मिलेगा तो देखेंगे- 11
आदमी कुछ इधर से जोड़ लेता था तो कुछ थोड़ी दूर जाकर उधर से जोड़ लेता था। दमित इच्छाओं और अवश्यंभावी आकांक्षाओं के दोहरे बोझ पर दो जोड़ों का बोझ था कि लगातार उसकी कमर की हड्डियों में वो विचलन अनचाही चिलकन के साथ कुछ यूं उभारता था, आदमी सब जोड़ा हुआ तोड़कर चिंदी-चिंदी बिखेर देता था। कुछ था, कहीं कुछ जरूर था जो टूटने को तैयार नहीं था, जो फूटने को और फूटकर बहने को भी तैयार नहीं होता था। आदमी सवार था रेत के उस वक्ती घोड़े पर जो अपनी पहली हिनहिनाहट पर ही बिखर जाने का आदती और किस्मती, दोनों ही था। हाथ में दबी पेन हो या कान में लगा हेडफोन या फिर एक पैर का सही सलामत बच गया जूता, सबके मुंह निकल आए थे, जीभ और दांत भी। आदमी डरता था, फिर भी इनके साथ ही रहता था, फिर डरता था और फिर साथ रहता था। अंदर के तय बेकार के समय में वो न तो फिसलता था, न घिसटता था, बस उन सबको अपने आसपास बिखेरकर यूं ही खिड़की से झांका करता, झांका करता कि शायद वो बंद खिड़की कभी खुल जाए और उसके वो अरमान पूरी तरह से पूरे हो जाएं जो बंद खिड़की को देख देख उसने मजबूरी में अधूरे छोड़ दिए या अधूरे छोड़ने को मजबूर कर दिया गया। ये कोई सवाल नहीं कि क्यों मजबूर कर दिया गया और ये कोई जवाब भी नहीं कि मजबूर कर दिया गया। बंद खिड़की बड़ी हद सवाल ही पैदा कर सकती है, जवाब तो नहीं ही दे सकती। खिड़की बंद है। आदमी भी और संगीत तो पूरी तरह से।
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