सब ठीकी ठैरा डाक साब- 2
कमीशन ही ईमानदारी है। कमीशन से जो धन आता है, वह सफेद धन होता है। मोटा कमीशन काटकर अगर अमेरिका की बदनाम गलियों में घूमा जाए तो वो गंगासागर स्नान होता है। हमारे डॉक्टर हमारे देवता हैं! वो साल में कम से कम दो बार गंगासागर स्नान करके आते हैं। उनके हाथ पवित्र हैं क्योंकि वो कमीशन से रंगे हैं! बाकी कोई पागल डॉ. सैबाल अगर मजदूरों और गांव वालों के चंदे से पिछले 35 साल से उनकी सेवा कर रहा हो तो वो नक्सली है। वो नक्सली इसलिए भी है क्योंकि वो महात्मा गांधी को मानता है। वैसे हमारे कमीशन वाले डॉक्टर साहब भी महात्मा गांधी को ही मानते हैं। आज देश में दो तरह के महात्मा हैं। दो गांधी हैं। आप मानिए न मानिए, सत्ता और उसके सहयोगी तो यही मानते हैं।
खैर, लंतरानी के लिए माफी। मिलिए डॉ. अशोक राज गोपाल से। कई राष्ट्रपतियों की बूढ़ी हड्डियां खटखटा चुके हैं। ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, चीन, स्पेन.. कहां कहां नहीं जाकर ये डाक साब ऑपरेशन करके आते हैं। इनका पूरा रेकॉर्ड चेक किया, क्या मजाल जिंदगी में कभी बस्तर जैसी किसी जगह किसी की टूटी उंगली भी ठीक करने गए हों। बस्तर तो दूर, दिल्ली में ही इतने आंदोलनों में लोगों की हड्डियां तोड़ गईं, क्या मजाल डाक साब सामने आए हों। अण्णा वाले में तो त्रेहन कूदकर आ गए थे क्योंकि मामला टीवी का था। वैसे असल मामला तो इनकम टैक्स वालों को भी नहीं पता चल सकता क्योंकि कूदफांद बाहर की है, लेकिन इन्हीं के साथ काम करने वाले डॉक्टरों का मानना है कि ये रोजाना कम से कम सवा से डेढ़ लाख रुपये कमाते हैं।
बंगलुरू वाले डॉ. एमजी भट की बात सुन लीजिए। चार टांके के 50 हजार रुपये लेने वाले इन सज्जन का कहना है कि रुपये के पीछे नहीं भागते। दस मिनट बाद एक आंख दबाके कहते हैं कि अय्याशी बिना जीना भी क्या जीना!! साल में कम से कम चार बार ''अपने पैसे'' से विदेश घूमकर आते हैं, लेकिन क्या मजाल अपने ही शहर के अगल बगल जाकर आदिवासियों का हाल पूछ लें। वहां वो अय्याशी कहां डाक साब जो एम्सटर्डम के डे वालेन में मिलती है। वहां तो कोई पागल डॉ. सैबाल जाना जाने क्यों खट रहा होता है, जिसे ठीक-ठीक खाने को भी नहीं मिलता।
खैर, लंतरानी के लिए माफी। मिलिए डॉ. अशोक राज गोपाल से। कई राष्ट्रपतियों की बूढ़ी हड्डियां खटखटा चुके हैं। ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, चीन, स्पेन.. कहां कहां नहीं जाकर ये डाक साब ऑपरेशन करके आते हैं। इनका पूरा रेकॉर्ड चेक किया, क्या मजाल जिंदगी में कभी बस्तर जैसी किसी जगह किसी की टूटी उंगली भी ठीक करने गए हों। बस्तर तो दूर, दिल्ली में ही इतने आंदोलनों में लोगों की हड्डियां तोड़ गईं, क्या मजाल डाक साब सामने आए हों। अण्णा वाले में तो त्रेहन कूदकर आ गए थे क्योंकि मामला टीवी का था। वैसे असल मामला तो इनकम टैक्स वालों को भी नहीं पता चल सकता क्योंकि कूदफांद बाहर की है, लेकिन इन्हीं के साथ काम करने वाले डॉक्टरों का मानना है कि ये रोजाना कम से कम सवा से डेढ़ लाख रुपये कमाते हैं।
बंगलुरू वाले डॉ. एमजी भट की बात सुन लीजिए। चार टांके के 50 हजार रुपये लेने वाले इन सज्जन का कहना है कि रुपये के पीछे नहीं भागते। दस मिनट बाद एक आंख दबाके कहते हैं कि अय्याशी बिना जीना भी क्या जीना!! साल में कम से कम चार बार ''अपने पैसे'' से विदेश घूमकर आते हैं, लेकिन क्या मजाल अपने ही शहर के अगल बगल जाकर आदिवासियों का हाल पूछ लें। वहां वो अय्याशी कहां डाक साब जो एम्सटर्डम के डे वालेन में मिलती है। वहां तो कोई पागल डॉ. सैबाल जाना जाने क्यों खट रहा होता है, जिसे ठीक-ठीक खाने को भी नहीं मिलता।
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