ललेखक दर्शन-1
कोई भी लेखक हो सकता है। लेखक होने के लिए बस ल पर ए की मात्रा लगाकर ख़ाक में से बड़े आ का डंडा निकाल देना होता है, उसके बाद तो कोई भी लेखक हो सकता है। बल्कि वो सभी लोग लेखक हैं जो ल का प्रयोग करना जानते हैं। ल ही है जो लेखक पैदा करता है, खड़ा करता है, चलाता है और ल ही है जो लेखक को छाप देता है। ल की खोज भी करने की जरूरत नहीं बल्कि अगर इसके नज़रिए से देखा जाए तो ऐसे ऐसे ढंके छुपे लेखक भी सामने आ जाएंगे जिनके बारे में कोई सपने में भी नहीं सोच सकता।
इस तरह से ल खाने वाला, ल देने वाला, ल लेने वाला, ल सोचने वाला, ल पहनने वाला, ल बनाने वाला... सभी लेखक हैं और सभी ल वालों का मूलभूत अधिकार है कि वो लेखक ही बने रहें। जो लोग भी लेखक का विरोध करते हैं, असल में उनका विरोध ल से ही रहता है, ख़ाक को तो वो अपने ख़्यालों से खासा दूर रखते हैं। लेखक का विरोध ल के खिलाफ हो रही साज़िश है। इस साजिश को सभी लेखक ल पर रखते हैं।
ये ल का ही कमाल है कि तमाम आलोचनाएं भी लेखक को क्या मजाल ल बराबर भी हिला पाई हों। ल से लेखक लिख रहा है, ल से लेखक दिख रहा है और वो ल ही है जिससे लेखक बिक भी रहा है। लेखक नहीं होता था तो भी ल होता था, लेखक नहीं भी होगा तो ल होता रहेगा। जो आलोचक ल को नहीं समझ पाए, वही लेखक की आलोचना कर सकते हैं।
जब जब मैं ल पर नज़र डालता हूं, मुझे अपना पूरा शहर लेखक दिखने लगता है। मैं चाहता था कि मैं लिखूं कि पूरा शहर लेखक लिखने लगता है लेकिन शहर के डर से मैं दिखने की ही बात कर रहा हूं। वैसे भी वो लेखक क्या लेखक जो दिखे ही न। ठठरइया से लेकर सआदतगंज तक मुझे लेखकों की भीड़ दिखाई देती है। और तो और, कचेहरी में जज भी मुझे जिस नज़र से देखता है, मुझे उसके लेखक होने में यकीन बढ़ता जाता है।
कभी सोचा है कि दिल्ली में जितने लेखक दिखते हैं, उतने नोएडा, गाजियाबाद या फ़ैज़ाबाद में भी क्यों नहीं दिखते? दरअसल दिल्ली के पास अपने नाम में ही दो-दो ल हैं। हर वो शहर जो अपने नाम में ल लिए होगा, लेखकों से भरपूर होगा, ऐसा मेरा दावा है। ल कितना क्रांतिकारी है, इसका अंदाजा लगाना किसके लिए मुश्किल है?
(जारी)
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