दंगा है इनका हथियार, राज में है मोदी सरकार
महेंद्र मिश्र
क्या कोई शासक अपने राज में अराजकता चाहता है? पहली नजर में इस सवाल का उत्तर न है। लेकिन मोदी साहब दुनिया के शायद पहले शासक होंगे। जो चाहते हैं कि देश अराजकता की आग में डूब जाए। दरअसल इसके पीछे एक दूर की कौड़ी है। दो साल के शासन में क्या कभी वो हिंसक घटनाओं को रोकते हुए दिखे? या फिर उनकी तरफ से उन्हें हल करने का प्रयास दिखा? ज्यादातर घटनाओं पर मोदी जी चुप ही रहे। वह हैदराबाद का मसला हो या कि जेएनयू का। या फिर राष्ट्रवाद के नाम पर देश भर में उपद्रव हो। अखलाक की हत्या हो या मुजफ्फरनगर दंगा। दलित हो या कि जाट आंदोलन। इन्हें हल करने की पहल तो दूर उन्होंने अपना मुंह खोलना भी जरूरी नहीं समझा। दबाव में बयान जरूर आए, लेकिन वो बयान तक ही सीमित रहे। कार्रवाई में तब्दील नहीं हो सके। कश्मीर मसले पर सर्वदलीय बैठक तक कागजी साबित हुई। और अभी भी वहां हिंसा जारी है। वजीरे आजम को न घाटी की फिक्र है न उसके लोगों की। इस बीच उन्होंने बलूचिस्तान का एक नया राग शुरू कर दिया है। इन दो सालों के दौरान संघ के आनुषंगिक संगठन वीएचपी हो या कि विद्यार्थी परिषद। गाय से लेकर राष्ट्रवाद के मुद्दे पर सड़कों को रौंदते रहे। यह पहला शासक दल होगा जिसके संगठन खुद ही कानून और व्यवस्था को बिगाड़ने में लगे हुए हैं।
दरअसल मोदी जी के सामने 2019 के आम चुनावों की वैतरणी के तीन पतवार थे। विकास, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद। गुजरात के इस लौह पुरुष को विकास के मुद्दे की सीमाएं पता हैं। इसमें कारपोरेट का मुनाफा केंद्र में होता है और लोग हाशिए पर। इससे अमीरों की तिजोरी भले वजनी हो जाए। लेकिन जनता के अच्छे दिन आने से रहे। लिहाजा इसके नाम पर वोट पाना टेढ़ी खीर है। मोदी जी ने भी इसे अब जुमलेबाजी के खाते में डाल दिया है। इस कड़ी में सांप्रदायिकता के तावे पर पकी वोट की रोटी सबसे ठोस है। आजमाया हथियार है। इसलिए पार्टी-संगठन को इस पर पुराना विश्वास भी है। इसी भरोसे के साथ पार्टी और संगठन ने उस पर काम करना शुरू कर दिया। सांप्रदायिकता की गाड़ी रफ्तार से दौड़े उसके लिए कभी गाय तो कभी समान आचार संहिता के ईंधन का इस्तेमाल किया गया। गाय का दांव उल्टा पड़ते देख। मोदी जी इसी पेड़ की दूसरी डाल पर कूद गए हैं। लाल किले से उन्हें बलूचिस्तान में अपने प्रशंसक दिखने लगे। बलूचिस्तान का यह बम उनकी दूरगामी रणनीति का हिस्सा है। इसमें पाकिस्तान, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद तीनों शामिल हैं। मोदी साहब को इसमें बड़ा फायदा दिख रहा है। इसके साथ ही इस बात की संभावना बढ़ती जा रही है कि 2019 के चुनाव में मोदी जी सांप्रदायिकता के घोड़े की सवारी करेंगे। लिहाजा भविष्य में बड़े पैमाने पर दंगे हों और पाक से युद्धोन्माद का माहौल बने। तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। इसकी तार्किक परिणति सांप्रदायिक उन्माद और भीषण अराजकता है। इन सारी कोशिशों के बाद भी अगर सत्ता हाथ आती नहीं दिखती। तो मोदी जी के सामने इमरजेंसी का विकल्प खुला हुआ होगा। अराजकता से निपटने के नाम पर इसे लागू करना भी आसान हो जाएगा।
सत्ता में आने के साथ ही मोदी जी ने इसका अहसास भी कराना शुरू कर दिया था। संसदीय प्रणाली के ढांचे में राष्ट्रपति प्रणाली पर काम उसी की अग्रगति है। अनायास नहीं मंत्रालयों की भूमिका गौण कर शासन की कमान पीएमओ ने ले ली। संस्थाओं का वजूद ही अपने आप में एकाधिकारवाद विरोधी होता है। एकछत्र शासन की राह में सबसे बड़ी रोड़ा हैं। लिहाजा उनका खात्मा जरूरी है। मोदी जी उसी काम में जुट गए हैं। योजना आयोग का खात्मा हो या एफटीआईआई को डिजिटल संस्थान में बदलने का प्रस्ताव। नेहरू मेमोरियल से लेकर इंदिरा गांधी कला केंद्र तक यही हाल है। तमाम शैक्षणिक संस्थाओं में तब्दीली इसी का हिस्सा है। न्यायिक संस्थाओं तक को बगलगीर बनाने की हर संभव कोशिश की जा रही है। चीफ जस्टिस की बेबसी और गुस्से से भला कौन नहीं परिचित है। देश के सारे चुनावों को एक साथ कराने का पीएमओ का प्रस्ताव इसी का हिस्सा है। चुनाव आयोग उस पर विचार भी कर रहा है। इस कड़ी में या तो संस्थाएं खत्म कर दी जाएंगी। या फिर उन्हें कमजोर कर दिया जाएगा। या उनकी कमान सत्ता के इशारे पर नाचने वाले शख्स को दे दी जाएगी। अनायास नहीं संस्थाओं के शीर्ष पर खोज-खोज कर संघियों को बैठाया जा रहा है। इसके साथ ही संस्थाओं को तानाशाही ढांचे के मातहत काम करने का अभ्यस्त बना दिया जाएगा।
प्रधानमंत्री द्वारा बात-बात में बोला जाने वाला झूठ भी लगता है किसी एक रणनीति का हिस्सा है। दरअसल सांप्रदायीकरण की प्रक्रिया में एक हिस्सा पार्टी का आधार बन जाएगा। लिहाजा उसके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। मोदी झूठ बोलें या कि सच किसी भक्त पर भला क्या फर्क पड़ेगा? बाकी बचे विरोधी तो उनके गुस्से और विरोध से उपजा आंदोलन इनके लिए मददगार ही साबित होगा। जिसे अराजकता करार देकर सरकार को उसे दबाने का मौका मिल जाएगा। जिस मौके का मोदी जी को इंतजार है।
क्या कोई शासक अपने राज में अराजकता चाहता है? पहली नजर में इस सवाल का उत्तर न है। लेकिन मोदी साहब दुनिया के शायद पहले शासक होंगे। जो चाहते हैं कि देश अराजकता की आग में डूब जाए। दरअसल इसके पीछे एक दूर की कौड़ी है। दो साल के शासन में क्या कभी वो हिंसक घटनाओं को रोकते हुए दिखे? या फिर उनकी तरफ से उन्हें हल करने का प्रयास दिखा? ज्यादातर घटनाओं पर मोदी जी चुप ही रहे। वह हैदराबाद का मसला हो या कि जेएनयू का। या फिर राष्ट्रवाद के नाम पर देश भर में उपद्रव हो। अखलाक की हत्या हो या मुजफ्फरनगर दंगा। दलित हो या कि जाट आंदोलन। इन्हें हल करने की पहल तो दूर उन्होंने अपना मुंह खोलना भी जरूरी नहीं समझा। दबाव में बयान जरूर आए, लेकिन वो बयान तक ही सीमित रहे। कार्रवाई में तब्दील नहीं हो सके। कश्मीर मसले पर सर्वदलीय बैठक तक कागजी साबित हुई। और अभी भी वहां हिंसा जारी है। वजीरे आजम को न घाटी की फिक्र है न उसके लोगों की। इस बीच उन्होंने बलूचिस्तान का एक नया राग शुरू कर दिया है। इन दो सालों के दौरान संघ के आनुषंगिक संगठन वीएचपी हो या कि विद्यार्थी परिषद। गाय से लेकर राष्ट्रवाद के मुद्दे पर सड़कों को रौंदते रहे। यह पहला शासक दल होगा जिसके संगठन खुद ही कानून और व्यवस्था को बिगाड़ने में लगे हुए हैं।
दरअसल मोदी जी के सामने 2019 के आम चुनावों की वैतरणी के तीन पतवार थे। विकास, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद। गुजरात के इस लौह पुरुष को विकास के मुद्दे की सीमाएं पता हैं। इसमें कारपोरेट का मुनाफा केंद्र में होता है और लोग हाशिए पर। इससे अमीरों की तिजोरी भले वजनी हो जाए। लेकिन जनता के अच्छे दिन आने से रहे। लिहाजा इसके नाम पर वोट पाना टेढ़ी खीर है। मोदी जी ने भी इसे अब जुमलेबाजी के खाते में डाल दिया है। इस कड़ी में सांप्रदायिकता के तावे पर पकी वोट की रोटी सबसे ठोस है। आजमाया हथियार है। इसलिए पार्टी-संगठन को इस पर पुराना विश्वास भी है। इसी भरोसे के साथ पार्टी और संगठन ने उस पर काम करना शुरू कर दिया। सांप्रदायिकता की गाड़ी रफ्तार से दौड़े उसके लिए कभी गाय तो कभी समान आचार संहिता के ईंधन का इस्तेमाल किया गया। गाय का दांव उल्टा पड़ते देख। मोदी जी इसी पेड़ की दूसरी डाल पर कूद गए हैं। लाल किले से उन्हें बलूचिस्तान में अपने प्रशंसक दिखने लगे। बलूचिस्तान का यह बम उनकी दूरगामी रणनीति का हिस्सा है। इसमें पाकिस्तान, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद तीनों शामिल हैं। मोदी साहब को इसमें बड़ा फायदा दिख रहा है। इसके साथ ही इस बात की संभावना बढ़ती जा रही है कि 2019 के चुनाव में मोदी जी सांप्रदायिकता के घोड़े की सवारी करेंगे। लिहाजा भविष्य में बड़े पैमाने पर दंगे हों और पाक से युद्धोन्माद का माहौल बने। तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। इसकी तार्किक परिणति सांप्रदायिक उन्माद और भीषण अराजकता है। इन सारी कोशिशों के बाद भी अगर सत्ता हाथ आती नहीं दिखती। तो मोदी जी के सामने इमरजेंसी का विकल्प खुला हुआ होगा। अराजकता से निपटने के नाम पर इसे लागू करना भी आसान हो जाएगा।
सत्ता में आने के साथ ही मोदी जी ने इसका अहसास भी कराना शुरू कर दिया था। संसदीय प्रणाली के ढांचे में राष्ट्रपति प्रणाली पर काम उसी की अग्रगति है। अनायास नहीं मंत्रालयों की भूमिका गौण कर शासन की कमान पीएमओ ने ले ली। संस्थाओं का वजूद ही अपने आप में एकाधिकारवाद विरोधी होता है। एकछत्र शासन की राह में सबसे बड़ी रोड़ा हैं। लिहाजा उनका खात्मा जरूरी है। मोदी जी उसी काम में जुट गए हैं। योजना आयोग का खात्मा हो या एफटीआईआई को डिजिटल संस्थान में बदलने का प्रस्ताव। नेहरू मेमोरियल से लेकर इंदिरा गांधी कला केंद्र तक यही हाल है। तमाम शैक्षणिक संस्थाओं में तब्दीली इसी का हिस्सा है। न्यायिक संस्थाओं तक को बगलगीर बनाने की हर संभव कोशिश की जा रही है। चीफ जस्टिस की बेबसी और गुस्से से भला कौन नहीं परिचित है। देश के सारे चुनावों को एक साथ कराने का पीएमओ का प्रस्ताव इसी का हिस्सा है। चुनाव आयोग उस पर विचार भी कर रहा है। इस कड़ी में या तो संस्थाएं खत्म कर दी जाएंगी। या फिर उन्हें कमजोर कर दिया जाएगा। या उनकी कमान सत्ता के इशारे पर नाचने वाले शख्स को दे दी जाएगी। अनायास नहीं संस्थाओं के शीर्ष पर खोज-खोज कर संघियों को बैठाया जा रहा है। इसके साथ ही संस्थाओं को तानाशाही ढांचे के मातहत काम करने का अभ्यस्त बना दिया जाएगा।
प्रधानमंत्री द्वारा बात-बात में बोला जाने वाला झूठ भी लगता है किसी एक रणनीति का हिस्सा है। दरअसल सांप्रदायीकरण की प्रक्रिया में एक हिस्सा पार्टी का आधार बन जाएगा। लिहाजा उसके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। मोदी झूठ बोलें या कि सच किसी भक्त पर भला क्या फर्क पड़ेगा? बाकी बचे विरोधी तो उनके गुस्से और विरोध से उपजा आंदोलन इनके लिए मददगार ही साबित होगा। जिसे अराजकता करार देकर सरकार को उसे दबाने का मौका मिल जाएगा। जिस मौके का मोदी जी को इंतजार है।
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