घोर कलजुग आय गवा है
हिंदू होने के फ़ायदे -६
"राम राम !! घोर कलजुग आय गवा है।" साथ में चल रही भीड़ मे से कहीँ से आवाज़ आयी। वैसे हम लोग उस भीड़ से छुटकारा पा सकते थे लेकिन
उसका सिर्फ एक ही रास्ता था। वह ये कि भीड़ से किनारे की तरफ जाएँ और किनारे किनारे ही उस संकरी गली को पार करें। लेकिन मुसीबत तो ये थी कि किनारों पर सुबह सवेरे काफी सारे मानवीय केक पूरी दुर्गन्ध के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। और हमे भी उन्हें कटने से ज्यादा ठीक काम भीड़ मे ही चलते रहना लग रह था। सो चलते रहे , खिसकते रहे..... एक घंटे तक खिसकने के बाद जाकर कहीँ खुली हवा में सांस लेने को मिली। ये एक मोड़ था और भीड़ मुड़ रही थी। फासले बढते जा रहे थे। उसके बाद एक चढान था और भीड़ चढ़ रही थी। आगे ढलान था और थोड़ी देर ढुलकने के बाद सरयू का पहला घाट आने वाला था। हम सबकी आंखें चमकने लगी। पतारू बोला , 'अबे ! पिछली बार वाला किस्सा भूल गया ? ' मैंने कहा, ' कौन सा वाला ' वह बोला , ' अबे साले वही !! पिछली बार एक लडकी सिर्फ बनियान पहन कर नहा रही थी। और.... बड़ा मजा आया था।' इतना सुनना था कि कल्लू ही ही करके हंसने लगा। मैं भी ही ही करने लगा। फिर पतारू बोला, ' इस बार भी ऐसा ही माल दिख जाये तो भैयिया अपना तो जनम सफल हो जाये।' मैंने कहा, ' हाँ साले !! जनम सफल हो या ना हो , लेकिन तेरा यहाँ आना जरूर सफल हो जाएगा।' खैर, हम लोग पहले घाट पर रुके। इस सीढ़ी से उस सीढ़ी तक चक्कर काटते रहे। लेकिन ज्यादा कुछ दिखा नही वहाँ। एक तो उस घाट पर पानी
कम था दुसरे उसमे काई और गंदगी ज्यादा थी। इसीलिये वहाँ ज्यादा रौनक नही थी। सो हमने समय खराब न करने का बुद्धिमानी भरा निर्णय लिया और आगे चले। अभी इस घाट से नयाघाट तक का रास्ता काटना था और मेन घाट वही था जहाँ सबसे ज्यादा रौनक रहती थी। लेकिन इस घाट से नयाघाट तक का जो रास्ता था , वह मुझे बहुत खराब लगता था। किनारों पर तरह तरह के मेक अप किये हुए भिखारी पडे रहते थे। उनका मेकप बड़ा जानदार रहता था। रहता था क्या, अब भी रहता है। किसी ने अपने पैर कुछ इस तरह सडाये होते हैं जैसे कि अभी मवाद टपक पडेगी। उनके पैरों की पली मवाद और उनके पीछे पड़ा पाखाना , यह सब मिलकर कुछ ऐसा दृश्य बनाते कि पूछो मत। मेरा तो मन खराब हो रहा था लेकिन पतारू उन्हें बडे मजे से देख रहा था।
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(जारी ....)
1 comment:
आपकी दुकान का माल वाकई लाजवाब होता है. मिर्ची निंबू और ऊपर से टाटरी!
भुगतते सब हैं, परंतु ईमान के लेखन का माद्दा किसी बिरले में ही होता है.
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