लड़की से मेरा नैतिक-अनैतिक किसी तरह का संबंध!
मैं सुखी हूं। बस रोज नाश्ते के वक्त मोहनजोदड़ो के वक्त का फ्रिज खोलकर उसमें अनंत को देखते हुए पाता हूं कि कल फिर अंडा लाना भूल गया। तले गए तेल की तरह खुद खराब करता हुआ किसी तरह से मैं उसका दरवाजा ओटगा देता हूं कि पता चलता है कि धुंआ धुंआ से छाए लोग ऐवें ही धुंआ हो लेते हैं। दिमाग़ ठीक है, नींद आती है। सोने से जगाने और सहलाने के लिए एक ठो बिलार भी मिली हुई है। आह मिस्टर सींग पिरोकर मारने वाले मिस्टर मोद (ओद भी), आप सुन रहे हैं ना मेरे सुख की पराकाष्ठा। प्लीज कोई संधि और विच्छेद न करिएगा।
वापसी का कोई संकट किसी भी विकट व अकट रूप में मेरे सामने नहीं है क्योंकि अम्मा पहिले ही बोल दी हैं कि बच्चा फैइजाबाद न आना, आना हो तो कहीं और जाना। मनोरमा मउसी उसमें और धार लगाईं कि बच्चा, जहां हो, वहां से भी दस सौ मील दूर चले जाना। तुम्हरी परछांई में भी ऊ सहर नहीं नजर आना चहिए। इसका बावजूद मेरे जैइसा माथे से पैदल और दिल से कंगाल आदमी फिर औ फिर फिर से हर दुसरके महीना चहुंप जाता है फैइजाबाद। डेटिंग पे।
सोचता हूं तो लगता है सब गजबे है। शशिभूषण जैसे प्रतिभाशाली मेरे मित्र हैं जो कभी तीन में उलट जाते हैं तो कभी तेरह में उलझे बलझे रंजनाए पंड़ियाए रहते हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि बाकायदा भारतवासी को पैइसा देके मेरे अशुभ दिनों की अनंत गाथाओं की पराधुनिक डायरी छपवानी चाहिए। ऐसी डायरी, जिसमें मैं महिलाओं से पूछ पूछ कर लिखूं कि जब वो कुछ नहीं कर्र रही होती हैं तो क्या कर्र रही होती हैं..
मेरे दस सुलगते हुए साल जिसका निर्मल वर्मा के गद्य से कुछ लेना देना नहीं है, सवाल भी होते तो क्या कर लेते। निर्मल वर्मा कौन मुझसे मत पूछिए। मैं जेएनयू में नहीं पढ़ा हूं नहीं तो पंजाबी बोलने वाली किसी लड़की से मेरा नैतिक-अनैतिक किसी तरह का संबंध होता।
ज्यादातर लोग मुझे अलकतरे का पिछवाड़ा मानते दिखाते रहते हैं... मुझे लगता है कि वो हांफते नहीं होंगे।
नीलाभ ने तो कह दिया था, 'अरे चूतिए से बात करनी पड़ेगी'। पंकज हमेशा बात न करने की शिकायत किया करते थे।
सिकायत फिकायत से बस सब पता चलता रहता है। राम जी के रोटी वाले आलू मोहारे के पूरब वाले चबूतरा पे चढ़के कहते हैं कि दस का बड़का वाला गद्य इन्भेन्ट कर के ओस्को पतनसील किम्बा दुर्दिन में खामोसी नाम दिया तो अच्छे किया. अइसा बिधा के ई बिधायक लोग हत्ना ओपकार किया है कि पाखियो में गर्दावाला साहित्त को बिस्वास मूलक छाती का मक्खन लगाने लगा. हम तो बूझे कवनो तो अपना बाती में फैजाबादी अंजाद मारेगा, बलकू देख देख कर रहिये ओझिरा गया. एक लम्बर का इमन्दार भी ई नहीं बोला कि मंगरू मंडी हाउस पे झगेरू का बाहीं उमिठा के मारा तो झगेरू बीमारो थे। जब ज्योनानन्द मर के चल गयले त ओनके बारे में झुट्ठे बतकुच्चन का सागर फैलाया ऊपर से ईहो बोल दिया कि बसेसर बाबू हमारा हतना कर्जा खाके चम्पती हो गया। मरला क बाद सबका मुंह में अपना बात घुसाया, मेहरारू क बात किया अउर भ्रान्ती क लापटे झासख़ास सिया वररामचननर किजै।
(मेरे अशुभ दिनों की अनंत गाथाओं की पराधुनिक डायरी-3)
वापसी का कोई संकट किसी भी विकट व अकट रूप में मेरे सामने नहीं है क्योंकि अम्मा पहिले ही बोल दी हैं कि बच्चा फैइजाबाद न आना, आना हो तो कहीं और जाना। मनोरमा मउसी उसमें और धार लगाईं कि बच्चा, जहां हो, वहां से भी दस सौ मील दूर चले जाना। तुम्हरी परछांई में भी ऊ सहर नहीं नजर आना चहिए। इसका बावजूद मेरे जैइसा माथे से पैदल और दिल से कंगाल आदमी फिर औ फिर फिर से हर दुसरके महीना चहुंप जाता है फैइजाबाद। डेटिंग पे।
सोचता हूं तो लगता है सब गजबे है। शशिभूषण जैसे प्रतिभाशाली मेरे मित्र हैं जो कभी तीन में उलट जाते हैं तो कभी तेरह में उलझे बलझे रंजनाए पंड़ियाए रहते हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि बाकायदा भारतवासी को पैइसा देके मेरे अशुभ दिनों की अनंत गाथाओं की पराधुनिक डायरी छपवानी चाहिए। ऐसी डायरी, जिसमें मैं महिलाओं से पूछ पूछ कर लिखूं कि जब वो कुछ नहीं कर्र रही होती हैं तो क्या कर्र रही होती हैं..
मेरे दस सुलगते हुए साल जिसका निर्मल वर्मा के गद्य से कुछ लेना देना नहीं है, सवाल भी होते तो क्या कर लेते। निर्मल वर्मा कौन मुझसे मत पूछिए। मैं जेएनयू में नहीं पढ़ा हूं नहीं तो पंजाबी बोलने वाली किसी लड़की से मेरा नैतिक-अनैतिक किसी तरह का संबंध होता।
ज्यादातर लोग मुझे अलकतरे का पिछवाड़ा मानते दिखाते रहते हैं... मुझे लगता है कि वो हांफते नहीं होंगे।
नीलाभ ने तो कह दिया था, 'अरे चूतिए से बात करनी पड़ेगी'। पंकज हमेशा बात न करने की शिकायत किया करते थे।
सिकायत फिकायत से बस सब पता चलता रहता है। राम जी के रोटी वाले आलू मोहारे के पूरब वाले चबूतरा पे चढ़के कहते हैं कि दस का बड़का वाला गद्य इन्भेन्ट कर के ओस्को पतनसील किम्बा दुर्दिन में खामोसी नाम दिया तो अच्छे किया. अइसा बिधा के ई बिधायक लोग हत्ना ओपकार किया है कि पाखियो में गर्दावाला साहित्त को बिस्वास मूलक छाती का मक्खन लगाने लगा. हम तो बूझे कवनो तो अपना बाती में फैजाबादी अंजाद मारेगा, बलकू देख देख कर रहिये ओझिरा गया. एक लम्बर का इमन्दार भी ई नहीं बोला कि मंगरू मंडी हाउस पे झगेरू का बाहीं उमिठा के मारा तो झगेरू बीमारो थे। जब ज्योनानन्द मर के चल गयले त ओनके बारे में झुट्ठे बतकुच्चन का सागर फैलाया ऊपर से ईहो बोल दिया कि बसेसर बाबू हमारा हतना कर्जा खाके चम्पती हो गया। मरला क बाद सबका मुंह में अपना बात घुसाया, मेहरारू क बात किया अउर भ्रान्ती क लापटे झासख़ास सिया वररामचननर किजै।
(मेरे अशुभ दिनों की अनंत गाथाओं की पराधुनिक डायरी-3)
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