आज मे बीतता हुआ कल- प्रभाष जोशी
उन्हें युगपुरुष कहना कोई अतिशयोक्ति नही होगी। एक बार उन्होंने ही कहा था कि अखबार कल का इतिहास बनाता है। बीते हुए कल का। उनकी ये बात कोई नई नही है। अखबार का चरित्र ही कुछ ऐसा है। लेकिन अखबार का एक और चरित्र होता है। एक अनोखा रूप, रंग, भाषा, संवाद शैली और निष्पक्षता। ये अखबार का सम्पादक बनाता है। ये काम प्रभाष जी ने किया और क्या खूब किया। उन्होंने नई दुनिया मे काम किया, मध्य प्रदेश के एक और अखबार मे काम किया लेकिन उनकी सारी यादें जनसत्ता मे ही सिमट कर रह जाती है। जनसत्ता से इतर जो यादे हैं, वो एक ऐसे अभिवावक की, जिसपर भरोसा रहा, हमेशा भरोसा रहा कि जब भी किसी पत्रकार के साथ कुछ हुआ या होगा, वो साथ रहेंगे। शारीरिक रूप से नही तो कलम से, माइक से या किसी भी तरह से। उनके रहने से डर नही लगता था। उनके चले जाने के बाद अब यह डर एक आत्मविश्वास मे बदलने लगा है कि वो ऐसा कर सकते थे तो हम क्यों नही। लेकिन ये आत्मविश्वास भी बगैर उनके खोखला है, सूना है। वो कल थे जो हमेशा आज के साथ बीतते थे। आने वाले कल मे भी उनका ही साया रहता था और साथ मे इंतज़ार- कि कल क्या होगा। पिछले दस से ज्यादा सालों मे, जबसे मैंने उन्हें पढ़ना-गुनना शुरू किया, हमेशा मन मे यही उत्कंठा रहती थी, न जाने कब मैं इस शख्स से मिल पाउँगा। उनके घर के इतने पास रहते हुए भी मैं कभी मिलने नही जा पाया। और शायद यही कारण है कि उनकी मौत की ख़बर सुनकर भी मैं जान बूझकर उनके घर नही गया। मुझसे ये सबकुछ बिल्कुल भी बर्दाश्त नही हो रहा था। क्योंकि ख़ुद उनका कहा आज बेमानी साबित हो रहा है। उनकी मौत पूरी तरह से बेमानी है। जो नही होनी चाहिए थी। लेकिन मौत को जस्टिफाई नही किया जा सकता। ये बात मैं जानता हूँ। फ़िर ये मन मानने को तैयार क्यों नही होता कि वो आज बीते हुए कल हो गए हैं। नही.....ऐसा नही हो सकता। गुरूजी हमेशा हैं और रहेंगे। जैसे पिछले दस सालों से मेरे साथ हैं, वैसे ही आगे भी रहेंगे.....
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