अब मैं मरती हूँ ...--2
पहले से आगे ..
मुझे ठीक ठीक याद नहीं की कब हममें दोस्तों जैसी बातें होने लगीं . जहाँ तक मैं समझता हूँ की पूरे दफ़्तर मे लोग वहाँ के अपराध संवाददाता से काफ़ी डरते थे और सिर्फ़ मैं और प्रियंका , दो ही ऐसे शख्स थे जिनकी झड़प उसके साथ होती थी और कोई भी उन्नीस रहने के लिए तय्यार नही होता था . शायद यह भी एक कारण रहा हो . मैं अख़बार की सामाजिक-राजनीतिक मेग़ज़ीन का काम करता था और लोग इसे मेरा सौभाग्य कहेंगे लेकिन मैं इसे अपना दुर्भाग्य मानता हूँ की उसमे छपने वाले लेखों को पसंद किया जाता था . मार्केटिंग मे तो ज़रूर ही. मुझे याद आता हैं , हम लोग उस समय 'आत्महत्या' पर काम कर रहे थे और हमारी बहस से रोज़ का अख़बार विचलित ना हो इसलिए बॉस ने हमे अपना केबिन दे दिया थ . वही केबिन , जिससे मार्केटिंग विभाग सटा हुआ था और बीच मे सिर्फ़ एक लकड़ी की दीवार भर थी. उस केबिन मे आत्महत्या पर रोज़ घंटों गरमागरम बहसें होती थी . एक दिन मैं और मेरे बाक़ी साथी तीनो बैठकर अपने विषयों पर क्या लिखा जाए , इसपर बहस कर रहे थे कि केबिन का दरवाज़ा खुला और इस लड़की ने अंदर क़दम रखा . कहने लगी कि उसे हम लोगो का काम अच्छा लगता है और उसका भी मन करता है कि वो भी कुछ लिखे . हम लोगो ने सोचा कि चलो अच्छा हुआ , काम कुछ हल्का हुआ . मुझे ठीक ठीक याद है कि मैने उसे 'किशोरों में बड़ती आत्महत्या' पर लिखने के लिए दिया था . तब उसने पूछा भी था की आत्महत्या करने का कोई आसान तरीक़ा बताओ . मैने कहा की थोड़ी देर मे सोच के बताउंगा . थोड़ी देर बाद जब मैं कुछ चुगने की फ़िराक मे पूड़ी वाली दुकान पर गया तो मुझे उस दुकान पर एक लंबी सी चमकती हुई लाल मिर्च दिखी , मैने कुछ सोचा और उस पुड़ी वाले से वो लाल मिर्च माँग ली . मैं वापस केबिन मे आया और एक काग़ज़ पर लिखा ' आत्महत्या करने का आसान उपाय' और लाल मिर्च उस काग़ज़ मे लपेटी और प्रियंका की टेबल पर ले जाकर रख दी . उसकी एक और साथिन उसके साथ बैठी थी . मुझे याद है की इस बात पर हम इतना हँसे थे इतना हँसे थे की हमारी आँखों मे पानी आ गया था.
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