से परिक्रमा शुरू होती थी, वहाँ तक टेंपो से जाना पड़ता था। तब तक हल्का हल्का उजाला फैलने लगा था। हम लोग पैदल चलते हुए नियावां चौराहे तक पंहुचे,टेंपो पकडा और जालापानाला की तरफ बढ़े। लेकिन उसके एक किलोमीटर पहले बेनीगंज मे ही हमे उतरना पड़ा। वहाँ काफी सारी पुलिस थी । उन लोगों ने आगे का रास्ता बंद किया हुआ था और अगर कोई गलती से भी गाड़ी लेकर उस चौराहे को पार करने की कोशिश भी करता, तो सबसे पहले उसका स्वागत माँ-बहन की गालियों से होता और फिर लगे हाथ वो पुलिस वाले उस बेचारे पर हाथ भी साफ कर लेते। हमारा टेंपो वाला भी पिटा जबकि वह बेनीगंज के मोड़ वाली मस्जिद पर ही हमें उतार रहा था। इतनी ढ़ेर सारी पुलिस देखकर हम चारों डर गए। मस्जिद के पीछे वाली गली पकड़ी और गली गली होते हुए बेनीगंज के आगे वाली मस्जिद पर जाकर निकले। वहाँ से पांच मिनट के अन्दर हम लोग जालापानाला के चौराहे पर खडे थे।
इसी चौराहे से परिक्रमा शुरू होती थी और तकरीबन उन्नीस किलोमीटर चलने के बाद इसी पर खतम भी। चौराहे के एक तरफ जालपा देवी का मंदिर था और दूसरी तरफ मस्जिद और एक कब्रिस्तान। इस कब्रिस्तान में बारावाफात में बहुत बड़ा मेला लगता। ठीक वैसा ही जैसा परिक्रमा वाले दिन लगता था। खैर... हम सबका ध्यान अलग अलग जगहों पर लगा हुआ था। मैं डम्पू के घर वाली लडकी को खोजने की कोशिश कर रहा था , पतारू देख रहा था कि कब्रिस्तान के बगल वाले बाग़ मे शलीफे बहुत लगे हुए थे। कल्लू को चप्पलों की चिन्ता थी क्योंकि परिक्रमा तो नंगे पैर करनी थी और अगम अपने लिए कोई लडकी तलाश रह था जिसके पीछे चलते हुए वह उसके पैरों में ठुद्दे मारते हुआ चल सके। खैर... चप्पलों की समस्या का हल कल्लू ने खोज निकाला। मस्जिद में उसका कोई जानने वाला था। सो हमने अपने चप्पल मस्जिद मे सुरक्षित रखवा दिए। वहाँ के इमाम ने हमें ठीक से परिक्रमा करने की हिदायत दीं और कहा कि ज्यादा शरारतें मत करना। उस दिन वो परिक्रमा जाने वालों की सेवा के लिए लगाए गए पंडाल में खडे थे।
( जारी ... )

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